मार्च 26, 2025

POST : 1957 मंदिर साक्षात दर्शन - उपदेश वाला ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

 मंदिर  साक्षात दर्शन - उपदेश वाला ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कुछ साल पहले हरियाणा के शहर फतेहाबाद में ऐसा मंदिर ढूंढने पर मिल गया था किसी नासमझ ने कभी बनवाया था झूठ के देवता का पहला मंदिर । वहां आंखें बंद कर श्रद्धापूर्वक विनती करने से देवता खुद दर्शन देते हैं और उपदेश भी देते हैं । मनोकामनाएं पूर्ण हुई जितने राजनेता उनकी शरण में आये चुनाव लड़ने से पहले कोई चढ़ावा कोई आडंबर नहीं होता बस झूठ की जयजयकार करनी होती है । आखिर इक दिन कोई टेलीविज़न का पत्रकार राजधानी से आया देखने परखने तो खुली आंख से कुछ नहीं नज़र आया बस इक घना अंधकार छाया हुआ था बिल्कुल उसके चैनल की शैली जैसा । तभी सामने पढ़ा वत्स आंखें बंद करोगे तो सब दिखाई देगा , और जब उसने आंखों पर पट्टी बांधी तो उसको रौशनी ही रौशनी चारों तरफ नज़र आने लगी और मधुर स्वर सुनाई देने लगा । हैरान होकर बोला पत्रकार क्या ये कोई जादू है तिलिस्म की दुनिया है । जवाब मिला नहीं यही वास्तविक दुनिया है आप जो देखते हैं दिखलाते हैं सब नकली दुनिया है आप खुद कलयुग का इक अवतार हैं खुद अपनी जान के दुश्मन हैं दुश्मनों के ख़ास यार हैं , यानी कि चलता फिरता कोई इश्तिहार हैं । पत्रकार समझ गया जिसकी तलाश थी हमेशा से वो दर मिल गया है , विनती की क्या आप हमारे देश की राजधानी में चलकर सभी को दर्शन दे कर उनका जीवन सफल नहीं कर सकते । 

झूठ के देवता की आवाज़ आई मैं तो हर शहर में हूं आपको कठिनाई नहीं होगी जाओ जाकर किसी भी सरकारी कार्यालय में सचिवालय में मंत्रालय के दफ़्तर में मुझसे वार्तालाप कर सकते हो । बंद आंखों से आपको सच दिखाई देगा , शासक जो कहते हैं की जगह आपको जैसा करते हैं सुनाई देगा समझ आएगा । घबराना मत जब आप वास्तविकता देखोगे तो आपको शासक अधिकारी जो दावे करते हैं धर्म इंसानियत और मानवता के लोककल्याण के आपको ज़ालिम तानाशाह दिखाई देंगे । दीवारों से फर्श तक आपको खून के छींटे नज़र आएंगे कितनी रूहों की आहें और चीखें सुनाई देंगी , बड़े बड़े पदों पर न्यायधीश बने हुए लोग आपको बेरहम और स्वार्थी मिलेंगे । आपको समझ आएगा कि कभी भी रहमदिल शासकों ने खुद को महिमामंडित नहीं किया था , हमेशा लुटेरे और ज़ालिम शासकों ने खुद को महान कहलवाने को ऐसा किया था । जनता तो हमेशा उनको क़ातिल समझती थी भले वो खुद को कितना दयालु और मसीहा घोषित करते रहे थे । 

आखिर वापस लौटकर उस पत्रकार ने देश की राजधानी के सचिवालय और सभी विभागों के दफ्तरों में जा कर बंद आंखें कर झूठ के देवता को याद किया तो सामने सब साफ़ साफ़ दिखाई दिया । खून ही खून फैला हुआ था सभी लोगों के दामन मैले थे भ्र्ष्टाचार की गंदगी की बदबू उनसे हवाओं को प्रदूषित कर रही थी । आखिर पत्रकार घबरा गया और कहने लगा कभी कोई रहमदिल शासक हुआ होगा उसके बारे बताएं थोड़ा सुकून मिलेगा शायद , रहीम और गंगभाट का संवाद बताया देवता ने कुछ ऐसा हुआ था । 

 

रहीम और गंगभाट संवाद : - 


इक दोहा इक कवि का सवाल करता है और इक दूसरा दोहा उस सवाल का जवाब देता है । पहला दोहा गंगभाट नाम के कवि का जो रहीम जी जो इक नवाब थे और हर आने वाले ज़रूरतमंद की मदद किया करते थे से उन्होंने पूछा था :-
 
' सीखियो कहां नवाब जू ऐसी देनी दैन
  ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन '।
 
अर्थात नवाब जी ऐसा क्यों है आपने ये तरीका कहां से सीखा है कि जब जब आप किसी को कुछ सहायता देने को हाथ ऊपर करते हैं आपकी आंखें झुकी हुई रहती हैं । 
 
रहीम जी ने जवाब दिया था अपने दोहे में :-
 
 ' देनहार कोउ और है देत रहत दिन रैन
  लोग भरम मो पे करें या ते नीचे नैन ' ।
 
आपको इस बारे कितनी बार बताया गया है आज आपको आखिर में किसी शायर की ग़ज़ल सुनाते हैं । 
 

बंद आंखों का तमाशा हो गया , खुद से मैं बिछुड़ा तो तन्हा हो गया । 

मौसमों की उंगलियों के लम्स से , दाग़ दिल का और गहरा हो गया । 

एक सूरत ये भी महरूमी की है , मैंने दिल से जो भी चाहा हो गया । 

देखता है हर कोई मुंह फेरकर , मैं न जाने किसका चेहरा हो गया । 

दोस्ती दुनिया से कर ली हमने तो , कांच के टुकड़ों पे चलना हो गया । 

( शायर का नाम पता नहीं है ढूंढने पर भी मिला नहीं मुझे । ) 

 
 
 
 तेरी मोहब्बत के तिलिस्म में गिरफ्तार हो गए, दिल के हर जज़्बे से बेक़रार हो  गए। "संतोष"चाँदनी रातों में तेरी यादें सजती हैं, ख़्वाबों में ...

