दिसंबर 20, 2024

POST : 1931 तकरार टकराव है प्यार नहीं है ( दर-हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया

 तकरार टकराव है प्यार नहीं है ( दर-हक़ीक़त )  डॉ लोक सेतिया 

दुश्मन हैं सभी प्यार के कोई यार नहीं है ये सच है कोई झूठा इश्तिहार नहीं है , संसद से सड़क तक हंगामा यही है , कागज़ी जंग से बढ़कर कोई कारोबार नहीं है । हर शख़्स समझता है सच कहता है बस वो उस से बढ़कर कोई दुनिया में समझदार नहीं है । सरकार ये कहती है सभी को साथ लेकर चलते हैं लेकिन हर घड़ी जनाब रंग बदलते हैं किरदार नहीं जैसे पोशाक बदलते हैं , मतभेद रहते तो कोई बात नहीं थी अब होता है आपसी संवाद से मनभेद ही बढ़ते हैं । कुचलने से कभी आवाम के अंदाज़ बदलते हैं हवाओं के बुझाने से नहीं चराग़ बुझा करते कुछ बनके शमां महफ़िल में दिन रात जला करते हैं । जिनको दावा है विरासत का अपनी संभालते हैं क्या थी इस देश की संस्कृति परंपरा कभी समझते हैं । जाने किस झूठे अहंकार में डूबे हुए हैं तमाम लोग , आजकल खुद को सभी भगवान समझते हैं , नादान हैं लोग आपकी नादानी पे हंसते हैं । अजब तौर है हर कोई सभी को छोटा और खोटा साबित करना चाहते हैं किसी को बड़ा होना नहीं आता है बड़े कभी अपनी बढ़ाई नहीं करते हैं । ठोकर लगाना गिराना कोई शान की बात नहीं होती है धरती माता बच्चों की इस बात पर ख़ामोश रहकर दर्द सहती है । भूल हुई माफ़ करना कहना छोड़ दिया है शराफ़त से दामन छुड़ा इंसानियत से मुंह मोड़ लिया है । भरतीयता की पहचान रही है सभी को अपनाने गैर को भी गले लगाने की हर हाल में मर्यादा निभाने की लेकिन जाने कैसे हमने सब अच्छी बातों को भुला दिया है कभी कहते थे जिसे सभी सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा उस को अजब तमाशा बना दिया है । सुनहरे अतीत को बिसरा दिया है झूठे सपनों का जाल बुनकर समाज देश धर्म सरकार सभी को उलझा दिया है । 

' हिन्दोस्तां हमारा ' क्या था कैसा था देखने समझने जानने को शायर जाँनिसार अख़्तर की पहली बार 1973 में हिन्दुस्तानी बुक ट्रस्ट मुंबई से प्रकाशित हुई दो खंड में 1000 पन्नों की अनुपम इक कीमती दस्तावेज़ रुपी किताब जिसे पचास साल बाद राजकमल प्रकाशन ने 2023 में दोबारा प्रकाशित किया को पढ़ना ही नहीं भीतर तक झांकना होगा ।
 
 पहले जाँनिसार अख़्तर जी को लेकर जानकारी देना उचित होगा , हैरानी ही होती है कि मुंबई की फ़िल्मी मायानगरी में जिस को निराशा और नाकामी की ठोकरें लगाई वो शख़्स तब भी अपनी खुद की परेशानियों की नहीं बल्कि अपने देश की अनगिनत विशेषताओं को लेकर गहन शोध कर सदियों के शायरों कवियों से अन्य महान व्यक्तियों को लेकर इक शानदार संकलन का सृजन करता रहा । यहां इक बात कहना ज़रूरी है कि आजकल जब किसी को काबलियत का उचित परिणाम नहीं मिलता तब वो देश समाज को दोष देने का कार्य करता है लेकिन लेखक ने सबसे महत्वपूर्ण देश की इक वास्तविक शानदार तस्वीर बनाने में अपना योगदान देना ज़रूरी समझा ताकि आने वाली पीढ़ियां जान सकें अपने देश समाज और साहित्य का गौरवशाली इतिहास क्या था । आगे सिर्फ विषय की सूचि दी गई है जिसकी अभी आपने शायद कल्पना भी नहीं की होगी कि क्या कमाल का देश समाज रहा है अपना । 

' हिन्दोस्तां हमारा ' किताब का पहला खंड में चंद नज़्में हैं जो हमारे देश की विशेषता और महानता को उजागर करती हैं । यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि जहां मुसलमान शाइरों ने हिन्दुओं के त्यौहार होली दिवाली वसंत पर रचनाएं लिखी वहीं और सिख शाइरों ने इस्लामी त्योहारों पर नज़्मे लिखीं । ऐसा उसी मिली जुली सभ्यता का चमत्कार था जो हर धर्म मज़हब को प्यारी थी । पुस्तक में विविधता की कोई सीमा नहीं है सभी कुछ समाहित किया गया है , प्राकृतिक दृश्य , सुबह शाम , मौसम शहरों इमारतों नृत्य संगीत चित्रकला अवतारों पैगंबरों धार्मिक नेताओं भारतीयता में रची बसी धार्मिक कथाओं से अन्दाज़े - इश्क़ तक । देखते हैं क्या क्या अध्याय हैं दोनों खंड में कितना कुछ शामिल है । 
 
1 हिन्दोस्तां की अज़मत , 2 हमारे कुदरती मनाज़िर , 3 हमारे सुबह- शाम  , 4 हमारे मौसम , 5  हमारे त्यौहार , 6 हमारे शहर और इलाके  , 7  हमारी तामीरात , 8 हमारी ललित कलायें , 9 हमारे धार्मिक नेता , 10 हमारी कहानियां  , 11 हमारा अंदाज़े - इश्क़ । ये सभी कविता ग़ज़ल नज़्म के स्वरूप में ही नहीं हैं बल्कि हमारे महान कवियों शायरों के कलाम हैं अर्थात आपको सदियों का अदब का सफर भी मालूम होता है ऐसा कोई शायर नहीं होगा जिस की रचना आपको नहीं मिले । दूसरा खंड इतिहास और राजनीति से लेकर सामाजिक परिवेश से आंदोलनों की सही तस्वीर दर्शाता है , 1 सन  1857 से पहले , 2 जंगे आज़ादी , 3   एहसासे - गुलामी , 4     अंग्रेजी दुश्मनी का जज़्बा , 5 सन 1921 से 1935 की राजनीति , 6 सन 1935 से 1946 की राजनीति , 7 आज़ादी का ऐलान , 8 आज़ादी की रजत जयंती । 

इस किताब की बातों का ज़िक्र इसलिए किया है क्योंकि 1973 तक आज़ादी के पचीस साल बाद देश में चाहे कितनी परेशानियां और समस्याएं रहीं हों तब भी शिक्षित विद्वान और बुद्धिजीवी लोग इक उज्जवल भविष्य की परिकल्पना देख रहे थे , क्या आज ऐसा है तमाम आधुनिक विकास और प्रगति के बावजूद भी । देश किसी भवन किसी सड़क किसी भौतिक वस्तु से नहीं बनता , ये सभी कितना शानदार हो मगर इंसान और समाज का वास्तविक चरित्र कितना अच्छा है या खराब है उस पर निर्भर करता है । सही ढंग से आत्मविश्लेषण किया जाये तो आज हम उस से नीचे खड़े हैं जहां पचास साल पहले हमारा देश समाज गर्व से खड़ा था । आज ढूंढने पर भी उस तरह के निस्वार्थी शासक और अन्य तमाम लोग नहीं मिलते हैं बल्कि आजकल हम इक दूजे से तकरार करने और टकराने में व्यस्त रहते हैं जब भी कहीं भी देख सकते हैं । हीरे मोती कीमती जवाहरात खोकर हम कांच के टुकड़े पाकर समझते हैं बड़ा कमाल करते हैं । अब आगे क्या होगा सोच कर रूह कांपती है । आखिर में आधुनिक दौर का शायर वसीम बरेलवी क्या कहता है पढ़ते हैं । 

आंखें मूंद लेने से ख़तरा न जाएगा , वो देखना पड़ेगा जो देखा न जाएगा । 

ये कह के भिड़ गए हैं सभागार के किवाड़ , बोलेगा जो ख़िलाफ़ वो ज़िंदा न जाएगा । 
 
घुटन बढ़ने का खतरा हो तो दर खोला नहीं जाता , जहां खामोश रहना हो वहां बोला नहीं जाता ।
 
तो फिर कैसे बचेगी साख बाज़ारे मुहब्बत की , तुझे परखा नहीं जाता मुझे तोला नहीं जाता ।
 
जहां बेकार की बहसों का कारोबार चलता हो , वहां हर बात को मैयार पर तोला नहीं जाता ।   






दिसंबर 18, 2024

POST : 1930 प्यार ख़ुशी सुंदरता ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

          प्यार ख़ुशी सुंदरता ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया  

सार्वजनिक जगह पर मिल बैठे 
इधर उधर की तमाम बातों से 
दिल को सभी ने ऐसे बहलाया 
चर्चा कर रहे थे कुछ लोग यही
अजनबी लगते जाने पहचाने से
क्या खोया सबने क्या कुछ पाया 
निष्कर्ष क्या कोई नहीं जानता
मिलकर सभी ने शायद था बस
फुर्सत से कुछ वक़्त यूं बिताया
समय बड़ा अनमोल नहीं समझा
निरर्थक ही समय अपना गंवाया । 
 
किसी ने अपनी प्रिय पत्नी संग 
प्यार भरा मधुर गीत नाचते हुए 
सोशल मीडिया पर वीडियो बना 
यादगार मधुर एहसास था जगाया 
प्यार सुंदरता क्या होती हमको 
राज़ कभी भी समझ नहीं आया 
दिल की बात दिल कहता है पर 
ज़माने को किसलिए दिखलाया 
बड़ी निराली जगत की रीत देखी 
कौन अपना है कौन हुआ पराया ।
 
खुश हैं हम कितने खुशनसीब हैं हम
बाहर इक आवरण लगाकर रोज़ ही 
अपने भीतर सच को कितना छुपाया
होंठों पर हंसी मगर आंखों में दर्द था 
ज़िंदगी तुमने कितना हमको रुलाया 
रूह बेचैन है तड़पती कितना लेकिन 
खूब बनावट कर सजाई हमने काया 
सभी को मालूम क्या है जीवन- सार
चेहरे को छुपा मुखौटा लगाए हैं हम 
अजब ज़माना आजकल नया आया । 
   
 


दिसंबर 17, 2024

POST : 1929 गरीब की गरीबी सत्ता की चाबी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      गरीब की गरीबी सत्ता की चाबी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

गरीबी गरीबों के लिए अभिशाप है लेकिन राजनेताओं धर्म उपदेशकों से लेकर धनवान साहूकार लोगों के लिए गरीबों की गरीबी किसी वरदान से कम नहीं है । कभी गरीबों की गरीबी ख़त्म हो गई तो इन सभी का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है इसलिए ये संगठित हैं इस विषय पर कि गरीबी को बढ़ाते जाना है कभी खत्म नहीं होने देना है । संसद में 75 साल बाद चर्चा हुई तब भी सभी एकमत थे कि देश में बढ़ती गई भूख गरीबी कोई अनहोनी बात नहीं है चिंता उनकी नहीं करनी है कोशिश करनी है कि नेताओं अधिकारियों सरकारी कर्मचारियों से लेकर तमाम धनवान रईस लोगों कारोबार उद्योग चलाने वालों नाम शोहरत वाले अभिजात्य वर्ग खिलाड़ी अभिनेता टीवी वालों अख़बार वालों को शासन और सत्ता का चाटुकार बनाने को तरह तरह से कुछ रेवड़ियां बांटते रहना है । उन सभी को सच और ईमानदारी की खोखली बातें करनी हैं उन को समझना नहीं कभी गलती से उन पर चलना नहीं है । जब तक लोग अधिकांश नागरिक भूखे नंगे बेघर हैं तब तक उनका साम्राज्य और रुतबा कायम रह सकता है अगर किसी दिन उनकी दरिद्रता का अंत हुआ तो ख़ास लोगों की दुनिया का जो हाल होगा कोई कल्पना नहीं कर सकता । 
 
संविधान सभी को समानता के अधिकार देता है लेकिन ऐसा होना संभव नहीं है क्योंकि सत्ता और दौलत जिनकी बांदी है उनको ऐसा कभी होने नहीं देना है ।लोकतांत्रिक प्रणाली में सत्ता की चाबी गरीब की गरीबी पर निर्भर करती है । 75 साल में सभी दलों की सरकारों ने यही किया है कि निम्न वर्ग शोषित वर्ग दबे कुचले लोगों को कभी भी बदहाली से निकलने नहीं देना तभी उनकी संख्या आज़ादी के बाद बढ़ती गई है और अमीरी गरीबी में जो खाई है उसे भी और गहरा बड़ा किया गया है सभी सरकारों ने और ख़ास कहलाने वाले लोगों के समाज ने ।  हमारे देश में ही नहीं बल्कि अब तो दुनिया के तमाम देश सहमत हैं कि भूख गरीबी पर भाषण देने हैं उनके नाम की संस्थाएं संघठन और कितनी योजनाएं घोषित करनी हैं लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात होना है । कथनी को सच नहीं होने देना कहना कुछ करना विपरीत है ।  

