अक्टूबर 31, 2019

मेरा लिखना क्या क्यों कैसा ( आलेख-अपनी बात ) डॉ लोक सेतिया

 मेरा लिखना क्या क्यों कैसा ( आलेख-अपनी बात ) डॉ लोक सेतिया 

   कहानी हो ग़ज़ल हो बात रह जाती अधूरी है , करें क्या ज़िंदगी की बात करना भी ज़रूरी है। 

   मेरी ग़ज़ल का मतला है बहुत पहले लिखा था। कई बार पहले सोशल मीडिया पर और व्यक्तिगत तौर पर भी मिलने वालों को बताया है कि मैंने लिखने की शुरुआत 1974 में नियमित रूप से इक मकसद को लेकर की थी। इक मैगज़ीन में कॉलम पढ़कर जिस में संपादक ने सभी से कहा था की शिक्षित होने पर अपने खुद घर परिवार को छोड़कर कोई न कोई काम देश समाज की भलाई को लेकर करना भी इक कर्तव्य है समाज से जो भी मिला उसका क़र्ज़ उतारने के लिए। डॉक्टर होने से साहित्य को पढ़ने का अवसर कम मिला बस इधर उधर से थोड़ा बहुत ही पढ़ा है। समाज की जनहित की बात लिखते लिखते व्यंग्य कविता कहानी ग़ज़ल आलेख लिखता गया जब जिस विषय पर जो भी विधा उचित लगती रही। लिखने के स्तर को लेकर हमेशा से मुझे मालूम रहा है कि ग़लिब दुष्यंत परसाई शरद जोशी मुंशी प्रेमचंद अदि को सामने कुछ भी नहीं हूं न बन सकता हूं। साहित्यकार होने का भ्र्म नहीं पाला दिल में और नाम शोहरत ईनाम पुरुस्कार की चाहत रही नहीं। लिखना मेरे लिए जीना है सांस लेने की तरह ज़रूरी है। नहीं रह सकता लिखे बिना। मैंने जितना जो भी लिखा ज़िंदगी की बातों से अनुभव से और निष्पक्षता से समाज की वास्तविकता को उजागर करने को लिखा और बगैर इसकी चिंता किये लिखता रहा कि किसी और के तो क्या खुद मेरे भी ख़िलाफ़ तो नहीं। मेरा पहला व्यंग्य " उत्पति डॉक्टर की " अपने ही व्यवसाय पर तीखा कटाक्ष था। अभी तक कोई किताब नहीं छपवाई मगर अख़बार मैगज़ीन लोगों को समाजिक संस्थाओं से नेताओ अधिकारियों को लिख कर जहां जो भी समस्या थी विसंगति थी गलत हो रहा था लिखकर भेजता रहा। 

        जो लोग किताबें पढ़कर दुनिया समाज को समझते हैं किताबी साहित्य के मापदंड और नियम आदि की चिंता करते हैं उन्हें कभी मेरे लिखने पर उलझन होती है। सीखा है कई तरह से लिखने को सुधारने की कोशिश करता रहता हूं मगर उपदेशकों की ज़रूरत नहीं लगती है। खुद विचार चिंतन और अभ्यास से कोशिश करता रहता हूं और अच्छा लिखने की।  मगर सबसे महत्वपूर्ण बात लगती है सच और सही बात ईमानदारी से निडरता से लिखने की। भले मेरा लेखन जैसा भी जिस भी विधा में हो उसमे वास्तविक्ता है आडंबर नहीं बनावट झूठ या बात को उलझाने की कोशिश कभी नहीं की है। इतना काफी है। खुद को किसी तथाकथित साहित्यगुरूओं के तराज़ू पर उस इस पलड़े पर रखकर तोलना ज़रूरी नहीं लगा है उनसे कोई प्रमाणपत्र पाने को जिसकी मुझे कोई चाहत नहीं है। 
 

 



अक्टूबर 22, 2019

शराफ़त की नकाब ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

       शराफ़त की नकाब ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

   कल चुनाव में चर्चा थी फलां व्यक्ति शरीफ है इसलिए लोग उसको वोट देंगे। मुझे ये वास्तविकता अनुभव से कई साल पहले समझ आ गई थी कि राजनीति में आने वाले नेताओं की शराफ़त नई नवेली बहु की तरह होती है लाज का घूंघट दो दिन में उतर जाये या कुछ महीने लग जाएं हालात पर निर्भर होता है। ससुराल में बहुरानी और राजनीति में आदमी आता है मन में छुपाकर सबको उनकी औकात दिखाने की भावना को। साफ शब्दों में शराफत की नकाब नेता लोग सत्ता मिलते ही उतार फैंकते हैं और असली रंग दिखाने लगते हैं। ये राजनीति का बाज़ार वैश्या का कोठा है जिस पर आकर अस्मत का सौदा होते ही शर्म का पर्दा उतारना ही पड़ता है। विधायक संसद बनते ही लोग किसी बड़े राजनेता के हाथ की कठपुतली बन जाते हैं। कठपुतली करे भी क्या नाचना तो पड़ेगा डोर किसी और के हाथ है उसकी मर्ज़ी है जिस तरह मर्ज़ी नचवा सकता है। आनंद का नायक नाम बदलता रहता है हंसी मज़ाक में दोस्त बनाने को समझाता है जॉनी वाकर जैसा कलाकार कि दुनिया के रंगमच पर हम सभी कठपुलियां हैं जिनकी डोर ऊपर वाले के हाथ में है कौन कब कैसे उठेगा कोई नहीं जानता। डॉयलॉग सुपर हिट है फ़िल्म का अंत भी टेप रिकॉर्डर की आवाज़ से होता है। नायक अंतिम सांस लेता है और टेप रिकार्डर चालू होता है , दोस्त आता है और आवाज़ सुनाई देती है। 
 
" बाबूमोशाय हम सब तो रंगमंच की कठपुलियां हैं जिनकी डोर ऊपर वाले के हाथ है , कब कौन कैसे उठेगा कोई नहीं जानता   .................... ( थोड़ी ख़मोशी )  हाहाहाहा। 

            अंतर है फ़िल्मी कहानी में सच्चाई विचलित करती है दिल दर्द से भर जाता है। राजनीति में सत्ता का रावण अट्हास करता है तो आपकी रूह कांप जाती है। कल की बहु आपको नाकों चने चबाबे का सुना हुआ मुहावरा समझा देती है। मुल्तानी भाषा की कहावत है उहो अच्छा जेड़ा कोयनी डिट्ठा। आज़ादी के बाद देश की राजनीति ने शराफ़त का चोला उतार दिया था बीस साल बाद तो बिलकुल नंगी हो गई थी। अपने फ़ैशन बदलते देखा महिलाओं को कपड़े तन ढकने को नहीं दिखाने को पहनते हैं की सोच बदलते देखा। आपको भीतर राजनीति कैसे बदलती रही पता ही नहीं चला आपको जो लगता है जश्न है पार्टी चल रही है वास्तव में कोई किसी को नंगा करने को आतुर है तो कोई खुद अपने को परोस रही होती है बेहूदगी का नाच दिखला कर। कला के नाम पर फ़ैशन की आड़ में वासनाओं का खेल जारी है अब फ़टे हुए कपड़े चीथड़े उधड़े हुए अमीर और आधुनिक होने की निशानी है। सत्ता की राजनीति इन सबसे बढ़कर है ज़मीर बेचने को तैयार हैं सब के सब कीमत लगवाने की होड़ लगी है। देश सेवा जनता की भलाई की अच्छी बातें चुनाव तक ठीक विवाह से पहले लड़की की ससुराल को ही अपना घर सास ससुर माता पिता अदि जैसी बातें मगर सत्ता मिलते नेता और शादी होते ही पड़की असली रंग दिखलाते हैं। दामाद भी तब पता चलता है जो कहता था कितना सच झूठ था , चांद तारे के सपने चुनावी वादे साबित होते हैं और खींचातानी होती है पति पत्नी में कौन भला कौन चालाक का खेल जारी रहता है अनंत काल तक।

       अच्छे दामाद अच्छी बहुरानी किस्मत वालों को नसीब से मिलती है और ख़ुशनसीन थोड़े लोग होते हैं। बदनसीबी अधिकांश के हिस्से में आती है। अच्छे सच्चे ईमानदार राजनेता विरले ही दिखाई देते हैं बेशक मां के पेट से कोई खराब नहीं पैदा होता की तरह राजनीति में आने से पहले कभी सभी शरीफ लोग हुआ करते थे मगर फिर शरीफों ने ही बदमाश लोगों को साथ मिलाने का काम शुरू किया और बदमाश लोगों ने शरीफ लोगों को अपने जैसा बना लिया। शराफत आजकल चेहरे को ढकने को नकाब की तरह है अपने अंदर सभी गुंडागर्दी करने का इरादा छिपाए रहते हैं। सोने में धतूरे से हज़ार गुणा नशा होता है सबने दोहा सुना है सत्ता धन दौलत का नशा उस से लाख करोड़ गुणा अधिक होता है। पैसा ताकत शोहरत और सत्ता का अहंकार वो ताकत हैं जो विवेक को रहने नहीं देते हैं। भले बुरे की परख रहती नहीं है राजनीति के दरबार की रौशनी की चकाचौंध अंधा कर देती है। भाषण ऐसी कला है जिस में मीठा झूठ जनता को बेचकर नेता लोग सत्ता की सीढ़ी चढ़ते हैं और अच्छे भाषण की विशेषता यही है कि नेता जो कहता है हम देखते हैं उसके विपरीत आचरण करता है फिर भी ऐतबार करते हैं झूठी बातों पर जब तक कोई बड़ा कारनामा सामने नहीं आता जिस में उसकी असलियत पता चलती है तो हैरान होते हैं कि जिस ने महिला सुरक्षा की बात से मोहित किया था उसी के हरम में महिलाओं से वासना का गंदा खेल खेला जाता रहा बंदी बनाकर। सच्चे आशिक़ और सच्चे देशभक्त नेता इतिहास की कथा कहानियों की बात रह गई है। अब हम्माम में सभी नंगे हैं।      