मार्च 23, 2025

POST : 1956 शहीदों की कुर्बानी के 94 साल बाद ( देश वहीं खड़ा है ) डॉ लोक सेतिया

शहीदों की कुर्बानी के 94 साल बाद ( देश वहीं खड़ा है ) डॉ लोक सेतिया 

भगत सिंह राजगुरु सुखदेव तीन युवा आज़ादी के परवाने हंसते हंसते फांसी पर चढ़ गए थे 23 मार्च 1931 को । आज भी आधी रात को कोई बेचैन है देख कर अंग्रेजी शासन से भी अधिक निरंकुश शासक और प्रशासक जनता का दमन करते हैं सरकार का अर्थ सामाजिक सरोकार नहीं सत्ता की मनमानी बन गया है । ऐसे में वही लोग शहीदों की समाधियों बुतों पर फूलमाला अर्पित कर दिखावे की श्रद्धा जताते हैं उनके विचार उनका मकसद सभी को न्याय और समानता मिलने का किसी को याद नहीं है महत्वपूर्ण खुद को शायद उन से बड़ा देशभक्त दिखाना होता है जबकि वास्तविकता में उन्होंने समाज देश को कुछ दिया नहीं बल्कि छीना है । आज 140 करोड़ में से 80 करोड़ भूखे नंगे हैं क्योंकि कुछ लोगों ने उनके हिस्से का सभी कुछ लूट लिया है और रोज़ खुद पर बेतहाशा धन बर्बाद करते हैं । सामन्य वर्ग की समस्याओं के प्रति उदासीन और बेपरवाह हैं उनको रत्ती पर भी खेद नहीं है कि आज़ादी के 77 साल बाद ऐसा क्यों है । राजनीति इतनी संवेदनहीन बन गई है कि उसे सत्ता और चुनाव को छोड़ कुछ भी समझ नहीं आता है । देश को स्वतंत्र करवाने को जिन लोगों ने जीवन अर्पित किये कुर्बानियां दीं उनके लिए इक दिन कुछ क्षण औपचारिकता निभाने के अलावा कुछ भी उनको ज़रूरी नहीं लगता है । 
 
अफ़सोस इस बात का है कि तमाम लोग सरकारी व्यवस्था और प्रशासनिक आचरण से परेशान हैं मगर कोई भी खुलकर सामने नहीं आता विरोध कर अन्याय को अन्याय कहने का साहस कर । क्या हम उनकी विरासत को संभाल नहीं सके हैं कायर हैं डरपोक हैं , आंदोलन भी कोई स्वार्थ कोई मकसद हासिल करने को करते हैं देश की लच्चर व्यवस्था भेदभाव पूर्ण व्यवहार को बदलने की कोशिश तक नहीं करते । सिर्फ कुछ खास दिनों पर देशभक्ति की भावना दिखाई देती है जैसे कोई मनोरंजन का अवसर हो कोई चिंतन नहीं करते कभी कि इतने सालों ने साधारण जनता को क्या मिला है बुनियादी सुविधाएं अधिकार तक नहीं बल्कि हाथ जोड़े खड़े हैं ज़ालिम प्रशासन सरकार के सामने । ऐसी आज़ादी की कल्पना नहीं की थी जिन्होंने देश को आज़ाद करवाने को अपना सर्वस्व और जीवन अर्पित किया था । किसी खेल के मैदान में चेहरे या पोशाक को तिरंगे रंग में रंगने से वास्तविक कर्तव्य देश के प्रति पूर्ण नहीं होता है । शासक बनकर अपनी सुख सुविधा की खातिर नियम कानून बनाकर जनता का शोषण करने वाले मुजरिम हैं शहीद भगत सिंह राजगुरु सुखदेव जैसे अमर शहीदों के , उन को फूल अर्पित करने से बेहतर होगा उनकी आंकाक्षाओं अपेक्षाओं पर विचारधारा पर चल कर वास्तविक श्रद्धा व्यक्त करते ।  अंत में अमर शहीदों को नमन करते हुए दो रचनाएं प्रस्तुत हैं ।

जश्न ए आज़ादी हर साल मनाते रहे ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

जश्ने आज़ादी का हर साल मनाते रहे
शहीदों की हर कसम हम भुलाते रहे ।
 
याद नहीं रहे भगत सिंह और गांधी 
फूल उनकी समाधी पे बस चढ़ाते रहे ।

दम घुटने लगा पर न समझे बात ये कि  
काट कर पेड़ क्यों रहे शहर बसाते रहे ।

लिखा फाइलों में न दिखाई दिया कभी 
लोग भूखे हैं सब नेता सच झुठलाते रहे ।

दाग़दार हैं इधर भी और उधर भी मगर  
आईना खराब है चेहरे अपने छुपाते रहे ।

आज सोचें ज़रा क्योंकर ऐसे होने लगा 
बाड़ बनकर राजनेता देश खेत खाते रहे ।

यह न सोचा कभी भी आज़ादी किसलिए
ले के अधिकार सब फ़र्ज़ अपने भुलाते रहे ।

मांगते सब रहे रोटी दो वक़्त छोटा सा घर
पांचतारा वो लोग कितने होटल बनाते रहे ।

खूबसूरत जहाँ से है हमारा वतन , गीत को 
वो सुनाते रहे सभी लोग भी हैं दोहराते रहे ।
 
 

वो पहन कर कफ़न निकलते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

वो पहन कर कफ़न निकलते हैं
शख्स जो सच की राह चलते हैं ।

राहे मंज़िल में उनको होश कहाँ
खार चुभते हैं , पांव जलते हैं ।

गुज़रे बाज़ार से वो बेचारे
जेबें खाली हैं , दिल मचलते हैं ।

जानते हैं वो खुद से बढ़ के उन्हें
कह के नादाँ उन्हें जो चलते हैं ।

जान रखते हैं वो हथेली पर
मौत क़दमों तले कुचलते हैं ।

कीमत उनकी लगाओगे कैसे
लाख लालच दो कब फिसलते हैं ।

टालते हैं हसीं में  वो उनको
ज़ख्म जो उनके दिल में पलते हैं ।  
 



बलिदान दिवस 2023: आज भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को याद कर रहा देश

मार्च 22, 2025

POST : 1955 बिना आत्मा ज़िंदा लोग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      बिना आत्मा ज़िंदा लोग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

