मई 12, 2024

खिलाए फूल जिन्होंने पत्थर खा रहे ( अहसान फ़रामोश लोग ) डॉ लोक सेतिया

       खिलाए फूल जिन्होंने पत्थर खा रहे ( अहसान फ़रामोश लोग ) 

                             ( आलेख )  डॉ लोक सेतिया 

ये बात लिखना कितना दर्दनाक अनुभव करवाता है अल्फ़ाज़ नहीं हैं बताने को , इधर इक चलन बन गया है उनकी अनुचित आलोचना करने का जिन्होंने अपना जीवन देश पर न्यौछावर कर दिया । अफ़सोस तो तब होता है जब ऐसी आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाले खुद जानते समझते ही नहीं कि हमने क्या किया है । देश के लोकतंत्र पर कुछ लोग बोलते हैं कि इस देश के लोग इस काबिल ही नहीं और उनको लगता है कि जिन कुछ देशों में सिर्फ एक ही दल की सरकार होती है कोई विकल्प ही नहीं होता वो अच्छा है । शायद उनको ध्यान नहीं रहता कि तब उनको ये बोलने तक का भी अधिकार नहीं मिलता । सिर्फ बोलने की आज़ादी ही नहीं बल्कि बहुत कुछ बल्कि सभी कुछ जो हमको हासिल हुआ होता है और भविष्य में कितना कुछ और मिलेगा उनको कल्पना ही नहीं कि बिना लोकतांत्रिक व्यवस्था हम किसी अनचाही अनदेखी कैद में किसी घुटन भरे माहौल में कितनी बेबसी से जीते । सैंकड़ों साल जिस आज़ादी की खातिर अनगिनत लोगों ने अपनी ज़िंदगी ही नहीं अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया उस की कीमत ही नहीं जानी हमने और बिना सोचे समझे इतना तक कहने लगे हैं कि देश की जनता को आज़ादी या लोकतंत्र मिलना ही नहीं चाहिए । हैरानी तब होती है जब कभी वही लोग जिस को मसीहा ही नहीं मानते थे बल्कि विश्वास करते थे कि उस को कभी कोई पराजित नहीं कर सकता है अब उसी की पराजय की कल्पना मात्र से उन लोगों का मानसिक संतुलन इतना बिगड़ गया है कि वो किसी भी हद तक घटिया और अतार्किक बात कह सकते हैं । लोकतंत्र की ताकत है जो आज भी किसी को सर बिठा भी सकती है और जब सही साबित नहीं हो सत्ता से बेदखल कर आसमान से नीचे धरती पर ला सकती है जो उनको मंज़ूर नहीं जिन्हें सब कुछ बिना कीमत चुकाए चाहिए ।
 
इक काल्पनिक कहानी है कुछ लोगों को इक शानदार बगीचा फ़लदार पेड़ रंग बिरंगे फूल और इक बेहद खूबसूरत दुनिया बिना किसी मेहनत विरासत में मिल जाती है । लेकिन उनको उन सभी की अहमियत पता नहीं होती और अपनी मनमानी और विनाशकारी प्रवृति से सब तहस नहस कर देते हैं । आपने कई कहानियां सुनी होंगी सोने का अंडा देने वाली मुर्गी से लेकर बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे जैसी लेकिन यहां दो अलग अलग लोककथा नीतिकथा से शासक और मतलबी स्वार्थी लोगों का चरित्र समझ आ सकता है इतना ही नहीं बल्कि उन दोनों को मिलाकर आज की कड़वी वास्तविकता को पूरी तरह समझ सकते हैं ।  कितनी अजीब बात है कि जिन लोगों से आपेक्षा थी कि साधन सुविधा हासिल कर अपने स्वार्थों से इतर समाजिक समानता और मानवता को लेकर कोई सार्थक पहल या प्रयास करेंगे शिक्षित धनवान लोग उनको खुद के सिवा किसी की भी कोई चिंता नहीं । उनको अपनी ज़िंदगी में कोई खलल नहीं चाहिए भले आस पास तमाम लोग बर्बाद होते रहे अन्याय शोषण सहने को विवश हों । अभी तक देश का लोकतंत्र बेशक जीर्ण शीर्ण अवस्था में भी कायम है और साहस रखता है बदलाव की तो उन्हीं अशिक्षित उपेक्षित लोगों के जीवट की बदौलत ही है । वही लोग जिनको शायद आवश्यकता से बढ़कर किसी तरह मिल गया आज खुद को समझदार और उनको नासमझ मानते हैं जो पीछे रह गए हैं । जिस देश में सभी इक दूसरे का दुःख दर्द नहीं समझें और वंचित लोगों की अधिकारों की परवाह तक नहीं करते उस देश समाज का कल्याण हो भी कैसे । अपने लिए अधिकार मांगने वाले शोषित वर्ग को मानवाधिकार तक मिलने की बात पर चिंतन नहीं करते । समाज हम सभी से बनता है अफ़सोस हर कोई ख़ुदगर्ज़ होकर सिर्फ अपनी बात समझता है अगर हमको कोई परेशानी नहीं तो बेशक समाज रसातल की तरफ जाता रहे हमको क्या । जिन्होंने खुद कोई कर्तव्य निभाना ज़रूरी नहीं समझा उनको शिकायत बहुत हैं उनकी नींद में खलल नहीं पड़ना चाहिए । धार्मिक हैं घोषित है इतना काफी नहीं धर्म क्या है देश से प्यार क्या है नहीं जानते हैं । मौज मस्ती फज़ूल की बातें करना आसान है देश की वास्त्विक गंभीर समस्याओं पर चिंतन करना उनका समाधान खोजना हमारा भी कर्तव्य है सिर्फ सरकार प्रशासन पर सभी नहीं छोड़ सकते हैं । अधिकांश सरकारी विभाग अधिकारी कर्मचारी जनता के प्रति कोई कर्तव्य नहीं निभाते बस अपने लिए इक सुरक्षित जीवन चाहते हैं उसकी कीमत भले ज़मीर की बात को अनसुना कर लूट और भ्र्ष्टाचार का अंग बन जाना हो देश जनता की सेवा को भूलकर ।  दो वर्ग इक शासक बनकर गुलछर्रे उड़ाता है दूजा मतलबी और संवेदनारहित आचरण करता खुद पर केंद्रित है और उन दोनों के बीच में तीसरा वर्ग पिसता रहता है कदम कदम पर ज़ुल्म सहता हुआ ख़ामोशी से बेबस होकर । ज़िंदा है इक सपने की आस लिए कि किसी दिन देश में सभी को अपना अपना हिस्सा मेहनत का फल मिलेगा , ये बदल छटेंगे और कोई नई रौशनी इक नया दौर आएगा , हर बार चुनाव में वोट डालता है यही सोच कर । बार बार निराश हो कर भी उस ने हौंसला छोड़ा नहीं है , हमारे लोकतंत्र की बुनियाद उन्हीं से है । जो पहली कतार में खड़े हैं उनको सिर्फ अपने से आगे वालों से आगे जाना है पीछे वालों की उनको परवाह नहीं चाहे खुद उनके कारण ही वो पिछड़ गए हैं ।  समझने को दो कथाएं पढ़ना उचित होगा ।
 
 

                          धरती का रस ( नीति कथा )

 

एक बार इक राजा शिकार पर निकला हुआ था और रास्ता भटक कर अपने सैनिकों से बिछड़ गया । उसको प्यास लगी थी , देखा खेत में इक झौपड़ी है इसलिये पानी की चाह में वहां चला गया । इक बुढ़िया थी वहां , मगर क्योंकि राजा साधारण वस्त्रों में था उसको नहीं पता था कि वो कोई राह चलता आम मुसाफिर नहीं शासक है उसके देश का । राजा ने कहा , मां प्यासा हूं क्या पानी पिला दोगी । बुढ़िया ने छांव में खटिया डाल राजा को बैठने को कहा और सोचा कि गर्मी है इसको पानी की जगह खेत के गन्नों का रस पिला देती हूं । बुढ़िया अपने खेत से इक गन्ना तोड़ कर ले आई और उस से पूरा गलास भर रस निकाल कर राजा को पिला दिया । राजा को बहुत ही अच्छा लगा और वो थोड़ी देर वहीं आराम करने लगा । राजा ने बुढ़िया से पूछा कि उसके पास कितने ऐसे खेत हैं और उसको कितनी आमदनी हो जाती है । बुढ़िया ने बताया उसके चार बेटे हैं और सब के लिये ऐसे चार खेत भी हैं । यहां का राजा बहुत अच्छा है केवल एक रुपया सालाना कर लेता है इसलिये उनका गुज़ारा बड़े आराम से हो जाता है । राजा मन ही मन सोचने लगा कि अगर वो कर बढ़ा दे तो उसका खज़ाना अधिक बढ़ सकता है । तभी राजा को दूर से अपने सैनिक आते नज़र आये तो राजा ने कहा मां मुझे इक गलास रस और पिला सकती हो । बुढ़िया खेत से एक गन्ना तोड़ कर लाई मगर रस थोड़ा निकला और इस बार चार गन्नों का रस निकाला तब जाकर गलास भर सका । ये देख कर राजा भी हैरान हो गया और उसने बुढ़िया से पूछा ये कैसे हो गया , पहली बार तो एक गन्ने के रस से गलास भर गया था । बुढ़िया बोली बेटा ये तो मुझे भी समझ नहीं आया कि थोड़ी देर में ऐसा कैसे हो गया है। ये तो तब होता है जब शासक लालच करने लगता है तब धरती का रस सूख जाता है । ऐसे में कुदरत नाराज़ हो जाती है और लोग भूखे प्यासे मरते हैं जबकि शासक लूट खसौट कर ऐश आराम करते हैं । राजा के सैनिक करीब आ गये थे और वो उनकी तरफ चल दिया था लेकिन ये वो समझ गया था कि धरती का रस क्यों सूख गया था । 
                                                                                                                                       

                       तू पी -तू पी ( लोक कथा )

 

ये राजस्थानी लोक कथा है । बचपन की दो सखियां रेगिस्तान से गुज़र रही होती हैं । रास्ते में उनको एक विचित्र दृश्य नज़र आता है । हिरणों का इक जोड़ा वहां मृत पड़ा होता है और पास में थोड़ा सा पानी भी होता है । इक सखी पूछती है दूसरी सखी से भला ऐसा क्योंकर हुआ होगा , ये दोनों प्यासे कैसे मरे हैं जब यहां पानी भी था पीने को । दूसरी सखी बताती है ये दोनों इक दूजे को प्रेम करते थे , प्यास दोनों को बहुत लगी थी लेकिन पानी कम था इतना जो इनमें से एक की प्यास ही बुझा सकता था । दोनों इक दूजे को कहते रहे तू पी - तू पी , मगर पिया नहीं किसी ने भी । दोनों चाहते थे कि जिसको प्रेम करते वो ज़िंदा रहे और खुद मर जायें , साथ साथ मर कर अपने सच्चे प्रेम की मिसाल कायम कर गये । सखी इसको ही प्यार कहते हैं ।

       बहुत साल बीत गये और वो दोनों सखियां बूढ़ी हो गई । फिर रेगिस्तान में उनको वही दृश्य दिखाई दिया और फिर एक सखी ने कहा दूसरी से कि देख सखी वही बात आज भी नज़र आ रही है । दूसरी सखी बोली अरी सखी तू किस युग की बात करती है ये वो बात नहीं है । हालत वही थी कि दोनों प्यासे थे मगर पानी थोड़ा था जो किसी एक को बचा सकता था । ये दोनों आपस में लड़ते रहे पानी खुद पीने के लिये । दूसरे को नहीं पीने देने के लिये लड़ते हुए मर गये , किसी ने भी दूसरे को पानी नहीं पीने दिया । ये आज के प्रेमियों के स्वार्थ की बात है सखी , अब वो प्यार कहां जो दूजे के लिये जान देते थे ।


इस व्यथा कथा का भावार्थ :-

शासक से लेकर स्वतंत्रता पूर्वक आनंदमय जीवन मिलने पर हमने उन सभी देश के महान नायकों और अथक मेहनत से देश को शानदार भविष्य देने को बड़ी दूरदर्शिता से इक संविधान देने और लोकतांत्रिक व्यवस्था की राह दिखाने वालों पर अनुचित दोषारोपण करने का आपराधिक आचरण किया है । यही होता है फलदार पेड़ को लोग पत्थर मारते हैं । 

Krishi Jagran Hindi - दुनिया विरोध करे तो तुम डरना मत क्योंकि जिस पेड़ पर  फल लगते हैं दुनिया उसे ही पत्थर मारती है. #goodnight #goodnightquotes  #hindiquotes #motivationalquotes ...



