नवंबर 30, 2021

साहित्य में आरक्षण ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

         साहित्य में आरक्षण ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

ये कभी सोचा ही नहीं था आज इक साहित्य की पत्रिका को लेकर रचना भेजने की बात हुई तो सुनकर हैरानी हुई कि अगले काफी अंक निर्धारित किये जा चुके हैं कैसे रचनाकार शामिल करने हैं। खुद उन्हीं के शब्दों में अगला विशेषांक बड़े बड़े सरकारी अधिकारियों की रचनाओं को लेकर होगा। साहित्य की इस दशा पर गर्व कर सकते हैं या खेद जता सकते हैं ये वही जाने जो साहित्य में भेदभाव से आगे बढ़कर ख़ास वर्ग को आरक्षण देने की बात सोच भी सकते हैं। शायद जिनकी रचनाएं छपनी हैं उनको भी ये समझ आया होगा ये अनुकंपा किसी विशेष उद्देश्य से हासिल होगी। चलो कल्पना करते हैं कोई उच्च पद पर बैठा सत्ता के नशे में मस्त अपना नाम साहित्यकारों में शामिल करवाना चाहता है तो कोई कठिनाई नहीं होगी। मुझे कोई अठाहर वर्ष पुरानी घटना याद आती है , शाम का समय था मेरे घर के करीब ही इक अखबार के पत्रकार के दफ़्तर में बैठे बातें करते करते उनके कूड़ेदान पर नज़र गई देखा सफेद कागज़ पर टाइप की कुछ कविता जैसी झलक दिखलाती हुई रचनाएं फेंकी गई थी। उनसे अनुमति लेकर कूड़ेदान से उठाकर पढ़ना चाहा क्योंकि उन्होंने बताया था कि उपायुक्त के दफ़्तर से कोई प्रेस नोट के साथ ये भी दे गया जो अखबार की कोई खबर नहीं बन सकता इसलिए सही जगह कूड़ेदान में पहुंच गए रद्दी कागज़। रचनाएं अच्छी या खराब की बात नहीं मगर जिनको मिली उनको किसी काम की नहीं लगी। मुझे लगा चलो इतना तो पता चला शहर का बड़ा अधिकारी साहित्य में रूचि रखता है। 
 
मैंने अगले दिन उनको फोन कर बताया हम शहर में कुछ लिखने वाले हैं जो कब से साहित्य की इक संस्था का गठन करने की कोशिश करते रहे हैं मगर सफल नहीं हुए। उन्होंने मुझसे सभी ऐसे लोगों को बुलाने को कहा तो मैंने कहा कोशिश करता रहा मगर कोई न कोई रूकावट खड़ी हो जाती है। ठीक है आप मुझे सबके फोन नंबर भेज देना किसी दिन मैं खुद सबको इकट्ठा कर साहित्य की सभा गठित कर लूंगा। और फिर हरिवंश राय बच्च्न जी का निधन होने पर श्रद्धा अर्पित करने को सभा बुलाई गई जनवरी 2003 का आखिरी सप्ताह था। हर महीने पच्चीस तीस लोग मिलते कविता पाठ करते मगर वास्तव में कोई अफसराना ढंग उनका नहीं था सब इक समान थे बड़े छोटे का कोई भेदभाव नहीं था। तबादला होने पर उन्होंने कोशिश की थी इक चेक सरकारी कोष से देने की लेकिन हम सभी ने स्वीकार नहीं किया क्योंकि हम सभी सदस्यों ने जितने भी आयोजन किये थे खुद अपनी जेब से पैसे खर्च कर किये थे। कभी किसी अधिकारी किसी नेता किसी धनवान सेठ साहूकार से चंदा नहीं मांगा था। मगर सभी अधिकारी इक जैसे नहीं होते इसका अनुभव भी होता रहा है। 
 
साहित्य अकादमी का निदेशक हमेशा कोई अव्वल दर्जे का लेखक होता है मगर इक बार सत्ता से मधुर संबंध रखने वाले इक पब्लिशर पर शासक की अनुकंपा हुई। उनका कारोबार पुस्तक छापने से अधिक बेच कर कमाई करने का था। बस उन्होंने अंधा बांटे रेवड़ियां मुड़ मुड़ अपनों को दे की बात सच साबित कर इक ऐसी परंपरा शुरू की जिसको भविष्य में कोई बदल नहीं सकता है। शासक राजनेताओं का नाम उनकी महिमा का गुणगान कर साहित्य अकादमी का बजट बढ़ते बढ़ते कई करोड़ हो गया। राज्य भर में साहित्य चेतना यात्रा का आयोजन किया गया लेकिन शहर के लिखने वालों से नहीं मिल कर अधिकारी वर्ग के साथ जलपान आदि करते करते साहित्य को छोड़ अन्य मकसद साधते रहे। जब जो भी राजनेता सत्ता में आता है उसी तौर तरीके से अपने अधिकार का उपयोग करता है। कुछ साल पहले शासक की पहचान का इक लेखक उनसे मिलने उनके निवास राजधानी गया और अपनी दो पुस्तक भेंट की उनको। शासक ने अपने संगठन के साथी को अगले ही दिन दो लाख की पुरुस्कार राशि देने की बात कह दी। साहित्य अकदमी के नियम में बदलाव कर मैं चाहे जो करूं मेरी मर्ज़ी शासक ने कर दिखलाया। ऐसे ही किसी अन्य को सम्मान पुरुस्कार देना था लेकिन वो अपने राज्य में रहते नहीं थे तो किसी और के घर के पते पर रहने की व्यवस्था औपचरिकता निभाने को करना कोई कठिन नहीं था। साहित्य में बड़े अधिकारियों को महत्व देना काम आता है लेकिन उनको आरक्षण की आवश्यकता पड़ना उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं लगता है। ये कुछ अलग ढंग का तालमेल है भाईचारा से बढ़कर याराना बनाने की बात है। ऊपर जाने की सीढ़ी जो आपको वास्तव में नीचे धकेलती है। काल्पनिक रचना है किसी व्यक्ति की बात नहीं व्यवस्था की बात है। संयोग से घटना मेल खा जाए तो अलग बात है इरादा किसी पर आरोप आक्षेप लगाना हर्गिज़ नहीं। चोर की दाढ़ी में तिनका जैसा होना मुमकिन है।
 
