मेरे ब्लॉग पर मेरी ग़ज़ल कविताएं नज़्म पंजीकरण आधीन कॉपी राइट मेरे नाम सुरक्षित हैं बिना अनुमति उपयोग करना अनुचित व अपराध होगा। मैं डॉ लोक सेतिया लिखना मेरे लिए ईबादत की तरह है। ग़ज़ल मेरी चाहत है कविता नज़्म मेरे एहसास हैं। कहानियां ज़िंदगी का फ़लसफ़ा हैं। व्यंग्य रचनाएं सामाजिक सरोकार की ज़रूरत है। मेरे आलेख मेरे विचार मेरी पहचान हैं। साहित्य की सभी विधाएं मुझे पूर्ण करती हैं किसी भी एक विधा से मेरा परिचय पूरा नहीं हो सकता है। व्यंग्य और ग़ज़ल दोनों मेरा हिस्सा हैं।
अगस्त 31, 2020
एक रूपये की इज़्ज़त का सवाल ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
अगस्त 30, 2020
तुझे हंसना मना है जुर्म रोना है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
तुझे हंसना मना है जुर्म रोना है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
अगस्त 29, 2020
समाज के और कानून के दोहरे मापदंड ( विडंबना ) डॉ लोक सेतिया
समाज के और कानून के दोहरे मापदंड ( विडंबना ) डॉ लोक सेतिया
अगस्त 26, 2020
ज़िंदगी मिली अजनबी सी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
ज़िंदगी मिली अजनबी सी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
शासक की परेशानी और है ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
शासक की परेशानी और है ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
अगस्त 24, 2020
हम जड़ता में जकड़े लोग ( तर्कहीन समाज ) डॉ लोक सेतिया
हम जड़ता में जकड़े लोग ( तर्कहीन समाज ) डॉ लोक सेतिया
अगस्त 22, 2020
काला धन से कोरोना तक ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया
काला धन से कोरोना तक ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया
उसको अपने मन की बात अच्छी लगती है मनमानी करता है। खेलना उसको पसंद है और उसकी मर्ज़ी है चाहे जिस से खेले दिल से भावनाओं से या नये नये ढंग से अपने खेल अपने मैदान अपने नियम बना कर। उसके पास शोले फिल्म वाला सिक्का है जिस में दोनों तरफ उसकी जीत तय है जो वो मांगता है दोनों तरफ वही अंकित है अभी तक कोई समझ नहीं पाया हर बार हर जगह उसकी जीत का अर्थ क्या है। अपने काला धन की तिजोरी से उसने विदेश से इक नया खिलौना मंगवा लिया कोरोना नाम का दैत्य की शक़्ल वाला। खबर सभी को पता चली और लोग भयभीत होने लगे इस आधुनिक राक्षस के नाम से। मगर उसने सबको कह दिया मुझे इस को बस में करना आता है चिंता मत करो जीत मेरी पक्की है। खेल शुरू हो गया खिलौना उसके हाथ नहीं आता था बस उसने सोच लिया ये कोरोना नाम का खिलौना क्या है मुझसे कभी कोई किसी खेल में जीता है न जीतने दूंगा किसी को। साम दाम दंड भेद हर नीति अपनाना आता है मगर मामला काला धन जैसा साफ नहीं था कोरोना को होना है नहीं होना है कुछ समझ नहीं आया मगर उसने भी खेल को समझा न सामने वाले खिलाड़ी को हराने का दम भरने लगे।
