नवंबर 26, 2025

POST : 2041 सच कहने पे जाँ मत वारो ( सच मत बोलना ) डॉ लोक सेतिया

      सच कहने पे जाँ मत वारो ( सच मत बोलना   ) डॉ लोक सेतिया  

            ( ये पोस्ट सच की खातिर जान देने वाले सत्येंद्र दुबे जी की याद में लिखी है  ) 

कभी हुआ करते थे ऐसे ऊंचे आदर्शवादी लोग जो सच पर खड़े रहते थे और कभी पीछे नहीं हटते थे बेशक जान ही चली जाए । समाज में आजकल कोई सच बोलकर आफत मोल नहीं लेता जब झूठ और पाप की राह पर चलने से आपकी राहों पर फूल बिछे हों , शानदार सभाओं में मंच सजाया जाता हो खज़ाना लुटाया जाता हो , स्वागत को लाल कालीन बिछाया जाता हो । हम कब से पुराने उसूलों को छोड़ चुके हैं और अब सिर्फ आडंबर करते हैं महान आदर्शवादी बातों को भाषण में बोल कर रत्ती भर संकोच नहीं होता है । दुष्यंत कुमार के शब्दों में इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं , आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार ।   अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार , भ्र्ष्टाचार की महिमा है अपार । 

         साबिर दत्त जी की ग़ज़ल से शुरू करते हैं : - 

 
सच्ची बात कही थी मैंने , लोगों ने सूली पे चढ़ाया 
मुझको ज़हर का जाम पिलाया , फिर भी उनको चैन ना आया 
सच्ची बात कही थी मैंने , सच्ची बात कही थी मैंने ।
 
ले के जहाँ भी वक़्त गया है , ज़ुल्म मिला है ज़ुल्म सहा है 
सच का ये इनाम मिला है , सच्ची बात कही थी मैंने । 
 
सब से बेहतर कभी ना बनना , जग के रहबर कभी ना बनना 
पीर पयम्बर कभी ना बनना , सच्ची बात कही थी मैंने । 
 
चुप रह कर ही वक़्त गुज़ारो , सच कहने पे जाँ मत वारो 
कुछ तो सीखो मुझसे यारो , सच्ची बात कही थी मैंने ।   
 
अब कोई भी कुर्बान नहीं होता है सच पर , सब झूठ बोलकर  अपनी ज़िंदगी को शानदार बनाते हैं , भ्र्ष्टाचार की बहती गंगा में डुबकी लगाते हैं खुद भी खाते हैं ऊपर से नीचे तक मिल बांटकर खाते हैं । इतना बढ़ गया है सरकारी विभागों में लूट का बाज़ार कि होने लगी है रिश्वत पर आर या पार , ख़ुदकुशी करने का पढ़ लिया समाचार । खुद सत्ताधारी राजनेता ने ये बताया है कि पुलिस विभाग में बड़े अधिकारी से छोटे अधिकारी तक ख़ुदकुशी करने का कारण भ्रष्टाचार है । जानते हैं अब मुख्यमंत्री कोई और है लेकिन खुद उनकी दल की सरकार है जिस में भ्र्ष्टाचार अब अपराध नहीं शिष्टाचार है ।  खुद सरकार के मुखिया जिस शहर में जाते हैं लोग उनको मिलते हैं बताते हैं जिस झील बनाने पर करोड़ों रूपये खर्च हुआ उसकी हालत देख सकते हैं जांच करने को अधिकारी आते हैं सच और झूठ आमने सामने टकराते हैं । ये सिर्फ इक मिसाल है वास्विकता तो ये है कि हर योजना इक गोलमाल है सत्ताधारी नेता से तमाम विभाग वाले होते जाते मालामाल हैं देश की मत पूछो खज़ाना लुट चुका हुआ कंगाल है । 
 
अब कोई भी सच्चाई की ईमानदारी की बात नहीं करता है , सच की खातिर कोई नहीं मरता है । हमारे देश में धर्म का शोर बहुत है सभी शासक प्रशासक मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा गिरजाघर जाते हैं मगर जनता को छलते हैं झूठ बोलने से नहीं कतराते हैं किसी भगवान से बिल्कुल नहीं डरते मनमानी करते हैं मौज मनाते हैं । बड़े बड़े पदों से संवैधानिक संस्थाओं पर नियुक्त अफ़्सर शासक राजनेता के पांव दबाते हैं हाथ जोड़ सर को झुका जो हुक्म मेरे आका कहकर उनकी खातिर आसान राहें बनाकर बदले में मनचाहा आशिर्वाद पाते हैं । कभी बाद में वही अधिकारी खुद कितने जूते किस राजनेता से खाये थे गिनती तक बताते हैं । साधरण लोग जिन बड़े अधिकारियों से बात करते घबराते हैं बिना कोई अपराध उनसे डांट से लाठी डंडे तक खाते हैं वो अधिकारी अपनी गरिमा को शासक के दरबार में खो बैठते हैं ख़ामोश रहकर उनका हौंसला बढ़ाते हैं ।  शासक दल में शामिल संगीन अपराध में आरोपी मंत्री बनकर ग्रह मंत्रालय पाकर कानून को अपना रखवाला बनाते हैं । 
 