     हमारा देश समाज इक पुरातन परंपरा का कायल है जिस में धनवान होने का अर्थ ही मतलबी होकर जो कोई सहारा दे उसी को गिराना है । पैसा इंसान से इंसानियत शराफ़त छीन कर बेरहम और संवेदनहीन बना देता है धनवान को पैसे को भगवान से अधिक महत्व देना सिखाता है । कहानियों कथाओं में आदमी को भला और परोपकारी तभी तक बताया जाता है जब तक दुःखी है परेशान है मगर जैसे ही साधन सम्पन्न होते हैं स्वार्थी बनते जाते हैं । उपदेशक भाषणवीर नेता अधिकारी अभिनेता इत्यादि कभी किसी गरीब की भलाई नहीं करते बल्कि खुद अमीर बनते उनसे दूरी बना खास लोगों से करीबी नाता कायम कर और भी धन दौलत ताकत शोहरत की कामना करते हैं । समाज में अच्छाई और इंसानियत का सारा बोझ गरीबों को उठाना होता है उनको परंपराओं रिवाज़ों कुरीतियों को निभाना है । गरीब की गरीबी बड़े और ऊंचे पायदान पर खड़े सभी ख़ास लोगों के लिए सुरक्षाकवच है हमको अपने देश की गरीबी पर शर्मिंदा नहीं होना है बल्कि महान कहना है । 
 
सरकार शान से घोषित करती है कि 80 करोड़ को खाने को अनाज बांटती है लेकिन कभी नहीं बताती है कि खुद उस से कितने लाख गुणा ये लोग खज़ाने से अपना अधिकार मानकर छीनते रहते हैं । अगर ये इतना धन देश की अर्थव्यवस्था से अपने खुद को आबंटित नहीं करते तो देश में कोई गरीब भूखा बेघर नहीं होता ।
गरीबों को न्याय तो क्या शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं का भी अधिकार नहीं है उसे सिर्फ खैरात मिलती है अधिकार कभी नहीं ।  गरीब जनता को समझाया गया है कि यही पहचान है इसी से तुम्हारा नाम है अपनी पहचान को हमेशा ही कायम रखना है , किसी ने गरीब महिला की वास्तविक सुंदरता का बख़ान कर उसे रानी बनाकर सिंहासन पर बिठाया । फिल्म टीवी वालों ने गरीबी की फ़टी हुई कमीज़ चोली पर इतना कैमरा रखे रखा कि देखने वालों को गरीबी शानदार लगने लगी । आजकल अमीरी भी आधा बदन नंगा रख कर आधुनिकता की दौड़ में सोचती है बाज़ार में बिकना सबसे ज़रूरी है उनकी क्या ग़ज़ब मज़बूरी है । सरकार नेताओं ने कभी इस की चर्चा नहीं की कि उनकी अमीरी शान ठाठ बाठ और धन वैभव का कितना अंबार कैसे जमा हुआ है । गरीब लोग गरीब होने का प्रमाण देते हैं लेकिन बहुत धनवान भी खुद को गरीब साबित करना चाहते है उनकी गरीब कहलाना असीम सुःख देता है ।
 
 चिंता : गरीबी का दुश्चक्र | Jansatta
 
 
 
 
 

दिसंबर 14, 2024

POST : 1928 ऊंची दुकान फ़ीके पकवान ( पर्दाफ़ाश ) डॉ लोक सेतिया

      ऊंची दुकान फ़ीके पकवान ( पर्दाफ़ाश ) डॉ लोक सेतिया  

                           अस्वीकरण ( घोषणा ) 

(  रचना के पात्र व घटनाएं  काल्पनिक हैं किसी भी व्यक्ति या धर्म अथवा संस्था को लेकर नहीं हैं कृपया निजी व्यक्तिगत घटनाओं से मत जोड़ कर देखें । संयोगवश किसी भी प्रकार से मेल खाने पर लेखक का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा । लेखक सभी धर्मों का आदर करता है और तमाम धर्मों एवं विचारधारा सामाजिक सांस्कृतिक आदर्शों का पूर्ण रूप से सम्मान करता है । सभी चरित्र मनोरंजन एवं हास परिहास के उद्देश्य से लिखे व निर्मित किए गए हैं और किसी भी रचना के पात्र का किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से कोई भी सरोकार कदापि नहीं है । लेखक का मकसद किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं है । कृपया पाठक हास परिहास को ध्यान में रख कर रचनाओं से आंनद उठाएं और अन्यथा नहीं लें व्यक्तिगत रूप में समझना उचित नहीं होगा । )
 
 मुझसे कहा गया है उनको लेकर इक वास्तविक कहानी लिखनी है , मैंने पहले उन के अनोखे सफर की
 दिलकश दास्तां लिखी थी दिसंबर 2013 में इक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी जिस का लिंक नीचे दिया जाएगा पहले अभी 11 साल बाद जो लिखना है वो उनकी वास्तविकता को उजागर करना है । नाम बड़े और दर्शन छोटे बिल्कुल सटीक होगा कहना । आजकल कहानी की पटकथा लिखते हैं कथन करना सुनाना नहीं अलग अलग किरदार की बात की जाती है इसलिए नीचे कुछ वास्तविक किरदार की पर्दे के पीछे की ज़िंदगी की वास्तविकता दर्शानी है । सबसे पहले इस बात को समझना ज़रूरी है कि साहित्य कला नाटक संगीत अभिनय सभी संचार माध्यम फ़िल्म टेलीविज़न का वास्तविक मकसद समाज को सही मार्गदर्शन देने से पहले समाजिक वास्तविकताओं विसंगतियों से रूबरू करवाना होता है । जो भी सृजन किया जाए उस से देश समाज को बेहतर बनाने में योगदान के आधार पर परखना चाहिए दिन साल महीने इसका पैमाना नहीं होता है तभी कहते हैं ज़िंदगी बड़ी होनी चाहिए लंबी नहीं ।

उनका नाम फिल्म जगत का पर्याय बन गया था , प्यार दोस्ती भोलापन त्याग से लेकर सुंदरता संगीत और दुनिया को हंसाने को कितने रंग रूप बदलने का नायक का किरदार निभाया था । ज़िंदगी में किसी को प्रेम का ख़्वाब दिखला उसको अपनी कहानी में सफलता पाने का माध्यम बनाते रहे बहुत बाद में उस प्रेमिका को समझ आया तो उस नायिका ने ऐसा किरदार निभाया जो हमेशा देश की किसी माता की पहचान बन गया । महिला चाहे पुरुष कोई भी किसी पिंजरे में कैद रहकर वास्तविक ख़ुशी आनंद का अनुभव नहीं कर सकते भले कितना सुंदर सोने का बना पिंजरा ही क्यों नहीं हो । दोस्ती निभाने की बात क्या बताएं जिस ने उनको कितने ही लाजवाब गीत दिए शोहरत पाने और इक मासूम भोले आदमी की छवि बनाने के लिए जब उस की मुश्किल घड़ी और परेशानी का दौर आया तो जनाब ने सहायता करना तो छोड़ उल्टा उनकी कठिनाई बढ़ाई जो वादा किया था कि उनके विरतक से सहायता दिलवाने का निभाया नहीं । दोस्त दोस्त न रहा लिखने वाले को तीसरी कसम का गीत साजन रे झूठ मत बोलो ख़ुदा के पास जाना है , शायद अगर ऊपर कोई जगह है तो नज़रें मिलाना आसान नहीं होगा । पर्दे की कहानियों में जो गरीब और बेचारा लगता था जिसे सभी लोग ठोकर लगाते थे असली ज़िंदगी में उसे कभी कोई चिंता नहीं थी सभी कुछ बिना मांगे मिलता था , कभी कोई एक प्रयोग सफल नहीं भी होता तब भी उसको आता था जो बिकता है उसको बेचना और मालामाल होना । इधर किसी की ज़िंदगी पर फिल्म बनाने का चलन है चलचित्र जीवनी कहते हैं मगर उस का मतलब होता है छुपे हुए अनछुए पहलुओं को सामने लाना अर्थात आकाश को धरती पर उतारना । 

बाकी सभी किरदार की बात संक्षेप में लिखते हैं , बड़ा ऊंचा कद है , किरदार कैसा भी हो निभाना उनकी काबलियत को साबित करता है । लेकिन खूब धन दौलत पास होने पर भी अपने बचपन से दोस्त रहे खास परिवार की आर्थिक विवशता जो दोस्त की संतान की शिक्षा की फ़ीस भरने भर की थी उनसे नहीं हुआ । सच सच कहा जाये तो जिन दोस्तों ने उनकी खराब समय पर सहायता की उनकी बदहाली में उनसे संबंध विच्छेद करते कोई संकोच नहीं किया । करोड़ों का खेल उनकी चाहत है जिस में दिखाई देता है वही कितनों की गरीबी मिटाते हैं जबकि वास्तव में उनकी खुद की अधिक से अधिक हासिल करने की हवस मिटती नहीं है । जिस को लोग भगवान की तरह मानते हैं उस ने अपनी ज़रूरत या चाहत की खातिर नियम कानून सभी को तार तार किया है कोई नहीं समझता क्या ऐसे होते हैं महानायक । 

कोई अपने पिता से नाराज़ था पत्नी की मौत के बाद शादी करने की बात पर , लेकिन खुद न केवल अपने पिता के दोस्त से आर्थिक सहायता मांगने जाता है और जिस से शायरी की शिक्षा अथवा सहयोग पाता था उसी की बेटी से दूसरा विवाह करता है । उनका लेखन और ज़िंदगी आपस में विरोधी लगते हैं । सही मायने में माया नगरी में कुछ भी असली नहीं है लेकिन उनकी नकली झूठी छवि को चमकदार बनाकर पीतल को सोना घोषित कर बेचते हैं । पारिवारिक विषयों पर किरदार और कहानियां बनाने वाले खुद कब किस रिश्ते से छल कपट धोखा करते हैं कोई नहीं जानता और सामाजिक सरोकार की बात की जाये तो कोई अपराध नहीं है जो इस दुनिया के बड़े नाम वाले लोग नहीं करते फिर भी उनको कोई सज़ा नहीं मिलती और न ही कोई कभी आत्मग्लानि की भावना दिखाई देती है । अधिक क्या बताया जाये जिनको समाज को सही मार्ग बताना चाहिए था अपने आर्थिक फायदे के लिए समाज को गलत संदेश देने और भटकाने का कार्य कर रहे हैं । 
 
मगर सबसे अजीब और भयानक इक और भी तौर तरीका है इस दुनिया का , कुछ लाजवाब लोग लिखने वाले निर्माता निर्देशक गायक हुए हैं जिनको कुछ भी नहीं मिला सिवा निराशा और नाकामी के । कोई वापस लौट गया अपना लिखा दीवान मज़बूरी में बेच कर और जिसने खरीदा वो नाम शोहरत से नवाज़ा गया । कोई ख़ुदकुशी कर गया हालात से तंग आकर तो कोई बेमौत मर गया दर्द सहते सहते । किसी का परिवार जिसे हमेशा नाकाम समझ ठोकर लगाता रहा क्योंकि उसको कोई मेहनत का मोल नहीं मिला था , बाद में जब उनकी बड़ी ग्रंथ जैसी किताब प्रकाशक ने अपने प्रकाशन के 75 साल होने पर दोबारा प्रकाशित की जिस में सदियों के शायरों की रचनाओं के साथ साथ देश की भाषाओँ संस्कृति और लोकगीत कहावतों पहेलियों का अनमोल खज़ाना था । कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि कोई जीवन भर साहित्य और अदब को इस तरह से ख़ामोशी से समर्पित होकर योगदान देता रहा गुमनामी में रहते हुए । जब उस अवसर पर उनके बेटे को आमंत्रित किया गया तब उनको अपने वालदेन की काबलियत समझ आई । कितना दुखद है कोई गैर तो क्या देश दुनिया तो क्या उसके अपनों ने भी उनकी कद्र नहीं समझी । अर्थात ये इक फरेब की दुनिया है जिस में उजाला कम अंधकार ज़्यादा है ।  

जैसा हमने शुरुआत में निर्धारित किया था कौन कितने वर्ष ज़िंदा रहा उस से अधिक महत्वपूर्ण है कि उस अवधि में उस अंतराल में किसी ने क्या सार्थक योगदान दिया क्या प्रभावशाली था अथवा बस कुछ घंटे का खेल तमाशा एवं शोर शराबा । कुछ एक को छोड़कर अधिकांश सिनेमा जगत टीवी सीरियल अख़बार पत्रिकाओं ने जो भी अच्छी बातें कहीं खुद उन्हीं पर खरे नहीं उतरे कभी । सादगी शराफ़त सच्चाई ईमानदारी से लेकर जनता की समस्याओं तक को उन्होंने उपयोग किया वास्तविक सरोकार नहीं निभाया । जैसे कभी कभी कुछ लोगों ने सामाजिक विषमताओं से अवगत होने पर खुद अपनी जमापूंजी और ध्यान पीड़ित लोगों की सहायता करने पर केंद्रित किया । सौ साल क्या हज़ार साल का जश्न भी व्यर्थ है अगर उन्होंने देश और समाज में वास्तविक बदलाव पर कोई ध्यान नहीं दिया और सिर्फ अपनी कामयाबी को ही महत्व देते रहे ।
 
 
कुलदीप सलिल जी की इक ग़ज़ल से कहानी को विराम देते हैं । 

इस कदर कोई बड़ा हो मुझे मंज़ूर नहीं 
कोई बन्दों में खुदा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

रौशनी छीन के घर घर से चरागों की अगर 
चाँद बस्ती में उगा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 
 
सीख ले दोस्त भी कुछ तो तजुर्बे से कभी 
काम ये सिर्फ मेरा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

मुस्कुराते हुए कलियों को मसलते जाना 
आपकी एक अदा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

खूब तु खूब तेरा शहर है ता - उम्र मगर 
एक ही आबो-हवा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