कोरोना हंसता उसकी नासमझी की बातों पर , ताली बजाओ थाली बजाओ अंधेरा करने के बाद टोर्च जलाओ जैसे काम देख उसको लगता मनसिक संतुलन बिगड़ गया है। कोरोना की चाल उसको समझ नहीं आती थी कभी सबको घर में बंद कभी खुद और ख़ास लोगों को सब करने की आज़ादी कभी मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे बंद कभी मंदिर में पूजा पाठ कभी इधर कभी उधर। फिर सब बंद से सब खोलने तक की नादानी की की कसरत और सत्ता का गंदा खेल खेलने की आज़ादी। कोरोना को मनाने की कोशिश करते हुई समझौता वार्ता में उसको दिन भर की छूट देने की बात मगर वो भी ज़िद पर अड़ा रहा कोई बात मंज़ूर नहीं की। सप्ताह में इक दिन की दो दिन की छुट्टी भी कोरोना को स्वीकार नहीं हुई। उसने कितनी बार टीवी पर जनता से बात की और समझाया कि कोरोना को अवसर समझना चाहिए हमको इस से अपनी अर्थव्यवस्था को ठीक करने को उपयोग करना होगा। बस किसी ढंग से कोरोना अपनी जकड़ पकड़ में आये तो सही फिर उसको दुनिया भर को महंगे ऊंचे दाम पर बेचकर मालामाल होना तय है।
देश नहीं बिकने देना की बात कहते कहते देश में जो भी नज़र आया उसको बेच दिया ये उसकी मॉडलिंग का करिश्मा ही है जो चाय से लेकर कुछ भी बेच सकता है। खरीदार मिलना चाहिए हर चीज़ बिकती है नेता क्या अभिनेता क्या अदालत क्या सियासत क्या ईबादत क्या तिजारत क्या कोरोना क्या हिफाज़त क्या। गांधी जी ने सत्य पर शोध किया जनाब ने झूठ पर शोध करने का कीर्तिमान स्थापित किया है। काला धन वाला राक्षस और कोरोना वाला महाराक्षस दोनों की नस्ल झूठ वाली है उनकी असलियत कोई नहीं जान पाया कोई जानना भी नहीं चाहता है।
अगस्त 21, 2020
क्या इसी को जीना कहते हैं ( चिंतन मनन ) डॉ लोक सेतिया
क्या इसी को जीना कहते हैं ( चिंतन मनन ) डॉ लोक सेतिया
जन्म कोई माता पिता की मर्ज़ी से नहीं होता है ईश्वर है कुदरत है या जो भी चलन है कहीं कोई और है जो निर्णय करता है। आपको लगता है किसी परिवार में जन्म खुशनसीबी या बदनसीबी होता है तो सही नहीं है क्योंकि जो उसकी मर्ज़ी है वही सबसे अच्छा है। विधाता ने जन्म देते समय कोई भी विधि अपने विधान की बताई नहीं है आपको क्या करना है कैसे करना है सब खुद जन्म लेने वाले पर छोड़ा है। हर किसी को सोचने समझने और अच्छाई बुराई समझने को दिल दिमाग़ और सब करने को तन बदन मन और विवेक एक समान दिया है। क्यों कोई माता पिता संतान को अपनी सोच अपनी मर्ज़ी खुदगर्ज़ी से बनाना चाहता है। और बड़े होकर किसलिए संतान अपने माता पिता से गिला शिकवा रखती है जो चाहते बच्चे उनको नहीं मिला। उनको जो उचित लगा उन्होंने किया आपको जो उचित लगता है करना चाहिए कोई किसी पर एहसान नहीं करता है कोई बोझ नहीं कोई वरदान नहीं है इक सामाजिक तानाबाना है जिसको और अच्छा बनाना है ख़ुशी से मन से मज़बूरी से कदापि नहीं। हर कोई क्यों किसी को बदलना चाहता है जो जैसा है उसे खुद निर्णय करने दो उसको खुद को अच्छा इंसान अच्छा पिता माता या संतान अथवा पति या पत्नी किस तरह बनना है।
कुदरत ने किसी को शासक नहीं बनाया न किसी को गुलाम और कोई भी बड़ा छोटा नहीं है हर कोई अपनी तरह से समझदार है काबिल है। नासमझ वो हैं जिनको बाकी लोग पसंद नहीं आते खराब लगते हैं क्योंकि हम सभी को जिस किसी ने बनाया है जैसा बनाया ठीक बनाया है। वास्तव में दुनिया को बर्बाद उन्हीं लोगों ने किया है जो चाहते हैं दुनिया जैसी उनको अच्छी लगती है वैसी बन जाये। कुदरत और ईश्वर ने दुनिया को रंगीन बनाया है कोई क्यों उसको अपनी मर्ज़ी के किसी रंग में रंगना चाहता है। हम क्या हवा पानी मिट्टी पेड़ पौधों को बदलना चाहते हैं पक्षी जानवर सभी अपनी अपनी तरह के हैं कोई किसी को बदलने की कोशिश नहीं करता है। आदमी खुद को सबसे समझदार मानता है और चाहता है हर चीज़ को बदलना लेकिन बदलने का ढंग निर्माण का हो सकता है विनाश का नहीं होना चाहिए। खुद को सबसे अच्छा महान ताकतवर या रईस बनाने की कोशिश ने दुनिया को अशांत और असुरक्षित बनाने का काम किया है। जब आप मौत का सामान इकट्ठा करते हैं तब जीने की बात कैसे हो सकती है।
