अक्टूबर 24, 2024

POST : 1914 भगवान तेरे नाम पर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         भगवान तेरे नाम पर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

सोच रहा है दुनिया वाले कितने भोले हैं सब मेरे नाम पर दर्ज करते रहते हैं , उसकी मर्ज़ी से सब कुछ ही नहीं होता बल्कि उसकी मर्ज़ी बिना पता तक नहीं हिलता । क्या ये नाम शोहरत की बात है कदापि नहीं भला जो नहीं किया कभी करना नहीं चाहता कितना कुछ घटता है हर घड़ी हर जगह अगर मैंने किया करवाया या होने दिया तब मुजरिम हूं मैं सज़ा का हक़दार हूं । चाहता हूं बताना बता नहीं सकता कितना बेबस कितना लाचार हूं । जिनका भरोसा है मुझ पर कि मैं हूं समझते नहीं मेरी बात करते हैं अपनी मनचाही बात मिलने को उन से बहुत बेताब बड़ा बेकरार हूं । दुश्मन नहीं किसी का न ही मैं किसी का यार हूं नफ़रत भरी दुनिया आपकी है और मैं प्यार सिर्फ प्यार हूं । हर शख़्स कहता है मुझ से अच्छा कोई नहीं है जाने क्यों दुनिया उसको भला नहीं मानती उस को नहीं किसी को पसंद नहीं करती सच मुझे नहीं मालूम ऐसा कौन करवाता है जितने भी शरीफ़ लोग हैं ज़माना उनको खराब साबित करता है मुफ़्त में बदनाम करता है । मेरा विश्वास है जो जैसा है उसको सभी वैसे लगते हैं समस्या ये है कि कोई भी खुद को आईने में नहीं देखता है । सभी लोग अगर अपने भीतर मन में झांक कर देखते तो ये परेशानी कभी नहीं होती है । सदियों से युग युग से इंसान इंसान को अपने आधीन रखने की कोशिश करता है गुलामी विधाता ने नहीं लिखी है किसी आदमी किसी देश किसी समाज की तकदीर में । अन्याय शोषण अत्याचार क्या इस का कारण ईश्वर के निर्धारित नियम हैं कदापि नहीं जब कुदरत से लेकर जीव जंतुओं तक को किसी अनचाहे बंधन में विधाता ने नहीं जकड़ा तब सिर्फ इंसान ही क्यों खुद ऐसे कायदे कानून बनाकर थोपता है अपनी खुदगर्ज़ी की खातिर मगर दोष मुझे देता है । 

दुनिया भर में सरकार के नाम पर शासक ताकत धन दौलत का उपयोग कर जब जैसा चाहा नियम कानून बनाकर साधरण लोगों पर शासकीय अधिकार चलाते हैं खुद को महान समझते हैं क्या भगवान से डरते हैं भगवान होना चाहते हैं । सरकारों ने कितनी योजनाएं घोषित की और दावे किये देश से भूख गरीबी और अन्य परेशानियां मिटाने को लेकर कभी निर्धारित अवधि तक कुछ भी सच साबित नहीं हुआ तो अपराधी कौन है । पुलिस न्यायपालिका प्रशासन सभी जिस कार्य को नियुक्त हैं अगर सफल नहीं हुए तो कारण क्या भगवान है , क्या भगवान ने उनको ये सब नहीं करने दिया । तमाम लोगों ने भगवान को भुलाया ही नहीं बल्कि ठगा है अच्छा किया तो हमने किया बुरा हुआ तो भगवान की इच्छा उसकी मर्ज़ी । भगवान को दुनिया ने शायद शैतान जैसा बनाना चाहा है उसके नाम पर झूठ फरेब छल कपट लूट का कारोबार क्या अब हिंसा दंगे फ़साद से समाज में भेदभाव नफ़रत फैलाने का कार्य किया जाने लगा है । भगवान कभी किसी महल या अन्य इमारत में नहीं रहता कण कण में वास करता इंसान के भीतर मन में आत्मा में बसता है , लोग बाहर जाने कहां कहां ढूंढने की बात करते हैं ढूंढना होता तो पहले समझते कौन है ईश्वर क्या है । अगर कोई कहता है कि यही दुनिया है जिसे मैंने बनाया था तो सही नहीं है अब ये दुनिया कोई और है आपने मेरी बनाई दुनिया को तबाह बर्बाद कर जिसे बेहद भयानक स्वरूप दे दिया है , मुझे इस दुनिया से घबराहट होती है मैं चाहता हूं इस बार कोई ऐसी दुनिया बनाऊंगा जिस में कोई बुराई कोई भेदभाव कोई अंतर छोटे बड़े का नहीं हो । कोई कहेगा इस दुनिया का अंत विनाश होना है जो मुझी ने करना है मगर ये सही नहीं है मैं चाहे कुछ भी हो अपने हाथों से बनाई खूबसूरत दुनिया को ख़त्म नहीं कर सकता । ये काम भी इंसान खुद करने लगा है आधुनिकता और किताबी शिक्षा से ज़िंदगी जीने के साधन बनाने की बजाय मौत और तबाही लाने वाले संसाधन बनाकर । क्या मैं भगवान इतना नासमझ हो सकता हूं जो ऐसी अनुचित बातों कार्यों को होते देख अपनी आंखें बंद कर बस अपना गुणगान सुनकर चिंतामुक्त रह सके , मेरी दुविधा कौन समझेगा , कहते कहते कोई अचानक गुम हो गया है अभी तक तो सामने था वार्तालाप करता हुआ । 

ईश्वर पर सुविचार | God Quotes in Hindi

         

अक्टूबर 22, 2024

POST : 1913 खुली आंखों से भगवान समझ आये ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     खुली आंखों से भगवान समझ आये ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

बात इंसाफ़ से भी अधिक महत्वपूर्ण है उनको इंसाफ़ की देवी की आंखों से काली पट्टी हटानी पड़ी बाद में याद आया उन्होंने पहले जब कोई दुविधा थी ईश्वर से सही निर्णय करने की क्षमता देने की विनती की थी । भगवान का फ़ैसला भला कोई ग़लत साबित करने की बात कहने का साहस कर सकता है भगवान से कौन नहीं डरता लेकिन सभी का भगवान एक वही नहीं जाने कितने भगवान किस किस ने बनाये हुए हैं । एक महात्मा जूदेव जी जब पैसे लेते कैमरे पर पकड़े गए तब समझा रहे थे पैसा ख़ुदा तो नहीं लेकिन ख़ुदा कसम ख़ुदा से कम भी नहीं है । वो जो ऊपरवाला है कभी किसी को सामने दिखाई नहीं देता सुनते हैं हज़ारों करोड़ों वर्ष तपस्या करते थे तब दर्शन देते वरदान देते मनचाहा इस कलयुग में ज़िंदगी छोटी सी है क्या खबर कब सांस की माला टूट जाये इसलिए आवश्यकता थी ऐसा भगवान खोजा जाये जो ज़रूरत पड़ते ही खड़ा हो बचाने को नैया पार लगाने को । वास्तविक ईश्वर ने जब देखा दुनिया बदल गई है भगवान विधाता की कोई आधुनिक परिभाषा घड़ ली है तब उसको अपना अस्तित्व बचाना था भगवान भरोसे का अर्थ समझाना था । भगवान ख़ुद को किस किस से बचाते इतने ख़ुदा ईश्वर हैं कि भीड़ में अकेले घबराते मुश्किल था कैसे समझाते अपना परिचय पत्र पहचान कहां से जुटाते । ज़रा सामने तो आ रे छलिया छुप छुप छलने में क्या राज़ है , कोई बुलाता रहा नहीं सामने आये कौन किसको क्या दिखाए , उनको कहो ढूंढ लाये ।
 
इंसाफ़ क्या होता है सिर्फ अदालत में सरकारी दफ़्तर की बात नहीं है , संविधान में सभी को एक समान जीने के अधिकार शिक्षा रोज़गार का तमाम मौलिक अधिकार सामाजिक बराबरी अपनी बात कहने का ही नहीं असहमत होने विरोध करने का भी अधिकार स्वतंत्रता में शामिल है । जिन अधिकांश लोगों को बुनियादी सुविधाएं नहीं हासिल भूखे नंगे बिना छत बेघरबार है उनके लिए कैसा न्याय , वो तो न्यायालय की चौखट तक नहीं पहुंचते हैं । शायद अब तथाकथित न्याय करने वालों को देश की वास्तविकता दिखाई दे अगर वो भी अपनी आंखों से स्वार्थ और महत्वाक्षांओं की पट्टी उतार कर मानवीय संवेदना से काम लेना सीख लें ।  अमीरों का न्याय अलग गरीबों का न्याय अलग क्या यही कानून का शासन कहला सकता है , भगवान किसी को कुछ भी करने या नहीं करने को निर्देश नहीं देते कभी । आपका विवेक आपकी अंतरात्मा आपका ज़मीर आपको उचित अनुचित का भेद करना सिखाता है । भगवान के नाम पर गलत को सही नहीं साबित किया जाना चाहिए ।  आख़िर में इक पुरानी ग़ज़ल अपनी किताब ' फ़लसफ़ा ए ज़िंदगी ' से पेश है :-

फैसले तब सही नहीं होते ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 

फैसले तब सही नहीं होते
बेखता जब बरी नहीं होते ।

जो नज़र आते हैं सबूत हमें
दर हकीकत वही नहीं होते ।

गुज़रे जिन मंज़रों से हम अक्सर
सबके उन जैसे ही नहीं होते ।

क्या किया और क्यों किया हमने
क्या गलत हम कभी नहीं होते ।

हमको कोई नहीं है ग़म  इसका
कह के सच हम दुखी नहीं होते ।

जो न इंसाफ दे सकें हमको
पंच वो पंच ही नहीं होते ।

सोचना जब कभी लिखो " तनहा "
फैसले आखिरी नहीं होते ।
 
 कानून अब अंधा नहीं', न्याय की देवी की मूर्ति की आंखों से हटी पट्टी, हाथ में

अक्टूबर 20, 2024

POST : 1912 दीवाली तक ही मौका है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   दीवाली तक ही मौका है  ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

जनाब के तेवर देख कर साफ़ लग रहा था अब भ्र्ष्टाचार की खैर नहीं , अपन को किसी से दोस्ती नहीं भाई अपन को किसी से बैर नहीं । भ्र्ष्टाचार भी अपना ही है , कोई भी तो गैर नहीं , ये इक कांटों भरा जंगल है कोई गुलशन की सैर नहीं । चलो आपको पहले इसकी पुरातन महिमा सुनाते हैं , लेन देन को लोग असली प्यार बताते हैं । सदियों पहले जब अंग्रेजी हुक़ूमत थी सरकार जनाब से मिलने को चपरासी को इक बीड़ी पिलाई थी चिंगारी सुलगाई कभी नहीं बुझ पाई थी , अगली बार देश आज़ाद हुआ बड़े बाबू की बारी आई थी उनको इक चाय पिलवाई थी दूर हुई कठिनाई थी । भगवान भ्र्ष्टाचार भाईचारा तीनों की कुंडली एक है बात की गहराई जिस को समझ आई थी उसने अपनी डूबती नैया पार लगाई थी । नये नये मंत्री बने नेता ने दीवाली तक की अवधि बताई थी समझने वालों को स्कीम नव वर्ष तक बढ़ेगी आगे भी बढ़ती रहेगी भविष्वाणी नज़र आई थी । आखिर इक ख़ास अधिकारी ने उनसे मतलब पूछा था कल तक आपके दल ने घोषणापत्र में ईमानदारी की मिसाल कायम की है ये प्रचार चलाया था आपने अपनी ही पिछली सरकार में पैसे का खेल चलता रहा कह कर इक तमाचा लगाया है , कुछ भी समझ नहीं आया है । पैसे नहीं मांगने की बात सही है , मगर मांगना क्या है विकल्प नहीं बतलाया है । बिन मांगे आजकल मोती नहीं मिलते सच है बच्चा रोता है तभी मां दूध पिलाती है सरकार भी जो जितनी झोली फैलाये उसको उतनी खैरात बंटवाती है ।
 
आपका आभार इक अगला सबक पढ़ाया है लेकिन आधा अधूरा है पाठ क्यों दुनिया को भरमाया है , झूठी मोह माया है सब फिर कैसा जाल गया बिछाया है । कभी राजनेताओं का सरकारों का ख़ाली पेट नहीं भरता है जिसने भी बजट बनाया है जनता को बहलाया है खाया भी खिलाया भी और हर दिन उड़ाया है हर दिन सभाओं में पैसा पानी की तरह गया बहाया है । अधिकारी कर्मचारी और शासक मिलकर गंगा में डुबकी लगाते हैं कुछ को मिलती सीपियां हैं कुछ मोती पाकर इतराते हैं । घोटालों की क्या बात है हर किसी का इक प्याला है इस देश में जनता का बस इक वही ऊपरवाला है । सत्ता का दस्तूर निराला है जो गोरा है वही काला है खेल यही मतवाला है किस किस ने किसको पाला है हर मुंह में कोई निवाला है भिखारी सारी दुनिया है दाता इक राम है ये बात बड़ी आसान है काम का होता दाम है । बिना दाम कोई नहीं करता काम है सबको भाता विश्राम है । रिश्वत का नाम बड़ा बदनाम है ये तो इक महादान है करता सबका कल्याण है । आपने गज़ब फ़रमाया है त्यौहार का उपहार बंटवाया है इस तरह से नित नई योजनाओं ने जनता को ठगा उल्लू बनाया है ।
 