लोग भी भूल चुके हैं वो बस इक घटना ही थी जब इक बड़े अधिकारी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जी को इक गोपनीय पत्र लिख कर भ्र्ष्टाचार को उजागर किया है और 27 नवंबर 2003 को बिहार में क़त्ल कर दिया गया था अपने तीस साल की उम्र में जन्म दिन पर 27 नवंबर 1973 के दिन । अब शायद कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि देश में कोई अधिकारी या कोई राजनेता वास्तव में भ्र्ष्टाचार रुपी दैत्य का अंत करने भी चाहता है । अब तो सभी की रगों में यही बहता है कोई गुरु नानक नहीं है जो उनकी लूट की कमाई दौलत की रोटी को निचोड़ सके जिस में करोड़ों गरीबों का लहू बहता है । नेक कमाई मेहनत की हक की कमाई नहीं चाहता कोई भी सभी को पैसा चाहिए ऐशो आराम चाहिए मगर बिना किसी काम चाहिए । देश में लोग डरे सहमे हैं सच बोलने का अर्थ ज़िंदगी से हाथ धोना है सत्ताधारी राजनेताओं प्रशासन और धनवान लोगों के लिए लोकतंत्र इक खिलौना है , जनता को रोते रोते हंसना हैं या फिर झूठी नकली हंसी हंसते हंसते रोना है ।  लेकिन ऐसा नहीं है कि भ्र्ष्टाचार की चर्चा ही नहीं होती है सभी विभाग कभी कभी किसी दिन शपथ उठाते हैं लेकिन किस की कसम कौन जाने याद नहीं रखते भूल जाते हैं । अंत में इक ग़ज़ल पुरानी है मेरी  किताब      ' फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी ' में शामिल है पढ़ते हैं । 
 
 

बहस भ्र्ष्टाचार पर वो कर रहे थे ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 

बहस भ्रष्टाचार पर वो कर रहे थे
जो दयानतदार थे वो डर रहे थे ।

बाढ़ पर काबू पे थी अब वारताएं
डूब कर जब लोग उस में मर रहे थे ।

पी रहे हैं अब ज़रा थक कर जो दिन भर
मय पे पाबंदी की बातें कर रहे थे ।

खुद ही बन बैठे वो अपने जांचकर्ता
रिश्वतें लेकर जो जेबें भर रहे थे ।

वो सभाएं शोक की करते हैं ,जो कल
कातिलों से मिल के साज़िश कर रहे थे ।

भाईचारे का मिला इनाम उनको
बीज नफरत के जो रोपित कर रहे थे ।  
 

 
 
 

नवंबर 23, 2025

POST : 2040 हम लेखक कुछ नहीं करते ( विचार - विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

    हम लेखक कुछ नहीं करते ( विचार - विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें , पूछते हैं करते क्यां है जनाब , बताते हैं कि साहित्य सृजन करते हैं तो कहते हैं ये तो आपका शौक है , लिखने को क्या है हम भी लिख सकते हैं , क्या करें इतने काम हैं कि फुर्सत ही नहीं मिलती । ऐसा हमेशा हुआ है समझते हैं कि कलम उठाई जो मन चाहा लिख दिया , कौन समझाए कि साहित्य ऐसा नहीं होता है जब तक आप आपने खुद से बाहर निकल समाज के दुःख सुःख परेशानियों से चिंतित हो कर वास्तविक संवेदनाओं को नहीं महसूस करते लिखना नहीं आता है । अधिकांश सोशल मीडिया पर ऐसा ही निर्रथक लिखा जाता है जिसका कोई प्रभाव समाज पर नहीं पड़ता है , सिर्फ़ नाम पहचान की खातिर लिखने को लिखना नहीं कहा जाता है । अधिकांश नहीं तमाम लोग समझते हैं जिस कार्य से अच्छी आमदनी नहीं हो उसको करना किस काम का और समझते हैं की हम लेखक कुछ भी नहीं करते हैं । यकीन करना ये कुछ भी नहीं करने जैसा काम बड़ा कठिन है लेकिन महत्वपूर्ण है , अगर धन दौलत की चाहत में दुनिया की इस अंधी दौड़ में शामिल होकर लोग लिखना छोड़ देते तो आज हमको कोई महान साहित्य कितने ग्रंथ कितनी कथाएं कितनी कहानियां कितनी शानदार रचनाएं पढ़ने को नहीं मिलती जो हमको मानवीयता का अर्थ समझाती हैं । साहित्य भविष्य की पीढ़ी के लिए लिखा जाता है जैसे कोई मशाल जलाई जाती है किसी घने अंधकार भरे सुनसान रास्ते में मुसाफ़िर को राह दिखलाने के लिए । वास्तविक लेखन आसान नहीं बेहद दुश्वार है कदम कदम डगर डगर लांघनी पड़ती कंटीली दीवार है । जर्जर नैया है टूटी हुई पतवार है कितने तूफ़ान हैं भंवर हैं बीच मझधार मांझी लाचार है लेकिन जाना उस पार है जिसका कोई पता ठिकाना नहीं सपनों का संसार है । 
 
