कितने परेशान सवालात खड़े हैं ( देश के हालात ) डॉ लोक सेतिया
कहां से शुरूआत की जाए , भगवान जाने उसी को सब खबर होती है मानते हैं। मगर ध्यान आया ऋषि मुनि ईश्वर की खोज करते थे कठिन तपस्या के बाद दर्शन होते थे। इस आधुनिक युग में कोई विधाता दुनिया को बनाने वाले की तलाश कर भी ले तो क्या उनसे जवाब मिल जाएंगे। कोई उनसे कहे कि आपके लिए हमने या सरकार ने अथवा कुछ संस्थाओं संगठनों ने बड़े बड़े आलीशान शानदार महलनुमा घर बनवाए हैं जिन में चल कर आपको रहना होगा और जैसे मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे बनाने वालों ने निर्धारित किए हुए हैं उनका पालन करना होगा अपनी अर्चना ईबादत पूजा भक्ति स्वीकार कर वहां आने वालों को आशीर्वाद देकर उनकी आराधना का फल देना होगा। मुमकिन है ईश्वर को ये सब मंज़ूर नहीं हों और वो इन जगहों पर रहने को राज़ी नहीं हो। कोई भी ताकत भीड़ या सरकारी आदेश भी ईश्वर को विवश नहीं कर सकता उन स्थानों पर निवास करने को जिनका निर्माण सच्चाई ईमानदारी और पवन भावनाओं से नहीं तमाम तरह के स्वार्थ की खातिर मनमाने ढंग से किया गया हो। जिन को धर्म की देश सेवा की बात करनी चाहिए उनका पहला कर्तव्य इंसान की दुःख दर्द की चिंता होनी चाहिए , गरीबी भूख असमानता अन्याय को मिटाने पर बात छोड़कर भगवान और धर्म को अपनी मर्ज़ी से परिभाषित कर आदमी को आदमी से टकराव की राह भटकाने वालों पर वास्तविक ईश्वर मेहरबान नहीं हो सकते हैं। ऐसे सभी धार्मिक स्थलों में भगवान ईश्वर अल्लाह वाहेगुरु निवास करते हों धर्मगुरुओं की शिक्षाओं ग्रंथों को पढ़कर लगता नहीं है। हम कैसे लोग हैं जो इतना भी नहीं समझना चाहते कि हम मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे बनवा सकते हैं मगर परमात्मा को पकड़ कर उन जगहों रहने को विवश नहीं कर सकते क्योंकि उनको जिस बंधन जिस कैद में रख सकते हैं वो प्यार मुहब्बत और आपसी सद्भाव भाईचारे से निर्मित इंसानियत का घर हो सकता है। नफरत की अलगाव की बुनियाद पर ताकत अहंकार और दौलत से खड़ी ऊंची दीवारों में विधाता को बंद कर रहने को मज़बूर नहीं किया जा सकता है।
भगवान की बात के बाद समाज की देश राज्य न्याय व्यवस्था की आज़ादी और संविधान की बात करते हैं।राजनेता अधिकारी न्यायपालिका सुरक्षाकर्मी और साहित्य समाज की वास्तविकता की बात लिखने कहने दिखलाने वाले क्या होना चाहिए और क्या होता है इसका अंतर समझना ज़रूरी है कर्तव्य पालन करने को। लेकिन अगर खुद स्वार्थी और मतलब की खातिर झूठ को सच एवं सच को झूठ साबित करते हैं तो देश की बर्बादी के असली गुनहगार वही हैं। उनको खुद अपने लिए जितना चाहिए अधिकार मानते हैं पाने को नियम कानून कायदे कोई बाधा नहीं बन सकते लेकिन सामान्य नागरिक की बुनियादी ज़रूरत पूरी नहीं होने पर नागरिक बेबस हो अधिकार नहीं भीख मांगने की तरह खड़ा हुआ है 75 साल होने को हैं। ये कैसा विधान है जिस से मुट्ठी भर लोगों के पास देश का अधिकांश भाग है राजाओं की तरह रहने को जबकि बाकी तमाम लोग नाम भर को पाकर ज़िंदा हैं मौत से खराब हाल में रहकर। सरकार सरकारी विभाग अधिकारी कुछ धनवान लोगों उद्योगपतियों को मनमानी करने लूटने देते हैं और खुद भी तथा राजनेता भी मौज उड़ाते हैं और देश की जनता को कुछ नहीं मिलता झूठे आश्वासन और भाषण और कागज़ी आंकड़ों के सिवा। उनकी चाहत उनकी मर्ज़ी को पूरा करने को ख़ास वर्ग की कामना चुटकी बजाते हल हो जाती है करोड़ों का बजट उनकी महत्वांकाक्षा के लिए उपलब्ध होता है। उनके शाही अंदाज़ उनके राजसी ठाठ उनके शोहरत के इश्तिहार रोज़ करोड़ों सरकारी कोष से बंदरबांट कर अनावश्यक बोझ जनता को ढोना पड़ता है। मगर उसी आम जनता की शिक्षा स्वास्थ्य सेवा रोज़गार रोटी पीने का साफ़ पानी मुहैया करवाना सरकार को संभव नहीं लगता है क्योंकि राजनेताओं अधिकारी वर्ग न्यायपालिका देश की संस्थाओं संगठनों को इस पर सोचना ज़रूरी नहीं लगता है।
आजकल बिजली संकट छाया हुआ है ये समस्या हल हो सकती है । सूरज के आसन पर घने अंधेरे बैठे हैं। वास्तविक संकट उस घने अंधकार की है जिस पर अटल बिहारी बाजपेयी जी की कविता उपयुक्त लगती है। पढ़ना समझना ये संकट गंभीर है।