कुछ लोग हर रोज़ शहर में अपनी सत्ता की लाठी चलाते हैं , पुलिस वाले नगरपरिषद वाले से बड़े अधिकारी तक सब्ज़ी फल से ज़रूरत का सामान तक चपरासी भेज मंगवाते हैं । पैसे नहीं मांगते बस मुफ़्त का माल खाकर गुज़ारा चलाते हैं इसको घूस नहीं मानते रिश्ते निभाते हैं जब कोई कानून अड़चन हो काम आते हैं पकड़े जाने पर बचाते है । ये परंपरा है भूखों को जो खिलाते हैं पुण्य कमाते हैं आपको इक सच्ची घटना बताते हैं । इक व्यौपारी पर हिसाब किताब में हेराफेरी ढूंढने को छापा पड़ा कोई गलती हिसाब किताब में नहीं पकड़ी गई तो अधिकारी ने कहा सेठ जी आपका बही खाता सही है पर सुबह से कुछ नहीं खाया जाने से पहले कुछ खाना मंगवा दो । मुनीम जी होटल से खाना खरीद कर लाये सभी खा कर खुश हुए तब मुनीम जी ने पूछा सेठ जी ये खर्च किस पर हुआ बही में लिखना है , सेठ जी ने कहा लिख देना इतने पैसे की रोटी भूखे कुत्तों को खिलाई है सुन कर असलियत समझ आई यही होती है चतुराई । भैंस अपनी हुई पराई सरकारी लोग खुद को समझते हैं घर जंवाई उनको चाहिए दूध मलाई छाछ जनता की ख़ातिर है बचाई । आपको किसने रोका है ईमानदारी की बात सबसे बड़ा धोखा है दीवाली तक का अभी मौका है उस के बाद चौका है कैच नहीं होगा दावा है नो बॉल है भ्र्ष्टाचार ख़त्म कभी नहीं होगा बस बाल की खाल की मिसाल है । ये चलन बख़्शीश देने से शुरू हुआ था अब छीनने तक पहुंचा है भ्र्ष्टाचार विकास कहलाता है जो देता है वही पाता है आधुनिक भाग्य विधाता है कौन ऐसा करते शर्माता है ।  
 
  
 भ्रष्टाचार की समस्या - Amrit Vichar
  

अक्टूबर 18, 2024

POST : 1911 आडंबर शानो - शौकत पर पैसे की बर्बादी ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

 आडंबर शानो - शौकत पर पैसे की बर्बादी ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

लगता है अब तो किसी को सरकारी धन संसाधनों की बर्बादी की कोई चिंता ही नहीं है सुरसा के मुंह की तरह थमने का नाम नहीं लेते सरकार के बढ़ते हुए खर्चे जिनका मकसद सामाजिक सरोकार नहीं शासकों का अपनी शोहरत का ढिंढोरा पीटना है । लोकतंत्र में चुनाव जीतना सत्ता हासिल करना वास्तव में जनता की अपेक्षाओं आकांक्षाओं पर खरा साबित होने का दायित्व उठाना है शपथ ग्रहण करने का अभिप्राय कोई जश्न मनाना नहीं होना चाहिए । लेकिन राजनेताओं को जश्न मनाने का अवसर लगता है क्योंकि शायद किसी को जनता समाज की समस्याओं बुनियादी ज़रूरतों और सामन्य लोगों का जीवन स्तर बेहतर करने की चिंता नहीं सत्ता के अधिकारों का मनमाना उपयोग करने की छूट मिलना लगता है । हरियाणा में नवनिर्वाचित सरकार का शपथ ग्रहण समारोह भव्यता और शानो - शौकत की मिसाल था जिस में पचास हज़ार लोगों के लिए पंडाल एवं अन्य कितने ही संसाधन सुविधाओं का प्रबंध किया गया जिस पर समाचार है पचीस करोड़ रूपये खर्च किए जाने का । आप सोचते रहें नेताओं को मिलने वाले अनगिनत लाभ सुविधाओं और संसद बनने के बाद या विधायक बन चुकने उपरांत मिलनी वाली कितनी पेंशन के औचित्य पर यहां अभी शुरुआत है और आगे पांच साल तक जनकल्याण नहीं शासकों की अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति पर पैसा इसी तरह पानी की बहाया जाएगा ।    
 
लोकलाज की बात कौन करे आजकल सत्ता पर आसीन है शख़्स खुद को शाहंशाह समझता है और जनता का धन मनचाहे तरीके से गुलछर्रे उड़ाने पर खर्च करता है । अभी समाचार पढ़ा साहित्य अकादमी के पुरूस्कार हरियाणा से बाहर कितने राज्यों के लेखकों को देने का ऐलान किया गया है । सत्ता मिलते ही नियम कायदे छोड़ अपनों को रेवड़ियां बांटते हैं सभी हमने तो ये भी देखा है कोई लेखक नहीं बल्कि प्रकाशक साहित्य अकादमी का निर्देशक बनाया गया । जानकारी तलाश की तो पता चला 2014 में मोदी जी के शपथ ग्रहण समारोह पर खर्च हुआ था 17.6 करोड़ जिस में चार हज़ार महमान आमंत्रित थे लेकिन जब दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के शपथ ग्रहण पर उस से अधिक पैसे खर्च हुए तब भारतीय जनता पार्टी ने उसकी आलोचना की थी । सवाल केजरीवाल का नहीं है वो भी राजनेताओं में शामिल हैं जिनकी कथनी और करनी अलग अलग होती है ।
 
हमारे समाज में कोई वास्तविक नायक नहीं है गांधी जी शास्त्री जी जैसा जो देश को सादगी से ईमानदारी से जीवन यापन करने की राह दिखाने को खुद अपना आचरण उसी तरह से निभाना ज़रूरी समझे । कितने आयोजन कितने तरह के समारोह पर धार्मिक दिखावे पर पैसा खर्च किया जाता है कुछ पल में करोड़ों रूपये धुंवां बन उड़ जाते हैं जिनका उपयोग दीन दुखियों की सहायता में किया जाता तो शायद बहुत सार्थक प्रयास हो सकता था । नववर्ष या अन्य अवसर पर कुछ लोग जिस संस्था के अध्यक्ष सचिव होते हैं उस संस्था का धन खुद अपने नाम से विज्ञापन प्रचार में करने से संकोच नहीं करते हैं । मेरी मर्ज़ी जैसे खर्च करूं का युग है कभी सुनते थे जब चोरी का माल हो तो बांसों के गज से पैमाईश की जाती है , माल ए मुफ़्त दिल ए बेरहम । अलीबाबा चालीस चोर की आधुनिक कथा यही है खाना खिलाना ही नहीं उड़ाना भी है हसरत अभी बाक़ी है शीशा है प्याला है और साक़ी है , आगाज़ है अंजाम क्या होगा ये झांकी है ।
 
         माल-ए-मुफ्त दिल-ए-बेरहम..... | Quotes & Writings by Mrinal Singh | YourQuote

अक्टूबर 16, 2024

POST : 1910 जादूगर का खेल तमाशा ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   जादूगर का खेल तमाशा ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

चलो बुलावा आया है , इक आलमपनाह ने दरबार सजाया है ,
जीत का जश्न मना लिया , अब ताजपोशी का दिन आया है । 
 
आधुनिक ढंग की सियासत ने , ग़ज़ब का ये चलन चलाया है 
लोकतंत्र चीथड़े पहने हुए खड़ा , सत्ता को मुकट पहनाया है । 
 
ये सत्ता की इक बस्ती है जिसमें , महंगी ज़िंदगी मौत सस्ती है ,
अच्छा क्या बुरा क्या छोड़ो अभी , खूब नाचना करनी मस्ती है ।
 
सबका मज़हब धन दौलत है , शासक बनकर के होती हस्ती है
इंसान नहीं भगवान है राजा , क्या  मिसाल की बुत - परस्ती है ।
 
उस दुनिया के निवासी हैं जिस में , भुखमरी नसीब हमारा है 
कोशिश जितनी कर देखी बदलाव की जनमत हमेशा हारा है । 
 
भाषण की मशाल वादों की शमां का बस खेल उनका सारा है 
कुछ भी नहीं नज़र आता , चहुंओर ही फैला हुआ अंधियारा है ।
 
अब ऐसा हाल है , जूतों में बंटती दाल है , तिरछी टेढ़ी चाल है
गिरगिट सा किरदार , रंग बदल कर कालिख़ बन जाती गुलाल है । 
 
कानून जिसकी ढाल है , फैली तोंद भी फूले हुए लाल गाल है 
हर चेहरा बदला बदला है , आईने ने किया क्या क्या कमाल है । 
 
जिसका कोई हल नहीं निकलता , गरीबी ऐसा कठिन सवाल है 
बेख़बर हक़ीक़त से बड़बोला है  , उसका नाम अख़बारी लाल है ।
 
सोना सस्ता है महंगा पीतल है , राजनीति की खुली टकसाल है
बाढ़ सूखा अकाल भूकंप , राहत सामग्री खा जाता कोई दलाल है । 
 
सूअर की आंख में किसका बाल , ख़त्म नहीं होती जांच पड़ताल है
करोड़ों के घोटाले होते देश में , नहीं कहना अर्थ व्यवस्था कंगाल है । 
 
बारिश है आंकड़ों की हां सूखा रहता , जनता का हर इक ताल है      
बबूल बोन वाले लोगों को मिलते हैं आम खाने को किया कमाल है ।
 
महमान बन कर आये थे नेता , खुद मालिक घर से दिया नकाल है
समस्या विकट है गंजे सर कितने बाल , संसद में मचा ये बवाल है ।  
 
हवाओं में ज़हर है घोलता , शिकारी कौन किसका बिछाया जाल है 
सत्ता के गलियारों की यही करताल है , जेल नहीं गुंडों की ससुराल है ।
 
लोकतंत्र से मत पूछो कैसा हुआ उसका हाल है , किस दर्द से बेहाल है
भविष्य क्या बताये कोई भूतकाल से भयानक होता वर्तमान का काल है ।
 
खेल तमाशा जादूगर का नहीं होता , सच वही जो नज़र सबको आता है
महलों में रहने वाला ताजमहल बनवा , सब गरीबों का मज़ाक उड़ाता है । 
 
चोर सिपाही भाई भाई , दुल्हन ने सेज सजाई सुनते हैं बजती शहनाई 
बड़े बड़े प्यारे सपनों से दिल बहलाता , शासक बना कोई मुंगेरीलाल है ।   


    Haryana CM Oath Ceremony: हरियाणा CM के शपथ समारोह को ग्रैंड बनाने की  तैयारी; पंचकूला सेक्टर 5 नो फ्लाइंग जोन घोषित
 
     

अक्टूबर 14, 2024

POST : 1909 शपथ आइसक्रीम की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

          शपथ आइसक्रीम की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

     सरकार ने महत्वपूर्ण आदेश जारी किया था सभी विभागों को निर्देश दिया गया था निर्धारित दिन समय तारीख़ को ये कार्यक्रम आजोजित करना ज़रूरी है । देश की राजधानी से लेकर ज़िला तहसील गांव तक हर दफ़्तर में हर कर्मचारी अधिकारी से चपरासी चौकीदार तक पुलिस प्रशासन सभी को शपथ खानी है रिश्वत नहीं खाने की ईमानदारी से कर्तव्य निभाने की । कोई भी लापरवाही करता है अथवा अनुउपस्थित रहकर शपथ खाने से वंचित रहता है तो उसकी निष्ठा संदिग्ध मानी जाएगी और ऐसे लोगों को उन जगहों पर नियुक्त किया जाएगा जहां चाह कर भी कोई घूस नहीं खा सके । बड़े अधिकारी ने इस आवश्यक कार्य  में कोई भूल चूक नहीं रहे इसलिए बैठक बुलाई है । मंत्री जी भी शामिल होंगे सुनते सभी उत्सुक थे कि चलो इस अवसर पर शपथ ही सही कुछ तो खाने की बात होगी अन्यथा मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री जैसे लोग न खाने न ही खाने देने का भाषण देते हैं । खाना खिलाना ज़रूरी है आपसी संबंध बनाने के लिए इस में कोई संशय नहीं हो सकता है । बड़े अधिकारी से साथ बैठे अधिकारी ने धीमी आवाज़ में सवाल किया जनाब शपथ खानी है या उठानी होती है , बात सोचने की थी इसलिए इक साहित्यिक रूचि रखने वाले से अंतर जानने को करीब बुलाया और पूछा । उसने कहा दोनों एक ही बात लगती हैं लेकिन फर्क तो है शपथ उठानी है तो हाथ में कब तक संभाली जा सकती है सर पर रखनी पड़ेगी इक बोझ हमेशा बना रहेगा जबकि खाने से पेट में हज़्म होकर जल्दी ही हल्कापन फिर से महसूस किया जा सकेगा पाचनशक्ति सरकारी विभाग की कभी कम नहीं होती है । 
 
