लोकनायक जयप्रकाश नारायण ( वास्तविक नायक ) डॉ लोक सेतिया
लेखक ललित गर्ग जी ने कल लिखा है। आजादी के आंदोलन से हमें ऐसे बहुत से नेता मिले जिनके प्रयासों के कारण
ही यह देश आज तक टिका हुआ है और उसकी समस्त उपलब्धियां उन्हीं नेताओं की
दूरदृष्टि और त्याग का नतीजा है। ऐसे ही नेताओं में जीवनभर संघर्ष करने
वाले और इसी संघर्ष की आग में तपकर कुंदन की तरह दमकते हुए समाज के सामने
आदर्श बन जाने वाले प्रेरणास्रोत थे लोकनायक जयप्रकाश नारायण, जो अपने
त्यागमय जीवन के कारण मृत्यु से पहले ही प्रातः स्मरणीय बन गए थे। अपने
जीवन में संतों जैसा प्रभामंडल केवल दो नेताओं ने प्राप्त किया। एक महात्मा
गांधी थे तो दूसरे जयप्रकाश नारायण। इसलिए जब सक्रिय राजनीति से दूर रहने
के बाद वे 1974 में ‘सिंहासन खाली करो जनता आती है’ के नारे के साथ वे
मैदान में उतरे तो सारा देश उनके पीछे चल पड़ा, जैसे किसी संत महात्मा के
पीछे चल रहा हो।
11 अक्टूबर, 1902 को जन्मे जयप्रकाश नारायण भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और
राजनेता थे। वे समाज-सेवक थे, जिन्हें ‘लोकनायक’ के नाम से भी जाना जाता
है। 1999 में उन्हें मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। इसके
अतिरिक्त उन्हें समाजसेवा के लिए 1965 में मैगससे पुरस्कार प्रदान किया गया
था। पटना के हवाई अड्डे का नाम उनके नाम पर रखा गया है। दिल्ली सरकार का
सबसे बड़ा अस्पताल ‘लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल’ भी उनके नाम पर है।
लोकनायक जयप्रकाशजी की समस्त जीवन यात्रा संघर्ष तथा साधना से भरपूर रही।
उसमें अनेक पड़ाव आए, उन्होंने भारतीय राजनीति को ही नहीं बल्कि आम जनजीवन
को एक नई दिशा दी, नए मानक गढ़े। जैसे - भौतिकवाद से अध्यात्म, राजनीति से
सामाजिक कार्य तथा जबरन सामाजिक सुधार से व्यक्तिगत दिमागों में परिवर्तन।
वे विदेशी सत्ता से देशी सत्ता, देशी सत्ता से व्यवस्था, व्यवस्था से
व्यक्ति में परिवर्तन और व्यक्ति में परिवर्तन से नैतिकता के पक्षधर थे। वे
समूचे भारत में ग्राम स्वराज्य का सपना देखते थे और उसे आकार देने के लिए
अथक प्रयत्न भी किए। उनका संपूर्ण जीवन भारतीय समाज की समस्याओं के
समाधानों के लिए प्रकट हुआ, एक अवतार की तरह, एक मसीहा की तरह। वे भारतीय
राजनीति में सत्ता की कीचड़ में केवल सेवा के कमल कहलाने में विश्वास रखते
थे। उन्होंने भारतीय समाज के लिए बहुत कुछ किया लेकिन सार्वजनिक जीवन में
जिन मूल्यों की स्थापना वे करना चाहते थे, वे मूल्य बहुत हद तक देश की
राजनीतिक पार्टियों को स्वीकार्य नहीं थे। क्योंकि ये मूल्य राजनीति के
तत्कालीन ढांचे को चुनौती देने के साथ-साथ स्वार्थ एवं पदलोलुपता की
स्थितियों को समाप्त करने के पक्षधर थे, राष्ट्रीयता की भावना एवं नैतिकता
की स्थापना उनका लक्ष्य था, राजनीति को वे सेवा का माध्यम बनाना चाहते थे।
लोकनायक जयप्रकाशजी की जीवन की विशेषताएं और उनके व्यक्तित्व के आदर्श कुछ
विलक्षण और अद्भुत हैं जिनके कारण से वे भारतीय राजनीति के नायकों में अलग
स्थान रखते हैं। उनका सबसे बड़ा आदर्श था जिसने भारतीय जनजीवन को गहराई से