अक्टूबर 18, 2019

महत्वहीनता की बात ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया

     महत्वहीनता की बात ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया 

  शुरुआत भले कहीं से करें अब मुझे महसूस होने लगा है तमाम चीज़ें अपनी उपयोगिकता खो चुकी हैं। कल शाम पढ़ा अख़बार में इक तथाकथित सन्यासी स्वामी जी अपने अनुयाईओं को किसी दल को समर्थन देने की बात समझाते हुए कह रहे थे जाति वर्ग से ऊपर उठकर विचार करो। जबकि वही हमेशा उसी जाति वर्ग की रहनुमाई की बात शान से किया करते थे और कुछ लोग आपसी विवाद सुलझाने को उन्हीं को बुलाया करते थे। विषय उनकी बात या किसी एक घटना को लेकर नहीं है बस मिसाल देने को अभी की बात ध्यान आई है। वास्तव में बहुत कुछ अपना महत्व खो चुका है और धर्म सामजिक संस्थाएं आदर्श नैतिक मूल्य से लेकर देश समाज की ज्ञान की बात इसी गति को पा चुके हैं। मुमकिन है ऐसा मुझे अपनी निराशा के कारण लगता हो। 

  आप फेसबुक पर पढ़ रहे हैं ये बात या व्हाट्सएप्प पर पढ़ते हैं कभी अख़बार मैगज़ीन में पढ़ते थे किताब में पढ़ते थे ध्यान से। अब गंभीर चिंतन नहीं करते लोग सरसरी नज़र डालते हैं जो पोस्ट चार लाइनों की होती हैं पढ़ते हैं विस्तार से लिखी पोस्ट को पढ़ना मुसीबत लगता है क्योंकि पढ़ना अब समझने का मकसद से नहीं बस समय बिताने मनोरंजन को करते हैं। मुझे लगता है पढ़ने का मकसद ही खो गया है। आडंबर बनकर रह गई हैं तमाम संस्थाएं भी चुनाव सरकार सरकारी विभाग संस्थाएं संविधान न्याय देशभक्ति समाजसेवा सभी लगता है मकसद कुछ था और बन कुछ और ही गए हैं। 

     धर्म कितने हैं कोई भी वास्तविक मानवता इंसानियत की बात वास्तव में नहीं सिखलाता है। इक होड़ सी लगी है खुद को अच्छा किसी को खराब साबित करने में , कितनी खेदजनक दशा है ये तो धर्म के खिलाफ है। अपने चोला पहन लिया है उपदेशक संत साधु सन्यासी या कोई धर्मगुरु होने का मगर सब को दुनिया छोड़ने की बात लोभ लालच मोह माया त्याग की बात बताने वाले संचय करने में लगे हैं। पढ़ लिख कर या फिर किसी भी तरह बड़े पद पर बैठकर कर्तव्य की बात भूलकर अधिकार और अहंकार की सोच से खुद को जाने क्या समझने लगे हैं जबकि वास्तव में सब की हैसियत समंदर में बूंद की भी नहीं है और ये बात नेताओं अधिकारियों से लेकर लिखने वाले साहित्यकारों से धनवान लोगों ही नहीं कलाजगत की बड़ी हस्तिओं खेल टीवी अख़बार सभी आदर्शवादी बातें करने वालों पर लागू होती है। हर ज़र्रा खुद को आफ़ताब समझता है।  आधुनिकता ने हमको जितना दिया है उस से अधिक मूलयवान था जो छीन लिया है। हमने जो जो भी जिस जिस मकसद को लेकर बनाया था वही अपने ही मकसद के विपरीत आचरण करता लगता है। जिनका उपयोग करना था हम उन्हीं के हाथ का खिलौना बन गए हैं। आदमी आदमी नहीं सामान बन गया है।

         
    बात कभी सीधी तरह समझ नहीं आती , जब कोई सीमा लांघ जाता है तब सोचते हैं ये कोई सही राह दिखाने वाला नहीं है अपने मकसद को सच को झूठ और झूठ को सच बताता है। आखिर कब तक कोई गुरुआई की आड़ लेकर कमाई की मलाई खा सकता है। देर से ही सही सन्यासी की बात कुछ लोगों को बेहद अनुचित लगी है। कभी कभी कायर लोग भी अपने अस्तित्व की खातिर ख़ामोशी तोड़ने लगते हैं और खलनायक को नायक मानने से इनकार कर देते हैं। ऐसा पहले किया होता तो अपने अस्तित्व पर सवाल खड़ा नहीं होता। मगर चालाक लोग अभी भी कुछ न कुछ तरीका अपनाकर उनको मनवा लेंगे ऐसा कुछ समय का गुबार थोड़ी देर में गुज़र जाता है। जब तक अपने अंदर की ताकत को जगाते नहीं और विवेक से काम लेकर अच्छे बुरे को समझ कर हिम्मत नहीं करते सच्चाई का साथ और झूठ का विरोध करने को तब तक बात बनेगी कैसे। अपने जिस के हज़ार ज़ुल्म ख़ामोशी से सहे आज दर्द से कराह उठे जब सूली पर चढ़ाने की नौबत सामने है। खुद हम बुराई को बढ़ने देते हैं जब पहाड़ बनकर खड़ा होता है कोई तब होश आता है। मगर जब चिड़िया खेत चुग गई तो हाथ मलने पछताने से फायदा क्या। सबसे महत्वपूर्ण बात है हम आदर्श को लेकर नहीं अवसर के कारण खड़े होते हैं जबकि सच और झूठ की लड़ाई हर रोज़ लड़नी होती है। इंसाफ की डगर पर चलना है तो मुश्किलें रोज़ आएंगी और सामना करना होगा। अन्यथा आपको विभाजित करने को उनके पास कई चालें हैं आपको हर चाल को समझना भी होगा और टकराना भी होगा समझदारी से। दीवार से सर टकराने से कुछ नहीं हासिल होता आपको ज़ुल्म की दीवार भले फौलाद की हो उस में छेद दरार कमज़ोर जगह देख उस पर वार करना होगा। ये महत्वपूर्ण बात ध्यान रहे।



              

अक्टूबर 15, 2019

दिल्ली का चोर बाज़ार ( आज की राजनीति ) कटाक्ष - डॉ लोक सेतिया

        दिल्ली का चोर बाज़ार ( आज की राजनीति ) 

                                 कटाक्ष - डॉ लोक सेतिया 

  अपने भी नाम तो सुन रखा होगा , खुलेआम लगता था पुरानी दिल्ली में चोर बाज़ार नाम से सब मिलता था सस्ते दाम पर। आज की राजनीति को समझना चाहा तो याद आई कभी जाकर देखा तो नहीं था। आपको अपना बेहद कीमती अधिकार पांच साल बाद उपयोग करना है मगर आपको खरा सोना तो क्या शुद्ध पीतल भी किसी भी दुकान पर नहीं दिखाई दे रहा। हर दल नकली मिलावटी या इधर उधर से सस्ते दाम खरीदे माल को अपना लेबल चिपका कर आपको बेचना नहीं ठगना चाहते हैं। संभल कर चोर बाज़ार में जेबतराश भी बहुत हैं और चेतावनी भी जगह जगह लिखी हुई है जेबकतरों से सावधान।  चोर बाज़ार अब देश भर में फ़ैल चुका है राजनीति का चोखा धंधा इतना बढ़ता गया है कि चोरी और सीनाज़ोरी यही होने लगा है। चलो आपको शुरू से चोर बाज़ार चोरों की टोली और चोरों के सरदार से अली बाबा चालीस चोर की वास्तविककता बताते हैं।

         तब एकाधिकार जैसा था उनकी धाक थी और गांव शहर उन्हीं का नाम बिकता था। विकल्प तलाश करने की हमारी आज भी आदत नहीं है बिना समझे इस नहीं तो उस को चुन लिया मगर हमारी कसौटी पर खरा कोई भी नहीं उतरा कभी। सब एक थैली के चट्टे बट्टे हैं हमने भी हार मान ली उसी गलती का सिला चुका रहे हैं कभी खुद ढूंढते सच्चे लोगों की कमी नहीं थी मगर हमने कोशिश की ही नहीं अच्छे बुरे की पहचान करने की। ऐसे में गंगा उल्टी बहती रही जनता के चुने लोग कहीं नहीं रहे और तथाकथित ऊपरी आलाकमान की मर्ज़ी के लोग मनोनीत होते रहे। नतीजा लोकतंत्र की जगह चाटुकारिता और मनमानी का बोलबाला होने से तानाशाही फलने फूलने लगी थी। भीड़ की आवाज़ में सच किसी को सुनाई नहीं देता था और धीरे धीरे ये रोग देश से राज्य तक फैलता गया और कुछ लोगों ने देश की आज़ादी और लोकतंत्र को अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया था।

       स्थनीय स्तर पर लोगों ने कुछ विकल्प बनाने की कोशिश की तो सत्ता की चाहत ने उनको स्वार्थी बिना विचारधारा के गठबंधन की राजनीति ने भटका दिया और ऐसे दल किसी व्यक्ति की निजि जायदाद बन गए। जो लोग स्वार्थ से साथ जुड़े उनके स्वार्थ समय समय पर बदलते रहे और ऐसा लगने लगा जैसे ये राजनीति काजल की कोठरी है जिस में भीतर जाते ही कालिख लगना नियति है। मगर नहीं देश की चिंता करने वाले लोग अडिग होकर बदलाव की कोशिश करते रहे। एक समय आया जब जनमत ने ख़ामोशी से तानाशाही को हराकर अपना इरादा ज़ाहिर कर दिया था। मगर उसके बाद सत्ता की चाह ने गठबंधन के धर्म को छोड़कर लालच की राह चल कर जनता को देश को फिर अंधी गली में ला दिया। तब से केवल सत्ता की स्वार्थ की राजनीति ने लोकतंत्र के आसमान को ढक दिया है और उम्मीद की कोई किरण नहीं नज़र आती है।

    हम लोग बार बार रौशनी की खोज करते हैं और किसी को सूरज समझ लेते हैं मगर जैसे ही सत्ता के सिंहासन पर बिठाते हैं वो घना अंधकार साबित होता है। जो रौशनी लाने की बात करता है वही अंधेरे को बढ़ाता जाता है और जितने भी चोर लुटेरे जिस भी जगह होते हैं उनको साथी बनाकर देश के खज़ाने की लूट में शामिल कर लेता है। देशभक्ति ईमानदारी का तमगा लगाकर राजनेता खुद अपने लिए सुख साधन हासिल कर शान से रहते हैं और जनता को अधिकार नहीं खैरात बांटने का आडंबर करते हुए और भी बेबस कर देते हैं क्योंकि उनका शासन कायम तभी रह सकता है।

                                     ( अभी बात अधूरी है )
     
     