 

मई 09, 2024

लोकतंत्र हाज़िर हो ( खरी खरी ) डॉ लोक सेतिया

       लोकतंत्र हाज़िर हो ( खरी खरी ) डॉ लोक सेतिया

 
 इसको लोकतंत्र नहीं कहते हैं , किसी शासक को समझ आ गया हो कि उसने अपने देश अथवा राज्य अथवा जिस भी क्षेत्र से कोई निर्वाचित हुआ हो वहां की जनता का भरोसा उस पर नहीं रहा है फिर भी वो सत्ता या पद या सदस्यता पर बने रहना चाहता है । अल्पमत साबित होने का इंतज़ार करना सत्ता की भूख का प्रमाण है , और ऐसे में बहुमत जुटाने को साम दाम दंड भेद अपना कर विरोधी नेताओं को अपनी तरफ लाना नैतिकता को छोड़ किसी भी तरह कुर्सी पर बने रहना लोकलाज को भुलाना है । लोकलाज और शर्मो हया का त्याग करना आपको निम्न स्तर की राजनीति करने पर विवश कर लोकतंत्र की हत्या कर देने का अपराध करवाता है । बिना सोचे विचारे किसी भी नेता को अपने दल में शामिल करना भले उसकी कोई विचारधारा नहीं हो और वो आपराधिक छवि का बदनाम व्यक्ति हो ये प्रमाणित करता है कि आपको देश समाज की कोई चिंता नहीं और सत्ता की खातिर आप किसी भी हद तक समझौता कर सकते हैं ।  तलाश लोकतंत्र की और दर्शन दो लोकतंत्र शीर्षक से दो पोस्ट 2014 जनवरी में पब्लिश की गई हैं ये उस श्रेणी का नवीनतम अध्याय है । आप इसको इक जनहित याचिका समझ सकते हैं देश की जनता का भरोसा डगमगा रहा है उसे महसूस होने लगा है कि स्वर्ग और नर्क की तरह संविधान में वर्णित लोकतंत्र भी इक सुंदर कल्पना मात्र है अभी तक उसने खुद को जीवंत साबित नहीं किया है । अदालत वकील दलील सबूत सभी कुछ ख़ास लोगों की कैद में बंद हैं जनता उन तक कभी नहीं पहुंच पाती है । हर कोई वास्तविक लोकतंत्र को देखना महसूस करना चाहता है मगर कौन उस का पता ठिकाना बताए कहीं कोई उस की सुनवाई करने वाला नहीं है । 
 
ये अदालत भी ऊपरवाले की अदालत की तरह है जो सुनवाई कर सकती है समझ भी सकती है लेकिन कोई निर्णय नहीं कर सकती है क्योंकि उस के पास फैसला लागू करने की कोई व्यवस्था नहीं है और जिन्होंने देश के लोकतंत्र का हरण कर अपनी किसी तथकथित अशोक वाटिका में सीता की तरह बंधक बनाया हुआ है वो रावण से अधिक हठी और अहंकारी हैं । उन सभी को कोई अदालत दंडित नहीं कर पाई कभी भी वो सभी गुनहगार रंगे हाथ पकड़े जाने के बावजूद बेगुनाह साबित होते रहे हैं । अदालत की आंखों पर काले रंग की इक पट्टी बंधी है जिस में सब दिखाई देता है जैसा अदालत और न्याय व्यवस्था देखना चाहती है । अदालत के हाथ इक कोड़ा है अवमानना का दोष बता कर किसी को भी खामोश रखा जा सकता है । किसी सिरफिरे ने मुक़दमा दायर किया है उसको लोकतंत्र से खतरा है उसके जीने के अधिकार का सवाल है इसलिए विवश होकर अदालत ने आदेश जारी किया है लोकतंत्र जहां कहीं भी हो उसे अदालत में हाज़िर होना होगा । 
 
लोकतंत्र को धनवान लोगों राजनेताओं और गुंडों लुटेरों ने अपनी आलिशान अटालिकाओं में छुपा कर रखा हुआ था और उसको समझाया गया था तुम यहीं पर सुरक्षित हो । आजकल रईस अमीर लोग किसी पेड़ को घर के आंगन में गमले में बोनसाई बना रखते हैं जो सिर्फ उन्हीं के लिए फलदाई होता है , शायद देश का लोकतंत्र भी कुछ लोगों ने बौना बनाकर सत्ता की हवेली की सजावट की वस्तु बना दिया है । अदालती फरमान से सभी अधिकारी कर्मचारी उस को ढूंढने लगे हैं ये पता चलते ही राजनेताओं साहूकारों को डर सताने लगा है क्योंकि उन्होंने सिर्फ लोकतंत्र का अपहरण ही नहीं किया बल्कि उसको जीते जी मृत बनाने का भी अपराध किया है । सरकार देश की राज्यों की घबरा गई हैं उनका अस्तित्व खतरे में है जब लोकतंत्र ही नहीं बचा तो उनका होना संविधान के अनुसार नहीं माना जा सकता है । बचाव को सभी सरकारी वकील कितने ही नकली झूठे बनावटी लोकतंत्र अपनी गवाही देने को अदालत में लाये हैं , असली कोई भी नहीं लेकिन सभी अपने अपने नकली को असली बता अदालत को गुमराह कर रहे हैं । अदालत ने अंतरिम आदेश जारी किया है उन सभी को पुलिस और प्रशासन की हिरासत में रखने को तब तक जब तक असली वाला लोकतंत्र सामने आकर खुद को प्रमाणित नहीं करता है । 
 
वास्तविक लोकतंत्र अभी भी ज़िंदा है किसी गांव की झौपड़ी में किसी तरह उन सब से खुद को बचाए हुए है उसको अभी भी उम्मीद है कि शायद कभी कोई गांधी जैसा व्यक्ति अंग्रेज़ों की हुक़ूमत की तरह इन सभी ताकतवर और धनवान लोगों से उसको सुरक्षित करवाएगा । ये सत्ता और दौलत के पुजारी भीतर से डरपोक हैं अपनी कायरता को कितने मुखौटे पहनाते रहते हैं । कोई चैनल खबर दिखा रहा है कि उस ने असली लोकतंत्र का साक्षात्कार लिया है जिस में उस ने अपनी दर्द भरी दास्तां बताई है । लेकिन अचानक इक अफ़वाह सुनाई दी है कि सभी राजनीतिक दलों अधिकारीयों और बड़ी बड़ी संस्थाओं पर आसीन लोगों ने उस तथाकथित असली लोकतंत्र की सुपारी किसी क़ातिल को दे दी है । अचानक उस गांव की झौपड़ी को आग ने जलाकर राख कर दिया है लेकिन जांच करने पर कोई लाश नहीं बरामद हुई है । क्या लोकतंत्र को अपनी हत्या की आशंका पहले से थी जो वो भाग गया है जान बचाकर सरकार ने इक जांच आयोग गठित किया है जो कुछ महीने बाद अपनी रिपोर्ट देगा ये बताने को लोकतंत्र का सच क्या है । जितने नकली बनावटी लोकतंत्र अदालत में पेश हुए थे उनकी ज़मानत हो गई है लेकिन खबर है कि वो सभी देश से भाग गए हैं । 
 
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मई 08, 2024

इक आवारा बादल ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

         इक आवारा बादल ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कहीं किसी इक जगह कब ठहरता है कोई बादल आवारा , मैंने चांदनी रात को चांद से कह दिया था । मेरा कोई ऐतबार नहीं मेरा कभी इंतिज़ार मत करना । हवाओं का रुख समझ जिधर की हवा चली उधर उधर भटकता रहा किसी दरवेश की तरह सोचा समझा कुछ नहीं बस मनमौजी की तरह सभी को छोड़ अपनी ही धुन में अनजानी राहों पर सफर करता रहा । कोई ठौर ठिकाना नहीं किसी से दोस्ती याराना नहीं नाता कोई नया पुराना नहीं दुनिया क्या है खुद क्या पहचाना नहीं । ज़िंदगी का मज़ा लूटता रहा धीरे धीरे मेरा माज़ी पीछे छूटता रहा । कभी सोचा नहीं था मुकद्दर का सिकंदर होना चाहता हूं वो ख़्वाब हक़ीक़त बन जाएगा । किस्मत ने ज़ीरो से हीरो बना दिया तो समझने लगा मुझ जैसा दुनिया ज़माने में कोई नहीं बस फिर क्या था किसी भी देश के शासक ने जो नहीं किया मैंने सब किया और डंके की चोट किया । मेरा झूठ दुनिया को इतना अच्छा लगा कि मुझे ज़माने के झूठों का सरदार घोषित किया गया और मुझे अपने झूठ और सभी के सच से बड़े और शानदार लगने लगे ।  सच मैंने कभी बोला ही नहीं लेकिन सभी को मेरे झूठ पर इतना यकीन था कि खुद मैं भी बताता कि ये सच नहीं तब भी लोग नहीं मानते क्योंकि उन्होंने मुझे नायक नहीं मसीहा समझा और मैं भी अपने आप को भगवान मानने लग गया ।  

शोहरत की बुलंदी का तमाशा ख़त्म हुआ तो खुद को ऊंचे पर्वत के शिखर से नीचे धरती पर पाया । सब कुछ ख़त्म हुआ तो लगा कि क्या हुआ जितना ऐशो आराम आन बान बिना कुछ किए हासिल हुआ बहुत था किसी किसी को ज़माने में मिलता है कथाओं कहानियों में जो मुझे वास्तव में झोली में मिल गया इत्तेफ़ाक़ से । बस समस्या इक ही है कि वापस पीछे लौटना संभव नहीं और आगे कोई मंज़िल नहीं पाने को , कुछ साथी बन गए हैं जो मतलब के यार हैं । उनको जितना बांटा है कोई हिसाब नहीं शायद मैंने जो बरस खैरात मांग मांग कर जीवन बिताया वो कुछ भी नहीं लेकिन खैरात कभी कोई वापस लौटाता है न कोई मांगता ही है । ज़िंदगी भर मैंने किसी से प्यार वफ़ा निभाई नहीं तो कोई मुझसे निभाएगा ऐसा सोचना ही व्यर्थ है । मैंने पिछले दस साल कुछ भी नहीं किया कर बहुत कुछ सकता था लेकिन जिस को बगैर कुछ काम किए बिना किसी समझ काबलियत को देखे दुनिया घोषित कर दे कि वो सब से बढ़कर है हर काम में , वो कुछ सीख भी नहीं सकता । कोई विकल्प नहीं था नौटंकी करने के सिवा कि मैं सब से बढ़कर सबसे अच्छा सबसे सच्चा हूं । मेरे अभिनय को सभी ने मेरा असली किरदार समझा है इसलिए अब मुझे कुछ नहीं करने की आदत बदलनी होगी और फ़िल्म टीवी पर अपना सिक्का जमाना होगा । इश्तिहार का युग है और विज्ञापन में काम करने वाले कितने मालामाल हुए हैं । कैमरा तो मेरी ज़रूरत ही नहीं कमज़ोरी भी है मुझे पल पल दुनिया को दिखाई देना पसंद है बस विज्ञापन जगत मेरा इंतिज़ार बेसब्री से कर रहा है । मैं इक ब्रांड कहलाता हूं और मेरा भाव सब से अधिक होना ही है ।  ये किसी ज्योतिषी की भविष्यवाणी नहीं है इक काल्पनिक कथा है कृपया इस को कुछ और नहीं समझना किसी से कोई ताल्लुक कदापि नहीं है इक कविता आखिर में ।

 

विज्ञापन जगत का नया मॉडल ( हास्य कविता )

    डॉ लोक सेतिया 

विज्ञापन जगत की जागी है नई आस 

कितने पुराने मॉडल हो रहे हैं उदास

सभी को घबराहट होने लगी शायद

अकेला ही खा जाएगा सब की घास । 

आहट है उसके आने की जिसकी बड़ी

शोहरत दुनिया भर को मज़ा चखाने की

सबको चिंता अपनी अपनी सताती बहुत

आती है कला उसको सब कुछ पाने की । 

खिलाड़ी अभिनेता सभी पीछे रह जाएंगे 

सभी विज्ञापन बस उसको मिल जाएंगे 

उसका झूठ भी मीठा लगता है लोगों को 

उसका दिया हुआ ज़हर सभी खा जाएंगे ।

दिन ऐसा आने वाला कोई जाने वाला है 

ख़्वाब बेच कर दुनिया जीती कितनी है 

हुनर अपना छुपा हुआ आज़माने वाला है 

सब को ही खोना पड़ेगा वो पाने वाला है ।  

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ख़ुद ही हमने फ़रेब खाए हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        ख़ुद ही हमने फ़रेब खाए हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

                      ( विश्व गधा दिवस पर विशेष रचना )

गधों की औकात को कम नहीं आंकना कभी भी , गधों की बात दुनिया से अलग है । कौन किस को कैसे गधा बनाता है कब कौन किस गधे को बाप बनाता है इस रहस्य को कभी कोई नहीं समझ सका है । गधेपन का गुण होना हमेशा काम आता है गधा जब भी आलाप लगाता है ढेंचू ढेंचू का स्वर दूर तलक वादियों में पहुंच जाता है । सभी का बजता इक दिन बैंड बाजा है गधा सच समझो तो हमारे युग का राजा है जब से गधे ने शोहरत पाई है जिस तरफ देखते हैं बहार ही बहार आई है । आदमी गधे से बढ़कर नहीं है किस बात की जगहंसाई है गधा कौन है बड़ा भाई है गधे की लात जिस ने खाई है हक़ीक़त बस उसी को समझ आई है । सभी मूर्ख मिल कर कहकहे लगाते हैं गधे देख कर मुस्कुराते हैं क्या इस तरह दुनिया को ख़ुशी दिखलाते हैं , हंसने वालों के भी अश्क़ छलक जाते हैं । सरकार भी गधों की चिंता में दुबली होती है गधों की भीड़ जमा कर मगरमच्छ के आंसू रोती है , सरकारी गधों के बहुमत का ख़्याल रखती है । जवाब मांगते हैं लोग तो जवाब के बदले सवाल रखती है । किसी को पकवान मिलते हैं किसी का नसीब है आधी रोटी भी नसीब नहीं मिल भी जाए तो पानी की तरह अधपकी दाल मिलती है । ये दुनिया गधों का मेला है जानते हैं सभी बोझ जितना है उठाना है आदमी सोचता रहता है उसका अपना ही कुछ झमेला है । 
 