अधिकारी को निर्णय करना है कब किस की खिलाई जाये खाई जाये , चाह नाश्ते के साथ या फिर भोजन में लंच करते हुए , बजट कितना है काजू बादाम शीतल पेय मंत्री जी को सब का लुत्फ़ उठाना अच्छा लगता है । दूसरे इक अधिकारी ने जानना चाहा क्या लिखित शपथ पत्र पर हस्ताक्षर कर विवरण देना होगा किस ने कब किस को खिलाई थी शपथ कब से लागू होकर कितने समय तक प्रभावी रहेगी । बड़े बाबू का सवाल था कभी कोई रिश्वत लेते पकड़ा गया तब क्या इस शपथ पत्र को प्रस्तुत कर बच जाएगा जैसे अन्य सरकारी कागज़ी प्रमाण से होता है । इसको तमगा बनाकर दफ़्तर में टांगना होगा या घर की अलमारी में सुरक्षित रखना होगा जब भी ज़रूरत होगी पेश कर दिया जाएगा । अधिकारी ने कहा ये सब छोड़ो पहले बताओ पिछले साल जो तख्तियां लगवाई थी जिन पर लिखा था यहां रिश्वत मत दें यहां रिश्वत नहीं ली जाती है उनका असर क्या हुआ । इस पर बड़े बाबू ने बताया जनाब दो बातों में अंतर बड़ा है , यहां रिश्वत न दें से समझदार जान जाते थे की किसी और जगह ये परंपरा निभाई जा सकती है । 
 
आला अधिकारी ने उनको टोक कर पूछा था व्यर्थ की बातों में उलझने की ज़रूरत नहीं है पहले ये विचार करना है कि शपथ किस रूप में खानी खिलानी है । नमकीन चटपटी या सलाद या फलों की चाट को शपथ का पर्याय समझना उचित होगा । सचिव ने निवेदन किया अगर अनुमति हो तो मैं सलाह देना चाहता हूं , अधिकारी ने हां का इशारा किया तो सचिव ने बताया , सब कुछ होगा चाय पकोड़े शीतल पेय मिठाई से तमाम व्यंजन खाने के बाद अंत में आइसक्रीम के स्वरूप में स्वादिष्ट शपथ खाई जा सकती है जिसको जो भी पसंद हो सभी उपलब्ध करवाई जा सकती हैं , वेनिला स्टॉबेरी बुट्टरस्कॉच टूटी फ्रूटी पचास तरह की मिलती हैं सभी चाव से खाते हैं । सबको लगा मौसम भी ऐसा है और आखिर में खाने से जैसे आइसक्रीम पिघलेगी हम भी भूल जाएंगे । औपचारिकता निभा कर मौज मनाएंगे कभी नहीं घबराएंगे जब सरकार कहेगी बार बार मंगवा खाएंगे खिलाएंगे । तैयारी बड़े ही शानदार ढंग से की जा रही है ईमानदारी की शपथ वाली आइसक्रीम सब को बुला रही है । जाने किसने शपथ ग्रहण समारोह में इक धर्म उपदेशक को बुलवा लिया जिसने समझाया कि शपथ स्वच्छ मन से शुद्धता का पालन करते हुए ली जानी चाहिए । आइसक्रीम कितनी असली है कोई नहीं कह सकता और सरकारी कर्मचारी अधिकारी मन की शुद्धता स्वछता की कभी चिंता नहीं करते सत्ताधारी लोग भी कपड़े साफ सुथरे और बढ़िया पहनते हैं भीतर की मैल पर कभी ध्यान नहीं देते फिर भी सभी ने शपथ ली मन में विचार कुछ और रखते हुए क्या क्या मत पूछना किसी से ।
   
 
 चॉकलेट आइसक्रीम चुनौती Multi DO Challenge

अक्टूबर 13, 2024

POST : 1908 सही समय का इंतज़ार ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

            सही समय का इंतज़ार ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

सरकार बेकरार है अभी बीच मझधार है समाज का करना उद्धार है बस सही समय का इंतज़ार है । जब संसद पर आतंकवादी हमला हुआ तभी घोषणा कर दी गई थी समय आ गया है इस को खत्म करने का । सरकार चाहती तो क्या नहीं कर सकती थी लेकिन सीमा पर पूरा साल भर फ़ौज तैनात रही मगर सरकार ने संयम रखा लड़ने झगड़ने से अच्छा है शांति के सफेद कबूतर उड़ाना । फैसला सही समय पर लेने का अर्थ होता है चुनाव के वक़्त दहाड़ना दुश्मन को ललकारना ताकि जनता को देश की सुरक्षा के सवाल पर वोट देने को प्रेरित किया जा सके । आतंकवाद घोटाले गरीबी शिक्षा रोज़गार अन्याय शोषण जैसी समस्याएं अभी क्या जल्दी है ख़त्म करने की अभी उनका इस्तेमाल सत्ता की राजनीति के मकसद से किया जा सकता है किसी भी शासक के पास अन्य कोई कारगर उपाय नहीं है जनता को प्रभावित करने का । भय बिनु होई  न प्रीति भगवान राम समझा गए थे धमकी देने से बात बन जाती है समंदर हाथ जोड़ सामने खड़ा होता है । रास्ता नहीं देता कोई बात नहीं कितने अनमोल हीरे जवाहरात उपहार में भेंट कर भगवान की नाराज़गी दूर कर खुश कर लेता है । भगवान राम भी जब समंदर को सुखाने को बाण का उपयोग नहीं करते अवसर देते हैं कोई न कोई बीच का रास्ता समझौता करने का निकलता अवश्य है । 
 
जनता को इस बार फिर से भरोसा दिलवाया है अच्छे दिन से भी बढ़कर शानदार क्या क्या उपहार सभी को बांटेंगे फिर से इक बार आज़माओ तो सही । जनता की आदत है मान जाती है धोखा हर किसी से खाकर भी रूठी हुई मनाते हैं तो मान भी जाती है कदम कदम ठोकर खाकर भी समझ नहीं पाती है सत्ता की गंदी राजनीति हमेशा झूठे ख़्वाब दिखलाती है । गरीबी भ्र्ष्टाचार सभी समस्याओं को ख़त्म करने का भी जनाब सरकार हज़ूर ऐलान कर ही देंगे बस अभी कितना कुछ उनको करना है कुछ खुद की कामनाओं को हासिल करने को कुछ खास अपनों की चाहतों को पूरा करने को । जनता को जन्म जन्म बार बार लेने का भरोसा है इस बार नहीं किसी अगले जन्म में सबकी बारी आएगी । सरकार विपक्षी दलों से सहयोग चाहती है हमेशा उनका आपसी तालमेल बना रहता है भले टीवी पर बहस में उलझते हैं मगर ऑफ दि रेकॉर्ड कुछ और मेल मिलाप करते हैं । पहले भी जाने कितनी बार शासकों ने साधारण जनता से अपील की है फिर इक बार सरकार ने देश की साधरण जनता से सहयोग मांगा है अभी परेशानियां सहन करें कोई आक्रोश कोई विरोध प्रदर्शन करना उचित नहीं है धीरे धीरे सब अच्छा लगने लगेगा । कोई आपत्काल घोषित नहीं किया गया बस देशहित में सही समय का इंतज़ार और राजनेताओं पर ऐतबार करें ये आग्रह आदेश निर्देश है । 

शायर दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल पेश है :-

होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिए , इस परकटे परिन्द की कोशिश तो देखिए । 

गूँगे निकल पड़े हैं ज़ुबाँ की तलाश में , सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए । 

बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन , सूखा मचा रही ये बारिश तो देखिए । 

उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें , चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिए । 

जिसने नज़र उठाई वही शख़्स गुम हुआ , इस जिस्म के तिलिस्म की बंदिश तो देखिए । 

( साये में धूप से आभार सहित ) 

भय बिनु होइ न प्रीति | सम्पादकीय | विनम्रता और प्रेम की भाषा | आतंकवाद और  अलगाववाद | पत्थरबाजी का दौर | भारत विरोधी आवाजें | भारत विरोधी ...

 
   

अक्टूबर 12, 2024

POST : 1907 तत्व ज्ञान की प्राप्ति ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

             तत्व ज्ञान की प्राप्ति ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

स्वामीजी मंच पर विराजमान थे सामने जहां तक नज़र जाये भीड़ ही भीड़ थी उनके अनुयाई दूर दूर से आते हैं प्रवचन की वीडियो बनाई जा रही थी सोशल मीडिया और टीवी चैनेल वालों को भेजने की व्यवस्था थी । मौत का भय मन से निकाल दो जब आनी है आएगी समय से पहले घबराना नहीं जब आएगी तो चलना कोई बहाना नहीं  , ज़िंदगी का कोई ठिकाना नहीं । अचानक गोली चलने की आवाज़ सुनाई दी स्वामीजी सुन घबरा गए उनको हमेशा आशंका रहती थी कोई उन पर जानलेवा हमला कर सकता है अपनी सुरक्षा का प्रबंध किया हुआ था । मंच को घेरे खड़े सुरक्षकर्मी उनको तुरंत भीतर सुरक्षित जगह ले आये , उनको बताया गया कुछ उपद्रवी घुस आये थे पकड़े जा चुके हैं आयोजन जारी रहेगा शांति व्यवस्था कायम करवाई जा रही है । बाहर मंच पर माईक उनके सहयोगी ने संभाल लिया था भीड़ को संबोधित कर रहे थे स्वामीजी अभी वापस अपना प्रवचन दोबारा शुरू करने वाले हैं । स्वामीजी पसीना पसीना हो रहे थे सुरक्षा प्रबंधक उनको कह रहा था आपको अपना डर सामने नहीं लाना था आपने बुलेट प्रूफ जैकट पहनी हुई है और प्रवचन भी बुलेट प्रूफ शीशे के पीछे से दे रहे थे भगवान आपको बचाता या नहीं हम आपको बचाने को सजग रहते हैं । 
 
तभी किसी ने आकर बताया गोली स्वामीजी के ही एक शिष्य ने हवा में चलाई थी आपके प्रवचन की सच्चाई परखना चाहता था कि सबको मौत से भयभीत नहीं होने का उपदेश देने वाला क्या खुद वास्तव में नहीं डरता मौत से । उसने अपनी गलती स्वीकार कर ली है और सज़ा पाने को तैयार है लेकिन हमको इस बात को सार्वजनिक नहीं करना बल्कि खंडन करना है कि ऐसी घटना नहीं घटी ये झूठी मनघड़ंत अफ़वाह है । स्वामीजी को ज़िंदगी से कितना मोह है इस को समझ सकते हैं अनुयाई , मगर मरने से डरते नहीं स्वामीजी ये समझते थे जो उनको अचरज हुआ देख कर ।  
 
आयोजक मंडल आग्रह कर रहा था प्रवचन देने बाहर चलें पहले की रिकॉर्डिंग हटवा दी जाएगी और पूरी रिकॉर्डिंग दुबारा शुरू की जाएगी कोई भगदड़ कोई शोर का दृश्य नहीं दिखाई देगा । ऐसा लगेगा सभी आपकी बात से प्रभावित हो पूरे विश्वास से प्रवचन सुनते रहे । घटना को गलत साबित कर आपकी लोकप्रियता को और बढ़ावा मिलेगा बस आपको सुनने वालों को आदेश देना होगा कि इस की चर्चा कभी किसी से नहीं करें कि कुछ हुआ भी था सभा में । स्वामीजी को ऐसे में कोई भी अपना नहीं प्रतीत हो रहा था मन ही मन सोचने लगे जाने कौन उनकी जान लेना चाहता है । ख़ास विश्सवनीय लोग भी उनकी ज़िंदगी की परवाह नहीं कर उनको खतरे में डालना चाहते हैं क्योंकि उनका बहुत पैसा खर्च हुआ है जिसकी भरपाई उपदेश देने से भेंट में मिलने वाली राशि और अन्य संसाधनों से होने वाले मुनाफ़े से ही संभव है । स्वामीजी को लग रहा था अब इस कार्य में भी कोई भरोसा नहीं कौन श्रद्धालु है कौन दुश्मन बना फिरता है साथ चलते चलते अवसर की तलाश में । सीने में बेचैनी दर्द का बहाना बना सहायक को उपदेश जारी रखने को भेज आराम करने लगे । 
 
बड़ी मुश्किल थी किसी तरह से उपदेश देने से लेकर कितनों को शिष्य बनाने की रस्म निभाई थी । सब से पहले प्रवेशद्वार पर मैटल डिटेक्टर लगवाना ज़रूरी है निर्धारित किया था , किसी विद्वान ज्योतिषचार्य को अपनी कुंडली दिखलाई थी ग्रह स्थिति खराब है उपाय कठिन है सुनकर आत्मा कंपकपाई थी । रात भर नींद नहीं आई भूख मिट गई सामने रखी मिठाई गरीबों को बंटवाई थी । पूजा पाठ ईश्वर से प्रार्थना सब भूल गए नींद की गोली भी काम नहीं आई थी आंखों आंखों में पूरी रैना बिताई दुनिया लगने लगी हरजाई थी । सबकी प्रीत हुई पराई थी ज़िंदगी लगने लगी और भी अच्छी कीमत नहीं लगाई थी । स्वामीजी के वास्तविक ज्ञान-चक्षु ख़ुल गए थे किताबों से अर्जित ज्ञान व्यर्थ प्रतीत होने लगा जीवन मिथ्या है का उपदेश झूठा साबित हुआ मौत से डरना किसे कहते हैं महसूस किया आज पहली बार । स्वामीजी को अभिमान था तमाम साधु संतों में लोग उनको महाज्ञानी मानते हैं आज खुद उनको अपनी अज्ञानता समझ आई है । मन में इक विचार आया है कि सुबह होते ही प्रवचन देते समय यही घोषणा कर दें कि उनको तत्व ज्ञान की प्राप्ति हो गई है । 
 
