मई 11, 2025

POST : 1963 हम सब कठपुतलियां हैं ( भली लगे या लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया

  हम सब कठपुतलियां हैं ( भली लगे या लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया 

आनंद फिल्म का डायलॉग हमारी हक़ीक़त है , अंतर इतना है कि ऊपरवाला कोई ईश्वर नहीं है यहीं इसी धरती पर बैठा कोई इंसान है । जैसे रमोट कंट्रोल से यंत्र को जब चाहे शुरू या बंद किया जा सकता है हम लोग चलते फिरते प्राणी लगते हैं लेकिन हमारे बस में कुछ भी नहीं है कभी कोई कभी कोई हमको अपनी उंगलियों पर नचाता है । इक और फ़िल्मी डायलॉग है कठपुतली करे भी तो क्या डोर किसी और के हाथ है नाचना तो पड़ेगा  सिम्मी ग्रेवाल कहती है । ये विवशता किसी को खुद समर्पण करना आशिक़ी और प्रेम में होना अलग बात है लेकिन जब ज़िंदा समाज मज़बूर हो जाए बेजान वस्तु की तरह तब इंसान और खिलौने में कोई फर्क नहीं रहता है । कमाल की बात ये है कि हमको खबर तक नहीं कि कौन हमसे खेलने लगा है खिलौना बना कर । घर परिवार समाज से लेकर करोड़ों की आबादी वाले देश तक खुद अपनी पहचान अपना अस्तित्व भुलाकर जाने कैसे कितने लोगों की मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी अपनी जीवनशैली को बदलते ही नहीं छोड़ देते हैं । नाच मेरी बुलबुल कि पैसा मिलेगा , पैसा दौलत ताकत ही नहीं धर्म राजनीति से कितना कुछ है जिस की खातिर हमने अपनी पहचान तक मिटा दी है ।  हमको नाचना नहीं आता फिर भी हम सभी नाचते हैं जब भी कोई अवसर होता है मगर बिना किसी कारण भी नाचने झूमने लगते हैं कितनी बार अजीब अजीब मकसद होते हैं किसी को खुश करने किसी का दिल बहलाने को । 

कितनी बार ऐसा होता है कोई दुनिया देश समाज को इतना महत्वपूर्ण लगने लगता है कि समझने लगते हैं इक वही शख़्स सब कर सकता है जबकि वास्तव में भीतर से ऐसे लोग खोखले होते हैं और उनकी जड़ें कमज़ोर होती हैं , ज़रा तेज़ आंधी चलते पता नहीं चलता कब गिर जाते हैं । हमारे देश में महान नायक हुए हैं जो अपने आदर्शों और मूल्यों पर अडिग खड़े रहे टूट भी जाएं तो भी झुके नहीं । नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरना सभी के बस की बात नहीं होती है । खोखले किरदार वाले लोग आजकल दुनिया भर में छाये हुए हैं हमने ऐसे लोग बार बार आज़माए हुए हैं , मुखौटे लगाकर लोग अपनी सूरत छिपाए हुए हैं । आजकल कौन क्या है समझना कठिन है सामने कुछ दिखाई देता है अंदर कुछ और होता है मुंह में राम बगल में छुरी जैसा है । दोस्त बनकर दुश्मनी करना राजनैतिक कूटनीति कहलाता है , कोई किसी दूर देश में बैठा अपनी शतरंज की गोटियां चलाता है दोनों हाथ लड्डू लिए मूंछों पर तांव देकर इतराता है , समझता है वही सभी का मालिक है दाता है विधाता है मगर ऐसा हर व्यक्ति कभी मुंह की खाता है । 

आधुनिक युग में नाटक का नायक छलिया भी होता है और ख़लनायक भी उसकी कॉमेडी दर्शकों पर क्या क्या सितम नहीं ढाती है । हंसने की चाह ने दुनिया को इतना रुलाया है निर्देशक पटकथा पढ़ कर खुद घबराया है । आपको तालियां बजानी हैं हिचकियां छुपानी हैं पर्दे पीछे कोई खड़ा सभी को देख रहा है उस की निगाह से बचना संभव नहीं है । जंग में आर पार नहीं होता है कुछ लोग लाशों का कारोबार करते हैं लोग उकताने लगे हैं जंग और शांति दोनों को तराज़ू पर रखकर पलड़ा जिधर मर्ज़ी झुकाने लगे हैं । लड़ना सिखाने वाले शांतिगीत सुनाने लगे हैं महफ़िल में दोनों को बुलाकर जाम टकराने लगे हैं बाहर शीशे से झांकने वाले अब घबराने लगे हैं । प्यास बुझाने आये थे प्यास बढ़ाने लगे हैं असली सूरत सामने आते ही पर्दा गिराने लगे हैं । युद्धविराम की चर्चा है सरहद पर आहटें सुनाई देती हैं , ये कितनी बार दोहराया जाएगा कौन सच से नज़र मिलाएगा । 

अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया 

अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग
आईने से यूँ परेशान हैं लोग ।

बोलने का जो मैं करता हूँ गुनाह
तो सज़ा दे के पशेमान हैं लोग ।

जिन से मिलने की तमन्ना थी उन्हें
उन को ही देख के हैरान हैं लोग ।

अपनी ही जान के वो खुद हैं दुश्मन
मैं जिधर देखूं मेरी जान हैं लोग ।

आदमीयत  को भुलाये बैठे
बदले अपने सभी ईमान हैं लोग ।

शान ओ शौकत है वो उनकी झूठी
बन गए शहर की जो जान हैं लोग ।

मुझको मरने भी नहीं देते हैं
किस कदर मुझ पे दयावान है लोग । 
 
 
 हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं''...


मई 10, 2025

POST : 1962 सबसे बड़ा झूठा पुरूस्कार ( व्यंग्य कहानी ) डॉ लोक सेतिया

   सबसे बड़ा झूठा पुरूस्कार ( व्यंग्य कहानी ) डॉ लोक सेतिया  

हमने जाने कितनी कथाएं कहानियां सुन रखी हैं झूठ बोलने को लेकर , उनकी बात करने लगे तो आज की कहानी की शुरुआत भी संभव नहीं होगी इसलिए सीधी बात करते हैं । पिछले तीन सप्ताह बड़े ही कठिनाई और तनावपूर्ण हालात रहे हैं लेकिन चार दिन से भारत पकिस्तान की जंग से बढ़कर हमारे देश के समाचार चैनलों ने हर किसी को भयभीत करने और संशय का वातावरण बनाने में जैसे झूठ और मनघड़ंत खबरों का इतिहास रचने का ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया है कि अब कोई उनके मुकाबले खड़ा नहीं हो सकता है । अब ज़रूरत है कि पत्रकारिता की परिभाषा को बदल कर मुझसे बढ़कर झूठा कोई नहीं कर दिया जाये । समाचार का अर्थ सच को दफ़्ना कर झूठ को सच बनाना किया जाना चाहिए । टीवी चैनलों में पहले भी कितने तरह के ख़िताब ईनाम पुरुस्कार इत्यादि बंदरबांट की तरह अपने को देते हैं सभी चैनल नंबर वन हैं । जनता को अब इक और शिखर का चुनाव करना होगा इतने सारे चैनलों में सबसे भरोसेमंद झूठ का तमगा किस को मिलना चाहिए । विज्ञापनों का झूठ राजनेताओं के भाषणों का झूठ और तथाकथित महान विचारकों से लेकर तमाम नाम शोहरत वालों की झूठी कहानियों घटनाओं का झूठ सरकारी दफ्तरों फ़ाइलों आंकड़ों से लेकर देश समाज सेवा और धनवान लोगों की ईमानदारी की कमाई का झूठ सभी बौने हो गए हैं टीवी चैनलों का झूठ उस ऊंचाई पर पहुंच गया है । 

