मार्च 31, 2019

POST : 1037 किरदार अच्छा होने का ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया - { पहली अप्रैल पर }

         किरदार अच्छा होने का ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

                                      पहली अप्रैल पर 

     मुझे समझदार लोगों से डर लगता है। देश समाज की भलाई नहीं अपने मतलब की चिंता करते हैं। सच तो है यही कि समझदारों को खुदगर्ज़ी की बात नहीं समझने वाले मूर्ख लगते हैं। सारी आयु मैंने यही सुन कर शराफत और अच्छाई का किरदार निभाया है भाई आप तो बहुत सच्चे अच्छे भलेमानुष हैं ईमानदार हैं। बस इसी उलझन ने बुरा होते हुए भी बुराई करने नहीं दिया कि लोग सोचते हैं ऐसा नहीं हूं तो कैसे कर सकता हूं। शायद बहुत लोग इसी तरह से बेवकूफ बनते हैं क्योंकि लोग जो कहते हैं किसी को वास्तव में समझते भी हैं लाज़मी नहीं बल्कि अधिकतर अपने मतलब की खातिर झूठी तारीफ किया करते हैं। पर मैंने अब नकली बनकर असली का आडंबर नहीं करने की निर्णय किया है। आज पहली अप्रैल का दिन कहते हैं मूर्खता करने का और मूर्ख बनाने की अवसर है वास्तव में लोग साल भर औरों को ही नहीं खुद को भी धोखा देने का काम करते हैं आओ आज मूर्खता दिवस पर मूर्खता का त्याग करने पर विचार करते हैं। ये विषय बहुत बड़ा है इसका विस्तार बहुत है और आजकल सब लोग संक्षेप में बात करना उचित समझते हैं इसलिए क्या क्या वास्तव में है क्या नहीं है मगर है इस का दिखावा करते हैं कुछ  मुख्य बातों की चर्चा करते हैं।

                 घर से सरकार तक हर इक शख्स जो है नहीं वही बनकर रहता है। कोई किसी को नहीं चाहता केवल अपने मतलब की चाहत रखता है मगर दावा हर किसी की भलाई का चाहत का करता है। सरकार और जनता का रिश्ता घोड़े और घास जैसा  है और घोडा घास से दोस्ती करेगा तो खायेगा क्या। चाकू और खरबूजा दोस्त बन नहीं सकते ख़रबूज़ा कटना ही है चाकू उस पर गिरे या वो चाकू पर। नेता अधिकारी बेदर्द और बेरहम होते हैं मगर दिखावा नर्मी और नेकदिली का करते हैं , कितना मुश्किल है हर घड़ी इक मुखौटे को अपना चेहरा बनाना। कमाल का अभिनय है और सभी अभिनय करते हैं। घर में हर रिश्ता इसी तरह निभाया जाता है आप कितने प्यारे हैं बताया जाता है मतलब को हर नाज़ उठाया जाता है। पति पत्नी को हर खराबी इक दूजे में दिखाई देती है फिर भी साथ रहने में भलाई समझ आती है। हर कोई खुश करने को झूठ का सहारा लेता है। दिल कुछ होंट कुछ कहते हैं बनावटी नाते निभाते रहते हैं दुनियादारी इसी को कहते हैं। सरकार की बात और होती है हाथ पकड़ती है और ठोकर लगाने की लात और होती है।

