धार्मिक कथाओं ने भटकाया है ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया
भगवान है ये केवल कल्पना नहीं न ही किसी की थोपी हुई आस्था से समझा जा सकता है। ये इक गंभीर विषय है जिस पर चर्चा भी और चिंतन मनन भी किया जाना चाहिए ताकि हम खुद विमर्श विवेचना करने के बाद यकीन कर सकते। शायद धार्मिक कथाओं का सृजन करते समय भविष्य में समाज और विश्व के बदलाव की ऐसी कोई उम्मीद लिखने वालों को नहीं रही होगी कि लोग शिक्षित होकर सोचने समझने और सवाल करने लगेंगे। जो कथाएं कहानियां ईश्वर के होने का सबूत समझ लिखी गईं आज पढ़ लिख कर ही नहीं कम शिक्षित व्यक्ति भी सामाजिक बदलाव के चलते हर विषय पर समझने सवाल करने लगा है। आज कोई अगर इन धार्मिक कथाओं की बातों को लेकर विचार करता है तो इक उलझन खड़ी होती है मन में क्योंकि तथाकथित देवी देवता ईश्वर के अवतार कभी कुछ कभी कुछ कहते करते और सही गलत समझाते रहे हैं। सोचते हैं तब हैरानी होती है असंभव को संभव ही नहीं कभी उचित कभी अनुचित किसी भी चीज़ को साबित करने को खोखले तर्क घड़ने की ज़रूरत होती है। किसी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता इसलिए किसी किताब किसी घटना किसी कथा की ऐसी बात का उल्लेख नहीं किया है। मगर इतना सब समझते हैं कि जो भी उन कथाओं में हुआ घटा बताया गया है जिसको आदर्श समझने को कहते हैं क्या आधुनिक युग में वही किया जाना स्वीकार्य हो सकता है। मकसद अच्छा रहा हो ये मुमकिन है मगर अविश्वसनीय और ऊल जलूल बातें विवेक से काम लेने पर हास्य या कपोल कल्पना लगती हैं। मगर वास्तविकता से सामना करने से बचने को इक भय का वातावरण बनाने को घोषित किया गया है कि इन पर संशय करना अनुचित ही नहीं अधर्म है और नास्तिकता है। अर्थात हमारी आस्था वास्तविक नहीं है डर से या फिर किसी लोभ लालच ज़रूरत से जुडी हुई है। ईश्वर को पाना इसे नहीं कहते हैं कभी सोचा है साधु संत ऋषि मुनि भगवान की खोज में अकेले चिंतन करने अदि ध्यान करने की बात क्यों करते थे। ये कथाओं में लिखा है मगर हमको करने की ज़रूरत नहीं है ये समझाया गया है। ताकि जिनको धर्म ईश्वर को लेकर केवल अपने हित लाभ हानि की करनी है उनको आसानी रहे।
और इसका नतीजा हम बस किसी बंद कुवें के मेंढक होकर मौसमी टर्र टर्र के आदी बन गए हैं। हमने कुछ बातों को किसी दिखावे आडंबर की तरह करने को भगवान और भक्ति से जोड़ दिया है। शायद ये उसी तरह है जैसे कोई अपनी आंखें बंद कर किसी कोल्हू के बैल की तरह उसी गोल दायरे की परिधि में घूमता रहता है मगर पहुंचता नहीं कहीं भी। आपको मार्ग की जानकारी नहीं और आपको मंज़िल मिलने की उम्मीद है। ज़रा सोचना कितने धर्म हैं कितने मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे हैं हम रोज़ कितने आयोजन करते हैं धर्म के नाम पर कितने धर्मोपदेशक हैं हम सतसंग जाने किस किस तरफ जाते हैं। अगर ये वास्तव में सही दिशा होती तो समाज में सच्चाई और धर्म हर तरफ होना चाहिए था जबकि है नहीं ऐसा। मुझे ही ले लो क्या लिख रहा बहुत ज्ञान की बात कहने लगा मगर क्या मैं वास्तविक जीवन में सत्यवादी हूं , बिल्कुल भी नहीं मानता हूं। लेकिन चाहे अच्छा बुरा सब है मुझ में कभी सच कभी झूठ भी बोलता हूं फिर भी ईश्वर है ये विश्वास करता हूं क्योंकि चिंतन मनन से अनुभव किया है। मुझे लगता है ऐसा करना कोई अनुचित हर्गिज़ नहीं हो सकता है। आप भी मेरी बात को पढ़कर विचार करना शायद खुद आप भी अनुभव करना चाहोगे।