शोध का विषय है कितने लोग हैं जिनकी अंतरात्मा जिनका विवेक उनको उचित अनुचित कर्मों को करते हुए देखता नहीं रोकता टोकता नहीं उनको किसी पर ज़ुल्म ढाते रत्ती भर भी अपराधबोध होता नहीं है । सत्ता के लिए पैसे के लिए अपने स्वार्थ के लिए अहंकार के लिए ऐसे लोग अमानवीय अनैतिक कर्म करते रहते हैं । ये तमाम लोग खुद को धार्मिक ईमानदार और समझदार मानते हैं जबकि जानते हैं कोई ईश्वर उनके आचरण को उचित नहीं समझ सकता है । धार्मिक आडंबर से अन्य लोगों को धोखा दे सकते हैं ईश्वर को नहीं लेकिन अपने मोह माया के जाल में फंसे ये लोग खुद को भी छलते हैं और अपनी आत्मा को दफ़्न कर किसी बेजान शरीर की तरह जीवन व्यतीत करते हैं । राजनेताओं प्रशासनिक अधिकारियों धनवान व्यापारी वर्ग से बड़े बड़े नाम शोहरत वाले अदाकारों फ़िल्मकारों तमाम अख़बार टीवी चैनेल  के संपादकों पत्रकारों को जैसा नहीं करना चाहिए करते रहने पर कोई संकोच नहीं होता है । सफलता हासिल करने को ऊंचाई पर चढ़ने को मालूम नहीं कब आत्मा को मार कर किसी गहरी खाई में फैंक देते हैं ।  जब भी उनकी मृत्यु होती है श्रद्धांजलि सभा में उनकी आत्मा की शांति और सद्गति की प्रार्थना करने वालों में भी बहुत लोग आत्मा विहीन होते हैं खुद उनकी आत्मा भटक रही होती है दुनिया के मायाजाल में । शोक सभाओं में शोक व्यक्त करने वाले कितने लोग नहीं जानते शोक का अर्थ क्या है । अपने दैनिक कार्यों में ऐसे लोग जानते समझते हुए भी कितने ही लोगों को दुःख देते हैं उनको तड़पाते हैं सही कार्य विवेक पूर्ण निर्णय नहीं करते बल्कि गलत कार्य अनुचित पक्ष को अपनाते हैं । 

आपने सुना होगा ज़ालिम शासक और अन्याय करने वाले कायदे कानून का विरोध किया गया था हमारे बड़े महान आदर्शवादी गांधी भगत सिंह जैसे नायकों ने , हम उनकी समाधियां बनाते हैं उन पर फूल चढ़ाते हैं लेकिन अपने सामने वही सब करने वाले लोगों को ज़ालिम कहने से घबराते हैं । हम कायर बनकर किसी ज़ालिम का अन्याय सहते हैं भीतर घुट घुट कर जीते हैं मुर्दा बनकर रहते हैं ।
 
 https://blog.loksetia.com/2024/11/post-1921.html
 
 24 नवंबर 2024 को लिखी पोस्ट ,  नकली होशियारी झूठी यारी ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया पर मैंने सावधान किया था इसकी यारी दोगली तलवार साबित हो सकती है । कभी कभी लगता है कि जो लोग जाने कब से बगैर आत्मा ज़िंदा हैं उनको ऐसी कोई झूठी नकली होशियारी मिल गई तभी ज़मीर को मार कर भी उनको जीना संभव हुआ होगा । कोई पुरानी कथा है कि कोई दुनिया को अपने अधीन करने को जिस इक दैत्य का निर्माण करता हैं आखिर उसी का शिकार खुद होता है । सरकार भी कभी अपने ही बिछाए हुए जाल में खुद फंसेगी उसी तरह । आदमी कुदरती न्याय से बच नहीं सकता है चाहे कोई जिस भी कारण अनुचित कर्म करता है किसी दिन उसको परिणाम भुगतना पड़ेगा ये सभी धर्म कहते हैं और हमने देखा भी है भलाई का सिला भलाई मिलता है और किसी से बुरा करने का नतीजा भी बुरा ही मिलता है । 

धार्मिक कथा इस तरह है : -
 
कोई अपना घोडा बेचने बाज़ार में जाता है , इक खरीदार घोड़ा देख कर कीमत पूछता है , बेचने वाला कहता है मुझे आज पैसों की बड़ी ज़रूरत है इसलिए सस्ते में बेच रहा हूं पांच सौ में अशर्फियां मोल है । खरीदार कहता है मुझे घोड़े की सवारी कर परखना पड़ेगा । परख कर वो कहता है कि आपका घोड़ा तो अधिक कीमत का है छह सौ अशर्फियां कीमत होनी चाहिए , बेचने वाला कहता है आपको उचित लगता है तो दे दो , तब खरीदार पूछता है आपको मालूम है इसकी कीमत क्या है । बेचने वाला कहता है घोड़ा तो आठ सौ कीमत का है लेकिन मुझे अपनी बेटी की शादी करनी है और मुझे पांच सौ की ज़रूरत अभी तुरंत है । खरीदार कहता है कि मैं आपका घोड़ा पूरी कीमत में आठ सौ चुका कर खरीदता हूं । तब बेचने वाला सवाल करता है कि मुझे इस बात का कारण बताएं कि जब आपको खुद मैं पांच सौ में बेचने को तैयार था फिर आपने महंगा क्यों खरीदा मुझसे । खरीदार बताता है कि मेरे धर्म में समझाया गया है कि कभी किसी की मज़बूरी मत खरीदना अन्यथा कभी कोई तुम्हारी मज़बूरी खरीदेगा बाद में । ये सबक पढ़ते सभी हैं समझते नहीं हैं अधिकांश लोग ।  
 
 



मार्च 18, 2025

POST : 1954 तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

 तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

इमाम बख़्श नासिख़ जी की ग़ज़ल है , शाहंशाह गुनगुनाते रहते हैं किसी ज्योतिष विशेषज्ञ ने पत्री देख उनके पूर्व जन्म की घटना बताई थी । आपकी प्रेमिका को तब किसी राजा ने छीन लिया था और आप वियोग में तड़प तड़प कर मर गए थे । शहंशाह को सपने में जो सुंदरी दिखाई देती है वही उनकी इस जन्म में पहली प्रेमिका है तलाश करोगे तो किसी दिन मिल ही जाएगी । शहनशाह ने चित्रकार से बिल्कुल वैसी तस्वीर बनवा ली और हमेशा सीने से लगाए रहते हैं । 
 
