दिसंबर 30, 2012

POST : 270 और कुछ भी नहीं बंदगी हमारी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

और कुछ भी नहीं बंदगी हमारी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

और कुछ भी नहीं बंदगी हमारी
बस सलामत रहे दोस्ती हमारी ।

ग़म किसी के सभी हो गए हमारे
और उसकी ख़ुशी अब ख़ुशी हमारी ।

अब नहीं मांगना और कुछ खुदा से
झूमने लग गई ज़िंदगी हमारी ।

क्या पिलाया हमें आपकी नज़र ने
ख़त्म होती नहीं बेखुदी हमारी ।

याद रखनी हमें आज की घड़ी है
जब मुलाक़ात हुई आपकी हमारी ।

आपके बिन नहीं एक पल भी रहना
अब यही बन गई बेबसी हमारी ।

जाम किसने दिया भर के आज "तनहा"
और भी बढ़ गई तिश्नगी हमारी । 
 

 

POST : 269 नहीं कभी रौशन नज़ारों की बात करते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

      नहीं कभी रौशन नज़ारों की बात करते हैं ( ग़ज़ल ) 

                          डॉ लोक सेतिया "तनहा"

नहीं कभी रौशन नज़ारों की बात करते हैं
जो टूट जाते उन सितारों की बात करते हैं ।

हैं कर रही बरबादियां हर तरफ रक्स लेकिन
चलो खिज़ाओं से बहारों की बात करते हैं ।

वो लोग सच को झूठ साबित किया करें बेशक
जो रोज़ आ के हमसे नारों की बात करते हैं ।

वो जानते हैं हुस्न वालों की हर हकीकत को
उन्हीं के कुछ टूटे करारों की बात करते हैं ।

गुलों से करते थे कभी गुफ्तगू बहारों की
जो बागबां खुद आज खारों की बात करते हैं ।

हुआ हमारे साथ क्या है ,किसे बतायें अब
सभी तो नज़रों के इशारों की बात करते हैं ।

जिसे नहीं आया अभी तक ज़मीं पे चलना ही
वही ज़माने के सहारों की बात करते हैं ।

जो नाखुदा कश्ती को मझधार में डुबोते हैं
उन्हीं से "तनहा" क्यों किनारों की बात करते हैं ।
 

 

POST : 268 प्यार की बात मुझसे वो करने लगा ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

        प्यार की बात मुझसे वो करने लगा ( ग़ज़ल ) 

                          डॉ लोक सेतिया "तनहा"

प्यार की बात मुझसे वो करने लगा
दिल मेरा क्यों न जाने था डरने लगा ।

मिल के हमने बनाया था इक आशियां
है वही तिनका तिनका बिखरने लगा ।

दीनो-दुनिया को भूला वही प्यार में
जब किसी का मुकद्दर संवरने लगा ।

दर्दमंदों की सुन कर के चीखो पुकार
है फ़रिश्ता ज़मीं पे उतरने लगा ।

जो कफ़स छोड़ उड़ने को बेताब था
पर सय्याद उसी के कतरने लगा ।

था जो अपना वो बेगाना लगने लगा
जब मुखौटा था उसका उतरने लगा ।

उम्र भर साथ देने की खाई कसम
खुद ही "तनहा" मगर अब मुकरने लगा ।  
 

 

दिसंबर 29, 2012

POST : 267 बहाने अश्क जब बिसमिल आये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बहाने अश्क जब बिसमिल आये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बहाने अश्क जब बिसमिल आये 
सभी कहने लगे पागल आये ।

हुई इंसाफ की बातें लेकिन
ले के खाली सभी आंचल आये ।

सभी के दर्द को अपना समझो
तुम्हारी आंख में भर जल आये ।

किसी की मौत का पसरा मातम
वहां सब लोग खुद चल चल आये ।

भला होती यहां बारिश कैसे
थे खुद प्यासे जो भी बादल आये ।

कहां सरकार के बहते आंसू
निभाने रस्म बस दो पल आये ।

संभल के पांव को रखना "तनहा"
कहीं सत्ता की जब दलदल आये । 
 

 

दिसंबर 28, 2012

POST : 266 हमको जीने के सब अधिकार दे दो ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

        हमको जीने के सब अधिकार दे दो ( ग़ज़ल ) 

                         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमको जीने के सब अधिकार दे दो
मरने की फिर सज़ा सौ बार दे दो ।

अब तक सारे ज़माने ने रुलाया
तुम हंसने के लिए दिन चार दे दो ।

पल भर जो दूर हमसे रह न पाता
पहले-सा आज इक दिलदार दे दो ।

बुझ जाये प्यास सारी आज अपनी
छलका कर जाम बस इक बार दे दो ।

पर्दों में छिप रहे हो किसलिये तुम
आकर खुद सामने दीदार दे दो ।

दुनिया ने दूर हमको कर दिया था
रहना फिर साथ है इकरार दे दो ।

दिल देने आज "तनहा" आ गया है
ले लो दिल और दिल उपहार दे दो । 
 

 

POST : 265 हमको मिली सौगात है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 हमको मिली सौगात है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमको मिली सौगात है
अश्कों की जो बरसात है ।

होती कभी थी चांदनी
अब तो अंधेरी रात है ।

जब बोलती है खामोशी
होती तभी कुछ बात है ।

पीता रहे दिन भर ज़हर
इंसान क्या सुकरात है ।

होने लगी बदनाम अब
इंसानियत की जात है ।

रोते सभी लगती अगर
तकदीर की इक लात है ।

"तनहा" कभी जब खेलता
देता सभी को मात है ।
 

 

दिसंबर 27, 2012

POST : 264 जब हुई दर्द से जान पहचान है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 जब हुई दर्द से जान पहचान है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

जब हुई दर्द से जान पहचान है
ज़िंदगी तब हुई कुछ तो आसान है ।

क़त्ल होने लगे धर्म के नाम पर
मुस्कुराने लगा देख हैवान है ।

कुछ हमारा नहीं पास बाकी रहा
दिल भी है आपका आपकी जान है ।

चार दिन ही रहेगी ये सारी चमक
लग रही जो सभी को बड़ी शान है ।

लोग अब ज़हर को कह रहे हैं दवा
मौत का ज़िंदगी आप सामान है ।

उम्र भर कारवां जो बनाता रहा
रह गया खुद अकेला वो इंसान है ।

हम हुए आपके, आके "तनहा" कहें
बस अधूरा यही एक अरमान है ।
 

  

दिसंबर 23, 2012

POST : 263 अलविदा पुरातन स्वागतम नव वर्ष ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

अलविदा पुरातन , स्वागतम नव वर्ष ( कविता ) डॉ  लोक सेतिया

अलविदा पुरातन वर्ष
ले जाओ साथ अपने
बीते वर्ष की सभी
कड़वी यादों को
छोड़ जाना पास हमारे
मधुर स्मृतियों के अनुभव ।