अक्टूबर 14, 2019

झूठा है तेरा वादा ( नेताओं-आशिक़ों के वादे ) डॉ लोक सेतिया

   झूठा है तेरा वादा ( नेताओं-आशिक़ों के वादे ) डॉ लोक सेतिया 

    जाने किस कवि शायर की रचना है जो पंजाबी में रचना है मैंने उसका वीडियो देखा और शेयर किया था। आज संक्षेप में बता देता हूं। कवि कहता है , रावी नदी से तीन नहरें निकलीं जिन से दो सूखी और तीसरी में कभी पानी नहीं आया सतलुज यमुना नहर की तरह। जो कभी भी नहीं बहती उस में तीन लोग नहाने को गए उन से दो डूब गए और तीसरा खो गया मिला ही नहीं। जो मिला ही नहीं उसको नहर से तीन गाय मिलीं जिनसे दो फंडड़ अर्थात जो बच्चा नहीं दे सके और तीसरी जिसका गर्भ नहीं बच्चे देने को। जिसका गर्भ नहीं उसने जन्म दिया तीन बछड़ों को जिन में दो लंगड़े और तीसरा उठ भी नहीं सकता। जो उठ भी नहीं सकता उसकी कीमत तीन रूपये दो खोटे और एक चलता ही नहीं। जो रुपया चलता नहीं उसको देखने को तीन सुनयारे आये जिन में दो अंधे और एक को कुछ भी दिखाई नहीं देता। जिसको कुछ भी दिखाई नहीं देता उसे तीन घूंसे मारे गए दो निशाना चूक गए और तीसरा लगा ही नहीं। बस चुनावी वादे ऐसे ही हुआ करते हैं जिनसे हासिल कुछ भी नहीं होता है। 

      अब आज की बात एक दल ने सौ वादे किये दूसरे ने दोगुणा वादे गिनवा दिए। पहले भी उन दोनों ने हज़ार वादे किये थे भूल गए उनकी बात अब नहीं करते। गरीबी भूख अन्याय और जाने क्या क्या स्वर्ग धरती पे ले आने की बातें की थीं। मछली को जाल में फंसाने को कांटे में कुछ देते हैं कोई मछली से प्यार नहीं करता है। आशिक़ चांद तारे तोड़ कर आंचल में भरने की बात कहता है शादी के बाद पता चलता है वादा तेरा वादा। औरत या वोटर हमेशा धोखा खाते हैं सपने कभी सच नहीं होते हैं। आज तक कभी किसी नेता ने सत्ता पाकर खुद सब कुछ नहीं हासिल करने की बात नहीं कर दिखाई और पति बनते ही पत्नी को कभी खुश करने को तुम से अच्छा कौन है नहीं समझा है। नेता और पति बेवफ़ा होते ही हैं आप इन पर भरोसा करते हैं तो धोखा खाते हैं। इस विषय को समझना है तो इक पुराना व्यंग्य नेता पति है पत्नी है जनता पढ़ सकते हैं। 

     वादों का इतिहास यही है वो वादा ही नहीं जो निभा दिया गया हो। जो मिल गया मुक्क्दर था वरना कोई आपको खोटी कोड़ी भी नहीं देना चाहता। गज़ब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया तमाम रात कयामत का इंतज़ार किया। कसमें वादे प्यार वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या। कितने गीत कितनी कहानियां कितनी कविताएं ग़ज़ल मुहब्बत की बेवफ़ाई की बात समझाती हैं लोग फिर भी नासमझ बन सोचते हैं अपने को जो मिला वफ़ादार है। खूबसूरत है वफ़ादार नहीं हो सकता लोग समझाते हैं सुंदर सुनहरे ख्वाब सच नहीं होते कभी। हम लोग आदी हैं सपने देख कर यकीन करते हैं किसी दिन सच होगा भगवान छप्पर फाड़ कर देगा मगर कभी किसी गरीब के घर पैसों की बारिश नहीं हुई नेताओं अफ्सरों के घर दफ्तर धनलक्ष्मी बरसात करती है। आप तो शरद पूर्णिमा को खीर बनाकर भोग लगाते रहते हैं दीपावली पर लक्ष्मी अब भी किसी दल के घर जाकर रहेगी। पांच साल में उनका कायापल्ट हो जाता है। वादा नहीं था जो हो जाता है वादे बस वादे रहते हैं उनकी कहानी बदलती नहीं कभी भी।


अक्टूबर 09, 2019

घर की दास्तान ( हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया

          घर की दास्तान ( हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया 

   हुआ करते थे घर गलियां चौबारे और लोग रहते ही नहीं थे जीते भी थे। अधिक पुरानी बात नहीं है आज भी ढूंढने से कहीं उनके बाकी निशान मिल जाते हैं। ये भी उन्हीं से एक घर की कहानी है जो थोड़ी थोड़ी ज़हन में याद है भूली हुई याद जैसे किसी दिन किसी बहाने आती है याद तो लगता है काश फिर से वही ज़माना वही लोग घर मिल सकते। घर था उसमें खिड़की रौशनदान दरवाज़ा हुआ करता था भौर होते ही सूरज की पहली किरण से घर उजला और खुली हवा के झौंके से ताज़गी भरता लगता था। तब कोई पर्दा नहीं लगाया जाता था बाहर से छिपाने को रौशनी भली लगती थी ठंडी मीठी भी अब नकली चकाचौंध बिजली की आंखों को चुभती लगती है। किवाड़ की सांकल बजाने की ज़रूरत कम हुआ करती थी दिन भर गली गांव के अपने बिना कोई ज़रूरत भी चले आते थे , घर पर हो क्या आवाज़ देते तो घर से जवाब आता भीतर चले आओ अपना ही घर है। घर की चौखट लांघते ही आंगन हुआ करता था कोई पेड़ छांव देने को कोई चारपाई बिछी रहती थी। दिन भर छहल पहल रहती थी दोपहर को मिल बैठती थी सखी सहेलियां बड़ी बूढ़ी दादी नानी हंसी ठिठोली और हाल चाल सुख दुःख का सांझा करती हुई। किसकी बिटिया की शादी है कौन बेटी ससुराल से आई है किस की बहु की ख़ुशी की खबर आने वाली है। घर लगता था महका हुआ बाग़ जैसा है खुशबू और चिड़ियों की चहकती हुई आवाज़ें सुनाई देती थी। हर मौसम सुहाना लगता था गर्मी की लू से बारिश की बौछार से सर्दी की ठंडक भी और धूप की तपिश साथ मिलकर गर्माहट को और बढ़ा देती थी।

         ये भी घर हैं जैसे ख़ामोशी छाई रहती है आवाज़ सुनाई नहीं देती इंसान की और बंद खिड़की दरवाज़ा कोई आकर आहट करता है तो ख़ुशी नहीं चिंता होती है बेवक़्त कौन आया है बिना बताये कोई नहीं आता। झांकते हैं कोई अजनबी तो नहीं और सामने के घर में रहने वाला भी पराया अनजान लगता है। बिना मतलब मिलना तो क्या बात करने की फुर्सत नहीं किसी को। आपके पड़ोस में कौन है नहीं नाम भी मालूम उसके दुःख सुख से सरोकार की बात ही क्या की जाये। खुद को अपने घर में बंद कर जैसे कैद में रहते हैं और सभी अकेलेपन के शिकार हैं। जुर्म क्या है किस बात की सज़ा खुद ही झेलते हैं भरोसा किसी को किसी पर नहीं रहा ये कैसा समाज बन गया है। मगर कहने को शहर क्या दुनिया भर से जान पहचान है दिखावे की जब भी कोई अवसर तीज त्यौहार शुभ दिन आता है मिलते हैं फ़ासला भी रखते हैं गले मिलते हैं हाथ मिलाते हैं दिल नहीं मिलते दिल की बात कोई नहीं जानता समझता। घर अब घर नहीं रहे खाली शीशे पत्थर से बनी इमारत में मकान हो गए हैं। ये महानगर की सभ्यता गांव शहर तक पहुंच गई है कभी बड़े शहर जाकर लोग खो जाते थे अब इन मकानों के जंगल में घर खो गए हैं। मुझे चाहिए इक घर चाहे छोटा ही हो अब नहीं चाहत इक बंगला बने न्यारा।
       

लोकनायक जयप्रकाश नारायण ( वास्तविक नायक ) डॉ लोक सेतिया

लोकनायक जयप्रकाश नारायण ( वास्तविक नायक ) डॉ लोक सेतिया


       लेखक ललित गर्ग जी ने कल लिखा है। आजादी के आंदोलन से हमें ऐसे बहुत से नेता मिले जिनके प्रयासों के कारण ही यह देश आज तक टिका हुआ है और उसकी समस्त उपलब्धियां उन्हीं नेताओं की दूरदृष्टि और त्याग का नतीजा है। ऐसे ही नेताओं में जीवनभर संघर्ष करने वाले और इसी संघर्ष की आग में तपकर कुंदन की तरह दमकते हुए समाज के सामने आदर्श बन जाने वाले प्रेरणास्रोत थे लोकनायक जयप्रकाश नारायण, जो अपने त्यागमय जीवन के कारण मृत्यु से पहले ही प्रातः स्मरणीय बन गए थे। अपने जीवन में संतों जैसा प्रभामंडल केवल दो नेताओं ने प्राप्त किया। एक महात्मा गांधी थे तो दूसरे जयप्रकाश नारायण। इसलिए जब सक्रिय राजनीति से दूर रहने के बाद वे 1974 में ‘सिंहासन खाली करो जनता आती है’ के नारे के साथ वे मैदान में उतरे तो सारा देश उनके पीछे चल पड़ा, जैसे किसी संत महात्मा के पीछे चल रहा हो।


     11 अक्टूबर, 1902 को जन्मे जयप्रकाश नारायण भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता थे। वे समाज-सेवक थे, जिन्हें ‘लोकनायक’ के नाम से भी जाना जाता है। 1999 में उन्हें मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें समाजसेवा के लिए 1965 में मैगससे पुरस्कार प्रदान किया गया था। पटना के हवाई अड्डे का नाम उनके नाम पर रखा गया है। दिल्ली सरकार का सबसे बड़ा अस्पताल ‘लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल’ भी उनके नाम पर है।