अगस्त 17, 2020
अपना नहीं है बेगाना है , देश मुसाफिरखाना है ( अजब-ग़ज़ब ) डॉ लोक सेतिया
अपना नहीं है बेगाना है , देश मुसाफिरखाना है ( अजब-ग़ज़ब )
डॉ लोक सेतिया
कहावत है कि इतिहास की नज़रों ने वो मंज़र भी देखा है लम्हों ने खता की थी सदियों ने सज़ा पाई। किसी देशभक्त नेता ने अपने दल के किसी नेता के दंगे करवाने के अपराध को अनदेखा किया था बस उसको नसीहत दे दी थी राजधर्म निभाने की खुद अपना राजधर्म निभाते तो अच्छा था। बस इक परंपरा चलती रही अपनों के सभी गुनाह माफ़ करने की और समाज अपराध की ऐसी दलदल में डूबता जा रहा है कि बचाने वाला कोई भी नहीं है। उनकी अकेले की बात लाखों लोगों को ऐसी समझ आई कि देश से बढ़कर लोग व्यक्ति की आराधना करने लगे हैं। सबकी आंखों पर पट्टी बंधी है झूठ को सच कहते हैं सच को देखते नहीं हैं जानकर भी। कोई नेता अधिकारी जब किसी चोर को रिश्वत लेकर छोड़ता है तो उसे बढ़ावा देकर डाकू लुटेरा ही नहीं खुद अपने भी कातिल बनाने का अपराध करता है। जब कोई गुनहगार मुठभेड़ में मारा जाता है तब भी ऐसे गुनहगार बनाने वाले अपना काम करते रहते हैं। लोग भी अपनी पहचान वाले दोस्त अथवा रिश्तेदार के गुनाहों में उनका बचाव करते हुए साथ नहीं देते बल्कि उनकी ज़िंदगी को बर्बाद करने में भागीदार बनते हैं। हमारे ऐसे गुनाहों का कोई तो हिसाब कहीं पूछेगा अवश्व अन्यथा फिर दुनिया में कोई भगवान नहीं है।
भगवान के मंदिर बनाने की बात याद आई तो विचार किया क्या मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा गिरिजाघर सदभावना से बनाये जाते हैं या फिर कोई लड़ाई लड़ कर इस बात का अहंकार रखते हुए धर्म स्थल की आधारशिला रखते हैं कि हमने जीत कर हासिल किया है ये अधिकार। कहते हैं कोई विजय पराजय से भी बुरी होती है अगर जीते हों जोड़ तोड़ साम दाम दंड भेद से या किसी भी अनैतिक तरीके से। हम जो भी चाहे इमारत को कह सकते हैं लेकिन ईश्वर कहां रहते हैं किस जगह निवास करते हैं उनकी मर्ज़ी है। भगवान किसी के बंधक नहीं हैं। भगवान कण कण में रहते हैं और भगवान एक ही हैं आपने ईश्वर को समझा नहीं पहचाना नहीं और उसके रंग रूप वेशभूषा से मान लिया कोई भगवान किस का है जो आपके अनुसार नहीं दिखाई देता उसको भगवान नहीं मानकर बाहर निकाल दिया। आप धोती कुर्ता पहनते हैं कभी कोट पैंट या जीन शर्ट डाल ली तो आपके बच्चे आपको घर से बाहर निकाल सकते हैं क्योंकि आपका लिबास बदला हुआ है। आखिरी सबक सभी समझते हैं जानते हैं मां से बढ़कर भगवान भी नहीं है कोई इंसान या चाहने वाला या कोई भी आपका सहायक उस से बढ़कर नहीं हो सकता है। अपने देश की जन्मभूमि को माता कहते हैं मानते हैं उसकी जय बोलते हैं। मां के सभी बेटे बेटियां इक समान हैं जो बच्चे अपने ही भाई बहनों देशवासियों से प्यार नहीं करता उनसे कोई माता खुश नहीं हो सकती है। और हर धर्म बताता है अपनी माता को दुःख देने वाले से भगवान कभी खुश नहीं हो सकते हैं। मां के चरणों में स्वर्ग है जन्नत है।