करना है अंत
तुम्हारे साथ
कटुता का देश समाज से
और करने हैं समाप्त 
सभी गिले शिकवे
अपनों बेगानों से
अपने संग ले जाना
स्वार्थ की प्रवृति को
तोड़ जाना जाति धर्म
ऊँच नीच की सब दीवारें ।
 
इंसानों को बांटने वाली
सकुंचित सोच को मिटाते जाना 
ताकि फिर कभी लौट कर
वापस न आ सकें ये कुरीतियां
तुम्हारी तरह
जाते हुए वर्ष
अलविदा ।

स्वागतम नूतन वर्ष 
आना और अपने साथ लाना
समाज के उत्थान को
जन जन के कल्याण को
स्वदेश के स्वाभिमान को
आकर सिखलाना सबक हमें
प्यार का भाईचारे का
सत्य की डगर पर चलकर
सब साथ दें हर बेसहारे का
जान लें भेद हम लोग
खरे और खोटे का
नव वर्ष
मिटा देना आकर
अंतर
तुम बड़े और छोटे का ।
 

  

दिसंबर 22, 2012

POST : 262 रुक नहीं सकता जिसे बहना है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

रुक नहीं सकता जिसे बहना है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

रुक नहीं सकता जिसे बहना है
एक दरिया का यही कहना है ।

मान बैठे लोग क्यों कमज़ोरी
लाज औरत का रहा गहना है ।

क्या यही दस्तूर दुनिया का है
पास होना दूर कुछ रहना है ।

बांट कर खुशियां ज़माने भर को
ग़म को अपने आप ही सहना है ।

बिन मुखौटे अब नहीं रह सकते
कल उतारा आज फिर पहना है ।

साथ दोनों रात दिन रहते हैं
क्या गरीबी भूख की बहना है ।

ज़िंदगी "तनहा" बुलाता तुझको
आज इक दीवार को ढहना है । 
 

 

POST : 261 उसको न करना परेशान ज़िंदगी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 उसको न करना परेशान ज़िंदगी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

उसको न करना परेशान ज़िंदगी
टूटे हुए जिसके अरमान ज़िंदगी ।

होने लगा प्यार हमको किसी से जब
करने लगे लोग बदनाम ज़िंदगी ।

ढूंढी ख़ुशी पर मिले दर्द सब वहां
जायें किधर लोग नादान ज़िंदगी ।

रहने को सब साथ रहते रहे मगर
इक दूसरे से हैं अनजान ज़िंदगी ।

होती रही बात ईमान की मगर
आया नज़र पर न ईमान ज़िंदगी ।

सब ज़हर पीने लगे जान बूझ कर
होने लगी देख हैरान ज़िंदगी ।

शिकवा गिला और "तनहा" न कर अभी
बस चार दिन अब है महमान ज़िंदगी ।
 

 

दिसंबर 21, 2012

POST : 260 गए भूल हम ज़िन्दगानी की बातें ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

गए भूल हम ज़िन्दगानी की बातें ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

गए भूल हम ज़िन्दगानी की बातें
सुनाते रहे बस कहानी की बातें ।

तराशा जिन्हें हाथ से खुद हमीं ने
हमें पूछते अब निशानी की बातें ।

गये डूब जब लोग गहराईयों में
तभी जान पाये रवानी की बातें ।

रही याद उनको मुहब्बत हमारी
नहीं भूल पाये जवानी की बातें ।

हमें याद सावन की आने लगी है
चलीं आज ज़ुल्फों के पानी की बातें ।

गये भूल देखो सभी लोग उसको
कभी लोग करते थे नानी की बातें ।

किसी से भी "तनहा" कभी तुम न करना
कहीं भूल से बदगुमानी की बातें । 
 

 

POST: 259 शिकवा नहीं है न कोई शिकायत है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

         शिकवा नहीं है न कोई शिकायत है ( ग़ज़ल ) 

                         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

शिकवा नहीं है न कोई शिकायत है
उनसे मिला दर्द लगता इनायत है ।

जीने ही देते न मरने ही देते हैं
ये इश्क वालों की कैसी रिवायत है ।

करना अगर प्यार ,कर के निभाना तुम
देता सभी को वो , इतनी हिदायत है ।

बस आखिरी जाम भर कर अभी पी लें
उसने हमें आज दे दी रियायत है ।

जिनको हमेशा ही तुम लूटते रहते
उनसे ही जाकर के मांगी हिमायत है ।

आगाज़ देखा न अंजाम को जाना
"तनहा" यही तो सभी की हिकायत है । 
 

 

दिसंबर 19, 2012

POST : 258 जिये जा रहे हैं इसी इक यकीं पर ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

जिये जा रहे हैं इसी इक यकीं पर ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

जिये जा रहे हैं इसी इक यकीं पर
हमारा भी इक दोस्त होगा कहीं पर ।

यही काम करता रहा है ज़माना
किसी को उठा कर गिराना ज़मीं पर ।

गिरे फूल  आंधी में जिन डालियों से 
नये फूल आने लगे फिर वहीं पर ।

वो खुद रोज़ मिलने को आता रहा है
बुलाते रहे कल वो आया नहीं पर ।

किसी ने लगाया है काला जो टीका
लगा खूबसूरत बहुत उस जबीं पर ।

भरोसे का मतलब नहीं जानते जो
सभी को रहा है यकीं क्यों उन्हीं पर ।

रखा था बचाकर बहुत देर "तनहा"
मगर आज दिल आ गया इक हसीं पर । 
 

 

दिसंबर 14, 2012

POST : 257 दर्द को चुन लिया ज़िंदगी के लिये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दर्द को चुन लिया ज़िंदगी के लिये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दर्द को चुन लिया ज़िंदगी के लिये 
और क्या चाहिये शायरी के लिये ।

उसके आंसू बहे , ज़ख्म जिसको मिले
कौन रोता भला अब किसी के लिये ।

जी न पाये मगर लोग जीते रहे
सोचते बस रहे ख़ुदकुशी के लिये ।

शहर में आ गये गांव को छोड़ कर
अब नहीं रास्ता वापसी के लिये ।

इस ज़माने से मांगी कभी जब ख़ुशी
ग़म हज़ारों दिये इक ख़ुशी के लिये ।

तब बताना हमें तुम इबादत है क्या
मिल गया जब खुदा बंदगी के लिये ।

आप अपने लिए जो न "तनहा" किया
आज वो कर दिया अजनबी के लिये । 
 

    

दिसंबर 06, 2012

POST : 256 सिलसिला हादिसा हो गया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

  सिलसिला हादिसा हो गया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सिलसिला हादिसा हो गया
झूठ सच से बड़ा हो गया ।

