हम सब कठपुतलियां हैं ( भली लगे या लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया
आनंद फिल्म का डायलॉग हमारी हक़ीक़त है , अंतर इतना है कि ऊपरवाला कोई ईश्वर नहीं है यहीं इसी धरती पर बैठा कोई इंसान है । जैसे रमोट कंट्रोल से यंत्र को जब चाहे शुरू या बंद किया जा सकता है हम लोग चलते फिरते प्राणी लगते हैं लेकिन हमारे बस में कुछ भी नहीं है कभी कोई कभी कोई हमको अपनी उंगलियों पर नचाता है । इक और फ़िल्मी डायलॉग है कठपुतली करे भी तो क्या डोर किसी और के हाथ है नाचना तो पड़ेगा सिम्मी ग्रेवाल कहती है । ये विवशता किसी को खुद समर्पण करना आशिक़ी और प्रेम में होना अलग बात है लेकिन जब ज़िंदा समाज मज़बूर हो जाए बेजान वस्तु की तरह तब इंसान और खिलौने में कोई फर्क नहीं रहता है । कमाल की बात ये है कि हमको खबर तक नहीं कि कौन हमसे खेलने लगा है खिलौना बना कर । घर परिवार समाज से लेकर करोड़ों की आबादी वाले देश तक खुद अपनी पहचान अपना अस्तित्व भुलाकर जाने कैसे कितने लोगों की मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी अपनी जीवनशैली को बदलते ही नहीं छोड़ देते हैं । नाच मेरी बुलबुल कि पैसा मिलेगा , पैसा दौलत ताकत ही नहीं धर्म राजनीति से कितना कुछ है जिस की खातिर हमने अपनी पहचान तक मिटा दी है । हमको नाचना नहीं आता फिर भी हम सभी नाचते हैं जब भी कोई अवसर होता है मगर बिना किसी कारण भी नाचने झूमने लगते हैं कितनी बार अजीब अजीब मकसद होते हैं किसी को खुश करने किसी का दिल बहलाने को ।
कितनी बार ऐसा होता है कोई दुनिया देश समाज को इतना महत्वपूर्ण लगने लगता है कि समझने लगते हैं इक वही शख़्स सब कर सकता है जबकि वास्तव में भीतर से ऐसे लोग खोखले होते हैं और उनकी जड़ें कमज़ोर होती हैं , ज़रा तेज़ आंधी चलते पता नहीं चलता कब गिर जाते हैं । हमारे देश में महान नायक हुए हैं जो अपने आदर्शों और मूल्यों पर अडिग खड़े रहे टूट भी जाएं तो भी झुके नहीं । नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरना सभी के बस की बात नहीं होती है । खोखले किरदार वाले लोग आजकल दुनिया भर में छाये हुए हैं हमने ऐसे लोग बार बार आज़माए हुए हैं , मुखौटे लगाकर लोग अपनी सूरत छिपाए हुए हैं । आजकल कौन क्या है समझना कठिन है सामने कुछ दिखाई देता है अंदर कुछ और होता है मुंह में राम बगल में छुरी जैसा है । दोस्त बनकर दुश्मनी करना राजनैतिक कूटनीति कहलाता है , कोई किसी दूर देश में बैठा अपनी शतरंज की गोटियां चलाता है दोनों हाथ लड्डू लिए मूंछों पर तांव देकर इतराता है , समझता है वही सभी का मालिक है दाता है विधाता है मगर ऐसा हर व्यक्ति कभी मुंह की खाता है ।
आधुनिक युग में नाटक का नायक छलिया भी होता है और ख़लनायक भी उसकी कॉमेडी दर्शकों पर क्या क्या सितम नहीं ढाती है । हंसने की चाह ने दुनिया को इतना रुलाया है निर्देशक पटकथा पढ़ कर खुद घबराया है । आपको तालियां बजानी हैं हिचकियां छुपानी हैं पर्दे पीछे कोई खड़ा सभी को देख रहा है उस की निगाह से बचना संभव नहीं है । जंग में आर पार नहीं होता है कुछ लोग लाशों का कारोबार करते हैं लोग उकताने लगे हैं जंग और शांति दोनों को तराज़ू पर रखकर पलड़ा जिधर मर्ज़ी झुकाने लगे हैं । लड़ना सिखाने वाले शांतिगीत सुनाने लगे हैं महफ़िल में दोनों को बुलाकर जाम टकराने लगे हैं बाहर शीशे से झांकने वाले अब घबराने लगे हैं । प्यास बुझाने आये थे प्यास बढ़ाने लगे हैं असली सूरत सामने आते ही पर्दा गिराने लगे हैं । युद्धविराम की चर्चा है सरहद पर आहटें सुनाई देती हैं , ये कितनी बार दोहराया जाएगा कौन सच से नज़र मिलाएगा ।
अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया
अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोगआईने से यूँ परेशान हैं लोग ।
बोलने का जो मैं करता हूँ गुनाह
तो सज़ा दे के पशेमान हैं लोग ।
जिन से मिलने की तमन्ना थी उन्हें
उन को ही देख के हैरान हैं लोग ।
अपनी ही जान के वो खुद हैं दुश्मन
मैं जिधर देखूं मेरी जान हैं लोग ।
आदमीयत को भुलाये बैठे
बदले अपने सभी ईमान हैं लोग ।
शान ओ शौकत है वो उनकी झूठी
बन गए शहर की जो जान हैं लोग ।
मुझको मरने भी नहीं देते हैं
किस कदर मुझ पे दयावान है लोग ।
