जुलाई 31, 2018

POST : 858 आकाश पर भारत क्लब ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

     आकाश पर भारत क्लब ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

                   आपको पता ही है हम भारतवासी देश में इक दूसरे को नहीं जानते समझते और लड़ते झगड़ते रहते हैं।  मगर जैसे ही भारतवासी किसी और देश की धरती पर जाते हैं भारतीयता जाग उठती है और हम कोई संगठन संस्था अथवा मनोरंजन को क्लब बना लेते हैं। विदेश में हमारी बात हम ही समझते हैं , चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई है सुनकर आंखे भर आती हैं दो पल को मगर देश वापस आने की भूल नहीं करते। देशवासियों के लिए हमारा प्यार विदेशी धरती पर ही पनपता है , अपने देश की आबोहवा देश में मुहब्बत पनपने के अनुकूल नहीं है। राजनेताओं और धर्म वालों ने नफरतों की आंधियां जो चला रखी हैं। इस भुमिका से आपको समझ आ गया होगा देश से बाहर हम भारतवासी एक हो जाते हैं मिल बैठते हैं। सब विरोध नफरत की बातें भुलाकर साथ साथ नाचते गाते झूमते हैं।
 
                                    बिल्कुल यही बात है , भारत से ऊपर जाकर सभी महान आत्माएं एक साथ हैं। आज उनकी सभा में चलते हैं और देखते हैं कौन क्या क्या बात करता है। गांधी जी गोड़से को प्यार से कहते हैं भूल जाओ उस घटना को। मैंने माफ़ ही नहीं किया बल्कि याद तक नहीं जो हुआ। कितनी बार हमने चर्चा की है कोई मतभेद है ही नहीं बीच में। नेहरू जी पटेल जी से कह रहे हैं आपको उनकी बात पर गौर नहीं करना चाहिए , उन्हें नहीं मालूम हम कभी अलग नहीं थे। विरोधी होने का मतलब ही नहीं हम तो एक दूसरे के पूरक थे इक दूजे बिन अधूरे थे। सत्ता की चाहत कब थी हम लोगों में किसी को भी , इक कांटों का ताज था हमारे सरों पर कर्तव्य और ज़िम्मेदारियों का। बड़ा छोटा कोई किसी को नहीं मानता था। भक्त सिंह जी आकर खड़े सुन रहे थे सब बातें। बोले हम सब जो चाहते थे उसकी बात कोई नहीं करता है और हमारे नाम पर दुश्मनी की आग फैला कर दलगत स्वार्थों की गंदी राजनीति करते हैं बेशर्म लोग। मुझे दुःख होता है जब एक दो दिन मेरी मूर्ति पर लोग फूल अर्पित करते हैं मगर मेरे देश प्यार को समझते ही नहीं और मेरी सोच मेरा चिंतन कोई मायने नहीं रखता। मुझे तो अपना अपमान लगता है साल भर कोई याद नहीं रखता बस दो दिन मेरी आपकी सबकी बात करते हैं वो भी सच नहीं आधा सच आधा झूठ मिलाकर अपने मकसद को हासिल करने के लिए। देश के सभी आदर्श लोगों को इन्होंने बाज़ार का सामान बना दिया है जिसे उपयोग कर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ना चाहते हैं। 
 
                      ये सब पुरानी सभी बातों को छोड़ चुके हैं भूल गये हैं और एक साथ मुहब्बत से रहते हैं मिलते हैं विचार विमर्श करते हैं। मगर हम देशवासी स्वार्थी लोगों के बहकावे में आकर उनके नाम पर बांटने बंटने की बात करते हैं। उनकी आत्माएं बेहद अफ़सोस करती हैं हमारी समझ और सोच पर और इसको देश भक्ति तो हर्गिज़ नहीं मानते हैं। आप जानते हैं वो सभी क्या चाहते हैं। उन सभी को अपने बुत और शिलालेख अच्छे नहीं लगते है क्योंकि इनका उपयोग उनकी विचारधारा के विपरीत देश को गलत राह पर ले जाने को ही किया जाता है इनकी तरह बनना कोई नहीं चाहता है। काश उनके पास कोई स्मार्ट फोन होता और वो सभी संदेश भेज कर आपको आगाह करते इन सब बातों से ऊपर उठने को।  कोई नेता चुनावी लाभ के लिए सबको मुफ्त फोन किसी कंपनी के बंटवाने की बात कर रहा है जिसका चुनाव होने तक कोई बिल भी नहीं आएगा। कोई किसी तरह ऐसी सुविधा आकाश पर भारत क्लब के सदस्यों को उपलब्ध करवा दे तो कितना अच्छा हो। कुछ भी हो सकता है कोई अनुपम खेर का शो दावा किया करता था।

जुलाई 30, 2018

POST : 857 आत्मनिर्भर और आज़ाद बने देश ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

   आत्मनिर्भर और आज़ाद बने देश ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

    किस बात का गर्व है , अंतरिक्ष में चांद पर पहुंचने और अणु बंब बनाने पर। अपनी सुरक्षा को लड़ाकू विमान और साज़ो-सामान खुद नहीं बनाते विदेश से मंगवाते हैं उनकी शर्तों पर। अपना सामान उनकी शर्तों पर बेचना उनका उनकी शर्तों पर खरीदना , विदेशी निवेश उनके आर्थिक फायदे को ध्यान में रखकर स्वीकार करना। शीतल पेय और तमाम सामान्य उपयोग की चीज़ें विदेश से खरीदना आर्थिक गुलामी का ही दूसरा नाम है। किस स्मार्ट शहरों की बात करते हैं जो देखने में सुंदर भी हों भी अगर तो इंसानियत से खाली हों। क्या ये देश सभी का नहीं है , किसी महानगर में सब कुछ तो किसी गांव या छोटे शहर में सामन्य शिक्षा स्वास्थ्य सेवा तो क्या साफ पीने का पानी भी नहीं है। आज भी कितने लोग इसी से बिमार होते हैं , मगर हमारे तथाकथित महान लोग आर ओ बेचने को देश सेवा मानते हैं। इतनी ही चिंता थी तो जो पैसा सांसद बनकर मिलता था उसे किसी गांव में साफ पानी उपलब्ध कराने पर ही खर्च कर देते। आपसे ये भी नहीं हुआ कि जिन गांवों को गोद लिया उन्हीं को जाकर देख लेते। राज्य सभा की सदस्यता को तमगा समझने वाले देश को क्या दे सकते हैं। फोर लेन सिक्स लेन सड़कों से अधिक ज़रूरी है देश के हर गांव तक बुनियादी सुविधाओं को पहुंचाना। मगर ये किसी को ज़रूरी लगता ही नहीं। आपके शहर में सरकारी अस्पताल में जो जो उपकरण हैं सब विदेशी हैं और जब उनमें खराबी आती है तो उसको ठीक करवाने को बाहर से लोग आते हैं या जो पुर्ज़ा खराब हो बाहर से मंगाया जाता है। अंतरिक्ष में परशेपण करते हैं मगर एम आर आई , इको , सी टी स्कैन मशीन देश में नहीं बना सकते। हर दिन देश के पास डॉलर कम अधिक होने की चिंता और अपनी कीमत घटने का डर ये कैसा कारोबार है। भारत देश के पास अपने इतने संसाधन हैं कि उनका सही उपयोग किया जाये तो कोई कमी नहीं रहेगी। मगर हमारी मानसिकता विदेश को खुद से बेहतर समझने की और देश को लेकर हीनभावना की।

बहुत देश हैं जो अपने नियम अपने देश की भलाई को सामने रखकर बनाते हैं। हम कब तक उन आदर्शों की बात करते रहेंगे जो देश हित के लिए सही नहीं है। कुछ थोड़ी सी बातें हैं जो कुछ लोगों को पसंद नहीं आएं मगर लागू करनी चाहिएं देश को सामने रखकर।

                          देश से शिक्षा पाकर विदेश में पैसा कमाने वालों को और अधिक लाभ देने की जगह उनसे उनकी आमदनी का कुछ हिस्सा समाज कल्याण पर खर्च करवाना चाहिए। जो बाहर जाकर बस जाते हैं अच्छा जीवन जीने को उनकी देशभक्ति तभी वास्तविक है अगर उनकी करोड़ों की आमदनी से कुछ वो देश के लोगों की बुनियादी ज़रूरतों पर खर्च किया करें कर्तव्य समझ कर उपकार मान कर नहीं। हम इतने स्वार्थी बन गए हैं कि खुद अपने देश समाज को कुछ देना चाहते नहीं , हमें विवश करना होगा नियम बनाकर कि देश में रहते भी और विदेश में जाकर भी इक सीमा से अधिक आमदनी होने पर खुद अपने ऐशो-आराम पर पैसा बर्बाद करने की जगह औरों के जीवन को सुधारने पर खर्च करना होगा। ये खेद की बात है कि हमारे देश के अर्थशास्त्री तक देश की भलाई नहीं विदेशी लोगों की भलाई की बात करते हैं। रहना पाना भारत से सब कुछ और नीतियां आई एम एफ या विश्व बैंक की लागू करना। स्वदेशी की रट लगाने से देश और जनता की भलाई नहीं होने वाली , स्वदेशी की अवधारणा को समझना और उसका पालन करना ज़रूरी है।

                  ( बहुत बातें बाकी हैं , बाद में इसी पोस्ट पर विस्तार से लिखनी हैं ) 
 

 

जुलाई 29, 2018

POST : 856 अब बाबाजी फैशन बाज़ार में ( टेड़ी बात ) डॉ लोक सेतिया

    अब बाबाजी फैशन बाज़ार में ( टेड़ी बात ) डॉ लोक सेतिया 

   बाबाजी की दुकान में सब कुछ बिकता है फिर भी अभी बाबाजी को समझ नहीं आता बाकी दुकानदार क्यों हैं बाज़ार में। लालची लोगों ने हर माल में मिलावट कर दी है , बाबाजी की दुकान पर जो भी माल बिकता है  बस वही शुद्ध सस्ता और असली है। हर दिन बाबाजी परेशान होते हैं अभी कितना कुछ है जो उनकी दुकान में नहीं बिकता है और लोगों को किसी और की दुकान पर जाना पड़ता है। खाने पीने से साबुन शैम्पू शहद से आटा दाल तक यहां तक कि फर्श साफ करने का देसी फार्मूला वाला पदार्थ भी उनका अपना है जो मालूम नहीं कौन किस जगह किस तरह बनाता है। बाबाजी की मोहर लगते शुद्धता की गारंटी समझी जाती है। आज कोई नया कारोबारी आया है जो चाहता है कि बाबाजी के नाम से नया फैशन चलाया जाये। बाबाजी को पहली बार लगा ये कोई मज़ाक है क्योंकि खुद बाबाजी जो पहनते हैं वो कभी कभी लगता है नाम को ही पहना हुआ है एक वस्त्र। नहीं बाबाजी हमारा मतलब सबको भगवा रंग पहनाने का नहीं है , हम तो सवदेशी पहनने को प्रकृतिक ढंग से बनाये परिधान बाज़ार में लाना चाहते हैं जो आपके नाम से आपके खुद विज्ञापन में नेचुरल घोषित होंगे और जिनको पहन कर लोग सभी तरह के रोगों से बच सकेंगे ये भी आप ही बताया करेंगे। आपके नाम से बने परिधान रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ा कर सब को तंदरुस्त करेंगे। आपने तीस साल की रिसर्च के बाद उनको बनाया है सब को बताया करेंगे। बाबाजी आप जो भी कहोगे लोग मान लेंगे। काला धन आपने ही तो सफ़ेद किया या करवाया है सरकार द्वारा। आपको विज्ञापन में हरे हरे पेड़ के पत्तों से तन ढक कर दिखाना होगा कि इनसे ही बनाकर आप पहनने को सूट साड़ी कमीज़ सलवार और जींस तक बना लिया है। आपके नाम से डिज़ाइन पेटंट करवा सकते हैं। बाबजी को मालूम हुआ आज कि कितना बड़ा कारोबार यही अकेला है , अगर सारा देश उनके बनाये परिधान खरीद कर पहनेगा तो अंबानी टाटा बिरला सब उनके सामने पानी भरते दिखाई देंगे। मगर इक सवाल ने परेशानी खड़ी कर दी है कि सरकारी सहायता से जितने भी लोग नंगे बदन रहते हैं उनको मुफ्त पहनने को वस्त्र मिल सकेंगे। नहीं फिर तो देश की असली पहचान ही मिट जाएगी। बाबाजी जानते हैं सरकार देश की सदियों पुरानी पहचान फिर से कायम करने को कितनी बेचैन है उसको ये सुझाव पसंद कैसे आएगा। सरकार को राज़ी किया जा सकता है कि किसी को भी सूती रेशमी या किसी भी आधुनिक ढंग से बने परिधान को पहनने पर रोक लगाई जाये क्योंकि हमारे पूर्वज केवल पेड़ों के पत्तों से तन ढकते थे।  ये सौदा भी गोपनीयता की शर्त के साथ किया जायेगा ताकि कोई कीमत पर सवाल नहीं पूछ सके।