लोकतंत्र गधों की बारात होती है जिस में दूल्हा खामोश रहता है बड़ी अजब सुहागरात होती है । लोग चुन चुन कर उन्हीं को लाते हैं जिन से कितने फ़रेब खाते हैं । राजनीति का यही तमाशा है सबकी आशा झूठी है सच होती है जनता की हताशा है । गधों का नसीब होता है जो भी होता अजीब होता है जब गधा घोड़ी पर चढ़ कर निकलता है दिल मचलता है कुछ फिसलता है । हर गधे की कोई कहानी है उसकी नानी सभी की नानी है शाहंशाह कोई और होता है दुल्हन है जिसकी राजा जानी है । गधों का कोई घर नहीं होता और न कहीं कोई घाट मिलता है ये अजब फूल है जो मौसम के बगैर किसी रेगिस्तान में खिलता है । ऊंठ से उसका कोई नाता नहीं है कौन खिलाए पिलाए समझ आता नहीं । राजधानी में सभी बराबर हैं ऊंठ घोड़ा गधा खच्चर मिल लगाते रहते हैं चक्कर पे चक्कर अपना हिस्सा सभी की चाहत है पेट भरता नहीं क्या मुसीबत है । लो फिर से चुनाव आये हैं हथकंडे सभी आज़माए हैं मिल कर बदलने चले हैं मिजाज़ अपना इक नया इंक़लाब लाये हैं ।  
 
सबने अपना अपना प्रधान चुना है गधों का भी अपना लीडर है गधों की सियासत शानदार है उस से भी लाजवाब उनकी विरासत है । गधों की अपनी सरकार बने दिल की सभी की यही हसरत है , गधों का वोट-बैंक बनाना है धोबी पछाड़ का अर्थ समझाना है । गधों की एकता ज़रूरी है थोड़ी सी इक मगर मज़बूरी है उनका कोई इक ठिकाना नहीं होता कोई अपना बेगाना नहीं होता उनकी चतुराई का कोई भी पैमाना नहीं होता ।  गधों का गधापन उसकी विशेषता होती है इंसानियत देख कर हैरान है आदमी गधे से बढ़कर गधापन कर सकता है सभी का अजब अरमान है लोग गधों की परस्तिश करते हैं गधे को प्रणाम करते हैं कोई दुलत्ती मार सकता है इसी से डरते हैं । राजनीति  में कितने गधे हैं आंकड़ों का हिसाब कोई नहीं हर किसी का बाप है गधा मगर खुद गधे का किसी भी बाप कोई नहीं ।
 

 

मई 07, 2024

बोझ बन जाए जब कोई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   बोझ बन जाए जब कोई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

फ़िल्म सफ़र की कहानी है जो हंसी मज़ाक़ की बात हक़ीक़त में इक अनहोनी घटना या दिल दहलाने वाला हादिसा बन गई है । नायक नायिका की लिखावट की नकल हूबहू कर इक ख़त उसकी मेज़ पर रखी किताब में छुपा देता है । बड़ा भाई पढ़ कर हैरान परेशान हो जाता है लिखा होता है कि मैं घर वालों के लिए इक बोझ बन गई हूं आदि आदि । नायिका पता लगा कर बताती है कि चित्रकार नायक ने कितनी मेहनत की है अपनी लेखनी को मेरी लिखावट बनाने में । हंसी मज़ाक की बात तब गंभीर बन जाती है जब नायिका उस खत को अपने विवाह होने के बाद भी अपनी अलमारी में संभाल कर रखे रहती है । इक दिन नायिका का पति उस को पढ़ कर समझता है कि उसकी पत्नी छुटकारा चाहती है और पागल प्रेमी ज़हर खा कर अपनी जान दे देता है । हालांकि फिल्मों में हर समस्या का कोई समाधान भी कहीं कोई सुझा दिया करता है जैसे साहिर लुधियानवी जी चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों गीत से अपने अपने रास्ते जाने का विकल्प ढूंढते हैं । 
 
देश की राजनीति सही मायने में किसी अनचाहे बोझ से कम नहीं है जिसे ढोते रहना जनता की नियति है ।  लेकिन उस से बढ़कर राजनैतिक दलों में कुछ लोग असहनीय और अनचाहा बोझ बन जाते हैं जिनको छोड़ना संभव नहीं होता क्योंकि उनके पास इक ऐसी चाबी रहती है जिस से कोई खज़ाना खुलता है खुल जा सिम सिम कहते ही । लेकिन परिवारवाद और जातिवाद धर्म के नाम पर राजनीति का विरोध करने वाले जब किसी को मसीहा समझने लगते हैं और व्यक्ति पूजा करने लगते हैं तब विकट हालात बन जाते हैं । कोई इकलौता व्यक्ति इतना भारी होने लगता है कि उसका बोझ उठाते उठाते सभी का कचूमर निकलने लगता है । ऐसे में निगलते बनता है न ही उगलते बनता है और तमाम लोग इक पहाड़ के नीचे दब कर घुट घुट कर मरने को अभिशप्त हो जाते हैं । ज़िंदगी जब मौत से बदतर होने लगती है तब पछतावा करने से कोई राहत नहीं मिलती है । हमने कब मांगा था कोई स्वर्ग जैसा खूबसूरत सपनों का संसार , आपने ही सुनहरे ख़्वाब दिखलाए थे जनता को , मगर मिला इक ऐसा जहां जिस में हर कोई हमेशा घबराया सहमा रहता है कि जाने कब आपकी तिरछी नज़र उसको जला कर ख़ाक कर दे ।  राजनीति में कब कौन नटवरलाल किस रूप में छलेगा कभी कोई भी नहीं समझ पाया है , इक ग़ज़ल पेश है आखिर में ।
 

खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता ( ग़ज़ल ) 

              डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता
हो जीना मौत से बदतर , न इतनी बेबसी देता ।

मुहब्बत दे नहीं सकते अगर , नफरत नहीं करना
यही मांगा सभी से था , नहीं कोई यही देता ।

नहीं कोई भी मज़हब था , मगर करता इबादत था
बनाकर कश्तियां बच्चों को हर दिन कागज़ी देता ।

कहीं दिन तक अंधेरे और रातें तक कहीं रौशन
शिकायत बस यही करनी , सभी को रौशनी देता ।

हसीनों पर नहीं मरते , मुहब्बत वतन से करते
लुटा जां देश पर आते , वो ऐसी आशिकी देता ।

हमें इक बूंद मिल जाती , हमारी प्यास बुझ जाती
थी शीशे में बची जितनी , पिला हमको वही देता ।

कभी कांटा चुभे ऐसा , छलकने अश्क लग जाएं
चले आना यहां "तनहा" है फूलों सी नमी देता ।  
 

 

मई 06, 2024

मन के हारे हार है मन के जीते जीत ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

   मन के हारे हार है मन के जीते जीत ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया 

वक़्त है अभी भी कोई श्रीकृष्ण जैसा सारथी तलाश कर लो , मन की बात कोई किसी को नहीं समझाता ख़ुद अपने अंतर्मन को टटोल कर देख लो । हार क्या है जीत क्या है सत्ता की झूठी प्रीत की रीत यही है जीवन का संगीत यही है राम नाम जपना मनमीत वही है । प्यार में और जंग में सब जायज़ नहीं होता है हेरा फेरी तो हर्गिज़ नहीं । देखो क्या लाया था कुछ भी नहीं और अब कितना कुछ तिजोरी में भरा है चाहो तो जैसे मौज मस्ती से शासन किया ज़िंदगी भर वही शान ठाठ बाठ से रहने को कोई कमी नहीं है । कुछ लोग तो ऐसे भी हुए हैं जो सत्ता नहीं रही तो बगल में इक चारपाई उठा कुरुक्षेत्र जा कर बस गए । जिसने ज़िंदगी भर झोली फैलाई हो उस को चिंता क्या इस देश में कोई दरवाज़े से ख़ाली नहीं जाए ऐसा नियम अभी भी है । मैं समझ गया क्या सोच रहे हो , नहीं मैं जले पर नमक नहीं छिड़कना चाहता बल्कि पहले से भविष्य की योजना बनाने की राय देना चाहता हूं । बस इक मुश्किल है कोई तो ऐसा अपना बना लिया होता जिस के कांधे पर अपना सर रख का जी भर रोने से जी हल्का हो जाता । ऐतबार करोगे किसी ने बुरी तरह से पराजय मिलने पर उसी के कांधे पर सर रख कर अपना दर्द सांझा किया था जिस के कारण पराजित हुए थे । तभी कहते हैं कि दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाईश रहे जब कभी हम दोस्त हो जाएं तो शर्मिंदा न हों । अचानक नींद खुली ख़्वाब से जागे तो बेचैनी हुई कि सोते समय किसी और भगवान से विनती की थी ये भगवान कैसे बिन बुलाए सपने में चले आये । 
 
ये अकेलापन भी कभी कभी इक कमी महसूस करवाता है , जिनकी धर्मपत्नी संग रहती है आधी रात को जगाकर कुछ नहीं तो शतरंज की बाज़ी खेल लेते हैं या कोई इधर उधर की बात से दिल बहलाते हैं । हां पत्नी कोई छोटी मुसीबत तो नहीं होती फिर भी बड़ी बड़ी परेशानी का कोई हल ज़रूर बताती है बड़े सियाने लोग कहते थे । समझदार महिला कभी घर परिवार को बिखरने नहीं देती , कहने को सारा जहां हमारा कह लो लेकिन घर बिना घरवाली बनता नहीं है । उम्र बढ़ती है तब हमसफ़र साथी की ज़रूरत और भी अधिक पड़ती है लोग रूठों को मना लिया करते हैं । नहीं अब लौट कर घर वापस जाने को रास्ता ही नहीं छोड़ा है खुद ही कितने कांटें कितने अवरोध दुनिया को रोकने को खड़े किए अब कठिन है कोई साफ़ सीधा रास्ता मिलना । पहली बार धर्म उपदेशक की बात सच लगने लगी है कि किसी दिन सभी धन दौलत पास होगा लेकिन सुकून नहीं मिलेगा । ज़माने भर को नौटंकी से उलझा सकते हैं ख़ुद अपने आप को तमाशा बनते नहीं देखा जा सकता है । ऊपर जाना उतना कठिन नहीं था जितना ऊंचाई से नीचे आते हुए फ़िसलन का डर होता है । भूल गया था बचपन की कहानी जिस में भले वक़्त में ख़राब दिन आने की बात ध्यान रखते हुए हर कदम देख कर रखते हैं । कभी फूलों का कोई गुलशन खिलाया होता तो हर तरफ धूल की आंधी कहीं रेगिस्तान कहीं कंटीली तारें देख इतना अफ़सोस नहीं होता । सबको जीतने का नुस्खा बताते रहे कभी उनसे भी कोई सबक सीखने की कोशिश करते जो हार कर भी हार नहीं मानते थे । अनुभव की बात बड़ी महत्वपूर्ण होती है ये कितनी किताबों में बताई जाती रही है । भगवान राम भी अपने दुश्मन को पराजित कर जब अंतिम सांस ले रहा होता है तब भाई को कोई सबक सीखने को कहते हैं , तभी ये भी रहस्य समझ आता है कि जिस से कुछ समझना सीखना होता है उसके पैरों की तरफ बैठते हैं सिरहाने नहीं । 

कुछ नहीं सूझा किस को कैसे बताएं लगता है सत्ता खोने का भय क्यों तड़पाता है जिसे पाने की चाहत में धूनी रमाई देर से समझे कि उस ने नहीं कभी किसी से वफ़ा निभाई । मझधार में नैया डोलने लगी है मिलन से पहले कैसी जुदाई सच कहते हैं जाके पैर न फ़टी बिवाई सो क्या जाने पीर पराई । माई री मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की माई री , कुछ और कभी मन को भाया ही नहीं बस इतना सा ख़्वाब था सब से बड़ा कहलाना ।  सब कुछ खुद पाना कुछ ऐसे चोरी चोरी चुपके चुपके सबका दिल चुराना मगर लाख कोशिश करने पर भी नहीं किसी के भी हाथ आना । गुज़रा हुआ ज़माना दोबारा नहीं आएगा कोई जोगी गली गली वही गीत गाता नज़र आएगा , खोएगा सो पाएगा । खोना क्या है पाना क्या है दुनिया इक झूठा है अफ़साना क्या , पाना था तो कुछ कठिन नहीं था जब खोने की घड़ी करीब आई तो दिल कहता है ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं हम क्या करें । अपना समझ बैठे जिसे चार दिन का बसेरा था किराये का घर था भूल हुई लगता बस मेरा था ।
 

 

मई 04, 2024

वोट चाहिए तो मुझे पढ़ना पड़ेगा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    वोट चाहिए तो मुझे पढ़ना पड़ेगा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

चुनाव में खड़े थे नेता जी जगह जगह सार्वजनिक स्थान पर इधर उधर हाथ जोड़े विनती कर रहे थे , इक घर का दरवाज़ा ख़ुला देखा तो भीतर चले आए । अपना परिचय दिया साथ में इक घोषणापत्र जिस में अगर विजयी हुए तो कितना कुछ करने का इरादा है लिखा हुआ था , सवाल किया जनाब आप क्या करते हैं तो जवाब मिला कि इक लेखक हैं । नेता जी आदत अनुसार कह गए कोई कार्य हो तो कभी भी आकर मिल सकते हैं । लेखक ने उनका घोषणापत्र देखा अच्छा शानदार आकर्षक लगा तो कहने लगे कि कभी कभी किसी किताब का आवरण और शीर्षक लुभावना लगता है लेकिन जब पढ़ते हैं तो निराशा होती है पहले भी इक प्रत्याशी अपना घोषणापत्र दे गए हैं दोनों को पढ़ कर समझ कर निर्णय किया जाएगा कौन बेहतर है । नेता जी ने कहा क्या अमुक व्यक्ति की बात कर रहे हैं , हां उनकी ही बात है सुनते ही बोले उनका कोई भरोसा नहीं अव्वल दर्जे के झूठे हैं । लेखक बोले अगर आप सच्चे हैं तो बात ही क्या मेरा वोट सच बोलने वाले को ही मिलेगा । चाय पिलाई और जाने लगे नेता जी तो उनको अपनी किताब थमाते हुए बोले कि बिल्कुल जैसा अपने घोषणापत्र बनवाया है मैंने भी अपनी रचनाओं में कैसा आदर्श नेता चाहिए इस पर विस्तार से चर्चा की है । आपको मेरा वोट पाना है तो किताब को पढ़ना होगा और समझ कर मुझे बताना भी होगा कि आपकी क्या राय है । थोड़ा संकोच के साथ नेता जी ने कहा समय मिलते ही अवश्य पढ़ कर आपको फ़ोन पर बताऊंगा । ठीक है तब मुझे भी आपका घोषणापत्र पढ़ने की फुर्सत मिलेगी तब समझ कर निर्धारित किया जाएगा । कुछ उलझन में फंस गए नेता जी सोच कर कहने लगे आपकी बात उचित है मैं आज ही रात सोने से पहले किताब की शुरुआत करता हूं और पढ़ कर चर्चा करता हूं ।
 