खुद को सच का झंडाबरदार कहने वाले वास्तव में कभी सच के साथ खड़े नहीं थे , सच के क़ातिल वही हैं मगर उनकी अपनी अदालत अपने गवाह अपने ही घड़े हुए सबूत और खुद वही फैसला सुनाने वाले न्यायधीश भी बने बैठे थे । लेकिन हमने ही नहीं बल्कि दुनिया भर ने उनका तमाशा देखा जब उन्होंने देशहित को दरकिनार कर सरकार के निर्देश को अनदेखा कर ऐसे ऐसे ख़तरनाक़ मंज़र जंग के दिखाए जो हुए ही नहीं । सोचने पर समझ आया कि उनकी मानसिकता क्या है उनको ऐसे दृश्य रोमांचक लगते हैं और ऐसा मनोरंजन जिस से उनका धंधा कारोबार टीआरपी आसमान पर पहुंच जाये । अर्थात उनकी संवेदना उनका ज़मीर इस स्तर तक निचले पायदान पर आ पहुंचा है जहां स्वार्थ और अपना फायदा इंसानियत को छोड़ने की कीमत पर भी ज़रूरी लगता है । जाने इस सीमा तक झूठ से गुमराह कर के उनको शर्म भी नहीं आती होगी अथवा वो अपनी अंतरात्मा में झांकते ही नहीं होंगे कभी । सरकार और राजनेताओं की कमज़ोर नस उनको पता है इसलिए उन पर अंकुश कोई नहीं लगाएगा मालूम है , लेकिन इक कार्य किया जाना आवश्यक है । 

                                अस्वीकरण ( घोषणा ) 

जैसे फिल्मों में और विज्ञापनों में घोषणा की जाती है , टीवी चैनल समाचार दिखाने पढ़ने से पहले हर बार दर्शकों को बताएं की इसकी सत्यता प्रमाणित नहीं है और आपको भरोसा नहीं करना चाहिए । भाषा सुविधानुसार बदली जा सकती है । आख़िर में इक ग़ज़ल पढ़ सकते है सच को लेकर कही थी कभी । 

इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का ( ग़ज़ल ) 

         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का
अब तो होने लगा कारोबार सच का ।

हर गली हर शहर में देखा है हमने ,
सब कहीं पर सजा है बाज़ार सच का ।

ढूंढते हम रहे उसको हर जगह , पर
मिल न पाया कहीं भी दिलदार सच का ।

झूठ बिकता रहा ऊंचे दाम लेकर
बिन बिका रह गया था अंबार सच का ।

अब निकाला जनाज़ा सच का उन्होंने
खुद को कहते थे जो पैरोकार सच का ।

कर लिया कैद सच , तहखाने में अपने
और खुद बन गया पहरेदार सच का ।

सच को ज़िन्दा रखेंगे कहते थे सबको
कर रहे क़त्ल लेकिन हर बार सच का ।

हो गया मौत का जब फरमान जारी
मिल गया तब हमें भी उपहार सच का ।

छोड़ जाओ शहर को चुपचाप ' तनहा '
छोड़ना गर नहीं तुमने प्यार सच का ।  




मई 08, 2025

POST : 1961 इंसान बन कर रहना हैवान मत बनना ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

 इंसान बन कर रहना हैवान मत बनना ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

मुश्किल है चुपचाप ज़ालिम का ज़ुल्म सहना , आखिर किसी दिन हैवानियत को ख़त्म कर शराफ़त से सभी को दुनिया में है रहना । लेकिन ये याद रखना बुराई से लड़ते लड़ते भलाई मत छोड़ देना , कुछ भी हो बेशक हैवानियत का रास्ता कभी नहीं अपनाना आदमी तू भी हैवान मत बन जाना । कभी सोचा है कोई भी जब न्यायालय में न्यायधीश बन कर किसी मुजरिम को फांसी की सज़ा का फ़ैसला लिखता है तब जिस पेन से निर्णय लिखता है उसकी निब को तोड़ देता है । कोई कलम कभी अपनी संवेदना से विमुख नहीं होती उसे न्याय करते हुए भी किसी का जीवन समाप्त करते हुए महसूस होता है काश ऐसा कभी नहीं लिखना पड़ता शायद तभी उस से भविष्य में कुछ भी लिखना नहीं चाहता न्यायधीश । निर्दयी लोग मासूमों की जान बेरहमी से लेते हैं और उनका अंत करना पड़ता है मगर इंसानियत मासूम लोगों की मौत पर शोक मनाती है तो निर्दयी लोगों की हैवानियत की सज़ा देते समय उनकी मौत पर भी कोई ख़ुशी कोई उत्सव नहीं मनाती है । कभी सुना होगा कि हमारी सेना दुश्मन देश के सैनिकों की लाशों को भी आदर पूर्वक दफ़्न करती है उनके धर्म की विधि पूर्वक । धार्मिक ग्रंथों में भी अपने दुश्मन की मौत पर कभी जश्न नहीं मनाया जाता ऐसा पढ़ा है और सुना है कथाओं में देखा है टीवी सीरियल फिल्मों में । अगर हम किसी विधाता ईश्वर भगवान की पूजा अर्चना करते हैं तो जिन आदर्शों मर्यादाओं का पालन उन्होंने किया उस से सबक सीखना ज़रूरी है । 
 