अभी इक किताब में पढ़ा है आपको आईने में खुद अपना अक्स दिखाई देता है और आपकी सोच में कोई खुद जैसा छाया रहता है । संत असली हमेशा पहले हुए बड़े संतों की छवि मन में लिए रहते थे , कहते हैं जिसका जो भी गुरु होता है आंखें बंद कर उस के दर्शन कर लेते हैं । लेकिन ये बात हम सभी की होती है लोग हमेशा उसी की चर्चा करते हैं जैसी सोच उनकी भीतरी अंर्तमन की होती है , जाकी रही भावना जैसी । ज़ालिम कभी किसी रहमदिल की बात नहीं करते उनको जिस जैसा बनना है उसी की चर्चा करते हैं , प्यासा पानी की भूखा रोटी की चिंता करता है जबकि बहुत अधिक खाने पीने वाला भीतर का सब उगलता है यानी उलटी करता है । आजकल ये विष-वमन रोग बहुत बढ़ता जा रहा है ।
 
शासक लोग कभी सामने अपनी वास्तविक शक़्ल को नहीं दिखलाते हैं बहुत कोशिश कर कितने तौर तरीके आज़माते हैं असलियत छुपाने और बनावट दिखाने की खातिर । लेकिन वो भजन है ना तोरा मन दर्पण कहलाये भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाये , मन से कोई बात छुपे ना मन के नयन हज़ार । मन की बात कोई सार्वजनिक नहीं करता जो लगता है करते हैं उनकी परेशानी और है , मन में झांकते हैं तो लगता है कोई पहले का शासक ख़्वाबों - ख़्यालों में छाया हुआ है । उसके बातें उसके कारनामे करते भी हैं साथ चाहते हैं लोग उन जैसा नहीं समझने लगें । मन का चोर क्या नहीं करवाता है कभी कभी तो खुद अपनी ही नज़र में ख़लनायक की छवि उभरती दिखाई देती है । 


जनाब कोई पच्चीस साल से सीने में इक तस्वीर लिए फिरते थे , धुंधली सी यादें जैसे कोई पिछले जन्म की बातें महसूस करता है आपको पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं हो तो नहीं समझोगे । करीब आधी उम्र तक पचास का होने से पहले कुछ नहीं करते थे मांग कर गुज़र बसर किया करते थे , सपने देखते थे इक दिन शाहंशाह बन कर शासन करने का । वही किरदार मन को भाता था जिसे दुनिया कभी याद करना नहीं चाहती लेकिन जो इतिहास से कभी भुलाया नहीं जा सकता है तानाशाह शासक हमेशा याद रहते हैं अच्छे न्याय करने वालों को लोग अक़्सर भुला देते हैं । उनकी चाहत है सदियों तक उनको इक मिसाल की तरह दुनिया याद करती रहे , बदनाम होंगे तो भी नाम तो होगा । नीरज जी भी कहते हैं ,  इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में , लगेगीं आपको सदियां हमें भुलाने में । न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर  , ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में । जनता भी कमाल करती है किस किस को ख़ुदा बना कर आखिर पछताती है , कोई शायर कहता है , तो इस तलाश का अंजाम भी वही निकला , मैं देवता जिसे समझा था आदमी निकला । मैं रफ़्ता रफ़्ता हुआ क़त्ल जिस के हाथों से ,   .................      वो क़ातिल मैं आप ही निकला । शायर कौन था , आधा शेर याद है पूरा क्या था याद नहीं है ।
 
बादशाहों की कितनी प्रेम कहानियां होती हैं कितनी निशानियां होती हैं , आधुनिक शासक भी चाहते हैं उनका नाम अमर रहे , आये दिन कहीं कुछ करते बनवाते हैं शिलालेख पर अपना नाम अंकित करवाते हैं ।  इधर तो पुराने शिलालेख हटवा तुड़वा खुद उसे नाम बदल अपने नाम करते हैं । कुछ बनाने में ज़माना लगता है मिटाने में क्षण भर बहुत है आधुनिक युग का विकास यही है तोड़ना तोड़कर कुछ का कुछ बनाना । शायद खुद किसी जन्म में जो जो बनाया उसे ढहाकर आधुनिक नाम से फिर से बनाना जैसा कोई मिट्टी से खिलौने बनाता है तोड़ता रहता है लुत्फ़ उठाता है । कोई बादशाह अपनी रानी को छोड़ किसी पिछले जन्म की माशूका की तस्वीर बनवाता है किसी चित्रकार से अपनी मन में बसी हुई महबूबा की छवि हूबहू और दुनिया भर में उसी को ढूंढता फिरता है , मिलती ही नहीं उसकी सूरत से किसी की भी सूरत ।  पिछले जन्म की प्रेमिका कहां हो । 

Know how your deeds were in the last life जानिए, पिछले जन्‍म में कैसे थे  आपके कर्म

मार्च 17, 2025

POST : 1953 कितने क़ातिल मसीहा कहलाते हैं ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया

कितने क़ातिल मसीहा कहलाते हैं ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया 