 

नवंबर 29, 2021

परियों की रानी की डोली ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया

    परियों की रानी की डोली ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया 

चार कहार अपने कांधों पर उठाए सजी हुई पालकी में घूंघट ओढ़े बैठी दुल्हन को राजमहल की तरफ बढ़े जा रहे थे। सत्ता के कदम डगमगाते झूमते जश्न मनाते मौज मस्ती में राजधानी की मुख्य सड़क पर बढ़ते चले जा रहे थे। आगे पीछे दाएं बाएं चारों तरफ सुरक्षा का घेरा कायम था सत्तासुंदरी मदिरा का सरूर हल्का हल्का पूरी राजसी बरात पर असर दिखला रहा था। डोली मयकदे से परियों की रानी को लेकर चली चलती जा रही थी। शासन को अपनी शान बढ़ानी थी राज्य भर में शहर शहर गांव गांव गली कूचे में बहुबेगम का ठिकाना बनाया हुआ था तरह तरह की मय की बोतल कितने रंगीन परिधान पहने मचलती सी आगोश में आने को नज़दीक खींचती लगती थी। लोग दो घूंट मुझे भी पिला दे साकी कहते अपने पर्स से नोटों को निकाल डोली पर फैंकते पैसों की बारिश हो रही थी। शराब खराब नहीं होती कभी भी शराबी नाहक बदनाम हैं। न-तज़रबा-कारी से वाई'ज़ की हैं ये बातें , इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है। अकबर इलाहाबादी फरमाते हैं। शराबी फ़िल्म देखने वाले अभिनेता को इतना चाहते हैं कि ऊंचे आसमान पर बिठा देते हैं। बड़ी मुबारिक चीज़ है माना कि बहुत बदनाम है ये छू लेने दो नाज़ुक होंटों को , कुछ और नहीं है जाम है ये। कुदरत ने जो हमको बख़्शा है वो सबसे हसीं इनाम है ये। साहिर लुधियानवी जी फ़रमाते हैं। राजकुमार अभिनेता की बात ही अगल थी जानी हम वो हैं जो शीशे से पत्थर को तोड़ते हैं। झूठ नहीं कहता ये दुनिया कभी इतनी खूबसूरत और रंगीन नहीं होती अगर शराब मयकदा साक़ी और पीने वाले नहीं होते। जन्नत की चाहत लोग परियों और शराब की आरज़ू में करते हैं मरने के बाद जीते जी प्यासे रहते हैं। 
 
शराब का नशा कुछ पल का नशा है असली नशा मुहब्बत का होता है जो हर किसी को नसीब नहीं होता है। महंगी सस्ती होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है पीने वाला और पिलाने वाले का अंदाज़ तौर तरीका कैसा है अंतर उस में है। मैं खुदा का नाम लेकर पी रहा हूं दोस्तो , ज़हर भी इसमें अगर होगा दवा हो जाएगा। बशीर बद्र जनाब कहते हैं। शायरी और शराब साकी और मयखाना इनका रिश्ता कमल का होता है। शराब से बढ़कर कोई साथी नहीं हो सकता इक यही है जो ख़ुशी को कई गुणा बढ़ाती भी है और हज़ारों ग़म को भुलाती भी है। महान शायर कह गए हैं जिसको शराब मिल जाये उसको कुछ और क्यों चाहिए बस यही खुद इंतज़ाम करना पड़ता है बाकी सब ऊपरवाला खुद देता ही है। सरकार शराब के सहारे ज़िंदा रहती है चुनाव लड़ने से सरकारी खज़ाने भरने तक बस उसी का भरोसा नेताओं को रहा है। अधिकारी कर्मचारी आपसी भाईचारा बनाये रखने को पीने पिलाने के दौर चलाते रहते हैं दफ़्तर के झगड़े रिश्वत का बटवारा की तकरार खत्म होती है शाम की रंगीन महफ़िल में जाम से जाम टकराते ही। 
 
शराब हौंसला बढ़ाती है नशे में आदमी असंभव को संभव कर दिखाता है। बज़ुर्ग सुनाया करते थे इक बादशाह रात को हाथी पर शहर का मुआयना करने निकला तो इक शराबी ने नशे में पूछा बताओ ये हाथी कितने का दोगे मुझे खरीदना है मुंहमांगे दाम दूंगा। बादशाह ने सुबह दरबार में बुलाया और पूछा बताओ क्या कीमत लगाओगे मेरे हाथी की। उसने जवाब दिया सरकार रात वाले व्यौपारी चले गए अब सौदा नहीं हो सकता है। शराब का नशा दौलत शोहरत ताकत सत्ता अहंकार का नशा उतरता है तो अपनी औकात पर पहुंच जाते हैं सभी अन्यथा है कोई पूछता है तेरी औकात क्या है यानि बंदा नशे में है । मुझको यारो माफ़ करना मैं नशे में हूं। 
 