POST : 855 क्या लिखना क्यों लिखना किसलिए लिखना ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

      क्या लिखना क्यों लिखना किसलिए लिखना ( आलेख ) 

                                डॉ लोक सेतिया 

        सब लिखने वाले लिख रहे हैं सब को पता है क्यों लिखते हैं।  मुझे कभी कभी समझ नहीं आता मैं क्यों लिखता हूं। कोई मकसद हासिल नहीं करना , कोई खुशफहमी नहीं है साहित्यकार होने की तो क्या अच्छा लेखक होने की भी। कम ही पढ़ा है मगर जिनको भी पढ़ा है , दुष्यंत कुमार परसाई श्रीलाल शुक्ल प्रेम चंद नीरज जाँनिसार अख्तर थोड़ा थोड़ा  शरद जोशी बशीर बद्र ग़ालिब दाग़ ज़फ़र जैसे उच्च कोटि के लिखने वालों को।  साहिर लुधियानवी और पिछले पचास सालों के फ़िल्मी गीतकारों के गीत ग़ज़ल सुनता रहा हूं। इन सभी से सीखने की कोशिश की है मगर मेरे पास उन जैसे लोगों की समझ और शब्दावली तो नहीं है उनकी कल्पनाशीलता भी नहीं संभव मुझमें। मुझे अच्छी तरह मालूम है मेरा लेखन कोई उच्च कोटि का नहीं हो सकता है। किताब छपवाना नाम शोहरत या इनाम आदि भी मेरा मकसद नहीं है। हां अभी तक कुछ साल पहले तक ये चाहत अवश्य रहती थी कि ज़्यादा लोग मुझे पढ़ें और समझें भी। इसलिए अपने लेखन को कई तरह से पाठकों तक पहुंचाने का काम करता आया हूं। मगर मेरा लिखना इस के लिए नहीं रहा है। वास्तव में मुझे लिखना उसी तरह ज़रूरी लगता है जैसे सांस लेना जीने के लिए। मैं भी अगर लिखता नहीं तो ज़िंदा नहीं रहता या फिर यूं कह सकता हूं कि लिखना बंद करना मेरी मौत होगा। और कुछ भी नहीं मेरे पास करने को लिखने को छोड़कर।

              बहुत लोग लिखते हैं किसी एक विधा में अधिकार पूर्वक। मैंने ग़ज़ल नज़्म कविता व्यंग्य कहानी लघुकथा और सामाजिक समस्याओं पर आलेख लिखना और भी कई ढंग अपनाये हैं अपनी मन की बात को उजागर करने को। लिखना खुद अपने साथ संवाद करना है , मेरे पास संवाद करने को कोई रहा नहीं है क्योंकि मैं जहां जहां रहा विचारों के लिए दूर दूर तक इक रेगिस्तान फैला हुआ मिला। बस चमकती हुई रेत जो पानी जैसी दिखाई देती तो है मगर प्यास नहीं बुझा सकती। तभी कई बार लिखना पड़ा है कि जब भी कोई मुझे पढ़ना तो मेरी तुलना किसी बड़े ऊंचे पेड़ से नहीं करना जो फलदार है और छायादार भी। मैं तो पौधा हूं जो किसी रेगिस्तान में अनचाहे उग आया और जिसे आंधियों तूफानों ने उजाड़ा हर आने जाने वाले के पैरों ने कुचला रौंदा , मगर फिर भी जाने कैसे बार बार उगता रहा। जिनको माली ने सींचा रखवाली की खाद पानी दिया और हर तरह से सुरक्षित रखने का जतन किया उनकी ऊंचाई और मेरा बौनापन हालात के अंतर से हैं।

                जब भी कुछ भी मन को विचलित करता है तब लिखना मेरी मज़बूरी बन जाती है। अब कोई फर्क नहीं पड़ता लोग पढ़ते हैं या नहीं , कभी पढ़ा करते थे लोग सभी को। आजकल हर कोई सोशल मीडिया पर व्यस्त है इक पागलपन में उलझा हुआ मनोरंजन के नाम पर इक ऐसी राह पर जाता हुआ जो राह किसी मंज़िल को नहीं जाती है। ये बाहर निकलना नहीं है खुद को अपने भीतर बंद करना है। खुद को भी जैसा है वैसा नहीं देखना बल्कि जो नहीं है वो समझना चाहते हैं। शिक्षा ज्ञान की नहीं अज्ञानता को बढ़ावा देने का काम करने लगे हैं। सार्थक लेखन सिमट कर रह गया है केवल इक दायरे में पठन पाठन होता है। मैं हर दिन लिखता हूं ताकि अपने ज़िंदा होने का पता खुद को चलता रहे। जिस दिन गहरी नींद आएगी सोते सोते ही दुनिया से विदा हो जाऊंगा। अभी जाग रहा हूं और जागते रहो की आवाज़ लगा रहा हूं , ये भी जनता हूं कि जागते रहो की आवाज़ किसी पुराने ज़माने में लगाई जाती थी और कोई भी जागते रहो की आवाज़ सुनकर जगता नहीं था। 
 

 

POST : 854 जीवन के दोराहे पे खड़े सोचते हैं हम ( टीवी शो की बात ) भाग - 7 डॉ लोक सेतिया

जीवन के दोराहे पे खड़े सोचते हैं हम ( टीवी शो की बात ) भाग - 7 

                                     डॉ लोक सेतिया 

     पिछले दो दिन की दोनों कहानियों की बात से पहले कुछ और बात कहने की अनुमति चाहता हूं।  हमारे देश का आदर्श वाक्य है " सत्यमेव जयते " मगर हम अपने ही देश के बारे सच कहने को नापसंद करते हैं। सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा , कहते हैं गीत गाते भी दिल से हैं मगर जब भी कोई किसी बाहरी देश से होकर आता है तो अधिकतर यही बताता है कि रहने को वही जगह है। मगर वहां रहते तो समझ पाते कि जिस तरह इस देश में मनमर्ज़ी करते हैं शायद ही किसी और देश में कर सकते। मगर बात सच बोलने की है , कल की कहानी में जो बात सबसे महत्वपूर्ण थी वो यही कि सब अपने धर्म अपने परिवार अपने समाज की अच्छाई बढ़ा चढ़ा कर बताते हैं लेकिन उसकी कमियां या गलतियां छिपाते हैं। अमेरिका के बारे कहा जाता था उनको अपनी बखिया खुद उधेड़ना आता है। कल किसी सत्ताधारी दल के नेता का भरी सभा में बयान था कि जो बुद्धीजीवी देश की जनता के मानवाधिकारों की बात करते हैं या सेना पर सवाल उठाते हैं अगर मुझे होम मिनिस्टर बनाते तो उनको गोली से मरवा देता। शायद उनको नहीं पता खुद सेना के लोग भी अपने अधिकारियों और सरकार पर आरोप लगाते हैं , विरोध भी जताते हैं कि एक रैंक एक पेंशन नहीं लागू करते और झूठ बताते हैं। पुलिस वालों की खुद अत्याचार की कानून तोड़ने से लेकर अपराध करवाने की घटनाएं सामने आती हैं आये दिन। किसी बेगुनाह को फंसवाना , किसी को झूठे ढंग की मुठभेड़ में मार देना , और नशा मुक्ति केंद्र में खुद नशा करना और नशा उपलब्ध करवाना , सत्ता के हाथ में कठपुतली बनकर किसी नेता के जूते साफ करना जैसे काम देखे हैं। जब कोई सैनिक सोशल मीडिया पर अपनी कहानी बताता है तो हंगामा हो जाता है। जब कारगिल युद्ध का फौजी अपने बदन में दुश्मन की गोली लिए अपाहिज बनकर जीता है मगर उसे पेट्रोल पंप और ज़मीन देने का वादा नहीं निभाते सत्ताधारी लोग और विवश होकर उसे झूठे बर्तन लोगों के धोने पड़ते हैं अपनी दुकान खोलकर , तब ये नेता कारगिल के शहीदों की केवल बातें कर रहे होते हैं। इन्होंने खुद सभी नेताओं ने देश को दिया क्या है खुद पर देश का धन बर्बाद किया और सिर्फ भाषणों में देशसेवा की है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश भी अगर देश की जनता के सामने न्यायपालिका की वास्तविकता रखते हैं तो सत्ताधारी लोग उसे अनुचित बताते हैं। सच को देखना कठिन होता है और सच बोलने में जोखिम भी होता है। ऐसा सदियों से होता आया है कि सच बोलने वालों को सूली चढ़ाया जाता रहा है।

        इक महिला पत्रकार को अपने और अपने पिता के परिवार के गुरु का स्टिंग ऑपरेशन करने को कहते हैं तो उसे लगता है मेरा भरोसा है जिस पर भगवान होने का भला उसकी जांच कैसे करूं शक कर। मगर असलियत सामने आती है तो सच कड़वा लगता है , मगर उस खुद को ब्रह्मचारी बताने वाले को जब किसी महिला के साथ देखते हैं तो वो बचाव में उस को अपनी पत्नी बताता है और अभी तक नहीं बताने का कारण समाज सेवा करना बताता है। बचकाना बात लगती है शादीशुदा होकर भी समाज सेवा की जा सकती थी। मुझे इक बात कभी समझ नहीं आती है कि माता पिता को जो बच्चे दुनिया के सब से अच्छे लगते हैं बड़े होने पर उन्हीं में हर बुराई दिखाई क्यों देती है। मैंने शायद ही किसी को माता पिता की बुराई करते देखा सुना है , बेहद कम कभी ऐसा होता है। मगर अधिकतर माता पिता खुद अपनी संतान की बुराई औरों से करते मिलते हैं। शायद उनके माता पिता भी ऐसा करते होंगे , होता ये है कि हम अपनी संतान को अपना गुलाम बनाकर रखना चाहते हैं और जब कोई बेटा बेटी अपना जीवन अपने ढंग से जीना चाहे तो लगता है हमारी सत्ता जा रही है। अपने बच्चों का पालन पोषण करें मगर बड़े होने पर उनको आज़ाद पंछी की तरह खुले आकाश में उड़ने से रोक कर अपने स्वार्थ के पिंजरे में बंद मत करें। पिंजरे में कैद पक्षी खुश नहीं रह सकता है।

        इक कहानी में जवान विधवा बहु नौकरी करती है और सास ससुर की देख रेख करती है जो अपने पोते को संभालते हैं और बहु के साथ रहते हैं , बेटी उनको बुलाती है मगर उसके पास नहीं जाते। उस महिला को दफ्तर में कोई विवाह का प्रस्ताव रखता है तो वो सास ससुर को साथ रखने की बात करती है जो विवाह करने वाला पुरुष समझाता है अजीब लगेगा कि पति के घर उसके माता पिता के साथ नहीं पहले पति के माता पिता को साथ रखे। फिर उसकी ननद तो चाहती थी साथ रखना इसलिए वो अपने बच्चे को लेकर इक खत लिखकर चली जाती है विवाह कर के ताकि बच्चे को अच्छा भविष्य मिल सके। बाद में जब वही पहले पति के माता पिता वृद्धआश्रम में मिलते हैं तब पता चलता है खुद उनकी बेटी ने घर से निकाल दिया क्योंकि उसे माता पिता नहीं काम करने को नौकर चाहिए थे। तब सास ससुर स्वार्थी बनकर उस बहु से उसके बच्चे को छीनना चाहते हैं क्योंकि पोते पर उनका अधिकार है। बच्चे का भविष्य नहीं खुद को सहारा चाहिए , विवश होकर बेटा सौंपती भी है मगर जब उस से विवाह करने वाला सवाल करता है कि क्या आपने अपनी बहु को बेटी समझा था। समझते तो खुद उसकी शादी करवाते , तब उनको समझ आता है कौन सही था कौन गलत। आखिर वही बहु और उसका पति उनको अपने घर साथ रखते हैं। अर्थात संतान हो या माता पिता अपनी जगह कोई भी सही या गलत हो भी सकता है और नहीं भी। पूरे समाज को एक ही ढंग से दिखाना अनुचित है कभी कोई भी गलत हो सकता है। हम सभी को आपसी तालमेल कायम करना सीखना चाहिए।

