सितंबर 22, 2020

धार्मिक कथाओं ने भटकाया है ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया

   धार्मिक कथाओं ने भटकाया है ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया 

  भगवान है ये केवल कल्पना नहीं न ही किसी की थोपी हुई आस्था से समझा जा सकता है। ये इक गंभीर विषय है जिस पर चर्चा भी और चिंतन मनन भी किया जाना चाहिए ताकि हम खुद विमर्श विवेचना करने के बाद यकीन कर सकते। शायद धार्मिक कथाओं का सृजन करते समय भविष्य में समाज और विश्व के बदलाव की ऐसी कोई उम्मीद लिखने वालों को नहीं रही होगी कि लोग शिक्षित होकर सोचने समझने और सवाल करने लगेंगे। जो कथाएं कहानियां ईश्वर के होने का सबूत समझ लिखी गईं आज पढ़ लिख कर ही नहीं कम शिक्षित व्यक्ति भी सामाजिक बदलाव के चलते हर विषय पर समझने सवाल करने लगा है। आज कोई अगर इन धार्मिक कथाओं की बातों को लेकर विचार करता है तो इक उलझन खड़ी होती है मन में क्योंकि तथाकथित देवी देवता ईश्वर के अवतार कभी कुछ कभी कुछ कहते करते और सही गलत समझाते रहे हैं। सोचते हैं तब हैरानी होती है असंभव को संभव ही नहीं कभी उचित कभी अनुचित किसी भी चीज़ को साबित करने को खोखले तर्क घड़ने की ज़रूरत होती है। किसी की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता इसलिए किसी किताब किसी घटना किसी कथा की ऐसी बात का उल्लेख नहीं किया है। मगर इतना सब समझते हैं कि जो भी उन कथाओं में हुआ घटा बताया गया है जिसको आदर्श समझने को कहते हैं क्या आधुनिक युग में वही किया जाना स्वीकार्य हो सकता है। मकसद अच्छा रहा हो ये मुमकिन है मगर अविश्वसनीय और ऊल जलूल बातें विवेक से काम लेने पर हास्य या कपोल कल्पना लगती हैं। मगर वास्तविकता से सामना करने से बचने को इक भय का वातावरण बनाने को घोषित किया गया है कि इन पर संशय करना अनुचित ही नहीं अधर्म है और नास्तिकता है। अर्थात हमारी आस्था वास्तविक नहीं है डर से या फिर किसी लोभ लालच ज़रूरत से जुडी हुई है। ईश्वर को पाना इसे नहीं कहते हैं कभी सोचा है साधु संत ऋषि मुनि भगवान की खोज में अकेले चिंतन करने अदि ध्यान करने की बात क्यों करते थे। ये कथाओं में लिखा है मगर हमको करने की ज़रूरत नहीं है ये समझाया गया है। ताकि जिनको धर्म ईश्वर को लेकर केवल अपने हित लाभ हानि की करनी है उनको आसानी रहे। 

    और इसका नतीजा हम बस किसी बंद कुवें के मेंढक होकर मौसमी टर्र टर्र के आदी बन गए हैं। हमने कुछ बातों को किसी दिखावे आडंबर की तरह करने को भगवान और भक्ति से जोड़ दिया है। शायद ये उसी तरह है जैसे कोई अपनी आंखें बंद कर किसी कोल्हू के बैल की तरह उसी गोल दायरे की परिधि में घूमता रहता है मगर पहुंचता नहीं कहीं भी। आपको मार्ग की जानकारी नहीं और आपको मंज़िल मिलने की उम्मीद है। ज़रा सोचना कितने धर्म हैं कितने मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे हैं हम रोज़ कितने आयोजन करते हैं धर्म के नाम पर कितने धर्मोपदेशक हैं हम सतसंग जाने किस किस तरफ जाते हैं। अगर ये वास्तव में सही दिशा होती तो समाज में सच्चाई और धर्म हर तरफ होना चाहिए था जबकि है नहीं ऐसा। मुझे ही ले लो क्या लिख रहा बहुत ज्ञान की बात कहने लगा मगर क्या मैं वास्तविक जीवन में सत्यवादी हूं , बिल्कुल भी नहीं मानता हूं। लेकिन चाहे अच्छा बुरा सब है मुझ में कभी सच कभी झूठ भी बोलता हूं फिर भी ईश्वर है ये विश्वास करता हूं क्योंकि चिंतन मनन से अनुभव किया है। मुझे लगता है ऐसा करना कोई अनुचित हर्गिज़ नहीं हो सकता है। आप भी मेरी बात को पढ़कर विचार करना शायद खुद आप भी अनुभव करना चाहोगे।

माल मालामाल हैं कंगाल ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

       माल मालामाल हैं कंगाल ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

   सब जानते थे समझते थे जानकर अनजान बने हुए थे अब कैसे कहें दुनिया भर की खबर रखने वाले इतने मासूम और भोले थे कि उनके साथ मिलने जुलने मुलाकात साक्षात्कार लेने से उनकी शोहरत का गुणगान उनकी तथाकथित दानवीर समाजसेवा एनजीओ की चर्चा करने वाले आंखे होते अंधे बने हुए थे गांधारी की तरह अपने स्वार्थ की पट्टी जो बांधनी मज़बूरी थी। हैरान हैं कि ये हंगामा हुआ कैसे इक अभिनेता की मौत का हादिसा भूत बनकर फिल्म नगरी पर काला साया बनकर छा गया है। सच आधा ही सही सामने आ गया है समझने वालों को बहुत समझ आ गया है। जो खड़े थे बड़ी ऊंचाई पर उनका सर चकरा गया है धुआं सा आंखों के सामने आ गया है। थाली में छेद नहीं है छलनी में हज़ार छेद हैं छुपे हुए जाने कितने नाम हैं किस किस के भेद मतभेद हैं। शब्दों का चलन कितना बदल गया है कभी कॉलेज में लड़के लड़कियों को माल कहते थे आपस में इशारे की भाषा में आजकल अभिनय करने वाली महिलाएं माल चाहती हैं नशे में झूम लूं मैं का कमाल चाहती हैं। धमाल मालामाल की नई मिसाल चाहती हैं। हाल अच्छा है करना बदहाल चाहती हैं अपने हुस्न को अपने जलवों को करना जमकर इस्तेमाल चाहती हैं बस चुपके चुपके सबसे छुपके नहीं हो कहीं सवाल चाहती हैं कभी कभी बस बवाल चाहती हैं। जो भी है हो बाकमाल चाहती हैं। 
 
         पाकीज़ा की साहिबजान और उमराओ जान जैसे किरदार फ़िल्मी नहीं असली होते थे कभी शहर के बाहर कोई बस्ती नाच गाने की जिस्मफ़रोशी का खुलाबाज़ार सजता था। बड़े बड़े धनवान ज़मीदार रईस और शराफ़त की नक़ाब ओढ़ने वाले छुपकर दिल बहलाने आते थे किसी को अपना बनाते थे निशानी कोई छोड़ जाते थे। फिर जब बूढ़े हो जाते थे किस्से बहुत याद आते थे औरों को नसीहत देने को अपनी सच्ची कहानी किसी अजनबी की कहकर सुनाते थे। दर्द की दास्तां नहीं है मौसम है आशिक़ाना गुनगुनाते थे सपनों में खोकर अभी तो मैं जवान हूं अभी तो मैं जवान हूं सोच कर किसी को शर्म आती थी वो घबराते थे। उस बदनाम बस्ती उस सदाबहार रौशनी के बाज़ार में लोग मिलते थे पहचान लेते थे दुआ सलाम करने से बचते थे ये राज़दार बनकर इक दूजे के राज़ कभी नहीं किसी को बतलाते थे मिलकर जिस थाली में खाते उस में छेद नहीं करते की बात निभाते थे। कितने शरीफ़ लोग शान से जीते थे शान से मर जाते थे कभी अनाथ कभी बेचारी बेबस महिला को आसरा देने को कोई घर बनवाते थे किसी को संचालिका बना कोई क़र्ज़ चुकाते थे। 
 