प्रेरित किया, वह था कि उनमें सत्ता की लिप्सा नहीं थी, मोह नहीं था, वे
खुद को सत्ता से दूर रखकर देशहित में सहमति की तलाश करते रहे और यही एक
देशभक्त की त्रासदी भी रही थी। वे कुशल राजनीतिज्ञ भले ही न हो किन्तु
राजनीति की उन्नत दिशाओं के पक्षधर थे, प्रेरणास्रोत थे। वे देश की राजनीति
की भावी दिशाओं को बड़ी गहराई से महसूस करते थे। यही कारण है कि राजनीति
में शुचिता एवं पवित्रता की निरंतर वकालत करते रहे।
महात्मा गांधी
जयप्रकाश की साहस और देशभक्ति के प्रशंसक थे। उनका हजारीबाग जेल से भागना
काफी चर्चित रहा और इसके कारण से वे असंख्य युवकों के सम्राट बन चुके थे।
वे अत्यंत भावुक थे लेकिन महान क्रांतिकारी भी थे। वे संयम, अनुशासन और
मर्यादा के पक्षधर थे। इसलिए कभी भी मर्यादा की सीमा का उल्लंघन नहीं किया।
विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने अपना अध्ययन नहीं छोड़ा और आर्थिक तंगी
ने भी उनका मनोबल नहीं तोड़ा। यह उनके किसी भी कार्य की प्रतिबद्धता को ही
निरूपित करता था, उनके दृढ़ विश्वास को परिलक्षित करता है।
मैंने
जेपी को नहीं देखा लेकिन उनकी प्रेरणाएं मेरे पारिवारिक परिवेश की
आधारभित्ति रही है। मेरी माताजी स्व. सत्यभामा गर्ग उनकी अनन्य सेविका थी।
राजस्थान में होने वाले जेपी के कार्यक्रमों को वे संचालित किया करती थी,
उनके व्यक्तिगत व्यवस्था में जुड़े होने के कारण उनके आदर्श एवं प्रेरणाएं
हमारे परिवार का हिस्सा थे। मेरे आध्यात्मिक गुरु आचार्य श्री तुलसी के
जीवन से जुड़ेे एक बड़े विरोधपूर्ण वातावरण के समाधान में भी जयप्रकाश का
अमूल्य योगदान है। उनकी चर्चित पुस्तक अग्निपरीक्षा को लेकर जब देश भर में
दंगें भड़के, तो जेपी के आह्वान से ही शांत हुए। जेपी के कहने पर आचार्य
तुलसी ने अपनी यह पुस्तक भी वापस ले ली।
जयप्रकाश नारायण को 1970
में इंदिरा गांधी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है।
इंदिरा गांधी को पदच्युत करने के लिए उन्होंने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ नामक
आंदोलन चलाया। लोकनायक ने कहा कि संपूर्ण क्रांति में सात क्रांतियां शामिल
हैं- राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व
आध्यात्मिक क्रांति। इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रांति होती
है। संपूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को
सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। जयप्रकाश नारायण की हुंकार पर नौजवानों का
जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। बिहार से उठी संपूर्ण क्रांति की चिंगारी देश
के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी थी। जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश
नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे। लालमुनि चैबे, लालू
प्रसाद, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान या फिर सुशील मोदी, आज के सारे नेता
उसी छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का हिस्सा थे।
देश में आजादी की लड़ाई