कश्तियां डूबने लग गई
नाखुदाओ ये क्या हो गया ।

सच था पूछा , बताया उसे
किसलिये फिर खफ़ा हो गया ।

साथ रहने की खा कर कसम
यार फिर से जुदा हो गया ।

राज़ खुलने लगे जब कई
ज़ख्म फिर इक नया हो गया ।

हाल अपना   , बतायें किसे
जो हुआ , बस हुआ , हो गया ।

देख हैरान "तनहा" हुआ
एक पत्थर खुदा हो गया ।
 

 

POST : 255 दर्द को गुज़रे ज़माने हैं बहुत ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 दर्द को गुज़रे ज़माने हैं बहुत ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दर्द को गुज़रे ज़माने हैं बहुत
बेमुरव्वत दोस्ताने हैं बहुत ।

हो गये दो जिस्म यूं तो एक जां
फासले अब भी मिटाने हैं बहुत ।

दब गये ज़ख्मों की सौगातों से हम
और भी अहसां उठाने हैं बहुत ।

मिल न पाए ज़िंदगी के काफ़िये
शेर लिख - लिख कर मिटाने हैं बहुत ।

हादिसे हैं फिर वही चारों तरफ 
हां , मगर किस्से पुराने हैं बहुत । 
 
हम खिज़ाओं का गिला करते नहीं 
फूल गुलशन में खिलाने हैं बहुत । 
 
कह रहे , हमको बुलाओ तो सही 
पर , न आने को बहाने हैं बहुत । 
 
ज़िंदगी ठहरी नहीं अपनी कहीं 
बेठिकानों के , ठिकाने हैं बहुत । 
 
वक़्त की रफ़्तार से "तनहा" चलो 
फिर , सभी मौसम सुहाने हैं बहुत। 

अब आप मेरी यही ग़ज़ल मेरे यूट्यूब चैनल अंदाज़-ए -ग़ज़ल पर भी सुनकर आनंद ले सकते हैं। 



 
 
 

 

दिसंबर 05, 2012

POST : 254 मत ये पूछो कि क्या हो गया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 मत ये पूछो कि क्या हो गया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मत ये पूछो कि क्या हो गया
बोलना सच ,  खता हो गया ।

जो कहा भाई को भाई तो 
मुझ से बेज़ार-सा हो गया । 
 
आदमी बन सका तो नहीं
कह रहा मैं खुदा हो गया ।

अब तो मंदिर ही भगवान से 
क़द में कितना बड़ा हो गया ।

उस से डरता है भगवान भी 
देख लो क्या से क्या हो गया । 
 
घर ख़ुदा का जलाकर कोई 
आज बंदा ख़ुदा हो गया ।
 
भीख लेने लगे लगे आजकल 
इन अमीरों को क्या हो गया ।

नाज़ जिसकी  वफाओं पे था
क्यों वही बेवफा हो गया ।

दर-ब-दर को दुआ कौन दे
काबिले बद-दुआ हो गया ।

राज़ की बात इतनी सी है 
सिलसिला हादिसा हो गया । 

कुछ न "तनहा" उन्हें कह सका
खुद गुनाहगार-सा हो गया ।  
 

 आप मेरी रचनाओं को मेरे यूट्यूब चैनल " अंदाज़-ए -ग़ज़ल " पर भी देख और सुन कर लुत्फ़ उठा सकते हैं। 


 

POST : 253 कश्ती वही साहिल वही तूफ़ां वही हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       कश्ती वही साहिल वही तूफ़ां वही हैं ( ग़ज़ल ) 

                             डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कश्ती वही साहिल वही तूफां वही हैं
खुद जा रहे मझधार में नादां वही हैं ।

हम आपकी खातिर ज़माना छोड़ आये 
दिल में हमारे अब तलक अरमां वही हैं ।

कैसे जियें उनके बिना कोई बताओ
सांसे वही धड़कन वही दिल जां वही हैं ।

सैलाब नफरत का बड़ी मुश्किल रुका था
आने लगे फिर से नज़र सामां वही हैं ।

हालात क्यों बदले हुए आते नज़र हैं
जब रह रहे दुनिया में सब इन्सां वही हैं ।

दामन छुड़ा कर दर्द से कुछ चैन पाया
फिर आ गये वापस सभी महमां वही हैं ।

करने लगे जो इश्क आज़ादी से "तनहा"
इस वतन पर होते रहे कुरबां वही हैं । 
 

 

POST : 252 ख्यालों में रह रह के आये जाये कोई ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

 ख्यालों में रह रह के आये जाये कोई ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया 

ख्यालों में रह रह के आये जाये कोई
तसव्वुर में आ आ के मुस्काये कोई ।

सराहूं मैं किस्मत को ,जो पास मेरे
कभी खुद से घबरा के आ जाये कोई ।

वो भूली सी , बिसरी हुई सी कहानी
हमें याद आये , जो दोहराये कोई ।

ठहर जाए जैसे समां खुशनुमां सा
मेरे पास आ कर ठहर जाये कोई ।

किसी गुलसितां में खिलें फूल जैसे
खबर हमको ऐसी सुना जाये कोई ।
  
 

 

दिसंबर 03, 2012

POST : 251 बेवफ़ा हमको कह गये होते ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बेवफ़ा हमको कह गये होते ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बेवफ़ा हमको कह गये होते
हम ये इल्ज़ाम सह गये होते ।

बहते मौजों के साथ पत्थर भी
जो न साहिल पे रह गये होते ।

ग़म भी हमको सकून दे जाता
हंस के उसको जो सह गये होते ।

ज़ेब देते किसी के दामन को
अश्क जो यूं न बह गये होते ।

यूं न हम राह देखते उनकी
जो न आने को कह गये होते ।

थाम लेते कभी उसे बढ़कर
दूर "तनहा" न रह गये होते ।
 

 

नवंबर 29, 2012

POST : 250 गांव अपना छोड़ कर हम पराये हो गये ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

      गांव अपना छोड़ कर हम पराये हो गये ( ग़ज़ल ) 

                          डॉ लोक सेतिया "तनहा"

गांव  अपना छोड़ कर , हम  पराये हो गये 
लौट कर आए मगर बिन  बुलाये हो गये ।

जब सुबह का वक़्त था लोग कितने थे यहां
शाम क्या ढलने लगी ,  दूर साये हो गये ।

कर रहे तौबा थे अपने गुनाहों की मगर 
पाप का पानी चढ़ा फिर नहाये  हो गये ।

डायरी में लिख रखे ,पर सभी खामोश थे
आपने आवाज़ दी , गीत गाये  हो गये ।

हर तरफ चर्चा सुना बेवफाई का तेरी
ज़िंदगी क्यों  लोग तेरे सताये  हो गये ।

इश्क वालों से सभी लोग कहने लग गये 
देखना गुल क्या तुम्हारे खिलाये हो गये ।

दोस्तों की दुश्मनी का नहीं "तनहा" गिला
बात है इतनी कि सब आज़माये  हो गये । 
 

 

नवंबर 28, 2012

POST : 249 हाल अच्छा क्यों रकीबों का है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हाल अच्छा क्यों रकीबों का है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हाल अच्छा क्यों रकीबों का है
ये भी शिकवा कुछ अदीबों का है ।