लिखने वालों की खुद अपनी नई राह बनानी पड़ती है पुरानी सड़कों से उनका सफ़र नहीं चलता है , सबसे अलग अपनी मंज़िल की तलाश करते हैं । कोई साथी कोई कारवां नहीं हौंसलों से चलना है जीवन भर कहीं भी कोई ठहराव नहीं आना चाहिए साहित्य लेखन इक बहता दरिया है जिस को कभी किसी समंदर में नहीं मिलना अन्यथा अपना अस्तित्व ही मिट जाता है । मैंने जब से अपना डॉक्टर होने का रोगियों का उपचार करने का कार्य छोड़ दिया है जिस से कुछ आय हुआ करती थी 45 साल तक किसी तपस्या की तरह ही अपना कार्य किया है अब पूरा ध्यान लेखन कार्य पर है जिस से कुछ नाम दौलत मिलने की कोई चाहत भी नहीं है न ही चालीस साल लिखने के बाद कुछ मिला है सिवा आत्मसंतुष्टि के । कभी कभी लगता है लोगों को ये भी स्वीकार नहीं है कि कोई अपनी ख़ुशी से सामाजिक सरोकारों और समस्याओं पर समाज को जगाने की कोशिश भी करे । नासमझ समझते हैं तो भी कोई बात नहीं लेकिन जिनको उद्देश्य नहीं मालूम वो जब कहते हैं कि आप कुछ नहीं करते इसलिए ये कार्य करते हैं जबकि ऐसे लोग खुद कुछ भी किसी के लिए नहीं कर सकते जो भी करना है खुद अपनी ख़ातिर ही करते हैं । हमको जिस से कुछ भी भौतिक हासिल नहीं होता मानसिक सुःख और इक सुकून महसूस होता है , उस से बढ़कर भला क्या हो सकता है , कुछ भी और करते तो जितना भी कुछ मिलता कितना स्थाई होता , जबकि हमारा लेखन जो जैसा भी है दीर्घकालीन पूंजी की तरह है जिसे हमारे बाद भी दुनिया को पढ़ने को मिलेगा कुछ सार्थकता अवश्य है इस की , भले हम नहीं जानते कोई भी नहीं समझता आज तब भी । कुछ लोग महल सड़कें कितना कुछ निर्माण करते हैं लेकिन कुछ और लोग उन सभी को निर्माण करने को नक़्शा बनाते हैं योजना बनाते हैं , लेखक भी ऐसा ही करते हैं उनको इक खूबसूरत दुनिया की चाहत है परिकल्पना है उनकी और उसी को लेकर सतत प्रयास करते हैं । कुछ नहीं करते समझते हैं दुनिया वाले जबकि जो कर रहे हैं करना चाहते हैं वो अनमोल है , कोई उसकी कीमत नहीं लगा सकता है ।   
 
  
 

                              मुझे लिखना है  ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

 
कोई नहीं पास तो क्या
बाकी नहीं आस तो क्या ।

टूटा हर सपना तो क्या
कोई नहीं अपना तो क्या ।

धुंधली है तस्वीर तो क्या
रूठी है तकदीर तो क्या ।

छूट गये हैं मेले तो क्या
हम रह गये अकेले तो क्या ।

बिखरा हर अरमान तो क्या
नहीं मिला भगवान तो क्या ।

ऊँची हर इक दीवार तो क्या
नहीं किसी को प्यार तो क्या ।

हैं कठिन राहें तो क्या
दर्द भरी हैं आहें तो क्या ।

सीखा नहीं कारोबार तो क्या
दुनिया है इक बाज़ार तो क्या ।

जीवन इक संग्राम तो क्या
नहीं पल भर आराम तो क्या ।

मैं लिखूंगा नयी इक कविता
प्यार की  और विश्वास की ।

लिखनी है  कहानी मुझको
दोस्ती की और अपनेपन की ।

अब मुझे है जाना वहां
सब कुछ मिल सके जहां ।

बस खुशियाँ ही खुशियाँ हों 
खिलखिलाती मुस्कानें हों ।

फूल ही फूल खिले हों
हों हर तरफ बहारें ही बहारें ।

वो सब खुद लिखना है मुझे
नहीं लिखा जो मेरे नसीब में । 
 
 
 