 

नवंबर 25, 2021

दिल-औ दिमाग़ के जाले साफ़ कर ( आत्मचिंतन ) डॉ लोक सेतिया

  दिल-औ दिमाग़ के जाले साफ़ कर ( आत्मचिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर कभी सही निर्णय नहीं लिए जा सकते हैं। पंचायत अदालत जब किसी विषय पर विचार करती है तब इंसाफ करने को पहली शर्त अपना नज़रिया छोड़ निरपेक्ष होकर विवेक से सोचना समझना होता है। हम कौन हैं पुरुष हैं या नारी हैं उस धर्म या इस धर्म किस नगर गांव देश के हैं किसकी संतान हैं किस से क्या संबंध है इन सभी बातों को एक तरफ रखकर समझना चाहिए। यहां केवल समझने को कई विषय पर विमर्श करना है। शुरआत शानदार भवन उपासना करने को बनाने से करते हैं। ईश्वर को किसी आलीशान महल की चाहत भला हो सकती है अगर चाहता तो खुद बना सकता था उसकी बनाई पूरी दुनिया धरती आकाश पानी हवा जीव जंतु पेड़ पौधे सुंदरता की अनुपम मिसाल रंग बिरंगी कलिया फूल धूप छांव उजाला अंधेरा रात दिन मौसम हरी वादियां चांद सितारे कितना कुछ जिसकी कोई सीमा नहीं गिनती नहीं सब उसी का घर ही है कोई उसको किसी छोड़ी जगह रखने की कोशिश करता है तो नासमझ है। क्या आदमी खुद को ईश्वर से विधाता से ऊपर समझता है जो दावे करता है कहां कितने भव्य मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे गिरिजाघर निर्माण कर रहे हैं। खुद को हर धर्म से अलग कर ईश्वर पर विश्वास करते हुए सोचना क्या ख़ुदा भगवान विधाता जो एक है एक ही है उसे अपने लिए हर जगह घर निवास करने को चाहिएं या उसको ख़ुशी होगी जब उसके पैदा किये सभी बंदे इक घर में रहें बेघर कोई नहीं हो। धर्म समाज के भलाई के नाम पर हमने इंसानों को छोड़ पत्थरों को महत्व देना कैसे शुरू किया कहां से सीखा है। हर धर्म वास्तव में सही भक्ति ईबादत पूजा उपासना का मार्ग अपनाता तो कोई भी दुनिया में बेघर बेआसरा बेसहारा बेबस नहीं होता और दुनिया कितनी खूबसूरत बन जाती। 
 
अब विषय देश में बहुमत जिस का है उस धर्म का सर्वोचता समझने का। देश में अधिकांश लोग गरीब हैं तो क्या गरीबों की पसंद से व्यवस्था होनी चाहिए और अगर सभी निर्णय गरीबी की रेखा से नीचे के वर्ग की इच्छा से लिए जाएं तो रईस अमीर लोग बहुमत की भावना को स्वीकार कर अपना सब सभी में बराबर बांटने को राज़ी होंगे। कहने भर को देश में लोकतंत्र है वास्तव में धन बाहुबल और चोर चोर मौसेरे भाई की तरह कुछ मुट्ठी भर लोग स्वार्थ की राजनीति और शासन सत्ता के अधिकारों का मनमाना उपयोग कर संविधान से छल कर रहे हैं कभी किसी को देश के अधिकांश लोगों ने मतदान में पचास फीसदी मत नहीं दिए हैं अर्थात तीस फीसदी पाकर सत्ता पर होते हैं और अधिकांश जनता की भलाई उनकी प्राथमिकता नहीं होती है। देश की सबसे बड़ी आबादी खेती पर निर्भर है क्या सभी किसान मज़दूर एक हो जाएं तो उनकी सरकार बन कर नौकरी कारोबार उद्योग सबके लिए मुश्किल खड़ी करने को नियम लागू कर सकते हैं। वास्तव में देश में अधिकांश लोग किसान मज़दूर महनत करने वाले खुदगर्ज़ मतलबी नहीं हैं उनको अपना पेट भरना है जीवन बसर करना है मगर बाकी सबको साथ रखकर सबके संग रहना है। खेद की बात है ये वर्ग खामोश रहता है शराफत से ईमानदारी से थोड़े में गुज़ारा कर संतुष्ट हो जाता है। धनवान राजनेता शासक अधिकारी राजनेता उनकी उपेक्षा करते हैं और उनको अधिकार भी ख़ैरात की तरह देते हैं। 
 