      हर कोई भगवान अल्लाह खुदा ईश्वर की बात करता है। उसके दर पर जाकर आडंबर करता है कोई नहीं ऊपर वाले से आजकल डरता है। भगवान की मूर्ति उसकी छवि के सामने क्या क्या नहीं विचार करता है बस पल भर में आंखों से ओझल होते ही जो मनमर्ज़ी करता है आस्तिकता दिखावा है भगवान है कोई नहीं भरोसा करता है। जाने कहां रहता है खुदा आसमानों में और बैठा क्या करता है उसकी कथा उपदेश आरती अर्चना से कहां कोई सुधरता है। सच की बात कौन करता है हर आदमी सच बोलने से डरता है झूठ की बात कितनी अच्छी है कितना मीठा मीठा लगता है। झूठ की महिमा सारी है हर कोई उसी पर बलिहारी है। झूठ कितने काम आता है सबसे स्थाई यही नाता है। चाहने वाले सभी हैं झूठ के देवता के नाम सच का लेते हैं ये सच सबसे बड़ा झूठ है। झूठ खुद इक पहाड़ जैसा है सच समझता है खुद को ऊंठ की तरह ऊंचा है , ऊंठ जब पहाड़ के नीचे आता है तब उसको समझ आता है। सच का कोई वजूद नहीं झूठ हर कण कण में बसता है। अब कोई अवतार आया है जो झूठ का खुदा लगता है उसके चाहने वाले कहते हैं भविष्य झूठ का है और रहेगा हमेशा बिना पांव चलना आता है जहाज़ की उड़ान भरता है आसमान की ऊंचाई छूता है अंतरिक्ष की भी बात करता है। थूक में पकोड़े तलते हैं रोज़ कोई तरकीब घड़ते हैं। धर्म वाले कमाल करते हैं जाने कितना धमाल करते हैं धर्म की दुकानदारी है झूठ का मोल सच पे भारी है। झूठ दिन भर बिकता जाता है सच का ढेर कूड़े में जाता है। हमने भी कारनामा कर दिखाया है झूठ का देवता बुलाया है उसको भवन में सजाया बिठाया है। आप भी आना आपको बुलाया है।

      झूठ के मंदिर की बात सच्ची है। मेरा शहर इक ऐसी बस्ती है जिस में सच झूठ भाई भाई हैं कौन असली कौन नकली की लड़ाई है। झूठ कल तक बेघर फिरता था जाने किस किस जगह सच बनकर रहता था अब उसका बना ठिकाना है झूठ को मिलकर हमने मनाना है। झूठ का गुणगान सभी करते हैं फिर क्यों झूठ की पूजा करने से डरते हैं। झूठ का वरदान सच होता है हर झूठा नेता महान होता है झूठ बोलने से सबका कल्याण होता है। पहला मंदिर अभी बनाया है हर झूठे को मगर बुलावा भिजवाया है , कल गांव गांव शहर शहर उसके मंदिर होंगे सच से ऊंचे बढ़कर होंगे। आपके पास कितने अवसर होंगे झूठ के देवता घर घर होंगे। झूठ का भी चलीसा होगा कोई किताब कोई पहचान होगी सबसे अलग उसकी शान होगी। झूठ कलयुगी भगवान है जो नहीं समझे बड़ा नादान है। कोई चढ़ावा नहीं चढ़ाना है झूठ कहना सुनना है सुनाना है यही सच है सबको बताना है। याद रखना आपको आना है झूठ के मंदिर पे सर झुकाना हैं शुभ महूर्त है पहली अप्रैल का याद रखना है नहीं भुलाना है। 
 




मार्च 30, 2019

POST : 1036 सत्य के बाद झूठ पर शोध ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

       सत्य के बाद झूठ पर शोध ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

  नेताजी की बात सबसे अलग है उन्हें वही करना है जो किसी ने पहले नहीं किया। पढ़ाई लिखाई को लेकर उनकी समझ हमारी समझ से परे है। गांधी जी सत्य पर करते रहे उनको झूठ पर शोध करना ज़रूरी लगा है। सच यूं भी किसी काम का नहीं इक तो सच का स्वाद कड़वा है दूजा सच नंगा होता है। नेता जी सोचते हैं हम्माम में सभी नंगे होते हैं फिर भी कोई घोटालों की बरसात में रैनकोट पहन कैसे बचा रहा कि कोई छींटा भी उनके दामन पर नहीं पड़ा दिखाई दिया। काश उनका ईमानदारी वाला लिबास नेताजी के पास होता तो वो उसी से अपने तन बदन को भीतरी वस्त्र की जगह पहन ऊपर अपना शानदार चमकीला लिबास डालते और इतिहास रचाते। ये नया इतिहास रचाने की उनकी हसरत जो नहीं करवाती वही कम है। चाहते तो थे कि देश का इतिहास उन्हीं से शुरू किया जाना चाहिए और बताया जाना चाहिए जिस तरह अमेरिका की खोज किसी ने की थी भारत भी धरती के नीचे गढ़ा हुआ था सदियों से उन्होंने आकर उसे मुक्त करवाया और सबको बताया ये असली भारत है। सत्यमेव जयते का उद्घोष बदलना चाहते हैं और झूठ को उसका अधिकार दिलवा सिंहासन पर बिठाना चाहते हैं। झूठ की महिमा गाना चाहते हैं सच को दफ़नाना चाहते हैं। धुआं बनकर वो आकाश में छाना चाहते हैं हम सभी मूर्ख हैं पहली अप्रैल हमारे संग मनाना चाहते हैं फिर सत्ता पाना चाहते हैं सबको छोटा बनाना चाहते हैं। बौने लोग पहाड़ पर चढ़कर दिखाना चाहते हैं बाकी लोग चींटियां जैसे लगते हैं समझाना चाहते हैं। कद अपना बढ़ाना चाहते हैं इक कवि की कविता भुलाना चाहते हैं जिसने लिखी थी कविता पहाड़ पर चढ़ने से बौने लोग और भी बौने नज़र आते हैं। 