 
  Do Not Think - Hindi Status : The Best Place For Hindi Quotes and status

नवंबर 20, 2025

POST : 2039 बिहारी दूल्हे की बरात ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     बिहारी दूल्हे की बरात  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

    अबकी बार क्या होगी चुनावी नैया पार महीनों तक संशय था बेकार , नतीजों की आई ऐसी बहार फिर मिल बैठे चार यार शादी होगी शानदार छप चुके हैं इश्तिहार । चुनाव में शानदार प्रदर्शन करना महत्वपूर्ण नहीं रहा , उम्मीद से ज़्यादा झोली भरी हुई है सभी साथ मिलकर लड़ कर विजयी हुए थे अब कौन बनेगा क्या बनेगा की उलझन खड़ी हुई है । जैसे किसी गरीब की लॉटरी निकलती है कुछ लोग जानते ही नहीं उनको जनता ने निर्वाचित किया क्या देख समझ कर । सभी को मालूम है जनता को अभी तक सही गलत की छोड़ो भले बुरे की भी पहचान नहीं है अन्यथा अधिकांश लोग ऐसे हैं जिनको देश समाज संविधान नियम कानून की रत्ती भर भी समझ नहीं हैं शराफ़त से उनका कभी कोई नाता नहीं रहा है बदमाशी उनकी पूंजी है जिस के दम पर जनता से समर्थन मांगते नहीं छीनते हैं । अब शासन की बागडोर हाथ आई है तो सभी गठबंधन के संगी साथी आमने सामने खड़े हैं हिस्से की भागीदारी के सवाल पर । जैसे एक हसीना सौ दीवाने इक शमां सौ परवाने जैसा हाल है आग़ाज़ तो अच्छा है अंजाम खुदा जाने । 
 
कुछ असंजस की दशा बनी हुई है , दिल सभी के धड़कते हैं राजा जी कहलाने को मगर जब तक राजकुमारी हाथ में जीत की वरमाला लिए खड़ी नहीं दिखाई देती चुप रहना पड़ता है । लोकतंत्र की रीति अजीब है सत्ता की राजकुमारी खुद नहीं जानती पहचानती किस को वरमाला पहनानी है । सभी ससुराल वाले अपने अपने दावे प्रतिदावे पेश कर अपनी शर्तों से बाराती बुलाना चाहते हैं । लेकिन तमाम अटकलें थम गईं जब इक तथ्य पर चिंतन किया गया कि कहीं ऐसा नहीं हो पटना की रानी का चयन बिहारी जनता को अनुचित प्रतीत हो और पूरी की पूरी जीती हुई बाज़ी गंवा बैठें ।  दुल्हन वही जो पिया मन भाए लेकिन कौन पिया है किस किस का जी ललचाये , अपने लगने पराये रूठे कोई कोई मनाये । फिर वही कहावत लगती है जारी एक बिहारी सब पर भारी , जिसको समझे थे मज़बूरी वही बन गया इक लाचारी उस के बिना नहीं खुलता कोई ताला कौन है जीजा कौन है साला । गठबंधन है बड़ा निराला सांवला सलौना लगता है मतवाला नहीं मंज़ूर कोई बाहर वाला , ज़िद पर अड़ा हुआ है दूल्हा उसकी शादी होगी निराली , प्रेम विवाह जैसा बंधन नहीं है ये है बड़े बज़ुर्गों द्वारा तय किया रिश्ता है लेकिन कुछ भी रिश्तों संबंधों में इक समान नहीं है । हर कोई चतुर सुजान है राजनीति में कोई भी नादान नहीं है । किसी की ज़मीन नहीं किसी का कोई आसमान नहीं है । आपस का कारोबार है इक हाथ लेने इक हाथ देने का नियम है किसी का किसी पर एहसान नहीं है ।   
 
जिनकी आरज़ू दिल की अधूरी रह गई उनको लगता है कभी न कभी बिल्ली की किस्मत से छींका टूटेगा तो उनकी चाहत पूरी हो सकती है । सभी संग संग हैं तब तक जब तक कोई बेहतर विकल्प नहीं दिखाई देता ।  
आपको क्या अभी भी समझ नहीं आया कि हमारे देश में लोकतंत्र संविधान जनता समाज की भलाई देश की सेवा सभी झूठी बातें हैं असलियत सत्ता की लूट का इक खेल है । शपथ उठा ली गई है शपथ का अर्थ कोई नहीं समझता है निभाना कौन चाहता है । सत्ता की भागीदारी का बंटवारा लगता है जैसे कोई ख़ज़ाना मिल गया है हर कोई हड़पना चाहता है । बाहर कुछ दिल में कुछ और सभी की हालत ऐसी है लगता है कभी भी कोई भी कुछ भी तमाशा कर सकता है राम राम करते किसी तरह बरात तैयार हुई घुड़चढ़ी हो गई और दुल्हन भी मिल जाएगी । लेकिन आने वाले समय में सत्ता रानी कितनी स्यानी क्या सभी को खुश कर पाएगी , या आधुनिक कन्या की तरह अपना रंग दिखलाएगी सभी को तिगनी का नाच नचाएगी । दिल्ली भी बिचौलिया जैसी है क्या देगी क्या पाएगी ये उलझन कभी क्या सुलझ पाएगी । अभी अठखेलियां देखनी हैं सभी दल वाले गुल खिलाने वाले हैं इक युग्ल गीत गाने वाले हैं ।  
 