लेखक ने कहा महोदय पहले आगाह कर रहा हूं बिना पढ़े झूठ मत बोलना अन्यथा मुझे झूठ की खूब भली पहचान है । आपको बता देता हूं हम साहित्य प्रेमी इंसान की फ़ितरत को जानने में माहिर होते हैं , हमारे अनुभव हमेशा सबक सिखाते रहते हैं । अख़बार पत्रिका वालों से पुस्तक प्रकाशक तक सभी हमको मधुर बोल से बहलाते हैं लेकिन जब मेहनत का मोल चुकाना होता है तब नज़रें चुराते हैं । मानदेय या अन्य भुगतान की बात क्या जब लेखकीय प्रति तक भेजने की औपचारिकता नहीं निभाते हैं । आपको कभी अपना बही खाता दिखाऊंगा कितनी सैंकड़ों रचनाओं का कोई पारिश्रमिक कभी मिला ही नहीं बस झूठे आश्वासन देते हैं । आप से बात करते मालूम हो जाएगा कि किस रचना को आपने पढ़ा है या सिर्फ शीर्षक देख कर गलत बात बता रहे हैं ।  लेखक की बात से नेता जी समझ गए कि बुद्धिजीवी लोग कैसे होते हैं , अब कैसे बताते कि पढ़ना कभी उनको अच्छा लगता ही नहीं था और ये किताब पढ़ना उनको चुनाव लड़ने से भी कठिन लग रहा था । बस किसी तरह से बहाना बनाकर निकल लिए थे । 
 
नेता जी ने अपने दफ़्तर जा कर अपने बड़े नेताओं को इस घटना को विस्तार से बताया , इक वरिष्ठ राजनेता ने कुछ विचार किया और उस लेखक को लाने को इक सहायक को भेजा । आपसे हमारे बड़े नेता मिलना चाहते हैं आग्रह किया है कृपया चलिए , उनको खुद आना चाहिए कोई काम है तो अन्यथा मैं जब कभी मन करेगा आऊंगा मगर कोई निर्धारित नहीं कर सकता ये मेरा स्वभाव है , लेखक का सीधा जवाब था । उस सहायक ने बड़े नेता जी को ये बात फोन पर बताई तो उन्होंने फोन पर ही लेखक से वार्तालाप करने का विकल्प चुना । लेखक से बात कर उन्होंने कहा आपने कीमत बताई है किताब पढ़ कर राय देने पर वोट डालने की लेकिन मुझे लगता है कि आपको इतना मिलना काफ़ी नहीं है । आपको मालूम है कुछ साल पहले जो राज्य की साहित्य अकादमी के निदेशक बनाये गए थे उन्होंने हमारे लिए बहुत ही शानदार भाषण और संदेश लिख लिख कर हमारी शानदार छवि बनाई थी । आजकल उनका कद ऊंचा हो गया है और वो हमारे आलाकमान के चहेते हैं । लेखक ने बताया मुझे सब पता है लेकिन शायद आपको नहीं पता कि मैंने कभी भी किसी की स्तुति करना मंज़ूर नहीं किया चाटुकारिता करना सीखा नहीं खरी खरी बात कहता हूं डंके की चोट पर निडर होकर निष्पक्ष रहकर ।  धन दौलत नाम शोहरत ईनाम पुरुस्कार की चाहत ही नहीं है कुछ चाहिए तो इक ऐसा समाज जिस में कोई बड़ा छोटा ख़ास आम नहीं हो सभी बराबर हों इंसान बनकर इंसानियत का धर्म निभाएं । सिर्फ इतनी ही कीमत है मेरे लेखन की जो शायद किसी भी राजनेता के पास नहीं है ।  
 

आज़ाद भारत की तस्वीर ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

 
इंसां हों सब ही बराबर जहां , हम सब बनाएंगे इक ऐसा जहां  
फूल प्यार के खिले हों चहुंओर , रहेगा नहीं नफरत का धुंवा ।
कहीं किसी पे न हो अत्याचार , राजनीति बने नहीं व्यौपार 
शिक्षा स्वास्थ्य सभी अधिकार , जनसेवा का बंद हो बाज़ार । 
 
हर इक बेटी हो शाहज़ादी , जीने की सभी को मिले आज़ादी 
ख़त्म दहेज प्रथा ख़त्म बाल मज़दूरी ,  बहुत हो चुकी बर्बादी । 
प्रशासन का नहीं हो ऐसा बुरा हाल , बीमार हैं जैसे अस्पताल 
अपनी अपनी ढपली अपना अपना राग नहीं हो इक सुर ताल ।    

लूट रहे बन कर देशसेवक सभी के सभी जनता की यही परेशानी
कौन बताए उनको क्या है आज़ादी का महत्व , शहीदों की कहानी ।
भूल गए हैं शायद हम सभी देश और समाज कल्याण का मकसद 
फिर से कोई सबक पढ़ाए स्वार्थ छोड़ो फिर मांगता है देश कुर्बानी ।  
 
 Election में आप Vote डालने नहीं गए तो अपने वोट की कीमत ही जान लीजिए |  वनइंडिया हिन्दी

अप्रैल 30, 2024

सांसद - विधायक बनने का मोल ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  सांसद - विधायक बनने का मोल ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कितना सरल उपाय है पहले समझ क्यों नहीं आया सब मिल बैठ सोच रहे हैं , ये कुछ कुछ सर्वदलीय बैठक जैसा है । उन्होंने अपना नाम जगज़ाहिर नहीं करने की शर्त रखी है इक ऐसा तरीका खोज लिया है की नेता जनता दोनों का भला भी होगा और ख़ुश भी सभी लोग हो जाएंगे । सभी जनप्रतिनिधि निर्वाचित किये जाएंगे इसी ढंग से और अधिकांश समस्याओं का समाधान अपने आप निकल जाएगा । चुनाव का समय आने से पहले खुली बोली जैसा प्रावधान किया जाना संभव है , किसे क्या बनना है उसकी बढ़ चढ़ कर कीमत लगानी होगी । कौन कितने हज़ार करोड़ खर्च कर सांसद बनना चाहता है सबसे बड़ी बोली लगाने वाले को उतना धन साल भर में अपने क्षेत्र पर खर्च कर संसदीय क्षेत्र का कायाकल्प करना होगा । राजनीति जब व्यौपार बन चुका है तो लाज शर्म कैसी नंगा नाच होगा शादी पर दूल्हे वाले नोटों की बारिश करते हैं जैसे । बस एक साल में पहले जो करना है कर दिखाओ फिर चार साल मौज मनाओ । लोकतंत्र ही होगा मगर अग्रिम भुगतान से पहले देना होगा बाद की बात कौन याद रखता है । हां सिर्फ धनवान लोग ही सांसद विधायक से नगरपरिषद प्रतिनिधि बन सकेंगे तो कोई बात नहीं गरीब लोग ऐसा ख़्वाब नहीं देखते हैं उनको चांद भी रोटी लगता है । कोई खड़ा हुआ कहने लगा चुनाव आयोग इस की अनुमति देगा क्या , तब इक राज़ खोला गया की पहले इक प्रधानमंत्री का चुनाव किसी अदालत ने रद्द कर दिया था कभी लेकिन इक नेता ने प्रधानमंत्री बनने के बाद चुनाव आयोग को इक पत्र भेजा था जिस में ये उपाय किया गया था कि भविष्य में प्रधानमंत्री की चुनावी सभाओं का प्रबंध और खर्च सरकार अपने खज़ाने से किया करेगी । विकास की राह में जो भी बाधा आए उसे हटाया जा सकता है , ये नैतिकता आदर्श और मर्यादा की खोखली बातें किसी और ज़माने की हैं । चूहों की सभा ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया है लेकिन वही पुरानी पहेली बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा और कब ऐसा आधुनिक संविधान बनाकर लागू होगा । प्रयोजक तैयार हैं अब इलेक्टोरल बॉब्ड नहीं सीधा धंधा होगा जब नाचन लागी तो घूंघट काहे । 
 
आपको ये तौर तरीका पसंद नहीं आया तो क्या हुआ अभी तक जो रंग ढंग चलता रहा उसे कौन लोकतंत्र कहता है । सब ऐसा करते हैं उस ने किया तो क्यों हाय तौबा सभी समझाते हैं लगता है हमने मंज़ूर कर लिया है इसी को जीना कहते हैं घुट घुट कर अश्क़ पीना जनता का नसीब है । सरकार ने कब से हर काम अनुबंध पर ठेके पर किसी निजी क्षेत्र को सौंप जान छुड़ा ली है राजनेताओं अधिकारी वर्ग से पुलिस न्यायपालिका तो क्या अख़बार टीवी मीडिया वाले केवल एक ही विषय पर सारा ध्यान रखते हैं कि सरकार चल रही है चलती जा रही है । कोल्हू के बैल की तरह आंखों पर पट्टी बंधी है और सबको लगता है हमने कितना सफर तय कर लिया है जबकि देश वहीं का वहीं अटका हुआ है । आपको बात समझ नहीं आई ये नया बाज़ार का नया दस्तूर है जो खुद बिका हुआ हो वही कुछ भी खरीद सकता है , धनवान खरीदार लगते हैं मगर होते खुद बिके हुए हैं । लेबल से पता चलता है किस की डोर किस के हाथ है कठपुतली का नाच है देश की राजनीति । अब तो सभी सरकारें आदमी पर भरोसा नहीं करती मशीन ऐप्प पर पूरा विश्वास है जबकि तमाम सरकारी वेबसाइट अपने ही बोझ तले कब दम तोड़ देती है पता नहीं चलता उनकी सांस रुक रुक कर चलती है कभी थम भी जाती है तब सभी को इंतज़ार करना पड़ता है । भारत देश की व्यवस्था क्या जनतंत्र और आज़ादी तक सब जाने किस किस देश किस किस कंपनी के हाथ का खिलौना बन गई है । ठेकेदारी को लेकर मुझे अच्छी जानकारी है क्योंकि मेरे पिता दादा भाई बंधू सभी यही काम करते रहे हैं । मैं नाकाबिल साबित हुआ जो उनकी राह छोड़ इस लेखन और आयुर्वेदिक प्रणाली में जीवन भर खूब मेहनत की और नतीजा कभी इक धेला कमाई नहीं की खोटा सिक्का साबित हुआ पिताजी की तिजोरी का । अधिकांश लोग परिवार में कम पढ़े लिखे थे मैंने पढ़ाई की लेकिन किस काम की पढ़ाई जब नहीं की कमाई , ठेकेदारी समझ आई होती तो आज किसी बड़े पद पर बैठा सौदेबाज़ी कर मालामाल हो सकता है , लेकिन खुद को बेचना मुझे मंज़ूर नहीं अन्यथा दिल्ली कोई दूर नहीं ।  



 

अप्रैल 29, 2024

संविधान की आत्मा का संदेश ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

    संविधान की आत्मा का संदेश ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

 जाँनिसार अख़्तर जी का शेर है , शर्म आती है कि उस शहर में हम हैं कि जहां , ना मिले भीख तो लाखों का गुज़ारा ही न हो । अब यही हाल देश का है जब सरकार करोड़ों लोगों को मुफ़्त राशन देने की बात करती है जिस का अर्थ गरीबी भूख से 80 करोड़ जनता बदहाल है । अनुचित आपराधिक है जब उस समय एक एक नेता पर हर दिन करोड़ों खर्च नहीं बर्बाद किए जाते हैं ऐसे हज़ारों पद हैं देश की राजधानी में राष्ट्रपति से लेकर शहर शहर तक इक जाल फैला है ।  
 