लेकिन तभी उनका करोड़ों रूपये का हिसाब किताब देखने वाला मुनीम मिलने चला आया और महानगर में जगह मिल गई है सरकार से कौड़ियों के भाव खबर सुनते ही खोया हुआ आत्मविश्वास लौट आया । अपना स्मार्ट फोन उठाया और इक मधुर गीत का लुत्फ़ उठाया , ज़िंदगी से प्यार करना सीख लो , जिनको जीना हो पहले मरना सीख लो । नया बनने वाला आश्रम कुछ ऐसे ही विषय प्रकरण मज़मून पर आधारित होगा तमाम आधुनिक सुख  सुविधाओं से युक्त बदले स्वरूप में , जैसे पंचतारा होटल दफ़्तर होते हैं । सब कुछ  निर्धारित कर घोषणा की तो भीड़ का उत्साह देखने के काबिल था ।  स्वामजी का उपदेश ऑनलाइन नियमित प्रसारित होगा अथवा प्रवेश पत्र से आधुनिक सुरक्षा उपकरणों से जांच उपरांत ऊंचे सिंघासन से आवश्यक दूरी से दर्शन देंगे पहले से नियुक्ति करवाने वाले लोगों को । 
 
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अक्टूबर 11, 2024

POST : 1906 गरीबी की भूख से सत्ता की हवस तक ( परेशानियां ) डॉ लोक सेतिया

गरीबी की भूख से सत्ता की हवस तक ( परेशानियां ) डॉ लोक सेतिया  

लगता है जैसे सपना था कोई , आज जेपी जी का जन्म दिन है जिनका सारा जीवन अंदोलन करते गुज़रा । आज़ादी के अंदोलन से गांधी जी के गांधीवादी विचारों की अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के आंसू पौंछने की बात उस के बाद विनोबा भावे जी के सर्वोदय अंदोलन में साथ देश में बड़े छोटे का अंतर मिटाने को समाजवाद की मशाल जलाये रखना और अंतिम चरण में भ्र्ष्टाचार तानाशाही के ख़िलाफ़ संपूर्ण क्रांति अंदोलन बहुत कुछ लगातार किया और कभी भी कोई सत्ता या किसी अन्य राजनैतिक पद को स्वीकार ही नहीं किया । आज जब देखते हैं राजनेताओं को मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री पद की दौड़ में तमाम सीमाओं को लांघते लोकलाज छोड़ उचित अनुचित पर विचार करना छोड़ अपराधी लुटेरे एवं धर्म के नाम पर जनता को बांटने की सियासत करते तब लगता है जैसे इक पागलपन छाया हुआ है शहर शहर गांव गांव गली गली । कोई भी नेता अथवा किसी धर्म या सामाजिक संस्था से संबंधित जाना जाता व्यक्ति देश की बदहाली पर चिंतित नहीं शायद कोई सोचता ही नहीं कि जैसा समाज मिला है उसको पहले से बेहतर बनाना चाहिए ऐसा मकसद हर सभ्य इंसान का होना चाहिए । लेकिन अगर समाज पहले से खराब होता जा रहा है तब उन सभी को जिनका दायित्व है देश समाज की समस्याओं का समाधान करना , उनको अपनी नाकामी पर आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है । आज़ादी के 77 साल बाद अगर लोग भूखे हैं शोषण अन्याय अत्याचार के शिकार हैं महिलाएं क्या बच्चियां भी जब सुरक्षित नहीं हैं तो सरकार प्रशासन पुलिस सभी मुजरिम हैं कानून व्यवस्था से लेकर संविधान में बताये सभी को समानता के अधिकार दिलवाने में विफलता के लिए । 
 
खेद की बात है कि हमने ऐसे लोगों को अपना आदर्श समझ लिया है जो सिर्फ नाम दौलत शोहरत ताकत और सत्ता की हवस के शिकार हैं जिनको अपने लिए इतना चाहिए जितना पौराणिक कथाओं में दैत्य या राक्षस हुआ करते थे । अर्थव्यस्था में अंतर बढ़ता है जब अमीर गरीब से किसी भी तरह से छीनते हैं तब अमीर और अमीर होते जाते हैं गरीब और गरीब होते जाते हैं ये खाई बढ़ती ही जा रही है सरकारी आंकड़े भले कितना चाहें वास्विकता सामने आ जाती है । कल इक उद्योगपति रतन टाटा जी का निधन हुआ तब सभी इस पर चर्चा करते दिखाई दिए कि उन्होंने हमेशा देश समाज को पहले महत्व दिया और सामाजिक कल्याण को प्राथमिकता देते रहे । आजकल उद्योगपति कारोबारी लोग क्या भगवा धारण कर योग धर्म क्या क्या कारोबार करने वाले स्वार्थी और संवेदनहीन बन गए हैं । राजनेताओं ने चुनाव में लाखों नहीं करोड़ों करोड़ रूपये खर्च नहीं बल्कि बर्बाद किये हैं जो आते भी अनुचित ढंग से हैं और खर्चे भी अनुचित तरीके से चुनाव आयोग की निर्धारित सीमा को पार कर जाते हैं । लोकतंत्र को अपहरण कर लिया गया है पैसे और बाहुबल का उपयोग कर लेकिन न्यायपालिका चुनाव आयोग खामोश हैं क्योंकि वहां बैठे तमाम लोगों को देश समाज से पहले खुद अपनी शान ओ शौकत सुख सुविधाओं की चिंता होती है । न्यायधीश अधिकारी अभिनेता खिलाड़ी धर्म की बात करने वाले तमाम लोग सांसद विधायक बनकर शासक बनने को व्याकुल हैं देश सेवा जनता की सेवा करना उनका मकसद नहीं है उनको जितना मिला है देश समाज से थोड़ा लगता है । 
 
मुझे पचास साल पहले इक पत्रिका में निरंतर छपता कॉलम याद है जिस में संपादक का कहना था कि आप शिक्षित हैं किसी पद पर हैं नौकरी कारोबार में हैं तो केवल अपने खुद और परिवार का पालन पोषण और घर बनाना इत्यादि आपके सार्थक जीवन को नहीं दर्शाता है । जीवन की सार्थकता तभी है जब आप को अपने समाज से जितना मिला है आपको वापस लौटाना है , कभी कभी हैरानी होती है जब किसी अधिकारी या राजनेता से ये कहने पर जवाब मिलता है कुछ भी समाज से नहीं मिला उनको जो मिला माता पिता से या खुद प्रयास या परिश्रम कर के । तब कहना पड़ता है समाज ने शिक्षा व्यवस्था देश की प्रशासनिक प्रणाली कितना कुछ उपलब्ध करवाया हुआ है तभी आप कुछ कर पाए अन्यथा सिर्फ पैसे से सब नहीं मिलता । विडंबना है कि इतनी छोटी सी बात कोई नहीं समझता कि कितना चाहिए आदमी को आवश्यकता के लिए । 
 
महात्मा गांधी जयप्रकाश जैसे लोगों को जानते हैं उनके विचार क्या थे कभी सोचा नहीं पढ़ा नहीं जानना चाहा नहीं । तमाम बड़े महान आदर्शों पर चलने वालों का कहना है कि हमारे देश में सभी की ज़रूरत पूरी करने को सब कुछ है लेकिन किसी की हवस पूरी करने को मुमकिन नहीं है । बात कड़वी है मगर सच्ची है कि अधिकांश लोग भूखे बेबस हैं क्योंकि उनके हिस्से का कोई और अथवा कुछ लोगों ने ज़रूरत से अधिक संचय कर समाज को बर्बाद किया है , क्या इस पर गर्व किया जा सकता है सोचना जब कोई अमीरों की सूचि पढ़ना । साहिर ने इक शहनशाह के ताजमहल बनाने पर सवाल खड़ा किया था आजकल तो देश की हालत ऐसी है कि हर शाख पे उल्लू बैठा है , हां उल्लू लक्ष्मी का वाहन कहलाता है । हम सभी देशभक्ति और अपने अपने धर्म संस्कृति की कितनी बातें करते हैं देश प्रेम की भावना सभी में रहती है बस कमी है तो इतनी कि हमने समाज से पाना बहुत चाहा है मिलता भी कितना सभी को है लेकिन समाज को लौटाना भूल जाते हैं । ये बिल्कुल उसी तरह का ऋण है जैसे कोई अपने पूर्वजों का क़र्ज़ चुकाना भूल जाये , भारतमाता से हमको क्या नहीं मिला मगर क्या हमने अपनी भारतमाता की पीड़ा को समझा भी है । शायद नहीं यकीनन हमने समाज के प्रति अपना कर्तव्य भुला दिया है ये कोई किसी को कहता नहीं क्योंकि गुनहगार सभी हैं । जिन्होंने देश को आज़ाद करवाया भविष्य का निर्माण करने को आधार बनाकर सौंपा हमने उनकी आकांक्षाओं को पूर्ण नहीं होने दिया अपने अपने स्वार्थ में अंधे होकर जो करना चाहिए था किया ही नहीं ।  
 

 

अक्टूबर 10, 2024

POST : 1905 आज़ाद हैं मगर आज़ादी नहीं है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      आज़ाद हैं मगर आज़ादी नहीं है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

बस कहने ही को हम आज़ाद हैं लेकिन हमको क्या किसी को भी वास्तविक आज़ादी हासिल हुई नहीं अभी तलक । चुनाव में मतदान करने का अधिकार होना खुद जैसा चाहते हैं प्रतिनिधि चुनना नहीं नहीं है कोई खड़ा ही नहीं जो आदर्श और सच्चाई ईमानदारी की बात करता हो जितने भी उम्मीदवार खड़े हैं सभी को चुनाव जीतना है सत्ता पाने को देश समाज का कल्याण किसी की प्राथमिकता नहीं है तभी धन बल छल कपट बाहुबल हर उचित अनुचित ढंग अपना कर खोखले वादे झूठी कसमें उठा कर जनमत हथियाना चाहते हैं । आप बेशक नोटा का बटन दबाएं नतीजा बदल नहीं सकते उन्हीं में से कोई एक जीत जाएगा भले नोटा को सबसे अधिक संख्या वोट मिल भी जाएं फिर इस विकल्प का औचित्य क्या हुआ । कितनी बार चर्चा हुई कि जैसे गलती पता चलते ही सुधार का उपाय किया जाता है , निर्वाचित होने वाले प्रतिनिधि का आचरण सही नहीं होने पर जनता को अपने प्रतिनिधि को वापस बुलाने अर्थात हटाने का अधिकार होना चाहिए । एक बार चुनाव जीत गए तो सांसद विधायक पाला बदलने का रास्ता निकाल लेते हैं कभी पूरा दल ही जिस का विरोध किया उसी से जा मिलता है जनता को पांच साल उनकी मनमानी सहनी पड़ती है तब तक कितना कुछ बदल चुका होता है । जनता द्वारा निर्वाचित सांसद विधायक जब जनभावनाओं को नहीं समझ सत्ता का उपयोग कर जनता पर ही लाठियां गोलियां चलवाने लगते हैं तब संविधान न्यायपालिका निर्रथक साबित हो जाते हैं । 
 
जनता के चुने प्रतिनिधि जब तमाम विशेषाधिकार साधन सुविधाएं पाकर शानदार जीवन जीते हैं तब वो खुद भी अपने विवेक से अपना मत प्रकट करने को स्वतंत्र नहीं होते बल्कि जिस भी राजनीतिक दल में हों उनकी तमाम बातों का समर्थन बिना सोच विचार करने को विवश होते हैं ।  कोई भी राजनीतिक दल अपने सदस्यों को आज़ादी का अधिकार नहीं देता सभी पर इक तलवार लटकी रहती है विरोध करना असहमत होना अनुशासन भंग करना होगा करवाई कठोर संभव है । इतना साहस आजकल किसी में नहीं जो सही को सही कहकर गलत का विरोध कर नैतिकता पर खड़े होने की कीमत चुकाने को तैयार हो । जब हमारे देश की राजनीति खुद ऐसे कुछ मुट्ठी भर लोगों के हाथ की कठपुतली बनकर तानाशाही परिवारवाद धर्म संप्रदाय के नाम पर जनता को गुमराह कर होती है तब किसी भी दल में लोकतंत्र नहीं दिखाई देता तब किनसे हम देश में लोकतंत्र और सामन्य नागरिक के अधिकार की अपेक्षा रख सकते हैं । 
 
घठबंधन सरकार की विवशता अलग है पूर्ण बहुमत पाकर भी शासक बनने वाला प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री सिर्फ शपथ उठाता है सभी के प्रति न्याय और निष्पक्षता की लेकिन कुछ देर बाद भाषण देते समय उस संविधान की शपथ और लोकतांत्रिक मर्यादा की धज्जियां उड़ाता है विपक्षी दलों को लेकर टिप्पणियां करते हुए अपने पद की गरिमा को छलनी छलनी करते संकोच नहीं करता है । कभी किसी सरकार की डोर किसी विदेशी सत्ता विश्व बैंक आईएमएफ के पास रहती थी तो आजकल कोई संगठन अपने निर्देश पर देश की सरकार को बंधक समझ जकड़े रहता है । संविधान न्यायपालिका को छोड़ किसी भी अन्य व्यक्ति अथवा संघठन का कोई हस्ताक्षेप स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए जबकि उद्योगपतियों से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तक कितने लोग सरकार की प्राथमिकता और विवशता बने हुए जनता की समस्याओं की अनदेखी कर उनको रेवड़ियां बांटने का कार्य सरकार को करते देख रहे हैं । अजीब सूरत ए हाल है कोई विभाग सरकार के विरोधी को परेशान करने से सत्ताधारी दल को चंदा दिलवाने का कार्य करता है तो कोई सरकार को अपने अनुसार चलाने का प्रयास करता है । संसद की चौखट छोड़ किसी धनवान की चौखट पर राजनेता झुके कोई बात नहीं मगर सरकार से लेकर तमाम अन्य लोग ऐसा करने लगें तो चिंता लोकतंत्र की होना ज़रूरी है । पैसे कहते को भगवान समझना जिनकी आदत है उनसे बचना ज़रूरी है । 
 