हूँ मैं कुछ आज अगर तो हूं बदौलत उसकी 
मेरे दुश्मन का बुरा हो मुझे मंज़ूर नहीं । 

हो चरागाँ तेरे घर में मुझे मंज़ूर सलिल 
गुल कहीं और दिया हो मुझे मंज़ूर नहीं ।


https://blog.loksetia.com/2013/12/blog-post_7.html
 
 
 MAYA NAGRI AUR EK RAJKUMAR🌌🤴|CATROON STORY| EK MAYAVI KAHANI KAHANI IN  HINDI| TRENDING VIRAL VIDEOS| - YouTube

दिसंबर 13, 2024

POST : 1927 सपनों का पहला इक आखिरी सौदागर ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

सपनों का पहला इक आखिरी सौदागर ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

फ़िल्मजगत का शोमैन कहलाता था जो उसकी जन्म शताब्दी मनाने को आधुनिक काल के सबसे बड़े तमाशेबाज़ से बढ़कर कौन हो सकता था घर बुलाने को ।  सोशल मीडिया पर उनकी चर्चा से महत्वपूर्ण कोई विषय संभव नहीं है सभी खुश होते हैं तालियां बजाते हैं कारण सोचने समझने की ज़रूरत क्या है । ये मिलन ज़रूरी था क्योंकि राजनीति और सिनेमा का वास्तविक चेहरा अलग और मुखौटा अलग होता है ।  उन की आपस में क्या चर्चा हुई सामने दिखाई दिया खबरों में तस्वीरों में वीडियो में बहुत ही मनमोहक अंदाज़ में बड़ी दिलकश बातों और फूलों से खिले शालीन वातावरण में । कभी किसी भूखे गरीब के साथ कोई ऐसा मज़ाक़ नहीं कर सकता अगर आपको लगता है उनको देश की समस्याओं की बदहाली की चिंता छोड़ खुद अपनी फिल्म जगत की और राजनीति के हुए पतन की भी रत्ती भर चिंता होगी । ऐसी होती है आबाद लोगों की दुनिया जिसका विस्तार होता है साधारण लोगों को बर्बाद कर के ही ।  वीडियो देखा आपस में इक दूजे की बढ़ाई और महानता पर बातें हुई कोई सामाजिक विषय नहीं था विचार विमर्श करने को जैसे खास वर्ग ही सबसे महत्वपूर्ण है ये लोकतंत्र ये साधरण नागरिक होते ही हाशिये पर रहने को हैं । समस्या अजीब है ख़ास वर्ग का गुज़ारा बिना आम जनता नहीं हो सकता वर्ना उनको बाहर धकेल दिया जाता । 
 
सभी पर जिनका जादू सर चढ़कर बोलता है जिनसे मिलकर लोग समझते हैं भगवान के साक्षात दर्शन हो गए हैं और उनकी फ़िल्मी डायलॉग उनकी भाव भंगिमाएं लगता है जैसे उस से बढ़कर कोई दौलत कोई खज़ाना क्या होगा । किसी ईमानदार का सच की राह चलने वाले का गरीबों के मसीहा का किरदार निभाने वाले अपने वास्तविक जीवन में अधिकांश विपरीत आचरण वाले होते हैं । फ़िल्मी कहानियों  में धन दौलत को ठोकर लगा कर प्यार मुहब्बत दोस्ती पर ज़िंदगी न्यौछावर करने वाले कभी किसी से प्यार नहीं करते सिर्फ खुद से करते हैं और अपने लिए सभी कुछ पाने को शरीर आत्मा ज़मीर क्या ईमान क्या सभी गिरवी रख छोड़ते हैं । कोई पुराना ज़माना हुआ करता था जब फ़िल्में किसी सार्थक संदेश को लेकर बनाई जाती थी , सिनेमा को भी बांट दिया गया था प्रमुख धारा जिस में मकसद केवल पर्दे पर सफलता और दौलत हुआ करता था , और इक और जिस में मनोरंजन भी शालीनता की सीमा का पालन करते हुए और मकसद किसी सामाजिक अथवा पारिवारिक विषय पर गहराई से कहानी कभी कभी झकझोरती थी । दबदबा और रुतबा उनका होता था जो बाज़ार में बिकते थे और बिकने को चमकदार आवरण रखते थे ।  
 
आज जो मिल रहे हैं दोनों ने अपने पास देश की कुल संपत्ति का आधे से अधिक हिस्सा सच कहें तो कमाया नहीं बल्कि हड़पा हुआ है । राजनीति और सिनेमा दोनों ने साधरण लोगों की भावनाओं उनकी परेशानियों को अपने फायदे के लिए बेचा ही है कोई समाधान नहीं ढूंढा न कभी कोशिश की है निदान करने की । झूठे ख्वाब काल्पनिक दुनिया से अब तो सिनेमा इक गंदगी का गटर बन गया है जिस की फ़िल्में टीवी पर अलग अलग तरीके से समाज को गुमराह कर कीचड़ में धकेलने लगे हैं और उधर राजनीति में कोई नैतिकता कोई भी विचारधारा कोई आदर्श नहीं बचे सिर्फ नग्नता और घटिया स्तर का मनोरंजन परोस करोड़ों की कमाई पर इतराते रहते हैं ।  आजकल जिनको सूरज समझते हैं खुद घने अंधकार का शिकार हैं देश समाज को उनसे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिए क्योंकि रौशनी उजाला उनका काम नहीं उनको अंधकार का कारोबार करना हैं क्योंकि अब मुनाफ़ा उसी में है । राजनेताओं की और फिल्म वालों की दुनिया हमारी आपकी दुनिया से बिल्कुल अलग है जिस में धन दौलत चकाचौंध और मैं चाहे जो करूं मेरी मर्ज़ी का चलन है । समाज से उनसे कुछ नहीं मिलता न कभी मिलना संभव है क्योंकि यही लोग हैं जो सबसे दरिद्र हैं , ऐसा कहते हैं कि जिनको सभी कुछ हासिल हो तब भी अधिक पाने की हवस रहती है वही सबसे दरिद्र हुआ करते हैं । परिवारवाद पर भाषण देने वाले किसी ख़ानदान की कितनी पीढ़ियों से मिलना चाहते थे उनको मलाल था अभी इक और से मिलना नहीं हुआ उम्मीद ले कर आये थे । आपस में दोनों समाज को योगदान देने की महानता बता रहे थे कौन पूछता समाज कहां खड़ा कितना आगे बढ़ा और आप दोनों क्या से क्या हो गए हैं । आदमी थे जो कभी अब सभी ख़ुदा हो गए हैं ।

 
 Prime Minister Narendra Modi poses for a group picture with the Kapoor family during their meet ahead of the upcoming Raj Kapoor 100 Film Festival on Raj Kapoor's centenary, in New Delhi on Tuesday. Neetu Kapoor, Karisma Kapoor, Kareena Kapoor, Saif Ali Khan, Ranbir Kapoor, Alia Bhatt and others present.(ANI)

दिसंबर 11, 2024

POST : 1926 दौर ही आज का निराला है ( हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया

     दौर ही आज का निराला है ( हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया  

आज का विषय महत्वपूर्ण है सामाजिक वास्तविकता हम सभी की , पहले इक ग़ज़ल पढ़ते हैं । 

जिससे अनभिज्ञ पीने वाला है 

ज़िन्दगी वो विषाक्त हाला है । 

प्यार फूलों से था जिसे बेहद 

चित्र पर उसके फूलमाला है । 

था स्वयं जो अजातशत्रु , उसे 

क्या खबर किसने मार डाला है । 

दिन दहाड़े ही लुट रहा कोई

मूकदर्शक बना उजाला है । 

मधु प्रतीकों का घोर आलोचक 

पीनेवालों का हम-पियाला है । 

बेठिकाने को मिल गई मंज़िल 

उसने फुटपाथ जा संभाला है । 

हों निराले न तौर क्यों ' महरिष '

दौर ही आज का निराला है । 

( नागफनियों ने सजाई महफिलें - ग़ज़ल संग्रह से साभार शायर : आर पी शर्मा ' महरिष ' )  

  बिना किसी भूमिका अब सीधे आज के दौर की बात करते हैं , दुनिया जहान की नहीं खुद अपनी बात करते हैं । हमारे समाज में बड़ा छोटा बीच का जो भी हो सभी को पहले इक सवाल खुद से पूछना चाहिए कि हमने क्या किया है अपने देश समाज को बेहतर बनाने की खातिर । पहले उनकी बात जो समझते हैं हम देश समाज के सेवक हैं देशभक्त हैं बड़े पदों पर बैठ लोकतंत्र संविधान की बातें करते हैं शासक प्रशासक मंत्री से सरकारी महासचिव से छोटे से पद पर आसीन कर्मचारी सभी शामिल हैं कार्यपालिका न्यायपालिका तक । इक अंदाज़ा लगाते हैं कि दस से बीस प्रतिशत जनसंख्या का भाग हैं , इनको जितना चाहिए किसी से मांगना नहीं पड़ता अपने आप निर्धारित करते हैं जब चाहे साधन सुविधाएं अधिकार विशेषाधिकार । शायद साधरण नागरिक से लाख गुणा उनको हासिल है लेकिन क्या तब भी जिस कार्य के लिए उनको नियुक्त निर्वाचित किया उस कार्य को करने में सफल हुए हैं । वास्तव में उनके रहते गरीबी भूख अन्याय शोषण नागरिकों की मूलभूत सुविधाएं मुहैया करवाना इत्यादि सभी की दशा बिगड़ती गई है अर्थात उनको जो करना था नहीं किया तब भी सबसे शानदार ज़िंदगी जीते हैं और उनको कोई खेद कभी नहीं होता कि उन्हें जैसा करना था नहीं किया है । 
 
उनके बाद आते हैं कुछ उद्योगपति कारोबारी कुछ ख़ास शिक्षा स्वास्थ्य जगत में कार्यरत सभ्य वर्ग के लोग जिनको समाज को सुंदर भविष्य और नैतिकता का मार्ग समझाना था लेकिन इतने पावन कार्य में होते हुए भी अधिकांश भटक गए धन दौलत और नाम शोहरत ऐशो-आराम की मृगतृष्णा में जिसका कोई अंत नहीं है । ऐसे सभी लोगों ने कभी उचित अनुचित की चिंता नहीं कि न ही सोचा समझा कि इंसान को कितनी ज़मीन चाहिए । इक हवस में पागल होकर उन्होंने इंसानियत को लेकर समझना छोड़ दिया । उनको सभी को मेहनत से हज़ारों गुणा अधिक मूल्य मिलता है और इस को देखने समझने वाला कोई नहीं है , पैसे को भगवान बनाया तो पैसे से खुद बिकने ही नहीं बल्कि न्याय कानून सभी कुछ खरीदने लगे । शराफ़त और नफ़ासत से तमाम लोगों को इतना लूटा कि किसी की बेबसी बदहाली पर कभी विचार नहीं किया अगर कुछ किया भी तो किसी मतलब से कुछ हासिल करने को बदले में । कितनी विडंबना है उच्च शिक्षा पाकर भी मानसिकता बेहद संकीर्ण ही रहती है । तथाकथित धार्मिक उपदेश देने वाले , कलाकार फ़िल्मकार टेलीविज़न पर अख़बार में वास्तविक तस्वीर नहीं दिखला कर दर्शकों को घटिया मनोरंजन के नाम पर इतनी गंदगी परोसने लगे हैं जिन से देश समाज को कुछ नहीं हासिल होता बल्कि पतन की राह चलने को प्रेरित करते हैं । 
 
देश की राजनीति जाने कब से किसी तरह सत्ता पाने की सीढ़ी बनती गई जिस में खुद सभी कुछ अपने लिए हासिल करने को बिना कुछ सोचे समझे रेवड़ियां बांटने का चलन हो गया है । कभी किसी नाम पर कभी कोई योजना बनाकर कुछ खास लोगों को फायदा देने के लिए ताकि अपनी नाकामी को ढका जाये किया गया । अब जैसा विज्ञापन है सरकारी 80 करोड़ लोगों को खाने को मुफ़्त राशन देने का , क्या शर्म की बात नहीं है कि आज़ादी के 75 साल बाद ऐसी हालत क्यों है । लेकिन ये कोई देश की जनता की भलाई नहीं है कि सरकारें उनको भिखारी बनाकर खुद शासक बनकर राजाओं शहंशाहों की तरह रहें । इस तरह ऊपर के बीस प्रतिशत और निचले 55 वास्तव में मध्यमवर्ग के 25 प्रतिशत पर इक बोझ हैं जिनके पास कोई विकल्प नहीं है सिवा इसके कि बीच का वर्ग नीचे आते आते आधा रह गया है और शीघ्र ही उसका कोई निशान नहीं बचेगा । बड़ी चिंताजनक तस्वीर होगी जिस में कोई बगैर परिश्रम सभी कुछ पायेगा तो बाकी मेहनत करने के बावजूद भी हाथ में कटोरा लिए दिखाई देंगे , ऐसा होगा इसलिए क्योंकि सभी ने समाज देश को बेहतर बनाने को कुछ करना ज़रूरी नहीं समझा बल्कि उस को बर्बाद करने में लगे हुए हैं । 
 