    ये वही नगरी है जिस में साधना ख़ामोशी नया दौर नया ज़माना जैसे सार्थक कहानियों की फ़िल्में बनाते थे। कागज़ के फूल बहु बेगम धूल का फूल साहब बीवी और ग़ुलाम दो बदन हक़ीक़त शहीद उपकार जैसी हर फिल्म दर्शक को संदेश देती थी बहारें फिर भी आएंगी की आशा जगाते थे। दौलत शोहरत और ताकत मिलने से उसी नगरी में नग्नता और अपराध को महिमामंडित करने से हिंसा का पाठ पढ़ाने वाले किरदार निभाकर कोई महानायक कोई सबसे अधिक कमाई करने वाला अभिनेता बन गया है। उनके पास दीवार फिल्म के डॉयलॉग की तरह पैसा धन दौलत शोहरत ही नहीं सत्ता और राजनीति की ताकत भी है बस इक चीज़ नहीं बची है इमान और ज़मीर आदर्श और नैतिकता उनके लिए किसी और के लिखे बोल हैं जिनको बोलना है चेहरे पर मासूमियत लाकर तालियां बजवाने को। अधिक कहने की ज़रूरत नहीं है शीशे के महलों के भीतर शानदार क़ालीन बिछे हैं जिनके नीचे छिपी गंदगी किसी बाहर वाले को पता नहीं चलनी चाहिए आखिर में मेरी इक ग़ज़ल का इक शेर पेश है। 

                           सब से बड़े मुफ़लिस होते हैं लोग वही ,

                            ईमान बेच कर जो जागीर बनाते हैं।

सितंबर 21, 2020

मांगी किसी ने मिली किसी को ( आज़ादी-आज़ादी ) डॉ लोक सेतिया

 मांगी किसी ने मिली किसी को ( आज़ादी-आज़ादी ) डॉ लोक सेतिया 

   कहते हैं हम आज़ादी ढूंढ कर लाये हैं अभी तलक किसान गुलाम बनकर रह रहे थे। बिन मांगे ही नहीं बिना चाहे सरकार मेहरबान होकर आज़ादी की खैरात बांटना चाहती है मगर किसान हैं जो उनकी आज़ादी से डर रहे हैं। बात डरने की नहीं है मरने की है समझने की नहीं भटकने की है क्योंकि लोग भूले तो नहीं कन्हैया पर इल्ज़ाम लगा था हमें चाहिए आज़ादी जैसे नारे लगवाने का देश विरोधी काम किया था। बिन मांगे मोती मिलें मांगे मिले न भीख। मैं आज़ाद हूं अमिताभ बच्चन की असफल मगर लाजवाब फिल्म थी जिस में अख़बार वाले इक किरदार काल्पनिक खड़ा करते हैं आज़ाद नाम से रोज़ चिट्ठी छापते हैं तब टीवी चैनल नहीं होते थे आजकल यही वो मिलकर करते हैं कंगना रिया सुशांत उनकी कल्पना की उड़ान हैं। कन्हैया का आज़ादी मांगना अपराध जनाब का अभी तक किसान आज़ाद नहीं थे कहना अच्छी बात खूब है। ज़िंदा रहने को माहौल नहीं मरने को सिर्फ कोरोना नहीं है बड़े नाम वाले अमीर लोग दौलत के नशे के साथ नशीली ज़हरीली दवाओं का भी मज़ा उठाते हैं। सत्ता वालों का नशा आसानी से नहीं उतरता है। राजनेता और धर्म वाले नफरत की आंधी से आग लगाने वालों को अच्छा और प्यार मुहब्बत करने वालों को खराब बताते हैं। सियासत का मुहब्बत से छत्तीस का आंकड़ा है ईबादत बगावत अदावत खिलौने हैं सत्ता की थैली भरी पड़ी है। मैं आज़ाद हूं साबित करने को फिल्म में नायक को ऊंची ईमारत से छलांग लगाकर ख़ुदकुशी करने की बात निभानी पड़ती है। सोशल मीडिया वालों से टीवी चैनल वाले तक मौत का ख़ौफ़ बेच रहे थे अब सरकार भी अपने झोले से आज़ादी का खिलौना निकाल लाई है। सबसे बड़ा खिलाड़ी पुराना अभिनेता नहीं है आजकल कोई और है जिसका खेल लोग समझ नहीं सकते फिर भी ताली बजाते रहे अब हाथ धोते धोते थक गए हैं ताली नहीं बजती थाली को लेकर संसद में विचार किया जाने लगा है। संसद में सवाल पूछना बंद है अन्यथा लाख नहीं लाखों करोड़ का सवाल यही है शासक क्या करते रहे हैं आज भी जिस थाली में खीर हलवा पकवान खाते हैं वो जनता की खून पसीने की कमाई की फसल से बनाई रोटी होती है उसी में छेद करते हैं। बात मुंबई की नहीं दिल्ली की भी है और हर राज्य की राजधानी की भी। नेता अधिकारी कर्मचारी खाते जनता की हैं बजाते लूटने वालों की हैं। दुष्यंत कुमार के शब्द हैं , " इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीक ए जुर्म हैं , आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार "।

सितंबर 16, 2020

कांच का लिबास संग नगरी ( बात निकली है ) डॉ लोक सेतिया

  कांच का लिबास संग नगरी ( बात निकली है ) डॉ लोक सेतिया 

    उनकी नकाब हट गई तो उनका असली चेहरा सामने आएगा जो खुद उन्हीं को डराएगा। आईना उनको कोई दिखा नहीं सकता है दाग़ ही दाग़ हैं बता नहीं सकता है। उनको खुद अपनी सूरत से अधिक अपनी सीरत से घबराहट होती है। कला की देवी ये देखती है और खामोश कहीं छुपकर रोती है। उनकी दुनिया उनके तौर तरीके उनके ढंग शायद हम कल्पना भी नहीं कर सकते बाहर से दिखाई देते हैं विशाल बेहद मज़बूत मगर भीतर से खोखले और कागज़ के फूल की तरह थोड़ी हवा से या छूने से बिखर जाते हैं। तभी उनकी वास्तविकता की चर्चा कोई करता है तो हंगामा खड़ा हो जाता है जबकि उनको हक है देश समाज की हर बात पर बोलने का ही नहीं जब जिस को जैसे चाहे अच्छा बुरा साबित कर अपनी आमदनी बढ़ाने सफलता का परचम लहराने को खलनायक के किरदार से लेकर हिंसा को बढ़ावा देने और सामाजिक मूल्यों मर्यादा को ताक पर रख कर फिल्म कला के नाम पर अश्लीलता और अपराध को बढ़ावा देने महिमामंडित करने का। कभी आपने सोचा है उनको देश से अपने दर्शक वर्ग से कितना सरोकार है सच तो ये है कि फ़िल्मी अभिनय से लेकर टीवी अख़बार में विज्ञापन देने तक जो सामने नज़र आता है उनकी असलियत से विपरीत है। उनकी आम आदमी के लिए कोई संवेदना ही नहीं होती है उनके लिए धन दौलत शोहरत और सबसे ख़ास समाज जिसको जो भी चाहे करने की छूट मिली हो की अपनी दुनिया है जो किसी और को अपने बराबर नहीं समझती है यहां तक कि देश के राजनीतिक दल भी उनके मोहपाश और स्वार्थ की खातिर उनको समाज के नियम नैतिक मूल्यों और देश के कानून की परवाह नहीं करने को उचित समझते हैं।  ये दोनों इक दूजे के लिए हैं मगर पति पत्नी की तरह नहीं इनका रिश्ता मतलब रहने तक का है। चोरबाज़ार में सबसे बड़ी दो दुकान इन्हीं की हैं। इनका संबंध चोर चोर मौसेरे भाई जैसा है मगर हम आज केवल फिल्मनगरी की बात करते हैं। आपको जो टॉनिक बेचते हैं तेल मालिश करवाते हैं न खुद आज़माते है नहीं खाते न लगवाते हैं। हम लोग कर चोर से दिल चोर कहलाते हैं मगर फिल्म वाले कहानी क्या फिल्म तक कहीं से चुरा लाते हैं अपनी बनाकर खूब धन कमाते हैं। आपको झूठी बातें बतलाते हैं नायक गरीब है ईमानदार है महनत उसूल से रईस बन जाता है उल्लू बनाना यही कहलाता है। ये कमाने को सब कुछ करते हैं किसी सच पर नहीं पैसे पर मरते हैं।

  बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी तभी फ़िल्मी नायिका को ऐतराज़ है कोई अंदर की बात बाहर कहे क्योंकि अंदर सब तरह की गंदगी भरी हुई है जिसको कोई सामने नहीं लाने देता है। टीवी अख़बार वालों का स्वार्थ जुड़ा रहता है उनको नायक महानयक बनाकर अपना उल्लू सीधा करने को। सदी का तथाकथित महानायक जालसाज़ी भी करता है किसान होने का झूठा दस्तावेज़ हासिल करने को किसी राज्य की सत्ताधारी सरकार से मिलकर गांव की पंचायत की ज़मीन अपने नाम करवाता है ताकि लोनावला में जो ज़मीन किसान ही खरीद सकता है गैर कनूनी हथकंडे अपना कर खरीद सके। कभी सोचा है जो अभिनेता ईमानदारी और सच्चाई के किरदार निभाता है वास्तव में आचरण में सब कुछ कर सकता है। और उनकी पत्नी जो किसी दल की सांसद थी तब क्या उनको देश अपने पद और कायदे कानून की चिंता थी। इतना ही नहीं जब अदालत ने अमिताभ बच्चन को पंचायती ज़मीन लौटने की बात की तब भी चालबाज़ी से उस ज़मीन को जिस दल की सांसद उनकी पत्नी थी उसी दल की और सांसद के एनजीओ को देने का काम किया जबकि उनको पंचायत को वापस देने का वादा निभाना था। ये कोई अकेली घटना नहीं है सुनील दत्त का बेटा संजय दत्त अपने घर में अवैध हथियार रखने और गुनहगार लोगों का साथ देने का दोषी होता है। कोई और अपनी गाड़ी से किसी को कुचलता है कभी नियम को तोड़कर काले हिरण का शिकार करता है। जाने कितने ऐसे लोग हैं जिनको कानून की रत्ती भर भी परवाह नहीं है जो मन चाहा करते हैं। ये आपको कोई खेल खेलने को उकसा रहे हैं पैसे कमाने का नहीं आपको बर्बादी का रास्ता दिखला रहे हैं मगर ये इसी की कमाई से मौज उड़ा रहे हैं।

    आज का सिनेमा उसकी फ़िल्में कहानी संगीत अपने मार्ग से वास्तविक उद्देश्य से भटक गया है। अन्यथा कभी इस के अभिनेता निर्देशक और संगीतकार गीतकार उच्च आदर्श और सामाजिक मूल्यों को सबसे अधिक महत्व देते थे। पैसे कमाने को दर्शक को गलत संदेश नहीं देना चाहते थे। सोच विचार और सामाजिक कर्तव्य निभाने को लेकर आधुनिक सिनेमा पहले से ऊपर जाने की जगह नीचे ही गिरता गया है। खुद दिशाहीन ही नहीं हुआ बल्कि साथ में बाक़ी समाज को भी गलत दिशा को ले जाने का ही काम किया है। वास्तव में मुंबई नगरी में ऐसी कितनी घटनाएं सामने ही नहीं आती हैं ये इक विडंबना भी है कि देश की बड़ी बड़ी समस्याओं को छोड़ हर कोई किसी एक अभिनेता की मौत पर अटका हुआ है और नतीजा राजनीति और जाने किस किस के मकसद जुड़ने से हर दिन कोई जिन्न इस बोतल से बाहर निकलता रहता है। कोई जादू का चिराग़ किसी ने बिना जाने समझे बस यूं ही मसल दिया और नहीं मालूम ये क्या बला है इस से कैसे निपटा जा सकता है। ये ऐसी नगरी है जिस में कांच का लिबास पहने हुए लोग हैं संग का बना हुआ शहर है अर्थात पत्थर के लोग भगवान इंसान सभी चलते फिरते भावनाशून्य हैं। उनकी हंसी खोखली और आंसू नकली हैं दिखावे के उनका सरोकार खुद के सिवा किसी से नहीं है। कोई ऐसे भी हैं जिनकी छवि देशभक्त वाली है जबकि उनकी नागरिकता किसी और देश की है क्यों है वही जानते हैं खाने कमाने को ये देश है और बसने को कोई और भाता है।

   आपने देखा है टीवी शो पर जब भी आते हैं जाने कैसी कैसी बातें बनाते हैं उनकी गंदी वाहियात बातों पर दर्शक तालियां बजाते हैं। कुछ लोग उनसे कहने को प्यार का रिश्ता बनाते हैं मंच पर उनके संग झूमते हैं गाते हैं उनको अपना आशिक़ चितचोर कहते हैं बेशर्म होकर बहुत कुछ बताते हैं और उनके अपने बैठे मुस्कुराते हैं वास्तविक जीवन में ये हो तो ख़ुदकुशी कर जाते हैं। चुल्लू भर पानी मिले डूब के मर जाते हैं। उनकी शोहरत की बुलंदी झूठ की बुनियाद पर टिकी हुई है कुरेदने भर से कलई उतर जाती है ये दुनिया बस इसी बात से घबराती है। उनकी कमाई की रोटी को कोई नानक निचोड़ दे तो खून की नदिया बह जाएगी। हम जो भी हैं वही नज़र आते हैं ये तो अंधेरा बढ़ाने वाले हैं फिर भी सितारे कहलाते हैं। नाम की ज़रूरत नहीं हैं तमाम अभनेता नायिकाओं के किस्से सभी जानते हैं दुनिया जिस को मुहब्बत की कहानी मानते हैं वास्तविकता को नहीं पहचानते हैं। ये आपकी दुनिया के किरदार नहीं हैं भले जो भी ये कभी वफ़ादार नहीं हैं ये बेवफ़ाई करते हैं मगर गुनहगार नहीं हैं। ज़मीर क्या होता ईमान किसे कहते हैं कहते हैं अभिनय करते हैं खुद होते नहीं है जैसे नज़र आते हैं अदाकार हैं कोई किरदार नहीं है। ये लाईलाज रोग है समाज को बीमार कर रहा है ये आपके लिए कोई उपचार नहीं है। कोई  शायर कहता है , इस कदर कोई बड़ा हो मुझे मंज़ूर नहीं , कोई बंदों में खुदा हो मुझे मंज़ूर नहीं। रौशनी छीन के घर घर से चिराग़ों की अगर , चांद बस्ती में उगा हो मुझे मंज़ूर नहीं। आखिर  में मेरी इक ग़ज़ल भी पेश है।

ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा"

गए भूल हम ज़िन्दगानी की बातें
सुनाते रहे बस कहानी की बातें।

तराशा जिन्हें हाथ से खुद हमीं ने
हमें पूछते अब निशानी की बातें।

गये डूब जब लोग गहराईयों में
तभी जान पाये रवानी की बातें।

रही याद उनको मुहब्बत हमारी
नहीं भूल पाये जवानी की बातें।

हमें याद सावन की आने लगी है
चलीं आज ज़ुल्फों के पानी की बातें।

गये भूल देखो सभी लोग उसको
कभी लोग करते थे नानी की बातें।

किसी से भी "तनहा" कभी तुम न करना
कहीं भूल से बदगुमानी की बातें। 

सितंबर 11, 2020

नचा रहे हैं धागे उनके हाथ हैं ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया

   नचा रहे हैं धागे उनके हाथ हैं ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया 