 आज़ादी है पूरी आज़ादी है आप झूठ बोलकर क्या नहीं हासिल कर सकते किसी की चाटुकारिता किसी का गुणगान कर मालामाल हो सकते हैं लेकिन सच बोलना चाहते हैं तो अपनी औकात समझ लेना अन्यथा अंजाम कुछ भी हो सकता है । देश की जनता को आज़ादी है चुपचाप अन्याय अत्याचार सहन कर तालियां बजाने की तभी सरकार दानवीर बनकर उसको बेबसी पर गर्व करना सिखलाती है । आज़ादी मिली है कुछ ख़ास तबके के लोगों को राजसी ठाठबाठ से ज़िंदगी जीने को  , बीस- तीस प्रतिशत जो राजनेता हैं सरकारी अधिकारी कर्मचारी हैं धनवान हैं शोहरत वाले अभिनेता खिलाड़ी हैं धर्म समाजसेवा की दुकानें खोले कानून से खेलते रहते हैं मुजरिम साबित होने पर भी सत्ता से जुड़े रहते हैं जैसा करोगे वैसा भरोगे झूठ है कौन कहते हैं । 77 साल बाद हुआ कमाल है विकास विनाश पात पात डाल डाल है ।  ये ऐसी आज़ादी है अपराध करना खेल लगने लगा  आवारा बदमाश लोगों को घर से बाहर निकलते सुरक्षित नहीं कोई भी अनपढ़ गरीब की बेटी है चाहे कोई पढ़ी लिखी समझदार शहज़ादी है । बड़े बड़े महलों में कोई नहीं इंसान रहता नगर नगर भूतों का शानदार बसेरा है ,  गरीब जनता का फुटपाथ भी सुरक्षित नहीं दिन भी उनका अंधेरा है । ध्यान देना यहां ईमानदारी शराफत से जीने का संवैधानिक अधिकार किसी को नहीं , हां लूट धोखाधड़ी मिलावट नशे का असामाजिक कार्य करने की छूट  पुलिस सत्ताधारी राजनेताओं से खुलेआम मिलती है । भ्र्ष्टाचार के दलदल में सभी धंसे हुए हैं आपकी रिहाई की कोशिश कौन करेगा , जब सभी खुद बंधे हुए हाथ हैं तब आपकी बेड़ियां कौन खोलेगा । परवीन शाक़िर जी की ग़ज़ल  से इक शेर है : 
 
पा- ब - गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन ,

दस्त - बस्ता शहर में खोले मेरी ज़ंजीर कौन । 

75 साल बाद भी कई तरह के बंधनों और जकड़नों में क्यों कैद है हमारा भारत! -  Sadbhawna Today
 
 

अक्टूबर 09, 2024

POST : 1904 उल्टी हो गईं सब तदबीरें ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

       उल्टी हो गईं सब तदबीरें  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

इस से पहले कि मैं विषय की चर्चा शुरू करूं ये स्वीकार करना ज़रूरी है कि देश की दलीय राजनीति की मुझे समझ नहीं है बल्कि मेरी जानकारी है कि संविधान में किसी दलीय व्यवस्था की बात नहीं है संसद अथवा विधानसभाओं में जिस भी योग्य व्यक्ति को अधिकांश सदस्य अपना नेता चुनते हैं उसे सत्ता का अधिकार हासिल होता है लोकतांत्रिक ढंग से संविधान का पालन करते हुए शुद्ध अंतकरण से । चुनाव आयोग ने सभी राजनैतिक दलों से विचार विमर्श कर जिस चुनावी प्रणाली को अपनाया कभी किसी ने सवाल नहीं उठाया कि सामन्यतया उस से वास्तविक जनता के वोटों का बहुमत हासिल नहीं होता है । तब भी मान लिया गया जिसको सबसे अधिक लोग वोट देकर चुनते हैं उसे सभी पूर्ण जनता का प्रतिनिधि समझ लिया करेंगे । पर हुआ ये कि पहला तो राजनैतिक दलों में कुछ किसी तरह से मालिक जैसा अधिकार प्राप्त कर अन्य तमाम सदस्यों को अपने से छोटा ही नहीं बल्कि अपना गुलाम समझ कर चौधरी बनकर उन पर अपना हुक्म और हुकूमत चलाने लगे । कुछ लोग अलग अलग जगह अपना इक राजनीतिक दल गठित कर तकदीर आज़माने लगे और सत्ता में हिस्सेदारी पाने लगे लोग उधर से इधर जिधर चाहा जब भी उधर आने लगे जाने लगे और कुछ उनकी कीमत घटाने बढ़ाने लगे । लेकिन राजनीति के अंगने में अखबार टीवी चैनल सोशल मीडिया वाले अपनी टंगड़ी अड़ाने लगे और चुनाव में अपना दखल करने की खातिर खबरों का बाज़ार सजाने लगे किसी को कैसा किसी को कैसा साबित कर चुपड़ी हुई खाने लगे , अपने को नहीं समझने वाले दुनिया को क्या क्या समझाने लगे हवाओं का रुख समझने लगे बनकर माझी पकड़ पतवार कश्ती को मझधार से बचाएंगे कह कर नाख़ुदा खुद को बताने लगे । 
 

हमको ले डूबे ज़माने वाले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमको ले डूबे ज़माने वाले
नाखुदा खुद को बताने वाले ।
 
आज फिर ले के वो बारात चले 
अपनी दुल्हन को जलाने वाले ।

देश सेवा का लगाये तमगा
फिरते हैं देश को खाने वाले ।

ज़ालिमों चाहो तो सर कर दो कलम
हम न सर अपना झुकाने वाले ।

हो गये खुद ही फ़ना आख़िरकार 
मेरी हस्ती को मिटाने वाले । 
 
एक ही घूंट में मदहोश हुए 
होश काबू में बताने वाले । 
 
उनको फुटपाथ पे तो सोने दो
ये हैं महलों को बनाने वाले ।

काश हालात से होते आगाह 
जश्न-ए-आज़ादी मनाने वाले । 
 
तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं
मेरी अर्थी को उठाने वाले ।

तेरी हर चाल से वाकिफ़ था मैं
मुझको हर बार हराने वाले ।

मैं तो आइना हूँ बच के रहना
अपनी सूरत को छुपाने वाले ।

ऐसे तमाम  खुद को सबसे जानकर समझदार मानने वालों को लगा कि देश में चुनाव आयोग की क्या ज़रूरत है । जब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया प्रिंट मीडिया सोशल मीडिया पल पल की खबर ज़र्रे ज़र्रे की रखते हैं तो ये काम उन पर छोड़ दिया जाना चाहिए । राजनेताओं को भी लगा ये उनका सहारा बन सकते हैं इसलिए उन्होंने ऐसे लोगों को ठेके पर चुनावी सर्वेक्षण से कितना कुछ पता करने का कार्यभार सौंप दिया जिस से कितने ही लोग नाम शोहरत धन दौलत कमाने लगे और अपना महत्व बनाने लगे बंदर बिल्लियों को बराबर बराबर करने में खुद ही रोटी खाने लगे । भाईचारा सबसे बनाने लगे आधे उनकी तरफ आधे इनकी तरह जाने लगे भूखी नंगी प्यासी जनता की तरफ कोई भी नहीं जाता ये सभी दूध मलाई खाकर अपनी तोंद बढ़ाने लगे । राजनेता टीवी चैनल पर नज़र आने लगे खबर वाले असली खबरों से नज़र चुराने लगे क्या क्या नाम से कार्यक्रम टीवी शो बहस की काठ की तलवारों की जंग से दर्शकों को उल्लू बनाने लगे । चोर चोर मौसेरे भाई की कहावत पीछे छूट गई ये दोस्ती रिश्ते दुश्मनी सब इक साथ कैसे करते हैं ग़ज़ब ढाने लगे । ये इक प्रदेश की जनता के दिल को नहीं भाया जब सभी सोशल एल्क्ट्रॉनिक प्रिंट मीडिया वालों ने इक स्वर में अलाप लगाया किसी दल को पूर्ण बहुमत का नतीजा सुनाया , लोगों को इसका जवाब ठीक समझ आया जिसको हार रहा बताते थे वो सभी उसी का परचम लहराया , बड़बोलों को मज़ा चखाया । 
 
आखिर इक प्रदेश की जनता ने अपनी अहमियम समझाई राजनेताओं दलों सर्वेक्षण से एग्जिट पोल करने वाले सभी को उनकी सूरत दिखाई । ये क्या हुआ क्या कयामत ढाई बौने सभी साबित हुए सिर्फ लंबी दिखती थी उनकी परछाई । जो खुद को मालिक समझ बैठे थे उनको औकात दिखलाई डॉलर बने फिरते थे बना दिया धेला पाई । बात किसी को भी समझ नहीं आई जनता नहीं होती है सबकी भौजाई सभी की अकल ठिकाने लगाई नहीं चलेगी आपकी चतुराई । जनता ने देखी नेताओं से मीडिया वालों की बेहयाई सबसे दूरी खूब बनाई लेकिन शर्म किसे कब आई । कभी राजनीति हुआ करती थी न्याय की समानता की शोषित वर्ग की लड़ना लड़ाई जो बन चुकी है सत्ता की खातिर हाथापाई । जनता को वास्तविकता जब समझ आई उन सबको है कुर्सी मनभाई कोई नहीं चाहता समाज की भलाई । शराफ़त छोड़ सभी बने है लुटेरे देश में बढ़ने लगे हैं कितने अंधेरे घनेरे नहीं कोई भी आदर्शवादी सब चाहते मनमानी की आज़ादी जनता की किस्मत में सिर्फ बर्बादी । लोग हमेशा होते सयाने कोई माने या नहीं माने हाल हुआ है घर नहीं हैं दाने नेता चले जनता को बहलाने चुनाव बाद भुनाएंगे दाने खुद नहीं खाने सबको हैं खिलाने । समझ गए हैं लोग सियासत की चालाकी नहीं अब जनसेवा रही है बाक़ी कैसी मदिरा कैसा साक़ी हर दिन उनकी गुंडागर्दी की नज़र आती है झांकी चाहे हो किसी भी दल का कोई राजनेता अपराधी से मिल सब कर लेता । एक एक कर सबको धूल चटानी है जनता ने भी आखिर ठानी है । बड़े बड़े आलीशान महलों की बुनियाद हिलाई है जनता ने अपनी ताकत नेताओं को दिखलाई है ठोकर लगाने वाले आम जनता को कहने लगे रुला देती है जनता बड़ी हरजाई है । इक बात याद आई है , राजनीति की अजब कहानी है सत्ता चोरों की नानी है उनकी प्यास उन्हीं का पानी है । आज़माया हर तौर तरीका नेता कोई नहीं ईमानदारी से जीना सीखा उनकी ऊंची ऊंची दुकानों का हर पकवान ही है फ़ीका ।  कुछ शेर शायर , मीर तक़ी मीर की ग़ज़ल से  अंत में पेश हैं । 
 
उल्टी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया  
देखा इस बीमारी-ए -दिल ने आख़िर काम तमाम किया । 

नाहक़ हम मज़बूरों पर ये तोहमत है मुख्तारी की 
हम से जो पहले कह भेजा सो मरने का पैग़ाम किया । 


 

मीर तकी मीर, वो शायर जिसके शेर सुनकर ग़ालिब भी दंग रह जाते थे - The  Lallantop


अक्टूबर 05, 2024

POST : 1903 आईने के सामने : पीत पत्रकारिता ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

   आईने के सामने : पीत पत्रकारिता ( आलेख )  डॉ लोक सेतिया

अब इस पर कभी कोई चर्चा ही नहीं होती , क्या पीत पत्रकारिता अब कोई समस्या नहीं रही या फिर इसको स्वीकार कर लिया गया है । जैसे कई साल पहले मलेरिया रोग को लेकर स्वस्थ्य विभाग ने दीवारों पर लिखवा दिया था मच्छर रहेंगे मलेरिया नहीं । डीडीटी का छिड़काव करवा विभाग चैन की नींद सोया रहा मगर मच्छरों ने उस संदेश को पढ़ा नहीं अनदेखा किया नतीजा यह हुआ कि मलेरिया और भी खतरनाक ढंग से वापस सामने खड़ा था जानलेवा बनकर । हमने भी पीत पत्रकारिता को लेकर आंखें मूंद ली हैं आशंका है कि किसी दिन ये भी इतना गंभीर रूप धारण कर ले कि पत्रकारिता के घर को बचाना मुश्किल हो जाये । जिनको इसका अर्थ नहीं मालूम उनको जानना होगा कि खबरें सही मकसद को छोड़ कर किसी अन्य कारण से छापना आर्थिक लाभ या अन्य किसी स्वार्थ की खातिर या किसी को खुश करने या परेशान करने के मकसद से करना पीत पत्रकारिता कहलाता है जैसे कोई अपराध किया जाये । खबरों को तोड़ मरोड़ कर अथवा झूठ को सच बना कर पेश करना भी शामिल है इस में ही । पत्रकारिता के पतन को लेकर अख़बार पत्रिका टीवी चैनल से सोशल मीडिया तक ख़ामोशी है , ये तो होता ही है ऐसा होना ही था इक दिन आखिर कब तक ज़माने भर का भलाई ईमानदारी का बोझ अकेले ढोते रहते , दुनिया जैसी ये भी वैसे बनते गए । 
 