                 {  कलयुगी कथा का अगला अध्याय पढ़ते हैं  }

देश आज़ाद हुआ जनता की तकदीर कभी नहीं बदली , ज़ुल्म वही ज़ालिम बदलते रहते हैं अब ज़ालिम का तौर तरीका इतनी जल्दी बदलता है कि समझ नहीं आता ये इंसाफ़ करते हैं या सच को सूली पर चढ़ाया जाता है ।  सरकार प्रशासन न्यायपालिका सुरक्षा तंत्र बनाया गया सामन्य लोगों को अधिकार और समानता प्रदान देने को नाम दिया गया जनसेवा समाज कल्याण इत्यादि । जनता को प्रतिनिधि चुनने का अवसर दिया गया वोट देने का लेकिन देश की राजनीति ने चुनावी प्रक्रिया को किसी शतरंज की बिसात पर मोहरों का खेल बनाकर सत्ता को उस में मनमानी करने खिलवाड़ करने की खुली छूट दी गई । जब भी जहां लगा वास्तविक लोकतंत्र राजनेताओं की आकांक्षाओं में अड़चन पैदा कर सकता है लोकतंत्र को ही कुचल कर अपाहिज बना दिया गया । लोकतंत्र का शोर सुनाई देता है वास्तविक लोकतांत्रिक प्रणाली व्यवस्था कहीं दिखाई नहीं देती है । गांव से शहर शहर से महानगर महानगर से राजधानी तक जनता को उलझाने को इतने दफ़्तर विभाग बना दिए गए लेकिन एक भी ऐसा नहीं जो सही कर्तव्य निभाता बल्कि जनता की परेशानी दुःख दर्द पर मरहम लगाने की जगह नमक छिड़कने का काम कर्मचारी अधिकारी करते रहते हैं । सामन्य व्यक्ति पर कानून कड़ाई से लागू करने वाले सरकारी तंत्र विभाग अधिकारी कर्मचारी पर फ़र्ज़ नहीं निभाने पर कोई सज़ा क्या कोई सवाल तक नहीं पूछता है । कर्तव्य को भूलकर सरकारी प्रशासनिक व्यवस्था जनता को न्याय मिलने में बाधाएं उतपन्न करने लगी ताकि उसको रिश्वत मिल सके , बिना घूस या सिफारिश कोई भी उचित काम भी नहीं करता है , जेब भरने पर सभी कार्य करते हैं अनुचित भी उचित भी । 

कभी लोग शिकायती पत्र लिखते थे सत्ताधारी उच्च पद पर बैठे शासक को तब कुछ असर होता था कोई शर्मसार होकर अपनी गलती सुधरता था । बाद में ये सामन्य बात लगने लगी और इतनी बेहयाई करने लगे कि ऊपर विभाग से बार बार पत्राचार से कुछ करने का कोई जवाब ही नहीं देते निचले अधिकारी कर्मचारी । क्योंकि सरकारी कर्मचारी पर काम नहीं करने या जो करना है उसे नहीं करने पर कुछ भी करवाई नहीं की जा सकती इसलिए जनसेवा को सभी ने मनमानी करने का हक समझ लिया । सत्ताधारी राजनेताओं को भी देश समाज जनता की नहीं सिर्फ अपनी कुर्सी और अपने लिए शान ओ शौकत की ज़रूरत महत्वपूर्ण लगने लगी है ।  धीरे धीरे हालत इतनी खराब हो गई है कि अपराधी संसद विधायक बन कर सत्ता को अपहरण कर पूरी व्यवस्था को ऐसा गठजोड़ बना लिया है जिस में गुंडे बाहुबली भ्र्ष्ट राजनेता और सरकारी प्रशासन मिलकर देश समाज को बर्बाद करने लूटने लगे हुए हैं । 140 करोड़ जनता का बड़ा भाग बुनियादी सुविधाओं से वंचित है मगर शासक लोग खुद अपने पर बेतहाशा धन खर्च कर आज़ादी और न्यायव्यवस्था का मज़ाक किये हुए हैं । शायद उनको संविधान की शपथ भूल गई है और ईमानदारी नैतिकता को ताक पर रख छोड़ा है । 
 
समय के साथ जनता की परेशानियां ख़त्म नहीं हुईं बढ़ती जा रही हैं , ऐसे में पुरानी खुले दरबार या अन्य स्थानीय कष्ट निवारण की सभाओं की जगह आधुनिक पोर्टल साइट्स पर शिकायत दर्ज करने को विकल्प बनाया गया है ।  लेकिन ये सबसे बड़ा धोखा अथवा छल साबित हुआ है क्योंकि उन पर दर्ज शिकायत पर कोई गौर ही नहीं किया जाता और किसी दफ़्तर में बैठा कोई व्यक्ति टिप्पणी कर शिकायत का निपटारा किया लिख देता है बिना ठीक से जाने समझे । जो टिप्पणी की जाती है वास्तव में कोई इंसाफ़ नहीं ज़ख़्म पर नमक छिड़कने जैसा होता है । सरकार के तमाम झूठे आंकड़ों विज्ञापनों की तरह इस सब पर कितना धन व्यर्थ बर्बाद किया जाता है नतीजा कुछ भी नहीं । इस तरह से पोर्टल पर संख्या घटाने से जनता की समस्याएं कभी हल नहीं हो सकती हैं , जबकि पोर्टल पर नियुक्त नोडल अधिकारी को विवेक से समस्या समझनी ही नहीं होती है जिस से लोग सालों से पीड़ित है नोडल अधिकारी एक दिन बाद ही उस पर निर्णय सुनाता है कि ये शिकायत विचारणीय नहीं है । 

ऐसा क्यों है आखिर में समझना होगा कि हमारे प्रशासन पुलिस न्याय व्यवस्था सरकारी कार्यशैली में रत्ती भर भी मानवीय संवेदना बची नहीं है । सरकार अपनी नाकामी को ढकने को बताती है कि कितने करोड़ लोगों को क्या क्या दिया जाता है । जबकि सोचना चाहिए था कि आज़ादी के 77 साल बाद इतने लोग गरीब भूखे बदहाल क्यों हैं क्या इसका कारण वही लोग नहीं जिनको बहुत कुछ करना चाहिए था लेकिन कुछ भी नहीं किया सिवा झूठे आश्वासन आंकड़े और खोखले वादों के । विडंबना की बात है कि ऐसे तमाम क़ातिल मसीहा कहलाते हैं । कथा अनंत है विराम देते हुए कुछ दोहे सुनाते हैं । 

देश के वर्तमान हालात पर वक़्त के दोहे - डॉ  लोक सेतिया 

नतमस्तक हो मांगता मालिक उस से भीख
शासक बन कर दे रहा सेवक देखो सीख ।

मचा हुआ है हर तरफ लोकतंत्र का शोर
कोतवाल करबद्ध है डांट रहा अब चोर ।

तड़प रहे हैं देश के जिस से सारे लोग
लगा प्रशासन को यहाँ भ्रष्टाचारी रोग ।

दुहराते इतिहास की वही पुरानी भूल
खाना चाहें आम और बोते रहे बबूल ।

झूठ यहाँ अनमोल है सच का ना  व्योपार
सोना बन बिकता यहाँ पीतल बीच बाज़ार ।

नेता आज़माते अब गठबंधन का योग
देखो मंत्री बन गए कैसे कैसे लोग ।

चमत्कार का आजकल अदभुत  है आधार
देखी हांडी काठ की चढ़ती बारम्बार ।

आगे कितना बढ़ गया अब देखो इन्सान
दो पैसे में बेचता  यह अपना ईमान।  
 
अंधे - बहरे शहर में ये बातें बेमोल 
कौन सुनेगा अब यहां तनहा तेरे बोल ।  
 
 Lafz - ख़ंजर से करो बात न तलवार से पूछो मैं क़त्ल हुआ... | Facebook



मार्च 15, 2025

POST : 1952 लीद करना , बांटना , तोलना ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया

  लीद करना , बांटना , तोलना ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया 

आधुनिक समय की सरकार सत्ताधारी राजनेता प्रशासनिक अधिकारी वर्ग से न्याय व्यवस्था तथाकथित समाजिक संस्थाएं  क्या कर रही हैं इस पर शोध किया जाये तो संक्षेप में नतीजा यही निकलेगा । आपको कोई भी मंत्री विधायक संसद आमने सामने नहीं मिलते हैं प्रधानमंत्री से सभी मुख्यमंत्री तक ने कुछ ऐप्स और साइट्स बनवा रखी हैं जनता को झूठा दिलासा देने को । इंसान की भावनाओं की दुःख दर्द की समझ जब शासक वर्ग अधिकारी वर्ग को नहीं होती तो ये मशीनी व्यवस्था क्या जाने ज़िंदगी और मौत कोई खिलौने नहीं वास्तविकता हैं । जनता इस तथाकथित लोकतांत्रिक व्यस्था से न्याय मांगते मांगते मर जाती है , इनसे मिलती है सिर्फ और सिर्फ लीद ।  मुझे जनहित और भ्र्ष्टाचारी व्यवस्था पर लिखते पचास वर्ष बीत गए और जाने कब मौत आकर मुझे इस सब से छुटकारा दिलवाएगी , मुझे मरने का खौफ़ नहीं जयप्रकाश नारायण जी की राह पर चलने वाला उनका प्रशंसक हूं मैं । आधुनिक युग की सरकारें कहती और प्रचार प्रसार विज्ञापन करती हैं व्यवस्था को ठीक करने का लेकिन जनता को इनसे हमेशा लीद ही मिलती है खैरात की तरह । बस और कुछ भी नहीं कहना इतना बहुत है जिनको समझ आये मतलब क्या है । आगे आपको कुछ कहनियां बतानी हैं लीद को लेकर । 
 
 
एक बार इक राजा अपने घोड़ों के अस्तबल में खड़ा होता है , इक साधु उधर से गुज़रता है और भिक्षा मांगता है , राजा वहां से ज़मीन से लीद उठाता है और साधु के पात्र में डाल देता है । साधु कहता है आपको दान दी हुई लीद हज़ारों लाखों गुणा मिलेगी खाने को , ऐसा बोल कर साधु नगर से बाहर चला जाता है कुटिया में वापस । उसे रोज़ केवल किसी से एक बार ही भिक्षा मांगनी होती है जो भी मिलता है उसी से गुज़ारा चलाता है । राजा अपनी पत्नी को बताता है उसने ऐसा किया तो पत्नी समझाती है अपने राजगुरु से इस विषय की चर्चा अकेले बैठ करनी उचित होगी । राजगुरु सुनकर परेशान हो जाते हैं और तुरंत जाकर उस साधु से क्षमा याचना करने को कहते हैं ।  राजा अपने रथ पर सवार होकर साधु की कुटिया पहुंचता है , क्या देखता है कि बाहर लीद ही लीद का ढेर लगा होता है किसी पहाड़ जैसा । राजा माफ़ करने की याचना करता है और सवाल करता है इतनी लीद क्यों एकत्र हुई है आपकी कुटिया के सामने । साधु बताता है कि जब भी कोई दान देता है तो दान दी हुई चीज़ जो भी इसी तरह बढ़ती रहती है और दान देने वाले को मिलती है लाखों गुणा बढ़कर । आपको ये सारी लीद खानी पड़ेगी किसी दिन ये विधाता का नियम है इस को बदला नहीं जा सकता ।  विनती करने पर साधु उपाय बताता है कि अगर लोग आपको भला बुरा कह कर आपकी बुराई करें तो आपके बदले ये लीद उनको मिलेगी और ये ढेर कम होता जाएगा । 

भ्र्ष्टाचार भी लीद खाना होता है और समाज में अनगिनत लोग इसी तरह अनुचित ढंग से धन एकत्र कर गंदगी अपने भीतर भरते हैं । शाही लिबास और बनावट से खुद को सजाया जा सकता है लेकिन भीतरी सोच नहीं बदलती है । किसी शासक का करीबी सरकारी कार्यों में भ्र्ष्टाचार किया करता था , राजा उसको दंडित करना तो क्या हटा भी नहीं सकता था कुछ गोपनीय सूचनाओं का सार्वजनिक होने का खतरा था । जब राजा को पता चला लोग उस के कारण शासन की बदनामी करते हैं तो उसका तबादला घोड़ों की देखभाल करने को अस्तबल का कार्यभार सौंप दिया था । राजा ने समझा जितना भी घूसखोर हो उस जगह नहीं मिलेगा कोई भी अवसर । लेकिन ऐसे लोग तरीके खोज लिया करते हैं जो उस ने भी ढूंढ लिया । सुबह गोदाम से घोड़ों को चने तराज़ू पर तोलकर देखभाल करने वाले कर्मचारी को दिए , शाम को वहां की लीद उठाकर तराज़ू पर तोलने बैठा । कर्मचारी हैरान हो गया तो उस से कहा कि जितने चने खिलाने को आपको दिए थे लीद का वज़न उस से बहुत कम है , तुम चने घोड़ों को नहीं खिलाते खुद घर ले जाते हो , ऐसे उसने डराकर कर्मचारी को कुछ हिस्सा खुद खाने कुछ उसको देने पर सहमत कर लिया था । आधुनिक व्यवस्था बिल्कुल उसी तर्ज़ पर चल कर उस जगह भी संभावना खोज लेती है जहां लगता है कि कुछ नहीं रिश्वतखोरी को । इस कलयुगी कथा का ये अध्याय यहीं ख़त्म करते हैं । 