आपको किसी और से कुछ नहीं चाहिए आपको ख़ुद अपने आप को ठीक से पहचानना ज़रूरी है , मैं सिर्फ एक किताब या दस्तावेज़ नहीं हूं । सबसे महत्वपूर्ण बात है कि मेरा अस्तित्व किसी की कलम कागज़ से नहीं है  ,  संविधान बनाया गया उस से अधिक महत्वपूर्ण विषय है कि , आपने देश की जनता ने उसे अपनाया है । यही शुरुआत है हम भारत के लोग वी दी पीपल ऑफ़ इंडिया , अपने संविधान को अपनाते हैं लागू करते हैं । तो सबसे पहले इस को समझना आवश्यक है कि कोई भी व्यक्ति या कोई संगठन अथवा राजनीति करने वाला दल जनता को कुछ भी नहीं देता है और न ही कभी किसी राजनेता अथवा दल की कोई सरकार बनी और न ही कभी बन सकती है । सरकार देश की होती है और जनता द्वारा बनाई जाती है जब तक ये बुनियादी बात सभी नहीं समझते तब तक लोकतंत्र का वास्तविक शासन जो जनता का राज होना चाहिए नहीं कायम किया जा सकता है । जनता को कोई राजनेता या संगठन अथवा संस्था तो क्या न्यायपालिका प्रशासन कोई भी कुछ भी दे नहीं सकता है बल्कि उनको नियुक्त मनोनीत किया गया है निर्वाचित किया गया है जैसा देश का संविधान निर्देश देता है वो करना उनका दायित्व है और नहीं करना अनुचित और असंवैधानिक । आज़ादी के 76 साल बाद जब लगता है कि वास्तविक आज़ादी देश के सभी नागरिकों को हर प्रकार की समानता अभी लगता है इक ऐसा ख़्वाब है जिसे सच करने की कोशिश तो दूर की बात उस को लेकर सार्थक विमर्श तक कोई नहीं करता है । संविधान की अवधारणा है सभी लोग देश सेवा को समर्पित ईमानदार और निस्वार्थी प्रतिनिधि अपने बीच से चयन कर सदन में भेजें जो लोकसभा अथवा विधानसभा में निर्वाचित सदस्यों में से काबिल और सभी पक्षों का आदर करने वाला कोई अपना नेता चुनकर संसद द्वारा जनता की कल्याणकारी सरकार का गठन करने का कर्तव्य निभाएं । संविधान में किसी दल या गठबंधन को लेकर कोई धारणा नहीं बताई गई है । लोकतंत्र में सत्तापक्ष प्रतिपक्ष परस्पर विरोधी नहीं बल्कि शासन और सरकार की बहती नदिया को अपनी सीमा में बनाए रखने वाले किनारे हैं , और बहाव को उचित राह पर नदी की गरिमा और लोकतंत्रिक मर्यादा में रखना अनिवार्य इक परंपरा रही है । सदन के नेता बनकर खुद को अन्य सभी से ताकतवर या बड़ा समझना संविधान की भावना और जनमत का निरादर होगा । अच्छा प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री सभी सदस्यों को आदर देकर सभी की राय को समझ कर इक तारतम्य कायम रखता है । 

अब जो होता है वो देश के संविधान , लोकतंत्र के अनुरूप नहीं है , सदन का सदस्य चुनने से पहले कोई दल या गठबंधन किसी को पहले से प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री घोषित कर संवैधानिक नियम की मर्यादा को दरकिनार कर बाद में निर्वाचित सदस्यों का सदन का नेता चुनने का अधिकार छीन उसे इक औपचारिकता बना देता है । प्रधाममंत्री मुख्यमंत्री संविधान के अनुसार अन्य सदस्यों के समान ही होता है नेता होना अर्थात किसी समूह का मार्गदर्शक होना न कि अन्य को अपने आधीन समझना , कितनी अचरज की बात है कि सभी राजनीतिक दलों ने अलोकतांत्रिक ढंग से नियम बनाकर अपने अपने दल के सदस्यों को किसी बंधक की तरह विवश कर दिया है की उनकी बात से असहमत या विपरीत राय होने पर भी गुलाम की तरह चुपचाप किसी के पीछे चलना पड़ेगा । लोकतंत्र तो संसद विधानसभाओं के सदस्यों को जनता की बात कहने का अधिकार देता है मगर इस तरह से तो खुद निर्वाचित सदस्य का अपना अधिकार छिन जाता है । इधर अक्सर लोग सवाल करते हैं कि प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री कुछ ख़ास नामों से ही कोई हो सकता है जो अनुचित है , आपको याद नहीं जवाहरलाल नेहरू जी के बाद लाल बहादुर शास्त्री जी को सदन का नेता चुना गया तो किसी को पहले से कुछ पता नहीं था बल्कि जब मंच से उनका नाम प्रस्तावित किया गया तब सभी ढूंढने लगे की शास्त्री जी कहां हैं । कोई भरोसा करेगा कि वो सभागार में आखिर में प्रवेश द्वार की सीढ़ियों पर नीचे बैठे थे इस निर्णय से अनभिज्ञ । तब उनको आगे लाया गया और कुर्सी पर बैठने को कहा गया । जिस संसद में जोड़ तोड़ और खरीद फ़रोख़्त होकर सरकार बनती है उसे संविधान और लोकतांत्रिक मर्यादा को तार तार करना कहते हैं । 
 
अगर लोकतंत्र है और किसी परिवार का सदस्य होना कोई महत्व नहीं रखना चाहिए तो किसी दल या संगठन का किसी व्यक्ति विशेष को शासक घोषित करना गुलामी की मानसिकता एवं कुछ लोगों का सत्ता को अपने इशारों पर चलाने का प्रयास जनहित और जनभावनाओं के ख़िलाफ़ है । कब किसने कैसे किया जो भी हो लेकिन संविधान को बहुमत के दम पर अपनी सुविधा से बदलना अनुचित था जिसे होने देना इक अपराध था जो किया जाता रहा है । किसी भी तरह शोहरत मिलना किसी को किसी पद के योग्य नहीं बनाता है वैसे भी आजकल शोहरत बदमाशी करने वालों को अधिक मिलती है शराफ़त से रहने वालों के बजाय । आपको जितने भी लोग खबरों में मिलते हैं अधिकांश ऐसे ही दिखाई देते हैं , शर्म आती है जब किसी बाहुबली अपराधी को कोई दल अपना उम्मीदवार बनाता है जीतने की संभावना को देख कर । धीरे धीरे देश की राजनीति की गंगा इतनी मैली हो गई है कि जनता के पास विकल्प ही गलत लोगों से किसी एक का चुनाव करने का बचा है । नोटा विकल्प भी व्यर्थ है जब उसे अधिक लोग दबाएं तब भी चुना उन्हीं से कोई जाएगा फिर ये विकल्प किस काम का है । 
 
संविधान की बात सभी करते हैं पढ़ता कोई नहीं ये कितना अजीब है , आपको संक्षेप में मौलिक अधिकारों एवं कर्तव्यों की बात बताने से पहले जो कड़वी बात कहना ज़रूरी है वो ये है कि हमको किसी राजनेता किसी राजनीतिक दल किसी विचारधारा से पहले देश और संविधान को रखना चाहिए और अपने अपने स्वार्थ को छोड़ समाज को महत्व देना होगा । परिवारवाद जितना अनुचित है व्यक्तिवाद उस से भी अधिक अनुचित है अत: हमको किसी से प्रभावित होने से पहले निष्पक्ष होकर उसकी मानसिकता पर विचार करना चाहिए । जिस भी शासक को चाटुकारिता अपना गुणगान पसंद हो वो न्याय और कानून की समानता पर कभी खरा साबित नहीं हो सकता है । खरी बात ये कहना चाहता हूं कि क्या एक सौ चालीस करोड़ लोगों से हम 542 अच्छे ईमानदार प्रतिनिधि नहीं खोज सकते , क्यों देश की संसद जो लोकतंत्र का पवित्र मंदिर है वहां अपराधी और गुंडे बदमाश बैठे दिखाई देते हैं । कुछ लोक जो खुद को लोकतंत्र का स्तंभ घोषित करते हैं वास्तव में अपना कर्तव्य भुला कर खुद ही अपना गुणगान कर अभ्व्यक्ति की आज़ादी के नाम पर मनमानी कर अपना उल्लू साधने में लगे हैं लेकिन खेद है कि हम टीवी सोशल मीडिया से परववित होकर निर्णय लेने लगे हैं । मैंने कुछ साल पहले इक आलेख लिखा था देश का सबसे बड़ा घोटाला , जो टीवी अख़बार को मिलने वाले सरकारी विज्ञापन हैं , जिस भी धन से जनता का कोई भला नहीं होता हो और केवल किसी को फायदा पहुंचाने को सरकारी खज़ाने का उपयोग किया जाता हो वो भ्रष्टाचार ही होता है । देश के खज़ाने की लूट में खुद मीडिया टीवी चैनल शामिल हैं ऐसे में इस गंभीर विषय पर ध्यान कौन दिलवाएगा , जिन का दावा है बड़ी तेज़ गति से दौड़ रहे हैं सरकारी विज्ञापन की बैसाखियों का सहारा नहीं मिले तो झट से नीचे गिर जाएं । बिका ज़मीर कितने में हिसाब क्यों नहीं देते , सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते । अभी भ्रामक विज्ञापन देने को लेकर किसी को सुप्रीम कोर्ट ने अपराधी माना है लेकिन जिन टीवी अखबार वालों ने विज्ञापन छाप कर दिखला कर कितना पैसा बनाया क्या वो जुर्म में शामिल नहीं समझे जाने चाहिएं क्योंकि उनको सब पता रहता है कोई भी बहाना काम नहीं आएगा , चोर चोर मौसेरे भाई हैं विज्ञापन देने वाले और प्रकाशित करने छापने दिखाने वाले ।
 
पचास साल पहले सरकार या विभाग इश्तिहार देते थे अपनी योजनाओं की जानकारी देने को और जन साधारण को जागरुक करने के मकसद से । अब हमने इतने साल शासन किया जैसे आयोजन और उनका प्रचार खुद का महिमामंडन अनुचित है । कोई राजनेता अगर भाषण में अथवा इश्तिहार में जनता को कुछ भी देने का गुणगान करता है तो इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता क्योंकि किसी राजनेता या दल ने खुद अपनी निजी आय जायदाद से नहीं बल्कि देश में जनता से ही प्राप्त तमाम तरह से करों से एकत्र धन को खर्च कर अपना कर्तव्य निभाया होता है । इसको अनुकंपा नहीं कहलाया जा सकता है , वास्तविकता विपरीत है पहले सत्ता पर बैठे लोग सादगी से जीवन बिताते थे जबकि आजकल प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री तो क्या अधिकारी से सभी निर्वाचित प्रतिनिधि शानो-शौकत से मौज मस्ती कर देश की गरीबी की बातें करने का मज़ाक़ ही किया करते हैं ।  हमारे राजनेताओं का किरदार कभी ऊंचा होता था जिस से सभी को त्याग करने का प्रोत्साहन मिलता था जबकि अब मैं चाहे जो करूं मेरी मर्ज़ी की मिसाल देख सभी सकते में हैं । आखिर में देश के संविधान में जिन अधिकारों और जिन कर्तव्यों का उल्लेख है उनकी बात से पहले इक ताज़ा ग़ज़ल मेरी पेश करता हूं ।

 ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

 
इस क़दर किरदार बौना हो गया है
आस्मां , जैसे      बिछौना हो गया है ।
 
घर बनाया था कभी शीशे का तुमने 
किस तरह , टूटा खिलौना हो गया है । 
 
मथ रहे पानी मिले क्या छाछ मख़्खन 
शख़्स  , पानी में चलौना ,  हो गया है ।
 
है निराला  , आज का , दस्तूर भाई 
बिन बियाहे सब का गौना हो गया है । 
 
छान कर सब पीस कर कितना संवारा 
फिर हुआ क्या सब इकौना हो गया है । 
 
पी गया कितने ही दरिया को वो सागर 
था उछलता , और  , पौना हो गया है ।
 
ख़ूबसूरत था जहां ' तनहा ' हमारा 
हर नज़ारा अब , घिनौना हो गया है ।
 
 

 संविधान , अधिकार और कर्तव्य :-   

 प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा :- 


(ए) संविधान का पालन करना और उसके आदर्शों और संस्थानों, राष्ट्रगान और राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करना।

(बी) हमारे राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम को प्रेरित करने वाले महान आदर्शों को संजोना और उनका पालन करना।

(सी) भारतीय राष्ट्र की एकता, संप्रभुता और अखंडता को बनाए रखना और उसकी रक्षा करना।

(डी) देश की रक्षा करना और जब भी ऐसा करने के लिए कहा जाए तो राष्ट्रीय सेवा प्रदान करना।

(ई) धार्मिक, भाषाई और क्षेत्रीय या अनुभागीय विविधताओं से परे भारत के सभी लोगों के बीच सद्भाव और समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा देना; महिलाओं की गरिमा के प्रति अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करना।

(च) हमारी समग्र संस्कृति की समृद्ध विरासत को महत्व देना और संरक्षित करना।

(छ) वनों, झीलों, नदियों और वन्य जीवन सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना और जीवित प्राणियों के प्रति दया रखना।

(ज) वैज्ञानिक स्वभाव, मानवतावाद और जांच और सुधार की भावना विकसित करना। 

(i) सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना और हिंसा का त्याग करना।

(जे) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधि के सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता की दिशा में प्रयास करना ताकि राष्ट्र लगातार प्रयास और उपलब्धि के उच्च स्तर तक पहुंच सके।

(के) जो माता-पिता या अभिभावक है, वह छह से चौदह वर्ष की आयु के बीच के अपने बच्चे या, जैसा भी मामला हो, प्रतिपाल्य को शिक्षा के अवसर प्रदान करेगा।

 

भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत छह मौलिक अधिकार हैं ।

 वे इस प्रकार हैं :-   समानता का अधिकार  ,   स्वतंत्रता का अधिकार ,   शोषण के विरुद्ध अधिकार  ,  धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार  ,    सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार  ,   संवैधानिक उपचारों का अधिकार

 


 

 
 

अप्रैल 25, 2024

भय बिनु होई न प्रीति ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      भय बिनु  होई  न प्रीति  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