मैं आपको पौराणिक कथाओं की बात नहीं कहना चाहता क्योंकि आधुनिक युग में कोई भी उन जैसा नहीं बन सकता जिन्होंने प्राण जाये पर वचन नहीं जाई या फिर दुश्मन की सौ गलतियां क्षमा करने का संयम रखा हो ।लेकिन शायद हमको याद नहीं है कोई लोकनायक जयप्रकाश नारायण हुआ है जिस ने न केवल अपने विरोधी से मानवीय व्यवहार कायम रखा हो उसकी बातों को दरकिनार कर , बल्कि पांच सौ खूंखार डाकुओं से भी आत्मसमर्पण करवाया हो उस समाज को भयमुक्त बनाने को । हिंसा और नफरत को कभी भी ताकत से लड़ाई लड़कर या हिंसा का जवाब हिंसा से दे कर ख़त्म नहीं किया जा सकता है । इक घटना है सिखगुरु गोबिंद सिंह जी को किसी ने बताया भाई कन्हैया दुश्मन सैनिकों को भी पानी पिलाता है , भाई कन्हैया गुरु तेगबहादुर जी के समय से अनुयाई बनकर गुरुओं की बाणी को सुनता समझता था । गुरु गोबिंद सिंह जी ने उसको बुलाया और पूछा मुझे बताया गया है कि तुम घायल दुश्मन सैनिकों को मरहम लगाते हो और जो प्यासे हैं दुश्मन उनको भी पानी पिलाते है जबकि हमारी उनसे जंग ही पानी को लेकर ही है । भाई कन्हैया जी ने कहा कि ये बात सच है लेकिन मैं जब भी उनके चेहरे की तरफ देखता हूं मुझे उन में भी गुरूजी आपकी ही छवि दिखाई देती है परमात्मा जैसी वाहेगुरु जैसी । मुझे अपने लिए लड़ने वाले और उनकी तरफ से लड़ने वाले सभी घायल या प्यासे इक जैसे लगते हैं सभी में भगवान का रूप है । तब गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा था भाई कन्हैया जी ने खालसा पंथ की शिक्षाओं को सही तरह से समझा है ये अनमोल हैं सभी को भाई कन्हैया जी की तरह गुरुओं की शिक्षा को समझना चाहिए ।   



मई 04, 2025

POST : 1960 ऊपरवाला जान कर अनजान है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   ऊपरवाला जान कर अनजान है  ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

आखिर मेरा इंतज़ार ख़त्म हुआ मौत का फ़रिश्ता सामने खड़ा था , मुझसे कहने लगा बताओ किस जगह जाना है । मैंने जवाब दिया मुझे दुनिया बनाने वाले से मिलना है , फ़रिश्ता बोला उसकी कोई ज़रूरत नहीं है विधाता ने सभी को अपने अपने विभाग आबंटित कर सब उन्हीं पर छोड़ा हुआ है । मैंने समझ लिया असली परेशानी की जड़ यही है अब तो ऊपरवाले से मिलना और भी ज़रूरी हो गया है , मैंने कहा ऐसी ही व्यवस्था से दुनिया परेशान है सरकार विभाग बनाकर किसी को दायित्व सौंपती है मगर कोई भी अपना काम ठीक से नहीं करता नतीजा भगवान भरोसे रहने वाले जीवन भर निराश होते रहते हैं । अन्याय सहते सहते उम्र बीत जाती है दुनिया में इंसाफ़ नहीं मिला तो ऊपरवाले से उम्मीद रखते हैं लेकिन कोई विनती कोई प्रार्थना कुछ असर नहीं लाती , फिर भी भगवान को छोड़ जाएं तो किस दर पर जाएं । धरती पर जैसे सरकारों को फुर्सत नहीं जनता के दुःख दर्द समस्याओं पर ध्यान देने की शासक प्रशासन सभी का ध्यान केंद्रित रहता है सरकार है यही झूठा विश्वास दिलाने पर । परेशान लोग आखिर मान लेते हैं कि सरकार कहने को है जबकि वास्तव में कोई सरकार कोई कानून कोई व्यवस्था कहीं भी नहीं है । न्यायपालिका से संसद विधानसभा तक सभी खुद अपने ही अस्तित्व को बचाए रखने बनाने की कोशिश करने में समय बर्बाद करते हैं । फ़रिश्ता मज़बूर हो कर मुझे ऊपरवाले के सामने ले आया , भगवान का ध्यान जाने किधर था मेरी तरफ देखा तक नहीं । 
 