               झूठ इक कला है उनका बोला हुआ झूठ कितना अच्छा लगता है जो है नहीं हुआ नहीं हो सकेगा नहीं उसी का होना होना है समझाना चाहते हैं। खुद हंसना हंसाना चाहते हैं हर किसी को रुलाना चाहते हैं। आग अपने घर को लगाना चाहते हैं रोज़ कोई खेल तमाशा दिखाना चाहते हैं। झूठ के देवता का बस इक मंदिर मेरे शहर में बना हुआ है क्या किसी को इस की खबर है कुछ पता है हम खबर उन तक पहुंचाना चाहते हैं। हम जानते हैं वही ऐसे मंदिर बनवाना चाहते हैं झूठ का परचम लहराना चाहते हैं। झूठ पर उनके शोध बेहद सफल रहे हैं जिनको नहीं खबर बताना चाहते हैं। झूठ सच का बाप है सच केवल अभिशाप है अपनी कहानी सुनाना चाहते हैं। सच अभी कहीं ज़िंदा तो नहीं बचा हुआ जांच सीबीआई से करवाना चाहते हैं सच की लाश मिल जाये तो उसको सूली चढ़ाना चाहते हैं। सच को कितनी बार कत्ल किया था उन्होंने फिर भी सच का भूत उनको नज़र आता है दिखाई देकर पसीने पसीने करता है कोई ओझा बुलवाना चाहते हैं। सच के भूत की मुक्ति करवाना चाहते हैं उसके निमित तेरहवीं रस्म निभाना चाहते हैं। सच ज़िंदा नहीं है लोग मानते नहीं मगर वो भी ज़िद पर अड़े हैं मनवाना चाहते हैं। झूठ के शानदार दिन लाना चाहते हैं अच्छे दिन की बात नहीं दोहराना चाहते हैं। चुनाव की बेला में झूठ के मंदिर आकर मनचाहा वरदान पाना चाहते हैं सब उनको मेरे शहर बुलाना चाहते हैं झूठ का मंदिर बनवा लिया है उन्हीं से उद्घाटन करवाना चाहते हैं। 

      झूठ के सच्चे पुजारी वही हैं दवा भी हैं और बीमारी वही हैं। झूठ पर दिल जान से बलिहारी वही हैं। झूठ की महिमा किसी आशिक़ से पूछना झूठ बोलकर मिलती है मुहब्बत सभी को। प्यार की रहती है हसरत सभी को , प्यार सच से कोई कभी करता नहीं है , कोई आशिक़ झूठ बोलने से डरता नहीं है। कब कोई साथ जीता है मरता है चांद तारों की बात कोई करता है हर कोई डूबने को समंदर में क्या उतरता है। सच खड़ा किनारे आह भरता है झूठ की कश्ती पर झूमती गाती है रानी तब शुरू होती है प्रेम की कहानी। किसे याद है बूढ़ी नानी की कहानी परियों का डेरा बारिश का पानी कितनी पुरानी ग़ज़ल है सुनानी। जगजीत सिंह की सुनी थी ज़ुबानी सच्ची कहानी , नहीं याद करते अब बातें पुरानी। सच्ची बात कही थी मैंने लोगों ने सूली पे चढ़ाया। मुझको ज़हर का जाम पिलाया फिर भी उनको चैन न आया। ले के जहां भी वक़्त गया है ज़ुल्म मिला है ज़ुल्म सहा है सच का ये ईनाम मिला है। सबसे बेहतर कभी न बनना ,जग के रहबर कभी न बनना। पीर पय्यमबर कभी न बनना , सच्ची बात कही थी मैंने। चुप रहकर भी वक़्त गुज़ारो ,सच कहने पर जां मत वारो , कुछ तो सीखो मुझसे यारो , सच्ची बात कही थी मैंने। ग़ज़ल सच्ची है मुझे अच्छी लगती है मगर क्या करूं सबक याद नहीं हुआ सीखा नहीं कोई सबक सच बोलने की आदत भी जाती नहीं है जान लेगी किसी दिन शायद। उनको झूठ से मुहब्बत बहुत है सच बोलने से अदावत बहुत है हमें झूठ कहना आता नहीं है सच से उनका कोई नाता नहीं है। सच कोई किसी को बताता नहीं है ये यूं भी लोगों को भाता नहीं है। झूठ का शोध उनको मुबारिक सच है तोहमत मंज़ूर हमको लेकिन। झूठ कलयुग का भगवान होगा मगर सच को देखेगा तो हैरान होगा। सच फिर भी सच ही रहेगा झूठ बिना पांव कितना चलेगा।