मिल रहा सब कुछ अमीरों को क्यों
हक बराबर का गरीबों का है ।

मांगकर मिलता नहीं छीनो अब 
फिर सभी अपने  नसीबों का है ।

किसलिये  डरना किसी ज़ालिम से 
डर नहीं कोई सलीबों का है ।

दर्द गैरों का दिया कुछ "तनहा"
और कुछ अपने हबीबों का है । 
 

 

नवंबर 25, 2012

POST : 248 किया था वादा तुमने कृष्ण ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    किया था वादा तुमने कृष्ण ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

धरती पर बढ़ जाता है
जब अधर्म
उसका अंत करने को
लेते हो तुम जन्म
गीता में कहा था तुमने
हे कृष्ण ।

आज हमें हर तरफ
आ रहे हैं नज़र
कितने ही कंस हैं
तुम्हारी जन्म भूमि पर ।  

हम हर वर्ष मनाते हैं
जन्माष्टमी का त्यौहार
रख कर दिल में उम्मीद 
कि आओगे तुम
निभाने अपना वादा
कर दोगे अंत इन सब का ।

क्या भूल गये
अपना किया वादा तुम
अच्छा होता
न करते तुम ऐसा वादा ।

दिया होता गीता में
सब को ये सन्देश
कि हम सब को
स्वयं बनना होगा कृष्ण ।

पाप और अधर्म का
अंत करने के लिये  
तब शायद न ले पाते
नित नये नये कंस जन्म
इस धरती पर हे कृष्ण । 
 

 

नवंबर 23, 2012

POST : 247 दूर रहते हो क्यों तुम हर किसी से ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दूर रहते हो क्यों तुम हर किसी से ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

दूर रहते हो क्यों तुम हर किसी से
पास आ कर मिलो इक दिन सभी से ।

पास जितना उसे तुम बांट देना
मांगना फिर सभी कुछ ज़िंदगी से ।

कह दिया क्या उसे मरने चला है
देख लो हो गया क्या दिल्लगी से ।

रोकना चाहते हो रोक लो अब
छोड़ शिकवा गिला आवारगी से ।

आज नासेह से पूछा किसी ने
क्या खुदा मिल गया है बंदगी से ।

रुक सका आज तक तूफां कभी है
रोकते हो मुझे क्यों आशिकी से ।

जिनकी खातिर जिये "तनहा" अभी तक
मर गये  आज उनकी बेरुखी से । 
 

 

नवंबर 22, 2012

POST : 246 वो साहित्य कहाँ है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      वो साहित्य कहां है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कब का मिट चुका लुट चुका
जिसको चाहते हैं ढूंढना हम सब ।

उजड़ा उजड़ा सा है चमन
मुरझाये हुए हैं फूल सभी
रुका हुआ
प्रदूषित जल तालाब का
कुम्हलाए हुए
कंवल के सभी फूल ।

हवाओं में है अजब सी घुटन
बेचैन हो रहा हमारा तन मन
हो रहा है जैसे मातम कोई ।

कहां गई
खुशियों की महफिलें ।

कहां भूल आये सभी सदभावना
क्यों खो गई संवेदनाएं हमारी
आता नहीं अब कहीं नज़र
होता था कभी जो अपनी पहचान ।

सुगंध थी जिसमें फूलों की
महक थी जो बहारों की
नदी का वो बहता पानी
समुन्दर सी गहराई लिये
प्यार का सबक पढ़ाने वाला
मानवता की राह दिखाने वाला ।

नई रौशनी लाने वाला
अंधेरे सभी मिटाने वाला
आशा फिर से जगाने वाला
पढ़ने वाला पढ़ाने वाला
साहित्य वो है कहां । 
 

 

नवंबर 21, 2012

POST : 245 फूल पत्थर के ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    फूल पत्थर के ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

साहित्य में
बड़ा है उनका नाम
गरीबों के हमदर्द हैं
कुछ ऐसी बनी हुई
उनकी है पहचान ।

गरीब बेबस शोषित लोग
उनकी रचनाओं के
होते हैं किरदार 
मानवता के दर्द की संवेदना
छलकती नज़र आती है
उनके शब्दों से ।

मिले हैं दूर से कई बार उनसे
उनके लिए
बजाई हैं तालियां
आज गये हम उनके घर
उनसे  करने को मुलाक़ात ।

देखा जाकर वहां
नया एक चेहरा उनका
उनके घर के कई काम करता है
किसी गरीब का बच्चा छोटा सा ।

खड़ा था सहमा हुआ
उनके सामने कह रहा था
हाथ जोड़ रोते हुए
मेरा नहीं है कसूर
कर दो मुझे माफ़ ।

लेकिन रुक नहीं रहे थे
उनके नफरत भरे बोल
घायल कर रहे थे
उनके अपशब्द एक मासूम को
और मुझे भी
जो सुन रहा था हैरान हो कर ।

डरने लगा था मन मेरा
देख उनके चेहरे पर
क्रूरता के भाव
उतर गया था जैसे उनका मुखौटा ।

वो खुद लगने लगे थे
खलनायक
अपनी ही लिखी कहानी के ।

लौट आया था मैं उलटे पांव
वे वो नहीं थे जिनसे मिलने की
थी मुझे तमन्ना ।

आजकल बिकते हैं बाज़ार में
कुछ खूबसूरत फूल
पत्थर के बने हुए भी
लगते हैं हरदम ताज़ा
पास जाकर छूने से लगता है पता ।

नहीं फूलों सी कोमलता का
उनमें कोई एहसास ।

मुरझाते नहीं
मगर होते हैं संवेदना रहित
खुशबू नहीं बांटते
पत्थर के फूल कभी । 
 

 

POST : 244 अमर कहानी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

अमर कहानी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

बेहद कठिन है
लिखना
जीवन की कहानी
नहीं आसान होता
समझना
जीवन को
करते हैं 
प्रतिदिन संग्राम
जीने के लिये 
कथाकार की
कल्पना जैसा
होता नहीं
कभी किसी का
जीवन वास्तव में ।

बदलती रहती
पल पल परिस्थिति
मिलना बिछुड़ना
हारना जीतना
सुख दुःख जीवन में
नहीं सब होता
किसी के भी बस में
कदम कदम विवशता 
आती है नज़र
सब कुछ घटता जीवन में
देख नहीं पाता कोई भी
अनदेखा
अनसुना भी
रह जाता
बहुत कुछ है
जीत जाता हारने वाला
और जीतने वाले
की हो जाती हार
अक्सर जाती यहां बदल
उचित अनुचित की परिभाषा
किसे मालूम क्या है
पूर्ण सत्य जीवन का ।
 