से लेकर वर्ष 1977 तक तमाम आंदोलनों की मशाल थामने वाले जेपी यानी
जयप्रकाश नारायण का नाम देश के ऐसे शख्स के रूप में उभरता है जिन्होंने
अपने विचारों, दर्शन तथा व्यक्तित्व से देश की दिशा तय की थी। उनका नाम
लेते ही एक साथ उनके बारे में लोगों के मन में कई छवियां उभरती हैं।
लोकनायक के शब्द को असलियत में चरितार्थ करने वाले जयप्रकाश नारायण अत्यंत
समर्पित जननायक और मानवतावादी चिंतक तो थे ही इसके साथ-साथ उनकी छवि अत्यंत
शालीन और मर्यादित सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति की भी है। उनका
समाजवाद का नारा आज भी हर तरफ गूंज रहा है। भले ही उनके नारे पर राजनीति
करने वाले उनके सिद्धान्तों को भूल रहे हों, क्योंकि उन्होंने सम्पूर्ण
क्रांति का नारा एवं आन्दोलन जिन उद्देश्यों एवं बुराइयों को समाप्त करने
के लिये किया था, वे सारी बुराइयां इन राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं में
व्याप्त है। संपूर्ण क्रान्ति के आह्वान में उन्होंने कहा था कि
‘भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना, आदि ऐसी
चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं क्योंकि वे इस
व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं जब संपूर्ण व्यवस्था बदल
दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रान्ति, ’सम्पूर्ण
क्रान्ति’ आवश्यक है।’ इसलिए आज एक नयी सम्पूर्ण क्रांति की जरूरत है। यह
क्रांति व्यक्ति सुधार से प्रारंभ होकर व्यवस्था सुधार पर केन्द्रित हो।
कुर्सी पर कोई भी बैठे, लेकिन मूल्य प्रतिष्ठापित होने जरूरी है। ऐसा करके
ही हम एक महान लोकनायक को सच्ची श्रद्धांजलि दे पाएंगे।
( हिंदी न्यूज़ वेद दुनिया से आभार सहित )
मैं खुद को बेहद खुशनसीब समझता हूं कि मैंने ऐसे महान नायक
को देखा सुना और इसिहास के उस पल का गवाह बना जिस दिन दिल्ली के रामलीला
मैदान में जेपी जी ने जनसमूह को संबोधित किया था और जिस के आधार बनाया गया
था इंदिरा गांधी द्वारा आपात्काल घोषित करने को। मैंने 11 ऑक्टूबर 2013 को छह साल पहले जो लेख लिखा था आज फिर से दोहराना चाहता हूं।
जन नायक श्री जय प्रकाश नारायण जी और आपात्काल ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
11 अक्टूबर जब भी आता है मुझे हैरानी होती है सभी टीवी चैनेल अमिताभ बच्चन
जी का जन्म दिन मना रहे होते हैं उनको नायक नहीं महानायक सदी का घोषित किया
जाता है। कल इक महान लेखक की बात पढ़ी थी , उनका कहना था नायक वो होते हैं जिनको सही राह मालूम होती है , वो खुद सही
मार्ग पर चलते हैं और लोगों को भी साथ रखते हैं। जे पी जैसे वास्तविक नायक
हमें याद नहीं रहते और फ़िल्मी अभिनेता को हम नायक बता उसका गुणगान करते
हैं। इस से समझ सकते हैं कि हम मानसिक तौर पर कितने खोखले हो गए हैं। शायद
हमें आज़ादी से पहले का तो क्या आज़ादी के बाद तक का इतिहास याद नहीं है।
भूल गये हैं कि किसी भी नेता का इस कदर महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिये कि
वो खुद को संविधान से ऊपर समझने लगे। आज भी हम वही गुलामी की मानसिकता के