                 तीसरी कहानी भी पिता बेटे को लेकर है। बेटा छोटा है पत्नी की मौत के बाद भी दूसरा विवाह नहीं करता सौतेली मां की बात सोचकर। जबकि कि  कहानी में और जीवन में देखते हैं ऐसी महिलाएं अधिकतर अच्छी होती हैं और बिना कारण बदनाम हैं। मगर हैरानी होती है जब जवान बेटे से इक दिन साठ साल की आयु में पिता अनुमति चाहता है विवाह करने की किसी महिला से प्यार हो गया है। बेटे को ये बात बेहद आपत्तिजनक लगती है और वो जाकर जिस लड़की से शादी कर विदेश जाना चाहता है उसे बताता है। तब वो लड़की समझाती है कि ऐसा होने देना उचित है क्योंकि हम जब विदेश में जाकर रहेंगे तो कोई उनका साथी होगा ख्याल रखने को। हमें चिंता नहीं रहेगी। तब वो पिता से घर आकर कहता है मुझे मिलवाओ जिस से आप विवाह करना चाहते हैं। ये अक्सर कथाकार करते हैं दर्शक या पाठक को अचंभित करने को अचानक कुछ ऐसा सामने लाकर खड़ा करना जिसकी कल्पना नहीं की होती। नाटकीयता कहते हैं जबकि वास्तविक जीवन में उसकी ज़रूरत नहीं होती है। यही इस कहानी में होता है अगली सुबह जब पिता उस महिला को अपने बेटे से मिलवाने घर पर बुलवाता है और महिला आती है साथ अपनी बेटी को लेकर। मगर बेटा और उस महिला की बेटी नहीं जानते थे हमारे ही माता पिता हैं जो इक दूसरे को चाहते हैं और शादी करना चाहते हैं।  यहां समस्या उनके खुद के रिश्ते पर खड़ी हो जाती है मगर वो अपने पिता से अपनी माता से कह भी नहीं सकते अन्यथा ये भी तय था वो उनकी शादी करवाते अपनी नहीं।

                      तब लड़का लड़की मिलते हैं और जो लड़की कल खुद लड़के को राज़ी कर रही थी अपने पिता की शादी को स्वीकार कर लेने को , आज अपनी मां की शादी करने को अनुचित समझती है। उसे अब मेरी शादी की बात सोचनी चाहिए अपनी नहीं। लड़का उसको अगली सुबह मंदिर में आने को कहता है ताकि शादी कर सकें।  कथाकार फिर कहानी में नाटकीयता लेकर आचंभित करता है , जब लड़की मंदिर पहुंचती है तो पता चलता है उसे प्यार करने वाला अपने पिता की शादी उसकी मां से करवा रहा होता है। तब बताता है कि अगर पिता इतने साल तक विवाह नहीं करता बेटे को सौतेली मां नहीं मिले जो शायद प्यार नहीं करे इस विचार से तो बेटा क्यों अब पिता के लिए इस आयु में अच्छी जीवन संगिनी मिलने में अड़चन नहीं बनकर साथ दे सकता है। समस्या कुछ भी नहीं है इक बात समझने की है कि हम सभी जो नहीं मिलता किसी रिश्ते से उसकी शिकायत को मन में रखकर उसे गलत समझने की आदत बदल जितना मिला जिस से उसी से ख़ुशी अनुभव कर सकते हैं। इक गीत कुछ ऐसा ही है।

मन रे तू काहे न धीर धरे , वो निर्मोही मोह न जाने जिसका मोह करे। 

उतना ही उपकार समझ कोई जितना साथ निभा दे , ........ 

जुलाई 27, 2018

POST : 853 पाप नहीं , अपराध है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         पाप नहीं , अपराध है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

   गरीबो खुश हो जाओ। सरकार ने कर दिया है ऐलान कि  जो भी अब तुम्हें अन्न देने से इनकार करेगा वह दंड का भागीदार बनेगा। बस अब तुम भूख से नहीं मर सकते। जब भूख लगे जिससे मर्ज़ी जाकर अनाज मांग लो। जो न दे उसे सरकार का यह विज्ञापन भी दिखा दो , जिस पर प्रधानमंत्री वाजपेयी जी और खाद्य मंत्री दोनों के फोटो लगे हैं। इसमें कहीं भी यह नहीं कहा गया है कि अन्न पैसे देकर मिलेगा या उधार भी मिलेगा। हां कोई इनकार नहीं कर सकता। उम्मीद है भूख से तड़पने वालों ने यह विज्ञापन ज़रूर पढ़ लिया होगा। सरकार ने लाखों रूपये इस विज्ञापन को छपवाने को अख़बार को बेकार तो नहीं दिए। रोटी न मिलती हो तो भी अख़बार तो पढ़ लेना चाहिए , ताकि सरकार क्या क्या कर रही है यह तो पता चलता रहे। 
 
( 27 साल हो गये हैं इस बात को , सूचना के अधिकार को अब कम अहमियत देती है सरकार वर्ना ये जानना चाहिए कि इन सालों में कितने अधिकारी नेता या जमाखोर मुजरिम साबित हुए और सज़ा मिली उनको )
 
     सरकार अनुपयोगी खर्चे कम कर रही है। बजट में घाटा बढ़ता जा रहा है। उसे सीमा में लाना है।  मगर सरकार के विज्ञापन तो बहुत उपयोगी होते हैं।  बस इसी से पता चलता है सरकार कितना बढ़िया काम कर रही है। यह सभी विज्ञापन इतिहास में दर्ज हो जाते हैं तो सबूत बन जाते हैं। सामने भले कुछ भी हुआ नज़र नहीं आता हो और खबरें छपती रहती हों योजनाओं की वास्तविकता उजागर करती हुई। मगर उन खबरों को भुला दिया जाता है जिन में सरकारी गोदामों में अनाज सड़ रहा है और लोग भूख से मर रहे हैं बताया गया होता है। जब तक सर्वोच्च न्यायालय ने फटकार नहीं लगाई सरकार चैन से सो रही थी। अब मज़बूरी में में कुछ करना पड़ा है तो करना कम दिखाना अधिक है। अपना गुणगान करना है अपना ढोल बजवाना है। मीडिया वालों से भाईचारा बढ़ाना है अपने खिलाफ की हर खबर को दबवाना ढकवाना है और अपनी मर्ज़ी की खबर भी बनवाना है। शायद इन इन विज्ञापनों की संख्या से अदालत को तसल्ली हो जाये कि सब कुछ ठीक ठाक है। 
 
              लेकिन जिन के पास सरकारी दुकानों से अनाज खरीदने को पैसे नहीं हों वो क्या करें। कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं , तो कई हैं जिनके राशन कार्ड आधारहीन बता रहे हैं आधार कार्ड से जुड़े नहीं हुए। वो सरकारी गोदामों को लूट नहीं सकते क्योंकि लूटने का हक अमीर लोगो और अधिकारीयों के पास सुरक्षित है। चूहों पर इल्ज़ाम धर कर गोदाम खाली हो जाते हैं। होटल ढाबे वालों को विज्ञापन दिखाने से खाना मिल जाये और बिल सरकार बाद में चुका दे ऐसा करते तो नेताओ अधिकारीयों को फायदा ही होता। जिन बेरोज़गार लोगों के पास काम ही नहीं , पैसे कहां से लाएं सरकारी दुकानों से अनाज खरीदने को। कौन उनको अनाज देगा और कौन नहीं देने पर दंडित करेगा। जिन का कर्तव्य था ज़िम्मेदारी होनी चाहिए उन नेताओं के तो फोटो आदेश देने वाले के रूप में ऊपर छपे हैं। 

            मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिफ है , क्या मेरे हक में फैसला देगा।

विज्ञापन कभी सूचना देने का काम करते थे , अब लोगों को लुभाने और मुर्ख बनाने का काम करते हैं। सरकारी विज्ञापन तो टीवी चैनल और अख़बार वालों की जीवन धारा हैं ये नहीं मिले तो बेमौत मर जाएं बेचारे। तेज़ दौड़ते हैं मगर सरकारी बैसाखियाँ लेकर। कंपनियां हर सामान बेचने का विज्ञापन देती हैं और ऐसे भी विज्ञापन होते हैं जिनको देख हंसी आती है। छोटे बच्चे भी समझने लगे है हमें उल्लू बना रहे हो। झूठ की कोई सीमा नहीं बचती विज्ञापन में। जिनको लोग महानायक भगवान जाने क्या क्या समझते हैं , अमिताभ बच्चन से सचिन तेंदुलकर तक जो खुद नहीं उपयोग किया उसी का दावा करते हैं बढ़िया है। सोना गिरवी रखने से मालिश का तेल परेशानी दूर करने की सलाह देते हैं। सचिन को अगर आर ओ का पानी नहीं मिलता तो जाने क्या होता ये भी डर सबको दिखाते हैं। पिछले कुछ सालों से राजनेता की भी मार्किटिंग होती है , किसी को बताया गया ब्रांड अम्बेड्स्टर है जनाब। बिकना भी शान बन गया है , बेचो खुद को और महान कहलाओ। 
 
         पाप नहीं अपराध है का विज्ञापन देकर समझ लिया समस्या का समाधान हो गया है। इतने साल बाद लोग भूल गए अन्यथा अख़बार को दिल्ली में भूख से बच्चियों की मौत की खबर छापनी ही नहीं थी। अब लड़ाई दिल्ली और देश की सरकार के बीच की हो गई है। मगर सरकारी विज्ञापन काम तो आते ही हैं , दिल्ली सरकार को विज्ञापन देने से पहले राज्यपाल से अनुमति लेनी पड़ती है देश की सरकार को कोई नहीं रोकता टोकता। गरीबी हटाओ के इश्तिहार से कितने लोग अमीर बन गए। स्वच्छ भारत मेक इन इंडिया मेड इन इंडिया खुले में शौच बंद सभी विज्ञापनों पर सच है वास्तविकता में झूठ। गंगा साफ होते होते और मैली हो गई है। हर ऐसे योजना ने भ्र्ष्टाचार के नए नए तरीके इजाद किये हैं और कीर्तिमान स्थापित किये हैं। कुछ गरीबों की गरीबी मिटती ही ऐसे ही गरीबी मिटाओ कार्यकर्म से है। इस देश के रहनुमाओं ने नेताओ अधिकारीयों बाबुओं ने बाढ़ सूखा भूकंप सब की राहत से राहत का अनुभव किया है। मुश्किल यही है कि सरकारी विज्ञापन जिनके लिए होते हैं वही नहीं पढ़ते। उनकी भलाई है इसी में , गरीब झुगी झौपड़ी वाले पढ़ लिख गए तो क्या होगा। सभी विज्ञापन पर यकीन कर , कोई काम नहीं मिलने पर किसी सेठ करोड़ी मल के घर के सामने खड़े होकर उस से पूछेंगे तुम्हारे घर में अनाज है या नहीं है। सेठ जी कहेंगे जितना मर्ज़ी ले लो भाव तीस रूपये किलो का है। वो अख़बार में छपा इश्तिहार दिखला कर कहेंगे पैसे नहीं हैं मगर तुम मना करोगे तो सरकार से शिकायत करेंगे और तुम जेल में होगे। करोड़ी मल उनको सरकारी गोदाम जाने को कहेगा तो वो कहेंगे उस में सड़ा गला हुआ अनाज है जानवर भी नहीं खाते हैं। जब मुफ्त में पाने का अधिकार है तो बढ़िया ही खाएंगे। 
 