कैसे तय कर सकती है
किसी कथाकार की कलम
नायक कौन
कौन खलनायक
जीवन में
कहां बच पाता लेखक भी
अपने पात्रों के मोह से
निष्पक्ष हो
समझना होगा
जीवन के पात्रों को
निभाना होगा
कर्तव्य उसे
जीवन की कहानी के
सभी पात्रों से 
न्याय करने का
उसकी कलम
लिख पाएगी तभी 
कोई कालजयी कहानी
जो अमर बनी 
रहेगी युगों युगों तक । 

 

POST : 243 फिर नये सिलसिले क्या हुए ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

फिर नये सिलसिले क्या हुए ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

फिर नये सिलसिले क्या हुए
सब पुराने गिले क्या हुए ।

बीज बोये थे फूलों के सब 
गुल नहीं पर खिले क्या हुए ।

इक अकेला मुसाफिर बचा
थे कई काफिले क्या हुए ।

बात तक जब  नहीं हो सकी 
यार बिछुड़े मिले क्या हुए ।

देखने सब उधर लग गये  
उनके पर्दे हिले क्या हुए ।

इश्क ने तोड़ डाले सभी 
आपके सब किले क्या हुए ।

साथ "तनहा" नहीं रह सके
खत्म फिर फासिले क्या हुए । 
 

 

POST : 242 खुदा से बात ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      खुदा से बात ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कहते हैं लोग
दुनिया में अच्छा-बुरा
जो भी होता है
सब होता है तेरी ही मर्ज़ी से ।

अन्याय अत्याचार
धर्म तक का होता है
इस दुनिया में कारोबार ।

तेरी मर्ज़ी है इनमें
मैं कर नहीं सकता
कभी भी स्वीकार ।

सिर्फ इसलिए कि याद रखें
भूल न जाएं तुझको
देते हो सबको परेशानियां
दुःख दर्द समझते हैं
दुनिया के  कुछ लोग ।

ऐसा तो करते हैं
कुछ  इंसान
कर नहीं सकता
खुद भगवान ।

खुदा नहीं हो सकता
अपने बनाए इंसानों से
इतना बेदर्द
निभाता होगा अपना हर फ़र्ज़ ।

लगता है
कर दिया है बेबस तुझको
अपने ही बनाए इंसानों ने
जैसे माता पिता
हैं यहां बेबस संतानों से ।

अपने लिए सभी
करते तुझ से प्रार्थना
मैं विनती कर रहा हूँ
पर तेरे लिए ।

बचा लो इश्वर
अपनी ही शान
फिर से बनाओ अपना ये जहान
होगा हम सब पर एहसान ।

अब फिर बनाओ दुनिया इक ऐसी
चाहते हो तुम खुद जैसी
अच्छा प्यारा खूबसूरत
बनाओ इक ऐसा फिर से जहां ।

जिसमें न हो दुःख दर्द कोई
मिलती हों सबको खुशियां ।

अन्याय  अत्याचार का
जिसमें न हो निशां
ऐ खुदा अब बनाना
इक ऐसी नई दुनिया । 
 

 

नवंबर 20, 2012

POST : 241 बिकने लगी जब मां करोड़ों करोड़ में ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       बिकने लगी जब मां करोड़ों करोड़ में ( ग़ज़ल ) 

                            डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बिकने लगी जब माँ करोड़ों करोड़ में
सब लोग शामिल हो गए खुद ही दौड़ में ।

जीने के बारे सोचते लोग अब नहीं
सारा ज़माना लग गया जोड़ तोड़ में ।

तुम वक़्त की रफ़्तार को रोकना नहीं
बचना नहीं आसान इस की मरोड़ में ।

कैसे बतायें क्या लिखा क्या नहीं लिखा
मिलती कहां हर बात दुनिया के जोड़ में ।

हम तो सभी को साथ लेते गये मगर
कुछ लोग खुद बिछुड़े बदल राह मोड़ में ।

करने लगे हैं प्यार नेता भी देश से
उठने लगी हो खाज जैसे कि कोड़ में ।

"तनहा" ज़माना दौड़ता और हांफता
शामिल  कभी होते नहीं आप होड़ में ।
 

 

नवंबर 19, 2012

POST : 240 मेरी खबर ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      मेरी खबर ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

पहचाना नहीं आज तुमने मुझे
तुम्हें फुर्सत नहीं थी मिलने की
करनी थी मुझको जो बातें तुमसे 
रहेंगी उम्र भर सब अब अधूरी ।

मगर शायद वर्षों बाद पढ़ कर
सुबह का तुम अखबार
या सुन कर किसी से  समाचार
आओगे घर मेरे तुम भी एक बार
ढूंढ कर मेरा ठिकाना ।

मुमकिन है सोचो तब तुम
कोई तो दे जाता मैं तुम्हें निशानी
काश दोहराते पुरानी हम यादें
सुनते-सुनाते जुबां से अपनी
नई हम कहानी ।

मिला है जो
जवाब तुमसे अभी
वही खुद अपने से
मिलेगा तुम्हें कभी
नहीं मिल सकूंगा मैं ।

होगी शायद
तुमको भी निराशा
होगी खत्म तुम्हारी भी
मुझसे मिलने की
हर आशा ।

ये सब जीते जी
नहीं  कर सकूंगा मैं
जो किया है तुमने
वो नहीं दोहराऊंगा मैं ।

होगा ऐसा इसलिये 
मेरे दोस्त उस दिन
क्योंकि मैं अलविदा
कह चुका हूंगा दुनिया को ।

और आये होगे
तुम मेरे घर पर
पढ़कर  या सुनकर
मेरे मरने की खबर । 
 

 

POST : 239 हैं खुदा जो वही अब यहां रह रहे हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       हैं खुदा जो वही अब यहां रह रहे हैं ( ग़ज़ल )

                         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हैं खुदा जो वही अब यहां रह रहे हैं
आदमी सब न जाने कहां रह रहे हैं ।

बोलने की किसी को इजाज़त नहीं है
हर ज़ुबां सिल चुकी हम जहां रह रहे हैं ।

ले चलो उस तरफ को जनाज़ा हमारा
यार सारे हमारे वहां रह रहे हैं ।

लोग कहने लगे हम नहीं साथ रहते
तुम बता दो सभी को कि हां रह रहे हैं ।

बाद मरने के जन्नत में जाकर ये देखा
हो गई भीड़ अहले जहां रह रहे हैं ।

ढूंढता फिर रहा आपको है ज़माना
आप क्यों इस तरह बन निहां रह रहे हैं ।

जुर्म साबित नहीं जब हुआ है तो "तनहा"
किसलिये फिर झुकाए दहां रह रहे हैं ।
 

 

POST : 238 मधुर सुर न जाने कहां खो गया है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मधुर सुर न जाने कहां खो गया है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मधुर सुर न जाने कहां खो गया है
यही शोर क्यों हर तरफ हो गया है ।