   कठपुतली करे भी तो क्या धागे किसी और के हाथ हैं नाचना तो पड़ेगा। सिम्मी नायिका ने इक पुरानी फिल्म में ये डायलॉग जिस ढंग से बोला था कमाल था ये और बात है कि आनंद फिल्म में उसको बदले अंदाज़ में नाटकीय ढंग से बोलने पर उसकी पहचान हो गया मशहूर होना बड़ी बात है। कौन कठपुतली है कौन नचा रहा है ये रहस्य है सामने कोई और हैं पर्दे के पीछे जाने कौन कौन हैं। देश की कानून व्यवस्था को सरे आम बीच बाज़ार कोई नंगा करता है और चाहता है ये खेल हर किसी को दिखाया जाये उनकी हुकूमत है ये ज़रूरी है सबक सिखाया जाये। कोई अरमान जलाया जाये किसी की हस्ती को मिटाया जाये। यहां पर सभी उनके इशारे पर चल रहे थे जो मकसद था मीडिया वाले भी वही कर रहे थे। कोई  रोकने वाला नहीं था कोई टोकने वाला नहीं था सभी अधिकारी अपने आका का हुक्का भर रहे थे ज़ुल्म क्या होता है समझ नहीं इंसाफ कर रहे थे यही कह रहे थे। इंसाफ करने वाले बैठे थे अपनी शान से ये तमाशा चलता रहा आराम से। कोई उस कागज़ के पुर्ज़े उड़ा रहा था जिस पर लिखा हुआ था कोई शपथ उठा रहा था कोई कह रहा था कोई दोहरा रहा था। देश की एकता अखंडता न्याय की निष्पक्षता की भय या पक्षपात नहीं करने की बात को खोखली हैं ये बातें समझा रहा था। आज़ादी न्याय और देश का संविधान क्या है। लोग हैरान हैं परेशान बिल्कुल भी नहीं हैं लोग तमाशाई हैं उनको मज़ा आ रहा है। उधर कोई इंसाफ़ का तराज़ू लड़खड़ा रहा है उसको सब खबर है कोई ख़ंजर है कोई ज़ख़्म खाने खुद उसको बुला रहा है। ये जासूसी उपन्यास लिखा जा रहा है नज़र जो भी आता है समझ आ रहा है मगर राज़ की बात कौन बता रहा है पटकथा कोई लिखवा रहा कोई निर्देशन का हुनर दिखा रहा। रहस्य और भी गहरा रहा है।

    घर शीशे का लिबास भी शीशे जैसा ऐसे में हाथ में पत्थर रखने का नतीजा क्या होगा। मुश्किल यही है जो लोग आईने बेचने का कारोबार करते हैं उनको खुद आईना देखना ज़रूरी नहीं लगता है। अपने चेहरे पर लगे दाग़ उनको अच्छे लगते हैं डिटर्जैंट बेचने का सामान हैं। ये जंग है कि कोई खेल है बहुत अजीब ये घालमेल है किसी शतरंज की बिसात पर मोहरे हैं कितने जो बेमेल हैं। बाज़ी किसी की खिलाड़ी कोई है ये सियासत का अदावत मुहब्बत का इक दौर है। शराफत का कहीं नहीं कोई ठौर है जंगल में नाच रहा कहीं मोर है। चलो थोड़ा पीछे नज़र डालते हैं हर इक किरदार को फिर से पहचानते हैं यहां सच नहीं झूठ ही झूठ है ये इक बात सभी जानते हैं मानते हैं। कोई हारी बाज़ी की बात है बिछाई किसी ने नई बिसात है आधा दिन है आधी रात है नहीं शह नहीं कोई मात है ये बस घात है लात खाई है लगानी लात है। बादशाह खुद को समझते हैं लोग जीत हार की खातिर लड़ते मरते हैं लोग कौन समझाए क्या क्या कहते हैं लोग बात कहते हैं फिर मुकरते हैं लोग। फिर उसी ने अपनी कठपुतली को उंगलियों पर अपने नचाया है जब तेरा साथ है डर की क्या बात है पेड़ पर चने के चढ़ाया है जानते हैं खेल है प्यादों का कौन क्या है किसे क्या बनाया है। किसी शायर ने समझाया था कि " खुश न रहिएगा उठाकर पत्थर , हमने भी देखे हैं चलकर पत्थर "।

     ये आपदा को अवसर बनाने की बात है ख़ुदकुशी की नहीं क़त्ल की बात है। यही समय है ताकत को आज़माते हैं सच झूठ को मिलवाते हैं उनको कहते हैं झगड़ा निपटाते हैं खुद जीतने को उनको हरवाते हैं। फिर कभी जब धागे उलझ जाते हैं चाहते कुछ नहीं कुछ भी कर जाते हैं। बादशाह अपने दरबार में बैठकर चाल क्या चलनी है समझाते हैं कोई मोहरा है सूली पर चढ़ाते हैं घबरा मत हम तेरे साथ हैं उसको ललकार हम तुझे बचाएंगे मज़ा लेते हैं उसको मज़ा चखाते हैं। ये दो ऐसे नादान हैं जो समझते हैं हम बड़े पहलवान हैं हम खुदा हैं हम अपने भगवान हैं आप अपनी हम इक पहचान हैं। बस सी हुई चूक है इक मगरूर है मद में चूर है पर दुनिया का तो यही दस्तूर है सांड लड़ते हैं फसल बेल बूटे बर्बाद होते हैं दोनों थक जाते हैं पीछे हट जाते हैं। सब ने समझा था काठ की तलवार है ये सियासत की जंग है बेकार की हाहाकार है मगर चोट कोई कभी ऐसे लग जाती है ये ज़ुबां तख़्त पर जो बिठवाती है यही सूली पे भी कभी चढ़वाती है। पहले सोचो फिर तोलो फिर बोलो ये दादी नानी समझाती है जब ज़ुबां काबू नहीं आती है कोई महाभारत कहीं करवाती है। शब्द का ज़ख्म कभी भरता नहीं खंजर का ज़ख्म धीरे धीरे भर जाता है ज़हर पीकर भी लोग बच जाते हैं कोई पी के अमृत भी मर जाता है।

      डॉ बशीर बद्र जी कहते हैं उनकी ग़ज़ल के शेर हैं। अब है टूटा सा दिल खुद से बेज़ार सा , इस हवेली में लगता था बाज़ार  सा। बात क्या है मशहूर लोगों के घर सोग का दिन भी लगता है त्यौहार सा। इस तरह साथ निभाना है मुश्किल , तू भी तलवार सा मैं भी तलवार सा। जो था चारागर अब खुद बीमार है दुश्मन का दुश्मन है अपना यार है कठपुतली है उसकी उसका औज़ार है। या इस पार है या उस पार है अभी क्या खबर कोई मझधार है ये डूबती नैया लगती क्या पार है। कैसा मातम है खास लोगों का जश्न है कि कोई त्यौहार है। शराफ़त न जाने कहां छुप गई किसलिए वो भला शर्मसार है। ये शहर मुहब्बत का नहीं है यहां मुहब्बत भी शराफ़त भी ईबादत भी सियासत भी बिकती है इस शहर का मिजाज़ यही है। ग़ज़ल सुनते हैं इक जगजीत सिंह जी की आवाज़ में।


सितंबर 07, 2020

कोरोना आपकी अदालत में ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     कोरोना आपकी अदालत में ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

         फ़िल्मी अभिनेता की मौत का मातम मनाने से फुर्सत मिलते ही टीवी चैनल एक बार दोबारा से कोरोना राग अलापने लगे। जैसे ही इस को लेकर बहस होने लगी कि सत्तर साल में जितना विकास हुआ था उसका भी सत्यानाश हो गया है ये कोई विरोधी नहीं विश्व बैंक के अधिकारी रहने वाले ने कहा है। सरकार ने अपनी बला टालने की खातिर कोरोना को दोषी ठहराने की बात की तो कोरोना को मज़बूर होकर अपनी सफाई देने को सामने आना ही पड़ा। जैसा होता है सब ने देखा है टीवी चैनल वालों को खुद अपनी खबर भले नहीं होती है जिन आंतकवादियों अपराधियों मुजरिमों को पुलिस तलाश नहीं कर पाती उनका साक्षात्कार टीवी वाले दिखलाते हैं। ओसामा बिन लादेन से पहले भी ऐसा होता था उसके बाद ये रिवायत बन गई खुलेआम बताते हैं आज आपको उनसे मिलवाते हैं। रिया को भी अपनी कहानी खुद अपनी ज़ुबानी सुनानी पड़ी क्योंकि बात या असली मामला वही छीना झपटी पैसे दौलत का है। मरने वाले की आत्मा की शांति को श्राद्ध कौन करे बाद की बात है पहले उसका वारिस होना है तो क़ातिल कोई और है कहना ज़रूरी है ख़ुदकुशी करने का इल्ज़ाम कोई अपने पर नहीं लेना चाहता। कोरोना को भी जो अपराध किया नहीं उसका आरोपी बनाया जाना मंज़ूर नहीं है। 