शिकार हैं और किसी न किसी को खुदा बनाकर उसकी परस्तिश करने में लाज अनुभव
नहीं करते। ऐसे कितने खुदा लोगों ने तराश लिये हैं जो उनकी इसी बात का
उपयोग पैसा कमाने और अमीर बनने को कर रहे हैं। उनका धन दौलत का मोह बढ़ता ही
जाता है , शास्त्र बताते हैं जिस के पास सभी कुछ हो फिर भी और पाने की हवस
हो वही सब से दरिद्र होता है। लेकिन हम जे पी जैसे जननायक को भूल जाते हैं
जिसने कभी किसी पद किसी ओहदे को नहीं स्वीकार किया और हमेशा जनता की बात
की। और जिस ने देश समाज को कुछ नहीं दिया जो भी किया खुद अपने लिए ही किया उसको
हम भगवान तक बताने में संकोच नहीं करते। विशेष कर मीडिया को तो समझना
चाहिए लोकतंत्र में चाटुकारिता कितनी खतरनाक होती है।
पच्चीस जून 1 9 7 5 को जयप्रकाश नारायण जी के भाषण को आधार
बना आपात्काल की घोषणा की गई थी। मैं उस दिन उनका भाषण सुनने वालों में
शामिल था। आज वो लोग सत्ता पर आसीन हैं जो कभी आपात्काल में भूमिगत थे , आज
देखते हैं वही खुद तानाशाही ढंग से आचरण करते हैं और मीडिया तब भी उनकी
महिमा का गुणगान करता नज़र आता है। कोई उनको याद दिलाये कभी आपको किसी
सत्ताधारी की तानाशाही लोकतंत्र विरोधी लगती थी , आज खुद दोहराते हैं वही
सब। मुझे तो आज तक ये समझ नहीं आ सका कि इस अभिनेता ने देश व समाज को क्या
दिया है। मगर हमारी मानसिकता बन गई है सफलता को , पैसे कमाने को महान समझने
की। कोई के बी से से जीत लाये धन तो शहर वाले उसको सम्मानित करने लगते
हैं। ये नहीं सोचते कि ऐसा करना कितना उचित या अनुचित है। सब जानते हैं कि
ये धन जनता से आता है एस एम एस से और विज्ञापनों से। न चैनेल घर से देता है
न ही अमिताभ जी , बल्कि दोनों की कमाई होती है ऐसा करके।
जे पी जी जैसे लोग कभी कभी मिलते हैं। आज आप अन्ना हजारे जी को जानते
हैं भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिये चलाये आन्दोलन के कारण। 1975 में जो
आन्दोलन देश भर में जे पी जी ने चलाया था वो अपने आप में एक मिसाल है।
इंदिरा गाँधी जिनको बहुत ही साहस वाली महिला माना जाता है डर गई थी उनके
आन्दोलन से और आपातकाल की घोषणा कर दी थी। 19 महीने तक देश का लोकतंत्र कैद
था एक व्यक्ति की कुर्सी की चाहत के कारण। कांग्रेस लाख चाहे ये काला दाग
मिट नहीं सकता उसके दामन पर लगा हुआ। ये अलग बात है कि उस आन्दोलन में ऐसे
भी लोग शामिल हो गये थे जिनको आगे जा कर खुद सत्ता प्राप्त कर वही सब ही
करना था। लालू यादव और मुलायम सिंह जैसे लोग होते हैं जिनको अपने स्वार्थ
सिद्ध करने होते हैं। वे तब भ्रष्टाचार और परिवारवाद का विरोध कर रहे थे
लेकिन आज खुद वही करने लगे हैं।
मगर जे पी जी का सम्पूर्ण क्रांति का ध्येय तब भी सही था और आज भी उसकी
ही ज़रूरत है। शायद आज और अधिक ज़रूरत है क्योंकि तब केवल बिहार और दिल्ली
की सरकार की बात थी जब कि आज हर शाख पे उल्लू बैठा है। मगर आज के नवयुवकों
को ये बताना बेहद ज़रूरी है कि नायक वो होते हैं जो पद को कुर्सी को ठोकर
मरते हैं उसूलों की खातिर। देश के सर्वोच्च पद के लिए इनकार कर दिया था
जयप्रकाश नरायण जी ने।
आज है कोई जो सत्ता को नहीं जनहित को महत्व दे। आज उनको याद किया जाना