बता दो हमें तुम उसे क्या हुआ है
ग़ज़लकार किस नींद में सो गया है ।

घुटन सी हवा में यहां लग रही है
यहां रात कोई बहुत रो गया है ।

नहीं कर सका दोस्ती को वो रुसवा
मगर दाग अपने सभी धो गया है ।

करेंगे सभी याद उसको हमेशा
नहीं आएगा फिर अभी जो गया है ।

कहां से था आया सभी को पता है
नहीं जानते पर किधर को गया है ।

मिले शूल "तनहा" उसे ज़िंदगी से
यहां फूल सारे वही बो गया है । 
 

 

नवंबर 18, 2012

POST : 237 मेरी जान , मेरे दोस्त ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    मेरी जान , मेरे दोस्त ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

अक्सर आता है मुझे याद 
पहला दिन कालेज का
झाड़ियों के पीछे
पत्थरों पर बैठे हुए थे
हम दोनों कालेज के लान में ।

रैगिंग से हो कर परेशान 
कितने उदास थे हम 
कितने अकेले - अकेले
पहले ही दिन कुछ ही पल में
हम हो गये थे कितने करीब ।

अठारह बरस है अपनी उम्र 
आज भी लगता है कभी ऐसे
कितनी यादें हैं अपनी
जो भुलाई नहीं जाती 
भूलना चाहते भी नहीं थे
हम कभी ।

पहली बार मुझे
मिला था दोस्त ऐसा 
जो जानता था
पहचानता था
मुझे वास्तव में ।

बीत गये वो दिन कब जाने
छूट गया वो
शहर उसका बाज़ार
गलियां उसकी ।

बरसात में भीगते हुए  
हमारा कुछ तलाश करना
बाज़ार से तुम्हारे लिये 
खो गई सपनों जैसी
प्यारी दुनिया हमारी ।
 
मगर भूले नहीं हम
कभी वो सपने
जो सजाए थे मिलकर कभी 
अचानक तुम चले गए वहां
जहां से आता नहीं लौटकर कोई ।

मुझे नहीं मिला
फिर कोई दोस्त तुम सा 
खाली है मेरे जीवन में
इक जगह
रहते हो अब भी तुम वहां ।

आज भी सोचता हूँ
जाकर ढूंढू 
उन्हीं रास्तों पर तुम्हें जहां
चलते रहे दोनों यूं ही शामों को
अब कहां मिलते हैं
इस दुनिया में तुझसे दोस्त ।

अब क्या है इस शहर में
इस दुनिया में
बिना तेरे मेरी जान मेरे दोस्त ।

                    ( ये कविता मेरे दोस्त डॉ बी डी शर्मा , बीडी के नाम )


 

नवंबर 17, 2012

POST : 236 कोई ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    कोई ( कविता )    डॉ लोक सेतिया

कोई है धड़कन दिल की
कोई राहों की है धूल ।

कोई शाख से टूटा पत्ता
कोई डाली पे खिला फूल ।

कोई आंसू मोती जैसा
कोई हो जैसे कि पानी ।

कोई आज के दौर की चर्चा
कोई भूली हुई कहानी ।

कोई कविता ग़ज़ल हो जैसे
कोई बीते कल का अखबार ।

कोई कहीं पर डूबी नैया
कोई माझी संग पतवार ।

कोई सूना आंगन मन का
कोई है दिल का अरमान ।

कोई अपने घर को भूला
कोई घर घर का महमान ।

कोई नहीं कभी बिकता है
कोई बताता अपना दाम ।

कोई है आगाज़ किसी का
कोई किसी का है अंजाम । 
 

 

नवंबर 16, 2012

POST : 235 ऐसा भी कोई तो हो ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      ऐसा भी कोई तो हो ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

अपना ले जो मुझे
मैं जैसा भी हूं ।

हर दिन मुझको
न करवाए एहसास
मेरी कमियों का बार बार ।

सोने चांदी से नहीं
धन दौलत से नहीं
प्यार हो जिसको इंसान से
इंसानियत से ।

जिसको आता ही न हो
मेरी ही तरह
दुनिया का लेन-देन का
कोई कारोबार ।

थाम कर जो
फिर छोड़ जाए न कभी साथ 
रिश्ते-नातों को
जो समझे न इक व्योपार
जिसको आता हो बहाना आंसू
हर किसी के दुःख दर्द में ।
नफरत न हो जिसे अश्क बहाने से
जिसमें बाकी हों
मानवता की संवेदनाएं
जन्म जन्म से ढूंढ रहा हूं
उसी को मैं । 
 

     

POST : 234 बतायें तुम्हें क्या किया हमने ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बतायें तुम्हें क्या किया हमने ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बतायें तुम्हें क्या किया हमने
ज़माने को ठुकरा दिया हमने ।

बुझी प्यास अपनी उम्र भर की
कोई जाम ऐसा पिया हमने ।

तुझे भूल जाने की कोशिश में
तेरा नाम हर पल लिया हमने ।

नहीं दुश्मनों से गिला करते
उन्हें कह दिया शुक्रिया हमने ।

पुरानी ग़ज़ल को संवारा है
बदल कर नया काफिया हमने ।

गुज़ारी है लम्बी उम्र लेकिन
नहीं एक लम्हा जिया हमने ।

रहा अब नहीं दाग़ तक "तनहा"
तेरा ज़ख्म ऐसे सिया हमने । 
 

 

नवंबर 15, 2012

POST : 233 रास्ते ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

     रास्ते ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

मंज़िल की जिन्हें चाह थी
मिल गई
उनको मंज़िल ।

मैं वो रास्ता हूं
गुज़रते रहे जिससे हो कर 
दुनिया के सभी लोग ।

तलाश में अपनी अपनी
मंज़िल की 
मैं रुका हुआ हूं
इंतज़ार में प्यार की ।
 
रुकता नहीं
मेरे साथ कोई भी 
कुचल कर
गुज़र जाते हैं सब
मंज़िल की तरफ आगे ।
 
सबको भाती हैं
मंज़िलें 
बेमतलब लगते हैं रास्ते ।

क्या मिल पाती तुम्हें मंज़िलें 
न होते जो रास्ते ।

रास्तों को पहचान लो 
उनका दर्द
कभी तो जान लो । 
 

 

नवंबर 14, 2012

POST : 232 हमारा अपना ताज ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

     हमारा अपना ताज ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

मुमताज क्या चाहती थी
किसे पता उसे क्या मिला
ताज बनने से ।

बनवा दिया
एक राजा ने एक महल
संगेमरमर का
अपनी प्रेमिका की याद में
और कह दिया दुनिया ने
मुहब्बत की निशानी उसे ।

तुम नहीं बनवा सकोगे
ताजमहल कोई 
मेरी याद में मेरे बाद
मगर जानती हूं मैं ।

तुम चाहते हो बनाना 
एक छोटा सा घर
मेरे लिये 
जिसमें रह सकें
हम दोनों प्यार से ।

अपना बसेरा बनाने के लिये 
हमारी पसंद का कहीं पर
हर वर्ष बचाते हो थोड़े थोड़े पैसे 
अपनी सीमित आमदनी में से ।