       लोकनायक जयप्रकाशजी की समस्त जीवन यात्रा संघर्ष तथा साधना से भरपूर रही। उसमें अनेक पड़ाव आए, उन्होंने भारतीय राजनीति को ही नहीं बल्कि आम जनजीवन को एक नई दिशा दी, नए मानक गढ़े। जैसे - भौतिकवाद से अध्यात्म, राजनीति से सामाजिक कार्य तथा जबरन सामाजिक सुधार से व्यक्तिगत दिमागों में परिवर्तन। वे विदेशी सत्ता से देशी सत्ता, देशी सत्ता से व्यवस्था, व्यवस्था से व्यक्ति में परिवर्तन और व्यक्ति में परिवर्तन से नैतिकता के पक्षधर थे। वे समूचे भारत में ग्राम स्वराज्य का सपना देखते थे और उसे आकार देने के लिए अथक प्रयत्न भी किए। उनका संपूर्ण जीवन भारतीय समाज की समस्याओं के समाधानों के लिए प्रकट हुआ, एक अवतार की तरह, एक मसीहा की तरह। वे भारतीय राजनीति में सत्ता की कीचड़ में केवल सेवा के कमल कहलाने में विश्वास रखते थे। उन्होंने भारतीय समाज के लिए बहुत कुछ किया लेकिन सार्वजनिक जीवन में जिन मूल्यों की स्थापना वे करना चाहते थे, वे मूल्य बहुत हद तक देश की राजनीतिक पार्टियों को स्वीकार्य नहीं थे। क्योंकि ये मूल्य राजनीति के तत्कालीन ढांचे को चुनौती देने के साथ-साथ स्वार्थ एवं पदलोलुपता की स्थितियों को समाप्त करने के पक्षधर थे, राष्ट्रीयता की भावना एवं नैतिकता की स्थापना उनका लक्ष्य था, राजनीति को वे सेवा का माध्यम बनाना चाहते थे।

       लोकनायक जयप्रकाशजी की जीवन की विशेषताएं और उनके व्यक्तित्व के आदर्श कुछ विलक्षण और अद्भुत हैं जिनके कारण से वे भारतीय राजनीति के नायकों में अलग स्थान रखते हैं। उनका सबसे बड़ा आदर्श था जिसने भारतीय जनजीवन को गहराई से प्रेरित किया, वह था कि उनमें सत्ता की लिप्सा नहीं थी, मोह नहीं था, वे खुद को सत्ता से दूर रखकर देशहित में सहमति की तलाश करते रहे और यही एक देशभक्त की त्रासदी भी रही थी। वे कुशल राजनीतिज्ञ भले ही न हो किन्तु राजनीति की उन्नत दिशाओं के पक्षधर थे, प्रेरणास्रोत थे। वे देश की राजनीति की भावी दिशाओं को बड़ी गहराई से महसूस करते थे। यही कारण है कि राजनीति में शुचिता एवं पवित्रता की निरंतर वकालत करते रहे।

              महात्मा गांधी जयप्रकाश की साहस और देशभक्ति के प्रशंसक थे। उनका हजारीबाग जेल से भागना काफी चर्चित रहा और इसके कारण से वे असंख्य युवकों के सम्राट बन चुके थे। वे अत्यंत भावुक थे लेकिन महान क्रांतिकारी भी थे। वे संयम, अनुशासन और मर्यादा के पक्षधर थे। इसलिए कभी भी मर्यादा की सीमा का उल्लंघन नहीं किया। विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने अपना अध्ययन नहीं छोड़ा और आर्थिक तंगी ने भी उनका मनोबल नहीं तोड़ा। यह उनके किसी भी कार्य की प्रतिबद्धता को ही निरूपित करता था, उनके दृढ़ विश्वास को परिलक्षित करता है।

             मैंने जेपी को नहीं देखा लेकिन उनकी प्रेरणाएं मेरे पारिवारिक परिवेश की आधारभित्ति रही है। मेरी माताजी स्व. सत्यभामा गर्ग उनकी अनन्य सेविका थी। राजस्थान में होने वाले जेपी के कार्यक्रमों को वे संचालित किया करती थी, उनके व्यक्तिगत व्यवस्था में जुड़े होने के कारण उनके आदर्श एवं प्रेरणाएं हमारे परिवार का हिस्सा थे। मेरे आध्यात्मिक गुरु आचार्य श्री तुलसी के जीवन से जुड़ेे एक बड़े विरोधपूर्ण वातावरण के समाधान में भी जयप्रकाश का अमूल्य योगदान है। उनकी चर्चित पुस्तक अग्निपरीक्षा को लेकर जब देश भर में दंगें भड़के, तो जेपी के आह्वान से ही शांत हुए। जेपी के कहने पर आचार्य तुलसी ने अपनी यह पुस्तक भी वापस ले ली।

          जयप्रकाश नारायण को 1970 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है। इंदि‍रा गांधी को पदच्युत करने के लिए उन्होंने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ नामक आंदोलन चलाया। लोकनायक ने कहा कि संपूर्ण क्रांति में सात क्रांतियां शामिल हैं- राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति। इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रांति होती है। संपूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। जयप्रकाश नारायण की हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। बिहार से उठी संपूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी थी। जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे। लालमुनि चैबे, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान या फिर सुशील मोदी, आज के सारे नेता उसी छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का हिस्सा थे।

         देश में आजादी की लड़ाई से लेकर वर्ष 1977 तक तमाम आंदोलनों की मशाल थामने वाले जेपी यानी जयप्रकाश नारायण का नाम देश के ऐसे शख्स के रूप में उभरता है जिन्होंने अपने विचारों, दर्शन तथा व्यक्तित्व से देश की दिशा तय की थी। उनका नाम लेते ही एक साथ उनके बारे में लोगों के मन में कई छवियां उभरती हैं। लोकनायक के शब्द को असलियत में चरितार्थ करने वाले जयप्रकाश नारायण अत्यंत समर्पित जननायक और मानवतावादी चिंतक तो थे ही इसके साथ-साथ उनकी छवि अत्यंत शालीन और मर्यादित सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति की भी है। उनका समाजवाद का नारा आज भी हर तरफ गूंज रहा है। भले ही उनके नारे पर राजनीति करने वाले उनके सिद्धान्तों को भूल रहे हों, क्योंकि उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का नारा एवं आन्दोलन जिन उद्देश्यों एवं बुराइयों को समाप्त करने के लिये किया था, वे सारी बुराइयां इन राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं में व्याप्त है। संपूर्ण क्रान्ति के आह्वान में उन्होंने कहा था कि ‘भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना, आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं जब संपूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रान्ति, ’सम्पूर्ण क्रान्ति’ आवश्यक है।’ इसलिए आज एक नयी सम्पूर्ण क्रांति की जरूरत है। यह क्रांति व्यक्ति सुधार से प्रारंभ होकर व्यवस्था सुधार पर केन्द्रित हो। कुर्सी पर कोई भी बैठे, लेकिन मूल्य प्रतिष्ठापित होने जरूरी है। ऐसा करके ही हम एक महान लोकनायक को सच्ची श्रद्धांजलि दे पाएंगे।

                         ( हिंदी न्यूज़ वेद दुनिया से आभार सहित )

 
          मैं खुद को बेहद खुशनसीब समझता हूं कि मैंने ऐसे महान नायक को देखा सुना और इसिहास के उस पल का  गवाह बना जिस दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी जी ने जनसमूह को संबोधित किया था और जिस के आधार बनाया गया था इंदिरा गांधी द्वारा आपात्काल घोषित करने को। मैंने 11 ऑक्टूबर 2013 को छह साल पहले जो लेख लिखा था आज फिर से दोहराना चाहता हूं।

     जन नायक श्री जय प्रकाश नारायण जी और आपात्काल   ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

        11 अक्टूबर जब भी आता है मुझे हैरानी होती है सभी टीवी चैनेल अमिताभ बच्चन जी का जन्म दिन मना रहे होते हैं उनको नायक नहीं महानायक सदी का घोषित किया जाता है। कल इक महान लेखक की बात पढ़ी थी , उनका कहना था नायक वो होते हैं जिनको सही राह मालूम होती है , वो खुद सही मार्ग पर चलते हैं और लोगों को भी साथ रखते हैं। जे पी जैसे वास्तविक नायक हमें याद नहीं रहते और फ़िल्मी अभिनेता को हम नायक बता उसका गुणगान करते हैं। इस से समझ सकते हैं कि हम मानसिक तौर पर कितने खोखले हो गए हैं। शायद हमें आज़ादी से पहले का तो क्या आज़ादी के बाद तक का इतिहास याद नहीं है। भूल गये हैं कि किसी भी नेता का इस कदर महिमामंडन नहीं किया जाना चाहिये कि वो खुद को संविधान से ऊपर समझने लगे। आज भी हम वही गुलामी की मानसिकता के शिकार हैं और किसी न किसी को खुदा बनाकर उसकी परस्तिश करने में लाज अनुभव नहीं करते। ऐसे कितने खुदा लोगों ने तराश लिये हैं जो उनकी इसी बात का उपयोग पैसा कमाने और अमीर बनने को कर रहे हैं। उनका धन दौलत का मोह बढ़ता ही जाता है , शास्त्र बताते हैं जिस के पास सभी कुछ हो फिर भी और पाने की हवस हो वही सब से दरिद्र होता है। लेकिन हम जे पी जैसे जननायक को भूल जाते हैं जिसने कभी किसी पद किसी ओहदे को नहीं स्वीकार किया और हमेशा जनता की बात की। और जिस ने देश समाज को कुछ नहीं दिया जो भी किया खुद अपने लिए ही किया उसको हम भगवान तक बताने में संकोच नहीं करते। विशेष कर मीडिया को तो समझना चाहिए लोकतंत्र में चाटुकारिता कितनी खतरनाक होती है।
                                    
             पच्चीस  जून 1 9 7 5 को जयप्रकाश नारायण जी के भाषण को आधार बना आपात्काल की घोषणा की गई थी। मैं उस दिन उनका भाषण सुनने वालों में शामिल था। आज वो लोग सत्ता पर आसीन हैं जो कभी आपात्काल में भूमिगत थे , आज देखते हैं वही खुद तानाशाही ढंग से आचरण करते हैं और मीडिया तब भी उनकी महिमा का गुणगान करता नज़र आता है। कोई उनको याद दिलाये कभी आपको किसी सत्ताधारी की तानाशाही लोकतंत्र विरोधी लगती थी , आज खुद दोहराते हैं वही सब। मुझे तो आज तक ये समझ नहीं आ सका कि इस अभिनेता ने देश व समाज को क्या दिया है। मगर हमारी मानसिकता बन गई है सफलता को , पैसे कमाने को महान समझने की। कोई के बी से से जीत लाये धन तो शहर वाले उसको सम्मानित करने लगते हैं। ये नहीं सोचते कि ऐसा करना कितना उचित या अनुचित है। सब जानते हैं कि ये धन जनता से आता है एस एम एस से और विज्ञापनों से। न चैनेल घर से देता है न ही अमिताभ जी , बल्कि दोनों की कमाई होती है ऐसा करके।