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मार्च 13, 2025

POST : 1951 बड़े बेदर्द होते हैं शासक ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         बड़े बेदर्द होते हैं शासक ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

सच बताना चाहिए , कितना बड़ा फ़रेब लोगों से किया जाता है कि लोकतंत्र बड़ी शानदार व्यवस्था है । सही में ऐसा होता तो अभी तलक आज़ाद होने के 77 साल बाद जनता की हालत भिखारी जैसी नहीं होती न ही जिसे जनता ने सेवक चुना वही शासक बन कर जब जैसे चाहे दो प्रकार से नियम कानून बनाते जनता के लिए सज़ा देने वाले और सत्ता और प्रशासन सरकार के लिए मनचाहे वरदान पाने वाले । संविधान की शपथ उठाते हैं जो उनको संविधान की भावना का कोई ज्ञान नहीं होता है , और उस शपथ को सत्ता पाते ही सभी भूल जाते हैं । मैं शपथ उठाता हूं सभी के साथ न्याय करने की , जबकि आज देखते हैं तो वास्तविकता विपरीत नज़र आती है , अदालतों से सरकारी दफ्तरों तक लोग बेबस होकर भटकते रहते हैं न्याय की जगह अपमान और सज़ाएं मिलती हैं । मगर शासक वर्ग खुद अपने लिए जब जैसे चाहे नियम कानून बदल कर सेवक नहीं शासक की तरह आचरण करते हैं , मंत्री से अधिकारी तक कहते हैं दरबार लगाते हैं । अजीब तमाशा है जो असली मालिक है जनता वही याचक बन कर अपने अधिकारों की भीख मांगते हैं । जैसे कोई नकाब लगा कर चेहरा छुपाए रहता हो ठीक उसी तरह सत्ताधारी लोग घोषणा करते हैं जनकल्याण की लेकिन वास्तव में सिर्फ खुद अपना ही भला चाहते हैं । हमदर्द होने का दावा करने वाले कितने बेदर्द होते हैं वही जानते हैं जिन पर गुज़रती है । निर्वाचित होते ही हर जनप्रतिनिधि अचानक बड़ी बड़ी गाड़ियों और शान ओ शौकत से रहने लगता है ये करिश्मा कभी साधरण जनता पर नहीं होता है । लेकिन हम खामोश रहते हैं क्योंकि हमने खुद सच बोलने का हक छोड़ दिया है झूठे लोगों की जय-जयकार कर उनको चुनकर । 
 
कहते हैं पुराने राजा ज़ालिम थे , वो भी अत्याचारी थे जिन्होंने हमको अपना गुलाम बनाए रखा , लेकिन क्या आज के शासक निरंकुश नहीं हैं । आज खुद हमारे बनाये बुत खुद को खुदा समझते हैं और हम लोगों को अपमानित करते हैं इश्तिहार लगवा कर खैरात बांटते हैं । कौन दाता है कौन भिखारी है विडंबना है जिस जनता ने सर पर बिठाया उस पर मनमाने ढंग से कितने ही कर लगाकर खज़ाना भरते हैं फिर उसी से नाम भर को देने को अपनी महानता घोषित करते हैं । कुछ खास लोगों के लिए कानून हाथ जोड़ खड़ा रहता है जो धनवान सत्ता से करीबी रिश्ता रखते हैं अन्य सभी से कानून कोड़े बरसाने का कार्य करता है । लोकतंत्र क्या यही होता है कि कोई शासक है जो सिर्फ भाषण देता है या शानदार दफ़्तर में बैठ गरीबी और देश की जनता की समस्याओं पर बहस करता है कभी समस्याओं का समाधान नहीं करता । अभी तक सभी को बुनियादी सुविधाएं जीने की हासिल नहीं और सरकार कहती है देश आगे बढ़ रहा है जबकि हालत दिन पर दिन और भी खराब होती जा रही है । देश जलता है कोई नीरो बंसी बजाता हो ये कभी हुआ होगा आजकल कितने ऐसे लोग हैं जो सत्ता पर बैठ रोज़ कोई जश्न मनाते हैं कोई आडंबर कोई तमाशा अपने दिल बहलाने को आयोजित करते हैं । 
 
होली है बुरा न मानो , इक दिन की बात नहीं है इस देश में शासक वर्ग हर दिन जनता से खिलवाड़ करते हैं और जनता बेचारी कुछ कह भी नहीं सकती । जैसे कोई आशिक़ अथवा पति किसी महिला से गलत व्यवहार करने को अपने प्यार करने का ढंग बताता है हर सरकार वही करती है । पांच साल की बात नहीं है हर बार वही सब दोहराया जाता है । होली की पिचकारी सत्ता के पास रहती है और होलिका दहन में आग में कोई बुराई नहीं जलती उसकी लपटें जनता को जलाने को व्याकुल हैं । जनता के लिए दशहरा हो चाहे होली हो बदलता कुछ भी नहीं है ढोंगी लोग अलग अलग रूप बदल छलते हैं , बहरूपिया शासक बन गए हैं जो कभी घर घर जाकर हंसाते थे अब रुलाने लगे हैं ।  
 

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मार्च 09, 2025

POST : 1950 गहरी नींद में सोया हुआ शहर ( खामोशियां ) डॉ लोक सेतिया

     गहरी नींद में सोया हुआ शहर  ( खामोशियां  ) डॉ लोक सेतिया

 पत्थरों के घर पत्थर वाले ही ख़ुदा हैं आदमी भी पत्थर दिल हैं यहां मौसम कभी उस तरह से नहीं बदलता है जिस तरह से लोग जल्दी - जल्दी किरदार बदलते हैं । सच कहा जाए तो अभी तक इस शहर की कोई ख़ास अलग अपनी पहचान नहीं बन सकी है , ज़मीन ही से जीवन मिलता है लेकिन शायद धीरे धीरे उस से कट रहें हैं लोग अर्थात अपनी जड़ों से रिश्ता कमज़ोर होता गया है । कोई शायद ही ऐसा दिखाई दिया है जिस को कहा जा सके की शहर का नाम रौशन किया है । लगता है इतनी उपजाऊ धरती पर इक बंजर समाज रहता है , सिर्फ पूर्वजों की कमाई ज़मीन जायदाद और अर्जित शोहरत पर गर्व करना इतराना उस को और ऊंचाई पर ले जाने को कभी कुछ भी नहीं करना अधिकांश की आदत है । खुद अपने ही मुंह से अपनी बढ़ाई करना इस शहर के बड़े धनवान लोगों की रिवायत बन चुकी है , शहर गांव समाज को कुछ योगदान देना कोई नहीं चाहता सभी झूठी शोहरत पाने को व्याकुल रहते हैं । मुखौटे पहने रहते हैं ख़िज़ाब लगाए रहते हैं हंसते हुए कितने दुःख दर्द छिपाए रहते हैं । 
 