         बागों में बहार है , कलियों पे निखार है , 
         ............. तुमको मुझसे प्यार है 
 
         छोड़ो हटो जाओ पकड़ो न बैंयां , 
        आऊं न मैं तेरी बातों में सैंयां 
 
         तुमने कहा है देखो देखो मुझको सैंयां , 
         बोलो तुमको इकरार है ..............
 
        तुमने कहा था मैं सौ दुःख सहूंगी , 
        छुप के पिया तेरे मन में रहूंगी ............
 
        अच्छा चलो छेड़ो आगे कहानी , 
        होती है क्या बोलो प्यार की दीवानी 
         
        बेचैन रहती है प्रेम दीवानी 
       बोलो क्या दिल बेकरार है जीना दुश्वार है  ...........
 

       आपने ये गीत सुना हुआ है लेकिन यहां नायक की आवाज़ सुनाई दे रही है मगर 

       नायिका की ना ना ना ना आखिर में हां की आवाज़ म्यूट है जिसने धड़कनें बढ़ा दी हैं ।  

 
     Arranged Marriage Vs Love Marriage,क्या आप भी मम्मी-पापा की मर्जी से करने  जा रहे हैं शादी, तो अरेंज मैरिज करने से पहले जान लें ये बातें - these arranged  marriage facts that

नवंबर 10, 2025

POST : 2038 अनजान राहों का मुसाफ़िर ( दरअसल ) डॉ लोक सेतिया

    अनजान राहों का मुसाफ़िर ( दरअसल ) डॉ लोक सेतिया   

 मुसाफ़िर को मालूम ही नहीं सफ़र कब शुरू हुआ और कब इसका अंत होगा , चलना है रुकना नहीं बहते दरिया की तरह उसको । हमसफ़र न सही कोई हमराही तो मिलता थोड़ी दूर तलक ही सही साथ चलते मगर ऐसा भी मुमकिन नहीं हो पाया कठिनाई में सभी दामन छुड़ाते रहे । जाने कितनी बार किसी न किसी से जान पहचान हुई रास्ते में इधर उधर की कई बातें जिनको मुलाकातें कहना कठिन है यूं ही साथ चलना ख़ामोशी को तोड़ने की तरह से , जैसे कोई मौसम की बात करता है । हमेशा सभी जब तक ज़रूरी लगता साथी बनकर चलते जब मनचाहा बीच राह में रास्ता ही नहीं इरादा भी बदल लेते मौसम बदलता लोग बदल जाते । कुछ लोग वापस ही लौट जाते थक कर अलविदा कहना कभी फिर किसी अगले मोड़ पर मिलना बार बार बिछुड़ना अजीब रिश्ता बना लेते थे । संबंधों के कितने नाम लिखवाये लिख कर फिर मिटाये उनको सफ़रनामा में शामिल करने नहीं करने पर यकीन नहीं शंका या संदेह है कि कोई ख़्वाब था कि हक़ीक़त थी । कहीं किसी मंज़िल की तलाश नहीं थी बस इक आरज़ू थी कुछ लोग अपने दोस्त या कुछ भी अन्य संबंध प्यार का अपनत्व का बनाना और हमेशा साथ साथ रहना वो भी किसी अनुबंध किसी विवशता में नहीं  खुद अपनी ख़ुशी से , कहीं कोई आशियाना बनाकर ज़िंदगी बसर करते मुहब्बत की दुनिया बसाकर । 
 