मार्च 29, 2019

POST : 1035 मौत के पास आ गये ज़िंदगी की तलाश में ( देश की वास्तविकता ) डॉ लोक सेतिया

   मौत के पास आ गये ज़िंदगी की तलाश में ( देश की वास्तविकता ) 

                                            डॉ लोक सेतिया 

      शेरो - शायरी की ज़ुबान में नहीं साफ बात करते हैं। दुष्यंत कुमार को जो लगता था मुझे भी लगता है। यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है। संविधान में जिन विभागों की स्थापना न्याय देने और सुरक्षा देने को की थी उनके करीब जाने से पता चलता है कि इन दरख्तों के पत्ते छांव नहीं देते आग बरसाते हैं। जाने ये कैसी व्यवस्था है जिसको खुद सुधारने की ज़रूरत हैं मगर उसका मानना है कि उसको छोड़ बाकी सब बिगड़े हुए हैं और इनका काम सबको ठीक करना है। इस से अधिक विडंबना की बात क्या होगी कि इनकी शिकायत भी इन्हीं से करनी होती है। मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है क्या मेरे हक में फैसला देगा। मुझे लोग कहते हैं आप चुप चाप देखते रहो देश की व्यवस्था की बदहाली को कुछ मत बोलो , जिनकी समस्या है वही जाने। मगर कोई भी चिंतनशील शिक्षित व्यक्ति अगर देश और समाज को सच बताने का कर्तव्य नहीं निभाता और कायरता के कारण खामोश रहता है तो केवल कागज़ काले करने से लेखक नहीं बन जाता। हमारा फ़र्ज़ है सही और गलत को समझना और समाज को आईना दिखाना। 

                विभाग कोई भी हो और नीचे से ऊपर तक कर्मचारी नागरिक की समस्या समझने उसका समाधान करने की नहीं बल्कि किसी बहाने कोई नियम का सहारा लेकर अड़चन या बाधा उतपन्न करने की कोशिश करते हैं। बाबू की कुर्सी पर बैठते ही उनके भीतर का इंसान इंसानियत शराफत छोड़ कुटिलता अपनाने लगता है , नहीं करने के सौ तरीके आते हैं जिस कार्य को करने से कोई अनुचित बात नहीं होती है। शायद इक आपराधिक आदत बन गई है किसी की पहचान सिफारिश से काम करने की अन्यथा क्यों कोई जोखिम उठाया जाये। अभी तक सरकारी कर्मचारी खुद को शासक मानते हैं और उनका विचार है आम नागरिक को कोई भी अधिकार या सेवा तो क्या बुनियादी सुविधा देना भी ज़रूरी नहीं मगर जनता को कानून की लाठी से हांकना ज़रूरी है। हर आम नागरिक इनकी नज़र में गुनहगार से कम नहीं और हमारा अपराध क्या है न हम जानते हैं न उनको पता है। बस उनको अवसर की तलाश रहती है हम लोगों को मुजरिम बनाकर कटघरे में खड़ा करने की। काश पढ़ लिख कर नियम कानून को समझकर उनको पता चलता कि संविधान आपको भी कुछ फ़र्ज़ कोई कर्तव्य निभाने को बताता है और जो जो नियम बाकी जनता के लिए बने हैं खुद आपको हर अधिकारी को कर्मचारी को उन पर खुद भी चलना है। मगर इनकी मानसिकता बनी हुई है जो हम समझते हैं वही सच है और खुद न्यायपूर्ण ढंग नहीं अपनाने के बावजूद न्यायधीश बने बैठे हैं। 