अखबार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आम लोगों से लेकर प्रशासन सरकार राजनेताओं तक सभी को नैतिक मूल्यों ईमानदारी का सबक भले पढ़ाते रहते हैं खुद अपने लिए कोई सीमा स्वीकार नहीं करते और जब कोई उन पर सवाल खड़े करता है तो अभिव्यक्ति की आज़ादी खतरे में कहकर शोर करने लगते हैं । अजीब पैमाना है दुनिया की गलतियां सामने लाने का अधिकार है जब अपनी कमियां देखने की बारी आये तो कहते हैं हम खुद निर्धारित करेंगे क्या करना है । आरोप आप पर गवाही खुद आप की न्यायधीश भी खुद निर्णय क्या होगा भला ऐसा कहीं मुमकिन है निष्पक्षता से बताना । दो तरह के बाट नहीं हो सकते न्याय के तराज़ू पर पलड़े बराबर रखने को ये ज़रूरी है नैतिकता सभी पर लागू होनी चाहिए । अब अख़बार टेलीविज़न के अलावा सोशल मीडिया भी शामिल हो गया है बिना किसी मापदंड किसी अंकुश किसी मर्यादा के नागरिक को सूचना देने की आड़ में गुमराह करने का कार्य कर रहे हैं । यूट्यूब चैनल पर शीर्षक कुछ अंदर बात किसी विषय पर जैसा धोखा अक्सर देखते हैं संख्या बढ़ाने को झूठ का सहारा पागलपन है आत्मचिंतन करना छोड़ दिया है सभी ने लगता है । मीडिया का दुरूपयोग किया जाने लगा है किसी राजनीतिक दल का समर्थक बन कर उनका प्रचार या बचाव करने में भौंपू की तरह काम करना पत्रकारिता को रसातल में ले जाना है ।
 
सरकारी विज्ञापनों के मोहजाल में ये सभी कठपुतली बनकर किसी से धनलाभ या कोई अन्य सुविधा या कोई अनुकंपा पाने की खातिर नैतिक मूल्यों को ताक पर रख नतमस्तक हैं । विज्ञापन से लोग दर्शक प्रभावित हो कर छल कपट ठगी का शिकार हों या असली समझ नकली खरीद रहे हों क्या आपका कोई कर्तव्य नहीं है कि भ्रामक और गुमराह करने वाले विज्ञापन नहीं प्रकाशित करें जनहित को देखते हुए । टीआरपी और विज्ञापन का मोह आपको कितना नीचे ला सकता है क्या पैसा ही आपका भगवान है । अख़बार टेलीविज़न खुद अपने लिए विचारों की अभिवक्ति की स्वतंत्रता चाहते हैं लेकिन अपनी आलोचना पर तिलमिला उठते हैं बल्कि अपना बचाव नकारात्मक ढंग से करते दिखाई देते हैं अपनी गलती स्वीकार करना मंज़ूर नहीं उनको । किसी अख़बार पत्रिका का ऐसे विज्ञापन को किसी अलग ढंग से छापना या टीवी पर दिखाना जो प्रतिंबधित हो शराब जुआ जैसी सामाजिक बुराइयों को बढ़ावा देता हो कितना अनुचित है । 
 
 पत्रकारिता में सभी विचारों की बात इक समान होनी चाहिए किसी तरफ इकतरफ़ा झुकाव उचित नहीं होता है । बदले की भावना से पत्रकारिता का उपयोग करना तो बेहद आपत्तिजनक है मूल्यहीन पत्रकारिता जैसे किसी बंदर के हाथ उस्तरा होना है कभी खुद भी घायल हो सकते हैं समाज को दहशत में डराना धमकाना क्या सभ्य समाज में होने दिया जा सकता है । बाज़ार में बिकना ही सफलता समझना और जो भी बिकता है उसे बेचना परोसना किसी अन्य कारोबार में हो सकता है पत्रकारिता में कदापि नहीं । जागरूक करना समाज को सही दिशा दिखलाना आपका पहला मकसद होना चाहिए न कि नंगापन बिकता है तो उसे बेचना । कभी पत्रकारिता ने बहुत सार्थक योगदान दिया है देश की आज़ादी की लड़ाई से लेकर बाद में राजनीति के पतन और सत्ता की मनमानी पर अंकुश लगाने में जिस से भटक कर सत्ता की चाटुकारिता और महिमामंडन करने लगे हैं । कहां से चले थे कितने महान आदर्शों को लेकर और आज किस जगह खड़े हैं चिंतन नहीं चिंता का विषय है गंभीर दशा लगती है । सामाजिक सरोकार जनहित देश कल्याण की अनदेखी कर जो पत्रकारिता होती है वो जिस डाल पर बैठे उसी को काटना है । आज आवश्यकता है स्वच्छ पत्रकरिता के मूल्यों को पुन: स्थापित करने के लिए किसी भगीरथ प्रयास की ।  आखिर में इक पुरानी ग़ज़ल पेश है ।  
 
 

इक आईना उनको भी हम दे आये ( ग़ज़ल )

 डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इक आईना उनको भी हम दे आये
हम लोगों की जो तस्वीर बनाते हैं ।
 
बदकिस्मत होते हैं हकीकत में वो लोग
कहते हैं जो हम तकदीर बनाते हैं ।

सबसे बड़े मुफलिस होते हैं लोग वही
ईमान बेच कर जो जागीर बनाते हैं ।

देख तो लेते हैं लेकिन अंधों की तरह
इक तिनके को वो शमशीर बनाते हैं ।

कातिल भी हो जाये बरी , वो इस खातिर
बढ़कर एक से एक नज़ीर बनाते हैं ।
मुफ्त हुए बदनाम वो कैसो लैला भी
रांझे फिर हर मोड़ पे हीर बनाते हैं । 
 

 

POST : 1902 सच नहीं दिखाता आईना ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        सच नहीं दिखाता आईना ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

टीवी चैनल अख़बार सोशल मीडिया सभी खुद को सच का झंडाबरदार और समाज का दर्पण बताते हैं हक़ीक़त ये है कि ये सच से डरते हैं घबराते हैं झूठ का शोर मचाते हैं क़ातिल को मसीहा बनाते हैं । आपको इक ऐसी दुनिया दिखाते हैं कि देख कर आप खुद अपनी सूरत भूल जाते हैं उनकी बनाई भूल भुलैयां में आप जाने कहां गुम हो जाते हैं । कल्पनालोक की ऐसी दुनिया आपको नज़र आती है जिस में हर तरफ बड़े बड़े महल रंगीनियां शानदार वातावरण कारें हवाई जहाज़ आलीशान मॉल सभी सुरक्षा बढ़िया स्कूल अस्पताल बहुमंज़िला इमारतें बाज़ार की रौनक चहल पहल देख कर आप अपनी सच्चाई भूल कर ख़ुशी से झूमने गाने लगते हैं । आपको जानते भी नहीं पहचानते भी नहीं मीडिया वाले आपको अपने लगते हैं जो लोग आपके होते हैं बेगाने लगते है आपको हक़ीक़त सभी झूठे अफ़साने लगते हैं । बर्बाद बदहाल होकर भी आप सारे जहां से अच्छा गाने लगते हैं अपनी वास्तविकता से नज़रें चुराने लगते हैं । आपको कभी वास्तविक समाज की कोई खबर मिलती है पढ़ने को जिस में किसी घटना का ज़िक्र होता है कि गरीबी भूख बेबसी से तंग आकर एक वक़्त की रोटी पेट भरने को किसी ने मात्र थोड़ी हल्दी मुट्ठी भर चावल के बदले अपनी संतान को बेच दिया । हमको महत्वपूर्ण नहीं लगती ऐसी खबर हम जानकर उस को समझना क्या जानना तक नहीं चाहते और ब्रेकिंग न्यूज़ में खो जाते हैं जिस में करोड़ों रूपये की काली कमाई हिंसा लूट की खबर से किसी ज़ालिम को बड़ा दिखाया जाता है जुर्म करने को किसी का शौक साबित किया जाता है साधरण आदमी को भेड़ बकरी समझ चलाया जाता है । 
 
तथकथित इस समाज के दर्पण में वो समाज कभी दिखाई नहीं देता जो जनसंख्या का बड़ा भाग है जिसे ज़िंदा रहने की खातिर पल पल मरना पड़ता है । उसकी बात सरकार तो क्या भगवान भी सुनता नहीं कभी चाहे कितनी आहें कितने अश्क़ बहाता रहता हो उसकी प्रार्थना का कोई असर नहीं होता मगर ख़ास बड़े लोगों की कोई ईश्वर भी शीघ्र ही सुनता है और प्रशासन न्यायपालिका भी हमेशा तैयार है । कौन हैं ऐसी दुनिया का विधान बनाने वाला जिस में कोई भाई गोरा है कोई काला , अजब है जिस का घोटाला गरीबों का नहीं कहीं भी कोई रखवाला । अमीर गरीब की बढ़ती जाती है खाई इंसान को डराने लगी खुद की परछाई , कहते हैं जिनको देश से प्यार है जनता की भलाई करते हैं खुद शाहंशाह की तरह जीवन बिताते हैं जनता के पैसे से भाषण देते हैं बड़ा उपकार करते हैं । टीवी फिल्म सोशल मीडिया सभी उच्च वर्ग की बातें करते हैं अधिकांश जनता की ज़िंदगी की कहानी कोई लेखक भी आजकल नहीं लिखता है जैसे उनका वजूद उनका अस्तित्व तक दिखाई नहीं देता है । 
 
शरीफ़ नहीं ईमानदार नहीं मूर्ख और ज़ाहिल कहलाते हैं वो सभी जो वक़्त की इस दौड़ में तेज़ी से नहीं चल पाए खुद को ज़माने की तरह नहीं बदल पाए । दुत्कारते हैं धनवान और ख़ास लोग उनको जिनके जिस्म पर फ़टे पुराने कपड़े हैं भूख से जिनका बदन हड्डी का कंकाल लगता है रात दिन मेहनत कर भी जिनको बदले में उचित मज़दूरी नहीं मिलती फटकार मिलती है ले लो जितना देते हैं अधिकार भी भीख की तरह मिलते हैं । शिक्षा स्कूल कॉलेज उनके लिए नहीं हैं उनके लिए फुटपाथ तक सोने की जगह नहीं है वो किसी और दुनिया में चले जाएं लगता है मगर कहां विश्व में उनकी ज़रूरत किसी को नहीं है । करोड़ों अरबों जिनकी तिजोरियों में बंद है उनको क्या मतलब कोई जिये चाहे ख़ुदकुशी करने को विवश हो जाये इस असमानता ही से परेशान हो कर । लेकिन शोर हैं सभी देशवासी इक समान हैं कैसे कोई दाता कोई भिखारी ये बंटवारा कितना अनुचित है कभी कोई चर्चा नहीं कोई चिंतन नहीं तो बदलेगा कैसे कुछ भी । सावन के अंधे बनकर हर तरफ हरियाली ही हरियाली दिखाई दे रही है बताओ और खुद को संविधान का रक्षक कहलाओ । अपने को समाज का आईना घोषित करने वाला उसी बीस तीस प्रतिशत समाज का हिस्सा है जिसे सच नहीं दिखाने और झूठ को सच साबित करने का ईनाम मिलता है कुछ सिक्के झोली फैली हुई भरने को मिल रहे हैं । 
 
जो कभी इक रौशनी करता था उस ने अंधकार से अनुबंध कर लिया है और अंधियारी काली रात को दिन है बतला रहा है । नकली चकाचौंध से प्रभावित होकर समाज में धुंवा फैला रहा है बैसाखियों के सहारे चलता हुआ आगे बढ़ता जा रहा है खुद अपने आप को महान घोषित कर इतरा रहा है । कभी कभी उसे शायद अपराधबोध होता है तब महंगाई और गरीबी के भूख से मरने वालों के आंकड़े समझा कर सच कहने की रस्म निभा रहा है । कहते हैं जो खुद बिक गया हो वो ख़रीदार नहीं हो सकता लेकिन ग़ज़ब ढा रहा है ज़मीर बेचने वाला शान शौकत बढ़ा खुद अपना भाव ऊंचा करने को बाज़ार सजा रहा है । जिनकी आंखों में आंसू ही आंसू हैं दिखाई देता आईने में लोग मुस्कुरा रहे हैं पार्क में कुछ लोग ठहाके लगा रहे हैं ।  बात रोने की फिर भी हंसा जाता है यूं भी हालात से समझौता किया जाता है । 
 
 
Aaina Such Nahi Bolta - Hindi: आइना सच नहीं बोलता by Matrubharti Vividh |  Goodreads
 
 