आपको घर से लगाव प्यार हो तो आपको घर में रहने वालों से मुहब्बत होती है लेकिन जिनको घर भी मुसाफिरखाना लगता है उनको अपने मतलब अपने सुख सुविधाओं से सरोकार होता है। ऐसे लोग घर में रहते हैं उसको सजाते संवारते नहीं उपयोग करते हैं। घर से लगाव प्यार होता है तो घर का सामन बेचते नहीं बनाया करते हैं पुरखों की बनाई चीज़ों को संभाल कर रखते हैं तोड़ते फोड़ते नहीं कभी भी। देश को कुछ लोगों ने सराय समझ लिया है लगता है।
अगस्त 14, 2020
कैद रहकर जश्न-ए-आज़ादी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
कैद रहकर जश्न-ए-आज़ादी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें ,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये।
राजनीति ने तो कब से शर्म लिहाज़ का घूंघट उतार दिया है। अब तो नासमझ लोग सच को समझे बिना सत्ता के विरोधी को अपशब्द कहने से लेकर पाकिस्तान भेजने की बात कहते हैं। ये उनकी किसी राजनीतिक दल या नेता की चाटुकारिता देश भक्ति नहीं हो सकती है। मगर उनको कुछ लोगों ने धर्म और देशभक्ति की उल्टी परिभाषा पढ़वा दी है जो अपने देश के लोगों से नफरत की भाषा में व्यवहार करते हैं। शायद उनको लोकतंत्र में असहमति होने का अर्थ नहीं पता अन्यथा जिनकी आज महिमा का बखान करते हैं क्या वो पहले पिछली सरकार नेताओं की आलोचना नहीं करते थे। अगर आपकी हमारी विचार अभिव्यक्त करने की आज़ादी ही खतरे में है तो जश्न किस बात का है। कोई उनसे पूछे क्या देशभक्ति की परिभाषा में जो विदेशी शासकों की मुखबरी करते थे और आज़ादी के दीवानों को पकड़वाते थे या अंग्रेज़ों को माफीनामे लिख देते थे और आज़ादी के भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध करते हुए कहते थे जितनी आज़ादी मिली हुई है अंग्रेजी हुकूमत से बहुत है उनके आचरण को देशभकि कहते हैं।बशीर बद्र जी की ग़ज़ल का शेर है। गुनहगार समझेगी दुनिया तुझे , अब इतनी ज़्यादा सफाई न दे। जिनको देशभक्ति और व्यक्तिपूजा का अंतर नहीं पता उनकी बात पर सफाई देना ज़रूरी नहीं है। कुछ ऐसा सोचकर उनकी बात दोहराने की कोशिश कर रहा हूं। क्यों न इस बार जश्न ए आज़ादी ऐसे मनाया जाये , देश की लुटती विरासत को लुटेरों से बचाया जाये। क्या है आज़ादी क्या होती है ग़ुलामी जानते नहीं जो लोग , उनको समझाने को अर्थ इतिहास दोहराया जाये। किसी रहजन को रहबर मत समझ लेना कभी भूले से , शहीदे आज़म भगत सिंह की डायरी को पढ़ के सुनाया जाये। सियासतदान बदलने से नहीं बदलेगी सियासत देश की , काठ की हांड़ी को नहीं बारम्बार चढ़ाया जाये।
अगस्त 13, 2020
आत्मनिर्भरता की पढ़ लो पढ़ाई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
आत्मनिर्भरता की पढ़ लो पढ़ाई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