        बड़े बड़े अपराधी गुनहगार नहीं इनकी तलवार का शिकार आमजन होते हैं। नागरिक के लिए सीधी राह चलना दुश्वार करने के बाद टेड़ी राह चलने का आरोप लगाना आसान है , रास्ता बनाना उनको ज़रूरी नहीं लगता है। जब भी कोई अधिकारी नियुक्त होता है अपनी सोच से मनमानी करते नहीं विचार करता कि क्या जैसा उसको लगता है होना चाहिए उसका आधार बना हुआ है , नहीं बुनियाद बनाने की बात छोड़ इमारत खड़ी करने का काम जल्दी से करना है क्योंकि मकसद वास्तविक कार्य नहीं कोई और उद्देश्य हासिल करना है। किस के आदेश पर किस के इशारे पर क्या करना है सोचते नहीं हैं।  क्यंकि सत्ताधारी नेताओं का फरमान और उच्च अधिकारी का आदेश बिना औचित्य समझे मानना ही है। सभ्य नागरिक से तू तड़ाक से बात करने वाले तब उचित अनुचित की सोचते नहीं और जैसे आपका आदेश हज़ूर कहते हैं। ये कैसा विधान है जिस में ख़ास लोगों वीवीआईपी लोगों को अलिखित अधिकार मिले हुए हैं। उनको जाना है हर रास्ता उन्हीं का है बाकी लोग बचकर किनारे खड़े रहें , उनकी सुविधा को हम सबको परेशानी झेलनी ज़रूरी है। अभी देश की बड़ी अदालत ने भी कहा मगर सुनाई उनको नहीं दिया कि शांतिपूर्वक विरोध देश की व्यवस्था का सेफ्टी वाल्व की तरह है इसको बंद नहीं किया जा सकता। मगर अभी भी कोई अधिकारी को हालात की सच्चाई बताता है तो उसको खामोश करवाने को ढंग अपनाते हैं। जिस को परेशानी उसी को नोटिस भेजकर अपने दफ्तर बुलाना खुद न्यायधीश बनकर सुनवाई करने का नतीजा बार बार देखता रहा हूं। केवल खानापूरी करनी है समस्या समझनी नहीं दूर करना तो बहुत दूर की बात है।

                        सत्ता मिलते ही सत्ताधारी दल के पास दौलत का अंबार मिलने लगता है इस में कोई राज़ की बात नहीं है। कुर्सी पर बैठते ही गरीबी भूख बुनियादी सुविधाओं की कमी शिक्षा स्वास्थ्य की दुर्दशा से अधिक चिंता अपने नाम शोहरत इश्तिहार छपवाने की होने लगती है। धन की कमी आम जनता की पीने का पानी और दो वक़्त रोटी उपलब्ध करवाने को रहती है सरकार अधिकारी हर दिन सभाओं की सजावट पर ही मनचाहा खर्च करते हैं देश सेवा के नाम पर। चुनाव जीतने को खैरात बांटने की बात बेशर्मी से सभी दल करते हैं। देश की वास्तविक मालिक जनता को अधिकार कभी नहीं देने वाले खैरात देकर भिखारी बनाने की बात करते हैं। सत्ता पाना सबसे महान कार्य समझा जाना देश की राजनीति का घिनौना सच है। यहां अच्छा सच्चा कोई भी नहीं है मगर हम लोग भी दोषी हैं जो इस या उस दल की बात करते हैं। जबकि इनकी वास्तविकता जानते हैं और अगर देश को वास्तविक लोकतंत्र हासिल करना है तो इनको नकार कर खुद अपने बीच से अच्छे लोगों को खड़ा करना और जितवाना होगा। संविधान किसी दलीय लोकतंत्र की कोई बात नहीं करता है। जब तमाम राजनैतिक दल किसी लुटेरे गिरोह की तरह काम करने लगे हैं तो विकल्प देश की जनता को ही तलाशना होगा। आज़ादी कुछ लोगों की सत्ता पाने की हवस का नाम नहीं है। दवा के नाम पर हमें ज़हर नफरत का पिलाने वाले कभी देश समाज की भलाई नहीं कर सकते हैं। 