ऐसा आसान तो नहीं है फिर भी कभी कोई इन सभी सरकारों से हिसाब मांगे कितने राजनेताओं को कितने लाखों हज़ारों करोड़ की खैरात मिलती है जाने किस किस नाम से । पेंशन मुफ्त आवास मुफ्त सुविधाएं उम्र भर कोई क़र्ज़ चुकाना है जनता ने इनका सांसद विधायक अथवा अन्य किसी सार्वजनिक सेवा के पद पर शोभा बढ़ा कर खूब शान से सुःख सुविधाएं उपयोग करने का उपकार करने का । यकीन करना ये 80 करोड़ को मुफ्त राशन उस के सामने राई जैसा प्रतीत होगा , ये पहाड़ जैसा बोझ देश की जनता को किस जुर्म में ढोना पड़ता है और कब तक ढोते रहना है । अर्थशास्त्री समझा सकते हैं कि अधिकांश लोग बदहाल हैं सिर्फ इन कुछ ख़ास लोगों को दी जाने वाली भीख जिस को उन्होंने अपनी विरासत बना लिया है लोकतंत्र की आड़ में इक लूट तंत्र है ।  
 
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दिसंबर 08, 2024

POST : 1925 कौन था कोई नादान था ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

          कौन था कोई नादान था ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

कोई कथा कहानी नहीं है हक़ीक़त है अफ़साना नहीं कोई समझा नहीं कोई जाना नहीं कभी भी अभी तलक भी किसी ने उस दुनिया बनाने वाले को पहचाना नहीं । युग बीत गए कोई हिसाब नहीं दुनिया क्या से क्या बन गई मगर शुरुआत आखिर कभी कोई करता अवश्य है तो जिस ने इस दुनिया को था इक खिलौना खेलने को बनाया उसी आदमी ने इक दिन बनाने वाले को नादान बताया । जिसने सब कुछ बनाया दुनिया का कण कण पेड़ पौधे पक्षी हवा पानी बादल गगन से धरती पाताल तक पर्वत से खाई तक , जानवर बना बैठा इंसान बना बैठा । तब वही उसी के लिए ख़तरनाक पहेली जैसे कभी कैसे कभी कैसे अपने आचरण को बदलने लगे तो उसने खुद को अदृश्य बना की आवरण के पीछे छुपा लिया । इक दिन फिर ऐसा हुआ उसका बनाया इंसान जब इक बार आंखें होते हुए भी गहरी खाई है नहीं देख पाया भगवान ने हाथ पकड़ा उसको बचाया , आदमी ने सवाल किया कौन है कहां से इधर है आया । परिचय दिया मैं विधाता हूं तुझे इस संसार को मैंने ही है बनाया , आदमी को कभी ईश्वर का यकीन नहीं आया , साबित करो कब क्या क्योंकर बनाया क्या किसी पर कोई पहचान का चिन्ह बनाया लिखा अपना नाम पता बताया । बोला वो मेरा नाम पता ठिकाना क्या सभी में मैं हूं समाया । आदमी खुद को समझदार मानता रहा उसको नादान अनजान सिरफिरा समझा उसकी बातों में नहीं आया कहने लगा बता मुझे खाई में गिरने से क्यों बचाया । भगवान ने अपना पीछा छुड़ाने को कहा भूल हुई बनाकर दुनिया बड़ा पछताया , बस उस के बाद ईश्वर किसी को आंखों से नज़र नहीं आया सवालों से किसी के तंग आकर खुद को सामने होते दिखाई नहीं देता ऐसा बनाया । इंसान को जब वो नज़र नहीं आया तब उसने समझा मुझसे घबरा गया छुप गया डर कर छुपाया अपने को या था कोई साया । जानवर और इंसान दोनों ही भगवान से खुद को ताकतवर समझ अवसर मिलते ही बदलने लगे इतना कि कब कोई आदमी हैवान बन जाता है कब कोई जानवर भी शैतान से मेहरबान बन जाता है यही पहेली इक रहस्य रहती है । 
 
युग युगांतर के बाद दुनिया रंग बदलते बदलते आधुनिक काल तक इतना बदलाव हो चुका था कि ऊपरवाला थक कर सो चुका था इंसान इंसानियत को खो चुका था । ये भी करोड़ों वर्ष पहले की बात है आदमी को कहां मालूम खुद उसकी कोई नहीं औकात है वो तो महज़ किसी की इक ठोकर लगाई सौगात है । बस इक आदमी ने अपने आस पास जितने भी इंसान दिखाई दिए उनको यकीन दिलवाया कि जहां तक जितना नज़र आता है उसी का है जिसको जो चाहिए ले कर उपयोग कर सकता है केवल उसकी अनुमति से उसे अपना दाता और विधाता मानकर । किसी को इस में कोई परेशानी नहीं महसूस हुई और सभी ने उसकी कही बात को मानकर उसे सरदार बना लिया । धीरे धीरे सरदार की उम्र बढ़ती गई और उस ने कुछ लोगों को अपना वारिस या भावी सरदार घोषित कर दिया और दुनिया में इंसान इंसान में बड़े छोटे शासक शासित जैसे वर्ग बनते गए भेदभाव होने लगा । अचानक दुनिया बनाने वाले की नींद खुली तो उसे खबर हुई कि इंसानों ने उसकी बनाई खूबसूरत दुनिया को बर्बाद कर दिया है । अपने आवरण से निकल अदृश्य से सामने दिखाई देने का विकल्प चुना तो देखने वालों ने उसे सिरफिरा समझ लिया क्योंकि अब तक कितने अलग अलग अपने अपने ईश्वर सभी ने बना अर्थात घोषित कर लिए थे । 
 
सरकार को जब पता चला तब हर शासक ने खुद को विधाता और जाने क्या क्या घोषित करने वालों ने उसे पकड़ने और बंदी बनाकर क़ैदख़ाने में रखने का फ़रमान सुना दिया । भगवान को तहखाने में छुपाना रखना चाहा सभी हुक्मरानों ने ये सोच कर कि कभी काम आएगा तो उसे बाहर निकाल इस्तेमाल कर लिया जाएगा ।लेकिन उन सभी को क्या खबर थी कि भगवान कभी भी अदृश्य होने का विकल्प चुन वहां से छूमंतर हो जाते थे । अपनी बनाई दुनिया को हर छोर से दूसरे छोर तक पहचाना परखा तो जाना कि कुछ भी वास्तविक नहीं रहा है सभी बाहर से कुछ लगते हैं भीतर से कुछ और होते हैं खोखले हैं बाहरी आकार बढ़ता गया है बिल्कुल उसी तरह जैसे रावण का पुतला ऊंचा और फैला हुआ पलक झपकते ही राख बन जाता है । भगवान कहलाना चाहते हैं भगवान जिस ने सभी कुछ बनाकर सौंप दिया उसे कोई घर कोई पहचान देना चाहते हैं । भगवान जो खुद सबको देता है उसे दुनिया से क्या चाहिए उसको कुछ देना अर्थात खुद को भगवान से अधिक बड़ा महान और ताकतवर समझते हैं । आदमी नहीं जानता कि खुद इंसान भगवान की बनाई इक अनबुझी पहेली है जिस ने उसे भी अचंभित कर दिया है कि ये क्या चीज़ बना बैठा मैं जो अब उसी को चुनैती देने लगी है ।  
 
भगवान है भी या नहीं कहीं किसी की मनघड़ंत कहानी तो नहीं ऐसा विचार कुछ जालसाज़ झूठे फरेबी और मक्क़ार लोगों को आया तो उन्होंने सभी कुछ पर अपना आधिपत्य कायम कर खुद को शासक प्रशासक न्यायधीश सुरक्षा करने वाले अलग अलग ओहदेदार बना कर लूटना और लूट को खैरात की तरह कुछ भाग बांटना शुरू कर दिया । कोई ऊपरवाला भगवान नहीं हैं बस सिर्फ हमीं हैं मसीहाई करते हैं । लोगों ने भी उनकी सत्ता को मंज़ूर कर लिया है और उनके ज़ुल्मों को इंसाफ़ कहने लगे हैं । दुनिया बनाने वाले ने शायद बेबस होकर खुद ही अपने आप को ख़त्म कर दिया है , ख़ुदक़ुशी नहीं अंतर्ध्यान होना समझ सकते हैं । अब कोई भगवान नहीं किसी को कोई डर नहीं सभी मनमानी करते हैं यूं समझ लें की भगवान को सत्य को पराजित कर दिया गया है । बिना किसी चुनावी प्रक्रिया हटा दिया गया है ।  उस एक वास्तविक भगवान को हटवा कर कई लाखों लाख नकली भगवान बने बैठे हैं , पहचान करना कठिन नहीं है क्योंकि असली के भगवान ने कुछ भी अपने लिए या अपने पास नहीं रखा न कभी बदले में कुछ मांगा किसी से जबकि ये जितने भी खुद को भगवान समझते कहलवाते हैं उन सभी को अपने लिए जितना भी संभव हो चाहते हैं किसी भी तरह से हथिया लेते हैं । समाज देश को इनसे मिलता कुछ नहीं खोखली बातें और कभी सच नहीं होने वायदे प्रलोभन और झूठे भाषण को छोड़कर ।
 
 
 भगवान के न होने का सबूत क्या है?
 

दिसंबर 06, 2024

POST : 1924 ' नैरंग सरहदी ' दास्तां फिर याद आ गई ( अनमोल रत्न ) डॉ लोक सेतिया

' नैरंग सरहदी ' दास्तां फिर याद आ गई ( अनमोल रत्न ) डॉ लोक सेतिया 

 कभी कभी हम समझ नहीं पाते कि इस पर गर्व का अनुभव करें या फिर खेद का जब कभी हमारे देश के किसी व्यक्ति की प्रतिभा की कदर कहीं विदेश में होती है ज़िंदा रहते । नोबेल प्राइज़ मिला कुछ लोगों को विदेश में जाकर कोई खास उपलब्धि हासिल करने पर । हरगोबिंद खुराना , अमर्त्य सेन से सुब्रहमनियम  वेंकटरमन कितने नाम हैं । लेकिन किसी शायर विद्वान के निधन के वर्षों बाद उनके अप्रकाशित लेखन का प्रकाशन और पहचान किसी विदेशी शोधकर्ता और आलोचक लेखक द्वारा हुआ हो ये कभी पहले नहीं सुना हमने , पहली बार ये अजब तमाशा देखा है । सच समझना कठिन है कि जश्न मनाएं या फिर इस पर थोड़ा अफ़सोस का अनुभव करें जैसे कभी होता है कोई भूख से मर जाता है बाद में उसके नाम पर मृत्यु भोज का आयोजन करते हैं । इक गीत है पंजाबी में जियोंदे जी कंडे देंदी ऐ मोयां ते फुल चढांदी ऐ , मुर्दे नू पूजे ऐ दुनिया जियोंदे दी कीमत कुझ वी नहीं । मुझे इक ग़ज़ल पसंद है जिस में इक शेर कुछ ऐसा ही है जिसका अर्थ है मेरी बदकिस्मती असफ़लता नाकामी का एक कारण ये भी है कि मैंने दिल से जो भी चाहा हो गया । शायर कोई अनजान है मुझे ढूंढने पर भी उनका नाम नहीं मिला पेश है दो शेर उनकी ग़ज़ल से :

बंद आंखों का तमाशा हो गया , 
खुद से मैं बिछड़ा तो तन्हा हो गया ।
 
एक सूरत ये भी महरूमी की है  ,
मैंने दिल से जो भी चाहा हो गया । 
 
  हक़ीक़त नहीं कोई अफ़साना लगता है , ज़िंदगी के बाद जैसा किसी शायर ने खुद ही कहा था अपनी ग़ज़ल में , आएगी मेरी याद मेरी ज़िन्दगी के बाद , होगी न रौशनी कभी इस रौशनी के बाद । उनकी दास्तां सुनी तो दिल दिमाग़ में हज़ारों ख़्यालात जाने किधर से कहां तक उमड़ने लगे , तमाम अन्य अजनबी अनजाने जाने पहचाने लिखने वालों की स्मृतियां फिर ताज़ा हो गई । पहले थोड़ा संक्षेप में नैरंग जी की बात बाद में बहुत कुछ विषय से जुड़ा हुआ अलग अलग व्यक्तियों को लेकर । 6 फरवरी  1912  में  पाकिस्तान में ज़िला डेरा इस्माइल खां के इक क़स्बे मंदहरा उनका जन्म और 5 फरवरी  1973 में रिवाड़ी में निधन 61 वां जन्म दिन मनाने से चौबीस घंटे पहले , उर्दू फ़ारसी के विद्वान और बाद में पंजाबी पढ़ कर पंजाबी के अध्यापक रहे शायर को मलाल ही रहा अपने लेखन का प्रकाशन नहीं होने को लेकर । कई साल बाद उनके बेटे का संपर्क इत्तेफ़ाक़ से उर्दू और फ़ारसी पर शोध कार्य एवं उन को बढ़ावा देने को प्रयासरत जनाब डॉ तक़ी आबीदी जो लेखक और आलोचक हैं से हुआ , जिन्होंने नैरंग जी की रचनाओं पर पहली बार 2020 में प्रकाशन किया । 
 