                      सामने वाले घर में इक भिखारी आंखें दिखा रहा है , घर की मालकिन ने बताया अभी बनाई नहीं रोटी थोड़ी देर में आना। अपने स्मार्ट फोन पर सरकारी ऐप पर शिकायत की धमकी देकर कहता है रोज़ रोज़ चक्क्र नहीं लगा सकता कल से वक़्त पर बना रखना वरना ...   सरकारी विज्ञापन देखा है न। लोग पहले गरीब को रोटी खिलाते थे पुण्य कमाने के लिए। दरवाज़े से कोई भूखा लौट जाये तो पाप समझा जाता था। मगर अब कनून के अनुसार अपराध है। कल मेरा जन्म दिन है याद रखना कुछ मीठा भी बनाना और केक तो ज़रूरी है ही।

POST : 852 भूख है तो सब्र कर ( शासक कह रहा ) डॉ लोक सेतिया

   भूख है तो सब्र कर ( शासक  कह रहा ) डॉ लोक सेतिया 

फिर दुष्यंत कुमार की बात।  भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ , आजकल संसद में ज़ेरे बहस है मुद्दआ। यही होता है रोटी से खेलना , कौन लोग हैं जो देश से हर दिन इतना खाते हैं जिससे लाखों लोगों का पेट भर सकता है । मुझे अपशब्द उपयोग करना पसंद नहीं है मगर जब उनको लाज नहीं आती खुद पर करोड़ों रूपये बर्बाद करते तो देवता नहीं कह सकता । बार बार गंगभाट और रहीम का वार्तालाप याद आता है दो दोहों में सवाल जवाब है । ज़रा पढ़ कर समझना । 
 
गंगभाट :-
 
सिखियो कहां नवाब जू ऐसी देनी दैन , ज्यौं ज्यौं कर ऊंचे करों त्यों त्यों नीचे नैन । 
 
( अर्थात , रहीम जो इक रियासत के नवाब थे हर सहायता मांगने वाले की सहायता किया करते थे , मगर गंगभाट जो इक कवि थे उन्होंने देखा दान देते समय रहीम अपनी नज़रें झुका लिया करते हैं , आंख मिलाकर सहायता नहीं देते मांगने वाले को। पूछा ये क्या ढंग हुआ भला बताओ तो सही । 
 
रहीम :-
 
देनहार कोऊ और है देत रहत दिन रैन , लोग भरम मोपे करें याते नीचे नैन। 
 
( अर्थात , देने वाला तो कोई और है ऊपर वाला देता रहता है दिन रात मुझे , मैं तो माध्यम हूं उसकी दात को आगे देने को , लोग सोचते हैं रहीम देता है यही सोचकर शर्म से मेरी नज़रें झुकी रहती हैं )
 
वो अपनी रियासत के मालिक थे , हमारे नेता तो किरायेदार हैं और रखवाली करने को बनाये गए हैं , फिर भी बेशर्मी से दावे करते हैं मैंने ये दिया वो दिया है । पत्थर पर अपना नाम लिखवाते हैं , बताओ क्या अपनी कमाई से इक धेला भी दिया है । हर दिन खुद पर रहने आने जाने ऐशो आराम पर करोड़ों खर्च करना गुनाह है अपराध है पाप है अगर आप किसी भी धर्म को मानते हैं । धर्म दंगे करना नहीं सिखाता कोई भी , हर धर्म भलाई करने और सहायता करने को कहता है । 

देवता कौन होते हैं , माना जाता है हमारे देश में करोड़ों देवी देवता थे । अर्थात जो लोग यहां रहते थे औरों को देते थे इसलिए देवता थे । 

राक्षस कौन होते हैं , जो सब से छीन कर सभी तहस नहस करते थे और उनकी भूख तब भी नहीं मिटती थी वो राक्षसी स्वभाव था । 

राजनेता कोई मसीहा नहीं होते हैं , इनको सत्ता खुद शासन करने को चाहिए देश सेवा और जनता की सेवा बिना किसी पद पर आसीन हुए करते रहे हैं लोकनायक और बापू कहलाये जो । 

आपके इश्तिहार को देखें या असलियत को :-

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार , घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार । 

इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं , आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार । 

ये दिल्ली की बेरहमी की बात नहीं जो कल की खबर है और जिस पर संसद में पक्ष विपक्ष भिड़े हैं । देश की आधी आबादी की हालत यही है मगर आप को बुलेट ट्रैन की ज़रूरत है । अपने लिए हर जगह भवन की ज़रूरत है । कल पाकिस्तान में जीतने के बाद इमरान खान ने जो कहा हमारे देश के नेता भी जानते हैं मगर कभी नहीं कहते । जब देश में गुरबत है भूख है तो मुझे प्रधानमंत्री बनकर महलनुमा आवास में नहीं रहना कोई छोटी जगह देखूंगा और प्रधानमंत्री आवास और बाकी राजयपालों के भवन को या जनता के लिए स्कूल अस्पताल बनाने को उपयोग करूंगा या उनको होटल रसोर्ट बनाकर कर उनकी आमदनी जनता पर खर्च की जाएगी । दुश्मन से भी अच्छी बात सीखी जा सकती है । उन्होंने ये भी कहा चीन ने कैसे करोड़ों लोगों को गरीबी से मुक्त करवाया और कैसे भ्र्ष्टाचार पर अंकुश लगाया उनसे सबक लेंगे । चार साल पहले गरीबी और भ्र्ष्टाचार मिटाने की बात कर सरकार बनाई थी मगर अभी तक किया केवल एक ही काम है । जैसे भी हो हर राज्य में अपने दल की सरकार बनवाते जाना , देश के गरीब भूखों की याद रहती कैसे । केवल अपने संगठन से जुड़े लोगों को मुख्यमंत्री मनोनीत करना राष्ट्रपति उप राष्ट्रपति बनवाना किस सोच को बताता है । जो लोकपाल की बात थी उसका क्या हुआ । अब कहते हैं कांग्रेस मुक्त भारत हुआ अब विपक्षी दल मुक्त भारत बनाना है । कितना गंभीर असंवैधानिक कार्य करने की बात है । भूलना मत जो बनाते हैं हमेशा रहता है नाम उनका मिटाने वाले खुद मिट जाते हैं यही होता हैं अंजाम उनका ।
 

 


जुलाई 26, 2018

POST : 851 मैं किसी का भगवान नहीं ( कहा ख़ुद उसने ) डॉ लोक सेतिया

    मैं किसी का भगवान नहीं ( कहा ख़ुद उसने ) डॉ लोक सेतिया 

   मैं जो कहने जा रहा उस पर यकीन नहीं करना , मुझे कोई बताता तो मैं हर्गिज़ नहीं मानता । आप इसे मनघड़ंत कहानी नहीं समझ सकते तो इक पागल का ख्वाब समझ लेना । मैं उसको नहीं पहचानता मगर उसने कहा वही है दुनिया बनाने वाला । तो मैं क्या करूं यही कहा था मैंने बिना सोचे ही । उसने कहा तुम इधर उधर मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे गिरजाघर किस की खातिर जाते हो , मेरी तलाश में ही तो जाते हो । कभी मिला वास्तव में जैसे आज सड़क किनारे खड़े बातें कर रहे हम दोनों ।  तुम किसी को बताना नहीं नहीं तो लोग तुम्हें पागल समझ पागलखाने भेज देंगे या तुम्हें नास्तिक है कहकर किनारा कर लेंगें मुमकिन है कुछ ज़्यादा ही कटटर  हों तो तुम्हारे साथ गलत व्यवहार भी कर दें । मेरा कोई लेना देना नहीं है फिर भी मुफ्त में बदनाम मुझे ही करते हैं । भला मुझे किसी को सज़ा देनी होती तो क्या खुद ही नहीं दे सकता था ऐसे बदमाश रखता अपना शासन चलाने को । पढ़ा है कभी सुना है कभी खुदा ईश्वर अल्लाह ने किसी को परेशान किया हो इबादत करने के लिए या मुझ पर भरोसा करने को । जब तक लोग वास्तव में भगवान को मानते थे और भलाई की राह चलते थे मैं भी सुःख दुःख में सबके साथ रहता था । जब लोगों ने ये काम छोड़ सिर्फ दिखावा करना शुरू किया और शोर करने लगे मेरे नाम की आड़ में खुद को आस्तिक साबित करने का मुझे लोगों के साथ रहना कठिन हो गया । विवश होकर मैंने अपने को अपने पद से मुक्त कर सब को उनके हाल पर छोड़ दिया है । अब आजकल लोग जिसकी पूजा इबादत करते हैं वो मैं नहीं हूं , मुझे तो समझ ही नहीं आता किसकी आरती किसकी कथा किसका सतसंग किया जाता है । ये बड़े बड़े पत्थरों के धार्मिक स्थान और पत्थर के देवी देवता या किसी और तरह से किसी किताब को मेरा नाम देकर जो किया जाता है उसे क्या कहा जाना चाहिए मुझे ही नहीं समझ आता । सच तो ये है कि मुझे ये लोग पास भी फटकने नहीं देते , सब ने अपने खुदा घड़ लिए अपनी सुविधा से जो अच्छा और आसान लगता करते हैं । नासमझ हैं जो मुझे समझने की बात करते हैं खुद अपने आप को ही कभी नहीं समझते हैं । मैं जाता नहीं वहां जहां कहीं ये सब होता है सुबह से शाम तक । मगर आज चलता हूं और मुझे तुम ही बताना कि इन सब का मतलब है क्या ।

                 इक सभा में कोई बोल रहा था माता पिता और बच्चों को लेकर हाल खराब है । बच्चे अपने माता पिता के नहीं हैं कोई किसी का नहीं है सब की झूठी प्रीत है । मुझे तो नहीं लगा ऐसा इसी सभा में अधिकांश लोग अच्छे हैं मगर ये जो सब को बुरा बता रहा है खुद कितना अच्छा है नहीं विचार करता । इसे उपदेश भी देना है तो कीमत लेकर देता है , इसकी बातों से असर कैसे होगा । यकीन करोगे इस ने कभी अपनी माता पिता गुरु का कहना नहीं माना ये कुछ भी नहीं करना चाहता था लेकिन हलवा पूरी खाकर सुःख चैन से खुद को काबिल समझदार और महान कहलाना चाहता था जिस के लिए भगवान का नाम उपदेश देने का कारोबार शुरू कर लिया है । ये जो लोग आपको अधिक का लोभ लालच नहीं करने का उपदेश देते हैं खुद समझते हैं उन्हें जो मिलता है का कम है । और जो लोग धार्मिक स्थलों को विशाल और तमाम सुविधाओं के सहित बनवाते हैं लोगों को थोड़े में खुश रहने को कहते हैं । इक छोटा सा घर बना हुआ था तब भी भगवान को कोई असुविधा नहीं थी , ऊंची इमारत कीमती साज़ो सामान किस भगवान को चाहिए । इंसान धूप गर्मी बरसात में बेबस हैं और इतने बड़े भवन में कोई नहीं रहता सब कुछ जमा किया हुआ है । हवा को पंखे की जगह ऐसी और सीसी टीवी कैमरे लगा क्या साबित करना है कि जो लोग आये हैं सब पर भरोसा किया ही नहीं जा सकता । मैंने कभी किसी पर ऐसी निगाह नहीं रखी , जो करता है फल मिलता है मुझे दखल देने की ज़रूरत ही नहीं है । आप कैसे उपदेश दे रहे हैं सबको पापी अधर्मी बता रहे हैं लताड़ते हैं बच्चों को खेलने को कुछ सीखने को नाचने को भेजते हैं साथ नहीं लाते मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे । भाई बच्चों को बचपन का आनंद लेने दो और संगीत या और किसी कला की शिक्षा लेने में बुराई क्या है । खुद जो भजन गाना जानते हैं बचपन से ही सीखा नहीं होता तो कब सीखते गाते । बच्चे भगवान का रूप हैं तो उनको किसलिए उनकी मर्ज़ी बिना कुछ करवाना दिखावे को । शायर की बात सच्ची है ,   घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें , किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये । मस्जिद इंसान ने बनाई है भगवान ने बच्चे को अपने हाथ से बनाया है तो महत्व किसका अधिक है ,  गीतकार भी समझाते हैं ।  बच्चे मन के सच्चे , मगर आप उस सच्चाई पर अपने झूठ और दिखावे का लेबल क्यों लगाना चाहते हैं । खुद भगवान भी दुनिया में जन्म लेकर बचपन का आनंद लेते रहे ये भी खुद कथा सुनाते हैं ।