      पहला सवाल था कोरोना आपको क्यों आना पड़ा इस देश में कोई कमी थी और सब कितना खराब था तुझे आकर पहले से मरे हुए लोगों को मारने की ज़रूरत क्या थी। कोरोना ने कहा मुझे बुलाया गया है बिना बुलाये मुझे इधर नहीं आना था मुझसे खतरनाक और बहुत थे देश की जनता का लहू चूसने वाले। क्या करता मुझे इस शानदार ढंग से नमस्कार करते हुए जान बूझकर बुलावा दिया तो कैसे नहीं आता। क्या आप नहीं जाने उनके बुलाने पर जिनकी हैसियत क्या कमाल की है नामुमकिन को मुमकिन करने वाले से हाथ मिलाना कौन नहीं चाहता है। हाथ मिलाने के बाद हाथ धोने की चर्चा भी अजीब लगती है गले लगाया था हाथ में हाथ भी थामा था कोरोना को जो होना था होना था बस वही कोना था जिस जगह बैठा कोरोना था। उसके बाद हर सरकार हर सत्ताधारी नेता ने खुद मनमानी की कोरोना को फैलाने का काम किया मुझे बदनाम किया खुद नहीं अपना काम किया। कोरोना की लूट की छूट ने उनकी वास्तविकता को सामने ला दिया। मैं जाना भी चाहता था मुझे रोककर अवसर बना दिया मेरे नाम से घर दफ़्तर सब बना लिया। 

     पहले कहते थे उनसे पहले किसी ने कुछ भी नहीं किया सभी ने लूटा है बर्बाद किया है अब जब सब कुछ खुद अपने हाथ से लुटवा बैठे या लुटवाना चाहते हैं तब अपने गुनाह का दोष मुझ पर लगाना ये तो झूठ की सीमा को पार करने के बाद बेगुनाह को सूली चढ़ाने की बात है। हाथ जोड़कर मुझे बुलाया था अब कहते हैं किस से पूछकर आया था। सच बताऊं तो मैंने उन पर एहसान किया है उनकी गिरती साख की लाज बच गई है मेरे बहाने उनके सर से बला टल गई है। दिल ही दिल से मेरा उपकार समझते हैं जो कभी नहीं समझते थे इस बार समझते हैं कोरोना को लोग खुद उनका नया अवतार समझते हैं। ओ चारागर लोग तुझे सबसे बड़ा बीमार समझते हैं अपने सर पर लटकी हुई तलवार समझते हैं सरकार है बड़ी बेकार समझते हैं तुझ से बढ़कर कोई नहीं लाचार समझते हैं। सबसे बड़े दुश्मन को सब यार समझते हैं इस पार ही नहीं लोग सभी उस पार समझते हैं। जाने है कौन देश का गुनहगार समझते हैं चौकीदार नहीं कोई सौ बार समझते हैं। सच तो है सरकार बहुत खुश है कोरोना वक़्त पे आया है क्या क्या नहीं सरकार ने कोरोना से पाया है कोरोना ने उनको बचाया है ये अवसर उन्होंने जमकर आज़माया है। फितरत है उनकी सितम करते रहे हैं अब झूठा ये इल्ज़ाम कोरोना पे लगाया है ये ज़ुल्म भी देखो सरकार ने ढाया है।

        कुछ कहते कहते कोरोना उदास हो गया है उसका इम्तिहान नहीं किसी और का इम्तिहान था जो ज़ीरो नंबर लेकर भी खुश है कोरोना सौ नंबर पाकर पास हो गया है। हर बात जैसे सरकारी मज़ाक हो गया है घोड़ा सत्ता का खुश है हर शख़्स घास हो गया है। अदालत का फैसला नया इतिहास बनाया है इक बेगुनाह को झूठे आरोप लगा मुजरिम बनाया है उसको बाइज्ज़त बरी किया झूठ बोलने वाले पर जुर्माना लगाया है। क्या सरकार को निर्णय मंज़ूर नहीं होगा कोरोना बेकसूर है तो किसी और का कसूर होगा। आखिर वही हुआ जिसका डर था चोरी की है उसी ने खुद जिसका ये घर था। दरवेश कह रहा ये कौन है जो शाहंशाह बन कर आ गया है दौलत सारी दोस्तों को लुटा गया है भीख मांगता था खुद भिखारी सबको बना गया है।

सितंबर 05, 2020

लॉक-डाउन की महिमा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

    लॉक-डाउन की महिमा ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

 
     लॉक-डाउन को लेकर दुविधा में हैं लोग कब से कब तक और कितना कैसा कोई नहीं जानता खुद घोषित करने वाले अनजान हैं। हटते हटते ज़माना लगता है लगाने को चुटकी बजाना लगता है है हक़ीक़त मगर फ़साना लगता है आपको झूठा बहाना लगता है। मुश्किल बाहर जाना मुसीबत को घर बुलाना लगता है। अंधों में काना ही अब स्याना लगता है कोरोना को भगाना थाली बजाना लगता है। किसी को अवसर भुनाना लगता है किसी का खाली खज़ाना लगता है बारिश का मौसम सुहाना लगता है रोज़गार पकोड़े बनाना लगता है। सीबीआई को बुलाना पड़ेगा कोई गुनहगार पकड़वाना पड़ेगा कोरोना को मज़ा चखाना पड़ेगा उसे अब तो सूली चढ़ाना पड़ेगा तरीका वही आज़माना पड़ेगा गधे को बाप सबको बनाना पड़ेगा। किसी को कहीं से हटाना पड़ेगा किसी और देश को भाग जाना पड़ेगा नहीं सुनता कोई सुनाना पड़ेगा कुछ और ज़ोर से चिल्लाना पड़ेगा। ये सारा का सारा बोझ उठाना पड़ेगा नहीं सजदा करना मगर सर फिर भी झुकाना पड़ेगा दुष्यन्त कुमार को दोहराना पड़ेगा जो सच है आखिर बताना पड़ेगा। लॉक-डाउन लगाकर हटाना पड़ेगा चिड़िया चुग गई खेत बाद में पछताना पड़ेगा। कभी तो हर किसी को जाना पड़ेगा ये सिलसिला चलता है चलाना पड़ेगा रिवायत को आखिर निभाना पड़ेगा किसी को उठाकर बिठाना पड़ेगा। लॉक-डाउन का मतलब पढ़ाना पड़ेगा अनलॉक-डाउन तुझको समझना और समझाना पड़ेगा।