    जे पी जी जैसे लोग कभी कभी मिलते हैं। आज आप अन्ना हजारे जी को जानते हैं भ्रष्टाचार का विरोध करने के लिये चलाये आन्दोलन के कारण। 1975  में जो आन्दोलन देश भर में जे पी जी ने चलाया था वो अपने आप में एक मिसाल है। इंदिरा गाँधी जिनको बहुत ही साहस वाली महिला माना जाता है डर गई थी उनके आन्दोलन से और आपातकाल की घोषणा कर दी थी। 19  महीने तक देश का लोकतंत्र कैद था एक व्यक्ति की कुर्सी की चाहत के कारण। कांग्रेस लाख चाहे ये काला दाग मिट नहीं सकता उसके दामन पर लगा हुआ। ये अलग बात है कि  उस आन्दोलन में ऐसे भी लोग शामिल हो गये थे जिनको आगे जा कर खुद सत्ता प्राप्त कर वही सब ही करना था। लालू यादव और मुलायम सिंह जैसे लोग होते हैं जिनको अपने स्वार्थ सिद्ध करने होते हैं। वे तब भ्रष्टाचार और परिवारवाद का विरोध कर रहे थे लेकिन आज खुद वही करने लगे हैं।
    मगर जे पी जी का सम्पूर्ण क्रांति का ध्येय तब भी सही था और आज भी उसकी ही ज़रूरत है। शायद आज और अधिक ज़रूरत है क्योंकि तब केवल बिहार और दिल्ली की सरकार की बात थी जब कि आज हर शाख पे उल्लू बैठा है। मगर आज के नवयुवकों को ये बताना बेहद ज़रूरी है कि नायक वो होते हैं जो पद को कुर्सी को ठोकर मरते हैं उसूलों की खातिर। देश के सर्वोच्च पद के लिए इनकार कर दिया था जयप्रकाश नरायण जी ने।

         आज है कोई जो सत्ता को नहीं जनहित को महत्व दे। आज उनको याद किया जाना चाहिए , उनसे सबक सीख सकते हैं आम आदमी पार्टी के लोग कि वही सब फिर न दोहराया जा सके। भ्रष्टाचार के विरोध की बात कर सत्ता पा कर खुद और ज्यादा भ्रष्टाचार करने लगें। इधर लोग दो लोगों को भगवान कहने का काम करते हैं अक्सर। लेकिन उन दोनों तथाकथित भगवानों की  दौलत की चाहत थमने का ना म ही नहीं ले रही। क्या भगवान ऐसे होते हैं , भगवान देते हैं सब को , अपने लिए कुछ नहीं चाहिए उसको। मुझे किसी शायर के शेर याद आ रहे हैं।

इस कदर कोई बड़ा हो हमें मंज़ूर नहीं
कोई बन्दों में खुदा हो हमें मंज़ूर नहीं।

रौशनी छीन के घर घर से चिरागों की अगर
चाँद बस्ती में उगा हो हमें मंज़ूर नहीं।

मुस्कुराते हुए कलियों को मसलते जाना
आपकी एक अदा हो हमें मंज़ूर नहीं। 
                               

        अब आज की बात , आज हालात आपात्काल जैसे हैं शायद उस से भी खराब हैं मगर खेद की बात है आज के शासक उनका नाम भी नहीं लेना चाहते जबकि उनको पता है उन में से बहुत नेता आज राजनीति में हैं तो उन्हीं के साये में बढ़े कभी आंदोलन में थे। क्योंकि ये सब उन के आदर्शों की बात करने का साहस नहीं कर सकते उनका अनुसरण करना तो दूर की बात है। इनकी सुविधा पटेल के बूत बनाने की है जिन से वास्तव में इनका कोई मतलब कभी नहीं रहा है जैसे भगवान राम के आदर्श इन लोगों को नहीं मालूम मगर उनके नाम की राजनीति इनको सत्ता की सीढ़ी लगती है। राम को सत्ता का मोह नहीं था और हमेशा वंचित पीड़ित लोगों का साथ चुना था जबकि तथाकथित रामभक्त कोई आदर्श नहीं मानते और सत्ता का त्याग करने की मार्ग उनके बस की बात नहीं है जैसे ही इनसे सत्ता छुट्टी है ये बदलते देर नहीं लगाते हैं। ये बेहद खेद की बात है कि लोग ऐसे वास्तविक आदर्श पुरुषों के बारे कम जानते हैं जिनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। जो लोग ईमानदारी की बात करते हैं उनको कभी सत्येंद्र दुबे जैसे अधिकारी याद नहीं आते जिनकी हत्या तीस साल की आयु में 27 नवंबर 2003 को उन्हीं लोगों ने कर दी जिनकी शिकायत नेशनल हाईवे के अधिकारी रहते उन्होंने पीएमओ को की थी भरषटाचार को लेकर। आज भी ये खनन माफिया और अवैध कब्ज़े करने वाले लोगों को दल में शामिल कर उम्मीदवार बनाते हैं और ईमानदार सरकार का खुद ही तमगा लगाए फिरते हैं।

     11 ऑक्टूबर दो दिन बाद जेपी का जन्म दिन है मगर शायद ही कोई सत्ताधारी उनकी बात करेगा। टीवी चैनल भी उस दिन वास्तविक जननायक की नहीं फ़िल्मी तथाकथित महानायक की बात करेंगे बिना विचारे कि उसने देश समाज को क्या दिया है। शायद मतलबी राजनेता नहीं चाहते हम लोग वास्तविक आदर्श के पालन की बात को समझें भी , उनको केवल आडंबर करना है ऐसे लोगों के अनुयाई होने की बात कह कर अपने मकसद सिद्ध करने को। जेपी उनके काम के नहीं रहे अब जब थी ज़रूरत तब साथ थे और उनके मकसद को छोड़ अपनी राजनीति करते समय नहीं लगा था शायद लोग जल्दी इतिहास को भूल जाते हैं। मगर जो बात सच है वो ये है कि कुछ लोगों की महत्वआकांक्षा ने जेपी के सपने को चूर नहीं किया होता तो देश आज किसे और ऊंचाई पर खड़ा होता जिस में वास्तविक सत्ता जनता के पास होती। 





अक्टूबर 07, 2019

दिल लगता नहीं नकली नज़ारों में ( हाल-ए-दिल ) डॉ लोक सेतिया

 दिल लगता नहीं नकली नज़ारों में ( हाल-ए-दिल ) डॉ लोक सेतिया

   आज लिखने से पहले जानता हूं किसी को फुर्सत ही नहीं इतनी जो किसी और की बात को पढ़े मेरी हो किसी की कोई नहीं पढ़ता बस इक नज़र देख कर लाइक कमेंट औपचारिकता सी है पढ़ भी लिया तो समझना ज़रूरी नहीं और कोई समझ कर भी मुझे क्या सोच लेता है। फिर लिखने का मकसद बस दिल की तसल्ली या फिर खाली समय बिताना खुद से खुद की बात कहना। मगर ऐसा क्यों है भरी दुनिया में आस पास ही नहीं अब सोशल मीडिया ने विश्व को मुट्ठी में भरने की बात कर दी है फिर भी शायद मेरी तरह कितने और लोग भीड़ में अकेले घबराते हैं अजनबी सी लगती है मुझे ये दुनिया। कोई भी एक दोस्त तक नहीं जिसको अपना कह भी सकते हों और अपनापन का एहसास भी होता हो। जान पहचान हर किसी से है बाहरी दिखावे की भीतर से हम खालीपन लिए भटकते हैं। ये मेरी दुनिया नहीं है मुझे नहीं चाहिए ये झूठ फरेब और नकली नज़रों की दुनिया , आज याद आ रही है छोटी सी इक प्यारी सी दुनिया हुआ करती थी कभी मेरे सपनों की और शायद यहीं कहीं हुआ करता था उसके होने का एहसास भी दिल को अक्सर। मिल जाते थे ये कभी मिले थे कुछ लोग जो जैसे भी थे बहुत अच्छे थे मगर खो गए वक़्त की आंधी उन्हें जाने कहां उड़ा ले गई। अब जो दुनिया है मुझे अजीब लगती है अपने देखा है कभी इसको कैसी बन गई है आपकी दुनिया। 

      लगते हैं अमीर लोग मगर वास्तव में भिखारी हैं मांगते हैं दिल भरता नहीं चाहे जितना भी पास हो। क्या लोग होते थे थोड़ा भी पास होता था तो उसी में खुश रहते थे इतना ही नहीं चाहते थे कुछ बांट देना औरों को भी जिनके पास नहीं होता था कुछ भी। अब सभी पागल हैं अधिक हासिल करने को किसी भी सीमा तक जाने को राज़ी हैं। ख़ास होने के बाद दौलत शोहरत ताकत की हवस बढ़ती जाती है और बाहर से ऊंचे लगने वाले खुद अपने भीतर से डरे सहमे लगते हैं खो जाने का डर उनको और पाने को उकसाता है। अमीरी से दिल नहीं भरता बल्कि गरीबी का एहसास बढ़ता जाता है करोड़ों भी कम लगते हैं। और दौलत ताकत शोहरत हासिल करने को अपने आप को खो देते हैं। जिसे भी देखते हैं राजनीति की तरफ आकर्षित है ताकि ऐशो आराम और तमाम सत्ता के साधन पाकर देश के खज़ाने जनता के धन से खिलवाड़ कर सके। राजनीति का पतन इस हद तक गिर गया है कि राजनेताओं और शासन करने वाले अधिकारियों को कर्तव्य की बात क्या ईमानदारी की बात क्या मानवता तक नहीं याद रहती है। जिसे देखो देश सेवा जनता की भलाई की बात कह कर अपनी हवस मिटाना चाहता है। हम जिनको चुनते हैं जानते हैं उनका मकसद कोई देशभक्ति नहीं है जनकल्याण की भावना होती ही नहीं स्वार्थ ही उनका सब कुछ है। देख कर समझ कर भी खुद ही केवल अपने नहीं समाज और देश के हित की अनदेखी करते हैं और ऐसे गलत लोगों को सांसद विधायक बनाने का अपराध करते हैं देश के खिलाफ बिना विचारे। 