 

        

मार्च 28, 2019

POST : 1034 देवी देवताओं का निलंबन और नियुक्ति ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

 देवी देवताओं का निलंबन और नियुक्ति ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

              सूचना अतिआवश्यक है , भगवान को भी व्यवस्था बदलने को करोड़ों सदियों बाद अपना तरीका अपना विधान बदलना पड़ा है। सभी धर्म की कमाई करने वालों की नई व्यवस्था लागू होते ही देवी देवता बदलने होंगे और उनकी जगह नियुक्त नये देवी देवता नये विभाग के संचालन को अपनी अपनी जगह स्थापित करने होंगे। पहली अप्रैल के बाद पहले के देवी देवता आपको कुछ भी देने को समर्थ नहीं होंगे।  ऐसा हुआ क्यों सभी हैरान हैं मगर राज़ की बात आखिर सामने आ ही जाती है। भगवान तो जाने कब से नींद का आनंद ले रहे थे और समझते थे कि इतने देवी देवता अलग अलग कार्यों का ध्यान रखने को नियुक्त कर रखे हैं सब अपना अपना काम ढंग से करते ही होंगे। नारद जी ने आकर जगाया और समझाया कि वास्तविकता कुछ और ही है।  नारद जी भी भारत की सैर करने गये और देखा चुनाव होने वाले हैं और कोई नेता गद्दी को छोड़ना नहीं चाहता इसलिए सब हथकंडे आज़मा रहा है। जिन जिन वादों पर खरा उतरना था उनकी बात करने से कतरा रहा है और जनता को लुभाने को अनहोनी को होनी कर दिखला रहा है। अच्छा समय जा चुका मगर वो वापस आता बतला रहा है। अपने को मसीहा समझता है खुदा बनना चाह रहा है हर बार कोई जाल बिछा रहा है। मन ही मन घबरा रहा है और सभी को खराब साबित कर अपने पे इतरा रहा है। देश भर में इक नशा सा छा रहा है हर नेता झूठ को सच बना रहा है जनता का भरोसा टूटता जा रहा है। सच कहीं भी नज़र नहीं आ रहा है झूठ खुद को सच बतला रहा है। नारद जी देखते रह गये सब देवी देवता वास्तव में पत्थर हो गये हैं रात दिन का अंतर नहीं रहा घंटियां बजती हैं सुनता कोई नहीं जैसे सभी सो गये हैं।