  भारत में 2018 में उनके शागिर्द रहे शायर विपिन सुनेजा जी ने इक पुस्तक प्रकाशित करवाई थी और कभी कभी उन को लेकर आयोजन करवाया करते थे रिवाड़ी के लेखक मित्र मिलकर । डॉ आबीदी जी ने कितने ही देशों में उनके लेखन पर आयोजन प्रचार प्रसार किया और खूब सराहना मिलती रहती हमेशा । नैरंग सरहदी जी के निधन के 51 साल बाद रेवाड़ी में  ' इंडिया कानकलेव ' में कार्यक्रम आयोजित करवा जैसे भूली बिसरी कहानी को ताज़ा ही नहीं किया बल्कि उनके बेटे नरेश नारंग जी ने अपने अनुभव सांझा कर हमारे समाज और देश राज्य में साहित्य और रचनाकारों की ही नहीं भाषा और संस्कृति की दशा पर उदासीनता क्या संस्थाओं संगठनों की लापरवाही को उजागर कर सोचने पर विवश कर दिया । किसी हिंदी भाषा की  साहित्य अकादमी ने उनकी रचनाओं की पांडुलिपि पर कोई विचार तक नहीं किया क्योंकि उनका लेखन उर्दू या फ़ारसी में लिखा हुआ था , ऐसी अन्य संस्थाओं से भी नरेश नारंग जी को निराशा से अधिक हताशा मिली और उनका साहस धैर्य ख़त्म होने को था जब डॉ तक़ी आबीदी जी से संवाद ने अपने पिता की विरासत को सुरक्षित रखने संभालने में संबल का कार्य किया जिस से पचास साल बाद इक खोया हुआ महान शायर फिर से ज़िंदा हो गया है । लेखक कवि शायर इक विचार होते हैं जो उनके जाने के बाद भी कभी ख़त्म नहीं होते मिटते नहीं हैं । 
 
    नैरंग जी को लेकर उन से बेहद करीब रहे विपिन सुनेजा जी से चर्चा की तो उनकी ज़िंदगी की किताब खुलती ही गई । शायरी में भाषा उच्चारण की शुद्धता को लेकर बहुत गंभीर रहते थे , ग़ज़ल नज़्म के साथ मुक्तक एवं कव्वाली और मसनवी भी शामिल है उनके लेखन में । आशावादी सोच वास्तविक जीवन की परेशानियों समस्याओं के बावजूद कायम थी तथा हास्य विनोद उनका स्वभाव में रहता था । इक खास बात जो उन में थी सभाओं में केवल उन्हीं लोगों को आमंत्रित करते जिन की रूचि अदब में हो बिना बात भीड़ जमा करना उन्हें पसंद नहीं था । जैसा सभी जानते हैं हर साहित्यकार इक खूबसूरत दुनिया बनाना चाहता है जबकि वास्तव में सिर्फ कलम चलाने से सब संभव नहीं और ऐसा कहते हैं लिखने से नहीं कुछ कर दिखाने से बदलाव होगा मगर ऐसा होने ही नहीं देते कुछ लोग । कभी कभी नियति भी अपना रंग दिखाती है कमाल ही करती है नैरंग जी ने उर्दू अकादमी को अपनी किताब की पांडुलिपि भेजी थी जिसे प्रकाशित करने की स्वीकृति का पत्र उनके निधन के कुछ दिन बाद मिला था परिवार को शायद चार दिन बाद की बात है , लेकिन उर्दू अकादमी ने उनकी किताब " तामीर - ए - यास " 25 साल बाद छापी 1998 में । मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर है कि हमने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन , ख़ाक़ हो जाएंगे हम तुमको ख़बर होने तक ।  
 
  लेकिन सभी का नसीब ऐसा नहीं होता है बहुत लोग ऐसे होते हैं जिनके लेखन को लेकर परिवार समाज अनभिज्ञ या उदासीन होते हैं । कितने लोग जो लिखते हैं उनकी डायरियों में रह जाता है और शायद ही कोई उनको पढ़ता समझता या सुरक्षित रखता है । मैंने अपने कुछ दोस्तों के निधन के बाद उनके वारिस बच्चों से पत्नी से पूछा तो उनको पता ही नहीं था कि दोस्तों की रचनाएं कहां खो गई अथवा धूल चाट रही होंगी या कभी दीमक खा जाएगी । सिरसा हरियाणा से प्रकाश सानी जी क्या कमाल की ग़ज़ल कहते थे अख़बार पत्रिकाओं में छपती थी लेकिन कोई किताब नहीं छपने से उनकी रचनाओं का क्या हुआ कोई नहीं जानता है । सिरसा से ही हरिभजन सिंह रेणु जी की पंजाबी की कविताएं हिंदी में अनुवाद किया गया लेकिन कभी उनको आपेक्षित पहचान और सम्मान शायद नहीं मिला । जबकि कुछ ऐसे भी लोग दिखाई देते हैं जिन्होंने किसी और की रचनाओं को कुछ बदलाव कर खुद की घोषित कर नाम शोहरत से लेकर सरकारी साहित्य अकादमियों में निदेशक पद तक हासिल कर लिया । आजकल साहित्य की किताबों को कोई पढ़ता ही नहीं है कभी कहते थे किताब खरीद कर पढ़नी चाहिए मांग कर नहीं , अब तो लिखने वाले उपहार में भेजते हैं तब भी पढ़ता कोई शायद ही है ।  

लेखक सभी का दर्द समझते महसूस करते हैं लिखते हैं बस खुद अपना दुःख दर्द कभी नहीं लिखते , लिखना भी चाहें तो छापेगा कौन । अख़बार पत्रिका पुस्तक प्रकाशक लिखने वालों की रचनाएं प्रकाशित कर कहीं से कहीं पहुंच जाते हैं मगर लेखक को अधिकांश कोई मानदेय नहीं मिलता जो देते हैं वो भी बहुत थोड़ा जिस से कोई लेखक जीवन यापन नहीं कर सकता । कुछ जाने माने खास लोगों की किताबें सरकार खरीदती है या अन्य लोग किसी मकसद से खरीदते हैं हज़ारों में अलमारी में रखने को पढ़ने को नहीं । कुछ साल पहले संसद में इक कानून बनाया गया जिस पर बताया गया लेखक का भला होगा , कानून बना कि कोई लेखक अपने लिखे गीत ग़ज़ल का अधिकार नहीं बेच सकता कोई खरीदता है तो अवैध होगा । कभी किसी का अपना निर्मित सृजित कुछ बेचना भी गुनाह हो सकता है , जाने ये हाथ काटने की बात है कि हाथ मिलाने की । इक सवाल ये भी उठता है कि लिखने वाले का साहित्य प्रकाशित होना क्या अहमियत रखता है तो इसका जवाब भी है कि आप किसी काल किसी शासन किसी राज्य किसी समाज की असलियत तभी समझ सकते हैं जब उस वक़्त के कवि कथाकार ग़ज़ल कहने वाले साहित्य का सृजन करने वालों को पढ़ेंगे समझेंगे । किसी ईमारत किसी शिलालेख से भवन से सामाजिक वास्तविकता नहीं जान सकते हैं । आपने बड़े बड़े किले ऊंचे ऊंचे मीनार भव्य निर्माण देखें होंगे जिनको देख आप अभिभूत हो सकते हैं , लेकिन कोई कवि कोई शायर कोई कहानीकार आपको उजला नहीं अंधेरा पक्ष भी दिखला सकता है । शासकों का गुणगान करने वाले ज़ालिम को मसीहा बताने वाले चाटुकार नहीं लिखेंगे कि वो कितने अत्याचारी थे । कोई ताजमहल पर नज़्म लिख बादशाह को कटघरे में खड़ा कर सकता है , इक शहशांह ने बनवा के हसीं ताजमहल हम गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक । 
 
  यहां आज के आधुनिक समाज की बात करनी आवश्यक है , साहित्य कला संस्कृति सभी को फिल्म टीवी सीरियल इत्यादि ने प्रदूषित कर दिया है । समाज की वास्तविकता कहीं दिखाई नहीं देती आधुनिक टीवी सिनेमा से सोशल मीडिया में । इक खास वर्ग तक सिमित ही नहीं बल्कि सही दिशा नहीं दे कर भटकाने का कार्य कर रहे हैं खुद को दर्पण कहने वाले । पैसा इतना महत्वपूर्ण लगता है कि अभिनय से संगीत या पटकथा लेखन में नैतिकता मर्यादा का उलंघन आम है गंदगी परोसना आदत हो गई है । धन दौलत नाम शोहरत की अंधी दौड़ में फिल्म जगत और टेलीविज़न से संबंधित लोग सही मार्ग से भटक गए हैं और समाज की सही तस्वीर नहीं दिखते बल्कि झूठी और कपोल कल्पनाओं की कहानियां दिखा दर्शकों को गुमराह करने लगे हैं । इनको आप वास्तविक साहित्य का पर्याय या विकल्प समझने की भूल कभी नहीं करें । इनके मापदंड कब बदल जाते हैं कोई नहीं सोच समझ पाता है । कड़वी बात है लेकिन सच है कि हमारे देश में ईमानदारी से लिखना अपराध करने जैसा है , सज़ा देते हैं वो लोग जिनको साहित्य की परख की बात क्या समझ नहीं होती लेकिन निर्धारित करते हैं क्या शानदार लेखन है क्या बेकार है । 
 
 मैंने जनाब नैरंग सरहदी जी को लेकर यथासंभव सार्थक जानकारी खोजने की कोशिश की है , लेकिन जिस शख़्स से आप कभी मिले नहीं कोई भी संबंध कभी नहीं रहा कभी पहले पढ़ा ही नहीं उनको कितना समझ सकता है कोई भी । हां इतना अवश्य महसूस हुआ है कि कुछ लोग सही वक़्त पर सही जगह सही समाज और माहौल में नहीं पैदा होते किसी पौधे की तरह उचित वातावरण नहीं मिलने से बढ़ नहीं पाते फलते फूलते नहीं है लेकिन उनका अंकुर इतने वर्ष बाद सुरक्षित रहना और फिर से उगना किसी चमत्कार से कम नहीं है ।
 
 नैरंग जी की किताब ' ज़िन्दगी के बाद ' पढ़ रहा हूं अमृत प्रकाशन दिल्ली से 2018 में प्रकाशित हुई है ,
कुछ चुनिंदा ग़ज़ल विपिन सुनेजा की आवाज़ में ' आएगी मेरी याद '  एल्बम में से नीचे लिंक दिया गया है लुत्फ़ उठा सकते हैं । शुरुआत ही शानदार दो शेर से की गई है पढ़िए :-
 
आएगी मेरी याद मेरी ज़िन्दगी के बाद 
होगी न रौशनी कभी इस रौशनी के बाद । 
 
पसे - हयात यही शेर होंगे ऐ नैरंग 
अलावा इसके तेरी यादगार क्या होगी ।  
 
ग़ज़लों के बाद कुछ कत्ए शामिल हैं बहुत शानदार कुछ पढ़ सकते हैं :-

गुले - बेरंगो- बू- ओ - बास हूँ मैं 
ज़िन्दगी से बहुत उदास हूँ मैं 
मुझसे दुनिया को क्या ग़रज़ ' नैरंग '
शाइरे - दर्दो-ग़मो यास हूँ मैं । 

गर्के -आबे- शफ़ाफ़ रहता हूँ 
पाक दामन हूँ साफ़ रहता हूँ 
कुछ दो दुनिया ख़िलाफ़ है मेरे 
कुछ मैं अपने ख़िलाफ़ रहता हूँ । 

लुत्फ़ सुनने में कहाँ और सुनाने में कहाँ 
दाद देने में कहाँ दाद के पाने में कहाँ 
दिले - बेताब की बातें हैं ये ' नैरंग ' वरना 
कद्रदानी - ए - सुख़न आज ज़माने में कहाँ । 

कुछ नज़्में हैं , चरागां करके छोड़ेंगे , हमारा हरियाना , गुरु नानक , गुरु गोविन्द सिंह , महात्मा गांधी । 
मर्सिया पढ़ते हैं किसी की समाधि कब्र पर श्रद्धांजलि देते समय , नैरंग जी ने जिन पर मर्सिया लिखा है उन में शामिल हैं , पण्डित जवाहरलाल नेहरू , लाल बहादुर शास्त्री , अपने उस्ताद पर । 

कुछ अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद भी शामिल है उनकी किताब ' ज़िन्दगी के बाद में '  , और आखिर में इक मसनवी भी लिखी है  ' दस्ताने- सावित्री ' कुछ साहित्य उर्दू फ़ारसी के लिखने शोध करने वालों ने अपने विचार व्यक्त किए हैं अलग अलग तरीके से कितनी जगह पर । सभी ने उनके लेखन को विश्व स्तर का और शानदार बताया है , निष्कर्ष यही निकलता है कि किसी का सही समय और सामाजिक वातावरण में होना अथवा नहीं होकर विपरीत माहौल में रहना पैदा होना प्रमुख कारण हो सकता है उचित पहचान नहीं मिल पाने का किसी का दोष नहीं नियति का भी नहीं कह सकते ऐसे जाने कितने अनमोल हीरे कहीं मिट्टी में दबे रह जाते हैं । उनका ही शेर आखिर में उनकी कहानी को ब्यान करता हुआ : -
 
 
मैं और मेरी याद खुदासाज़ बात है , वर्ना मैं वो हूं जिसको ज़माना भुला चुका ।  

11 दिसंबर को नैरंग जी के बेटे नरेश नारंग सलीम जी से फोन पर विस्तार से बात हुई उन्होंने अपनी पिता जी की ज़िंदगी के कुछ और पहलुओं से परिचित करवाया । 1986 में  ' एक था शायर ' किताब प्रकाशित हुई नेशनल पब्लिकेशन से जनाब गुलशेर खान शानी जो साहित्य अकादमी की पत्रिका समकालीन निकालने में सहयोग करते थे जी की कोशिश से । डॉ तक़ी आदीबी जी ने 2022 में  ' तामीरे यास ' और नैरंग जी के  कलाम को बीस देशों में अलग अलग भाषाओं में प्रकाशित और प्रचारित कर इक गुमनाम शायर को दुनिया से परिचित करवाने का कार्य किया जिस का आभार जताना ज़रूरी है । नरेश जी को कितनी शिकायतें हैं मुझे लगता है मुमकिन है खुद से कोई शिकायत रही होगी लेकिन मुझे उनसे इतना ही कहना है इंसान चाहते हुए भी सभी कुछ नहीं कर सकता है । हमको समाज से कितना मिलता है कोई नहीं सोचता कितना लौटाना है इस पर विचार करना चाहिए तब समझ आएगा महान लोग दुनिया को अपने विचारों का अपनी रचनाओं का जो अनमोल ख़ज़ाना दे जाते हैं उनको बदले में कोई कीमत नहीं चाहिए होती है । हमारा ऐसे लोगों को एक ही तरीका हो सकता है श्रद्धा सुमन अर्पित करने का कि हम इक ऐसा समाज निर्मित करें जैसा उन्होंने इक ख़्वाब सजाया था सभी धर्मों का आदर और इक धर्मनिरपेक्षता मानवता का समाजिक वातावरण बनाना । कवि शायर कथाकार सच्चे तभी होते हैं जब वो खुद अपने दुःख दर्द की नहीं सभी अन्य की परेशानियों से चिंतित होकर समाज की बात कहते हैं अपनी को छोड़कर । 
 