पहले अध्याय में गहराई है ऊंचाई है शादी की परंपरा कब किसने क्यों बनाई है। जाने किसने बेमेल जोड़ी बनाई है एक बकरा है एक कसाई है बारात है दूल्हा दुल्हन बजती शहनाई है। उलझन है हर किसी ने उलझन उलझाई है हर कोई कहता है तू बड़ा हरजाई है। भला कौन किसको खिलाता है हर कोई अपने नसीब का खाता है विधाता ही दाता है दुनिया भिखारी है कानून कितने हैं समाज के नियम हैं अदालत सरकारी है। ज़रा सी देर में अविवाहित विहाहित बन जाता है उसके बाद कोई रास्ता उधर नहीं जाता है। मुझे बस यही समझ आया है झूठे सभी बंधन झूठी मोह माया है। शादी से परेशान हैं भविष्य से अनजान हैं क्या किया क्यों किया सोचकर हैरान हैं। अलग होने का पूछते रास्ता बताओ अगर ज़रूरत है पास मेरे आओ तलाक की बात छोड़ो बंधन को तोड़ो भाग जाओ भूलकर फिर से नहीं शादी रचाओ जिओ उसको भी जीने दो का रास्ता आज़माओ। आत्मनिर्भरता की पढ़ना पढ़ाई उसके बाद सोचना क्यों करनी शादी क्यों करनी सगाई। मुझे देख लो मैं विवाहित नहीं न ही कुंवारा मुझे चाहिए क्यों किसी का सहारा। मैं ये बाज़ी खेला इस तरह से नहीं जीत पाया मगर नहीं फिर भी हारा। हर कश्ती को मिलता नहीं है किनारा नहीं सबको मांझी ने पार लगाया। ये दरिया है डूबकर पार कर लो मौत को ज़िंदगी मत समझना इसे छोड़ कोई और कारोबार कर लो।
सरकार विवाह कानून में बदलाव करने पर विचार कर रही है। लड़के-लड़की की आयु के साथ साथ शादी की पढ़ाई विषय में पचास फीसदी अंक पाने की शर्त अनिवार्य की जा सकती है। सरकारी इश्तिहार टीवी अख़बार में नियमित दे सकते हैं कि गठबंधन करने से पहले सावधान रहना है जांच लें कि दोनों में आत्मनिर्भरता की पढ़ाई की है और शादी के विषय काअध्यन किया है अच्छे अंक मिलने वाले को ही चयन करने का सुझाव और हिदायत जारी की जाएगी। शादी विषय का अध्यन करना सभी के लिए कल्याणकारी है यही ईलाज है ऐसी बिमारी है। शादी कहते हैं खाना-आबादी है मगर कभी बन जाती ये भी बर्बादी है। पढ़नी इस की पूरी तरह से समझकर पढ़ाई है सभी की इसी में भलाई है।
अगस्त 12, 2020
इक गुनहगार जैसी ज़िंदगी ( हिक़ायत ) डॉ लोक सेतिया
इक गुनहगार जैसी ज़िंदगी ( हिक़ायत ) डॉ लोक सेतिया
अगस्त 09, 2020
सुनो इक सच्ची कहानी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
सुनो इक सच्ची कहानी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
मेरा नाम झूठ है ये सबसे बड़ा सच है , मुझसे सभी प्यार करते हैं सच कहता हूं सच से मुझे दुश्मनी हैं सभी लोग सच से डरते हैं। मेरा वजूद बहुत पुराना है मुझे याद हर प्यार का तराना है इश्क़ करने वालों से मेरा नाता पुराना है। कहानी मुहब्बत की मेरा फ़साना है हर आशिक़ से माशूक़ का जो भी झूठा बहाना है समझ लो मेरा किस्सा सदियों पुराना है। कभी झूठ बोलने से मौत मिल जाती थी कसम झूठी नहीं कोई खाती थी। फिर युग बदला लोग आधा सच बताने लगे जो कहना नहीं था उसको छिपाने लगे। शायद ये सच है दुमछल्ला लगाने लगे झूठ को इस तरह अपनाने लगे सच से दामन बचाने लगे झूठ से दिल लगाने लगे। आपने भी सुना और स्वीकार कर लिया कि ये दुनिया इक झूठा सपना है यहां कौन किसी का अपना है। जब ये संसार ही सच नहीं है झूठ है तब झूठ के इलावा बचा क्या है। झूठ है दुनिया और हमको जीना है यहीं झूठ को सच मानकर। आज कलयुग का ज़माना है आपके दिल में मेरा ठिकाना है बस यही आपको समझाना है मेरा आपका पक्का याराना है। हर किसी ने मुझे देवता माना है।