शिक्षित होकर हमने धन दौलत ताकत शोहरत पाने को क्या नहीं किया बस नहीं किया तो सच और झूठ को समझने परखने के बाद अपनी तर्कशक्ति से विचारधारा विकसित करने का कार्य कभी नहीं किया है। काले सफ़ेद की बात नहीं है बात होती है बापू के तीन बंदर खामोश रहने की सीख देते हैं बुराई को अनदेखा करना समस्या का समाधान नहीं उसको ख़त्म करना ज़रूरी होता है। ज़ालिम को ज़ालिम कहना खराब नहीं होता क़ातिल को मसीहा कहने से बचना चाहिए। जिसको खुद अपना पता नहीं मालूम वही दुनिया भर की खबर रखने का दावा करता है। मिट्टी के खिलौने की तरह तीन पुतले बनाकर कोई समझता है कि मेरे बनाये मिट्टी के पुतले भगवान बनकर कल्याण करेंगे। हम सभी जैसे किसी अंधे बंद कुंवें के मेंढक हैं जिनको कुंवा समंदर लगता है अफ़सोस इस बात का है कि हम अंधे कुंवे में रहकर खुश हैं बाहर निकलना ही नहीं चाहते और कोई बाहर निकालने की कोशिश करता भी है तो हम बाहर निकलते फिर वापस उसी कुंवे में छलांग लगा देते हैं। कैफ़ी आज़मी की नज़्म की तरह। और चिल्लाने लगते हैं हमको रौशनी चाहिए हमको आज़ादी चाहिए। 
 

 

नवंबर 23, 2021

धर्म ईश्वर धार्मिक स्थलों का रहस्य ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया

  धर्म ईश्वर धार्मिक स्थलों का रहस्य ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया 

ये सवालात पुराने हैं बचपन से दादाजी मुझसे धार्मिक किताबों को पढ़ कर सुनाने की बात करते थे। जाने क्यों धार्मिक कथाओं को पढ़ते पढ़ते मेरे मन में कई बातों पर उलझन होती थी तार्किक दृष्टि से समझना चाहता था बालमन। दादाजी परिवार के बड़े आदरणीय सदस्यों से बहस करना अनुचित होता ये शिक्षा मिली थी फिर भी घर में जब कभी भगवाधारी संत साधु सन्यासी आया करते तब उनसे पूछने की कोशिश करता था जिसको वो एवं अन्य लोग बचपन की नादानी नासमझी है सोचकर महत्व नहीं देते थे। थोड़ा बड़ा हुआ तो ईश्वर धर्म को जानने समझने की उत्सुकता को नास्तिकता घोषित किया जाने लगा। मगर मन मनस्तिष्क में उथल पुथल जारी रही मैंने धर्म को लेकर कुछ किताबों का अध्यन किया धर्म उपदेशकों से मिलने पर अपनी जिज्ञासा और शंकाओं पर चर्चा की लेकिन कोई संतोषजनक जवाब किसी से मिला नहीं कभी अभी तक भी। सभी धर्म इस पर एकमत हैं कि सत्य ही ईश्वर है और ईश्वर ही सत्य है। सत्य हमेशा एक समान रहता है किसी की मर्ज़ी सुविधा से सत्य घटता बढ़ता नहीं है सत्य में झूठ की मिलावट कभी संभव ही नहीं है ठीक उसी तरह जैसे घी और जल नहीं मिलते कभी। 
 
मैंने किसी धार्मिक पुस्तक में ऐसा लिखा नहीं पढ़ा कि ईश्वर की उपासना धर्म के मार्ग पर सच्चाई की राह पर चलने के लिए किसी धार्मिक स्थल मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरुद्वारा की आवश्यकता होती है। ईश्वर को पाने की नहीं समझने की ज़रूरत होती है और विधाता किसी भी नाम से मानते हैं उसको हर प्राणी में धरती के कण कण में निवास करने पर भरोसा होना चाहिए। चाहे कोई भी हो अगर धार्मिक जगह जाता हो पूजा अर्चना ईबादत नाम जपना माला फेरना जैसे कार्य करता हो लेकिन आचरण में धार्मिक पावन और हर जीव जंतु मानव से प्यार की भावना नहीं रखता हो तब उन बातों का कोई औचित्य नहीं केवल दिखावा आडंबर है। भगवान को आप कुछ भी दे ही नहीं सकते क्योंकि उसी ने दुनिया बनाई सबको जो भी मिला दिया ऐसे में दाता को भिखारी कैसे बना सकते हैं वास्तव में ईश्वर को रहने को कोई ईमारत नहीं चाहिए उसको हमको अपने हृदय में चेतना में रखना चाहिए। जब मन में परमात्मा का निवास होगा तब कोई पाप कोई अपराध कोई अन्याय कोई अत्याचार कैसे कर सकते हैं। अपने स्वार्थ में अंधे होकर सिर्फ अपनी महत्वांकाक्षा पूरी करने वाले सबसे पहले अपने भीतर से परमात्मा को बाहर निकालते हैं। 
 
धार्मिक स्थल आयोजन कभी अनुचित तरीके से नहीं किये जा सकते हैं। दान धर्म तभी उचित है जब कमाई नेक और ईमनदारी की से करते हैं। अनुचित ढंग से अवैध रूप से धार्मिक जगह बनाएंगे तो क्या ईश्वर ऐसी जगह रहना पसंद करेंगे इस विषय पर सोचना। महान साधु संतों ने कभी धनवान लोगों , शासक वर्ग या ताकत के ज़ोर पर कमज़ोरों को सताने दबाने वालों के सामने घुटने टेकना मंज़ूर नहीं किया बल्कि उनको साफ शब्दों में गलत कहने का साहस किया। इधर आजकल जिधर देखते हैं कलयुगी धार्मिक समारोह में इन्हीं लोगों को मंच पर बिठाने का कार्य कर कोई मकसद साधने की बात होती है। लोभ लालच मोह माया छोड़ने का उपदेश देने वाले खुद ऐसे जाल में फंसे हुए हैं। रिश्वतखोर व्यवसाय कारोबार में लूटने वाले अपनी काली कमाई से समाजसेवा कर धर्मात्मा कहलाना चाहते हैं। धर्म की मानव कल्याण की डगर कठिन है अधर्म पाप अनाचार अत्याचार लूटने के कर्म कर हराम की कमाई से समाजसेवा करना असली चेहरे पर नकली मुखौटा लगाना है। 
 