        लॉक-डाउन की कथा बनाई है लॉक-डाउन कोरोना का सौतेला भाई है दूध दूध है छाछ छाछ है मख्खन घी और मलाई है मिलकर रसमलाई बनाई है। नहीं मालूम किसने चुराई है लॉक-डाउन क्या कोई हलवाई है कोरोना है बड़ा कड़वा देखो तो लगता है कोई मिठाई है। बात मन की उसको जब सुनाई है क्या कहें कितनी उसको भाई है अब कसम सच्ची उसने खाई है सरकारी दामाद है कोरोना घरजवाई है। ऐलान जनाब ने किया आखिर आठ बजे सीधे संबोधन में कोरोना से बात बिगड़ी बन गई है ठन गई थी मगर फिर टनाटन गहरी छन गई है। वैक्सीन नहीं कोई दवाई नहीं हम कथा उसकी सुनाएंगे कोरोना संग लॉक-डाउन की भी महिमा गाएंगे सुबह शाम उसको जब मनाएंगे नाचेंगे झूमेंगे और गाएंगे बीमार चंगे हो जाएंगे। हम ये राज़ दुनिया से छुपाएंगे कोरोना क्या है कुछ भी नहीं मगर सब कुछ है ये समझा कर और उलझाएंगे। हमारे पास बेचने को रखा क्या है दुआ भी है बद्दुआ क्या है किया क्या और हुआ क्या कौन समझे ये माजरा क्या है। लॉक-डाउन चीज़ कितनी अच्छी है बात झूठी भी लगती सच्ची है हमने छाना कोना कोना है छिप गया डर कर जब कोरोना है हमने उसको ज़िंदा छोड़ने का किया वादा है पेश हो जाओ पक्का इरादा है।  सीबीआई  ने जाल बिछाया था तब कोरोना बहुत घबराया था दुहाई है दुहाई है कोरोना बहना है और  लॉक-डाउन उसका भाई है। राम ने खूब मिलाई है जोड़ी इक अंधा है दूजा है कोड़ी बात रहती है ज़रा अभी थोड़ी सुना रहे हैं उसको लोरी। गहरी नींद उनको जब आएगी अर्थव्यस्था पटड़ी पर खुद चली आएगी कथा सुनाने को नई ऐप्प बनाई जाएगी आरती भजन कीर्तन सतसंग जनता ताली भी बजाएगी सरकार कोरोना संग निभाएगी मगर जब सब जनता मनाएगी भाई लॉक-डाउन चला जाएगा बहना कोरोना भी भाग जाएगी।
        

सितंबर 03, 2020

फ़िल्मी नायक हैं असली नहीं ( बोल फ़रीदा ) डॉ लोक सेतिया

  फ़िल्मी नायक हैं असली नहीं ( बोल फ़रीदा ) डॉ लोक सेतिया 

        नामुमकिन को मुमकिन करने वाले नायक या फिर ख़लनायक का अभिनय करते हुए सिनेमा के पर्दे पर सब कुछ कर सकते हैं वास्तविक ज़िंदगी में उनकी सच्चाई बिल्कुल अलग होती है। सच्चाई ईमानदारी और आदर्श की कहानी का किरदार निभाने वाले वास्तविक जीवन में झूठ छल कपट धोखा और समाज के नैतिक मूल्यों को ताक पर रख कर बिना संकोच या लाज शर्म उस सीमा तक अनुचित आचरण करते हैं जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। और उनके अच्छे बुरे क्या खराब और गुनाह समझे जाने वाले कर्मों को भी हम चाव से सुनते हैं और कितनी अजीब बात है देख कर पढ़ कर सुनकर भी उनके लिए खराब भावना नहीं होती है। इक झूठ फरेब की नकली चमकती दुनिया को हमने हक़ीक़त से बढ़कर समझ लिया है उनके अफ़साने हक़ीक़त को झुठलाते हैं। हमने किसी को नायक किसी को महनायक किसी को भगवान तक कह दिया उनके अभिनय या खेल या कोई कला को दिखला सफल होने के कारण। उस कलाजगत खेलजगत का वास्तव में देश समाज और हमारे साधारण लोगों के जीवन से कोई मेल तो क्या सरोकार भी शायद ही होता है। शायद उनको मालूम ही नहीं है कि साहित्य कला संगीत और अभिनय नृत्य का वास्तविक मकसद आम व्यक्ति की ज़िंदगी और सुख दुःख दर्द परेशानी समस्याओं को जानकर उन पर चिंतन करना होना चाहिए। मगर ये बेहद खेदजनक है कि सफलता पाने का अर्थ पैसा दौलत कमाकर इंसान इंसानियत के एहसास से दूर केवल अपने स्वार्थ को ध्यान में रखना बन गया है इसलिए उनके किरदार से समाज को अच्छा संदेश नहीं मिलता बल्कि भटकाने की बात होती है। कभी शायद कोई सोचेगा कि कभी समय हुआ करता था जब सिनेमा फिल्म और कहानी गीत कितने सार्थक मार्गदर्शक की तरह अपना कर्तव्य निभाते थे और उन नैतिक आदर्शों की खातिर अपने स्वार्थ को छोड़ने में कोई संकोच नहीं होता था पैसा उनका भगवान नहीं होता था। अब टीवी सीरियल फिल्म और सोशल मीडिया भी हम सभी को सच से दूर किसी झूठी काल्पनिक दुनिया में भटकाने का ही काम करते हैं। उनका मकसद धन दौलत हासिल करना होता है कोई सामाजिक कर्तव्य निभाना नहीं।

    ये बताना ज़रूरी था विषय को समझने की खातिर। डायलॉग बोलने की तरह भाषण देकर तालियां बजवाने वाले नायक भी नहीं बहरूपिया कहना उचित होगा को हमने समझ लिया कि वो चुटकी बजाते ही हम सब की देश की जनता की समस्याओं को हल कर सकता है। जैसे किसी बकवास विषय पर बनी हिट फिल्म को फिर से बार बार बनाते हैं उस ने नायक का किरदार निभाते हुए कितने तमाशे रोज़ दिखला दिखला कर हम सभी को सोचने समझने ही नहीं दिया कि उसका कोई करिश्मा देश की जनता के लिए कुछ भी कर नहीं पाया है और हमने उसको अनावश्वक ही कोई मसीहा समझने है मानने की गलती की है। अब पता चला आकाश छूने की बातें करने वाले ने देश को पाताल में धकेल दिया है विकास विकास करते करते विनाश को लाते रहे हैं। फिल्म की कहानी में लेखक अपने बनाए किरदार को सही अंजाम तक ले जाने में पग पग साथ रहकर बचाए रहता है लेकिन यहां खुद नायक का अभिनय करने वाला जब जैसे चाहा मनमानी करते हुए जनता की ज़िंदगी की कहानी से खिलवाड़ करता रहा है। उसको रत्ती भर भी एहसास नहीं है कि उसने क्या किया है क्यों किया है और क्या से क्या हो गया है। कहानी अभिनय निर्देशन सभी उसी का है जिसको कुछ भी मालूम नहीं उनके बारे में।

        फ्लैशबैक में पिछली कहानी को देखते हैं। उसने कितने रंग कितने रूप बदल बदल कर मनोरंजन करने का काम किया है। अभिनेता संजीव कुमार ने सात रंग जीवन के सात किरदार निभाए थे मगर गोविंदा ने इक फिल्म में अनपढ़ होते हुए भी वकील डॉक्टर पुलिस अधिकारी की पोशाक पहन कर फोटो करवा घर में लगवाई हुई थी। जिसे देख नायिका भी चक्कर खाई थी। डबल रोल करने वालों की गिनती करना ज़रूरी नहीं है गब्बर सिंह कहता है पचास पचास कोस दूर की दहशत मगर जनाब के लिए हज़ारों मील की भी दूरी कोई दूरी नहीं है। कभी फोटोग्राफी कभी पहाड़ों की सैर कभी शेर चीते हाथी से याराना कभी इस कभी उस देश जाना अपना तमाशा बनाना खुद तमाशाई बन इतराना अपने मुंह मियां मिट्ठू कहलाना। बाबुल की दुआएं लेती जा रुलाने वाले गीत पर झूमना ठहाके लगाना क्या नहीं कर दिखाया है हर शाख पे उल्लू बैठा है किसी ने किस किस को नहीं उल्लू बनाया है। इक छलिया आया है कोई जोकर संग लाया है अच्छे अच्छों को उसने तिगनी का नाच नचाया है।

