दिसंबर 25, 2014

POST : 472 नेताओं और मीडिया वालों का शोर ( आलेख ) डा लोक सेतिया

  नेताओं और मीडिया वालों का शोर ( आलेख ) डा लोक सेतिया

    समझना होगा सच क्या है , वो जो टीवी पर अख़बारों में परोसा जा रहा है अथवा वो जो हमें अपने सामने दिखाई दे रहा है। स्वछता अभियान और सुसाशन अभियान क्या हैं। सालों से ऐसे जाने कितने अभियान आये और चले गये , कभी किसी ने नहीं सोचा उनका हासिल क्या रहा। क्या क्या संकल्प क्या क्या बातें होती रही , सब आडंबर को , जनता को बहलाने को। ये विचत्र बात है आजकल नेता अफ्सर हर काम जो उनको खुद करना चाहिये , कहते हैं जनता ये तुमको करना है। इनको क्या करना है ? मात्र अधिकारों का उपयोग। कर्तव्य की बात किसी को याद ही नहीं। जब तक ये लोग मानते ही नहीं कि हमने अपना फ़र्ज़ नहीं निभाया अभी तक इसलिये देश की दुर्दशा हुई है ,तब तक इनसे कर्तव्य बिभाने की आशा भी करें तो कैसे। लेकिन अब इनका ये खोटा सिक्का भी लोग समझते हैं चल जायेगा। बहुत शोर हुआ था मोदी सरकार के समय पर दफ्तर पहुंचने का , क्या हो गया सब , आज भी देख लो कोई भी अधिकारी समय पर तो क्या प्रतिदिन दफ्तर जाता भी है। अभी कुछ दिन पहले एक चैनेल के एक शो के इकीस वर्ष पूरे होने पर इक आयोजन हुआ जिसमें प्रधानमंत्री राष्ट्रपति और तमाम मंत्री लोग शामिल हुए। क्या ऐसा ज़रूरी था , क्या उनके लिये ये जनता के कामों से अधिक ज़रूरी था। सच तो ये है कि ऐसा कदापि नहीं होना चाहिये , मगर जब इन नेताओं को ये भी समझ नहीं हो कि इनको किसी के कारोबार से , अपने प्रचार से अधिक महत्व देश के प्रति अपने काम को देना चाहिये तब इनसे क्या उम्मीद रखें बदलाव की। और ये जो खुद को लोकतंत्र का रक्षक बताते हैं वो खुद क्या हैं , विज्ञापनों और पैसे के लिये कुछ भी करने वाले व्योपारी। क्या क्या नहीं दिखाते , ये वही हैं जो पैसे लेकर किसी को गुरु बनाते हैं उसकी महिमा का गुणगान करते हैं और जब पोल खुलती तब उसको अपराधी भी बताते हैं , बिना ये स्वीकार किये कि खुद ये भी उसी का हिस्सा रहे हैं। ये बहस करते हैं और बताते हैं कैसे किसकी सरकार बन सकती है , बिना ये समझे कि ये उनका अधिकार क्षेत्र नहीं है। इनको ये भी लगता है कि जो ये बताते उसका असर लोगों पर इतना अधिक होता है कि इनकी मर्ज़ी से सरकार बन सकती है। ये खुद को खुदा मान बैठे लोग जानते ही नहीं कि खुद ऊपर जाने की चाह में कितना नीचे पहुंच गये हैं। अब इनका हिसाब किताब कौन पूछे। सच तो ये है कि नेता और मीडिया वाले दोनों ही अपने हित को देश हित से अधिक महत्व देते हैं। तभी ये झूठा प्रचार आडंबर दोनों को उचित लगता है।

         पहले भी ये सब होता रहा है किसी न किसी रूप में। गरीबी हटाओ , बालमज़दूरी खत्म करो , भ्र्ष्टाचार बंद करो आदि आदि। क्या बदला , कुछ भी नहीं , सब भाषणों में , सरकारी आंकड़ों में होता रहा। वही फिर दोहराया जा रहा है , टीवी अख़बार पर नहीं वास्तव में सफाई और सुशासन चाहिये। मगर क्या ऐसा होगा , ये सब तो वही है जो कितनी बार आज़माया जाता रहा है , जनता को बहलाने को। ये शोर भी जो सुन रहे हैं इक दिन ख़ामोशी में बदल जायेगा , ऐसा अंदेशा है।

                                          

दिसंबर 08, 2014

POST : 471 रिश्तों की डोरी ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

   रिश्तों की डोरी ( कविता ) डॉ  लोक सेतिया 

कभी देखा है
धागे जब उलझ जाते हैं
बहुत कठिन हो जाता है
उनको बचाकर अलग करना
ज़रा सा खींचा कोई धागा
टूट जाता है पल भर में
इक थोड़ा सा खींचने भर से ।

जीवन में रिश्ते नाते सभी
रहते हैं इक साथ ऐसे ही
हम सभी के अपने ही हाथों में
खोना नहीं चाहते हैं किसी को भी
मगर ज़रा सी भूल से हो जाता है
अक्सर ऐसा भी हम सभी से।

कोई इक रिश्ता उलझ जाता है
अपने किसी दूसरे रिश्ते से अचानक
नहीं आता सभी को ये काम
हर रिश्ते नाते को बचाकर रखना ।

मिलना जाकर किसी दिन इक बुनकर से
देखना उसको बुनते हुए धागों से
कितने रंग वाले कैसे कैसे होते हैं
सब को अपनी जगह पर रखता
सब को उतना ही कसता जितना ज़रूरी
सभी में रखता है थोड़ी थोड़ी सी दूरी ।