जिस समाज में आधी आबादी भूखी रहती है बच्चों को शिक्षा नहीं मिलती सर्दी ठंड गर्मी धूप लू बारिश में लोग छत को तरसते हैं कोई धर्म उन दीन दुखियों की सहायता छोड़ धार्मिक आडंबर करने ऊंचे ऊंचे भवन बनाने की बात कैसे समझा सकता है। जब हर धर्म की शिक्षा मानवता समानता की बात करती है तब हर जगह सभाओं में ख़ास लोग धनवान सत्ताधारी होना साबित करता है कि धर्म पालन करने से अधिक धार्मिक होने कहलाने की आकांक्षा महत्वपूर्ण हो गई है। बड़े बड़े शासक राजनेता किसी तथाकथित संत के गैरकानूनी ढंग से पर्यावरण से खिलवाड़ करने वाले समारोह में शामिल होने से देश की न्याय-व्यवस्था और नियम कानून सबके लिए बराबर नहीं होना देख कर लगता है धर्म अधर्म का अंतर मिट गया है। सभा बेशक भ्रष्टाचार का विरोध करने को लेकर हो मंच पर रिश्वतखोर अधिकारी राजनेता विराजमान होते हैं तब लगता नहीं उनकी अंतरात्मा किसी अपराधबोध से ग्रस्त होती होगी। झूठ बोलने वाले कथनी और करनी में विरोधाभास का आचरण करने वाले जिस समाज में शोहरत और इज्ज़त पाते हैं उस में धर्म बचा कहां है और ईश्वर को मानना उस का भरोसा करना नहीं बस उसके नाम का दुरूपयोग करना चलन में है। हैरानी की बात है कुछ लोग खुद को भगवान समझने को अपनी खुद की धर्म की किताबें लिख कर अनुयाईयों को भटकाने का कार्य करते हैं ईश्वर को पाने की समझने की बात भूलकर ईश्वर बनने की चाह रखते हैं। विधाता ने कभी अपना गुणगान करवाना नहीं चाहा होगा सोचने पर समझ आता है कि ऐसा कोई साधारण व्यक्ति ही चाह रखता है भगवान कदापि नहीं।
 

नवंबर 19, 2021

मैं कतरा हो के भी तूफ़ां से जंग लेता हूं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  मैं कतरा हो के भी तूफ़ां से जंग लेता हूं ( हास-परिहास )

                                 डॉ लोक सेतिया 

विषय बदल गया है साल तक जिन कृषि कानूनों के फायदे समझा रहे थे अचानक हिसाब लगा रहे हैं उनको हटाने से कितना मुनाफ़ा होगा। राजनीति की शतरंज की बिसात पर मोहरे कब चाल बदलते हैं खेलने वाले खिलाड़ी जानते हैं किस समय कैसे शह - मात की बाज़ी खेलनी है। बात पुरानी है किसी राजनेता ने किसी शायर का शेर पढ़ा था मेरा पानी उतरते देख कर किनारे पर घर मत बना लेना , मैं समंदर हूं लौट कर ज़रूर आऊंगा। समंदर होने का गरूर चूर चूर भी होते देखा है जब हर कतरा अपनी हैसियत समझाने लगे खुद को विशाल समझने या ऊंचाई का शिखर समझने वाले इतिहास में पहले भी वक़्त की ठोकर से सही अंजाम तक पहुंचते देखे हैं। सत्ता मिलने से बंदा ख़ुदा नहीं बन जाता है राजनीति की डगर फिसलन भरी होती है पांव डगमगाते क्षण भी नहीं लगता है। सरकार हमेशा दावा करती है जनता की भलाई करने का जबकि उसको खज़ाना भरने से मतलब होता है घोड़ा घास से दोस्ती करेगा तो खाएगा क्या। ज़हर देने की ज़रूरत नहीं होती चारागर अगर दवा ही नहीं दे तो मन की बात सच हो जाती है और क़त्ल का इल्ज़ाम भी नहीं लग सकता। मुझे वसीम बरेलवी जी की ग़ज़ल का शेर याद आता है। मैं कतरा हो के भी तूफ़ां से जंग लेता हूं। ये है तो सब के लिए हो ज़िद हमारी है , इस एक बात पे दुनिया से जंग जारी है। ये इक चिराग़ कई आंधियों पे भारी है। 
 
