अगस्त 31, 2017

क्या नहीं किया , क्यों नहीं किया ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

  क्या नहीं किया , क्यों नहीं किया ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

           बस यही ज़रूरी था , जो करना चाहिए था किया नहीं , जो नहीं करना था वो सब किया। अब समझाते हैं क्या क्यों नहीं किया और नहीं कर के क्या कर दिया। जो करना था अगर करते तो क्या क्या हो सकता था , नहीं किया तभी तो जो जो हो सकता था नहीं हुआ। जो हुआ सो हुआ उसको छोड़ो क्योंकि जब जब जो जो होना है तब तब सो सो होता है। इतिहास गवाह है बहुत लोग यही कर कर महान हो गए कि उन्होंने कुछ भी नहीं किया। खामोश तमाशाई बन सब देखते रहे बस अपनी कुर्सी से नज़र नहीं हटाई। हमने भी वही किया कुछ भी नहीं किया , अब कहानियां बनाकर सुना रहे हैं कि अगर कुछ करते तो अनर्थ हो सकता था। दरिया में कश्ती डूब सकती थी , हम तैरना जानते हैं मगर हौसला नहीं किया पार करने का। तभी तो सुरक्षित हैं , जान बची तो लाखों पाए। अब सब को यकीन दिला देंगे कि हमने कुछ नहीं करके कितना बड़ा काम किया है। जो लोग शादी नहीं करते वो बहुत बड़ा काम करते हैं , देश की जनसंख्या बढ़ाने में उनका कोई दोष नहीं होता है। और उन को कोई तलाक तलाक तलाक सौ बार बोलकर भी तलाक दे नहीं सकता न ही उन पर तलाक देने का आरोप ही लगता है। तभी कुछ समझदार शादी करने की भूल को सुधार पत्नी या पति को छोड़ चले जाते मगर तलाक नहीं देते , इस में उस की भलाई होती है जिसे छोड़ रहे , कोई और उसको फरेब नहीं दे सकता है। तलाक नहीं देना भी इक मिसाल है , निभाना ही ज़रूरी नहीं है। 
 
           सरकार चाहती तो सब कर सकती थी , मगर नहीं करने से कोई ये साबित नहीं कर सकता कि सरकार थी ही नहीं। होकर भी नहीं होना कोई छोटी बात नहीं है। अभी और बहुत कुछ करना है हमें अपनी सत्ता को और मज़बूत करना है इसलिए कोई खतरा मोल नहीं लेना है। इधर टीवी वाले डोकलान पर ड्रैगन को सबक सिखाने की बात कर रहे हैं। ये सत्ता धारी शायद भूल गए कभी अपना पूरा कश्मीर छुड़ाने की बात कहते थे। अब गले लगाने की बात होने लगी है 56 इंच का सीना जनता को दिखाने को था। बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की बात करने वाले बेटियों की आबरू तार तार करने के आरोपी के दरवाज़े पर वोटों की भीख मांगते हैं , उसको जाकर लाखों रूपये उस राशि में से दान में देते हैं जो गरीबों की भलाई करने को मिलते हैं। देश ही में इक मुजरिम को अदालत में ले जाने में पसीने छूट जाते हैं , उसकी ताकत के सामने घुटने टेक देती है ईमानदार सरकार की दिनों की गिनती। क्या ऐसे साहसी लोग कश्मीर को आज़ाद कराएंगे। बड़ा शोर है बेनामी संम्पति वालों से हिसाब लेने का , अब इक डेरे से हिसाब मांगने को आओ सामने , तब पता चलेगा कितनी संम्पति ऐसे ही कुछ लोगों ने , नेताओं ने अपराधियों ने काला धन वाले उद्योगपतियों ने जमा की हुई है। मगर आप तो उनसे कर तक नहीं लेते। किसी शायर का शेर है " गरीब लहरों पर बिठाये जाते हैं पहरे , समंदरों की तलाशी कोई नहीं लेता "।

              गलती हमारी है जो नेता , ढोंगी लोगों क्या अभिनेता तक को भगवान या मसीहा समझने लगते हैं और फिर उनके खिलाफ कोई बात सुनना ही नहीं चाहते।  उनके बड़े से बड़े जुर्म को अनदेखा करते हैं। देश की व्यवस्था प्रशासन सरकार कुछ भी नहीं करती न करना चाहती है आम नागरिक को न्याय या जीने के अधिकार देने को। ऐसे में कोई अपने दम पर लड़ता है जान पर खेलकर और इत्तेफाक से कोई अधिकारी साहस करता है ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाने को , राजनेता तब कोशिश करते हैं उसको रोकने की , फिर भी वो ठान लेता है पीड़ित को न्याय दिलवाना है और कोई अदालत भी न्याय करती है तब भी सरकार नेता शर्मसार नहीं होते अपराधियों को सरक्षण देने और उनसे सहयोग मांगने के देश विरोधी काम करने पर। स्वच्छता की बात की जाये , आप तो सब खुद को धार्मिक मानते हैं , नहाये धोये क्या हुआ जो मन का मैल न जाये , मछली सदा जल में रहे धोये बास न जाये। आपका स्वच्छता अभियान कितना पावन है , बताने की ज़रूरत नहीं है। गंगा की सफाई से क्या होगा जब अपराधी पापी आपके साथ होते जा रहे हैं , पहले ही क्या कम थे दल में जो अब बाकी दलों से भी दाग़ी बुला रहे हैं। यही सत्ता की राजनीति अगर देशभक्ति है तो ऐसी देशभक्ति का क्या करें। झूठ की बुनियाद पर ईमानदारी का महल खड़ा नहीं होता , आपकी कथनी और करनी में विरोधाभास साफ है।

           ईमानदारी अपनी सफलता विफलता को स्वीकार करती है , नाकामी को भी कामयाबी साबित करना बेईमानी है। जब जाग जाओ तभी सवेरा है कहते हैं , बहुत बेखुदी में रह लिया अब तो जागो। अपने बंद कमरों की खिड़कियों दरवाज़ों को खोलो और देखो बाहर की असलियत आपके दावों से उल्ट है। अंधेरों का कारोबार बहुत हुआ , रौशनी को कैद कब तलक करोगे। सत्ता की हवेली की दिवारों में बहुत दरारें हैं जो आपके चिपकाये इश्तिहारों से भी बंद हुई नहीं हैं , आपके भीतर का बहुत कुछ दिखाई देने लगा है। भले तुलसी दास बता गये हों , समरथ को नहीं दोष गुसाईं , समय बदल चुका है और अब शासक राजा नहीं सेवक होता है। यही भरम आपको समझना है , दाता नहीं हैं आप और जनता भिखारी नहीं है। 
 

 


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