साम दाम दंड भेद सब आज़मा लिया फिर भी संशय है कि जिसकी चाहत में दिल बेकरार है उस पर कुछ असर दिखाई नहीं देता है । लालच प्रलोभन से भगवान के नाम पर ही दे दो से भी यकीन नहीं आया तो भयभीत करने का ब्रह्मास्त्र उपयोग करने लगे हैं । मुझ से अच्छा कौन है भले मुझ में लाख अवगुण हैं तब भी वरमाला उस को पहनाई तो वो सभी कुछ छीन लेगा मेरा क्या है पहले से कुछ छोड़ा ही नहीं तुम्हारा सब मेरा ही है मुझे खुद सौंपना ख़ुशी ख़ुशी से मेरी प्रीति की निशानी है । जिस को सब कुछ खोने का डर होता है वही घबरा कर ऐसे ढंग अपनाता है । डर फ़िल्म का नायक नायिका से पागलपन की हद तक मुहब्बत करने का दम भरता है तू हां कर या ना कर तू है मेरी किरन । ये आशिक़ी का भूत जिस किसी पर सवार होता है वो वहशीपन की सीमा तक अपनी ही माशूका की जान का दुश्मन बन जाता है । कुछ साल पहले इक प्रदेश में सरकार ने ऐसे मजनुओं के ख़िलाफ़ अभियान चलाया था , लेकिन जिनका सिक्का खोटा भी चलता है ऐसे भी रुतबे वाले लोग हुआ करते हैं जो अपहरण कर भी जिसे चाहते हैं उस से विवाह कर लिया करते हैं । कुछ ऐसा ही इक शासक का हाल है सत्ता सुंदरी से बिछुड़ने का भय सताने लगा तो खुद नहीं जानते क्या से क्या हो गए हैं । पहले समझाया कि अभी तक तो मैंने कुछ किया ही नहीं सिर्फ ट्रेलर था जिसे देखा तुमने आगे जो कभी सपने में नहीं सोचा तुमने वो चांद सितारे तोड़ कर दामन भर दूंगा बस मुझे छोड़ किसी का ख़्याल भी मन में नहीं लाना । देखो मेरे वचन निभाने की बात मत करना तुमको तो अपने वचन निभाने हैं , सत्ता की कुर्सी कहने लगी भला मैंने कब किसी का साथ देने की शपथ उठाई कभी भी । यहां जितने भी आये हैं और आएंगे उनको शपथ उठानी पड़ती है मैं तभी मिलती हूं , मुझ पर बैठते खुद को मुझसे ऊंचा समझने वालों का अंजाम यही होता है । भूल गए कभी कहते थे मेरा क्या है जब चाहा झोला उठा कर घर छोड़ चला जाऊंगा । 
 
दिन का चैन रातों की नींद खो जाती है साहब आपको इश्क़ हो गया है ना ना करते प्यार उसी से कर बैठे जिस सत्ता सुंदरी का स्वभाव ही है जो भी उसका होता है बेवफ़ाई का सबक पहले दिन पढ़ना चाहता है । मुझ से पहले किस किस ने तुमसे क्या वादे किए तुमने किसी से वफ़ा निभाई या हुई बेवफ़ाई सब को दिल से भुला दो अपना साथ कभी नहीं टूटेगा ये हाथ मेरे हाथों से नहीं छूटेगा , कितने मधुर स्वर से ये ग़ज़ल उसे सुनाई । रेगिस्तान में फूल खिले हैं वीराने में बहार आई पांच साल तलक बजती रही शहनाई किसी ने बंसी बजाई किसी ने डफ़ली की धुन पर नचाया दोनों की आंख खुली तब जब चुनाव सामने आया । अचानक किसी ने नींद से जगाया शर्तनामा पढ़ कर सुनाया सत्ता का नशा उतरा तब समझ आया खूब भरपेट खाया बड़ा मज़ा आया मगर अब दूध फटने लगा आएगी कैसे मलाई मिलावट का माजरा है ग़ज़ब मेरे भाई । अब दिल उदास है मन कहता है चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना , अफ़साना फ़साना बन गया है नया था जो पुराना बन गया है और उनको पुरानी बातें पुरानी मुलाकातें बहुत बेचैन करती हैं । यादों की बारातें उम्र भर तड़पाती हैं अधूरी मुहब्बत की कहानी का अंजाम बुरा होता है बद भला होता है बदनाम बुरा होता है । तुम अगर मुझको न चाहो तो कोई बात नहीं तुम किसी और को चाहोगी तो मुश्किल होगी ।  



 
 

अप्रैल 24, 2024

इस क़दर किरदार बौना हो गया है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

 इस क़दर किरदार बौना हो गया है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 

इस क़दर किरदार बौना हो गया है
आस्मां , जैसे      बिछौना हो गया है ।
 
घर बनाया था कभी शीशे का तुमने 
किस तरह , टूटा खिलौना हो गया है । 
 
मथ रहे पानी मिले क्या छाछ मख़्खन 
शख़्स  , पानी में चलौना ,  हो गया है ।
 
है निराला  , आज का , दस्तूर भाई 
बिन बियाहे सब का गौना हो गया है । 
 
छान कर सब पीस कर कितना संवारा 
फिर हुआ क्या सब इकौना हो गया है । 
 
पी गया कितने ही दरिया को वो सागर 
था उछलता , और  , पौना हो गया है ।
 
ख़ूबसूरत था जहां ' तनहा ' हमारा 
हर नज़ारा अब , घिनौना हो गया है ।    



अप्रैल 22, 2024

मिलावट पर शोध ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

           मिलावट पर शोध ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

मैंने अभी कुछ ही दिन पहले 15 अप्रैल को इक पोस्ट लिखी थी आपको उस को पहले पढ़ लेना चाहिए था , आजकल गारंटी गारंटी का शोर मचा हुआ था तभी मुझे अचानक नील कमल फ़िल्म का साहिर लुधियानवी जी का लिखा गीत याद आया । उस पोस्ट में गीत पढ़ कर समझ सकते हैं कि किस किस में क्या क्या मिलावट होने का अंदेशा है । 1968 का ज़माना था तब ऐसा ख़तरा लगता था तो 2024 में 56 साल बाद कोई कल्पना नहीं कर सकता हालत क्या होगी । विदेश में जांच होने पर हमारे देश की कंपनियों के पदार्थ मिलावटी पाए जाने पर सरकार को चिंता होनी स्वाभाविक है । हमारे देश की आम जनता को मिलावटी खाद्य पदार्थ खाने से अधिक ख़तरा तरह तरह की मिलावट से है । राजनीति में इतना कुछ मिला दिया गया है कि सर्वोच्च न्यायालय को चुनाव आयोग को पवित्रता शब्द का उपयोग करना पड़ा है । राम तेरी गंगा मैली हो गई पापियों के पाप धोते धोते , देश की न्याय व्यवस्था की दशा ऐसी है कि करोड़ों रूपये के घोटाले हुए साबित होने पर भी नेता अधिकारी बेगुनाह करार दिए जाते रहते हैं तो घोटाले क्या जनता ने किए थे । ताज़ा ताज़ा मामला इलेक्टोरल बॉण्ड का है जो असवैंधानिक करार दिए जाने पर भी गुनहगार का अता पता नहीं और कौन कितना खा कर हज़्म कर गया उसका हिसाब कभी नहीं । देश की राजनीति की मिलावट की तो कोई सीमा ही नहीं है भाषणों में झूठ की मिलावट से भाषा में अपशब्दों की असभ्य शब्दों की मिलावट से कितनी नफरत और हिंसा का आभास होता है बगैर किसी तीर तलवार के घायल होने वाला जानता है । आपत्ति जताने पर ब्यान वापस लेना खेद जताना भी अब नहीं किया जाता विवश हो कर कहना पड़ता है मेरी बात को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया । बड़े से बड़े पद पर आसीन व्यक्ति भी अपने पद की गरिमा की चिंता नहीं करता है झूठ सच ही नहीं साबित किया जाता बल्कि इतिहास तक को इतना अनुचित ढंग से पेश किया जाता है कि समझना कठिन होता है कि आज़ादी किस ने दिलाई थी और देश कब आज़ाद हुआ था । 
 
कोई प्रयोगशाला मिर्च मसालों की शुद्धता की जांच कर परख कर प्रमाणित कर सकती है मिलावटी है या नहीं है लेकिन हमारे देश की राजनीति करने वाले दलों में कितनी मिलावट है भगवान भी नहीं समझा सकता । कौन कितनी बार कितने दलों में आया गया इस का हिसाब लगाना आसान नहीं उस पर कितने राजनेता दल बदल कर अपराधी से बेदाग़ घोषित हुए ये करिश्मा कोई डिटर्जेंट नहीं कर सकता है सिर्फ एक का दावा रहा है कि दाग़ अच्छे हैं । खुद सरकार ने इतना कुछ आपस में डगमग कर दिया है कि कोई नहीं समझ सकता किस योजना का किस विभाग से क्या लेना देना है । सरकारी विज्ञापन का सच साबित होना संभव ही नहीं है क्योंकि उन में कोरी कल्पनाओं से सपनों की मिलावट कर हक़ीक़त को ऐसे ढक दिया जाता है कि देख कर सभी सोचते हैं जैसे किसी जादूगर ने उनको वास्तविक ज़िंदगी की परेशानियों से दूर किसी कल्पनालोक में पहुंचा दिया है । मिलवट हमारे देश की परेशानी या समस्या नहीं है बल्कि इक परंपरा है जो हमको विरासत में मिली और हमने उसे दोगुना चौगुना नहीं सौ गुना कर आगे सौंपने का संकल्प उठाया हुआ है । कौन माई का लाल हमको आगे बढ़ने से रोक सकता है । मिलावटी तेल से कितने लोग मरे थे जांच आयोग ने विदेशी हाथ की शंका प्रकट की थी । मिलावटी शराब पर क्या क्या नहीं हुआ अभी इक सीरीज बनाई गई है , हमारे टीवी फ़िल्म बनाने वालों को ये सब मनोरंजन का विषय लगते हैं सच कहूं तो आजकल का सिनेमा इतना मिलवती है कि कोई हिसाब नहीं । उस पर कहते हैं जो दर्शक पसंद करते हैं परोसना पड़ता है अब इस से बढ़कर मानसिक दिवालियापन क्या हो सकता है । मिलावट पर जितना चाहो लिख सकते हो यहां तक की अब साहित्य में भी मिलावट होने लगी है टीवी पर कॉमेडी शो से लेकर तथाकथित बड़े बड़े कवि सम्मेलन तक कविता ग़ज़ल नहीं चुटकुले और घटिया स्तर का मज़ाक बेशर्मी से प्रस्तुत किया जाता है । महिलाओं को किसी वस्तु की तरह पेश करना से लेकर खुद महिलाओं का अपनी गरिमा का ध्यान नहीं रखना दिखाई देता है तो मालूम पड़ता है कि सिक्कों की झंकार ने किस किस का ईमान गिरा दिया है । मिलावट की शुरुआत दूध में पानी मिलाने से हुई होगी जो अब नकली दूध घी तक पहुंच चुकी है । हम दुनिया में मसाले बनाने बेचने ही नहीं खरीदने में भी अव्वल नंबर पर हैं यही दौड़ है जिस में कोई हमको पछाड़ नहीं सकता है हमारा तो चरित्र ही मिलावटी है ख़ालिस नहीं , भीतर कुछ होता बाहर कुछ और दिखाई देते हैं । हमारी आस्था से विश्वास तक सभी रंग बदलते हैं गिरगिट भी हमारा मुकाबला नहीं कर सकती है और क्या कह सकते हैं ।  आपको इक मिसाल से समझाना चाहता हूं की अज्ञानता कितनी ख़तरनाक होती है , इक नीम हकीम खुद को आयुर्वेद का जानकर बताता था उस को वास्तविक जानकारी कुछ भी नहीं थी और उस ने अपनी सोच से शहद और घी दोनों को स्वास्थ्य के लिए लाभकारी मानते हुए अपनी बनाई दवा में दोनों को मिला दिया जो आयुर्वेद के अनुसार विष अर्थात ज़हर बन जाता है आप ऐसे लोगों से सावधान रहना समझदार हैं इशारा काफ़ी है । कुछ लोग मिलावट करते हैं तो उनको पता ही नहीं होता क्या मिला दिया । सागर में आज यार का जलवा दिखा दिया , ज़ालिम मेरी शराब में ये क्या मिला दिया ।  अंत में इक पुरानी हास्य-व्यंग्य की कविता मिलावट पर पेश है । 
 

मिलावट ( व्यंग्य - कविता ) डॉ लोक सेतिया

यूं हुआ कुछ लोग अचानक मर गये
मानो भवसागर से सारे तर गये ।

मौत का कारण मिलावट बन गई
नाम ही से तेल के सब डर गये ।

ये मिलावट की इजाज़त किसने दी
काम रिश्वतखोर कैसा कर गये ।

इसका ज़िम्मेदार आखिर कौन था
वो ये इलज़ाम औरों के सर धर गये ।

क्या हुआ ये कब कहां कैसे हुआ
कुछ दिनों अखबार सारे भर गये ।

नाम ही की थी वो सारी धर-पकड़
रस्म अदा छापों की भी कुछ कर गये ।

शक हुआ उनको विदेशी हाथ का
ये मिलावट उग्रवादी कर गये ।

सी बी आई को लगाओ जांच पर
ये व्यवस्था मंत्री जी कर गये । 
 

 
 