मैंने ही प्रणाम करते हुए पूछा भगवान जी आपकी तबीयत कैसी है कोई चिंता आपको परेशान कर रही है । भगवान कहने लगे क्या बताऊं कुछ भी मेरे बस में नहीं रहा है , जब मेरे देवी देवता ही अपना कामकाज ठीक से नहीं करते तो धरती पर सत्ताधारी लोगों और प्रशासनिक लोगों से क्या आशा की जा सकती है । लेकिन समस्या ये भी है कि हमने भी आपके देश की तरह इक संविधान बनाया हुआ है जिस में सभी को अपना कार्य ईमानदारी और सच्ची निष्ठा से निभाना है मगर पद मिलने के उपरांत शपथ कर्तव्य कौन याद रखता है हर कोई अधिकारों का मनचाहा उपयोग करने लगता है । संविधान की उपेक्षा करते हैं सभी हर कोई समझता है कि संविधान उस पर नहीं लागू होता , संविधान बेबस है खुद कुछ नहीं कर सकता संविधान से शक्ति अधिकार पाने वाले मर्यादा और आदर्श को ताक पर रख देते हैं । आखिर मुझे ही समस्या का वास्तविक कारण बताना पड़ा भगवान ने जब कहा कि उसने तो कितना शानदार ढंग बनाया हुआ है हर देवी देवता को मालामाल किया हुआ है उनको चाहने वाले भी चढ़ावा चढ़ाते हैं फिर लोग ख़ाली झोली वापस कैसे लौटते हैं । 

मुझे समझाना पड़ा देश का बजट कितना बड़ा है लेकिन सभी मंत्री संसद विधायक अधिकारी सचिव और विभाग वाले बंदरबांट करते हैं , अंधा बांटे रेवड़ी फिर फिर अपने को दे । अमीर और सत्ता के ख़ास लोग जमकर मौज उड़ाते हैं सभी खज़ाना खुद सरकार और उसके करीबी खा जाते हैं लोग हाथ पसारे खड़े रह जाते हैं । आपके देवी देवता के भी आलीशान भवन बनते जाते हैं , गरीब लोग बेबस बेघरबार हैं ख़ाली पेट भजते हैं प्रभुनाम सतसंग की भीड़ बन धोखा खाते हैं । साधु संत धर्म उपदेशक करोड़ों के मालिक बनकर रंगरलियां मनाते हैं , जैसे राजनेता और समाजसेवा की बातें करने वाले जनता का हक हज़म कर अपना फ़र्ज़ लूट की छूट का अवसर मनाते हैं । सरकार बनाकर भगवान बनाकर लोग पछताते हैं आहें भरते हैं अश्क़ बहाते हैं खाली हाथ आते हैं ख़ाली हाथ दुनिया से लौट आते हैं , अजब दुनिया तुमने बनाई है जिधर जाओ पहाड़ों की बात होती है जनता की किस्मत हरजाई है आगे पीछे दोनों तरफ गहरी खाई है । गरीबी की रेखा की कितनी लंबाई है । 


 The number of children in the poor population is increasing rapidly, five  crore children in India are forced to live in extreme poverty. | गरीब आबादी  में तेजी से बढ़ रही बच्चों
 