अक्टूबर 04, 2024

POST: 1901 निष्पक्षता का नितांत अभाव ( मीडिया- आंकलन ) डॉ लोक सेतिया

निष्पक्षता का नितांत अभाव ( मीडिया- आंकलन ) डॉ लोक सेतिया 

कभी अख़बार टेलीविज़न संचार माध्यम को लेकर विमर्श होता था बहस चिंता जताते थे कि पत्रकारिता में नैतिक आदर्श ख़त्म होते जा रहे हैं और पीत पत्रकारिता से लेकर अख़बार टीवी का उपयोग कुछ साधन संपन्न वर्ग द्वारा किया जाने लगा है । टीआरपी और विज्ञापनों का मोहजाल इस कदर हावी हो गया है कि लोग जो जागरूकता और सामाजिक सरोकार को लेकर आये थे भटक कर नाम शोहरत दौलत पुरुस्कार की दौड़ में अपना अस्तित्व अपनी पहचान खो बैठे हैं । इन सभी पर पहले बहुत पोस्ट लिखी हैं अख़बारों को भी भेजने का साहस किया है लेकिन आज वातावरण काफ़ी बदल चुका है और मीडिया में टीवी अख़बार सोशल साइट्स के अलावा यूट्यूब चैनल से इंटरनेट पर उपलब्ध पत्रिकाओं की इतनी भीड़ है कि आप उलझ जाते हैं । आज उनकी वास्तविकता पर चर्चा करते हैं , जब अधिकांश मीडिया बिक कर किसी की एकतरफ़ा जीहज़ूरी करने लगा तब पाठक दर्शक का मोहभंग होने लगा और उनको हर बात मनघड़ंत और झूठी लगने लगी । लेकिन टीवी चैनल और अख़बार वालों को इस से कोई मतलब नहीं था उनको अपना अपमानित होना स्वीकार था अगर बदले में धन दौलत ही नहीं सत्ता और धनवान उद्योगपतियों का आशिर्वाद मिलता है तब । 
 
ऐसे में कुछ लोग अलग अलग ढंग से फेसबुक व्हात्सप्प यूट्यूब इंस्टाग्राम आदि पर संवाद करने लगे और कुछ नहीं बहुत लोग लोकप्रियता मिलने पर इनको ही अपना आश्रय व्यवसाय समझने लगे । इसको सोशल मीडिया नाम से जाना जाता है , मैंने बहुत समय तक ऐसे तमाम लोगों की भाषा उनकी शैली उनका सामाजिक विषयों को लेकर सरोकार समझने की कोशिश की है । तब जाकर जो नतीजा सामने आया वो अचरज की बात है , प्रिंट मीडिया और टीवी चैनल जब एकतरफ़ा प्रचार करते दिखाई दिए तब ये विकल्प भी उनकी तरह से दूसरे छोर पर खड़ा नज़र आया । मतलब कोई जिनकी बढ़ाई महिमा का गुणगान चाटुकारिता कर रहा था इन्होने दूसरा पक्ष चुना उनकी आलोचना और किसी और की तारीफ़ करने में दोनों में होड़ दिखाई देने लगी । ख़ास कर चुनाव को लेकर यूट्यूब चैनल वाले साफ तौर पर किधर खड़े हैं नज़र आने लगे । उनका मकसद जनमत को प्रभावित करना अधिक था सच से परिचित करवाना बहुत कम सिर्फ इसलिए उनकी भी छवि साफ सुथरी नहीं बन पाई । कभी कभी तो हंसी आती जब कोई उन्हीं कुछ लोगों से वार्तालाप ही नहीं करता हर वीडियो में बल्कि उनकी बातचीत का लहज़ा तौर तरीका ऐसा लगता जैसे कोई फ़िल्मी अदाकार लिखी समझाई बात को दोहराता है । शायद कुछ समय लगता है ऐसे लोगों को समझने में लेकिन अधिक समय तक उनका भी प्रभाव रहता नहीं है । वास्तविक समस्या सोशल मीडिया की यही है कि इस में अकेले अलग अलग अपनी अपनी डफली अपना अपना राग जैसा है , उनके पास कोई तंत्र नहीं कोई कर्मचारी या सूचना देने वाले सहायक नहीं है उनकी आर्थिक सीमाएं भी हैं और मकसद इस से भी कोई पहचान बनाकर भविष्य में कमाई का साधन बनाना भी है ।  

ऐसे लोग आवश्यकता पड़ने पर हर शहर से स्थानीय पत्रकारों ख़ास कर छोटे छोटे सांध्य समाचार पत्रों से संपर्क स्थापित कर जानकारी प्राप्त करते हैं । शायद उनको नहीं पता होता कि ऐसे लोगों की अपनी अपनी आर्थिक विवशताएं होती हैं जिन के लिए उनकी निष्पक्षता संभव नहीं होती है उनको किसी न किसी बल्कि कई बार कितने ही परस्पर विरोधी लोगों से मधुर संबंध रखने पड़ते हैं । लेकिन आपसी बातचीत या मिलने पर दोनों अपना अपना फायदा उठाना चाहते हैं इसलिए उनको इक दूजे को अमुक जगह कालोकप्रिय पत्रकार अथवा चैनल घोषित कर तारीफ का आदान प्रदान करना पड़ता है ।
 
प्रिंट मीडिया इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया सभी का अपना अपना मकसद भी है और निजि स्वार्थ भी लेकिन देश समाज को सही जानकारी और वास्तविक समस्याओं घटनाओं की जानकारी सटीक एवं सत्य देना किसी की प्राथमिकता नहीं है । निष्पक्षता का नितांत अभाव है ।  ये सभी कुछ विशेष लोगों की ज़रूरत पसंद का ख़्याल रखते हैं पूरे समाज साधरण जनता जनसमस्याओं से उनको कुछ लेना देना नहीं है । ऐसा लगता है पत्रकारिता की नदी सूख चुकी है दो किनारों पर दोनों तरह की पत्रकारिता करने वाले खड़े हैं और बीच में सिर्फ तपती सुलगती रेत है किसी रेगिस्तान की तरह पानी की इक बूंद तक नहीं है । ये भी चमकती हुए रेत जो आकर्षित करती है मृगतृष्णा साबित होना उसकी नियति है । 
 
रेत खनन नया नशा है, राजस्थान के गिरोह नकद, कैरियर, लूट की पेशकश करते हैं

अक्टूबर 03, 2024

POST- 1900 दिन हों पचास हज़ार ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

            दिन हों पचास हज़ार ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

बड़े लोगों अमीर लोगों राजनेताओं अभिनेताओं नाम शोहरत वालों के जन्म दिन पर सोशल मीडिया टीवी चैनल अख़बार पर विज्ञापन और जगह जगह बोर्ड लगाए जाते हैं पोस्टर छपते हैं । सत्ताधारी नेताओं के जन्म दिन पर कुछ उनके प्रशंसक चाहने वाले उनके साथ अपना भी नाम फोटो बैनर छपवा लगवाते हैं । इधर शासक नेता का जन्म दिन तमाम जगहों पर धूम धाम से मनाया जाता है केक काटते हैं मिठाई खिलाते हैं और मिलकर सभी यही गीत गाते हैं तुम जियो हज़ारों साल साल के दिन हों पचास हज़ार । अब तक साल में 365 दिन ही होते हैं पचास हज़ार दिन हों तो इस ढंग से 137 साल लगेंगे इक साल पूरा होने में मतलब लोग पहले जन्म दिन पर बूढ़े होने की नहीं जाने चार दिन की ज़िंदगी का क्या भरोसा कौन जीता है कौन नहीं का सवाल खड़ा हो । खैर शुभकामनाएं देना अच्छी बात है हिसाब किताब लगाकर नहीं बेहिसाब देते हैं , कहते हैं जो भी नियमित रूप से ऐसी शुभकामना संदेश का आयोजन किया करता है इक दिन नेता बन ही जाता है । लेकिन कुछ लोगों की खातिर कैलेंडर से छेड़छाड़ का नतीजा कभी सोचा क्या होगा । आप अपना ही नहीं अपने आका का भी पहला जन्म दिन मना भी सकोगे या नहीं या फिर पौराणिक कथाओं की तरह आयु को सौ साल नहीं करोड़ों साल बनाने को कुछ करना पड़ेगा । 
 
वास्तव में अगर साल पचास हज़ार दिन का होगा तो कोई उम्र में छोटा बड़ा नहीं होगा , भाई बचपन में लंबाई कम बड़े होने पर अधिक हो तो क्या होंगे तो सभी इक साल के देशवासी । सोलह अठाहर बरस का कोई झगड़ा लफड़ा नहीं होगा वोट देने का अधिकार जन्म लेने के साथ मिल जाएगा कोई गोदी में उठा कर किसी का वोट डलवाएगा । पांच साल की सरकार का मतलब जो शासक बना ज़िंदगी भर स्थाई सरकार चलाएगा , पांच वर्षीय योजनाओं का क्या हुआ कौन जान पाएगा । महिलाओं की उम्र बताने की गंभीर समस्या भी हल हो जाएगी दिन दिन गिनती घटती हुई बताने की नहीं नौबत आएगी । अभी तो मैं जवान हूं अभी तो मैं जवान हूं की मधुर आवाज़ दिल को कितना भाएगी , दुल्हन की डोली जो दादी सजाएगी वो भी खुद को देख पलकें झुकाती शर्माएगी । सौ साल जीने की आरज़ू कौन करेगा , इतनी छोटी उम्र में आहें कौन भरेगा इश्क़ प्यार मुहब्बत की कोई दास्तां नहीं बनेगी , भला कुछ महीने का लड़का लड़की स्कूल कॉलेज पढ़ेगा या खेल खेल में ज़िंदगी बसर करेगा । शिक्षा से छुटकारा होगा हर बच्चा न्यारा प्यारा दुलारा होगा बस हंसते हंसते गुज़ारा होगा , सारा जहां हमारा होगा । 
 
 Tum jiyo hazaron saal - An online Hindi story written by Indu sharma |  Pratilipi.com

POST- 1899 सच हुए सभी सपने ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

            सच हुए सभी सपने ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

ये कोई राज़ की बात नहीं हैं सभी जानते हैं गरीबी दूर करने को इस से कारगर कोई उपाय नहीं हैं कि आप राजनीति में कोई रास्ता बनाकर घुस जाएं जितना आगे तक घुसते जाएंगे उतना ही रईस बनते जाएंगे । यही वो पारस है जो लोहे को सोना पत्थर को हीरे जवाहरात और आदमी को भगवान तक बनवा सकता है । मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती सिर्फ ख़ास वर्ग के लिए है किसान अनाज उगाता है फल सब्ज़ियां उगाता है उसे बदले में पेट भरने जीवन यापन करने को फसलों की कीमत नहीं मिलती । जनता भूखी रहती है सरकारी गोदाम में अनाज सड़ता रहता है , वोटों की खातिर खैरात बंटने लगी है अधिकार नहीं मिलते भीख में जीने का अधिकार अमीर लोगों के लिए नेताओं अधिकारियों उद्योगपतियों के लिए आरक्षित है । ये इक अघोषित आरक्षण जैसा है बिना मांगे मिलता है । भोले भाले गरीब कोई गढ़ा हुआ खज़ाना मिलने का ख़्वाब देखते हैं मगर समझदार लोग जितना भी धन दौलत हासिल हो उनकी चाहत रहती है सत्ता की राजनीति का किवाड़ खुले उनको प्रवेश होने को ताकि लूट सके तो लूट की छूट मिल जाए । अपनी नौकरी कारोबार से जितनी भी आमदनी हो लगता है ये कुछ भी नहीं । मेहनत और ईमानदारी की आय से गुज़र बसर करना आजकल समझदारी नहीं कहलाती है बहती गंगा में हाथ धोना नहीं खुलकर नहाना चाहते हैं लोग । 
 
 आधुनिक काल भिखारियों का स्वर्णिम युग है साधु सन्यासी कभी झौंपड़ी में रहते थे आजकल महलों में आधुनिक साज़ो-सामान गाड़ियां हवाई जहाज़ का उपयोग कर लाखों रूपये लेते हैं प्रवचन देने के लिए तभी आते हैं । राजनीति भी दो तरह से भिक्षा पर निर्भर है जनता से वोटों की भीख और धनवान लोगों से चंदे की भीख ज़रूरी है । भूमाफिया बिल्डर सरकारी विभागों का काम ठेके पर करने वाले निवेश करते हैं हर दल के उम्मीदवार को करोड़ों रूपये देते हैं सत्ता किसी भी दल की हो सरकार उनकी होती है । भिखारी सारी दुनिया वही है बस दाता एक राम नहीं रहा बल्कि राम भरोसे कोई सरकार कोई जनता नहीं रहती सबको मालूम है खुद ही अपना कल्याण करना पड़ता है स्वर्ग जाना है तो पहले मरना पड़ता है । राजनीति का स्वाद जिस किसी ने इक बार चखा उसको बाक़ी सब कुछ फीके लगते हैं । खिलाड़ी अभिनेता उद्योगपति कौन है जो इस मायाजाल से बचना चाहता है सभी जानते हैं इस में कितनी गंदगी है फिर भी दुर्गंध नहीं सुगंध प्रतीत होती है ।बड़े बज़ुर्ग बतलाते थे चोरी का गुड़ ज़्यादा मीठा लगता है यही सरकारी धन संसाधनों की लूट का ऐसा पर्म -आनंद है जो समझदार को भी पागल बना देता है और लोग खिंचे चले आते हैं । 
 