  चारागर बीमार हैं अध्यापक रहते लाचार हैं , जिधर भी देखते हैं इश्तिहार ही इश्तिहार हैं । शिक्षा स्वास्थ्य रोज़गार उद्योग की दशा इस शहर में आज भी पिछड़ी हुई है , कुछ भी आवश्यकता होने पर आपको बाहर जाना पड़ता है । कोई भी संस्था नहीं जिसे सभी की भलाई की चिंता हो , अपने वर्ग जाति  आदि को लेकर कुछ संगठन हैं जिनका सिमित दायरा रहता है । इतने सालों में यहां की राजनीति कुनबे कुटंब से बाहर नहीं निकली है और खेद जनक विषय है कि बहुत लोग चाटुकारिता अथवा सत्ताधारी राजनीतिक दलों को पैसा देकर ही बदले में कोई पद हासिल करते रहे हैं । साहित्य को लेकर शहर उदासीन है और जो लिखते हैं वो भी किसी आवरण में छुपे खुद को बंधक बना सुरक्षित समझते हैं इसलिए कोई उच्च कोटि की रचनात्मकता नहीं सामने आई है । पढ़ने को कोई सार्वजनिक पुस्तकालय नहीं है कुछ हैं जो शिक्षा संस्थानों से जुड़े हैं जिन में अधिकांश छात्र ही जा पाते हैं । सामाजिक बुराईयों से अपने अधिकारों तक इस शहर में इक ख़ामोशी है । तथकथित शरीफ़ अमीर लोग अपने घर खेत में गरीब मज़दूर को बंधुआ समझ जब चाहे जैसा अनुचित आचरण करते हैं लेकिन धार्मिक संस्थाओं के सर्वेसर्वा बन सभ्य कहलाते हैं । किसी को रुलाते उनको कभी खेद नहीं होता ज़ुल्म को इंसाफ़ समझते हैं । 

पत्रकारिता की बात की जाए तो तालाब का ठहरा हुआ पानी जैसी है कोई गतिशीलता नहीं है , गुटबाज़ी तो सभी जगह होती है लेकिन यहां सभी अख़बार सरकारी अधिकारियों राजनेताओं से मधुर संबंध रखते हैं और उनकी भाषा में खबरें लिखते हैं । कभी कभी कोई सामाजिक समस्या की चर्चा होती है जब कोई पत्रकार उस से प्रभावित होता हो , अन्यथा जनता की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं होता है । निडर निष्पक्ष सच की पत्रकारिता कभी हुआ करती थी जो कब कहां खो गई कोई नहीं जानता । सत्ताधारी नेताओं और जब जो भी प्रशासनिक अधिकारी होते हैं उनका गुणगान महिमामंडन करते हैं सभी स्थानीय पत्रकार । अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष की सीमा प्रशासन सरकार को पत्र भेजने तक रहती है । धर्म को लेकर विशेष अवसर पर काफी आयोजन होते रहते हैं और अनगिनत गुरु शिष्य की परंपराएं हैं लेकिन कोई भी धर्म उपदेशक कभी आचरण में सत्य ईमानदारी को कुछ नहीं कहता है सभी को भजन कीर्तन दान देने अपने मंदिर आश्रम का विस्तार करने की आवश्यकता रहती है । गरीब दीन हीन की सहायता कोई नहीं करता सभी को अपने नाम किसी जगह लिखवाना होता है दान देने के बदले में । 

अमीर रईस लोगों का शहर होने पर भी साधरण नगरवासियों की परेशानियों समस्याओं में कोई सामने नहीं दिखाई देता है । इंसानियत की बात इस शहर में कोई नहीं करता है हैवानियत भी शर्मिंदा होगी इधर कभी आकर देखे तो । आस्तिक होने का दम भरते हैं मगर भगवान से नहीं डरते , ऊपरवाला देखता है कभी इंसाफ़ करेगा कौन जाने ये सच है या ढाल है मनमानी करने वालों की । शहर की विशेषता है कि शाम ढलते ही अधिकांश लोग शराब और खाने पीने के शौक़ीन हैं , क़र्ज़ उठा कर भी मौज मस्ती करने वाले धनवान लोग देखे हैं कंगाल होते हुए भी और कंगाली से मालामाल होते हुए भी किसी राजनीति की शतरंज की बाज़ी से । समझदार चतुर लोग तमाम मिलते हैं लेकिन ढूंढने पर कोई आदर्शवादी कथनी करनी में एक जैसा शख़्स नहीं मिलता है । बौद्धिक दरिद्रता की मिसाल कहला सकता है मेरा ये शानदार शहर यहां सामाजिक संस्थाएं बनती हैं सिर्फ खुद कुछ लोगों की भलाई करने को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल होने को अभिशप्त हैं । 
 
 याद आती हैं  कुछ बातें अक्सर यहां  , ऐसे कितने संगठन बनाये जाते रहे कोई मकसद को लेकर लेकिन वो भटक गए अपनी राह से और कुछ लोग उनका उपयोग अपने स्वार्थ पूरे करने को करने लग गए । शायद सभी जगह ऐसा होने लगा है कि लोग समाज को कुछ देना नहीं चाहते अपितु पाना चाहते हैं समाज सेवा के नाम पर , मेरा शहर भी ऐसा ही है ।  वास्तव में लगता है मेरा शहर बहुत गहरी नींद में सोया हुआ है , कोई हलचल कभी नहीं होती इस में बेशक दुनिया में सौ तूफ़ान आते रहें , इक वीरानगी है जिसे लोग शांति समझते हैं । ये
किसी एक शहर की नहीं हर शहर की यही कहानी है प्यास ही प्यास है भागते रहते हैं रेगिस्तान में चमकती हुई रेत है समझते हैं जिसको पानी है ।