सच जो कहने लगा हूं मैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
सच जो कहने लगा हूं मैंसबको लगता बुरा हूं मैं ।
अब है जंज़ीर पैरों में
पर कभी खुद चला हूं मैं ।
बंद था घर का दरवाज़ा
जब कभी घर गया हूं मैं ।
अब सुनाओ मुझे लोरी
रात भर का जगा हूं मैं ।
अब नहीं लौटना मुझको
छोड़ कर सब चला हूं मैं ।
आप मत उससे मिलवाना
ज़िंदगी से डरा हूं मैं ।
सोच कर मैं ये हैरां हूं
कैसे "तनहा" जिया हूं मैं ।