ज़िंदगी में हर मोड़ पर कोई दोराहा आता है इक कठिन रास्ता सच की तरफ जाता है कोई सड़क नहीं है न कोई पगडंडी है कांटों भरी राह है खतरे ही खतरे हैं। मेरी तरफ आने को राजमार्ग बनाये हैं आसानी से हर मुश्किल से पार जाने को पुल बनवाये हैं झूठ ने सभी को लुभाया है गले से मुझे आपने भी लगाया है कितनी बार सभी ने आज़माया है यही पाया है सच है तपती धूप झूठ शीतल छाया है। नादान थे लोग जो झूठ से बचते थे सच की खातिर जीते थे बार बार मरते थे। सब लोग उनको ज़हर पिलाते थे सूली पर सच बोलने वाले को ही चढ़ाते थे सच का क़त्ल करने वाले मसीहा कहलाते थे। मुझसे कभी लोग नफरत किया करते थे जो भी झूठा हो पापी उसे कहते थे मगर वक़्त आने पर काम उनके झूठ ही आया सच कभी किसी का पेट नहीं भर पाया। झूठ हर समय सभी के काम आया झूठ को अपना जिस किसी ने बनाया खूब खाया सबको खिलाया झूठ की बुनियाद पर घर अपना बनाया बाहर घर के नाम सच लिखवाया। कुछ इस तरह झूठ को सच से महान बनाया।
देखो है झूठ का राज जब से आया सच दुनिया में कहीं भी नज़र नहीं आया। झूठ ही तेरा भगवान है बंदे चंगे लगते हैं जो लोग हैं मंदे। गंदे हैं फिर भी अच्छे हैं धंधें ये धर्म ये राजनीति ये सत्ता के हथकंडे। आपको मेरी चाहत का ऐतबार है जानते हैं झूठ ही सच्चा दिलदार है झूठ सभी का अपना है सच तो कोई टूटा हुआ सपना है अब सच का निशान नहीं है सच किसी के घर महमान नहीं है झूठ माई बाप है जिसका कोई एहसान नहीं है। मुझे खोजना है न देखना है न आज़माना है मैं रहता तुम्हारे अंदर मेरा ठिकाना है ये राज़ नहीं है पर फिर भी सबसे छुपाना है। इस युग इस जहां में रहने को झूठ को बचाना है ये रिश्ता अपना सबसे सुहाना है झूठ का अपना इक तराना है हमने मिलकर गाना गुनगुनाना है। सबको ये अब जाकर बताना है इक झूठ का मंदिर हमने बनाना है मिलकर झूठ को सबने मनाना है उस के दर से झोली भर भर के लाना है। झूठ ही आजकल भगवान बन गया है सच अनचाहा वरदान बन गया है सच को कभी अपना नहीं बनाना झूठ से नाता हमेशा निभाना। झूठ की नैया पार लगाएगी सच की दौलत नहीं किसी काम आएगी कोई बैरागन बिरहा का गीत जाएगी सच को खो गया है उसको बुलाएगी शहर गांव से बाहर अकेली भटकती रहेगी सुनसान वीराने में आधी रात को उसकी आवाज़ आएगी।
आजकल इंसान में इंसान नहीं मिलते इंसान के भीतर ज़मीर आत्मा भगवान नहीं रहते। बस झूठ सभी के अंदर रहता है जो खुद को सच भी कहता है। पहचान सके तो पहचान लो खुद को झूठे हो मान लो मान लो खुद को। सच कभी मन में रहता था सभी के कहा करते थे झूठ कोई बोले उसको तुम हो झूठे कहीं के। मगर हुई जब झूठ से जान पहचान सभी की मुरादें मिलीं हुई पूरी हर हसरत सभी की। मन से सच को बाहर तब निकाला उसे ज़िंदा रहते ही क़त्ल कर डाला। दफ़्न सच को अपने अंदर कर दिया है होंटों के सच को सिल दिया है सच जाने कहां इक घुटन बन गया है सच पराजित नहीं हुआ शायद मर गया है। उठा कोई जनाज़ा न कोई मज़ार कहीं सच की बनी है करे कौन साबित है क़त्ल हुआ सच कैसे। झूठ है कानून झूठ है दौलत झूठ दुनिया झूठ पैसे झूठ की अदालत ने सुनाया है फैसला नहीं कोई गवाह हो जिसने सच को ज़िंदा भी देखा। कहीं अधमरा शायद रहता था कोई न कोई उसका वारिस न कोई वसीयत भी लावारिस की तरह सच का अंजाम होना था। सच क्या था लगता है मिट्टी का खिलौना था कभी न कभी चूर चूर होना था। सच फुटपाथ पर सोता था लगता है बिस्तर नहीं था न कोई बिछौना था। यही कभी होना था होना था।