गलत को गलत समझना पड़ता है तभी उसको ठीक करने की बात होती है। मुश्किल होगी जब सरकार जनाब की हर बात पर ताली बजाने वालों को अख़बार टीवी चैनल पर बात को बदल कर बताना पड़ेगा तीन कृषि कानून को निरस्त करने से फ़ायदा होगा। कतरे की ज़िद के सामने झुकना समंदर की तौहीन होगी लेकिन बगैर कतरे समंदर की कोई औकात ही नहीं सीधी सी बात समझ नहीं आती कई बार। चुनावी नतीजे जब निकलेंगे तब निकलेंगे खुद को चाणक्य बताने वाले सर्वेक्षण का धंधा चलाने वाले नहीं जानते नैया बीच भंवर हिचकोले खाएगी डूबेगी कि पार होगी। किनारे पर भी कश्तियां डूबती रहती हैं अब अगर ये पांसा भी उल्टा पड़ा तो वही होगा न खुदा ही मिला न विसाले सनम , न उधर के रहे न इधर के रहे। मुहब्बत की बात होती तो हार कर भी जीत जाते हैं लेकिन सत्ता की राजनीति में आंकड़ों की बाज़ी पलटना भला कैसे मंज़ूर होगा। धड़कन बढ़ती जाएगी बड़ी क़यामत की घड़ी सांस से सांस मिली तो सबको सांस आएगी। अभी किसी को समझ नहीं आएगा कि सरकार पहले सही थी या अब सही है लेकिन कहावत है शासक ताकतवर कभी गलत नहीं ठहराए जाते हैं। कुछ बातें राज़ भी होती हैं और हर कोई जानता भी होता है जैसे हमारे देश में पुलिस का रिश्ता अपराधियों से आंख मिचोली खेलने जैसा होता है। आम लोग अपराध होने पर पुलिस के पास जाते हैं शिकायत करने जबकि अपराधी पहले से भाईचारा बनाने और निभाने की व्यवस्था कर लेते हैं। पुलिस विभाग का चौबीस घंटे उपलब्ध नंबर मिलाने पर मिल भी जाये तो सूचना देने वाले से पूछताछ करने लगते हैं ताकि गुनाह करने वाला बच कर निकल सके। पुलिस वाले विश्वास करते हैं कि अपराध होते हैं तभी उनकी नौकरी वेतन के साथ कितना कुछ मिलता है अत: अपराध खत्म होना उनके हित की बात नहीं होगी। जुर्म होने पर धरे जाने के बाद पुलिस जांच के नाम पर पीड़ित पक्ष को ही परेशान करती है मुजरिम खुला आज़ाद फिरता है। देश की सबसे बड़ी अदालत कहती है उसको लगता है अमुक मामले में पुलिस की जांच इक मिसाल है खराब जांच की। 
 
इक कहानी है जिस में रात को सुनसान जगह पर डाकू रास्ते में कुछ लोगों को घेर लेते हैं मगर मुसाफिर बताते हैं कि हम कवि शायर लोग हैं किसी शहर से कवि सम्मलेन में भाग लेकर लौट रहे हैं। हमको कोई पैसा दौलत नहीं मिलते हैं सिर्फ तालियां और वाह वाह सुनकर खुश हो जाते हैं। हां कोई कोई बड़ा मशहूर हो जाता है तब उसको ईनाम धन दौलत हासिल होती है। डाकू सरदार उनसे नामी शायरों के नाम पते लिखवा लेते हैं और कुछ दिन बाद अपनी बिरादरी का विशेष उत्सव मनाने को कवि सम्मलेन आयोजित करते हैं। कविताएं सुनते हुए शानदार उपहार धन दौलत देकर खुश कर उनको विदा करते हैं लेकिन कुछ दूर पहुंचने पर उनको घेर कर लूटने लगते है सब। कवि शायर कहते हैं छीनना ही था तो पहले दिया ही क्यों तब डाकू सरदार कहते हैं वो हमारा शौक था मौज में दिया लेकिन ये हमारा धंधा है इसलिए अपना काम नहीं छोड़ सकते। बंदूक जिनके हाथ होती है उनका हर निर्णय सही होता है प्यार जतलाना भी और ज़ुल्म ढाना भी शासक का मिजाज़ कब बदले कौन जानता है।
 

                     

 

 

नवंबर 10, 2021

ज़िंदगी जीने का सलीका यही है ( गीता सिंह गौड़ --- केबीसी ) डॉ लोक सेतिया

   ज़िंदगी जीने का सलीका यही है ( गीता सिंह गौड़ ) डॉ लोक सेतिया

53 साल की विवाहित घर परिवार चलाने वाली आत्मविश्वास और संयम स्वाभिमान की पूंजी लिए उस महिला ने आचंभित और प्रभावित कर दिया हर किसी को। बड़ी सादगी से बिना कोई दिखावा आडंबर किये अपनी ज़िंदगी की किताब को सामने रख कर सामाजिक समस्याओं की ओर ध्यान दिलवाने के साथ किसी गिला शिकवा शिकायत आंसू बहाये बगैर उनका सामना करने और वास्तव में प्रगतिशीलता की राह चलने की मिसाल खुद बनकर असंभव कुछ भी नहीं है समझाया। 8 - 9 नवंबर के केबीसी एपिसोड का देखने का बेमिसाल था। शायद ही कभी भाग लेने वाला किरदार में शख़्सियत में अमिताभ बच्चन ही नहीं आधुनिक काल में अन्य जाने माने अन्य नायकों से ऊंचा चमकदार और वास्तविक आदर्श बनकर उभरा दिखाई दिया पहले कभी भी। मुख्य विशेषताओं पर चर्चा करते हैं। 
 