किसी ताज महल से
कम खूबसूरत नहीं होगा 
हमारा प्यारा सा वो घर ।

मुमताज से कम
खुशकिस्मत नहीं हूं मैं 
प्यार तुम्हारा कम नहीं है
किसी शाहंशाह से । 
 
 Small houses and secret gardens | You Won't Believe What's Behind This  Small House

नवंबर 13, 2012

POST : 231 मृगतृष्णा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    मृगतृष्णा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

हम चले जाते हैं उनके पास 
निराशा और परेशानी में 
सोचकर कि वे कर सकते हैं
जो हो नहीं पाता है 
कभी भी हमसे ।
 
वे जानते हैं वो सब 
नहीं जो भी हमें मालूम
तब वे बताते हैं हमें
कुछ दिन  महीने वर्ष
रख लो थोड़ा सा धैर्य 
सब अच्छा है उसके बाद ।

हमें मिल जाती है
झूठी सी आशा इक
इक तसल्ली सी 
सोचकर कि आने वाले हैं
दिन अच्छे हमारे ।

कट जाती है उम्र इसी तरह 
झेलते दुःख  परेशानियां 
और जी लेते हैं हम
आने वाले अच्छे दिनों की
झूठी उम्मीद के सहारे ।

टूटने लगता है जब धैर्य 
डगमगाने लगता है विश्वास 
फिर चले जाते हैं 
हम बार बार उन्हीं के पास ।

ले आते हैं वही झूठा दिलासा 
और नहीं कुछ भी उनके पास
उनका यही तो है कारोबार 
झूठी उम्मीदों
दिलासों का ।

शायद होती है
इस की ज़रूरत हमें
जीने के लिये जब
निराशा भरे जीवन में
नहीं नज़र आती
कोई भी आशा की किरण 
जो जगा सके ज़रा सी आशा
झूठी ही सही ।

सच साबित होती नहीं बेशक 
उनकी भविष्यवाणियां कभी भी 
तब भी चाहते हैं
बनाए रखें उन पर ।

अपना विश्वास 
ऐसा है ज़रूरी उनके लिए भी
शायद उससे अधिक हमारे लिये
जीने की आशा के लिए । 
 
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नवंबर 12, 2012

POST : 230 विवशता ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

        विवशता ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

खाली है मेरा भी दामन
तुम्हारे आंचल की तरह
कुछ भी नहीं पास मेरे
तुम्हें देने को ।

तुम्हारी तरह है मुझे भी
तलाश एक हमदर्द की
मेरे मन में भी है बाकी
कोई अधूरी प्यास ।

ढूंढती हैं
तुम्हारी नज़रें जो मुझ में 
कहने को लरजते हैं
तुम्हारे होंट बार बार
समझता हूँ लेकिन 
समझना नहीं चाहता मैं
प्यार भरी नज़रों की
तुम्हारी उस भाषा को ।

छुप सकती नहीं
मन की कोमल भावनाएं 
जानते हैं हम दोनों ।

मत आना मेरे करीब तुम 
भरे हुए हैं
अनगिनत कांटे
दामन में मेरे
हैं नाज़ुक उंगलियां तुम्हारी 
कहीं चुभ न जाए
शूल कोई उनको ।

किसी को देने को कोई फूल 
लाल पीला या गुलाबी 
नहीं पास मेरे ।

कभी नहीं मिल पाएंगे 
हम तोड़ कर
दुनिया के सारे बंधनों को ।

बस आंखों ही आंखों में 
करते रहें बात हम
ख़ामोशी से यूं ही करें 
हर दिन मुलाक़ात हम । 
 
 हाथ की | सुविचार शायरी | Motivational Shayari

POST : 229 नहीं आफ़ताब चांद तारे नहीं हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

नहीं आफ़ताब चांद तारे नहीं हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

नहीं आफ़ताब चांद तारे नहीं हैं
कहीं ढूंढते मगर सहारे नहीं हैं ।

रुकेगा नहीं कभी सफीना हमारा
हमें मिल सके अभी किनारे नहीं हैं ।

हमारी नहीं उन्हें ज़रूरत ही कोई
हां हम वालदैन के दुलारे नहीं हैं ।

छुपाना नहीं कभी उसे सब बताना
तुम्हारे हुए मगर तुम्हारे नहीं हैं ।

वही आसमां भी है ,वही है ज़मीं भी
चमकते हुए वही सितारे नहीं हैं ।

न हाथों में तीर है ,न शमशीर कोई
लड़ेंगे मगर अभी तो हारे नहीं हैं ।

उन्हें दोस्तों ने मार डाला है "तनहा"
रकीबों की चाल के वो मारे नहीं हैं । 
 

 

POST : 228 इसी जहां में सभी का जहान होता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       इसी जहां में सभी का जहान होता है ( ग़ज़ल ) 

                        डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इसी जहां में सभी का जहान होता है
नई ज़मीन नया आसमान होता है ।

वही ज़माना फिर आ गया कहीं वापस
कभी कभी तो हमें यूं गुमान होता है ।

लिखा हुआ तो बहुत है किताब में लेकिन
अमल जो कर के दिखाए महान होता है ।

वहीं मसल के किसी ने हैं फेंक दी कलियां
जहां सजा के रखा फूलदान होता है ।

जो दर्द लेकर खुशियां सभी को देता हो
वो आदमी खुद गीता कुरान होता है ।

चलो तुम्हें हम घर गांव में दिखा देंगे
यहां शहर में तो केवल मकान होता है ।

नया परिंदा आकाश में लगा उड़ने
ये देखता "तनहा" खुद उड़ान होता है ।
 

 

नवंबर 11, 2012

POST : 227 काश ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      काश ( कविता ) डॉ  लोक सेतिया 

चले जाते हैं हम लोग
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे गिरजाघर ।

करते हैं पूजा अर्चना 
सुन लेते हैं बातें धर्मों  की
झुका कर अपना सर ।

और मान लेते हैं
कि खुश  हो गया है ईश्वर
हमारे स्तुतिगान से ।

मगर कभी जब कहीं
कोई देता है दिखाई हमें 
दुःख में निराशा में
घबरा कर आंसू बहाता हुआ ।

तब हम चुरा लेते हैं नज़रें
और गुज़र जाते हैं
कुछ दूर हटकर ।

हमारी आस्था हमारा धर्म
जगा नहीं पाता हमारे मन में
मानवता के दर्द के एहसास को ।

काश
कह पाता  ईश्वर तब हमें
व्यर्थ है हमारा उसके दर पे आना ।  
 
 अजब गजब: एक ऐसा गांव जिसमें नहीं है एक भी मंदिर - Front Line News

POST : 226 ख़त्म बीज करने फसल आ रही है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ख़त्म बीज करने फसल आ रही है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