मई 03, 2025

POST : 1959 लिखना क्या था क्या लिखा ( शब्द - शिल्पी ) डॉ लोक सेतिया

  लिखना क्या था क्या लिखा ( शब्द - शिल्पी ) डॉ लोक सेतिया 

लिखना आसान है आजकल तो खुद कुछ नहीं जानते तो आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस से जो मर्ज़ी करवा लो । लेकिन जिसे कलमकार कहते हैं उनको हुनर आता है शब्दों को तराशने का सजाने संवारने का और उन में मानवीय भावनाओं को इस तरह समाहित करने का जिस से रचना जीवंत हो उठती है । खुद को कलमवीर कहलाने वाले कितने लोग वीरता शब्द से परिचित नहीं होते हैं । दो चार क्या सौ किताबें छपवा लेने से कोई महान साहित्यकार नहीं बन जाता है अच्छा लेखक होने की पहली कसौटी है सच लिखने से पहले सच को समझना परखना स्वीकार करना , जो अपनी सोच अपनी संकुचित मानसिकता से बाहर नहीं निकलते उनका लेखन समाज की खातिर नहीं होता सिर्फ खुद की नाम शोहरत की कामना की खातिर लिखते हैं जिस से सामाजिक बदलाव कभी नहीं हो सकता है । मुझे कलम थामे कोई पचास वर्ष हो गए हैं लेकिन कोई पुस्तक पांच साल पहले तक छपवाई नहीं थी , सच बताऊं मुझे हमेशा लगता था कैसे महान लिखने वालों ने क्या शानदार सृजन किया है मेरा लेखन उनके सामने कुछ भी नहीं है । पांच किताबें छपने के बाद भी समझ आया है कि मुझे किताबों से कहीं बढ़कर पाठकों ने अख़बार पत्रिकाओं में अन्य कितने तरह से पढ़ा और समझा है । कुछ पत्र रखे हुए हैं संभाल कर जिन में रचना पर टिप्पणी कर डाक द्वारा भेजा गया था कभी कभी तो किसी पाठक ने प्रकाशित रचना का पन्ना भिजवाया था क्योंकि मुझे खबर ही नहीं थी प्रकाशित होने की रचना की । आजकल पहले भी कितनी बार कोई किताब प्रकाशित होती रही शब्दकोश की तरह लेखकों की जीवनी परिचय का विवरण बताने को , हज़ारों नाम मिलते हैं मगर कितनों के लिखने की सार्थकता पर ध्यान जाता है । किताबें लिखना व्यर्थ है अगर लेखक का मकसद सामाजिक विषय पर निडरतापूर्वक और निष्पक्षता से आंकलन नहीं किया गया हो तो । 
 
मैंने पहले भी लिखा है लेखन को बांटना किसी सांचे में ढालना अनुचित है , दलित लेखन वामपंथी लेखन ऐसे है जैसे किसी को खुले आकाश से वंचित कर इक बुने हुए जाल के भीतर उड़ान भरनी पड़ती है । लेखक देश की दुनिया की सीमाओं को लांघकर अपनी ही सोच विचार की उड़ानें भरते हैं हवा और परिंदों और मौसमों की तरह सतरंगी धनुष जैसे । क्यों है कि हम कभी भाषा कभी राज्य कभी शहर को लेकर अपने आप को बंद कर लेते हैं बचते हैं अन्य सभी को अपनाने से । भला ऐसा लिखने वाला सर्वकालिक और सभी की मानवीय संवेदनाओं की बात कह सकता है । हमको अभिव्यक्ति की आज़ादी की चाहत होनी चाहिए जबकि इस तरह हम खुद को किसी पिंजरे में कैद कर समझते हैं यही अपनी पहचान है । कभी इक कविता खुद को लेकर लिखी थी आज तमाम लोगों की वास्तविकता लगती है प्रस्तुत है कैद कविता । कभी बड़े लोग जेल की सलाखों के पीछे बैठ किताबें लिखते था आजकल इक बंद दायरे की सीमारेखा खींच कर सिमित होकर लिखने का चलन दिखाई देने लगा है , कितना अजीब है । 
 

   कैद ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

कब से जाने बंद हूं
एक कैद में मैं
छटपटा रहा हूँ
रिहाई के लिये ।

रोक लेता है हर बार मुझे 
एक अनजाना सा डर
लगता है कि जैसे 
इक  सुरक्षा कवच है
ये कैद भी मेरे लिये ।

मगर जीने के लिए
निकलना ही होगा
कभी न कभी किसी तरह
अपनी कैद से मुझको ।

कर पाता नहीं
लाख चाह कर भी
बाहर निकलने का
कोई भी मैं जतन ।

देखता रहता हूं 
मैं केवल सपने
कि आएगा कभी मसीहा
कोई मुझे मुक्त कराने 
खुद अपनी ही कैद से । 


 जेल में भगत सिंह ने बताया था 'मैं नास्तिक क्यों हूं? - today shaheed bhagat  singh s birthday-mobile