     खीर बनाने लगे थे कढ़ी बन गई है रोटी पकते पकते तवे पर जल गई है उसकी चाय लेकिन बिना आग पर रखे उबल गई है। उसने लिट्टी चोखा भी खाया है आपदा को अवसर उसने बताया ही नहीं बनाया है। ये कौन जाने किस जहां में सबको लाया है समझा रहा है सब झूठी मोह माया है। अब हर कोई लगता है जैसे घबराया है रात को डरावना सपना किसको नहीं आया है। इक गंभीर कहानी की फिल्म नासमझ बच्चों की खातिर बनाई कार्टून फिल्म बन गई है सब दोस्तों से दुश्मनी होने लगी है उसकी सभी से ठन गई है। हालत बिगड़ गई है फिर भी उसका दावा है कि बात बन गई है। मन ही मन खिचड़ी कोई पकाता है देता नहीं किसी को सबको दिखलाता है खुद चटखारे ले कर खाता है अफ़सोस फिर भी भूखा का भूखा रह जाता है। सपने देखने को जागते ही फिर से सो जाता है। इतिहास के पुराने मंज़र को दोहराता है सब तोड़ता है तोड़ता ही जाता है कहता है फिर से नया देश बनाता है। कोई नशा है जादू है जाने क्या है बर्बाद करता है सभी को फिर भी मनभाता है का शोर मचाता है सच को हमेशा कुचलता है उसकी लाश को छिपाता है। सब कहने लगे हैं भागो भागो वो इधर आता है। ऐलान कर दिया भगवान बन गया है इंसान है हैरान क्या इंसान बन गया है उसका कोई अरमान बन गया है देश में सभी से महान बन गया है। अभिशाप मिला है सबको इक वही वरदान बन गया है। आपने डुप्लीकेट देखे हैं किसी नायक की नकल करते हैं कुछ ऐसा ही है हर महान नायक देश के बड़े बड़े इतिहास के लोगों की नकल करते करते खुद को असली उनको नकली साबित करते करते जोकर बन गया है। झूठ की पहचान होती है कि उसके पैर नहीं होते समझते रहे हैं मगर झूठ बोलने वाले की कोई ज़ुबान नहीं होती है बढ़बोला होना उसकी निशानी है। यही आज की कहानी है समझनी है समझानी है।

सितंबर 02, 2020

मैं गोरा तू काला ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

           मैं गोरा तू काला ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

      रंग गोरा होना चाहिए फिर चाहे नज़र नहीं लग जाये उस से बचने को कालिख का टीका लगवाना पड़ जाये। ये सिर्फ महिलाओं की चिंता नहीं है पुरुष भी सब से आकर्षक दिखाई देने को क्या नहीं करते हैं। ये जो गोरा और काला होने का सवाल है ये शक़्ल सूरत पर नहीं हर जगह मुंह उठाये खड़ा रहता है। अगर ऐसा नहीं होता तो काला धन बिना बात बदनाम नहीं होता उसको किसी और बैंक ने जारी नहीं किया हुआ है। विदेशी बैंक में जमा होने से बदरंग नहीं हो गया जो फिर लौट कर राजनीतिक दल को मिलते ही खुशरंग हो जाता है। काले गोरे का भेद भाव आखिर कब तक ये समस्या उनकी खड़ी की हुई है जिनको अपने चेहरे के दाग़ छुपाने को बाकी सभी पर कालिख पोतनी पड़ती है। उनका ढंग यही है खुद को ऊंचा साबित करने को औरों को बदनाम कर कर छोटा साबित कर दो। सभी को देश के दुश्मन कहने से आपकी देशभक्ति का सबूत मिल जाता है। किसी कवि की हास्य कविता सुनकर समझ कर कोई विश्व का सबसे बड़ा निंदक बन गया है उसने निंदा करने को छोड़ कोई और काम नहीं किया है और उस से तमाम लोगों की निंदा सुनकर देशवासी उस के अनुयाई बन गए हैं। पहले जो सरकार की आलोचना करते थे उसकी कमियां निकालते थे आजकल सरकार को तमाम गलतियों नाकामियों और अनुचित बातों को छुपाने से लेकर अच्छा बताकर गुणगान करने का काम करने लगे हैं। खुद उनकी इस बात को लेकर निंदा हो रही है मगर उनको अपनी निंदा की चिंता नहीं है ये निंदा भी उनको भाने लगी है पैसा विज्ञापन टीआरपी लुभाने लगी है। उनके मनोरंजन से दुनिया उकताने लगी है भोर होते ही उबासी आने लगी है उनकी नग्नता देख कर देखने वालों को शर्म आने लगी है। कोई महिला दिलकश अदाएं दिखलाने लगी है ज़ुल्फ़ों को लहराने लगी है मस्ती ही मस्ती छाने लगी है झूठ को सच बनाकर सुंदरी इतराने लगी है। 

       काले और गोरे रंग की जोड़ी दुनिया की सबसे अच्छी जोड़ी है। बिना एक के दूजे की पहचान नहीं बचती है काली साड़ी गोरी पर क्या जचती है माना हम भी काले हैं लेकिन हम दिलवाले हैं ये कहते सभी मतवाले हैं गोरी हम तेरे रखवाले हैं। ख़िज़ाब बालों पर लगाते थे काला बनाते थे आजकल जितने गुलाब वाले हैं लगते जैसे हैं सब कमाल रंगने का है भीतर से काले थे काले हैं। आपने देखा है बड़े लोगों को पहन कर काला लिबास नज़र आते हैं अपने बेडौल जिस्म को रंग काले से छिपाते हैं काले रंग को नाहक बदनाम किया है सच कहो कोई सफेद काम किया है। निंदा करने का मज़ा क्या है या इलाही ये माजरा क्या है। उसने सबसे बड़ा निंदक होने का ख़िताब पाया है महिलाओं को कितना देखो भाया है। ख़िज़ाब अपने बालों पर नहीं लगाया है दुश्मनों को कालिख़ लगाने का हुनर आज़माया है उसकी सजधज बड़ी निराली है अच्छी लगती है उसकी गाली है। हर कोई बनकर खड़ा सवाली है सबकी झोली भरनी थी किया था वादा अभी तक मगर खाली खाली है। कौन असली है कौन जाली है बात सच्ची है पर निराली है दाल में काला नहीं है उसकी पूरी की पूरी दाल ही काली है।

  सात रंग की जो कहानी थी वो कहानी बहुत पुरानी थी उसने लिखी ऐसी कहानी है जिस में प्यास ही प्यास है नहीं चुल्लू भर भी पानी है। याद आने लगी सबको अपनी नानी है कौन राजा है कौन राजा जानी है कहते हैं देश की जनता बड़ी भोली है मगर फिर भी बड़ी स्यानी है। बस  वही इक देने वाला है बाक़ी लोग तो भिखारी हैं चतुर सुजान है कोई हम क्या हैं निरे अनाड़ी हैं। अपना था जो भी लुटवा बैठे हैं रहबर कैसा बना बैठे हैं रंग इतने बदलते बदलते अपने चेहरे भुला बैठे हैं। अब कोई रास्ता नहीं मिलता है भटकने लगे हैं ऐसे जंगल में सभी ये वीराना कभी गुलशन था फूल सतरंगे खिलते थे कभी। अब  सभी इक उसी के रंग में रंगे हैं ये हम्माम हैं सभी नंगे हैं जो ख़राब हैं बस वही चंगे हैं।


     


सितंबर 01, 2020

ये आईने तोड़ के फैंक दो ( सच के क़ातिल ) डॉ लोक सेतिया

   ये आईने तोड़ के फैंक दो ( सच के क़ातिल ) डॉ लोक सेतिया 

    सच वो है जो भगवान से भी सवाल करे विधाता ये दुनिया को कैसा बनाया किसी को सभी कुछ किसी को कुछ भी नहीं। हम जिस को देखते हैं वो पत्थर का भगवान अमीरों का लगता है खुद सबसे बड़े आलीशान भवन में हीरे मोती सोना चांदी लिबास भी चमकदार और पूजा अर्चना की गूंज में स्वादिष्ट पकवान। गरीब उसके पास जाकर भीख की तरह दया करने को कह सकता है अपने अधिकार की बात नहीं कर सकता अन्यथा पूछता आपने जन्म दिया तो ज़िंदगी और ज़िंदा रहने का हक भी देता। मगर उस भगवान की बेबसी है वो अपनी वास्तविकता खुद ब्यान भी नहीं कर सकता है। कुछ लोग खुद ही भगवान बन बैठे हैं आज ऐसे ही तमाम लोगों की बात कहते हैं खरी खरी कहने की ज़रूरत है। अन्यथा दुष्यन्त कुमार की तरह कहना होगा " तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान ए शायर को , ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए "। 