आईने का सामना कौन करे ( भली लगे कि बुरी लगे ) डॉ लोक सेतिया

 आईने का सामना कौन करे ( भली लगे कि बुरी लगे ) डॉ लोक सेतिया 

ऐसा अक़्सर होता है सुबह उठते ही मन में कोई उथल-पुथल होती है तो सोचता हूं की सैर पर जाना छोड़ पहले लिख लूं बाद में शायद विषय का ध्यान ही नहीं रहे । और अगर सुबह जल्दी उठ गया होता हूं तो लिखने बैठ जाता हूं अन्यथा पार्क जाना भी सैर करने के लिए नहीं और भी बहुत देखने समझने तथा सोचने को काम आता है । ज़िंदगी में संतुलन बनाना भी अपने आप में छोटी बात नहीं है । तो आज सुबह जो विचार आया था वो था आज़ादी का अर्थ महत्व समझने का और अपनी नहीं सभी की आज़ादी को लेकर सही मायने में स्वतंत्रता का पक्षधर होने का । पार्क पहुंचते ही बाहर से जो नज़ारा दिखाई दिया उस ने सावधान रहने का ख़्याल ज़हन में ला दिया । सरकारी वाहन पुलिस और सुरक्षाकर्मी वातावरण को सामान्य नहीं रहने देते हैं लेकिन खैर कोई घबराने की चिंता की बात नहीं थी चुनाव हैं कोई सत्ताधारी नेता वोट मांगने आया हुआ था ।आमना सामना हुआ परिचय हुआ डॉक्टर कौन से डॉक्टर लेखक क्या पीएचडी वाले नहीं डॉक्टर और इक लेखक । इतनी जल्दी होती हैं उनको संक्षेप में ही बात औपचरिक होना संभव होता है , घर घर जाकर वोट मांगना अब कोई नहीं करता बल्कि अधिकांश सोशल मीडिया पर इकतरफ़ा संवाद करते हैं । नेता जी ने शायद यूं ही कह दिया लिखते रहना और कोई काम हो तो बताना , दिल में बहुत कुछ आया और सोचा भी कि उनसे जाकर पूछ कर देश की जनता का छोटा सा सवाल किया जाये भले उनके पास जवाब नहीं भी हो कम से कम इतना तो उनको समझना ही चाहिए । कोई तीस साल पहले की लिखी अपनी कविता मैं उनको सुनाना चाहता था लेकिन जानता था ये अधिकांश लोगों को पसंद नहीं आएगा क्योंकि उनको अपनी बात कहनी होती है जनता की समझनी ही नहीं होती , आगे लिखने से पहले वही कविता पढ़वाता हूं । 
 

बेचैनी ( नज़्म )  डॉ  लोक सेतिया 

पढ़ कर रोज़ खबर कोई
मन फिर हो जाता है उदास ।

कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस ।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास ।

कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास ।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास ।

सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास ।

जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास ।

बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास ।

कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास ।
 
अधिकांश लोग खुद को लेकर खुशफ़हमी या गलतफ़हमी में रहते हैं उनको लगता है की हम जो भी करते हैं कोई और नहीं करता हम बड़े ख़ास महान हैं । जबकि उन सभी का सच कुछ और होता है कोई योग और आयुर्वेद के नाम पर अपना धंधा बढ़ाता है तो कोई तथाकथित देश समाज जनता की भलाई की बात कह कर शासक बन कर राज सुःख भोगना चाहता है । किसी को धर्म उपदेश देकर अपने लिए आश्रम मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा बनवा कर अपना अधिपत्य वर्चस्व स्थापित करना है , सबको लोभ मोह से बचने की राह दिखलाने वाले खुद संचय करते करते भवसागर में डूब जाते हैं । हमको डुबोया है उन्होंने ही जो हमारी नैया पार लगाने को खिवैया बन कर ठगते रहे उम्र भर । हमने पिछले 76 सालों में अपनी खुद की देश की समाज की पुरानी वास्तविक पहचान को ही खो दिया है । जाने क्या क्यों कैसे हुआ जो हम धीरे धीरे बेहद स्वार्थी और काफी हद तक विवेकहीन बनते गए हैं , कथनी और करनी बिल्कुल मेल नहीं खाती और हर कोई मनमानी कर समाज से छल कपट कर भी चाहता है नायक समझा जाए उसको । आजकल नायक असली नहीं झूठे और नकली अधिक दिखाई देते हैं । लगता है कोई सच का दर्पण देखता ही नहीं अन्यथा हमारा मन जानता है कि जैसा हम चाहते हैं लोग हमारे बारे सोचना हम वैसे कभी हो ही नहीं सकते , दूसरे शब्दों में खुद अपनी ही नज़र में लोग दोगले हैं । 
 
क्या हम आज़ादी का अर्थ समझते हैं , अगर पिता अपने बेटे से चाहता हो कि जो भी वो चाहता है बेटे को बिना कुछ सोचे स्वीकार करना चाहिए तो बेटे की उचित अनुचित को परखने की आज़ादी को बंधन में जकड़ कर छीन लेना चाहता है । किसी का अधिकार किसी और का हक़ छीन कर अपने आधीन रखना नहीं होना चाहिए और ऐसा पति पत्नी या बड़ा छोटा भाई बहन अथवा कोई नाता करने को संस्कार या कोई नियम नहीं बता सकता है । शायद हमारा समाज अपनी कायरता को ढकने को ऐसे कुछ तर्क घड़ लेता है और इतना ही नहीं उस पर कोई चर्चा कोई वार्तालाप करने को तैयार नहीं होता है । जब तक हम अपनी गलत बातों को स्वीकार ही नहीं करना चाहते हम अपनी झूठी अनुचित परम्पराओं को बदल कैसे सकते हैं । परिवार की ही तरह सरकार प्रशासन में अपनी असफलताओं और समाज विरोधी आचरण को राजनेता अपनी शान एवं विशेषाधिकार मानते हुए भ्र्ष्टाचार से लेकर अहंकारी व्यवहार तक  उस पर शर्मिंदा नहीं होते अपितु गर्व करते हैं जो सबसे विचित्र विडंबना है । अधिकांश लोग भी ऐसे नेताओं अधिकारियों के सामने सर झुकाए खड़े मिलते हैं उनको खरी बात कहने का जोख़िम उठाना ज़रूरी नहीं समझते ये सोच कर कि कहीं कभी उन के साथ भी अन्याय अत्याचार नहीं हो जाए । जब तक अपना घर नहीं चपेट में आता हम आग लगाने वालों को बस्तियां जलाते देखते रहते हैं चुपचाप तमाशाई बन कर । क्या इसे आज़ादी कहते हैं क्या हम वास्तव में गुलामी और तानाशाही को स्वीकार कर अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने की मूर्खता नहीं करते हैं । 



अप्रैल 20, 2024

बहुत चिराग़ जलाओगे ( कथा-कहानी ) डॉ लोक सेतिया

        बहुत चिराग़ जलाओगे ( कथा-कहानी ) डॉ लोक सेतिया

 कभी कभी किसी ख़बर को सुन कर हम सकते में आ जाते हैं , क्या महसूस होता है कहने को शब्द नहीं मिलते हैं । कई साल पहले किसी शहर से इक पति - पत्नी जोड़े की ख़ुदकुशी की ख़बर पढ़ कर इक अर्से तक मन में उथल पुथल रही जिस का नतीजा इक ग़ज़ल कही थी , ख़ुदकुशी आज कर गया कोई । इस विषय पर मैंने अलग अलग ढंग से रचनाओं में अपनी भावनाएं संवेदनाएं प्रकट की हैं जबकि देखता हूं हर ऐसी घटना कुछ दिन बाद भुला देते हैं अधिकांश लोग । शायद ये वास्तविक बात इंगलैंड की है अभी भी उस संस्था की शाखाएं देश विदेश में हैं भारत में संजीवनी नाम से इक संस्था से संपर्क रहा था जब दिल्ली रहता था । इक मनोचिकित्सक ने प्रचारित कर रखा था कि जो भी जीवन से निराश हो कर ख़ुदक़ुशी करने का सोचता हो इक बार आकर मुझ से अवश्य मिले और कहते हैं वो हमेशा सभी को जीने का मकसद समझा कर ख़ुदक़ुशी नहीं करने पर सहमत करवा लिया करता था । मगर इक दिन इक व्यक्ति की वास्तविकता और ज़िंदगी की कुछ परेशानियों को सुनकर वह मनोचिकित्सक भी नहीं समझ पाया कि उसे जीने को कैसे मनवा सकता है । वो व्यक्ति ये देख कर समझ गया कि अब जीना नहीं मर जाना ही उस के लिए एकमात्र विकल्प है । लेकिन उस डॉक्टर की सहायक बाहर बैठी उनकी बात सुन रही थी , जैसे ही वो निराश व्यक्ति बाहर निकला उस महिला ने पूछा अब आपको क्या करना है । उस ने कहा बस आखिरी उम्मीद थी शायद ये कोई रास्ता बताते मगर अब निर्णय कर लिया है जीना नहीं है किसी भी तरह मौत को गले लगाना है । 
 
उस महिला ने कहा आप जो समझें कर सकते हैं लेकिन क्या उस से पहले मेरे साथ एक एक कप कॉफ़ी पीना चाहेंगे मुझे बहुत पसंद है कोई साथ हो अकेले नहीं पीना चाहती । ठीक है और दोनों पर इक कॉफी शॉप पर चले आये , कॉफी पीते पीते महिला ने उसे अपना दोस्त बना लिया ये कह कर कि उसको जैसा दोस्त चाहिए था कोई कभी नहीं मिला । जुदा होने की घड़ी थी उस महिला ने कहा धन्यवाद आपने मेरी बात मान कर मुझे थोड़ी देर को ही सही अपनी दोस्त माना जो मेरे लिए बड़ी ख़ुशी की बात है । उस व्यक्ति ने कहा काश कि मैं आपको हमेशा ख़ुशी दे सकता , महिला ने कहा मुश्किल क्या है आप भी मुझे अपनी तरफ से कॉफी का निमंत्रण दे सकते हैं । आपको ख़ुदकुशी करनी है तो मैं रोकूंगी नहीं लेकिन इतना तो आप अपनी दोस्त की खातिर कर सकते हैं हां जितने भी समय आप ज़िंदा हैं हमारी दोस्ती रहेगी और हम एक दूसरे का हर दुःख दर्द आपस में सांझा कर सकते हैं , जब नहीं होंगे तब अकेले होने से जो होगा देखा जाएगा । और इस तरह उस मनोचिकित्सक की सहायक ने उस व्यक्ति को ख़ुदक़ुशी नहीं करने पर मनवा लिया । जब वापस जाकर अपने बॉस को ये बताया तो उस ने अपनी संस्था का नाम बदल कर उसी महिला के नाम पर रख दिया था । 
 
फिल्मों में ऐसा कई बार दर्शाया जाता रहा है , पुराने काफ़ी गीत भी हैं जो आपको निराशा से निकलने और आशा का दामन थामने की राह समझाते हैं । आजकल हम सभी अपने अपने संकुचित दायरे में खुद ही कैद रहते हैं अपनी उलझनों परेशानियों से बाहर दुनिया अन्य समाज की तरफ देखते ही नहीं हैं । मानवीय संवेदनाओं से रिश्ता तोड़ कर मतलबी और आत्मकेंद्रित हो गए हैं , आस पास किसी को असफल या निराश देखते हैं तो उस को साहस बढ़ाने नहीं बल्कि कभी कभी किसी के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने का कार्य करते हैं । कोई फ़िसलता है तो गिरे को हाथ देकर उठाने नहीं उस पर कटाक्ष करते हैं जिस का अर्थ है कि हम निर्दयी बनते जा रहे हैं । काश हम हर किसी से इंसानियत का नाता निभाते तो कोई भी इतना अकेला और निराश नहीं होता कि घबरा कर अपनी जीवन लीला ही ख़त्म करने को विवश हो जाता । अंत में दो ग़ज़ल इक मेरी जो किसी की ख़ुदक़ुशी की बात सुन कर अनुभव करता हूं उस की मनोदशा को सोच कर और इक ग़ज़ल जिसे मैंने कॉलेज के ज़माने से अक्सर गुनगुनाया है , शायर  -  मख़मूर देहलवी जी की है ।
 

          
 
हर एक रंज में राहत है आदमी के लिये
पयाम-ए-मौत भी मुज़दा है ज़िंदगी के लिये ।

(रंज = कष्ट, दुःख, आघात, पीड़ा), 
(पयाम-ए-मौत = मृत्यु का सन्देश), 
(मुजदा = अच्छी ख़बर, शुभ संवाद)

मैं सोचता हूँ के दुनिया को क्या हुआ या रब
किसी के दिल में मुहब्बत नहीं किसी के लिये ।

चमन में फूल भी हर एक को नहीं मिलते
बहार आती है लेकिन किसी किसी के लिये ।

हमारे बाद अँधेरा रहेगा महफ़िल में
बहुत चराग़ जलाओगे रोशनी के लिये ।

हमारी ख़ाक को दामन से झाड़ने वाले
सब इस मक़ाम से गुज़रेंगे ज़िंदगी के लिये ।

उन्हीं के शीशा-ए-दिल चूर चूर हो के रहें
तरस रहे थे जो दुनिया में दोस्ती के लिये ।