ज़िंदगी कुछ इस तरह बिताई है , भीड़ में मिली हमेशा तन्हाई है , कदम कदम ठोकर खाई है कैसे कहें कौन भला कौन बुरा है किस्मत ही अपनी हरजाई है । बहुत अजीब दौर है जाने भीतर मन में कितना शोर है सच कोई कहां समझता है हर किसी का जब ख़ुदग़र्ज़ी का नाता रिश्ता है । सभी औरों पर अधिकार जताते हैं खुद चाहते हैं पाना सब कुछ लौटाना पड़ता है बदले में अवसर आने पर आंख चुराते हैं । दुनिया हमको नहीं रास आई है ज़िंदगी खुद अपनी नहीं पराई है हमको सभी ने समझा नाकाबिल और नासमझ है ख़ामोशी अपनी किसी को नहीं समझ आई है । चाहत थी कोई मेरे जज़्बात मेरे एहसास को समझता मगर हर किसी ने भावुकता को मूर्खता समझा और मेरे स्वभाव का अनुचित लाभ उठाया ।  आखिर ये बात समझ आई है इस दुनिया की प्रीत झूठी है खुद ही साथ अपना निभाना है दिल ही अपना इक ठिकाना है । दिल को किसी तरह से समझाना है चार दिन जीने को इक बहाना है कौन जाने किस दिन ये सफ़र ख़त्म होना है अभी कितना ज़हर खाना है दर्द जैसे अपना ख़ज़ाना है ज़ख़्म को दुनिया से छुपाना है । साथ कुछ इस तरह निभाना है जैसे अपना है वो भी जो हमसे बेगाना है , रस्म है यही दुनियादारी को निभाना है ,  पिजंरे के पंछी का दर्द कौन समझता है खुद हो चुपके चुपके आंसू बहाना है । आखिर इक दिन छोड़ जाना है , मुझको याद है कितना अच्छा गीत है उसको समझना है , चल उड़ जा रे पंछी ।  
 
चल उड़ जा रे पंछी , कि अब ये देश हुआ बेगाना , 
चल उड़ जा रे पंछी ।  
 
ख़त्म हुए दिन उस डाली के जिस पर तेरा बसेरा था 
आज यहां और कल हो वहां ये जोगी वाला फेरा था 
ये तेरी जागीर नहीं थी , चार घड़ी का डेरा था 
सदा रहा है इस दुनिया में किस का आबो - दाना 
चल उड़ जा रे पंछी । 
 
तूने तिनका तिनका चुनकर नगरी एक बसाई 
बारिश में तेरी भीगी पांखें धूप में गर्मी आई 
ग़म न कर जो तेरी मेहनत तेरे काम न आई 
अच्छा है कुछ ले जाने से दे कर ही कुछ जाना 
चल उड़ जा रे पंछी । 
 
भूल जा अब वो मस्त हवा वो उड़ना डाली डाली 
जग की आंख का कांटा बन गई चाल तेरी मतवाली 
कौन भला उस बाग़ को पूछे हो न जिसका माली 
तेरी किस्मत में लिखा है जीते जी मर जाना 
चल उड़ जा रे पंछी । 
 
रोते हैं वो पंख पखेरू साथ तेरे जो खेले 
जिनके साथ लगाये तूने अरमानों के मेले 
भीगी अंखियों से ही उनकी आज दुआएं ले ले 
किसको पता अब इस नगरी में कब हो तेरा आना 
चल उड़ जा रे पंछी ।  
 
 
 
 On a Path Unknown – Poppy Walks the Dog …

नवंबर 05, 2025

POST : 2037 मैं हूं बिग्ग बॉस ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया

             मैं हूं बिग्ग बॉस ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया  

मैं क्या हूं क्यों हूं कहां हूं कैसे हूं सभी लोग तमाम दुनिया उलझी हुई है मेरी उलझन सुलझाने में , मगर चाहे जितना सुलझाए कोई उलझन बढ़ती जाती है । दुनिया वाले क्या भगवान भी मुझसे अनजान है क्योंकि मेरी बनाई दुनिया में उसका नहीं कोई नाम है न कोई निशान है । आप समझे नहीं ये किसी टीवी शो की बात नहीं है मेरी सबसे ऊंची निराली शान है मेरे लिए हर शख्स नासमझ है अभी नादान है । मेरा सभी कुछ है कुछ भी मेरा है नहीं लेकिन जो भी है सब कुछ मेरे अधिकार में है , आपका जीना आपका मरना कोई मायने नहीं रखता है जो भी है सिर्फ मेरे ही इख़्तियार में है । मेरी सत्ता इस पार से उस पार तलक फैली है मेरा आकार  धरती से फ़लक तक से बढ़कर , शून्य से अनगिनत संख्या जैसे किसी विस्तार में है , किसी देश में किसी शासक में वो बात कहां है जो विशेषता मेरी सरकार में है । मुझे नाचना नहीं आता नचाना जानता हूं सभी को अपने इशारों पर सब नहीं जानते असली लुत्फ़ सत्ता देवी की पायल की मधुर झंकार में है । मेरा ही मोल सबसे महंगा दुनिया के हर बाज़ार में है जो कहीं नहीं है वो चमत्कार मेरे ही किरदार में है । मुझे जानते हैं सभी पहचानता कोई नहीं मुझ जैसा कोई हुआ कभी न ही कभी होगा पहला आखिरी भी शुरुआत भी अंत भी मैं खुद से खुद तक रहता हूं हर बात सच्ची है जो भी मैं कहता हूं । मेरे हाथ मेरी आंखें पहुंचती हैं देखती हैं पल पल जहां भी कुछ भी घटित होता है , सब मालूम है कोई हंसता है किसलिए कौन किस बात पर रोता है । मेरी शरण में जो भी आता है सब पाता है , मुझसे बिछुड़ने वाला अपनी हस्ती को खोता है । मेरा साथ पाकर सभी गुनाह माफ़ हो जाते है जितने भी अपराध किये पिछले सभी पाप धुल जाते हैं , खुशियों के कमल कीचड़ में भी खिल जाते हैं ।     
 