अगस्त 07, 2020
हैवानियत शर्मसार नहीं ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
हैवानियत शर्मसार नहीं ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
समझते हैं अभी भी दुनिया उन्हीं से है जिनको नहीं खबर आना जाना किधर से है। ये लोग जो खुद को भगवान समझते हैं इंसान को भी नहीं इंसान समझते हैं। लगता है इन्हें बड़ा काम किया है इस हाल में जो अपना काम किया है। क्या हवाओं ने कहा हमने चलना नहीं छोड़ा कोरोना के डर से किसी भी अनहोनी से घबरा के ये उनका फ़र्ज़ कुदरत का तरीका है कोई नहीं किसी पर एहसान किया है। सुनते थे जब नज़र आता है कयामत का नज़ारा मिट जाता है अपने होने नहीं होने का अहंकार सारा तब किया करते हैं गुनाहों से तौबा भीतर कोई ज़मीर जगाता है तब ऐसी घड़ी में इंसान बदल जाता है। पर देख कर हैरान हैं बंदे भी खुदा भी अभी भी गलत रास्ते पर कुछ लोग चल रहे हैं बड़े ऊंचे मीनार ज़मींदोज़ सामने पड़े हैं उनकी फ़ितरत है अभी भी अकड़ रहे हैं। अपने ईमान का सौदा हर रोज़ कर रहे हैं कहने को तो ज़िंदा हैं समझो तो मर गए हैं। रिश्वत बेईमानी अपने फ़र्ज़ को नहीं निभाना शराफ़त का लफ़्ज़ सीखा पढ़ा है न है जाना। उनको नहीं मालूम है दिन चार जीना चलना है रहेगा यहीं सब ठौर ठिकाना। इंसान हैं इंसानियत से पहचान नहीं है नहीं जानता बिना बात ही बदनाम नहीं है। काम आएगी ये पाप की दौलत न हराम की कमाई जब ऊपर वाले के घर होगी रसाई। अब तो इंसान बनकर दिखाओ अपने हक़ ईमान की रोज़ी रोटी कमाओ किसी को नहीं लूटो न किसी को सताओ जो गलत काम करते उनके हौंसले न बढ़ाओ शासक हो अफ़्सर हो पुलिस हो या हाकिम चाहे मुंसिफ थोड़ा तो ख़ौफ़ उस खुदा का खाओ। कितने गुनाह किये हैं हिसाब लगाओ अपने दिल पर हाथ रखकर सच सच बताओ भगवान की लाठी की कोई आवाज़ नहीं होती है मुमकिन है बाद में बहुत पछताओ। आदमी बनकर आदमी के साथ बात करो बस कुछ भी नहीं हस्ती तुम्हारी मत इतराओ।
अगस्त 06, 2020
भय बिनु होई न प्रीति ( हे राम ) डॉ लोक सेतिया
भय बिनु होई न प्रीति ( हे राम ) डॉ लोक सेतिया
अगस्त 05, 2020
बुलाया नहीं गया ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
बुलाया नहीं गया ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
इस ज़माने में जीना दुश्वार सच काअब तो होने लगा कारोबार सच का।
हर गली हर शहर में देखा है हमने
सब कहीं पर सजा है बाज़ार सच का।
ढूंढते हम रहे उसको हर जगह , पर
मिल न पाया कहीं भी दिलदार सच का।
झूठ बिकता रहा ऊंचे दाम लेकर
बिन बिका रह गया था अंबार सच का।
अब निकाला जनाज़ा सच का उन्होंने
खुद को कहते थे जो पैरोकार सच का।
कर लिया कैद सच , तहखाने में अपने
और खुद बन गया पहरेदार सच का।
सच को ज़िन्दा रखेंगे कहते थे सबको
कर रहे क़त्ल लेकिन हर बार सच का।
हो गया मौत का जब फरमान जारी
मिल गया तब हमें भी उपहार सच का।
छोड़ जाओ शहर को चुपचाप "तनहा"
छोड़ना गर नहीं तुमने प्यार सच का।
अगस्त 03, 2020
तुम्हारी याद जब आई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
तुम्हारी याद जब आई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
कोई दौलत ज़माने की
नहीं हमको कभी भाई ।
क़यामत की सियासत है
उधर जाना इधर लाई ।
हमारा कौन अब "तनहा"
हुआ करती थी बस माई ।