       मुझे नहीं भाती है ये दुनिया जो नज़र आती है खूबसूरत है चमकीली है मगर वास्तव में बड़ी डरावनी भयानक तस्वीर है इसकी जो अपने पीछे घना अंधकार समेटे हुए है। लोग शानदार लिबास और आलीशान घरों में रहते हैं मगर उनका मन और सोच घटिया और निचले स्तर की मतलबपरस्त होती है। रिश्ते नाते झूठे दिखावे के और केवल स्वार्थ को देखने वाले बन गए हैं। हमने जिनको नायक कहना शुरू कर दिया है उनका सच बेहद अजीब है उनका नैतिकता से कोई वास्ता नहीं है और वो देश समाज को कुछ भी देते नहीं हैं। आपने देखा होगा ख़ास वीवीआईपी लोगों को गांव की गरीबी की पुरानी यादों पर नम आंखे पौंछते हुए मगर क्या उनको अपने देश राज्य को तो क्या गांव से लगाव होता तो अपने पास दौलत का अंबार होते अपने उन बचपन के साथी लोगों की बदहाली मिटाने को कुछ भी नहीं कर सकते थे। कैमरे पर झूठा प्यार अपनापन दिखावा ही नहीं ये भी शोहरत पाने का ढंग बन गया है। आपको कई लोगों के भलाई और गरीबों की सहायता को किसी एनजीओ या संस्था की पता होगी जो कुछ उसी तरह है जैसे कोई डाकू लूट का कुछ हिस्सा अपने अपराधबोध मिटाने को दान आदि पर खर्च करते थे। कोई नहीं पूछता उनके पास हज़ारों करोड़ कैसे आते हैं काश सोचो तो समझोगे कि ये पैसा छल कपट धोखा ही नहीं कभी तो आपको ज़हर बेच कर भी हासिल किया होता है। हैरानी हुई होगी तो समझ लो , उनको विज्ञापन से करोड़ों मिले आपको खराब सामान बेचने की लूट के मुनाफे से। उनको पता होता है जिस को खरीदने की सलाह देते हैं खुद कभी उपयोग नहीं करते हैं। 

 ऐसा ही सरकार का भी हाल है विज्ञापन पर जितना धन बर्बाद किया जाता है अपने स्वार्थ की खातिर और जनता को मूर्ख बनाने को उसी से कितना कुछ जनता का कल्याण किया जा सकता था। मगर जिनको खुद अपने रहन सहन विलासिता पूर्वक शान से रहने पर रोज़ लाखों करोड़ों खर्च करना उचित लगता है उन से देश की बदहाली मिटाने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। देशभक्ति या देशसेवा अपने लिए सब हासिल करना नहीं जो भी पास है देश समाज को देने को कहते हैं। खुद को महान कहना या समझना वास्तव में सबसे अधिक छोटेपन का सबूत है। अपने जिनको बनाया आपके दिए कर से कुछ भी कर दावा करते हैं हमने ये किया है ये कितनी बेशर्मी की बात है। कोई और लोग हुआ करते थे जिनको नैतिकता का पास था और जो समझते थे उनको अपने नहीं देश समाज की चिंता पहले करनी है सत्ता मकसद नहीं था साधन था देश की समाज को आगे बढ़ाने का। अब देश समाज को पीछे धकेल कर दावा किया जाता है बड़े काम किया है। शायद फिर से विचार करना होगा कि भूल किस से हुई है कैसे हमने झूठे स्वार्थी और आडंबर करने वाले लोगों को नायक महानायक घोषित करने का कार्य कर अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने की बात की है। आपको लगता होगा मुझे ये समाज जीने के लायक लगता नहीं है। ये मेरी कल्पना का समाज नहीं है जिस में सभी को जीने का अधिकार होता समानता की न्याय की बात होती , यहां तो सब अपने स्वार्थ में पागल हैं।


अक्टूबर 04, 2019

जम्हूरियत की हक़ीक़त ( चुनाव की बात ) डॉ लोक सेतिया

   जम्हूरियत की हक़ीक़त ( चुनाव की बात ) डॉ लोक सेतिया 

      असली कहानी कुछ और ही है। आपको अपनी पसंद से कोई विधायक सांसद नहीं चुनना है। सच तो ये है कि आपको बस इक दिन की बादशाही का आनंद उठाना है मगर आपकी पसंद नहीं होने होने का कोई अर्थ नहीं है। मान लो आधे से अधिक लोग नोटा पर उंगली दबा आएं तब भी जो खड़े हैं उन्हीं से जिसे अधिक मत मिले विजयी घोषित किया जाएगा जबकि मतलब होगा जनता किसी को नहीं चुनना चाहती है। शायर को भी इस बात का पता नहीं था जब उसने कहा था " जम्हूरियत वो तर्ज़े हुकूमत है कि जिस में , बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते "। जाँनिसार अख़्तर कहते हैं " वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं , जो इश्क़ में तालिब नहीं मतलूब रहे हैं "। अर्थात मनोनित लोग ही शासक हैं आजकल और हम समझते हैं हम चुनते हैं। 

    हम अभी खेल का इंतज़ार कर रहे हैं जबकि खेल तो कभी का शुरू हो चुका है। सत्ता के खिलाड़ी बहुत पहले अपनी तैयारी करने लगते हैं बिसात बिछने से पहले ही अपनी गोटियां अपने पासे फैंकने की शुरुआत होने लगती है। बंदर बिल्लियों को बराबर बांटने को पलड़े पर तोलता है बिल्लियां बंदर की जय जयकार करती रहती हैं। कोई केंकड़ा उस पलड़े से इस पलड़े की तरफ आने को बेताब है जिधर पलड़ा झुका हुआ है। नेता दल बदलते हैं देख कर पलड़ा किस का झुका लगता है जनता खामोश है मगर जनता की राय क्या होगी ये कोई और लोग हैं जो समझने का दावा करते हैं। फिर जनता को समझाते हैं उनकी बताई राय को मानना ही जनता की भलाई है। चुनाव घोषित होने से पहले नेता अपनी सुविधा से किसी दल के बड़े नेता की करीबी हासिल करने लगते हैं ये सोचकर कि उसी की मर्ज़ी से दल की टिकट की दावेदारी पक्की हो जाएगी। मगर पता नहीं चलता कब किधर से कोई और आकर निर्णय करने का अधिकार पा जाता है। चुनाव घोषित होते होते सब का गणित बदल जाता है और फिर से हिसाब समझना पड़ता है। 

     पर्दे के सामने कुछ भी नहीं नज़र आता पीछे हलचल होती रहती है। सौदेबाज़ी से लेकर चापलूसी तक सब आज़माने के बाद साक्षात्कार का ढकोसला होता है। सवाल आसान जवाब कठिन होते हैं उलझाने की कोशिश की जाती है। धनबल बाहुबल ही नहीं जातीय समीकरण से लेकर जीतने को कुछ भी करने नियम कानून संविधान की परवाह नहीं करने की बात अनुभव और झूठ को सच कहने की कला जैसे गुण परखे जाते हैं। चंदा अलग बात है और टिकट की बोली गोपनीय अपनी जगह ऐसे कितने काम साथ साथ साधने होते हैं। आपको आदत है अच्छा खराब नहीं देखते चोर डाकू जैसा भी हो अपने किसी दल को मत देना है किसी धर्म या जातीयता की बात ध्यान रखनी है अपने पांव पर खुद कुल्हाड़ी मारनी है फिर चिल्लाना है हाय मर गए हम लोग। जब सभी उम्मीदवार सामने खड़े हो गए तब हम उनकी वास्तविकता को भूलकर इस बात की चर्चा करते हैं कि जीतना तो उसी को है जिसका शोर है तो हम उसी को वोट डालते हैं मतलब ये कि हम कितने बड़े नासमझ हैं जो चुनाव से पहले निर्णय कर लेते हैं कि हमारे वोट की कोई कीमत नहीं है और हम वोट नहीं भी डालते या किसी को देते तब भी जिसे जीतना है वो जीत जाएगा। जब हम खुद जम्हूरियत की ताकत को नहीं समझते और आज़माते तो फिर देश की हालत का दोष किसी और को देने से कुछ भी कैसे हो सकता है। 

        कभी सोचा है ये दलीय व्यवस्था क्या है शायद हमने विचार ही नहीं किया कि जब अपना विधायक या सांसद हमने चुनना है जो हमारे लिए काम करे हमारी बात कहे सुने तब किस को चुनाव लड़वाना ये कोई और कैसे निर्णय कर सकता है। संविधान किसी दलीय व्यवस्था की बात नहीं करता है और चुनाव आयोग का राजनैतिक दलों को महत्व देना नागरिक के समानता के बुनियादी अधिकार में हस्ताक्षेप है। ये कुछ लोगों का संगठित होकर अधिकांश लोगों को निरीह बेबस बनाकर सत्ता उन्हीं के हाथों में रखने का उपाय है। यकीन करिये इस व्यवस्था से आम जनता का शासन कभी नहीं स्थापित किया जा सकेगा। चोर चोर मौसेरे भाई की तरह उनका गठबंधन मनमानी कर सकता है और करता रहता है। कब कौन किधर होता है आप जो चुनकर भेजते हैं नहीं समझ सकते न जानते हैं और रोक भी नहीं सकते। क्या हमने चुनते समय खुद को उनके पास गिरवी रख दिया था , उनका आचरण यही दर्शाता है। वास्तव में देश की जनता को सही मायने में आज़ादी नहीं मिली है बस विदेशी शासक चले गए और अपने देश के कुछ मुट्ठी भर लोग सेवक का चोला पहन कर शासन करने लग गए हैं। अन्यथा हमारे निर्वाचित विधायक सांसद शाही अंदाज़ से कैसे रहते जब देश के असली मालिक आम नागरिक बदहाली और गरीबी में घुट घुट कर जीने को विवश हैं। नहीं ऐसी आज़ादी की कल्पना किसी भी देश की आज़ादी की जंग लड़ने वाले शहीद ने नहीं की थी , उनके नाम लेकर सत्ता और स्वार्थ के भूखे लोगों ने अपने लिए सब छीनने का काम किया है। कभी कभी तो लगता है ये आज़ादी इक छल है धोखा है और आज भी हम गुलामी भरा जीवन जीने को विवश हैं। केवल पांच साल बाद चुनाव में सत्ता बदलने से हासिल कुछ भी नहीं होता है। बल्कि अब तो हालत और भी खराब है क्योंकि अपनी ही चुनी हुई सरकार की गलती या मनमानी करने पर हम विरोध तो क्या आलोचना भी करते हैं तो भयभीत हो कर क्योंकि सत्ताधारी दल और शासन करने वाले सच कहने को देशहित विरोधी घोषित करने में संकोच नहीं करते हैं।