मेरी दुनिया के सभी दस्तूर निराले हैं बचना इस खंडहर जैसी हवेली में कदम कदम पर फैले जाले हैं , कोई भी खिड़की दरवाज़ा नहीं है लेकिन पांव में बेड़ियां हैं जंज़ीरों से बंधे हुए लोग हैं ,  सलाखों की कैद में जादुई लगे ताले हैं । मुझे ढूंढने वाले गुम हो जाते हैं जिनको चाहत है मेरे भीतर समाकर शून्य हो जाते हैं । कोई दादी नहीं कोई नहीं नानी है फिर भी ख़त्म कभी होती नहीं मेरी प्रेम कहानी है , राजा महाराजा शाहंशाह कुछ भी समझ सकते हैं मेरा परिवार बड़ा है कोई भी नहीं मेरी रानी महारानी है । जिस को समझ आई मेरी बात इक वही जानकर है नहीं समझ पाया कोई जो महाअज्ञानी है । मेरी लीला निराली है चेहरे पर लाली दिल में कालिख़ से बढ़कर छाई काली परछाई है मैंने आपका चैन लूटा है दुनिया की नींद चुराई है , चोर छिपकर रहते हैं मुझी में मैंने चोरों की नगरी इक अलग बसाई है । मैं भी फंस गया हूं अपने खुद के बुने जाल में सामने है कुंवां और पीछे गहरी खाई है । मैंने सबको ख़त्म करने की शपथ उठाई है नाम से मेरे हर चीज़ घबराई है हर जगह थरथराई है मैंने स्वर्ग को नर्क बनाया है वही खुश है जो शरण में मेरी आया है , सामने जिस ने सर अपना भूले से उठाया है उसका शीश कट गया मरकर भी पछताया है । आपने मुझे क्यों बनाया है कुछ समझ नहीं आपको आया है इक अजूबा सामने नज़र आता है कोई जूते साफ करता है कोई तलवे चाटता है कोई पांव दबाता है कोई जूता फैंकता है मगर कोई बच कर खैर मनाता है । मुझे जब भी कुछ बहुत भाया है मैंने उसको खाया चबाया है मैंने सभी को खुद से बौना साबित करने को दुनिया को ये मापदंड समझाया है , सबको लगता है बिग्ग बॉस शाम ढलते है कोई साया है ।  
 
 Bigg Boss 19 को लेकर सामने आया बड़ा Update, यूट्यूबर्स और इंफ्लूएंसर्स हुए  बैन? - Punjab Kesari

नवंबर 02, 2025

POST : 2036 क्या मिला , क्या बनाया , होगा क्या ( सृष्टि रहस्य ) डॉ लोक सेतिया

क्या मिला ,  क्या बनाया , होगा क्या  ( सृष्टि रहस्य ) डॉ लोक सेतिया 

कुछ भी निर्धारित नहीं है कोई विधाता खुद अपनी बनाई रचना को बनाने के बाद उसका भविष्य निर्धारित नहीं करता है । जैसा हम लोग मानते हैं विश्वास करते हैं कि किसी ईश्वर की मर्ज़ी से सभी कुछ होता है सोचो अगर वैसा होता तो कोई अपनी बनाई दुनिया को बर्बादी की तरफ जाने देता । जैसा तमाम तरह के वैज्ञानिक जाने कितने शोध कर समझने का प्रयास भर करते हैं कि कैसा करने से क्या होना तय है लेकिन हज़ारों ढंग से प्रयोग करने के बावजूद भी कभी परिणाम वांछित नहीं प्राप्त होते हैं । तब उस को लेकर भी शोध कार्य किया जाता है कि क्यों जैसा अपेक्षित था नहीं हुआ और जो हुआ आखिर किस कारण हुआ । कुछ ऐसा ही हमारा भूतकाल वर्तमान काल और भविष्य को लेकर है जिस रहस्य को समझने की कोशिश ही शायद किसी ने की ही नहीं । हमको हैरानी होती है जिनको खिलता गुलशन मिलता है वो लोग गुलशन को खिलाने की नहीं उजाड़ने की बातें करते हैं इसलिए आने वाली पीढ़ियों को गुलशन नहीं बर्बादी मिलती है विरासत में । लेकिन हमने देखा नहीं भी तो पढ़ते सुनते हैं कि कितने ही महान लोगों ने अपने देश समाज को शानदार बनाने में अपनी ज़िंदगी समर्पित कर कितना अच्छा बदलाव किया अपनी मेहनत लगन और तमाम कठिनाईयों से लड़ते जूझते हुए । अगली पीढ़ी को विरासत में जो जैसा मिला उसका कर्तव्य था उसे और शानदार बनाने का लेकिन जब ऐसा नहीं कर किसी पीढ़ी ने मिली विरासत को सुरक्षित नहीं रख कर उसके साथ मनमर्ज़ी से छेड़खानी की अपने मतलब स्वार्थों को हासिल करने को तब विकास के नाम पर विनाश होता गया । 
 