           सब को लालच नहीं करने की बातें कहने वाले और अधिक भवन धन दौलत जमा करते जा रहे हैं , धर्म के नाम पर हज़ारों एकड़ ज़मीन किसी भी तरह हथिया ली है । गरीब को घर नहीं रोटी कपड़ा नहीं और धर्म के नाम पर अंबार लगा रखे हैं तो धर्म है क्या । धर्मशाला कोई नहीं मुसाफिर को रहने को ठिकाना नहीं , किसी भूखे को खाना नहीं मिलता किसी बेघर को रहने क्या भीतर नहीं आने देते । कहीं तो शुल्क लगा रखे हैं दर्शन बिकता है प्रसाद भी बेचते हैं । कौन सा भगवान है ये कैसा धर्म है । कोई आपकी बात से सहमत नहीं तो धर्म के नाम पर हिंसा किस धर्म की किताब में लिखा है । कोई अनुबंध किया हुआ है जो भगवान को मनवाने को ज़ोर ज़बरदस्ती करते हैं ये कैसी ठेकेदारी है । मत पूछो क्या क्या दिखाया समझाया मुझे उस ने जो खुद को वास्तविक भगवान बता रहा था मगर उसके पास कोई प्रमाण पत्र नहीं था । आधार कार्ड भी नहीं बना हुआ न कोई वोटर कार्ड तो राजनेताओं के किसी काम का नहीं वो भगवान । मुझे यही समझाया तुम कहीं मत जाओ मुझे ढूंढने को , मैं खुद चला आता हूं जो सच्चे दिल से पुकारता है उसके पास । बस उसी दिन से नहीं गया किसी धार्मिक जगह माथा टेकने , मुझे तो ध्यान ही नहीं आया कि भगवान सामने है तो सर झुकाता पांव छूता । शायद उसे भी ये नहीं पसंद था जो मेरे मन में ये ख्याल नहीं आया । मैंने तो उसको ये भी कह दिया ठीक किया जो अपने को अपने पद से मुक्त कर लिया जब किसी से कोई काम ठीक से नहीं होता हो तो हट जाना चाहिए । सही कहा आपने मैं भी मानता हूं ये दुनिया बनाकर कभी इक पल चैन से नहीं रह पाया । कोई सत्ता का भूखा नेता थोड़ा हूं जो कुर्सी को छोड़ते महसूस करता है जान निकलती है । नीरज जी मेरे पास आये हैं बहुत मधुर स्वर है और कितना सुंदर गीत लिखते हैं । मुझे समझते हैं बस ऐसे थोड़े से लोग ।

उस से मिलना नामुमकिन है , जब तक खुद पर ध्यान रहेगा। 

जब तक हैं मंदिर और मस्जिद , आदमी परेशान रहेगा। 

   तुम छोड़ दो ये सब करना जो तुम्हें  जीना नहीं सिखाता और परेशानी देता है । भगवान की बात है माननी ही होगी मना करना उचित नहीं है । आपको यकीन नहीं हुआ मुझे जो मिला भगवान नहीं था आपका । आपका भी भगवान आएगा खुद आपके पास इंतज़ार करने में आपका जाता क्या है । कभी मिलने आये तो उस से भगवान होना का सबूत मत मांगना , बेचारा नहीं दे सकेगा ।  कोई मुझे अपने धर्म की बात कर रहा था अपने गुरु की बात बता रहा था कैसे उसने गांव के गांव खरीद लिए अपने विस्तार के लिए । उनको अपने पास कोई और किसी और धर्म को मानने वाला नहीं चाहिए , उनके घर दुकान धार्मिक स्थल तक तोड़ अपने बनाये और उनके साथ कीमत देकर सौदा किया उनको किसी और जगह घर बनवा कर दिए और जिस जगह जो उनका धार्मिक स्थल तोड़ा  था उसके बदले और बना कर दिया मगर उसकी देखरेख अपने चेलों को ही सौंप दी । कोई चढ़ावा नहीं चढ़ा सकता बस सुबह शाम औपचारिकता निभाते हैं । बड़े महान हैं जो औरों को नसीहत देते हैं धन दौलत मत जमा करो और खुद अपने धर्म के नाम पर फैलते जाते हैं धंधा और अपनी दौलत ताकत और राजनीति में प्रभाव को उपयोग कर घरों को खेतों को ही नहीं गांवों को इंसानों को खरीदना उचित मानते हैं । ऐसे गुरु की शिक्षा कैसी होगी समझ सकते हो । मेरा भगवान तेरा भगवान उसका इसका किसका भगवान । मुझे ही बांट कर कहते हो मैं एक ही हूं , तुम लोग एक होने दोगे किसी को । भगवान ने किसी के नाम कोई वस्तु नहीं की थी , किसी को ज़मीन मकान पेड़ पौधे बटवारा नहीं किया था । सब की ज़रूरत को सभी कुछ था मगर किसी की हवस को पूरी करना तो भगवान के बस की भी बात नहीं है । भगवान को क्या समझते हैं , जमाखोर जो इतना सब खुद अपने नाम जोड़ता जा रहा है जबकि उसी के बनाये बंदे बेघर हैं भूखे हैं । आपके चढ़ावे से खुश होता होगा और अपने गुणगान से भी ख़ुशी हासिल करता होगा जो वो भगवान नहीं हो सकता । आपने भगवान को भी कारोबारी इंसान समझ लिया जो देता कम लेता ज़्यादा है , मुनाफाखोर है क्या भगवान । नहीं है तो सब धर्मों के पास दौलत बढ़ती क्यों जाती है , धर्म पर खर्च नहीं करते धर्म का विस्तार करने पर निवेश करते हैं । अब कोई उपाय नहीं है केवल एक ही तरीका है लोग इनकी वास्तविकता को समझ छोड़ दें मानना किसी भी धर्म को । भगवान को मानें चाहे नहीं मानें कोई फर्क नहीं पड़ता है , इन धर्मों को मानकर भगवान को मानना नहीं कहा जा सकता है । धर्म और भगवान एक ही नहीं हैं , धर्म आपको बंधन में रखता है जबकि भगवान ने आपको बंधनमुक्त किया हुआ है । सब बंधनों से मुक्त होना चाहते हैं तो पहले इन से मुक्ति पाओ जो आपको कुछ भी करने की क्या सोचने समझने की इजाज़त नहीं देते हैं । भगवान कोई बाहर से नहीं आये थे न आते हैं मुझे मेरे भीतर से मिले आपको आपके अंदर से मिल सकते हैं ।  
 

 

जुलाई 25, 2018

POST : 850 सिंघासन पर अंधेरों का डेरा ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

     सिंघासन पर अंधेरों का डेरा ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

   उसने ठान ली है मेरे को ही चुनना होगा।  मेरे गले में वरमाला नहीं डालोगी तो ज़िंदा नहीं बचोगी। बहुत बहाने बनाये अभी वक़्त तो आने दो। पर उसको डर लग रहा है तुम मेरे साथ खुश नहीं हो लगता है तेरे चेहरे की उदासी से खुश्क लबों से जर्द हुए गालों के रंग से। जब तुम पर आशिक़ हुआ तो गुलाबी था चेहरा खिलखिलाती हंसी थी , वादा किया था लाऊंगा अच्छे दिन , तुम मानती क्यों नहीं यही तो होते हैं अच्छे दिन। मेरे सिवा कौन है जिसे तेरी चिंता है , बस मैं ही मैं हूं ध्यान से देखो। किसकी मज़ाल है तेरा सपना भी देखे। मेरा प्यार ऐसा ही है पुराने ढंग वाला मेरी गुलामी को अपना भाग्य समझोगी तभी जी सकोगी। गली में इक बच्चा खिलौने से खेल रहा था , मैंने कहा ये मुझे पसंद है मुझे दे दो मुझे चाहिए जो मुझे पसंद हो। जब उसने नहीं दिया तो छीन लेना चाहा और छीन नहीं पाया तो तोड़ डाला। मेरा नहीं तो उसके पास भी नहीं , किस मां के पास जाकर रोएगा। है किसी की मज़ाल जो मुझे रोके टोके। तुम समझ जाओ चाह कर भी कुछ भी कर पाओगी। पिंजरे को अपना स्वर्ग मान लो और मेरी कैद में ख़ुशी से रहो , चह चहाओ ताकि सब को लगे मेरे साथ रहकर तुम खुश हो बहुत। आज़ाद होने की बात भूल कर मन में नहीं लाना , पिंजरे से प्यार करोगी तो अच्छा लगेगा। सोने का बनाया है पिंजरा मैंने , देख लो कितने टीवी चैनल वाले मीडिया वाले खुश हैं और मेरी खिलाई हरी हरी मिर्च खाने के बाद दिन भर मेरा ही नाम जपते हैं। जो मुझको हो पसंद वही बात कहते हैं खुश रहते हैं। 
 
                     मुंह पर पट्टी बंधी है बोल नहीं सकती सुन सकती है देख रही है। जिस को अपना घर बताता है उसी को आग लगाने की तैयारी चल रही है। सत्ता की देवी का आशिक़ है सरफिरा है , दिल आ गया है तो अपहरण कर कैद में जकड़ रखा है। प्यार से बहाने से बुला लाया था मगर अब वापस नहीं जाने देता। घुट घुट कर मरना होगा साफ कहता है मगर चुप भी रहना होगा , हर ज़ुल्म सहना होगा। लगता है इक्कीसवीं सदी नहीं उन्नीसवीं सदी वापस आ गई है। ताकत से जंग लड़कर अपहरण कर किसी को अपनी  दासी बना सकते हैं। महिलाओं को बराबरी के अधिकार क्या सुरक्षा भी हासिल नहीं और जो मर्ज़ी आरोप लगाकर सूली चढ़ा देते हैं। ये कैसे नियम बना लिए अपनी सुविधा से कोई और करता था तो लुटेरा अपराधी मगर खुद करें तो देश की सेवा। घनी अंधेरी रात को दिन घोषित कर रहे हो , किस किस पर झूठे आरोप धर रहे हो। इतिहास बनाने की चाहत अधूरी रही तो इतिहास को ही बदल रहे हो , अपनी मर्ज़ी की कहानियां घड़ रहे हो। वादा हर दिन हर सुबह करते हो हर शाम मुकर रहे हो। मदर इंडिया फिल्म को देख देख मचल रहे हो , नरगिस पर और मासूमों पर सितम पे सितम कर रहे हो। नया बनाना नहीं आता पुराने को भी बर्बाद कर रहे हो। नया ज़माना फिल्म का गीत सुनो फिर सोचो क्या होना चाहिए था तुम क्या कर रहे हो। 



कितने दिन आंखे तरसेंगी , 
कितने दिन यूं दिल तरसेंगे , 
इक दिन तो बदल बरसेंगे।
ऐ मेरे प्यासे दिल , 
आज नहीं तो कल महकेगी खुशियों की महफ़िल ।
नया ज़माना आएगा , नया ज़माना आएगा ।

ज़िंदगी पर सब का एक सा हक हो , 
सब तसलीम करेंगे , 
सारी खुशियां सारे दर्द बराबर हम तकसीम करंगे ।
नया ज़माना आएगा , नया ज़माना आएगा ।

सूने सूने से मुरझाये से हैं क्यों उमीदों के चेहरे , 
कांटों के सर पर ही बांधे जाएंगे फूलों के सेहरे ।
नया ज़माना आएगा , नया ज़माना आएगा ।

नया ज़माना फिल्म की कहानी :-

मुझे याद है आपको भूल गई तो दोबारा याद दिलवाना ज़रूरी है। उपन्यास लिखता है नायक जो इक गरीब है मगर धोखे से अपने नाम से छपवा कर गरीबों का दुःख दर्द समझने की शोहरत हासिल कर लेता है इक उद्योगपति धनवान। नायिका खुश हो जो गीत गाती नज़र आती है वास्तव में गरीब नायक के लिखे को उसके पिता ने अपने नाम से छपवा लिया है। धोखेबाज़ और चालाक चालबाज़ लोग यही किया करते हैं , भले और ईमानदार होने की नकाब लगाकर छल कपट धोखा सब करते हैं। फ़िल्मी कहानियों में आखिर में खलनायक नायिका को पाने को दंगा फसाद गोली चलाने से घर को आग के हवाले करने तक सब करता है मगर हार खलनायक की तय होती है। नायक सच की राह चलते हैं उनको हार का डर नहीं होता न जीत कर अहंकारी बनते हैं। बहुत फ़िल्में फिर से बनाई गई हैं , मदर इंडिया और नया ज़माना फिर से बनाये कोई। हां गुरुदत्त की प्यासा और कागज़ के फूल भी। क्योंकि सवाल बाकी हैं :-

जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं ? कागज़ के फूल हैं इस ज़माने में । 

पाबंदी लगा देना फिर से , ये भी इतिहास है किसी गीत पर पाबंदी लगाई गई थी। कहां हैं जिनको नाज़ है हिन्द पर देखें क्या नाज़ करोगे इस पर जिस में अभी भी असमानता है भूख है अन्याय है अत्याचार है। 
 
 Ayega Naya Zamana - Ahsan Masih - CARAVS Song - YouTube

जुलाई 24, 2018

POST : 849 अदब वालों की बातें ( लिखने वालों की बात ) आलेख - डॉ लोक सेतिया

      अदब वालों की बातें ( लिखने वालों की बात )  आलेख 

                                      डॉ लोक सेतिया 

     पिछले सप्ताह इक लिखने वाले दोस्त का फोन आया , अमुक दिन उस समय पर आपके शहर में आना है , आप जो भी लिखने वाले हैं उनको बुला लेना। मैंने कहा कुछ कारण है , कारण क्या है उनको बता भी दिया , इसलिए मैं और लोगों को नहीं बुला सकता मगर आप ने कहा है मुझे मिलना है तो मुझे बता दो किस जगह आपका आयोजन है मैं मिलने ज़रूर आऊंगा। उस शाम तक उनके फोन की इंतज़ार रही , उसके बाद निगाहें घर की चौखट पर लगी रहीं मगर नहीं आने वाले नहीं आये। समझ गया मगर अभी भी नासमझ ही रहना चाहता हूं। यही होता है बार बार , हर किसी को अपना रुतबा बढ़ाना होता है मिलने की चाहत नहीं होती है। जो उनको चाहिए मिलता नहीं तो बात खत्म , मगर अदब की बात करते हैं बेअदबी कहना उचित नहीं होगा। आज फिर बीस पच्चीस साल पहले की बात याद आई , इक देश भर में प्रख्यात लिखने वाले से उनके घर जो कि किताबों के प्रकाशन का पता भी था , अपनी किताब छपवाने को गया। जाने कैसे तब मेरे पास पैसे थे जेब में पांच दस हज़ार जो तब काफी थे किताब छपवाने को। उनका पहला सवाल था आप कार से आये होंगे तो कार पार्किंग की जगह लगाई है या नहीं। मैंने बताया मेरे पास कार नहीं है मैं 225 किलोमीटर दूर बस से आया और बस स्टॉप से रिक्शा लेकर आया हूं। गर्मी के दिन दोपहर की बात थी मगर उन्होंने मुझे प्यास लगी थी मगर पानी भी नहीं पूछा। तब मैंने लिखा था मैं बे-कार नहीं हूं जब खुद कार खरीद ली थी उनकी बात से नहीं। मगर मैंने उनसे निवेदन किया था आप मेरा लिखा पढ़ कर राय दो मुझे किताब छपवानी चाहिए अथवा नहीं। वो बोले भाई हिंदी की किताब पढ़ता कौन है , ये तो आपको खुद पैसे खर्च कर छपवा कर दोस्तों में बांटनी है अपने लेखक होने का प्रमाण हासिल करने को। समझा कि नहीं छपवानी चाहिए और लौट आया था , उन्होंने किताब छापने का दाम बता दिया था। सलाह मांगी थी इसलिए उन्होंने एक ही राय दी थी कि किसी एक विधा में लिखा करो। आप व्यंग्य भी लिखते हो , ग़ज़ल भी , कविता - नज़्म भी , कहानी भी लिखते हो , साथ में आलेख भी सम सामयिक विषयों पर , ऐसा उचित नहीं। मगर उनकी सलाह मानना मेरे लिए कठिन ही नहीं असंभव भी था। शायद नहीं करना चाहिए था जो किया , इक नज़्म लिखी थी और उनके भेज भी दी थी। 

      बैठे थे उनके घर में उनसे मगर अनजान थे , उठ गये महफ़िल से वो ऐसे कद्रदान थे। 

सालों बाद उनसे बात हुई किसी विषय पर उनको पता चला मैं भी उन दिनों गुड़गांव में हूं तो घर आने को कहा। कहा आपके घर आया था जब दिल्ली में रहते थे आप मगर उनको भूल गई मुलाकात मुझे याद रही। उसके बाद समझ लिया था बड़े नाम वालों से मिलने से बचना ही अच्छा होगा। उसके बाद इसी तरह के कड़वे अनुभव मिलते ही रहे हैं। लोग मुझे उपयोग करते रहे अपनी ज़रूरत पूरी कर भूल जाते रहे। कितनी बार किसी शहर से मेरे शहर आने पर मुझे बताया कि आपके शहर में किसी सभा में कविता पाठ करने आना है आप भी आ जाना बिना आयोजकों के बुलावे भी। मेरे घर अधिकार समझ आने वाले घर की तरह रह कर अपना कार्य करवाने वाले जब भी उनके शहर गया तो घर पर चलने की बात नहीं की। आपको मूर्खता लग सकती है कि उनके काम में लेखन में सहयोग देने का काम भी महमाननवाज़ी भी और जाते जाते उनकी पसंद की कोई चीज़ अपनी जेब से खरीद कर देने का काम बार बार करता रहा ख़ुशी ख़ुशी। बीस साल के रिश्ते का हासिल उन्होंने खुद ही अपने कार्यक्रम में बुलाकर अपमानित करने का काम किया ये कहकर कि आज केवल उन्हीं को बोलना है जो हिंदी दिवस पर कोई रचना लिखकर लाये हैं , आप ग़ज़ल नहीं पढ़ सकते। मगर फिर किसी के समझाने पर कहा चलो आप बाहर से आये हैं सुना सकते हैं मगर समय सीमा है। लोग घंटा घंटा आलेख पढ़ रहे थे मगर सीमा की बात मेरे लिए कही गई। अदब इसी को कहते हैं। 
 
            इक सरकारी अधिकारी शहर से तबादला होने पर जाने लगे तो मुझे घर बुलाया और इक चेक दिया ताकि उनके जाने के बाद उनको महमान की तरह बुलाने को आयोजन किया जाये उनको सम्मानित किया जाये। नहीं लिया था चेक उनको वापस कर दिया था क्योंकि वो रेड क्रॉस का पैसे का गलत उपयोग हो रहा था। अगर आप मूल्यों की बात सच की नैतिकता की बात लिखते हैं मगर खुद जीवन में पालन नहीं करते तो लिखने का मकसद क्या है। एक संस्था ने मुझे कवि सम्मेलन आयोजित करने में सहयोग मांगा तो एक लेखक को बता दिया सब की तरह कि एक हज़ार की राशि हर कवि को संस्था देगी। मगर वो कहने लगे मैं टेक्सी या कार से आने जाने का किराया और दिलवा सकता हूं कोशिश कर के। मगर मुझ से ये होता नहीं और मना किया तो कहने लगे आप उनसे ठेका तय कर लो या मुझसे बात करवा दो मुझे आता है ये करना।  क्षमा मांग ली थी क्योंकि मुझे ऐसा करने में सभी लिखने वालों का अपमान लगा था। बुलाने वाला जो देना चाहता है वो सम्मान है और आपको राशि थोड़ी लगती है आप इनकार करें आपका हक है , मगर सदबाज़ी नहीं। मैं इक ठेकेदार दादा जी का पोता और ठेकेदार पिता जी का बेटा होने के बावजूद भी ठेकेदारी के गुण नहीं सीख सका। अब लेखक बनकर वापस जाना संभव नहीं है। घटनाएं बहुत हैं मगर निष्कर्ष वही है हर कोई खुद को दूसरे से बड़ा समझता है या दिखाना चाहता है। आखिर में इक शेर मेरी ग़ज़ल का मतला भी है :-

                      पूछा उन्हें जाना किधर चाहते हैं ,

                        कहने लगे बनना खबर चाहते हैं। 


 


जुलाई 23, 2018

POST : 848 मुझे मिल गया उसका पता ( झूठी बात ) डॉ लोक सेतिया

      मुझे मिल गया उसका पता ( झूठी बात ) डॉ लोक सेतिया 

     ईश्वर खुदा यीसुमसीह वाहेगुरु आप सभी तलाश करते रहे। मगर खुद उसने मुझे तलाश कर लिया है। आप कहोगे फिर झूठी बात क्यों लिखा है शीर्षक। उसी ने कहा है किसी को मत कहना यहां तक कि खुद उसे भी ऐसे नहीं प्यार के किसी नाम से संबोधित करूं। अब उसकी बात नहीं मानूंगा तो किसकी मानूंगा। वैसे भी सच्ची बात लिखता तो कोई यकीन नहीं करता क्योंकि आदत हो गई है झूठी बात सुन कर उसे सच समझने की। अब मुझे कहीं नहीं जाना मंदिर मस्जिद गिरजा घर न गुरूद्वारे। वो है ही नहीं उन सब जगहों से उसको कब का निकाल दिया गया है। सुनो इक ग़ज़ल :-

                            कहां तेरी हक़ीकत जानते हम हैं ,
                            बिना समझे तुझे पर पूजते हम हैं।

                           नहीं फरियाद करनी , तुम सज़ा दे दो ,
                            किया है जुर्म हमने , मानते हम हैं।

                            तमाशा बन गई अब ज़िंदगी अपनी ,
                            खड़े चुपचाप उसको देखते हम हैं।

                            कहां हम हैं , कहां अपना जहां सारा ,
                            यही इक बात हरदम सोचते हम हैं।

                            मुहब्बत खुशियों से ही नहीं करते ,
                            मिले जो दर्द उनको चाहते हम हैं।

                           यही सबको शिकायत इक रही हमसे ,
                           किसी से भी नहीं कुछ मांगते हम हैं।

                           वो सारे दोस्त "तनहा"खो गये कैसे ,
                           ये अपने आप से अब पूछते हम हैं।


                     समझना है कि उसका पता ठिकाना है कहां।

                               ढूंढते हैं मुझे , मैं जहां  नहीं हूं  ,
                               जानते हैं सभी , मैं कहां नहीं हूं ।
  
                              सर झुकाते सभी लोग जिस जगह हैं ,
                              और कोई वहां , मैं वहां नहीं हूं ।

                              मैं बसा था कभी , आपके ही दिल में ,
                              खुद निकाला मुझे , अब वहां नहीं हूं ।
 
                             दे रहा मैं सदा , हर घड़ी सभी को ,
                            दिल की आवाज़ हूं ,  मैं दहां  नहीं हूं ।

                             गर नहीं आपको , ऐतबार मुझ पर ,
                            तुम नहीं मानते , मैं भी हां  नहीं हूं ।

                              आज़माते मुझे आप लोग हैं क्यों ,
                              मैं कभी आपका इम्तिहां  नहीं हूं ।

                             लोग "तनहा" मुझे देख लें कभी भी ,
                             बस नज़र चाहिए मैं निहां  नहीं  हूं।

लोग गलत पते पर चिट्ठियां डालते रहे और उसके नाम पर इमारतें बनाने वाले बाहर उस का नाम लिख कर वास्तव में भीतर खुद उसकी जगह लेते रहे। डाकिया बेचारा आपकी चिट्ठी उसी गलत पते पर देता रहा और वो सारी डाक को सरकार के बाबुओं की तरह रद्दी की टोकरी में डालते रहे। मैंने उसके बारे क्या क्या नहीं लिखा , पढ़कर उसको मेरे पास आना ही पड़ा। बताना पड़ा जो जो भी गलत हो रहा है उसमें मेरा कोई हस्ताक्षेप नहीं है। बेबस हो गया है , मगर मुझे समझा दिया है मुझे इधर उधर कहीं भी भटकना नहीं है। उसने वादा किया है हर पल मेरे साथ रहने का। मैंने भी उसको कह दिया कि आपकी हर बात स्वीकार है केवल एक बात को छोड़कर , वो ये कि मुझे लिखने में कोई दखल पसंद नहीं है। भले आपको अच्छा नहीं लगता तो मत पढ़ना , जो पढ़ते हैं उन्हीं पर कब कोई असर हुआ है। देखिये आपको मेरे पास नहीं आना उसका पता ठिकाना जानने को , आपको इशारे इशारे से समझा देता हूं। आपके बेहद करीब है वो बस पहचान लो कोई है जिसमें आपको भगवान अल्ला यीसू वाहेगुरु नज़र आता है , ध्यान से देखना उस इंसान को प्यार करना खुश रखना। घर से बाहर भी हो सकता है या आपके घर ही में। आपका कोई दोस्त या भाई पिता या माता या पत्नी कोई भी हो सकता है। हर किसी में उसी को देखना तो सब अच्छे लगने लगेंगे। मिलेगा खुद आपके पास आएगा किसी दिन इंतज़ार करना आखिरी सांस तक। मिले तो उससे बिछुड़ना नहीं कभी किसी भी कारण से।