जीवन भर भिक्षा मांगने वाले राजनीति में सफल हुए तो शाहंशाह बन बैठे और कहते हैं शासक बनकर किसी ने चमड़े के सिक्के चलाए थे कहावत सुनी थी आज देख रहे हैं । चुनावी बॉण्ड या कुछ भी नाम दे सकते हैं उनकी तिजोरियां भरी रहती हैं चुनाव में पानी की तरह पैसा बहता है । अपराधी राजनेताओं का गठजोड़ अटूट है सरकार उनको मनचाहा देने को प्रतिबद्ध है सत्ता मिलते अपराधी माननीय कहलाते हैं पुलिस उनकी हर तरह से सुरक्षा सहायता करती है । साधारण नागरिक कैसे जीता मरता है लोकतंत्र में इसका कोई महत्व नहीं है शासक राजनेता को खरोंच भी आना गंभीर चिंता का विषय होता है । आम नागरिक होना दुर्भाग्य है गरीब होना अभिशाप इन से मुक्ति का एक ही उपाय है राजनीति में आकर जो भी मर्ज़ी करने का अधिकार हासिल करना । सपने देखना सभी को आता है सच करना उन्हीं को आता है जो आपको काल्पनिक ख्वाबों से बहलाकर खुद अपनी हक़ीक़त को शानदार बना लेते हैं ।  राजनेता सपनों के सौदागर होते हैं ।   
 
 Swapna Ke Saudagar

अक्टूबर 02, 2024

POST- 1898 राजनीति दिल लगाने तोड़ देने की ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

राजनीति दिल लगाने तोड़ देने की ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कभी प्यार कभी तकरार घठबंधन की सरकार पांच साल होते होते वापस जहां से शुरुआत की थी उसी मोड़ पर पहुंच जाती है हाथ थामा था छुड़ा भी लेते हैं । अपने अपने रास्ते पिछली सभी कसमों को भुलाकर चलना समझदारी है क्योंकि चुनाव में फिर काठ की तलवारों की जंग की तैयारी है । सबकी अपनी मज़बूरी है बस कुछ दिन की दूरी ज़रूरी है खूब बुरा भला कहते हैं इस बार नहीं छोड़ेंगे उसको मैदान में हराना है कहते हैं । कुछ बातें आपसी व्यक्तिगत समझी जाती हैं बिल्कुल घरेलू पति पत्नी के बीच की अनबन की तरह बात बाहर नहीं जाने देते अन्यथा मामला संबंध टूटने तक पहुंचने की आशंका रहती है । मायके जाने छोड़ने की धमकी अनगिनत बार देते हैं अलग होना चाहते नहीं और चाह कर भी आसान नहीं होता । राजनीतिक संबंध कब बनते कब बिखरते कब आवश्यकता पड़ने पर दुबारा कायम हो जाते ये रहस्य की बात नहीं मगर कोई भी भविष्यवाणी नहीं कर सकता है । कठपुतली का खेल राजनीति से बिल्कुल अलग ढंग का होता है लेकिन कुछ साल पहले जब किसी ने खुद प्रधानमंत्री पद स्वीकार नहीं कर किसी और का नाम प्रस्तावित किया तो लोग कहने लगे उनको कठपुतली बनाकर खुद शासन चलाया जा रहा है जबकि उस दल का कहना था ये बड़ा त्याग किया गया है राजनीति आधा सच आधा झूठ का मिश्रण होता है । आजकल कितने ऐसे लोग किसी की चरणपादुका सिंघासन पर रख सत्ता चला रहे हैं लोकतंत्र को बहुत लोगों ने अपनी जागीर समझ लिया है । राजनीति से दिल लगाना खुद अपने दिल को जलाना है दुश्मनों से नहीं दोस्तों से ज़ख़्म खाना है , वक़्त बदलते ढूंढता है कोई नया बहाना है । इस खेल को अभी तक नहीं किसी ने पहचाना है अपना कोई भी नहीं है ये सारा जग पराया है रिश्ता निभाना है । 
 
हरियाणा की ग़ज़ब की राजनीति है सास कौन कौन बहुरानी है मेरी बिटिया बड़ी सयानी है दादी नानी की राजदुलारी है बस घर में कोई और महारानी है उसकी इक ख़ास निशानी है । सियासत में सभी की लड़ाई है कहने को जगहंसाई दरअसल मुंहदिखाई है । पीर अपनी है आफत पराई है आमने सामने बाप बेटा भाई भाई है देखते हैं किस की बजती शहनाई है डोली निकली है बारात जाने कितने दूल्हों ने सजाई है । सत्ता की दुल्हन सजी संवरी बैठी है राजनैतिक विवाह की बात समझते हैं , किसी से प्यार किया शादी किसी और से करनी पड़ी पुरानी प्रेमिका से छुप छुप कर मुलाकात करते रहे उसने भी किसी और को वरमाला पहनाई थी । ग्रहों का खेल है कि रेखाओं से मार खाते हैं आखिर वापस घर लौट आते हैं विवाह संबंध को दरकिनार कर प्रेम फिर से दिल में जगाते हैं रूठे हुओं को मनाते हैं । दो दल आपस में झगड़ते हैं तीसरा कौन है बस इसी से डरते हैं रोटी कोई बनाता है कैसे किस को खिलाता है मगर तीसरा कोई रोटी झपट कर उसके टुकड़े करता है चील कौवों को खिलाता है । खुद नहीं खा सकते किसी को भी नहीं खाने देंगे कुछ बहरी लोगों को यही भाता है सभी का अपना बही खाता है कौन उम्र भर साथ निभाता है । दास्तां अभी अधूरी है सर्वेक्षण की बात कहना ज़रूरी है सब के आंकड़े सच्चे हैं लेकिन अभी तक आप नासमझ बच्चे हैं नतीजे देख कर फिर समझाओगे क्या खोया हुआ वापस पाओगे या भी जाओ आप बड़े वो हैं सुन कर मुस्कुराओगे गले उनको लगाओगे । सबसे बड़ा खिलाडी था बन गया देखो अनाड़ी है अबकी बारी हमारी है कहती दुनिया सारी है । दिल कब किसी पर आता है अजब ये खेल ग़ज़ब ढाता है शीशा हो या दिल हो आखिर टूट जाता है ।  
 

  haryana assembly elections the deadline for filing nominations ended at 3  PM | हरियाणा में थमा नामांकन का शोर, 16 सितंबर तक उम्मीदवार वापस ले सकते  हैं नाम
 
     

अक्टूबर 01, 2024

POST- 1897 जीने की राह मिल गई ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

           जीने की राह मिल गई ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

शहर में हमारी कॉलोनी में उन महात्मा जी का सत्संग कुछ दिन से चल रहा था । घर से इतना थोड़ा फ़ासला है कि आवाज़ सुनाई देती रहती ऐसे में कुछ जान पहचान वाले दूर से सत्संग सुनने आते तो मिलते रहते । कोई साथ चलने की सलाह देता तो कोई कहता आपको घर बैठे आनंद मिलता है कितना सौभाग्य है आप सभी का । श्रीमतीजी की दोस्त आई और बहुत तारीफ़ की महात्मा जी की शिक्षाओं की और हमको भी मना लिया इक बार तो चल कर सुनना और महात्मा जी के दर्शन करने का पुण्य कमाना चाहिए । उन्होंने बताया लोग हरिद्वार जाते हैं आपको तो घर बैठे अवसर मिल रहा है बहुत शांति का अनुभव होगा । रविवार की शाम हम आखिर पहुंच ही गए और दो घंटे तक महात्मा जी स्वर्ग नर्क पाप पुण्य इतियादी पर प्रवचन देते रहे । लोग शायद ही ध्यानपूर्वक सुन रहे थे लेकिन वहां जगह जगह नियम बताया गया लिखा हुआ था कि बीच में से उठना अनुचित ही नहीं अक्षम्य अपराध होगा । 
 
प्रवचन के बाद पंडाल से निकलते ही पुराने दोस्त वशिष्ठ जी मिल गए , हमने पूछा यहां कब कैसे आये हैं और सामने ही घर है मिलना भी भूल गए । लेकिन उन्होंने मेरी बात का जवाब ये कहकर दिया यार आखिर तुम भी सही राह पर आखिर आये तो सही । मैंने बताया जैसा आपको लग रहा है वैसा नहीं है सामने ही है रोज़ लोग आते जाते कहते थे और आज आपकी भाभी जी की दोस्त आग्रह कर ले आई हैं । मुझे तो इनकी बातें कुछ ख़ास नहीं प्रभावित कर पाईं बस रटी रटाई पुरानी बातें कितनी बार समझाओगे कोई असर होता है क्या । वशिष्ठ जी ने बताया उनके गुरु जी हैं ये खास उनकी खातिर अपने शहर से छुट्टी लेकर आये हैं । तुम भी इनको गुरु बना गुरुभाई बन जाओ कल्याण होगा , पता चला उनकी तरक़्क़ी हुई है और बड़े अफ़्सर हैं आजकल । बात करते करते घर पहुंच गए थे कि उन्होंने स्थानीय इक अधिकारी को  फोन लगाने का अनुरोध किया मिलने पर उधर से पूछा गया कौन हैं । मैंने अपना परिचय दिया साथ बताया कि वशिष्ठ जी उनसे बात करना चाहते हैं जवाब मिला साहब स्नानघर में हैं बाद में फोन करना । अचानक कहा गया वशिष्ठ जी से बात करवाएं साहब ने अनुरोध किया है । दोनों अफ़्सर इधर उधर की बातें करते रहे और हम उनके लिए खान पान की व्यवस्था करने में लग गए । 
 
हम सुनते रहे प्रशासन की सरकारी योजनाओं की दो अधिकारियों की बातें , यार नई योजना से कैसे कितना किस किस को मिलता है कुछ भी पर्दे में नहीं सब नेताओं सरकारी विभाग से बंदर बांट मिल कर राशि चट करने पर भाई भाई हैं । कोई विवाद हो तो गुरूजी हैं समझा कर समस्या सुलझाने को , सभी देशभक्त हैं जनता की सेवा करते हैं और ईमानदार कहलाते हैं । चाय पकोड़े खाते समय आपस में हाल चाल पूछा तो वशिष्ठ जी ने अपनी कोठी राजधानी में प्लॉट खूब धन वैभव से मालामाल होने की बात गर्व से ख़ुशी से बताई । मैंने पूछा आपने क्या सबक सीखा गुरूजी के उपदेश से सही राह पर चलने के उपदेश से , वशिष्ठ जी को कोई संकोच नहीं हुआ हंसते हुए कहने लगे दोस्त सुनो और समझो भी । तुमको अभी दुनिया की कोई खबर है न ही दीन ईमान का अर्थ जानते हो , दुनियादारी समझो सीख लो जीना क्या है । ज़िंदगी घुट घुट कर मरते हुए उसूलों पर चलना नहीं है जिस रंग में सभी रंगे हुए उनसे विपरीत दिखाई दोगे तो हताशा मिलेगी । जब भी अवसर मिले अपनी नैया पार लगाओ किसी को खेवनहार बनाओ । अच्छा क्या बुरा क्या है सभी अपनी सुविधा से मानते हैं ऊपरवाला कौन है लोग जानते हैं काली कमाई सफेद कमाई बताओ किस ने बनाई मेरे भाई । भगवान चढ़ावे से अपने गुणगान से खुश होते हैं तो क्या उनको अंतर पड़ता है किसकी कैसी कमाई है ।
 
 
हम सभी अच्छे बुरे कर्म करते हैं आखिर इंसान हैं , पूजा पाठ दान धर्म रोज़ मंदिर मस्जिद जाते हैं कहते हैं भगवान को भक्त बहुत भाते हैं । भोग उनको जो लगाते हैं असल में खुद खा जाते हैं ये ग़ज़ब का तमाशा है जो चमकता है दिखता है वही बिकता है । धर्म का कारोबार का एक ही आधार है जैसे उसने कमाई करवाई उसी को अर्पित किया हमने जो किया उसकी मर्ज़ी से किया जलाया सुबह शाम दिया जबकि दीपक तले सदा अंधियारा ही रहा । आप सतयुग में नहीं कलयुग में जीते हैं अमृत को छोड़ ज़हर सभी पीते हैं अमृत पान करने वाले बेमौत मरते हैं विष पीने वाले चैन से रहते हैं । अमृत भी असली नहीं मिलता ज़हर भी नकली मिलता है ये सच्चाई बड़ी मुश्किल से जान पाया हूं तभी गुरूजी से मिलने आया हूं चलो साथ चर्चा करते हैं कल सुबह उनको घर आपके बुलाते हैं जीने की सही राह वही समझाते हैं । क्या बताएं अगले दिन गुरूजी ने कैसा था सबक हमको समझाया आत्मा पावन रहती है मैली होती है काया , सूरज की धूप सताती है ढूंढना पड़ता है कोई साया । पाप पुण्य का अर्थ कुछ भी नहीं सब खेल है उसी ने रचाया ज़िंदगी का मज़ा लूटो खुद खाओ सबको खिलाओ भाईचारा आपस में बढ़ाना है तो किसी को कभी मत आईना दिखाओ सभी को शरीफ़ भलेमानस बतलाओ मगर अपनी जान समझदारी से बचाओ । जब कभी किसी से उपदेश सुनो उसको भूल जाओ जो होता है जान कर आचरण में अपनाओ । हाथी के खाने के दांत अलग दिखाने के अलग होते हैं वही आज़माओ बुराई मत छोड़ो बस अच्छे लोग कहलाओ । हाथी के दांत की कीमत समझ आएगी तभी आपकी दुनिया बदल जाएगी , कहते हुए वो दरवाज़े से बाहर निकल अपनी शानदार गाड़ी में बैठे हाथ जोड़ खड़े लोगों को आशिर्वाद देने की मुद्रा बनाए चले गए थे । 
  
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