ऐसे गांव समाज जिस में बेटियों को जन्म लेते ही मौत देने की रिवायत रही हो जन्म लेकर अपने दादा जी की ज़िंदगी से सबक सीख कर परिपक्व विचारों वाली महिला बनना ऐतहासिक पौराणिक कथाओं से भी बढ़कर शिक्षा देता है। गीता जी ने बताया उनके दादा जी ने बेटियों को मारने से बचाने को बड़ा ही सही तरीका अपनाया था। जब जिस किसी घर में बच्चे का जन्म होना होता था उसके दरवाज़े के बाहर बैठ जाते और बच्चे की किलकारी सुनकर ही उठते दर से। शिक्षा दिलवाने को गांव से दूसरे शहर परिवार को ले जाकर बेटी को सही परवरिश देने और एम ए तक पढ़ाया गया और विवाह किया गया। गीता जी एल एल बी करना चाहती थी मगर पति ने समझाया उनके समाज में संभव नहीं होगा और वास्तविकता को समझा स्वीकार किया।लेकिन पारिवारिक दायित्व निभाने के बाद घर पति बच्चों की ज़िम्मेदारी निभाते हुए रात को जाग कर पढ़ाई करती रही। 36 साल की होने पर बच्चे बड़े हो जाने के बाद पति से अगर वकालत की पढ़ाई करने पर सहमति पाकर एल एल बी कर ली लेकिन सरकारी नौकरी पाने की आयु निकल चुकी थी। अपनी मंज़िल की तरफ बेहद शांति शालीनता से चलती रही कोई बहाना कोई परेशानी आड़े नहीं आई साहस के सामने। 
 
अपनी सोच और बुद्धि की परिपक्वता विचारों की उनको मार्ग दिखलाती रही और अपनी बेटी का विवाह करते समय अपने पति से कहा कि महिला लड़की बेटी कोई वस्तु नहीं होती जिस को दान दिया जाए। और उन्होंने निर्णय लिया बेटी का विवाह करते कन्यादान नहीं करेंगे और भारतीय अन्य सोलह संस्कारों से एक पाणिग्रहण संस्कार किया गया। विदा करते हुए बिटिया को कहा हमने तुझे दान नहीं किया है छोड़ा नहीं है ये घर तुम्हारा है और हमेशा रहेगा। ससुराल तुम्हारा दूसरा घर है लेकिन अगर कभी भी तुमको कोई परेशानी हो तुम अपने घर आ सकती हो और तुम्हारी एक आवाज़ पर हम तुम्हारे पास होंगे। गीता जी का कहना था हर माता पिता को बेटी से ऐसा कहना चाहिए। अपनी पुरानी परंपरा को निभाते हुए विदाई के समय बेटी के हाथों की छाप दीवार पर नहीं इक कपड़े पर लेकर सहेज कर सुरक्षित रखी है। अगले महीने उनकी बहु घर लानी है बेटे का विवाह निर्धारित हो चुका है उस अपनी बहु का स्वागत अलग ढंग से करने की तयारी की हुई है। घर प्रवेश करते समय धरती पर पांव की छाप की जगह इक कपड़े पर चल कर गली से घर तक लाने की व्यवस्था की जाएगी ताकि उस कपड़े पर बहुरानी के गृहलक्ष्मी के पैरों के निशान हमेशा को संभाल कर शानदार याद की तरह रखे जाएं। 
 
कहीं उनकी किसी बात में नाटकीयता या नकली पन नहीं दिखाई दिया। किसी बड़े नाम वाले से प्रभावित होने जैसा कुछ भी नहीं लगा। किसी क्विज़ से जानकारी पाने की बात अवश्य कही जिसको एकलव्य की तरह बिना मिले देखे शिक्षा पाने को गुरु समझा। पहली बार हुआ कि एक करोड़ के कठिन सवाल का जवाब दो विशेष सहायक लाइन उपलब्ध होने के बाद भी आत्मविश्वास से अपनी जानकारी पर भरोसा रखते हुए दिया जबकि शायद हर कोई शंका मिटाने को उपयोग करना चाहता। इस बात का महत्व बहुत है जो बताता है कि जब आपको खुद पर भरोसा हो तब उपलब्ध होने पर भी किसी की सहायता नहीं लेनी चाहिए। खुद अपने दम पर अपनी राह बनाकर चलने वाले विरले होते हैं। बहुत कुछ याद आ रहा है शेर ग़ज़ल कविता कहानी सब बड़े उच्च कोटि के विद्वान की बातें लेकिन जो खुद रौशनी देते हैं जुगनू सूरज से उजाला नहीं उधार लेते इसलिए किसी का ज़िक्र यहां हर्गिज़ ज़रूरी नहीं है। गवालियर की गीता गौड़ खुद मिसाल हैं और उनको भविष्य में बहुत कुछ कर दिखाना है।

 Gwalior homemaker Geeta Singh Gour becomes third 'KBC 13' crorepati at Big B hosted show

नवंबर 07, 2021

राज़ खुला ज़िंदगी बिता कर ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया

   राज़ खुला ज़िंदगी बिता कर ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया 