 
किसी एक पोस्ट में ऐसे महान शायर की बात पूरी होना संभव नहीं है गागर में सागर भरने की कोशिश नहीं करना चाहता बस आख़िर में विपिन सुनेजा जी की आवाज़ में उनकी ग़ज़लों के यूट्यूब वीडियो लिंक सांझा कर रहा हूं जो नैरंग जी की पुस्तक ' ज़िन्दगी के बाद ' की चुनिंदा रचनाएं हैं ।    

 
 
   


दिसंबर 04, 2024

POST : 1923 मंदिर दोस्ती का ( हसरत- ए - दिल ) डॉ लोक सेतिया

         मंदिर दोस्ती का ( हसरत- ए - दिल ) डॉ लोक सेतिया  

दोस्त दोस्ती उम्र भर इसी दायरे में ज़िंदगी घूमती रही है , कभी किसी ने लिखा था भगवान को ढूंढने निकला था फिर सोचा था कोई दोस्त साथ हो तो मिलकर तलाश करेंगे । जब दोस्त मिल गया तो भगवान को खोजने की ज़रूरत ही नहीं रही । मैंने हमेशा लिखा है कि मुझे बस इक सच्चे दोस्त की चाहत है ढूंढता रहता हूं और शुरुआत में लिखना ही उसी के लिए उसी के नाम किया जो कौन कहां कैसा नाम पता नहीं जानता । वो कहानी अलग है कोई कल्पनालोक की परियों की कथा जैसी आज उन सभी दोस्तों की बात जो मिलते रहे और बिछुड़कर भी कभी दिल से दूर नहीं हुए । बचपन से अभी तक कितने ही दोस्त मिले हैं कुछ ऐसे जो किसी इक छोर से दूजे छोर तक सफर के हमराही जैसे रोज़ ज़िंदगी के कारोबार में जान पहचान कुछ अनुभव कुछ करीब रहना इक बहाना या इत्तेफ़ाक़ होता है । लेकिन बहुत थोड़े दोस्त पता नहीं चलता क्यों कब और कैसे अपना इक हिस्सा बन गए । दोस्त वही जिन से दिल और रूह महकने लगती है जिनसे मिलते ही खुद को भूल दोस्ती की खुशबू से हर मौसम सुहाना बन जाता है । आदमी आखिर इक दिन दुनिया से रुख़्सत होते रहते हैं बस दोस्ती ही है जो मौत से भी मरती नहीं ख़त्म नहीं होती हमेशा ज़िंदा रहती है सभी दोस्तों के दिलों में । कोई यकीन करे भले नहीं करे मेरे दोस्त हमेशा मेरे दिल में ज़िंदा रहते हैं । बचपन में दोस्तों के लिए इक गीत गाता रहता था मैं हमेशा , एहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तो , ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो । यारों ने मेरे वास्ते क्या कुछ नहीं किया , सौ बार शुक्रिया अरे सौ बार शुक्रिया , बचपन तुम्हारे साथ गुज़ारा है दोस्तो , ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो । बनता है मेरा काम तुम्हारे ही काम से , होता है मेरा नाम तुम्हारे ही नाम से , तुम जैसे मेहरबां का सहारा है दोस्तो , ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो । जब आ पड़ा कोई भी मुश्किल का रास्ता , मैंने दिया है तुमको मुहब्बत का वास्ता , हर हाल में तुम्हीं को पुकारा है दोस्तो , ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तो । गबन फ़िल्म , शायर हसरत जयपुरी , गायक मोहम्मद रफ़ी , संगीत शंकर जयकिशन ।  
 
बहुत सोचा बड़ी मुश्किल से समझ आया कि दोस्ती दुनिया का सबसे खूबसूरत रिश्ता क्यों है , बहुत ही संक्षेप में बताता हूं जो मैंने समझा है इतने गहन गंभीर विमर्श के बाद । आपको जितने भी नाते रिश्ते मिलते हैं जन्म से बड़े होने तक माता पिता भाई बहन अन्य रिश्तेदार सभी से हमेशा इक लेन देन का सिर्फ पैसे का नहीं तमाम तरह का रहता है । थोड़ा अजीब है लेकिन मुझे दिखाई दिया है हर किसी के पास इक बही खाता है जिस में आपका क़र्ज़ अथवा उधार लिखा है क्या क्या करना था नहीं किया हज़ार शिकायत शिकवे गिले सामने नहीं फिर भी नज़र आते हैं । आपने कितना किया कभी कोई जमाखाता नहीं रखता क्योंकि ऐसा तो करना आपका फ़र्ज़ था कोई एहसान नहीं किया , कभी भी किसी ने नहीं देखा कि आपकी क्या मज़बूरी रही होगी जब कुछ करना चाहते थे नहीं कर पाए । कितने दिन आये नहीं कोई संदेश नहीं बहुत कुछ रहता है नाराज़गी जैसा और उसे कोई भुलाता नहीं कितने प्रयास कर देखें । सिर्फ दोस्त भले कितने साल बाद मिलते हैं कोई ऐसा हिसाब-किताब नहीं करते ख़ुशी से बाहों में भर कर कहते हैं अभी भी वैसे ही हैं । उम्र का बदलाव दोस्ती में कोई बदलाव नहीं लाता है , दुनियादारी से अछूता रहता है ये संबंध दिल का दिल से । 
 
आपने सुना होगा पिता से पुत्र से माता से बेटी से बहन से भाभी से हमको दोस्त की तरह रहना है समझना है , क्योंकि सभी जानते हैं इस से सुंदर निःस्वार्थ रिश्ता कोई नहीं ज़माने में । लेकिन कहना आसान करना बहुत कठिन है उम्मीद पर खरा उतरना पड़ता है जबकि दोस्ती का मतलब ही है कोई इम्तिहान नहीं लिया जाता बस भरोसा दिल से होता है कि दोस्त हैं तो हैं कोई प्रमाणपत्र नहीं ज़रूरत होती । आपको शीर्षक ध्यान आया , मेरा इक ख़्वाब है दोस्ती का इक घर हो मंदिर जैसा पावन जिस में सभी दोस्त जब चाहें आएं साथ साथ रहें जब मर्ज़ी चले जाएं कोई बंधन नहीं हो । दोस्ती सभी का धर्म हो ईमान हो दोस्तों की दुनिया में किसी और दौलत की आवश्यकता नहीं होती है । आपको इक राज़ की बात बतानी है , मेरे पास अनमोल खज़ाना है दुनिया की सबसे बड़ी दौलत का तलाशी ले सकते हैं , मिलेगा प्यार और दोस्ती का अंबार । 
 

(  राजेंदर , जुगिंदर , भुपेन्दर , जैसे दोस्तों को समर्पित ये लेख जिनकी याद हमेशा रहेगी। ) 

 

 

नवंबर 26, 2024

POST : 1922 पचहत्तर साल का बाबा ( तीर ए नज़र ) डॉ लोक सेतिया

       पचहत्तर साल का बाबा ( तीर ए नज़र ) डॉ लोक सेतिया

सालों की गिनती का क्या महत्व है किताब की बात हो तो जो लिखा गया वही होता है पढ़ना हो अगर मगर उनको संविधान की किताब से कोई सबक नहीं सीखना उस में समझाई बातों पर अमल नहीं करना सिर्फ उसका लाभ उठाना है सत्ता मिलती है उसी का करिश्मा है । अचानक किसी को लगा कितने साल से उस की चर्चा करने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई अब जब राजनीति की नैया डोलने लगी हिचकोले खाने लगी सत्ता की डोली घबराने लगी सियासत अपना ढंग दिखाने लगी किसी चौखट पर सर झुकाने लगी । हमको बचपन की बात याद आई बाबा जी कहते थे सभी परिवार रिश्तेदार गांव शहर वाले , जीवन भर बड़ी मेहनत से कमाई की कितना कुछ बनाया । पुराने बज़ुर्ग बड़े सीधे सादे भोले हुआ करते थे जिस ने हाथ जोड़ जो भी मांगा बिना सोचे दे देते हर कोई सहायता मांगने चला आता । बूढ़े हुए तो घर की बैठक या ड्योढ़ी में चौखट पर बैठे कभी विश्राम करते आदत थी छोटे बड़े से आदर से प्यार से बात करते तो किसी को कोई परेशानी नहीं थी । इक घटना वास्तविक है हम बच्चे सभी भाई चुपचाप ख़ामोशी से रात को छोटे दरवाज़े से सिनेमा देखने चले गए बिना अनुमति बिना बतलाए । चतुराई की थी बैठक का दरवाज़ा भीतर से खुला छोड़ बाहर से सांकल लगा आये थे । फिल्म देख वापस आने पर बैठक का दरवाज़ा खोला तो सामने बाबा जी हाथ में उनकी इक खूंडी हमेशा रहती थी , सभी घबरा गए लेकिन बाबा जी ने कोई शब्द नहीं बोला न कुछ भी सज़ा ही दी । लेकिन कुछ था उनकी नज़रों में जो हमको हमेशा याद रहा । बाबा जी कहते थे तुम लोग चाहे जहां भी जाओ कुछ भी खादी का साधरण कपड़ा पहन रखा हो तुम्हारी पहचान मेरे पोते हो हमेशा रहेगी । बाबा जी का निधन पचास साल पहले हुआ तो हमको शायद ही समझ आया हो हमने कितना शानदार रिश्ता खो दिया है । 
 
मुझे ये कहने और स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि हमारे सैंकड़ों लोगों के बड़े परिवार में उन जैसा कभी कोई नहीं बन पाया । उनके विचार उनकी सभी को अपना बनाने भरोसा करने की आदत किसी में नहीं है निस्वार्थ और ईमानदारी से आचरण करना और कभी किसी से नहीं डरना खराब हालात का डटकर सामना करना इक ऐसा किरदार था जिस में कोई अहंकार कभी नहीं दिखाई दिया , कोई बड़ा छोटा नहीं सभी बराबर थे उनके लिए । संविधान की किताब का उन से कोई मतलब नहीं है लेकिन खुद अनपढ़ होने के बाद भी हमको पढ़ना लिखना उन्हीं ने सिखाया था । मुझसे हमेशा धार्मिक किताबें पढ़ कर सुनाने को कहते और मैं कभी इनकार नहीं करता था बाकी भाई बहाना बना बचते थे । आज लगा ये जितने लोग संविधान की वर्षगांठ मनाने का आयोजन उत्स्व मना रहे हैं क्या पढ़ते हैं किताब को समझते हैं अनुपालना करते हैं । शायद लोग भगवान धार्मिक कथाओं को भी पढ़ते समझते नहीं बस उनको अलमारी में या किसी जगह सजावट की तरह रख कर सर झुकाते हैं । विडंबना इस बात की है कि सर भी झुकाते हैं तो किसी स्वार्थ की खातिर कुछ चाहते हैं या फिर किसी डर से या गलती की क्षमा मांगने के लिए । आजकल बड़े बज़ुर्गों की तस्वीरें बनवा दीवार पर टंगवाने और फूलमाला चढ़ाने का चलन है , हम लोगों ने बाबा जी की कोई तस्वीर नहीं बनवाई , किसी ने नहीं लगवाई मरे पर पासपोर्ट साइज़ की अलबम में अवश्य सुरक्षित है । 
 
किताब से आवाज़ आती सुनाई दे रही है , बेबस लाचार बना दिया है मुझे इन्हीं लोगों ने जो भाषण में मुझे कितना महान बतला रहे हैं । वास्तव में मुझे अपने मतलब की खातिर दरवाज़े पर बिठाया हुआ है क्योंकि मेरा शरीर देखने में बड़ा बलशाली लगता है कोई चोर लुटेरा घर में प्रवेश करते घबराएगा । असल में मुझसे हिला भी नहीं जाता और रात भर जागता रहता हूं कितनी चिंताएं हैं मेरी भावनाओं की परवाह किसी को नहीं है ।

संविधान दिवस पर विशेष कार्यक्रम, 75 साल पूरे होने पर पुरानी संसद में आयोजन  City Tehelka

नवंबर 24, 2024

POST : 1921 नकली होशियारी झूठी यारी ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया

   नकली होशियारी झूठी यारी ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया 

जब पहली बार नकली होशियारी अथवा ए आई (   artificial intelligence ) का पता चला तभी मैंने तय कर लिया था इस नामुराद से बच कर रहना ज़रूरी है । होशियारी से अपना यूं भी कभी कोई नाता नहीं रहा है , सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी । लोग भले चाहते हैं सब कुछ आसानी से पलक झपकते हो जाये बस किसी अलादीन के चिराग़ से निकले जिन को आदेश देते असंभव भी संभव हो जाये । हमको मुश्किल राहों से उलझनों परेशानियों से गुज़र कर कुछ भी हासिल करना अच्छा लगता है नाकामियों से घबराना नहीं आता हमको । कागज के फूल हुआ करते थे अब प्लास्टिक से बने मिलते हैं और हमने इंसानों में भी पत्थर जैसे लोग देखे हैं जो हमेशा खूबसूरत दिखाई देते हैं लेकिन कुछ भी खुशबू नहीं बांटते नकली फूल । अभी तक दुनिया समझती समझाती थी नकली से बचना चाहिए ये क्या हुआ जो लोग नकली होशियारी पर ऐसे फ़िदा हैं । बताते हैं ये सब कर सकता है उसको कहोगे तो कुछ भी लिख देगा किसी भी की आवाज़ की हूबहू नकल करेगा जाने क्या क्या । लेकिन जानकारी लेने पर पता चला कि उस में जो भी सामिग्री जानकारी सूचनाएं भरी गई होती हैं उन्हीं से अंदाज़े से आपकी वांछित बात देता है । इसको समझदारी नहीं चालाकी चतुराई कहना चाहिए क्योंकि कंप्यूटर या मशीन खुद कुछ भी सृजन नहीं करती हैं केवल वही करती है जिस के लिए इंसान ने उसे बनाया हुआ है । 
 
ऐसे ढंग से कोई आपको अनाज फल खाने पीने की चीज़ें रोटी सब्ज़ी बनाकर प्रस्तुत कर भी दे तब भी आप उस को खा नहीं सकते , भविष्य में आपको मानसिक रोगी बना सकता है ये । सोचो आपको भूख लगी हो मगर ये नकली होशियारी आपको बताये कि आपका पेट अब भर चुका है ऐप्प पर देख सकते हैं । अभी इस को लोग उपयोग करने ही लगे थे कि कितनी ऐप्प्स बाज़ार में आ गई इनकी वास्तविकता को परखने को , अब उनसे जानकारी ली जाने लगी है कि नकली होशियारी से बनी हुई झूठी चीज़ है । अभी तो सरकार उसका उपयोग करने की बात सोचती हो शायद मगर बाद में लोग समझ सकते हैं कि चलो सरकार नेता सभी का कोई भरोसा नहीं रहा चलो इस के सहारे देश की व्यवस्था चलाते हैं । योजनाएं बजट सब इस से बन जायेगा और उनसे अधिक भरोसेमंद क्योंकि मशीन को रिश्वत भाईचारा स्वार्थ और जालसाज़ी की ज़रूरत नहीं होगी । लेकिन शोध कर्ता बताते हैं जब इसी से लिखवाई बात को कुछ दिन बाद इसी को परखने को कहा तो इस ने जवाब दिया ये किसी मूर्ख की समझाई गलत बात है । ऐसे एक दिन इस में जब कोई वास्तविक नई सही जानकारी नहीं भरी जाएगी क्योंकि हमने सब इस के हवाले कर दिया होगा खुद चैन की बंसी बजाते होंगे तब इस में कुछ नहीं बचेगा केवल कचरा मिलेगा । दुनिया में पहले भी ऐसा होता रहा है चतुर सुजान बनकर कुछ लोग अपना कचरा कूड़ा कर्कट अन्य देशों को बेच कर अपनी मुसीबत से छुटकारा पाते हैं साथ में कमाई भी करते हैं । बड़े बज़ुर्ग कहते थे हम चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती फिर इसका तो नाम ही   artificial intelligence है मतलब नकली का प्रमाणपत्र सलंगन है । झूठी यारी बड़ी बिमारी होती है । 
 
 What is Artificial Intelligence (AI) and Why People Should ...

नवंबर 20, 2024

POST : 1920 चुपके से छुपते छुपाते धंधा है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  चुपके से छुपते छुपाते धंधा है  ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

  आशिक़ी हो कि राजनीति हो कौन बच सकता है सभी करना चाहते हैं मगर सभी को सब कुछ मिलता नहीं है । लेकिन ये दो अलग अलग विषय हैं किताबें भी अलग अलग हैं , जाने क्यों नासमझ लोग आशिक़ी में भी राजनीति करने लगते हैं और कुछ लोग राजनीति में दिल लगा बैठते हैं , जबकि राजनीति में कोई भी किसी का होता नहीं है । लेकिन आज दोनों विषयों पर इक साथ लिखना मज़बूरी है क्योंकि आजकल समझना बड़ा दुश्वार है क्या ये राजनीति का कारोबार है या फिर किसी को किसी से हुआ सच्चा प्यार है । माजरा आपसी लेन देन का है और ऐसा लेना देना सार्वजनिक तौर पर नहीं करते अन्यथा हंगामा खड़ा हो जाता है । अधिकांश लोग अवैध लेन देन को रिश्वत कहना उचित नहीं मानते इसे उपहार कहना ठीक समझते हैं । सत्ता की राजनीति में उपहार का चलन पुराना है जनता को बड़ी मुश्किल से पड़ता मनाना है उसे अपना बनाना है तो नित नया रास्ता बनाना है । शराब की बोतल से कभी बात बन जाती थी कभी साड़ी बांटने से भरोसा जीत सकते थे वोट का नोट से रिश्ता अटूट है आपको सब करने की छूट है सरकार की योजना गरीबी मिटाने की नहीं है ये लूट खसूट है यही सच है बाक़ी सब झूठ है । भिक्षा कभी बेबस गरीब मांगते थे या फिर कुछ साधु संत सन्यासी पेट भरने को झोली फैलाते या भिक्षा पाने का कोई कटोरा हमेशा लिए रहते थे । भीख भिखारी भिक्षा सभी बदल चुके हैं आजकल ये धंधा सब बाक़ी व्यवसायों से अधिक आसान और बढ़िया बन चुका है उस से ख़ास बात ये है कि इस में कभी मंदा नहीं आता न ही इसको छोटा समझा जाता है । दानपेटी से कनपटी पर बंदूक रख कर ख़ुशी से चाहे मज़बूरी से देने के विकल्प हैं । दाता के नाम देने की बात आजकल कारगर साबित नहीं होती है डाकू गब्बर सिंह का तरीका भी अब छोड़ दिया गया है क्योंकि उस में खतरे अधिक और फायदा थोड़ा बदनामी ज़्यादा होती है । 

आपको ध्यान होगा कभी सरकारी दफ़्तर में रेड क्रॉस बांड्स के नाम पर वसूली खुले आम हुआ करती थी , बांड मिलते नहीं थे बस मूल्य देना पड़ता था । लेकिन हिसाब रखते थे वास्तव में कुछ बांड की बिक्री की कीमत जमा करते थे मगर उस पैसे को खर्च स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाने पर नहीं बड़े अधिकारी की सुख सुविधाओं पर करते थे । तबादला होने पर अधिकारी खाते में जमा बकाया राशि कुछ खास अपने लोगों को वितरित किया करते थे , भविष्य में उसका फल मिलता रहता था । वक़्त बदला तो इस हाथ दो उस हाथ लो का नियम व्यवहारिक लगा तो परिणीति चुनवी बांड्स में हुई मगर कुछ ही समय बाद उनको अवैध घोषित कर दिया गया अदालत द्वारा । लोकतंत्र का तमाशा अजीब है जिस में ऐसी बातें राज़ कहलाती हैं जिनके बारे में हर कोई जानता है । जब तक सामने दिखाई नहीं देता किसी को कोई मतलब नहीं होता जानते हैं कि सभी दल यही करते हैं ईमानदारी की मूल्यों पर आधारित राजनीति कोई नहीं करता सब समझते हैं जो चाहे वही करूं मेरी मर्ज़ी । कोयले पर हीरे का लेबल लगाया हुआ है राजनीति काजल की कोठरी है कालिख से कौन बच सकता है । देश की आधी से अधिक संपत्ति धन दौलत कुछ लोगों के पास जमा हुई है तो सिर्फ इसी तरह से जनता से वसूल कर खज़ाना भरने और उस खज़ाने से योजनाओं के नाम पर अपनों को वितरित करने या अंधा बांटे रेवड़ियां फिर फिर अपने को दे । इधर चुनाव में बांटने बटने साथ रहने पर चुनाव केंद्रित था किसी को खबर नहीं थी कि मामला पैसे बांटने की सीमा तक पहुंचेगा ।
 
आपको क्या लगा जिस से बात शुरू की थी इश्क़ आशिक़ी उस को भुला दिया या उस का कोई मतलब ही नहीं है । ऐसा नहीं है सच कहें तो सिर्फ राजनेता अधिकारी उद्योगपति ही नहीं सभी पैसे से दिल लगा बैठे हैं पैसे की हवस ने समाज को पागल बना दिया है । राजनीति समाजसेवा देशभक्ति की खातिर नहीं होती अब आजकल सत्ता हासिल कर नाम शोहरत ताकत का उपयोग कर दौलत हथियाने को की जाती है । जिस जगह कभी कुंवां था शायर कहता है उस जगह प्यास ज़्यादा लगती है बस वही बात है जिनके पास जितना भी अधिक पैसा होता है उसकी लालसा उसका लोभ उतना ही बढ़ता जाता है । आपने ठगी करने की कितनी बातें सुनी होंगी ठग पहले कुछ लालच देते हैं बाद में लूटते हैं जैसे शिकारी जाल बिछाता है पंछी दाना चुगने आते हैं जाल में फंसते हैं । राजनीति जो जाल बुनती है बिछाती है दिखाई नहीं देता कभी कोई हादसा पेश आता है तो ढकी छुपी असलियत सामने आती है तब हम हैरान होने का अभिनय करते हैं जैसे हमको नहीं पता था कि ऐसा ही होता रहा है और होना ही है क्योंकि हमको आदत है बंद रखते हैं आंखें । आखिर में पेश है मेरी इक पुरानी ग़ज़ल । 
 

कैसे कैसे नसीब देखे हैं  ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कैसे कैसे नसीब देखे हैं
पैसे वाले गरीब देखे हैं ।

हैं फ़िदा खुद ही अपनी सूरत पर
हम ने चेहरे अजीब देखे हैं ।

दोस्तों की न बात कुछ पूछो
दोस्त अक्सर रकीब देखे हैं ।
 
ज़िंदगी  को तलाशने वाले
मौत ही के करीब देखे हैं ।

तोलते लोग जिनको दौलत से
ऐसे भी कम-नसीब देखे हैं ।

राह दुनिया को जो दिखाते हैं
हम ने विरले अदीब देखे हैं ।

खुद जलाते रहे जो घर "तनहा"
ऐसे कुछ बदनसीब देखे हैं ।   
 

 Amit Srivastava🕉️🇮🇳 on X: "वो बिक चुके थे... जब हम खरीदने के काबिल हुए!  https://t.co/UYIalYMqYN" / X
 

नवंबर 17, 2024

POST : 1919 क्या हुआ क्योंकर हुआ बोलता कोई नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       क्या हुआ क्योंकर हुआ बोलता कोई नहीं ( ग़ज़ल ) 

                         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

क्या हुआ क्योंकर हुआ बोलता कोई नहीं 
बिक गया सब झूठ सच तोलता कोई नहीं । 

शहर में रहते हैं अंधे उजाला क्या करे 
खिड़कियां हैं बंद दर खोलता कोई नहीं । 



POST : 1918 तलाश कहां होगी कब पूरी ( पुरानी डायरी से ) डॉ लोक सेतिया

   तलाश कहां होगी कब पूरी ( पुरानी डायरी से  ) डॉ लोक सेतिया 

अभी नहीं मालूम अगली ही पंक्ति में लिखना क्या है सुबह सुबह ये ख़्याल आया कि इस दुनिया में सभी कुछ तो है फिर भी सभी की झोली ख़ाली दिखाई देती है तो किसलिए । बहुत सारी पुरानी डायरियां संभाल कर रखी हुई है , अक़्सर जब कोई सवाल परेशान करता है तो उनको पढ़ता हूं और न जाने कैसे मुझे जो बात नहीं समझ आ रही थी पल भर में समझ आ जाती है । आज विचार आया मन में बातचीत में व्यवहार में सोशल मीडिया से लेकर साहित्य फ़िल्म टीवी सीरियल सभी में ऐसा लगता है देख सुन कर जैसे जहां में प्यार वफ़ा ईमानदारी भरोसा जैसे शब्द अपना अर्थ खो चुके हैं ऐसा कुछ मिलता ही नहीं किसी को भी ढूंढते ढूंढते सब का जीवन गुज़र जाता है ।
 
कुछ रचनाएं आधी अधूरी पुरानी डायरी में लिखी हुई हैं , पढ़कर देखा , जिनको किसी न किसी कारण से मुकम्मल नहीं किया जा सका था , लेकिन उनकी शायद दबी हुई भावनाओं को खुद ही आकार देने की क्षमता अभी तक नहीं रही खुद मुझी में , तो किसी को क्या बताता और कोई कैसे समझाता  । उम्र के इस मोड़ पर जो मुझे समझ आया वो इक वाक्य में कहा जा सकता है ' मैंने सही लोगों में सही जगह उचित तरीके से जिन बातों की चाहत थी बेहद ज़रूरत थी दोस्ती प्यार अपनेपन की नहीं की,  और जिन लोगों जिन जगहों पर उनका आभाव था वहां उन सब को ढूंढता रहा '। तभी मैंने अपने जीवन को रेगिस्तान में पानी की तलाश ओएसिस जैसा बार बार कहा है रचनाओं में । आसानी के लिए वही कुछ पुरानी कविताएं नज़्म या जो भी है सार्वजनिक कर रहा हूं विषय की ज़रूरत है ऐसा सोच कर । 
 
