आसमान उठा रखा है ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
सोशल मीडिया पर कुछ लोग यही कर रहे हैं। ऐसे कहावतें बहुत हैं और अधिकतर उनमें किसी न किसी जीव जंतु की बात होती है। वैसे तो सिख गुरुओं की बाणी में भी उस बात पर सवाल उठाया गया है जिसमें मान्यता है कि धरती इक बैल के एक सींग पर टिकी हुई है और जब बैल थककर सींग बदलता है तो भूकंप आता है। सोचने की बात है कि वो बैल भी खड़ा है तो उसके नीचे इक और धरती है फिर उस धरती के नीचे इक बैल और होगा। ऐसे कितनी धरती कितने बैल। विज्ञानिक चांद और बाकी ग्रहों तक जा पहुंचे अपने नीचे की धरती की सुध नहीं अभी भी। मगर बात आसमान की है , किस ने उठा रखा है। इक मान्यता की तरह कथा है कि इक बेहद छोटा सा जीव है जो जगता रहता है क्योंकि सब ने समझाया हुआ है कि जब कयामत आती है तो आसमान टूट कर धरती पर गिर जाता है , और जब भी उसको सोना होता है तब भी वो अपनी चारों टांगों को ऊपर की तरफ ही रखता है ये मानकर कि आसमान गिरा तो वो थाम लेगा। कुछ लोग खुद मानते हैं या नहीं मगर सभी को मनवाना चाहते हैं कि देश एक व्यक्ति के बिना नहीं कायम रह सकता। उन्होंने अपने हाथ पैर ऊपर आसमान की तरफ उठा रखे है ताकि उस नेता को सत्ता नहीं मिली तो वो उसी जीव की तरह कयामत को रोक लेंगे। उन्हें देश के इतिहास और संविधान का कुछ पता नहीं है उनके लिए जो उनका आका कहता है वही सच है। कितने झूठ पकड़े गए हैं और अभी भी झूठ पर झूठ बोल रहा है मगर तब भी आका को झूठा नहीं मानते हैं ये।
इक ऐसे बचपन के सहपाठी से बात हुई , हालांकि ऐसे लोग कभी विचार विमर्श और सार्थक वार्तालाप करने में यकीन नहीं रखते। जो उनकी बात से सहमत नहीं उसको भला बुरा कहने से देश का दुश्मन तक बता सकते हैं। उनको स्वस्थ लोकतंत्र में मतभेद और बहस का मतलब नहीं पता। बंद कुवें में कैद कैफ़ी आज़मी की कविता के लोगों की तरह , रौशनी चाहिए आज़ादी चाहिए का शोर मचाते हैं मगर कोई उनको कुंवे से बाहर निकाले तो घबरा जाते हैं खुली हवा और रौशनी को देख कर , और खुद ही वापस छलांग लगा देते हैं कुंवे के अंदर। और फिर से नारे लगाने लगते हैं। मगर ये मेरे सहपाठी हैं और भले सीधे नहीं टेङी तरह से राजनीति में हैं फिर भी शिक्षित हैं और सभ्य दिखाई देना भी चाहते हैं , तो बात की जा सकती थी। मैंने कहा आपको क्यों लगता है वही नेता सब ठीक कर रहे हैं , कमियां नहीं बताता आप अच्छाई क्या है बतला दो। जो जो भी कहते थे हुआ हो या किया हो तो दिखाओ , जवाब देते नहीं बना। ऐसे में उनके पास तुरुप का पत्ता यही होता है कि दूसरा कोई विकल्प ही नहीं है। उनकी समझ पर दया आती है। क्या इतना बड़ा देश एक व्यक्ति का कोई विकल्प नहीं तलाश कर सकता , कितनी बार कितने लोगों का ये भ्र्म तोड़ा है देश की जनता ने। बात उल्टी है उनके पास या उस नेता के पास विकल्प नहीं है , और किसी देश में उनको कुछ भी नहीं मिल सकता।
सालों से देखता रहा हूं इन लोगों को , कभी उस दल में कभी इस तो कभी किसी तीसरे दल में होते हैं। जिस दल में होते उसी के नेता को दंडवत चरण वंदना करते देखा है। अपनी आयु से बीस साल छोटे दल के नेता के सामने पांव को हाथ लगाते भरी सभा में। एक दोस्त चुनाव से कुछ दिन पहले बता रहे थे ये दल किसी की कदर नहीं करता है तीस साल रहने पर कुछ नहीं हासिल हुआ तब अपमानित होकर दूसरे दल में शामिल हुआ हूं , यहां बहुत अच्छा है। मगर हैरान हुआ जब फिर से वापस उसी दल में चले गए वो भी आदर की बात भुलाकर क्योंकि चुनाव में टिकट उन्हें नहीं किसी और को दिया गया। साफ़ कर सकता हूं कि जिस की बात पहले की उनके परिवार में किसी को। मगर अब दोनों एक साथ एक दल में हैं , बराबर भी हैं क्योंकि एक को टिकट मिला नहीं दूसरा चुनाव हार गया। ये दोनों जब हारते हैं तो अपनी बिरादरी को दोष देते हैं और जीत जाते तो अपने नेता को श्रेय देते हैं। यही इनकी समझ है कि वोट देने वाली जनता का दिल से आभार कभी नहीं मानते हैं।
आपने सुना होगा इक स्टिंग ओप्रशन कोबरा पोस्ट ने किया अभी अभी बताया गया है। उस में तमाम मीडिया वालों को टीवी चैनल वालों से लेकर पेटीएम तक उसी जीव की तरह पीठ के बल लेटकर शोर मचाना था कि अगर इक नेता को नहीं जिताया तो कयामत आने वाली है। वो सब ऊपर को चारों टांगें कर आसमान को गिरने से बचाने का काम कर रहे है , मगर देश की खातिर नहीं पैसे की खातिर।
लोग आज तक समझे नहीं सेवा में मेवा है का अर्थ क्या है। कुछ साल पहले की बात है हमारी एसोसिएशन के दो सदस्य मीटिंग में अपने अपने नाम का समर्थन देने की मांग करने लगे। संस्था को राजनीति से कोई सरोकार नहीं है और किसी को भी समर्थन नहीं मिलना था उनको भी पता था। आपसी हंसी मज़ाक में बात करते करते उनसे पूछा गया कि इतना लालायित क्यों हैं विधायक बनकर क्या करोगे। इक सदस्य खुशमिज़ाज हैं बोले यार पिछले दल में घर फूंक तमाशा देखा है , दलबदल किया ही है घाटे की भरपाई और कमाई करने को। ये कोई राज़ की बात नहीं है , लोग शहर के वार्ड के पार्षद बनते हैं तो मालामाल हो जाते हैं। सभापति बनने की चाह रखने वाले लाखों देते हैं ताकि सभापति करोड़ों लूट सके। सारा खेल पैसे का है।
आखिर में बात आसमान से शुरू की थी उसी पर आते हैं। आसमान का कोई अस्तित्व होता ही नहीं है , सब जानते हैं ये हमारी नज़रों की सीमा है और कुछ नहीं। डरिये नहीं आज तक आसमान के गिरने टूटने की कोई कथा कहानी तक नहीं लिखी मिलती है। ये जो आसमान उठाये हुए हैं का दावा करते हैं उनकी असलियत यही है। गांव वाले बताते हैं गड्डा , जिसे बैलगाड़ी कहते हैं , उसके नीचे नीचे इक कुत्ता चलता हुआ समझता है कि गड्डे का बोझ उसने उठा रखा है। देश चल रहा है जनता के दम पर किसी को मुगालते में नहीं रहना चाहिए।