कहो कैसी रही ज़िंदगी , दुनिया से वापस आने वाले से ऊपरवाला यही पूछता है। लोग हैरान हो जाते हैं उलझन में पड़ जाते हैं जवाब देते नहीं बनता है। चिंता की कोई बात नहीं है आपको समय मिलेगा याद कर जवाब लिख कर दे सकते हैं जैसे स्कूल कॉलेज में परीक्षा देते थे आपको समझाने को रखे हुए हैं तमाम देवी देवता। खुद पहुंच जाते हैं शानदार परीक्षा भवन में , सबसे पहले आपको समझाया जाता है करना क्या है और मकसद क्या है। कोई देवता आपका स्वागत करते हुए बतलाता है आपको हर किसी इंसान को ईश्वर खाली भेजता है और खाली वापस बुलाता है। कुछ भी बंधन कोई अनुबंध नहीं होता है आपको अपने विवेक से अपनी अर्जित जानकारी शिक्षा अनुभव से ज़िंदगी जीने की पूर्ण आज़ादी होती है। उपरवाले ने धरती पर बेहद खूबसूरत दुनिया बनाई थी इंसानों पशु पक्षी जानवर सबको अपने अपने तरीके से उस दुनिया को सुंदर बनाना था। बस यही बताना है अपने जन्म लेकर मरने तक उपरवाले की बनाई दुनिया को सजाया संवारा या बर्बाद किया है। दुविधा हो जवाब देने में तो हम सामने विराजमान हैं सभी देवदूत देवी देवता जिस से जिस तरह की मदद चाहो मांग सकते हैं संकोच की आवश्यकता नहीं है। 
 
कोई खड़ा होकर कहता है क्या हमको बताना होगा कितना भगवान का नाम जपते रहे मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरूद्वारे बनाते उस में जाकर पूजा ईबादत धार्मिक कार्य करते रहे। दान दिया धार्मिक आयोजन किये माला जपते रहे हवन अनुष्ठान आदि करते रहे। उसको बताया गया इन बातों का महत्व नहीं है आपने  क्यों समझ लिया मानव जीवन पाकर आपको सार्थक ढंग से जीने को इनकी ज़रूरत है। भगवान को इन सबकी चाहत नहीं हो सकती है आपको ईश्वर की काल्पनिक तस्वीर बनाने उसकी वंदना करने की कोई ज़रूरत नहीं थी। आपको दुनिया को रंगीन रौशन और शांत बनाने को आपसी भाईचारा प्यार मुहब्बत बढ़ाने को कल्याण का मार्ग निर्माण करना था। ईश्वर से शिकायत या विनती नहीं बल्कि उसका आभार व्यक्त करना था आदमी को सबसे समझदार और विवेकशील बनाने के लिए। किसी के उपदेश को बिना समझे मानकर अनावश्यक अंधविश्वास की बातें करना अपनी बुद्धि का इस्तेमाल नहीं करना उचित नहीं था। आपको सबसे बड़ा अधिकार महत्वपूर्ण वस्तु मिली अपने व्यर्थ गंवा दिया। कभी किसी ईश्वर ने कोई किताब नहीं लिखी न लिखवाई है उसको अपने खुद को साबित क्यों करना था और किसको करना था। आपको खुद खुश रहना था और सबको खुशियां बांटनी थी जबकि अधिकांश लोग खुदगर्ज़ बन कर ऐसे कार्य करते रहे जिनसे किसी और को परेशानी दुःख दर्द मिलता हो। ऐसे जिन्होंने कांटे उगाने बबूल बोने का काम किया उनको फल भी वैसे मिलते रहे इसको विधाता की तकदीर की बात नहीं अपने कर्म का नतीजा समझ सकते हैं। 
 
ऐसे ही किसी अन्य को बताया गया है अपने उपरवाले की तस्वीर मुर्तियां जाने क्या क्या अलग अलग ढंग से शक़्ल देकर तमाम निर्माण कार्य किये मगर वास्तव में ये संभव ही नहीं था। जिस ने खुद आपको इंसान को जीव जंतुओं पशु पक्षियों को करोड़ों ढंग से बनाया उसको कोई इंसान कल्पना से बना ही नहीं सकता है। वास्तव में तमाम लोग मंज़िल और रास्ते खोजने में जीवन भर इधर-उधर भटकते रहे और जीना भूल कर कितनी बार मरते रहे। आपको जैसा भेजा था बिना कोई निर्देश बिना कोई जमाराशि बिना कोई क़र्ज़ जैसे मर्ज़ी ज़िंदगी जीने को आपने ज़िंदगी का उपयोग कर दोस्त हमराही अपने चाहने वाले हमदर्द बनाने थे। अपनी जीवनी को प्यार के रंगों से भरपूर कहानी का आकार देना था लेकिन शायद अधिकांश खुद ही अपनी कथा के अनावश्यक किरदार बन कर रहे। नायक बनना कठिन था खलनायक कहलाना नहीं चाहते थे। सभी इंसान बराबर हैं इंसानियत सभी का धर्म नहीं बल्कि जीवन का सही मार्ग है मिल जुलकर आपसी सदभावना बढ़कर ख़ुशी से रहना था औरों को भी ख़ुशी से जीने देना था। ये ढाई अक्षर की पढ़ाई थी सबको समझाई थी आपको दोस्ती समझ नहीं आई थी किसलिए दुश्मनी निभाई थी। सबको खुद लिखना है और सिर्फ सच लिखना है झूठ नहीं चलता उपरवाले के दरबार में कितनी सच्चाई है आपके किरदार में। बाद मरने के ये राज़ खुलेगा बंदा गुनहगार नहीं खुदा का , मुजरिम है खुद अपनी कहानी का ऊपरवाला कभी किसी को सज़ाएं नहीं देता है वफ़ाएं नहीं करते जो उनकी सदाओं की कभी बालाएं नहीं देता है।
 
Insaaf Shayari In Hindi - 'इंसाफ' पर 10 बेहतरीन शेर... - Amar Ujala Kavya