   ये सच के झंडाबरदार बने फिरते हैं बेचते हैं अपना झूठ सच साबित कर ऊंचे दामों पर और खुद पर कोई अंकुश नैतिकता का नहीं मानते हैं। ख़ास लोग जब चाहते हैं उनको बुला सकते हैं और उनकी कही हर बात इनको गीता कुरान बाईबल लगती है उनको बात जैसे जब उनकी मर्ज़ी ये दर्शकों को सुनवाते ही नहीं मनवाते भी हैं। जिसकी खाते हैं उसकी बजाते हैं उसी की महिमा बखान कर आगे ऊपर बढ़ते जाते हैं झूठ के परचम को सच बताते हैं लहराते हैं। दर्द की मत करना बात सबसे बेदर्द और बेदिल बेज़मीर यही नज़र आते हैं। मगर आम जनता के हालात इनको समझ नहीं आते हैं उनकी घनी अंधेरी रात को ये चांदनी बताते हैं। कभी किसी को गुनहगार जब बताते हैं उस से पूछो कितना ज़ुल्म ढाते हैं जाने कहां कहां से मनगढ़ंत सबूत ले आते हैं और खुद वकील गवाह न्यायधीश सब बनकर अपनी अदालत में मनमर्ज़ी का फैसला सुनाते हैं। ये ज़हर देते हैं खुद को चारागर बतलाते हैं। ये खुद पागल हैं इनको पीलिया हुआ है पागलपन करते जाते हैं खबर ढूंढते नहीं हैं खबर बनाते हैं बेखबर की खबर को अखबर बनाते हैं। हाथ जोड़कर इनसे लोग जान अपनी बचाते हैं पर जान की कीमत इनको चुकाते हैं तभी बच पाते हैं। इक ग़ज़ल उनकी बातों की सुनाते हैं उसके बाद कोई और दरवाज़ा खटखटाते हैं। 

ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इक आईना उनको भी हम दे आये,
हम लोगों की जो तस्वीर बनाते हैं।
 
बदकिस्मत होते हैं हकीकत में वो लोग,
कहते हैं जो हम तकदीर बनाते हैं।

सबसे बड़े मुफलिस होते हैं लोग वही,
ईमान बेच कर जो जागीर बनाते हैं।

देख तो लेते हैं लेकिन अंधों की तरह,
इक तिनके को वो शमशीर बनाते हैं।

कातिल भी हो जाये बरी , वो इस खातिर,
बढ़कर एक से एक नजीर बनाते हैं।

मुफ्त हुए बदनाम वो कैसो लैला भी,
रांझे फिर हर मोड़ पे हीर बनाते हैं।


        चलो अगली चौखट पर सर को झुकाते हैं अपने पर हुए ज़ुल्म की दास्तां उनको भी सुनाते हैं जिनके पर इंसाफ़ का तराज़ू है न्याय का मंदिर कहलाते हैं। कोई तोला है कोई माशा है उनका भी अजब सा तमाशा है। वो जो कहते हैं यकीन से कहते हैं समझते हैं जैसे आसमान पर रहते हैं आम लोग उनको दिखाई नहीं देते हैं। खुदा हैं उनकी खुदाई है हां मगर सत्ता पर बैठा जो अपना भाई है कुछ मत पूछो वो करिश्माई है बस उसी ने सभी को राह दिखाई है। चोर चोर मौसेरा भाई है दौलत मिल बांटकर सभी ने खाई है ये खज़ाने की इक खुदाई है लूट है देशसेवा कहलाई है। कनून क्या है संविधान क्या है इधर कुंवां उधर खाई है माखनचोर माखन चुराता है देखती रहती उसकी माई है ये दूध है वो मलाई है। यहां बिकता है ज़मीर भी सर झुकाता है राजा फकीर भी जिसकी फूटी हुई है तकदीर भी उसको मिलती नहीं नज़ीर भी। बस उनको कुछ कहना भी गुनाह होता है सच की बात है फ़नाह होता है। इक ग़ज़ल उनको भी कहती है जनता ज़ुल्म सहती कुछ नहीं कहती है ख़ामोशी बोलती नहीं फिर भी कहती है। 

ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

फैसले तब सही नहीं होते ,
बेखता जब बरी नहीं होते।

जो नज़र आते हैं सबूत हमें ,
दर हकीकत वही नहीं होते।

गुज़रे जिन मंज़रों से हम अक्सर ,
सबके उन जैसे ही नहीं होते।

क्या किया और क्यों किया हमने ,
क्या गलत हम कभी नहीं होते।

हमको कोई नहीं है ग़म  इसका ,
कह के सच हम दुखी नहीं होते।

जो न इंसाफ दे सकें हमको ,
पंच वो पंच ही नहीं होते।

सोचना जब कभी लिखो " तनहा " ,
फैसले आखिरी नहीं होते। 

         इक और है जो खुद हमने बनाया है इक निज़ाम खुद अपना अपनाया है वो कुछ नहीं बस हमारा साया है मगर ये साया शाम का बढ़ता साया है इंसान से लंबा उसका साया है। सांसद विधायक हमने बनाया है हमको डराता है बहुत दूर बच के रहते हैं चेहरा नहीं नक़ाब लगाया है देशभक्ति का गीत गाकर जब सुनाया है मत कहो क्या है क्या बताया है। उनकी हर बात बात होती है दिन उनके उनकी रात होती है उनसे भला मुलाक़ात होती है कोई श्मशान है कोई बरात होती है सूखा मचाती हुई बरसात होती है। बात को मुख़्तसर बनाते हैं फिर ग़ज़ल इक उनको लेकर पढ़ते सुनते सुनाते हैं। सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा , क्या तराना है मिलकर गाते हैं। 

ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 
सरकार है  , बेकार है , लाचार है ,
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है।

फुर्सत नहीं समझें हमारी बात को ,
कहने को पर उनका खुला दरबार है।

रहजन बना बैठा है रहबर आजकल ,
सब की दवा करता जो खुद बीमार है।

जो कुछ नहीं देते कभी हैं देश को ,
अपने लिए सब कुछ उन्हें दरकार है।

इंसानियत की बात करना छोड़ दो ,
महंगा बड़ा सत्ता से करना प्यार है।

हैवानियत को ख़त्म करना आज है ,
इस बात से क्या आपको इनकार है।

ईमान बेचा जा रहा कैसे यहां ,
देखो लगा कैसा यहां बाज़ार है।

है पास फिर भी दूर रहता है सदा ,
मुझको मिला ऐसा मेरा दिलदार है।

अपना नहीं था ,कौन था देखा जिसे ,
"तनहा" यहां अब कौन किसका यार है। 

       झूठ ही झूठ है सच कोई नहीं देखता न दिखलाता है। इन सभी आईनों को तोड़ कर फैंक दो इन में कुछ भी दिखाई नहीं देता है इन अंधों को आईना समझ बैठे हैं लोग। चुप रहना ज़ालिम को मसीहा कहना ज़ुल्म सहकर यही किया है देश की जनता ने। अपने अधिकार मांगने से नहीं मिलते हैं छीनने पड़ते हैं सर झुकाकर नहीं उठाकर जीना होगा तभी आज़ादी का कोई मतलब होगा। झूठ को जो सच कहते हैं उनको बताना होगा हम जानते हैं सच क्या है समझाना होगा। हौंसलों को अपने फिर से आज़माना होगा झुकना नहीं टकराना होगा अपने स्वाभिमान को जगाना होगा। आस्मां को ज़मीं पर लाना होगा इक और ग़ज़ल है अपना यही तराना होगा।

   ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हम तो जियेंगे शान से,
गर्दन झुकाये से नहीं।

कैसे कहें सच झूठ को ,
हम ये गज़ब करते नहीं।

दावे तेरे थोथे हैं सब ,
लोग अब यकीं करते नहीं।

राहों में तेरी बेवफा,
अब हम कदम धरते नहीं।

हम तो चलाते हैं कलम ,
शमशीर से डरते नहीं।

कहते हैं जो इक बार हम ,
उस बात से फिरते नहीं।

माना मुनासिब है मगर ,
फरियाद हम करते नहीं।