 1 

ज़िंदा रहने की इजाज़त ही नहीं मिली , 
प्यार की मुझको इक दौलत नहीं मिली ।
 
मिले दोस्त ज़माने भर वाले , लेकिन , 
कभी किसी में भी उल्फ़त नहीं मिली । 
 
नासेह की नसीहत का क्या करते हम , 
लफ़्ज़ों में ख़ुदा की रहमत नहीं मिली ।   
 
 2 

किसी की आरज़ू में  खुद अपने भी न बन पाए ,  
गुलों की चाहत थी कांटों से भरे सब चमन पाए । 
 
मुहब्बत की गलियों में में यही देखा सब ने वहां ,  
ख़ुद मुर्दा हुए दफ़्न हुए तब खूबसूरत कफ़न पाए ।  
 
अजनबी अपने देश गांव शहर में लोग सभी मिले  ,   
जा के परदेस लोगों ने कभी अपने हम-वतन पाए ।
 
 3 

अपने अपने घर बैठे हैं हम सब ये कैसा याराना है ,  
मिलने की चाहत मिट गई फुर्सत नहीं का बहाना है ।  
 
फूलों सी नमी शोलों में लानी है हमने पत्थर दिलों में , 
मिटानी हर नफरत और एहसास प्यार कर जगाना है ।  
 
ढूंढता फिरता हूं खुद ही अपने क़ातिल को मैं कब से   , 
मुझको कोई तो नाम बताओ किस किस को बुलाना है ।
 
 
कुछ यहां तो कुछ वहां निकले , 
नासमझ सारे ही इंसां निकले ।
 
मैंने दुश्मनी का सबब पूछा जब  , 
दोस्त खुद ही बड़े पशेमां निकले ।  

उस का इंतज़ार करते रहे वहीं रुक  , 
जहां से थे वो सभी कारवां निकले । 
 
 5 

कोई अपना होता गर तो कुछ गिला करते , 
ज़माना गैर है किसी से बात ही क्या करते । 
 
बेवफ़ाई शहर की आदत थी पुरानी बनी हुई , 
हमीं बताओ आख़िर कब तलक वफ़ा करते । 
 
ज़ख़्म नहीं भरें कभी यही तमन्ना अपनी थी , 
चारागर पास जाके  क्योंकर इल्तिज़ा करते ।  
 
 
इतना काफ़ी आज की बात को समझने को और नतीजा निकला जवाब समझ आया कि जिस को जो चाहिए पहले ये सोचना समझना होगा वो है कहां मिलेगी कैसे किस से तब अपनी उस को हासिल करने को कोई रास्ता बनाना होगा । चाहत बड़ी कीमती चीज़ होती है सब को इसकी समझ होती नहीं है जब मनचाही चीज़ मिले तो दुनिया की दौलत के तराज़ू पर नहीं रखते हैं दिल के पलड़े पर पता चलता है सब लुटा कर भी कोई दौलतमंद बनता है तो पैसे हीरे मोती सब किसी काम नहीं आये जितना इक शख़्स जीवन में मिल जाए तो किस्मत खुल जाती है । तय कर लिया है जहां प्यार वफ़ा ईमानदारी और विश्वास नहीं हो उस तरफ भूले से भी जाना नहीं है । मुझे अपनापन प्यार और हमदर्द लोग मिले जिनसे मिलने की उम्मीद ही नहीं की थी । उसी रेगिस्तान में पानी कुछ हरियाली को ढूंढता हूं मैं मुझे मालूम है चमकती हुई रेत को पानी समझना इक मृगतृष्णा है उस से बचना है और यकीन है जिस दुनिया की तलाश है वो काल्पनिक नहीं वास्तविक है और मिल जाएगी किसी न किसी दिन मुझे ।  
 
 


नवंबर 11, 2024

POST : 1917 शानदार आवरण में खोखलापन ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

      शानदार आवरण में खोखलापन ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

जो नज़र आता है वास्तविकता नहीं होता है , ठीक जैसे सुंदर लिबास और चेहरे के भीतर आदमी नहीं कोई शैतान रहता है । बगुला जैसे हैं हम लगते हैं बड़े साफ़ मन वाले मगर बस मौका मिलते ही अपनी असलियत पता चलती है झपटने को तैयार रहते हैं । धार्मिक बनकर कितना कुछ करते हैं पूजा अर्चना इबादत भजन कीर्तन धार्मिक स्थल पर जाना सर झुकाना ग्रंथों को पढ़ना सुनना हाथ में माला जपना भक्ति श्रद्धा करना दीपक जलाना फूल चढ़ाना नाचना झूमना आंसू बहाना । मगर हमेशा रहता है कहीं पर निगाहें कहीं पे निशाना । कौन कितना भला कितना बुरा नहीं कोई भी पहचाना , छोड़ा नहीं झूठ बोलना दुनिया को जैसा नहीं होकर दिखलाना । लोभ छोड़ा न नफरत छोड़ी अहंकार कितना कितनी दौलत कैसे जोड़ी चलन है निराला भीतर अंधेरा है बाहर उजाला । देशभक्त कहलाते हैं मगर हैं छलिया जिस शाख पर बैठते हैं उसे ही काटते रहते हैं चोर डाकू कुछ भी उनके सामने नहीं है ये समाज को बर्बाद करते हैं भटकाते हैं कुर्सियों पर बैठ दरबारी राग गाकर क़ातिल होकर मसीहा कहलाते हैं । पढ़ लिखकर बड़े सभ्य लगते हैं लेकिन वास्तव में मतलबी और कपटी हैं जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते जाते हैं । प्यार मुहब्बत की ख़त्म हुई कहानी है बच्चे नहीं भोले आजकल न कोई बुढ़िया रानी है बचपन सीख रहा है जंग और लड़ाई वाले खेल कितने अब नहीं हैं परियां नहीं हैं खूबसूरत से सपने । 
 
समझदार बनकर क्या हमने है पाया नींद खोई है अमन चैन गंवाया भाई नहीं लगता कोई हमसाया सबको दुश्मन अपना बनाया । सोशल मीडिया ने जाल इक ऐसा बिछाया जिस ने सभी को सही रास्ते से भटका कोई खतरनाक रास्ता दिखला पागल है बनाया । टीवी सीरियल चाहे फ़िल्मी कहानी सभी को है बस दौलत बहुत कमानी करते हैं कितनी नादानी इस युग में काल्पनिक भूतों की डरावनी कहानी लगती है सबको कितनी सुहानी जो है मृगतृष्णा रेगिस्तानी लगता है प्यासे को पानी । भूलभुलैया में डूबी है नैया कहीं भी नहीं कोई ऐसा खिवैया जो बचाये भईया , समझ लेते हैं जिसको सैंयां उसी ने करानी है ता ता थैया । दुनिया में मिलता नहीं इंसान ढूंढने से शैतान लगता है भगवान देखने से आज किसी की कल किसी की है बारी हैवानियत हुई इंसानियत पर भारी । राजा थे हम बन गए हैं भिखारी विनाश की करते रहते हैं तैयारी दिल करता है कहीं किसी दिन चुपचाप भाग जाएं कोई अपनी खुद की दुनियां बनाएं जिस में कोई छल कपट झूठ नहीं हो जैसा हो किरदार नज़र वही आएं । लेकिन मुश्किल है इस शानदार आवरण को उतरना भीतर का खोखलापन बाहर निकालना , सब सुनाते हैं अपनी आधी कहानी सच्चाई नहीं लिखता कोई सुनाता कोई अपनी ज़ुबानी । जिस दिन मनाते हैं हम दीवाली होती है अमावस की रात कितनी काली , खड़ा है उस दर पर कौन बनकर इक सवाली भरी झोली किसकी रही सबकी खाली । ज़माने को क्या दिखला रहे हैं हम जो नहीं हैं बनने की कोशिश में अपनी असलियत को झुठला रहे हैं । जाने किस बात का जश्न मना रहे हैं हर दिन और भी नीचे धसते धरातल की तरफ जा रहे हैं । 
 
 
 Message Of Diwali Is To Remove Darkness Of Ego Clarity And Enlightenment  Related To Human Existence - Amar Ujala Hindi News Live - दिवाली पर अहंकार  मिटाने वाली रोशनी:प्रकाश आपके भीतर... मानव

नवंबर 09, 2024

POST : 1916 अजीब दास्तां है ये ( अंधेर नगरी चौपट राजा ) डॉ लोक सेतिया

अजीब दास्तां है ये ( अंधेर नगरी चौपट राजा ) डॉ लोक सेतिया

दो घटनाएं अलग अलग होते हुए भी टेलीविज़न पर एक ही दिन चर्चा में आने से एक दूजे से जुडी हुई लगती हैं । सुबह इक राज्य में मुख्यमंत्री के आगमन पर पांच तारा होटल से मंगवाया नाश्ता उनकी जगह उन के ही स्टाफ को खिलाया गया जिसकी जांच विभाग ने घोषित की है हालाँकि जब इसका उपहास होने लगा तब सरकार ने खुद को उस से अलग रखने की कोशिश की । शाम को इक टीवी शो में इक बड़े अधिकारी को आमंत्रित किया गया था जिनके जीवन पर लिखी पुस्तक पर इक सफल फ़िल्म बन चुकी है । विडंबना की बात ये है कि कितनी मुश्किलों को पार कर अधिकारी बनने वाले जब वास्तविक कार्य की जगह सत्ताधारी नेताओं की आवभगत और उनके लिए तमाम प्रबंध करने में अपना वास्तविक कर्तव्य भूल जाते हैं तब लगता है की जैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर राजा और गुलाम के किरदार दिखाई देने लगे हैं । क्यों जब कोई भी नेता किसी सरकारी कार्य पर किसी विभाग में आता जाता है तब तमाम सरकारी अमला उसकी सुविधा और जीहज़ूरी में लगे रहते हैं जबकि वो कोई महमान बनकर नहीं सरकारी काम से आये होते हैं । शायद असली कार्य भूल जाता है और अधिकांश ऐसी बैठकें औपचारिकता मात्र होती हैं , असली कामकाज तो कंप्यूटर फोन से ऑनलाइन अथवा वीडियो कॉन्फ्रेंस से होते रहते हैं या हो सकते हैं । हक़ीक़त तो ये है कि अधिकांश सरकारी अधिकारी कर्मचारी राजनेता सामन्य जनता का कोई भी कार्य करने को तैयार नहीं होते सिर्फ खास वर्ग या सिफ़ारिश रिश्वत वाले काम तुरंत किये जाते हैं । कोई भी कारोबारी जब किसी कार्य से कहीं जाता है तब खुद अपना सभी प्रबंध करता है खाने रहने का । कोई भी नेता या अधिकारी जब सरकारी कार्य करने जाते हैं तो क्या उनके पास आने जाने खाने पीने को धन नहीं होता है जो बाद में विभाग से वसूल किया जा सके व्यक्तिगत ढंग से बिना सरकारी तंत्र को बर्बाद किए । सिर्फ इस कार्य के लिए तमाम सरकारी विभाग के लोगों को लगाना जनता के लिए कितनी परेशानियां पैदा करते हैं । क्योंकि बड़े से बड़े पद पर आसीन लोग इस अनावश्यक अनुचित परंपरा के आदी हो चुके हैं इसलिए उनको उचित अनुचित की समझ नहीं आती है । 
 
ये सवाल कोई केवल पैसों का नहीं है बल्कि वास्तविकता तो यही है कि सांसद विधायक मंत्री मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री तक सभी प्रतिदिन अधिकांश सरकारी अमले ससाधनों को अपने लिए आरक्षित रखते हैं जिस से सामान्य नागरिक के साधारण कार्य भी होते ही नहीं आसानी से । आज़ादी के 77 साल बाद सामन्य लोगों की बुनियादी समस्याएं हल नहीं होने का प्रमुख कारण यही है । सत्ता के मद में उनको अपना जनसेवा करने का फ़र्ज़ याद ही नहीं रहता बल्कि खुद को शासक समझ कर व्यवस्था का दुरूपयोग करते हैं क्योंकि सभी इक जैसे हैं इसलिए कौन किस को क्या समझाए ।  विवेकशीलता का नितांत आभाव है और अहंकार तथा मनमानी करना किसी को अपराध क्या अनुचित नहीं प्रतीत होता है । देश में हर जगह यही हालत है जैसे अंधेर नगरी चौपट राजा की कहानियां सुनते थे सामने दिखाई देती हैं । नैतिकता की बात कोई नहीं करता और सादगीपूर्ण जीवन किसी को स्वीकार नहीं है सभी को शाहंशाह जैसा जीवन चाहिए भले उसकी कीमत साधारण जनता को जीवन भर चुकानी पड़ रही है समानता का सपना कभी सच नहीं होगा इस ढंग से । 
 
अगर कभी कोई इनसे हिसाब मांगता और जांच परख की जाती तब मालूम होता इतने सालों में सरकारी लोगों की अनावश्यक यात्राओं आयोजनों पर नेताओं की व्यर्थ की प्रतिदिन की सभाओं आयोजनों पर उनके विज्ञापनों प्रचार प्रसार पर जितना धन बर्बाद किया गया है उस से करोड़ों लोगों की बुनियादी सुविधाओं शिक्षा स्वास्थ्य इत्यादि की व्यवस्था संभव थी ,अर्थात इन्होने ये सब नहीं होने दिया जो ज़रूरी था । ये सभी सिर्फ सफेद हाथी जैसे देश पर बोझ बन गए हैं जिसको समाज देश कल्याण कहना छल ही है ।  इसका अंत होना ही चाहिए अन्यथा देश कभी वास्तविक लोकतंत्र नहीं बन सकता है लूट तंत्र बन गया है या बनाया गया है ।
 
  Srinivas BV - अंधेर नगरी, चौपट राजा!