चाहिए , उनसे सबक सीख सकते हैं आम आदमी पार्टी के लोग कि वही सब फिर न
दोहराया जा सके। भ्रष्टाचार के विरोध की बात कर सत्ता पा कर खुद और ज्यादा
भ्रष्टाचार करने लगें। इधर लोग दो लोगों को भगवान कहने का काम करते हैं
अक्सर। लेकिन उन दोनों तथाकथित भगवानों की दौलत की चाहत थमने का ना म ही
नहीं ले रही। क्या भगवान ऐसे होते हैं , भगवान देते हैं सब को , अपने लिए
कुछ नहीं चाहिए उसको। मुझे किसी शायर के शेर याद आ रहे हैं।
इस कदर कोई बड़ा हो हमें मंज़ूर नहीं
कोई बन्दों में खुदा हो हमें मंज़ूर नहीं।
रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की अगर
चाँद बस्ती में उगा हो हमें मंज़ूर नहीं।
मुस्कुराते हुए कलियों को मसलते जाना
आपकी एक अदा हो हमें मंज़ूर नहीं।
अब आज की बात , आज हालात आपात्काल जैसे हैं शायद उस से भी खराब हैं मगर खेद की बात है आज के शासक उनका नाम भी नहीं लेना चाहते जबकि उनको पता है उन में से बहुत नेता आज राजनीति में हैं तो उन्हीं के साये में बढ़े कभी आंदोलन में थे। क्योंकि ये सब उन के आदर्शों की बात करने का साहस नहीं कर सकते उनका अनुसरण करना तो दूर की बात है। इनकी सुविधा पटेल के बूत बनाने की है जिन से वास्तव में इनका कोई मतलब कभी नहीं रहा है जैसे भगवान राम के आदर्श इन लोगों को नहीं मालूम मगर उनके नाम की राजनीति इनको सत्ता की सीढ़ी लगती है। राम को सत्ता का मोह नहीं था और हमेशा वंचित पीड़ित लोगों का साथ चुना था जबकि तथाकथित रामभक्त कोई आदर्श नहीं मानते और सत्ता का त्याग करने की मार्ग उनके बस की बात नहीं है जैसे ही इनसे सत्ता छुट्टी है ये बदलते देर नहीं लगाते हैं। ये बेहद खेद की बात है कि लोग ऐसे वास्तविक आदर्श पुरुषों के बारे कम जानते हैं जिनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। जो लोग ईमानदारी की बात करते हैं उनको कभी सत्येंद्र दुबे जैसे अधिकारी याद नहीं आते जिनकी हत्या तीस साल की आयु में 27 नवंबर 2003 को उन्हीं लोगों ने कर दी जिनकी शिकायत नेशनल हाईवे के अधिकारी रहते उन्होंने पीएमओ को की थी भरषटाचार को लेकर। आज भी ये खनन माफिया और अवैध कब्ज़े करने वाले लोगों को दल में शामिल कर उम्मीदवार बनाते हैं और ईमानदार सरकार का खुद ही तमगा लगाए फिरते हैं।
11 ऑक्टूबर दो दिन बाद जेपी का जन्म दिन है मगर शायद ही कोई सत्ताधारी उनकी बात करेगा। टीवी चैनल भी उस दिन वास्तविक जननायक की नहीं फ़िल्मी तथाकथित महानायक की बात करेंगे बिना विचारे कि उसने देश समाज को क्या दिया है। शायद मतलबी राजनेता नहीं चाहते हम लोग वास्तविक आदर्श के पालन की बात को समझें भी , उनको केवल आडंबर करना है ऐसे लोगों के अनुयाई होने की बात कह कर अपने मकसद सिद्ध करने को। जेपी उनके काम के नहीं रहे अब जब थी ज़रूरत तब साथ थे और उनके मकसद को छोड़ अपनी राजनीति करते समय नहीं लगा था शायद लोग जल्दी इतिहास को भूल जाते हैं। मगर जो बात सच है वो ये है कि कुछ लोगों की महत्वआकांक्षा ने जेपी के सपने को चूर नहीं किया होता तो देश आज किसे और ऊंचाई पर खड़ा होता जिस में वास्तविक सत्ता जनता के पास होती।