   देश की जनता से निर्वाचित होने से मिले अधिकारों का जनता के खिलाफ ही इस्तेमाल किया जाता है और समझाया जाता है कि जनादेश मिलने से उनकी हर बात उचित है जबकि वास्तव में सही जनादेश का अर्थ अगर देश की जनता का बहुमत समझा जाये तो अधिकांश सत्ता पचास फीसदी से कम वोट पाने वालों को मिलती रही है और दलीय व्यवस्था में विभाजित बहुमत सत्ता से बाहर रहता है। ये पहले भी हुआ करता था लेकिन इक सोच हुआ करती थी कि विपक्ष की अपनी अहमियत है मगर इधर कुछ वर्षों से सत्ता पर आसीन लोग विपक्ष को खत्म करने की बात खुले आम कहते हैं जिस का मतलब ही तानाशाही व्यवस्था की ओर जाना है। हम खामोश रहकर ये सब कब तक देख सकते हैं। अभी इतना ही और आखिर में मेरी इक ग़ज़ल।

  खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई -लोक सेतिया "तनहा"

खामोश रहना जब हमारी एक आदत बन गई
हर सांस पर पहरे लगाना सब की चाहत बन गई।

इंसान की कीमत नहीं सिक्कों के इस बाज़ार में
सामान दुनिया का सभी की अब ज़रूरत बन गई।

बेनाम खत लिक्खे हुए कितने छुपा कर रख दिये
वो शख्स जाने कब मिले जिसकी अमानत बन गई।

मतलूब सब हाकिम बने तालिब नहीं कोई यहां
कैसे बताएं अब तुम्हें ऐसी सियासत बन गई।

( मतलूब=मनोनित। तालिब=निर्वाचित )

अनमोल रख कर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में
देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई।

सब दर्द बन जाते ग़ज़ल , खुशियां बनीं कविता नई
मैंने कहानी जब लिखी पैग़ामे-उल्फ़त बन गई।

लिखता रहा बेबाक सच " तनहा " ज़माना कह रहा
ऐसे  किसी की ज़िंदगी कैसी इबादत बन गई।   
 

 

नेता की विशेषताएं ( अधर्म-कथाएं ) डॉ लोक सेतिया

      नेता की विशेषताएं ( अधर्म-कथाएं ) डॉ लोक सेतिया 

   लिखने वाले को सच की कलम ईमान की स्याही को फेंक देना होता है। झूठ के देवता की वंदना से नेता की हर कहानी को कथा कहना होता है। नेता की असलियत आसानी से सामने नहीं आती है जो होता नहीं दिखाई देने देता और जो कदापि नहीं वो नज़र आने को कुछ भी करता है। जनता को आप अबला नारी समझ सकते हैं और नेता उस शख़्स को समझना होगा जो उस पर बुरी नज़र रखता है उस बेचारी अबला नारी को भरोसा दिलाता रहता है कि मुझे तुझसे प्यार है और बिना किसी स्वार्थ के है। मुझे चिंता है कोई तुम्हारी अस्मत को नहीं लूट जाये मुझे रत्ती भर भी इच्छा नहीं है तुम्हें खराब नियत से छूने की। मगर दिल में हसरत छुपी रहती है कब मौका मिलते ही जनता का सब कुछ लूट सकता है। नेता महिला भी बन सकती है मगर यही बात उस में थोड़ा बदले ढंग से रहती है। साफ सच्ची बात नेता होने को मक्कार झूठा आवारा और हद दर्जे का स्वर्थी जो मतलब को पांव पकड़ सकता है तलवे चाट सकता है और अवसर मिलते ही गले लगाकर पीठ में छुरा घौंप सकता है और किसी का कत्ल करते हुए उसको कोई अपराधबोध नहीं होता है। सफ़ेद रंग के अंदर काला रंग छुपा रहता है इसलिए हर किसी को इस तरह के लोगों से सावधान रहना चाहिए। 

         चुनाव के समय किसी नेता को अपनी ईमानदारी सब से खूबसूरत दिखाई दी और बाकी जितने भी नेता चुनाव लड़ना चाहते थे दाग़ी और अपराधी हैं इसका प्रमाण देते रहे। नेता आरोप लगाते हैं अपने पर सवाल का जवाब देना तौहीन समझते हैं मेरे नाम के साथ जी नहीं लिखा आपकी खैर नहीं की बदले की भावना हर नेता में होती है। राजस्थान में लोग कुत्ते को कुत्तो जी कहकर बुलाते हैं आदर देना उनसे सीख सकते हैं। नेता जी से उनकी पत्नी सवाल कर सकती है ये हर महिला का विशेषाधिकार हुआ करता है। नशे में नेता जी किसी का नाम ले रहे थे मेरी जान हो तुम बिन नहीं जी सकता , नशा उतारना आता है हर पत्नी को। नशा उतरने के बाद पूछा बताओ किस कलमुंहीं की बात है बेशर्मी से हंस दिए जानेमन सत्ता की कुर्सी को प्यार से नाम दिया हुआ है मुझे गलत नहीं समझना आपको छोड़ किसी को देखना भी पाप है। पत्नी भोली नहीं होती मगर भोलापन का दिखावा करना जानती है और रंगे हाथ पकड़ कर फिर जो कहना है करना चाहती है पता चलता है। मगर भारतीय नारी देश की जनता की तरह सब सहती है रोने धोने के बाद झूठी कसम अपनी ही खाने पर चुप हो जाती है और नेता मन ही मन उसके मरने की बात पर चिंतन करता है नहीं मरने वाली कभी। मुझे मारकर खुद सती हो सकती है उपवास रखती है मगर जीने नहीं देती मरने भी नहीं देती है। 

    पत्नी ने सवाल किया ये क्या बकवास ब्यानबाज़ी की है ईमानदारी वाली बढ़ चढ़ कर बात कहने की कोई ज़रूरत नहीं थी। विधायक बनने से पहले जितना पैसा खर्च किया अपने इश्तिहार छपवाने पर उतना तो चुनाव आयोग इजाज़त भी नहीं देता बताओ चुनाव क्या खाक लड़ोगे बिना पैसे के। नेता जी बोले पगली तुम नहीं समझी समझने वाले समझ गए हैं दल की निष्ठा की ईमानदारी की बात है। बाकी सब दलबदलू लोग हैं उनके पिछले पाप धुले नहीं हैं सत्ता की चादर से ढके गए हैं छुपाने की नाकाम कोशिश है छुपे नहीं हैं किसी की नज़र से भी। ये जो पब्लिक है सब जानती है। मुझे भी पहचानती है झूठ सच सब जानती है मगर अंधी है देखती नहीं है आवाज़ के शोर से पहचानती है किस ने उसको बख्शा है। पत्नी को याद आया शादी से पहले का ज़माना नेता जी का जाल बिछाना और मछली का फंस जाना और फिर दोनों का समझना और पछताना। ये पहेली अनसुलझी रहने दो किस ने किस को मुहब्बत के जाल में फंसाया कोई नहीं ये राज़ जान पाया। 

    नेता जी ने फिर समझाया आपको सही अर्थ नहीं समझ आया। इक थानेदार ने ईमानदारी का मतलब यूं समझाया। आधा खाया आधा ऊपर पहुंचाया कभी भी हिस्सा नहीं चुराया , थाने की बोली को निभाया जितना बोया उतना फल खाया। उम्मीदवार बनने को टिकट की कीमत सबने बंद लिफाफे में लगाई है बस मैंने कीमत की जगह खाली छोड़ रस्म निभाई है जितनी मर्ज़ी लिख सकते हैं अपने  पिता की बात दोहराई है।  मुझे छोड़ने की मत पूछना किस किस ने कीमत पाई है बस तुम नहीं मानी मुसीबत घर लाई है। बात सुनते सुनते दोनों को नींद आई है। अधूरी कहानी समझ आपको पूरी नहीं आई है सुबह बाकी बताएंगे। मीनाकुमारी की बात याद आई है। ज़माना बड़े शौक से सुन रहा था हमीं सो गये दास्तां कहते कहते। नेता जी की नींद खुली तो नज़ारा बदल चुका है उनकी ईमानदारी किसी काम नहीं आई और जिस को सबसे बड़ा खराब कह रहे थे उसी को दल के बड़े नेताओं का वरदान मिला है। नेता जी अपने दिल के टूटने का खुद तमाशा देख रहे हैं और लोग उनके दिल के टुकड़ों को गिनते फिर रहे हैं।

        समझदार राजनेता वक़्त की नज़ाकत को समझते हैं विलाप नहीं करते मुराद पूरी नहीं होने पर। कोई और चौखट तलाश लेते हैं झट से और रंग बदलते हैं भगवा छोड़ हरा अपना लेते हैं। पांच साल पहले का रंग का बदलना भी उचित था फिर तीसरी बार बदलना भी अच्छा है। रंग बदलती दुनिया है नेताओं ने गिरगिट से सीखा है मौसम के साथ जिस डाली जिस पेड़ की शाख पर हो उसी जैसा हो जाना। ये विशेषता बड़े काम आती है।

         