जो काम आये मेरी ज़िन्दगी तेरे हमदम
तो छोड़ देंगे दुनिया तेरी ख़ुशी के लिये  ।

किसी ने दाग़ दिए दोस्ती के दामन पर
किसी ने जान भी लुटा दी दोस्ती के लिये । 
 
शायर  -  मख़मूर देहलवी ।



अप्रैल 19, 2024

हम कर्ज़दार हैं दौलतमंद नहीं हैं ( सच का दर्पण ) डॉ लोक सेतिया

 हम कर्ज़दार हैं दौलतमंद नहीं हैं ( सच का दर्पण ) डॉ लोक सेतिया 

मैं लिखता हूं और मुझे लिखना है , ये क्या मेरी मज़बूरी है आदत है शौक है या फिर सनक है पाठक क्या सोचते हैं समझते हैं दो दिन पहले इक पोस्ट लिखी थी सोशल मीडिया फेसबुक व्हाट्सएप्प पर साथ कुछ पत्र पत्रिकाओं को ईमेल से भी भेजा था । ब्लॉग का एक भाग कुछ पेज हैं जिन पर लिखना मिटाना चलता रहता है कुछ पब्लिश हैं कुछ ड्राफ्ट ही रहते हैं और ये पेज पाठक को पढ़ने को शेयर नहीं करता , मुझे इनको छिपाना नहीं लेकिन काफी हद तक अपने तक सिमित रखना चाहता हूं लेकिन कभी कभी कोई किसी तरह उनको ढूंढ लिया करता है । कल अचानक किसी सार्वजनिक आयोजन में किसी ने कहा क्या आपने लिखना छोड़ दिया है , मैंने संक्षेप में जवाब दिया जी नहीं मैं नियमित निरंतर लिखता रहता हूं । जैसे फेसबुक पर पोस्ट में कहा था मेरा अनुभव पाठकों से जो समझा वही बात है लोग जिस जगह पढ़ते हैं मैं केवल उस जगह नहीं लिख कर भेजता इसलिए तमाम लोग जिनको चाहत होती है मुझे गूगल सर्च से या सोशल मीडिया पर ढूंढ लिया करते हैं । मिल कर याद आया पढ़ते थे पसंद करते थे लेकिन ये भी समझ आया उनको चाहत होती तो तलाश कर सकते थे । आज की पोस्ट पाठक को लेकर नहीं बल्कि अधिक महत्वपूर्ण है और सभी के लिए इक संदेश है । 
1974 की बात है सरिता पत्रिका में संपादक विश्वनाथ जी हर अंक में जो पंद्रह दिन बाद आता था कॉलम लिखा करते थे , आप पढ़े लिखे हैं कारोबार नौकरी करते हैं जो भी आपने घर बना लिया परिवार बना कर संतान को काबिल बना लिया जितना भी धन संचय कर लिया तब भी आपने अगर अपने देश समाज अपनी माटी का क़र्ज़ नहीं उतारा तो आपने कुछ भी नहीं किया है । मेरा लिखना उसी मकसद की एक शृंखला है और मैं जब भी कोई मेरे उद्देश्य की बात पूछता है तब उस से वही सवाल किया करता हूं और मुझे बड़ी हैरानी और अफ़सोस होता है जब कोई भी ये सोचता समझता ही नहीं कि उस ने अपने देश समाज को क्या कुछ लौटाया है पाया बहुत है शायद सोचा ही नहीं है । आओ विचार करते हैं हमको समाज से कितना कुछ मिला है जो अगर नहीं होता तो हम जो भी करते हैं बन पाए हैं कभी नहीं बन पाते , ये शिक्षा स्कूल अध्यापक ही नहीं समाज की बनाई गई अनगिनत राहें हैं जिन से हमको क्या करना किधर जाना क्या हासिल करना है तो किस तरह से संभव हो सकता है ये तमाम संस्थाएं और नौकरी व्यवसाय करने को बुनियादी ढांचा हमारे पुरखों ने आसानी से नहीं निर्मित किया होगा । सोचना अगर किताबें और देश की व्यवस्था सामाजिक ढांचा ही नहीं होता तो हम शायद सही इंसान भी नहीं बन पाते । 
 
मुझे आपको सभी को जन्म लेते ही ये सब बेहद मूलयवान अपने आप मिल ही नहीं गया बल्कि हमको इन सभी पर अपना अधिकार भी हासिल हुआ जिस का मोल कोई चुका नहीं सकता है । अपने महान लोगों की बातें पढ़ी सुनी होंगी क्या क्या नहीं किया उन्होंने कितनी मेहनत और प्रयास से देश को समाज को जैसा उनको मिला उस से अच्छा और बेहतर जीवन जीने को बनाया अपनी खातिर नहीं सभी की खातिर । मैंने देखा है अधिकांश लोग गौरान्वित महसूस करते हैं निचले पायदान से ऊपर पहुंचने पर और अपनी रईसी शान ओ शौकत पर इतराते भी हैं लेकिन शायद उन्होंने कभी सोचा तक नहीं कि उनको अपनी धरती अपनी माटी अपने देश समाज को कुछ लौटाना भी था जिस पर उनका ध्यान ही नहीं । धर्म ईश्वर वाले पाप पुण्य जैसे लेखे जोखे की बात नहीं ये मानवीय मूल्यों प्रकृति और पर्यावरण की तरह अपने गांव शहर देश को प्रयास कर भविष्य की आने वाली पीढ़ी को सुंदर सुरक्षित बना कर सौंपने का फ़र्ज़ निभाने की बात है । इस विषय को जितना चाहें विस्तार दे सकते हैं लेकिन समझने को संक्षेप में पते की बात कही है । सभी संकल्प लें की हम अपना ये क़र्ज़ पूरी तरह से नहीं उतार सकतें हैं जानते हैं लेकिन जितना भी संभव हो कुछ कम अवश्य कर सकते हैं । अन्यथा हम इक एहसानफरमोश समाज की तरफ बढ़ रहे हैं जिसे पाना ही आता है चुकाना नहीं आता या किसी ने ये ज़रूरी पाठ पढ़ाया ही नहीं जो कभी शिक्षा का पहला सबक हुआ करता था ।  कुछ भी साथ नहीं ले जा सकते दुनिया से जाते हुए हां कुछ बांट कर जाना कुछ कर जाना किया जा सकता है । अच्छा है कुछ ले जाने से दे कर ही कुछ जाना  , चल उड़ जा रे पंछी । 
 
चल उड़ जा रे पंछी
कि अब ये देश हुआ बेगाना
चल उड़ जा रे पंछी...

खत्म हुए दिन उस डाली के
जिस पर तेरा बसेरा था
आज यहाँ और कल हो वहाँ
ये जोगी वाला फेरा था
सदा रहा है इस दुनिया में
किसका आबो-दाना
चल उड़ जा रे पंछी...

तूने तिनका-तिनका चुन कर
नगरी एक बसाई
बारिश में तेरी भीगी काया
धूप में गर्मी छाई
ग़म ना कर जो तेरी मेहनत
तेरे काम ना आई
अच्छा है कुछ ले जाने से
देकर ही कुछ जाना
चल उड़ जा रे पंछी...

भूल जा अब वो मस्त हवा
वो उड़ना डाली-डाली
जब आँख की काँटा बन गई
चाल तेरी मतवाली
कौन भला उस बाग को पूछे
हो ना जिसका माली
तेरी क़िस्मत में लिखा है
जीते जी मर जाना
चल उड़ जा रे पंछी...

रोते हैं वो पँख-पखेरू
साथ तेरे जो खेले
जिनके साथ लगाये तूने
अरमानों के मेले
भीगी आँखों से ही उनकी
आज दुआयें ले ले
किसको पता अब इस नगरी में
कब हो तेरा आना
चल उड़ जा रे पंछी..
 
 
 

                  किसी शायर ने कहा है :-

 ' माना चमन को हम न गुलज़ार कर सके , कुछ खार कम तो कर गए गुज़रे जिधर से हम '। 



 
 


  

अप्रैल 18, 2024

पति की प्रशंसा का दिन ( अजब दस्तूर ) डॉ लोक सेतिया

   पति की प्रशंसा का दिन ( अजब दस्तूर ) डॉ लोक सेतिया 

ग़ज़ब करते हैं भला कभी कोई पति कभी अपनी पत्नी की नज़र में तारीफ़ के काबिल हो भी सकता हैं । सच जिस किसी को ऐसा नसीब मिला है फिर और क्या चाहिए ज़िंदगी में इतना काफ़ी है । कभी चुपके से छुपकर किसी महिला मंच की सभा को देखना हर महिला को शिकायत रहती है मेरी किस्मत ही खराब थी जो ऐसा पति मिला मुझे भगवान से ये तो नहीं मांगा था । आपने दुनिया भर में कितना कुछ पतियों का कहा लिखा सुना होगा अपनी पत्नी से अच्छी समझदार और खूबसूरत कोई नहीं लगा जिनको , ऐसा कभी किसी पत्नी ने भी कहा हो शायद ही पढ़ा हो । विधाता ने पति नाम की प्रजाति का भाग्य जिस स्याही से लिखा होगा वो शायद पानी की तरह होगी जिस को खुद लिखने वाला भी पढ़ना चाहे तो पढ़ नहीं सकेगा , मुझे लगता है ऐसा मुमकिन है की जब ईश्वर पतियों का भविष्य लिखने बैठा होगा उसकी पत्नी ने किसी काम से आवाज़ दी होगी और ऐसे में उसको अपनी पत्नी की बात के सिवा कुछ ध्यान नहीं रहा होगा । आप और मैं क्या हैं सच बताता हूं भगवान या देवताओं की पत्नियां भी अपने पतियों से खुश कभी नहीं रही होंगी । ये एक दिन की रिवायत जिस ने भी बनाई होगी उसने सोचा होगा चलो एक दिन तो जिसे जो नहीं मिलता मिलने का उपाय किया जाए ।  तमाम तरह से दिवस बनाए गए हैं और उनका कुछ असर भी ज़रूर होता भी होगा लेकिन प्रशंसा करना इक अलग बात है ये तभी हो सकती है जब कोई किसी को प्रशंसा के काबिल समझता हो अन्यथा सिर्फ कहने को कुछ कहना ऐसा ही है जैसे किसी छात्र को शिक्षक नालायक समझता हो फिर भी ये समझ कर कुछ अंक बढ़ा कर पास कर दे कि थोड़ा रहम करते हैं , कभी स्कूल में परीक्षाफल घोषित किया जाता था किसी को खरैती पास कहते थे । आपको लगता है कि ये छात्र का अपमान करना था जबकि ये शिक्षक की अपनी नाकामी को छिपाने की इक कोशिश हुआ करती थी । मेरा मानना है कि पतियों को ऐसी भिक्षा में मिली प्रशंसा की आवश्यकता नहीं होती है । कोई मेरी बात से सहमत हो चाहे नहीं हो अपने प्रधानमंत्री जी शत प्रतिशत सहमत होंगे ही उनको अपनी पत्नी से तारीफ़ की कामना नहीं हो सकती है वैसे भी उनकी पत्नी अगर अपने पति की प्रशंसा भी करेगी तो कुछ अलग ढंग से , शायद कहेगी कि उनकी प्रशंसा करती हूं कि नहीं निभाना था तो छोड़ दिया कम से कम अनचाहे बंधन से मुक्त होकर अपना जीवन बिताया है । महिलाओं की आदत होती है कि खुद को छोड़ बाकी सभी महिलाओं से व्यर्थ की पर्तिस्पर्धा रहती है , कोई महिला किसी महिला की तकलीफ़ कभी नहीं समझती है अन्यथा देश की आधी आबादी की महिलाएं क्या मोदी जी की समर्थक बन सकती थी । यहां तो कोई पति मोदी जी की किसी बात से असहमति जताए तो पहला विरोध घर में खुद अपनी पत्नी से झेलना पड़ता है आखिर खामोश हो जाते हैं क्योंकि इस अदालत में कोई वकील कोई दलील काम नहीं आती है । यूं तो मैंने अपनी तीसरी ग़ज़ल अपनी पत्नी के नाम पर ही समर्पित की है लेकिन लगता नहीं कि उनको इस से कोई फ़र्क पड़ता है मगर आप भी चाहें तो कभी अपनी अर्धांगिनी को मेरी ग़ज़ल सुना कर कोशिश कर सकते हैं , मुमकिन है आपकी मन की बात उन तलक पहुंच जाए । मोदी जी ने सौ बार ये कोशिश की अवश्य है मगर किसी को खबर नहीं उनके मन की आवाज़ किस को पुकारती थी मगर सभी जानते हैं कि वो भटकती रही किसी मंज़िल पर नहीं पहुंची । 
 
  पाकिस्तान की शायरा हुई हैं परवीन शाकिर जी उनका इक शेर है ' कैसे कह दूं की मुझे छोड़ दिया है उस ने  , बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की ।  किसी काबिल मशहूर और बेहद खूबसूरत महिला के लिए ये असंभव ही नहीं ऐसा हादिसा है जिस की कभी कल्पना ही नहीं करता कोई । अधिकांश लोग बड़े नाम शोहरत पैसा रुतबा मिलते अपने पुराने साथी को कोई और मिलते ही छोड़ जाते हैं इस दुनिया में ये तो कम ही देखा है उन्हें निभाते हुए अच्छे हालात में बुरे दिनों में हाथ थामने वालों का । उस पति की कमनसीबी थी जिस ने परवीन शाकिर जैसी महिला की कदर नहीं की अन्यथा आजकल खुद महिलाएं ठोकर लगा देती हैं जिस को लेकर कहना पड़ा हो कि ' वो कहीं भी गया लौटा तो मेरे पास आया , बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की '।  जन्म - जन्म का रिश्ता आजकल बदल गया है , क्या मिला कोई नहीं देखता जो भी चाहते हैं उस के नहीं मिलने का मलाल रहता है ।  अपनी जीवनसंगिनी पर इक ग़ज़ल कही थी , पढ़ सकते हैं नीचे लिख रहा हूं ।
 

हमको तो कभी आपने काबिल नहीं समझा (ग़ज़ल ) 

         डॉ लोक सेतिया  "तनहा"

हमको तो कभी आपने काबिल नहीं समझा
दुःख दर्द भरी लहरों में साहिल नहीं समझा ।

दुनिया ने दिये  ज़ख्म हज़ार आपने लेकिन
घायल नहीं समझा हमें बिसमिल नहीं समझा ।

हम उसके मुकाबिल थे मगर जान के उसने
महफ़िल में हमें अपने मुकाबिल नहीं समझा ।

खेला तो खिलोनों की तरह उसको सभी ने
अफ़सोस किसी ने भी उसे दिल नहीं समझा ।

हमको है शिकायत कि हमें आँख में तुमने
काजल सा बसाने के भी काबिल नहीं समझा ।

घायल किया पायल ने तो झूमर ने किया क़त्ल
वो कौन है जिसने तुझे कातिल नहीं समझा ।

उठवा के रहे "लोक" को तुम दर से जो अपने
पागल उसे समझा किये साईल नहीं समझा ।