ख़त्म बीज करने फसल आ रही है
न जाने ये कैसी नसल आ रही है ।

नहीं ज़िंदगी की शिकायत करेंगे
हमें जब बुलाने अज़ल आ रही है ।

किसी की अमानत उसी को है देनी
न जाये कहीं दिल फिसल आ रही है ।

उसे याद अब तक है मिलने का वादा
वो वादा निभाने को कल आ रही है ।

सभी ख़्वाब देखें , हक़ीकत न देखें
सियासत बताने ये हल आ रही है ।

बहारों को लाने खिज़ा खुद गई है
रुको तुम अभी एक पल आ रही है ।

सुनी और "तनहा" बहुत आज रोये
बिना काफ़िये की ग़ज़ल आ रही है । 
 

 

नवंबर 10, 2012

POST : 225 कहानी ज़ख़्मों की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

    कहानी ज़ख़्मों की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

बार बार लिखता रहा
हर बार मिटाता रहा
कहानी अपने जीवन की ।

अच्छा है यही
रह जाये अनकही
सदा कहानी मेरे जीवन की ।

हो न जाये कोई उदास 
सुनकर मेरी कहानी
जीवन में सभी को होती है
किसी न किसी से कोई आस ।

सुनकर मेरी दास्तां 
टूट न जाये
कहीं किसी की कोई उम्मीद ।

कैसे खड़ा करूँ कटघरे में
सभी अपनों को बेगानों को
कैसे कह दूं  मिल सका नहीं
कोई भी इस पूरी दुनिया में मुझे ।

कैसे कर लूँ मैं स्वीकार 
कैसे जीते जी मान लूँ 
अपनी तलाश की
मैं अभी भी हार ।
 
सुनाऊँ अपनी कहानी
मिल जाये  अगर कहीं अपना कोई
आंसुओं से भिगो दूँ उसका दामन
रोये  वो भी साथ मेरे देर तक ।

हो जाये मेरे हर दुःख दर्द 
और अकेलेपन का अंत ।
 
मगर लिखी जाती नहीं 
उस फूल की कहानी
जिसको मसल डाला
खुद माली ने ।

कहानी उस पत्थर की
लगाते रहे जिसको
ठोकर सभी लोग ।

नहीं लिखी जाती
उन सपनों की कहानी
बिखरते रहे हर सुबह जो
उन रातों की कहानी
जिनमें हुई न कभी चांदनी ।

उन सुबहों की क्या लिखूं कहानी ,
मिटा पाया न जिनका सूरज
मेरे जीवन से अँधेरा ।

काँटों के दर्द भरे शब्दों से
मुझे नहीं लिखनी है
किसी किताब के पन्ने पर
अपने ज़ख्मों की कहानी । 
 

 

नवंबर 09, 2012

POST : 224 सुगंध प्यार की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

सुगंध प्यार की ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

सुनी हैं हीर रांझा
कैस लैला की
सबने कहानियां
मैंने देखा है
दो प्यार करने वालों को
खुद अपनी नज़रों से
कई बार अपने घर के सामने ।

मज़दूरी करना
है उनका काम
पति पत्नी हैं वो दोनों
रहमान और अनीता
हैं दोनों के नाम ।

पूछो मत 
क्या है उनका धर्म
देना मत
उनके प्यार को
ऐसा इल्ज़ाम ।

रहमान को देखा
मज़दूरी करते हुए ऐसे
इबादत हो
काम करना जैसे
नहीं सुनी उनसे
प्यार की बातें कभी
करते हैं जैसे
सब लोग अक्सर कभी ।

देखा है मैंने
प्यार भरी नज़रों से
निहारते
अनीता को
अक्सर रहमान को 
सुना है रहमान को
उसका नाम
पल पल पुकारते ।

निभाती है
सुबह से शाम तक
उसका साथ
न हो चाहे
हाथों में उसका हाथ
अपने पल्लू से
पोंछती रहती
उसका पसीना
कितना मधुर सा
लगता है
प्यार भरा एहसास ।

कभी कुछ पिलाना
कभी कुछ खिलाना
कभी लेकर उससे कुदाल
खुद चलाना ।

कभी गीत प्यार वाले
भी गाते नहीं
मुहब्बत है तुमसे
जताते नहीं
नहीं रूठते हैं
मनाते नहीं ।
 
उम्र भर साथ निभाना है
नहीं कहता
इक दूजे को कोई भी
जानते हैं दोनों
बताते नहीं । 
 

 

POST : 223 उस पार जाना ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

         उस पार जाना ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

ले चल मुझे उस पार 
मेरे माझी
पूछा नहीं कभी भी मैंने
है कहां मेरे सपनों का जहां ।

तलाश करने अपनी दुनिया
जाना है उस पार मुझे
मैं  नहीं डरता भंवर से
तूफ़ान से ।

दिया नहीं कभी
किसी ने मेरा साथ 
मगर तुम माझी हो मेरे
लगा दो पार नैया मेरी
या डुबो दो भंवर में ।

तोड़ो मत मेरा दिल
ये कह कर
कि उस पार कुछ नहीं है ।

कह दो मेरे माझी
झूठा है ये  बहाना
मुझे अब भी
है उस पार जाना । 
 

   

नवंबर 08, 2012

POST : 222 झूठा है दर्पण ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

       झूठा है दर्पण ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

किया सम्मानित
सरकार ने
साहित्यकार को
और दे दी गई
इक स्वर्ण जड़ित
कलम भी
सम्मान राशि के साथ ।

रुक जाता
लिखते लिखते
उनका हाथ
जब भी चाहते लिखना वो
जनता के दुःख दर्द की
कोई बात ।

शायद इसलिये 
या फिर अनजाने में ही
मुझे भेज दी
उन्होंने वही कलम
शुभकामना के साथ ।

देखा भीतर से
जब कलम को
लगे कांपने मेरे भी हाथ
आया नज़र
स्याही की जगह लहू
डरा गई मुझको ये बात ।

ऐसी ही कलमें
आजकल लिख रहीं हैं 
नित नया नया इतिहास ।

गरीबों के खून के छींटे 
आ रहे नज़र उनके दामन पर
जो करते तो हैं देशसेवा की बातें 
कर रहे हर दिन
जनता का धन बर्बाद ।

आयोजित करते
आडम्बरों के समारोह 
प्रतिदिन शान दिखाने
दिल बहलाने को
नहीं कर पाते वो लोग कभी
गरीबों के दुःख दर्द का
कोई एहसास ।
 
करते जिन की हैं बातें
उन भूखे नंगों का
कर रहे ये कैसा उपहास ।

कौन दिखाये दर्पण उनको
कौन लगाये उन पर कोई आरोप
जब शामिल हैं इनमें
समाज को आईना दिखाने वाले ।

अपनी सूरत
देखें कैसे दर्पण में
और कैसे सब को दिखायें
सरकारी सम्मानों का
क्या है सच
वो हमें कैसे खुद बतायें ।   
 
 
 कथेतर साहित्य