ज़िंदगी न शिकवा न चाहत ही है ( खुद से बात ) डॉ लोक सेतिया

 ज़िंदगी न शिकवा न चाहत ही है ( खुद से बात ) डॉ लोक सेतिया

        चैन है सुकून है कोई आरज़ू नहीं फिर भी आज भी इक प्यास है अनबुझी सी काश कोई अपना दोस्त अपना हमदम हमराज़ हमख्याल मिल जाता। मुझे दौलत राजनीति और दुनियादारी की फ़िज़ूल बातों से खीझ सी होती है और कोई नहीं जो बाकी सब बातों को छोड़ कर अपनी मेरी ज़िंदगी की बात करे। घंटों साथ बैठ कर भी समय का गुज़रने का एहसास नहीं हो , हो कोई जो दिल के पास भी हो और दूर होने का कोई एहसास भी न हो। जो सब लोग चाहते हैं मुझे उस सब की ख्वाहिश कभी नहीं रही जो मुझे ज़रूरत है बस वही कहीं कभी नहीं दिखाई दिया। निराशा नहीं है कोई उम्मीद भी नहीं है शायद दिल भरा भी नहीं जीने से और जीने की कोई आस भी नहीं है बची हुई। मौत से कोई डर नहीं है ज़िंदगी से कोई घबराहट नहीं है मांगना नहीं कुछ भी ज़िंदगी से भी न ही मौत से भी। थक गया हूं चलते चलते थोड़ा आराम करना चाहता हूं फिर सफर पर आगे बढ़ने से पहले। चलते चलते उस जगह पहुंच गया हूं जहां रास्ता बंद है किसी बंद गली की तरह मगर उस गली में मेरा कोई घर तो नहीं है वापस मुड़ने का साहस बचा नहीं और आगे कोई राह दिखती नहीं है। कोहरा छाया है घना अंधेरा सा है मुमकिन है भौर होने पर नज़र आये कि बंद गली वास्तव में कोई फैला हुआ मैदान है और जिधर जाना हो जा सकते हैं। सफर पर कोई साथी नहीं है किस से बात करूं अपने आप से दिल से दिल की बात करने लगा हूं। 

        मैंने यही किया जाने क्यों मुझे और कुछ भी समझ नहीं आया। सब ऊपर जा रहे थे शोहरत दौलत की बुलंदी को छूने को और मैंने नीचे जाने को उचित समझा। विपरीत दिशा को जाते लोग हैरान होते होंगे शायद मुझे पहाड़ से उतरते देख निचली तरफ जाते देख कर जिस तरफ कुछ भी नज़र नहीं आता था। हर तरफ पहाड़ियों के बीच थोड़ी से जगह खड़े होने को धरती पत्थरीली सी मुझे शायद आकर्षित कर रही थी। वहां कोई बसेरा नहीं बन सकता था जैसे हर तरफ कोई दीवार खड़ी थी लिपटने को आंख बंद कर खड़े खड़े कुछ नींद लेने को। मगर बहुत ख़ामोशी और सुकून मिल रहा है फिर भी लगता है थकान मिट जाएगी आराम करने से मगर उसके बाद किधर जाना है क्या कोई राह मिलेगी किसी जगह कोई दरार और गहराई को जाने को। ऊंचाई से डरता हूं चढ़ाई से घबराहट होती है सांस फूलती लगती है। थोड़ी झपकी लगी तो लगा जैसे कोई था जो हाथ में हाथ थाम मुझे साथ चलने को कह रहा था अभी अभी तो था बस वही जिसकी तलाश थी। लगता है पल भर में फिर वापस आएगा यहीं उसी का इंतज़ार करना है।

      सोचता हूं कोई सफर हो जिस में इक साथी हाथ में हाथ थामे चल रहा हो तो कठिन डगर भी आसानी से कट जाये। शायद ये सपनों की बातें हैं दुनिया में वास्तव में कब कोई हमेशा साथ चलता है। सैर पर मुझे अकेले चलने की आदत है फिर भी कभी लगता है कोई दोस्त होता कुछ पल दिल की दुनिया की बात करते खो जाते बचपन की यादों में। मुझ में कुछ कमी है जो जीवन भर कोशिश की फिर भी इक दोस्त नहीं बना सका जो समझता मुझे और चाहता मेरा साथ। फिर कभी लगता है शायद अच्छा है मैं अकेला हूं वर्ना खुद से भी अलग हो जाता मुमकिन है। कितने दोस्त बनाये भी और अपने सभी रिश्ते भी मिले हैं मगर न जाने क्यों इक खालीपन या सूनापन बाकी है किस बात की कमी है जो दिल को हंसने खुश रहने को ज़रूरी होती है। मुझे नहीं गिला शिकवा किसी से हर किसी को मुझी से शिकायत है कोई न कोई। कैसे कोई सबको खुश रख सकता है सब जानते हैं ये बात मगर इतना तो हो कि ऐसा नहीं लगे कि हर किसी को परेशानी है मेरे कारण। अजीब सी कश-म-कश है ज़िंदगी की। उलझन नहीं कोई और उलझ गया हूं अपने ही ख्यालों में। इंतज़ार है किस बात का नहीं जानता मगर है इंतज़ार बस वही कुछ वक़्त खुलकर जीने की आरज़ू है। 




अक्टूबर 02, 2019

विचार को बेजान पत्थर बना देना ( गांधी लाल बहादुर जेपी की बात ) डॉ लोक सेतिया

विचार को बेजान पत्थर बना देना ( गांधी लाल बहादुर जेपी की बात )

                                             डॉ लोक सेतिया

  गांधी कोई वस्तु नहीं अपने इक विचार को बेजान पत्थर बना दिया। अब उस पत्थर को बेशकीमती कह कर राजनीति के कारोबार के शोरूम में ऊंचे दाम बेचना चाहते हो। अपने कभी गांधी को पढ़ा है कभी नहीं सुना अपने गांधी की विचारधारा को समझने को कोई कार्य किया हो उनकी लिखी हुई किताबों को लोगों तक पहुंचाने को कोई पहल की हो। गांधी जी की तीन बातें बंदर वाली बुरा मत देखो बुरा मत सुनो बुरा मत कहो ये तो जानते हैं सभी मगर अपने बुराई देखने बुराई की बात कहने का काम हर दिन किया है। मुझे उनसे अलग नहीं किया जा सकता जिनको अपने खराब नहीं बेहद बुरा साबित करने में हर मर्यादा हर सीमा को पार कर दिया है। मुझे किसी ने एक बार क़त्ल किया था अपने मेरी आत्मा को बार बार घायल किया है। मैंने आखिरी व्यक्ति के आंसू पौंछने की बात कही मगर आपको जनता के आंसू दुःख दर्द दिखाई ही नहीं देते हैं। मैंने गरीब को नंगे बदन देख कर एक धोती पहनने का संकल्प लिया और अपने हर दिन शानदार लिबास पहनने सजने संवरने का कीर्तिमान स्थापित करने पर देश का खज़ाना लुटाया है। गांधी और आप कभी साथ नहीं हो सकते हैं एक दूजे के विरोधी हैं।

        लालबाहुदर को जानते हैं उनका भी जन्म 2 ऑक्टूबर को ही हुआ था। कद छोटा था आदमी बड़ा था और देश को आत्मविश्वास से भरा था साहस से जवान और किसान की जय का केवल नारा नहीं संदेश जन जन तक पहुंचाया था। मैंने तो कभी कोई राजनैतिक सत्ता का पद नहीं हासिल किया लालबहादुर बैठे थे इस पद को सुशोभित किया था सादगी से देश की सेवा की थी। आपको उनकी दो चार बातें बताना ज़रूरी हैं , जब दल का कामकाज किया करते थे उनको पार्टी से 25 रूपये महीना मिलते थे घर खर्च चलाने को जो वे अपनी पत्नी को दे देते थे। इक दिन इक दोस्त उनसे सहायता मांगने आये सौ रूपये की ज़रूरत थी तो उन्होंने कहा कि माफ़ करना मेरे पास तो कुछ भी नहीं है , मगर तभी किवाड़ के पीछे से पत्नी ने इशारा कर बुलाया और कहा आपको उनकी सहायता करनी चाहिए। मगर मेरे पास पैसे कहां हैं जो घर खर्च को मिलता है आपको दे देता हूं अपने पास नहीं रखता कोई पैसा। पत्नी ने बताया मैंने बचा रखे हैं जो आप देते हैं 25 रूपये उस में से 20 से गुज़ारा हो जाता है 5 रूपये बच जाते हैं और सौ रूपये हैं उनको देकर सहायता कर सकते हैं। और लालबहादुर ने ऐसा करने के बाद इक खत लिखा था पार्टी अध्यक्ष को जिस में कहा गया था भविष्य में मुझे 25 रूपये नहीं 20 रूपये मासिक भेजे जाएं क्योंकि मेरा काम उतने से चल जाता है। ईमानदारी इसको कहते हैं। रेल विभाग के मंत्री बने तो अपने कक्ष में कूलर लगा देख सवाल किया क्या बाकी डिब्बों में यही व्यवस्था है और नहीं है सुन कर कूलर को हटवा दिया था। जब प्रधान मंत्री बने तो इक दिन पत्नी ने बच्चों को स्कूल भेजने को सरकारी कार उपयोग करने की बात कही , लालबाहदुर जी ने कहा फिर आपको उसका खर्चा मेरे वेतन से लौटना होगा क्योंकि सरकारी गाड़ी निजि उपयोग को नहीं है। आज आपके कितने आयोजन देश के खज़ाने से पैसा खर्च कर होते हैं अपने कितने धार्मिक अनुष्ठान किये करोड़ों का खर्च किया आपकी आय से मुमकिन ही नहीं है बल्कि अपने अपने खुद के विज्ञापन पर कितना धन बर्बाद किया है।

     चलो गांधी लालबाहुदर से आपका कोई मेल नहीं मुमकिन आपको उनकी सोच विचारधारा नहीं मालूम मगर जेपी को तो जानते हैं वही लोकनायक जयप्रकाशनारायण जी जिन्होंने इंदिरा शासन में सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन की बात की थी। कभी कोई पद नहीं लिया था और आपात्काल के बाद सभी दलों को संगठित कर तानाशाही का अंत किया था। 9 दिन बाद 11 ऑक्टूबर को उनका जन्म दिवस आपको याद नहीं रहेगा हर साल की तरह। जिनकी बदौलत आज आप लोग सत्ता में हैं उनकी ही पीठ में छुरा घौंपने वाले कौन थे जिन्होंने सत्ता और कुर्सी के मोह में देश की जनता के विश्वास से धोखा किया था। वास्तविक देश और जनता के नायक ऐसे होते हैं जो देश समाज की खातिर जीवन भर जतन करते हैं कर्तव्य समझ कर। उन्होंने कभी आपकी तरह कोई दावा नहीं किया महान देशभक्त होने का न ही अपने विरोधी को देशभक्त नहीं होने का आरोप लगाने का देश को विभाजित करने का काम किया कभी उन्होंने। हम सभी को आदर देने को हमारी विचारधारा हमारे तौर तरीके शैली को अपनाना चाहिए न कि हमारे बुत बनाने समाधि पर फूल चढ़ाने का आडंबर करते रहना चाहिए।