मई 02, 2025

POST : 1958 खेल - तमाशा सत्ता का ( खरी- खरी ) डॉ लोक सेतिया

       खेल - तमाशा सत्ता का ( खरी- खरी ) डॉ लोक सेतिया  

जनाब को लड़ना खूब आता है लेकिन दुश्मन देश से नहीं खुद अपने ही देश वाले विरोधी लोगों से किसानों से अपना अधिकार मांगने वालों से । दुनिया को दिखाई दिया उनकी मर्ज़ी बिना परिंदा भी पर नहीं खोल सकता है सभी सड़कें बंद होती हैं किसानों की राहों पर कीलें और अवरोध खड़े होते हैं । आतंकवादी कब किस रास्ते घुसते हैं उनको नहीं चिंता बस खुद सुरक्षित हैं उनकी सत्ता को कोई खतरा नहीं है उनका पूरा प्रबंध है । जो गरजते हैं बरसते नहीं कुछ ऐसे बादल जैसे हैं शोर ही शोर है देश सही दिशा में बढ़ रहा है वास्तव में समाज की हालत खराब से अधिक खराब हो रही है । कभी उस दुश्मन देश से कभी इस दुश्मन देश से जंग का ऐलान होता है जैसे क्रिकेट में फ्रेंडली मैच होता है जीत हार से कोई फर्क नहीं पड़ता आपसी मेलजोल कायम रहता है । क्रिकेट खिलाड़ी आजकल चाहने वालों को जुए के खेल में फंसाने का कार्य कर खुद मालामाल होते हैं दुनिया को कंगाल कर अपना घर भरते हैं । जनाब ने भी शतरंज की चाल चली है आतंकवाद को छोड़ कर अपना इरादा बदल कर धर्म की बात से बढ़कर जातीय जनगणना का पासा आज़माया है । दुश्मन के लिए नहीं खुद अपने लिए सत्ता ने जाल बिछाया है । किसी खिलाड़ी ने अपनी ऐप्प पर लड़ने का तमाशा बनाया है उस दुश्मन को आमने सामने बिठाया है । सहमति बनाई है दुश्मन भी आखिर सौतेला ही सही भाई है हाथ में इक कटोरा है कटोरे में मलाई है । दुश्मन को हारना होगा मुंह मीठा करवाना है जीत कर जनाब ने शर्त लगाई है । मैच फिक्सिंग में हारने में पैसा मिलता है तो जीतना कोई नहीं चाहता , ये जीत हार सब बहाना है दोनों को अपने घर जाकर झूठ को सच बताना है । आप क्या देखना चाहते थे आपको याद नहीं रहता है सामने मंज़र बदल जाता है , कुछ होने वाला है अब कि दुश्मन को मज़ा चखाना है । यही सोचते सोचते समय गुज़रता रहता है इक आलीशान महल है जिसकी कोई बुनियाद नहीं है कांपता है लगता है अभी ढहता है । उसी में आतंकवाद छुपकर नहीं खुलेआम रहता है , मगर सभी ललकारते हैं उसके ठिकाने के करीब नहीं जाते कोई खून का दरिया पानी बनकर बीच राह में बहता है । कोई शायर है साहिर लुधियानवी , जंग को लेकर कहता है जंग खुद इक मसला है जंग क्या मसलों का हल देगी । इसलिए ए शरीफ़ इंसानों जंग टलती रहे तो बेहतर है , आप और हम सभी के आंगन में शम्मा जलती रहे तो बेहतर है ।
 
 
 
जाँनिसार अख़्तर जी की ग़ज़ल पेश है : - 

 
मौज-ए - गुल , मौज- ए - सबा , मौज- ए - सहर लगती है
सर से पा तक वो समां है कि नज़र लगती है । 
 
हमने हर गाम सजदों ए जलाये हैं चिराग़ 
अब तेरी रहगुज़र रहगुज़र लगती है । 
 
लम्हें लम्हें बसी है तेरी यादों की महक 
आज की रात तो खुशबू का सफ़र लगती है । 
 
जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं 
देखना ये है कि अब आग़ किधर लगती है । 
 
सारी दुनिया में गरीबों का लहू बहता है 
हर ज़मीं मुझको मेरे खून से तर लगती है ।
 
वाक़या शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ 
ये तो ' अख़्तर ' दफ़्तर की खबर लगती है ।  
 

Garibi - Amar Ujala Kavya - गरीबी...