कोई धागा नहीं उलझने देता वो
टूटने नहीं देता इक भी धागा
और कभी कोई टूट भी जाता है
थोड़ा अधिक खींचने से अचानक
तब उसको अलग रखता दूसरे धागों से ।

गांठ नहीं लगता है कभी बुनकर
प्यार से उसी धागे के दोनों सिरे
फिर से मिला देता उनको कैसे
कभी टूटा ही नहीं था वो जैसे ।

दोस्तो सीखना सभी बुनकर से
प्यार मुहब्बत दोस्ती वाले सब रिश्ते
कैसे रखने हैं सभी हमने संभाल कर ।

और उस से बुनना है अपना जीवन
किसी खूबसूरत चादर की तरह
जिस में मिलकर हर धागा देता है
बहुत ही सुंदर शक्ल । 
 

 

दिसंबर 01, 2014

POST : 470 खोखले लोगों का धर्म ( आलेख ) डा लोक सेतिया

      खोखले लोगों का धर्म ( आलेख ) डा लोक सेतिया 

          कभी कभी हैरानी होती है कि क्या लोग सच में नहीं देख पाते कि जहां वो धर्म या समाजसेवा की बात समझ कर जाते हैं वहां न तो धर्म ही होता है न ही कोई सच्ची समाज सेवा ही। जो हो रहा होता है वो इक छल होता है , धोखा होता है , आडंबर होता है , दुनिया को दिखाने को इक तमाशा होता है। कोई संत बन स्वर्ग को बेच रहा है ,कोई आपको सारे पापों की सज़ा से बचाने का प्रलोभन देता है उसको गुरु बनाने पर , कोई अपने इस कारोबार में आपको भी शामिल कर लेता है। अधर्म को धर्म का नाम दिया जा रहा है , ऐसा धर्म किसी का कल्याण नहीं कर सकता। इस से बेहतर है आप किसी धर्म को न मानें , कोई गुरु न बनायें , किसी ईश्वर किसी देवी देवता की उपासना न करें। बल्कि इस से नास्तिक होना लाख दर्जा बेहतर होगा। ये बात कि कोई गुरु होना ही चाहिये या किसी न किसी धर्म का मानना ही चाहिये उन्हीं लोगों ने कही और सब जगह दोहराई जिनको ऐसा करने से कुछ हासिल करना था। कभी निष्पक्ष होकर पढ़ना सभी तथाकथित धर्म ग्रंथों को और समझना वो आपको ज्ञान देना चाहते हैं या ऐसा चाहते हैं कि आप कुछ भी न सोचें न ही समझने का ही प्रयास करें कि सही क्या गल्त क्या है। धर्म वो जो आपके विवेक को जागृत करे ताकि आप अच्छे बुरे , पाप पुण्य , सच झूठ को पहचान सकें। मुझे तलाश है ऐसे धर्म की ऐसे गुरु की , नहीं नज़र आता कोई , मगर मुझे ज़रूरत भी नहीं है। मेरी अंतरात्मा मेरा गुरु है जो बताती है सब से बड़ा धर्म मानवधर्म है। ईश्वर है या नहीं है मुझे इस से कोई फर्क नहीं पड़ता , न ही इस से कि कोई अगला या पिछला जन्म होता है या नहीं। हां जाता हूं मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे , देखता रहता क्या क्या होता धर्म के नाम पर वहां और सोचता जो सर्वशक्तिमान है क्या उसका बस नहीं चलता इन पर या वो भी अपने गुणगान से खुश होता है और अपने नाम पर ये सब होता देख कर भी अनदेखा करता है। नहीं ऐसा नहीं  है भगवान को इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग उसको मानें या न मानें , उसकी अराधना अर्चना पूजा करें या न करें। उसको फर्क पड़ता होगा कि लोग उसके बनाये इंसानों से प्यार करते हैं या नहीं करते। जो जीवन में सभी से प्यार मुहब्बत से नहीं रहते , सद्कर्म नहीं करते , बिना स्वार्थ कुछ भी नहीं करते , अथवा अपने स्वार्थ के लिये सही गल्त सब कुछ करते हैं उनसे ईश्वर प्रसन्न नहीं हो सकता , ये सभी जानते हैं। फिर भी लोग जानकर अनजान क्यों बने हुए हैं , समझना होगा।
                   ये जो लोगों की भीड़ दिखाई देती संतों , साधुओं , धर्मस्थलों पर उनका किसी धर्म से कोई सरोकार नहीं होता है। यहां लोग चाहते हैं किसी भी तरह कुछ पाना , कोई पहचान , कोई नाम , शोहरत , कोई रुतबा या समाज में वो कहलाना जो न तो हैं न ही बन सकते हैं। जब इनको अवसर मिलता है किसी भी तरह अपना नाम पहली कतार में लाने का तब ये उसको उपयोग करते हैं अपने मन की झूठी तसल्ली के लिये कि लोग मुझे ऐसा मानते हैं , वैसा होना कदापि नहीं चाहते। इक छल है खुद से , इसको धर्म नहीं कह सकते , धर्म क्या है ये जानना समझना कौन चाहता है। खुश हैं अमुक गुरु के अमुक कार्य में प्रचार में उनका भी नाम शामिल है , इक आयोजन है समाज सेवा के नाम पर अथवा धर्म प्रचार के नाम पर उसके निमंत्रण पत्र पर उनका भी नाम लिखा हुआ है सैंकड़ों और नामों में , कभी सोचा है क्या है ये। इक खोखलापन है , जो ये शोर हर तरफ होता दिखाई देता है उसका सच यही है। खाली ढोल बज रहा है , ढोल की पोल जब खुलती है तब पता चलता उसके भीतर तो कुछ भी नहीं था। क्या झूठ कहा मैंने , सोचना।