आपको कोई धर्म कोई ज्योतिष विशेषज्ञ कभी नहीं बता सकता है क्या था पहले आज क्या है और भविष्य क्या होना है । क्योंकि खुद उन लोगों ने ही अपनी परंपराओं को सहेजा संभाला तक नहीं है । जिसको जो मिला सभी ने उसका दोहन किया है उसको फलने फूलने नहीं दिया ये बात सामने हैं ध्यान पूर्वक देखने से समझ सकते हैं । दुनिया सृष्टि किसी को पूर्वजों से मिली विरासत नहीं है , प्रकृति ने सभी कुछ सबको इक समान देने का कार्य किया है , हवा रौशनी अंधकार दिन रात बारिश आंधी बदलते मौसम किसी से कोई भेदभाव नहीं करते हैं । कुछ लोग शासक मालिक बन बैठे और उन्होंने अपने अपने स्वार्थों की खातिर कुछ ऐसे नियम कायदे बनाकर थोप कर विधाता समझने लगे अपने आप को । विधाता ईश्वर किसी से कुछ मांगता नहीं है जैसा धरती पर शासक बनकर अपनी सत्ता स्थापित करने वालों ने खुदगर्ज़ी का इक जाल बिछाया है ।लेकिन अगर आधुनिक ढंग से मौसम विज्ञान की तरह समझने की कोशिश करें तो हमको समझ आएगा कि हमारा भूतकाल वर्तमान और भविष्य इक कड़ी है जिसको जैसा सही गलत उपयोग किया जाता है वो उसी अनुरूप अच्छा या खराब बनता जाता है । कभी पुरातन काल में अधिकांश लोग सही राह पर चलने और कुछ आदर्शों मूल्यों का पालन करने वाले हुआ करते थे , उन्होंने समाज को अच्छा बनाने की कोशिश की हमेशा ही भविष्य को बेहतर सौंपने का प्रयास किया । 
 
अब लोग समाज और व्यवस्था इस कदर सड़ी गली बन चुकी है कि हर कोई जैसा चाहे सामाजिक माहौल को बिगाड़ने को तत्पर दिखाई देता है कोई समाज को अच्छा बनाने में कोई योगदान नहीं देना चाहता । ऐसा हमारी सभ्यता में कभी नहीं था कि जिसे भी अवसर मिले वही अपनी महत्वकांशा पूर्ण करने को अन्य सभी से भेदभाव कर अपने अधीन करने लगे । बड़े बड़े महान पुरुष महात्मा संत सन्यासी दार्शनिक समझाते रहे कि हमारे पास सभी की आवश्यकता को काफी है लेकिन किसी की हवस लोभ लालच पूरा करने को कदापि नहीं है । खेद है कुछ लोग धनवान शासक बनकर समाज को बनाने नहीं लूट कर अपनी हवस मिटाने को पागलपन की सीमा तक बेरहम और मतलबी बने हुए हैं । उनको शायद नहीं पता है कि जो पेड़ बबूल वाले वो बो रहे हैं भविष्य में उनके कांटों पर उन्हीं को चलना होगा , ज़रूरी नहीं किसी को जीवन काल में कर्मों का नतीजा मिल जाए लेकिन जिनकी खातिर ऐसे लोग समाज को बर्बादी की तरफ ले जा रहे हैं  वही भविष्य में दुःख परेशानी झेलेंगे । आपका लिखवाया झूठा इतिहास किसी काम का साबित नहीं होगा जब भविष्य आपकी कार्यशैली पर विचार विमर्श कर शोध कर आपको देश समाज ही नहीं सम्पूर्ण सृष्टि को तहस नहस करने का दोषी समझेगा । संक्षेप में तीन कालों का लेखा जोखा यही है भूतकाल से मिला वर्तमान का किया ही भविष्य का निर्माण करता है ।  
 
 भूतकाल सपना, भविष्यकाल कल्पना, किन्तु वर्तमान अपना है… - Shiv Amantran |  Brahma Kumaris