 

POST : 847 मेरी आत्मकथा की लघुकथा ( दास्तां ) डॉ लोक सेतिया

      मेरी आत्मकथा की लघुकथा ( दास्तां ) डॉ लोक सेतिया 

     कोई चीज़ नहीं मांगता , जो भी मिल जाये उसी में खुश हो जाता। किसी खिलौने की मिठाई की ज़िद नहीं करता। जैसे कहता हूं वैसा ही मानता भी है। मगर पिता जी को अच्छा नहीं लगता क्योंकि जैसा वो चाहते बेटा वैसा है नहीं। धन दौलत ज़मीन का हिस्सा नहीं मांगता , अपनी परेशानी बताता भी नहीं और चुप चाप हालात से समझौता कर लेता है। थोड़ा भावुक है और ज़रा सी बात पर उदास हो जाता है। बहुत समझाया तुम किसी काबिल नहीं हो बाकी सब के बच्चे समझदार हैं दुनियादारी समझते हैं पर समझे तब ना। जाओ अपना घर अलग बना लो कहा तो उदास हुआ मगर मान गया। क्या दिया क्या नहीं कोई सवाल भी नहीं। कहते हैं मां भी खिलाती पिलाती है जब बच्चा रोता है। इसको कुछ नहीं चाहिए पिता जी को भी लगता रहा। मैं जो चाहता था किसी के पास था ही नहीं कोई देता भी कैसे मुझे थोड़ा सा भी प्यार। यही तलाश करता रहा जो किसी और दुनिया में मिलता होगा इस जहां में तो कहीं नहीं मिला। जिसको मिला उलझन में पड़ गया वही , छोड़ने की कोई वजह नहीं समझ आई और रखने की कोई ज़रूरत भी नहीं। दोस्तों को जब ज़रूरत हुई इस्तेमाल किया खिलौना जान कर बाद में भूल गये किस जगह रखा था खिलौना। सब के लिए अनचाहे बंधन की तरह साथ रहा मैं। सब को गिला है सभी को शिकायत भी है कि जो उनको चाहिए नहीं दिया मैंने। मुझे कुछ नहीं चाहिए था कोई शिकायत नहीं है , पर सोचता हूं कभी कोई तो होता जिस के दिल में मुझे थोड़ी सी जगह मिल जाती इक कोने में। इतनी सी दास्तां है मेरी जिसे किस को सुनाऊं यही सोचता हूं। कौन समझेगा। 
 

 

जुलाई 22, 2018

POST : 846 अब तो कोई मज़हब ( गोपालदास नीरज के नाम ) डॉ लोक सेतिया

अब तो कोई मज़हब ( गोपालदास नीरज के नाम ) डॉ लोक सेतिया 


                                    कुछ तो सीखो मुझसे यारो 

    जितना कम सामान रहेगा , उतना सफर आसान रहेगा। जितनी भारी गठड़ी होगी , उतना तू हैरान  रहेगा। उस से मिलना नामुमकिन है , जब तक खुद का ध्यान रहेगा। हाथ मिले और दिल न मिले , ऐसे में नुकसान रहेगा। जब तक मंदिर और मस्जिद हैं , मुश्किल में इंसान रहेगा। नीरज तो कल यहां न होगा , उसका गीत विधान रहेगा। 

     आज शायद इस से बेहतर कोई संदेश नहीं हो सकता है। हर मिसरा ही नहीं हर इक शब्द तक कल भी सार्थक था आज भी सार्थक है और सदियों बाद भी सार्थक रहेगा। उन्हीं के शब्दों में , इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में , तुमको सदियां लग जाएंगी हमें भुलाने में। नीरज जी तो याद रहेंगे मगर क्या उनके गीतों का संदेश भी याद रखेंगे हम लोग। चलो इस बहाने आज समझते हैं धर्म को और देशभक्ति को भी , इधर बड़ी बहस होती है कौन असली देशभक्त है कौन नकली। धर्म भी शामिल कर लेते हैं देश से मुहब्बत से बड़ा धर्म क्या हो सकता है। 
 
             देश क्या है , ज़मीन नहीं होता देश , देश है देश के सवा सौ करोड़ लोग। अगर आप देश से प्यार करते हैं तो सभी देशवासियों से मुहब्बत करते होंगे , नहीं करते तो देश से नहीं प्यार कुछ और है। ये कैसे हो सकता है कि हमारे ही देश में करोड़ों लोग भूखे हों और कुछ लोग खाना बर्बाद करते हों। वास्तव में जैसा गांधी जी ने और हर धर्म में बताया गया है कुदरत ने सभी की ज़रूरत को बहुत कुछ दिया है लेकिन किसी की हवस पूरी करने को नहीं दिया है काफी। हमारी हवस मिटती ही नहीं चाहे जितना जमा हो जाये। आप जिनको बेहद रईस समझते हैं वास्तव में धर्म उनको सब से दरिद्र बताता है , जिस के पास बहुत कुछ पास है मगर फिर भी और अधिक पाने की चाहत है। इस नज़र से देखोगे तो समझोगे वास्तविकता क्या है , देश प्रेम और सच्चा धर्म यही है। जो नेता हर दिन खुद अपनी शानो-शौकत पर लाखों करोड़ों खर्च करते हैं और साथ में देश जनता की सेवा का दम भी भरते हैं वो देश समाज जनता को देते कुछ भी नहीं बल्कि देश पर खुद इक बोझ की तरह हैं। यही तमाम धार्मिक स्थलों की बात है जिनको बताया जाता है लाखों का चढ़ावा आता है और धन सम्पति हीरे जवाहरात सोने चांदी के अंबार लगे हैं अगर यही धन दौलत भूखों की भूख और रोगियों के उपचार या शिक्षा या गरीबों की सहायता में खर्च नहीं किया जाता तो उसको धर्म नहीं कह सकते हैं। बात सरकार अमीर उद्योगपतिओं और धनवानों की नहीं है और न ही करोड़ों की आमदनी से थोड़ा भाग अपनी शोहरत को दान देने वाले जाने माने लोगों की ही है। आप हम ज़रूरत से अधिक आय होने पर अपनी ख्वाहिशें बढ़ाते जाते हैं और जितनी भारी गठड़ी होगी उतना तू हैरान रहेगा , नीरज जी की बात को नहीं समझते हैं। अपने आस पास बहुत लोग हैं जिनको जीने को थोड़ा चाहिए , किसी धार्मिक स्थल पर चढ़ावा देने या मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरुद्वारा बनाने को दान देने से कहीं अच्छा ये इंसानियत का धर्म अपनाना होगा। आप केवल मनोरंजन पर या अपने सपने पूरे करने पर जितना धन खर्च करते हैं अपनी ख़ुशी की खातिर वही क्या देश को अर्पित कर सकते हैं। मतलब देश के लोगों की सहायता करने से आप को वास्तविक ख़ुशी और सच्चा धर्म का कार्य कर सकते हैं। अधिक नहीं अगर जैसा कुछ धर्मों में दशांश बिना किसी को बताये ज़रूरतमंद लोगों को दे सकते हैं बेशक जितना भी थोड़ा हिस्सा आप मन से तय कर लें पांच फीसदी भी अगर दस नहीं मगर देश की भलाई को कुछ योगदान आप भी हम सभी दे सकते हैं। गोपालदास नीरज जी को इस से बड़ी श्रद्धांजलि कोई नहीं दी जा सकती है।



POST : 845 जीवन के दोराहे पे खड़े सोचते हैं हम ( टीवी शो की बात ) भाग - 6 डॉ लोक सेतिया

जीवन के दोराहे पे खड़े सोचते हैं हम ( टीवी शो की बात ) भाग - 6

                                   डॉ लोक सेतिया 

 इस से पहले कि शुक्रवार की कहानी की बात की जाये , आपसे इक सवाल करना चाहता हूं। जवाब अपने मन में सोच लो फिर समझना मुझे क्या क्यों लगा। मान लो आप या मैं अथवा कोई भी और किसी दोस्त या अनजान व्यक्ति के निधन के बाद अनाथ हो गये किसी बच्चे को पालन पोषण के लिए लाते हैं तो अगर वो इक छोटी सी बच्ची है आपके बेटे के बराबर की और उसे बेटी की बड़ा करते हैं तो आपकी नज़र में आपका बेटा और अपनाई हुई बेटी भाई बहन जैसे लगते होंगे या जवान होने पर उन को विवाह के बंधन में बांध कर पति पत्नी बनाना चाहोगे और वो भी लड़की से बिना पूछे। इतना ही नहीं अगर उस बेटे को मालूम हो कि लड़की किसी और से मुहब्बत करती है तब भी नाटकीय ढंग से मां के गंभीर बिमारी की अवस्था में अंतिम इच्छा को मानकर उस से दिखावे को ही सही विवाह कर लोगे। मगर जब वो मां भी बिल्कुल ठीक हो जाती हैं तो ये जानकर कि उन दोनों में पति पत्नी का संबंध नहीं है फिर से इक मांग सामने रख सकती हैं कि मुझे पोता या पोती चाहिए और जब तक नहीं होता मैं एक समय उपवास रखूंगी। यहां भी अपनी पहली गलती को और बढ़ाते हुए अपने पर किये उपकार के बदला चुकाने को लड़की सोचती है कि जिस से मुहब्बत करती है और बाद में दिखावे की शादी को छोड़ जिसकी पत्नी वास्तव में बनना चाहती है उस से संतान पाकर मां की ये इच्छा भी पूरी करे। स्टुडिओ के दर्शक से लेकर एंकर तक इस सामाजिक संबंध की बात करते क्या सोचते भी नहीं। ये आम बात नहीं है आज की बिगड़ती सामाजिक व्यवस्था को दर्शाती है जिस में खून के रिश्ते को छोड़ बाकी सब लड़कियां कुछ भी समझी जा सकती हैं बहन नहीं। विरोधाभास की बात नहीं है कि हरियाणा में जाट समुदाय में गांव के गोत्र में विवाह नहीं करना उचित समझते। अपने पिता माता और नानी के गोत्र के साथ गांव में जिस गोत्र को महत्व देते हैं उसके लड़के लड़की भाई बहन समान समझते हैं। इसे आप कठिन समझते हैं आधुनिक युग में तो सही है मगर एक घर में साथ साथ पले बढ़े बच्चे दोस्त या भाई बहन की तरह ही आपस में नाता स्वाभाविक समझते हैं। गांव में अभी भी गांव की लड़की को इसी निगाह से देखना पसंद किया जाता है। 
 
                     शायद अब कहानी आप समझ गये होंगे दोहराना नहीं ज़रूरी है। जब लड़की अपने आशिक से शरीरिक संबंध की बात करती है तो वो इसे बेहद आपत्तिजनक मान कर इनकार कर रिश्ता तोड़ने की बात करता है। अपनी जगह वो शत प्रतिशत सही है , विवाह को इक खेल तमाशा बना देना हमारे समाज में बेहद अनुचित है। शादी कर जिस के साथ रहती है उस को छोड़ अपने आशिक के बच्चे की मां बनना तो ममता शब्द को भी अपमानित करना है। मगर जब प्रेमी नहीं मानता तब जिस से दिखावे की शादी की थी उसी से गले में मंगलसूत्र पहनने की बात कर पति पत्नी बनकर संतान पैदा करने की बात करती है। मगर अब हैरानी की बात है कि लड़का बताता है वो तो हमेशा उसी को चाहता था मगर कह नहीं पाया लेकिन मां को शायद समझ आ गया था तभी उसने गंभीर बिमारी में ये वचन मांगा था। लो जी ये सुखद अंत है। मगर इस से आप समाज को कोई भी अच्छा संदेश कदापि नहीं दे सकते हैं। ये क्या हो गया है कहानीकार को टीवी चैनल वालों को और ऐसी कहानी देख कर तालियां बजाने वालों को। इस से अधिक कुछ भी कहना संभव ही नहीं है। खेदजनक बात है , मार्गदर्शन नहीं राह से भटकाती हैं ये कथा कहानियां। 

 

POST : 844 विश्वास नहीं है पर बहुमत है ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

      विश्वास नहीं है पर बहुमत है ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

   सवाल गंदुम जवाब अदरक। बात कुछ पूछी आपने बात ही बदल दी। तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान ए शायर को , ये एतिहात ज़रूरी है इस बहर के लिए। मेरे पास मां है के फ़िल्मी जुमले की तरह मेरे पास संख्या बल है। ये इतिहास भी कमाल दिखाता है , कभी संख्या बल नहीं था फिर भी वाजपेयी जी दिल जीत गये थे। उनकी हार में जीत थी विरोधी भी अफ़सोस कर रहे थे कि एक अच्छे आदमी का ये बुरा अंजाम क्यों हुआ। मैंने कुछ ऐसे भी गरीब देखे हैं जिनके पास दौलत के सिवा कुछ नहीं होता , आपके पास सांसद हैं जनता का विश्वास नहीं है सब जानते हैं। झूठ का शोर कितनी देर तक काम आएगा। इक बात है कहावत नहीं है नियम है कि लोकराज लोकलाज से चलता है , आपने किसी भी सवाल का जवाब नहीं दिया है , सवालों को हवा में उड़ा दिया है। धुआं बनाके हवा में उड़ा दिया मुझको , मैं जल रहा था किसी ने बुझा दिया मुझको। खड़ा हूं हाथ में रोटी के चार हर्फ़ लिए , सवाल है कि किताबों ने क्या दिया मुझको। आपने शिक्षित युवा के साथ मज़ाक किया है पकोड़े बेचने की सलाह के सिवा आपके पास कोई उपाय नहीं और जो मज़दूर हैं किसान हैं उनके लिए आपकी आंखों में नमी भी नहीं है। एक खलनायक की कटु मुस्कान पर , हो गए दर्शक फ़िदा अच्छा लगा। आईने में देखना अच्छा लगा , अपना अपना चौखटा अच्छा लगा। अपनी सूरत पे फ़िदा होते हैं , लोग खुद अपने खुदा होते हैं। चार साल में क्या इस मानसिकता से चार सौ साल में भी देश को अच्छे दिन नहीं हासिल हो सकते हैं। आपके लिए चुनावी जुमला था जनता के लिए इक सपना था जिसको आपने ही चूर चूर कर दिया। सबका साथ सबका विकास का नारा बदलकर जो हमारे साथ केवल उन्हीं का होगा विकास बना दिया है। विपक्ष छोटा बच्चा लगता है आपको , मगर इक बच्चा जब कहता है राजा नंगा है तो बहुमत का झूठ टिकता नहीं है। सच घटे या बढ़े तो सच न रहे , झूठ की कोई इन्तिहा ही नहीं। ऐसी सरकार से बड़ी सज़ा ही नहीं , जुर्म जनता का क्या है पता ही नहीं। 
                   ( शायर से क्षमा याचना के साथ बदलाव किया है ) ।
 
       विपक्ष के किसी भी नेता की बात का जवाब मिला ही नहीं। राहुल जी आंख से आंख नहीं मिलाने की बात जब कह रहे थे आप हंस रहे थे मगर जब जवाब दिया तो वही घटिया डायलॉग खुद को गरीब वंचित बताने का मगर उपहास की तरह। ये वास्तव में क्रूर मज़ाक था गरीब और शोषित लोगों के साथ , 22 साल से सत्ता पर बैठा नेता ( इसमें गुजराज भी शामिल है ) खुद को अभी भी कुचला हुआ बताता है मगर सब को कुचलना चाहता है। भगवान को छोड़ो खुद अपनी आत्मा का सामना करोगे तो खुद पर रहम नहीं हंसी आएगी। मगर आपको शायद देश की संसद सिनेमा हाल की तरह लगती है तालियां शोर और मुनाफा कमाना। जो लोग देशभक्त होते हैं या हुए हैं उन्होंने अपना सभी कुछ देश को दिया था जान भी आज़ादी के लिए मगर कोई मुनाफा नहीं चाहते थे। आपको कितना चाहिए , कोई हिसाब है खुद पर कितना धन खर्च किया। कितना पैसा विदेशी यात्राओं पर बेकार बर्बाद किया , कितना धन अपनी झूठी शान बढ़ाने पर सरकारी विज्ञापनों पर लुटाया मीडिया वालों को। बेशक विकास हुआ है आपके दल के आलीशान दफ्तर दिल्ली से लेकर सभी राज्यों में बन गये हैं , बिल्कुल ठीक जैसे कांग्रेस को कहते हो सत्तर साल में जो नहीं किया आपने चार साल में खड़ा कर लिया अपने दल के लिए ही। जनता के लिए घर केवल कागज़ों पर कागज़ की नाव की तरह। कागज़ी नाव से बच्चे खेलते है बारिश में , ये जो बहाव है सैलाब आया हुआ है उस में कागज़ की कश्ती नहीं काम आएगी। ग़ज़ल अच्छी है पर मौसम बदला हुआ है। किसी को बिना अनुभव देखे रक्षा सौदे का भागीदार बनाना खतरनाक है। आपने उच्च शिक्षा संस्थान का तमगा दे दिया उसको जो वास्तव में ज़मीन पर बना तक नहीं मगर आपको लाज नहीं आती ऐसा करते खेद ही जताया होता। फ़हरुख अब्दुल्ला की नसीहत बुरी नहीं है दिलों को जीतने की , ताकत से भयभीत करना नफरत की आग से देश को भस्म करना समझदारी नहीं है। किसी दल से देश को मुक्त नहीं करवाना है ये लोकतंत्र है , ये अनुचित मानसिकता को बदलना ज़रूरी है कि हम ही हम हैं। हमीं हम हैं तो क्या हम हैं , तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो। राजनीति विचारों की जंग है कोई दुश्मनी नहीं हैं। जिस दिन केवल आर एस एस नहीं देश के सभी लोग अपने लगने लगें उस दिन जो दिल की आरज़ू है महान लोगों में नाम शामिल करवाने की खुद ब खुद हो जायेगा। शोहरत जुर्म होती है अगर जिस पल उसकी तम्मना की जाती है , ये बिना चाहे मिलती है जब आप काबिल हो जाते हैं। याद रखना गांधी जी किसी पद पर नहीं रहे , सुभाष भक्त सिंह कोई सत्ता पर नहीं बैठे मगर जनता ही नहीं दुनिया में आदर है नाम है। 

 

जुलाई 21, 2018

POST : 843 भगवान बचाये ( व्यंग्य कथा ) डॉ लोक सेतिया

          भगवान बचाये ( व्यंग्य कथा ) डॉ लोक सेतिया 

     समझ नहीं आता किस किस से बचना है , भगवान किस को किस किस से बचाता फिरे भगवान तो खुद बचता फिरता है । भगवान के नाम पर क्या क्या नहीं कर रहा कौन कौन । चलो सब से पहले टीवी वालों की बात करते हैं । बाज़ार की दुकान बना दिया है एकाध को छोड़कर सभी ने । भविष्य बांचने से लेकर शनि मंगल तक सब पर इनका इख्तियार है मगर खुद इनको मज़ाल है किसी ग्रह की कोपदृष्टि लग सके । विश्वास है या नहीं बिकता है जो भी बेचना है , ठगी मत कहो लालच मत कहो समाज सेवा है नेता लोगों की तरह । मगर प्राइम टाइम में देश की खबरें नहीं वास्तविकता को छुपाने को नया खेल तमाशा दिखलाते हैं । कोई पैसे की खातिर इतना भी गिर सकता है कि अपने वास्तविक धर्म को ही भुला दे । मगर खुद को लोकतंत्र के रक्षक और सच के झंडाबरदार बताने वाले सच को खुद कत्ल करते हैं हर दिन बार बार और लोकतंत्र तथा संविधान की उपेक्षा व अनादर करने वाले सत्ताधारी नेताओं को महिममंडित करते हैं । विशेषाधिकार और सरकारी विज्ञापनों द्वारा देश और जनता के धन की लूट में बड़ा हिस्सा पाने को । सब को आईना दिखाने वाले अपने को कभी नहीं देखते अन्यथा देश का आज तक का सबसे बड़ा घोटाला यही विज्ञापनों की लूट है । जिस धन से देश और जनता की कोई भलाई नहीं होती और कुछ ख़ास लोगों की तिजोरी भरती हो उसी को घोटाला कहते हैं । देश समाज की चिंता के दावे और देश भक्त होने का इनका दावा किस की मज़ाल है जो सवाल करे ये सब क्या है । टीवी सीरियल हों या विज्ञापन महिलाओं के लिए इनकी मानसिकता छुपाये नहीं छुपती है । मगर शायद इनको ये नहीं पता कि जैसे सरकारों और नेताओं से जनता निराश हो जाती है उसी तरह टीवी से लोगों का मोहभंग ही नहीं हो रहा बल्कि उन पर भरोसा खत्म हो रहा है । ये जो पब्लिक है वो सब जानती है । 
 
      मगर इन से बचना कठिन नहीं है टीवी का रमोर्ट आपके हाथ है खुद बच सकते हैं । मगर जो लोग गली गली धर्म और देशभक्ति के नारे लगाते हुए भीड़ बनकर जिसे भी चाहे जान से मार दें या हड्डी पसली तोड़ दें और देश में इक भय और दहशत का माहौल बना रहे हैं ताकि लोग उनसे भयभीत होकर उनके खिलाफ विरोध की बात नहीं कर सकें उनसे देश की सबसे बड़ी अदालत परेशान होकर नया और सख्त कानून लाने का आदेश देती है । लेकिन कानून बनाएगा कौन जब सत्ताधारी नेता ऐसे अपराध के दोषियों को सम्मानित कर देश के कानून और संविधान का उपहास कर रहे हैं । मगर आप इन की आलोचना नहीं करना अन्यथा इनके पास खुद के देशभक्त होने का तमगा भी है और आपको देश के दुश्मन बताकर देश से बाहर जाने को कहने का अधिकार भी । अदालत कनून संविधान से बड़ा इनके लिए कोई राजनेता या दल है । मगर ये तब खामोश रहते हैं जब अहिंसा के पुजारी और देश के बापू गांधी के हत्यारे का मंदिर कोई बनाकर देश और समाज को संदेश देता है कि हमारी वास्तविकता क्या है । जिस से असहमत हों उसकी हत्या को उचित ठहरा सकते हैं । 
 
        जिस पाठशाला से ऐसी शिक्षा मिलती हो उस को क्या नाम देना चाहिए मुझे नहीं पता हैं देश की सेवा तो हर्गिज़ नहीं कहा जा सकता है । तर्क से अपनी बात का कायल किया जा सकता है मगर जब कुतर्क ही तर्क बन जाये तो केवल उलझन उतपन्न होती है । उलझन यही है , आरोप उनके , अदालत उनकी खुद की चौराहे पर उनका इंसाफ भी मनमर्ज़ी का । अपील नहीं दलील नहीं कोई रहम नहीं सफाई नहीं , सामने महिला हो या बच्चा या कोई अपाहिज अथवा अस्सी साल का कोई बूढ़ा इनकी कोई इंसानियत नहीं है धर्म की बात क्या करें । मकसद आपस में लड़वा कर अपना राजनितिक मकसद हासिल करना । सत्ता देश की एकता और भलाई से बड़ी हो गई है तो इरादे नेक कैसे हो सकते हैं । भगवान देश को बचा लो इंसानों की कीमत नहीं है मगर देश का महत्व है इस से सभी सहमत होंगे ही । टीवी चैनल की अदालत में सच खड़ा आवाज़ दे रहा भगवान मुझे इनसे बचाओ मेरा क़त्ल रोज़ होता है देख कर भी कोई देखना नहीं चाहता । 
 
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