     नारदवाणी सुन भगवान की नींद उड़ गई और बारी बारी हर देवी देवता को बुलवा कर कटघरे में खड़ा कर पूछा कैसे आपने इतना अनर्थ होने दिया। धर्म स्थल भव्य बनवाने की चाहत में खोये रहे अपना काम करना था जो नहीं किया। अगर आम जनता काम नहीं करने पर दल को नेताओं को बदल देती है तो मैंने अभी तक क्यों ये शुभकर्म नहीं किया। शिक्षा की देवी अपने विद्या को बिकने का सामान बन जाने दिया , जिन देवता को सभी की सुरक्षा करनी थी अपनी महिमा सुनते रहे मगर अपनी आरती अपनी कथा को निभाने में नाकाम रहे। इस दुनिया को अमन का ठिकाना बनाना था और बना दिया आतंकवाद का महल जैसा। कोई भी सुरक्षित है नहीं। कुबेर का खज़ाना भलाई और समाज सेवा करने की जगह जंग नफरत का विस्तार करने को उपयोग होने लगा। लक्ष्मी देवी सोने चांदी से अधिक कागज़ी बनती गई और अपनी आभा खो कर काला धन की बदनामी का दाग़ माथे पर लगवा बैठी। कहां शासक गरीबों की सहायता करते थे और अपना खज़ाना समाज कल्याण पर खर्च किया करते थे मगर समझते थे कि देने वाला तो ऊपरवाला है हम तो उसका दिया आम जनता तक पहुंचाते हैं। लोग जब समझते हैं हम देते हैं तो हमारी नज़र झुक जाती है , रहीम जी का दोहा कितना सच्चा है। मगर आजकल शासक जनता की खून पसीने की कमाई छीन कर खज़ाना भर अपने आडंबर शान दिखाने और ऐशो आराम सुख सुविधा पर खर्च करने का महापाप करते हैं और दावे करते हैं हमने क्या क्या किया है। देते कुछ भी नहीं केवल देने की बात करते हैं जनता को ठगने को सत्ता पाने को। न्याय की देवी आंखों पर पट्टी का अर्थ आंखें बंद रखना नहीं समानता से न्याय की बात करना होना चाहिए मगर जब हर कोई अपनों को बार बार रेवड़ियां बांटने का अपराध करता है तब न्याय बचता कहां है। धर्म की शिक्षा देने वाले लोभी लालची और अहंकारी ही नहीं तमाम बुरे कर्म अपराध व्यभिचार करने लगे तब जिनको नियुक्त किया था जब जब अपराध बढ़ता है उसका अंत करने को धरती पर आता हूं उसको अपना वादा भी भूल गया। मुझ ईश्वर पर नहीं होने का आरोप लगने लगा है और समझने लगे हैं कि भगवान होने की बात मतलबी लोगों की अपने स्वार्थ पूरे करने की बनी बनाई बात है। आप सभी अपने अपने विभागों को सुचारु ढंग से चलाने में असफल रहे हैं बल्कि आपकी जगह जाने कैसे कैसे लोग देवी देवता का रूप धारण कर विराजमान हैं। मुझे खेद है जिस तरह आज़ाद भारत की सरकार संविधान की पालना समानता की बात को दरकिनार कर मनमानी करती रही हैं और निक्क्मी साबित हुई हैं आप सभी देवी देवता बिल्कुल उनकी तरह अच्छाई को छोड़ बुराई का साथ देते रहे हैं और चढ़ावे और अपने गुणगान के आदी होकर किसी काम के नहीं रहे हैं।

        सभी देवी देवता शर्मसार हैं विधाता के सामने और माफ़ी मांगने तक का अधिकार खो चुके हैं। निर्णय सुनाया गया है आपके सभी अधिकार वापस लिए जाते हैं और आपको पदमुक्त किया जाता है। जिस तरह भारत देश में सेवानिवृत होने पर सरकारी आवास कार और साधन छोड़ने पड़ते हैं इस महीने 31 मार्च को आपको अपना सभी छोड़ना होगा और किसी भी धर्म स्थल में आपका कोई अस्तित्व नहीं बचेगा। कोई भी आपकी पूजा आरती करेगा तो बेकार होगा और आप किसी को कोई वरदान क्या अभिशाप तक नहीं दे सकोगे। अपने खुद को पत्थर का नहीं बनाया इंसानों को भी हृदयहीन पत्थर का बनाने का काम किया है। मानवता की भावना किसी पत्थर में कैसे हो सकती है। भविष्य में मुझे ही सब कुछ फिर से ठीक करना होगा भले इसके लिए इस दुनिया को प्रलय लाकर मिटाने और इक नई दुनिया बनाने की बात करनी पड़ सकती है क्योंकि इस दुनिया को इतना बर्बाद और खराब होने दिया गया है कि इसको ठीक करने से अच्छा विनाश कर फिर इक नई दुनिया का निर्माण करना है। बस झूठ की महिमा का गुणगान करने का अंतिम समय आ गया है और किसी भी जगह झूठ को सिंहासन पर नहीं रहने दिया जा सकता है। सूरज के आसन पर अंधेरों का अधिपत्य आखिर कब तक। भगवान के कोप से देवी देवताओं का अस्तित्व मिट रहा है राख बनते जाते लगने लगे हैं और चार दिन बाद उनकी राख भी जाने किस तरफ हवाएं उड़ा कर ले जाएंगी। आप पहली अप्रैल से पुराने किसी देवी देवता की आरती पूजा अर्चना करेंगे तो बदले में बाबाजी का ठुल्लू मिलेगा।


मार्च 25, 2019

POST : 1033 क्या से क्या हो गया ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         क्या से क्या हो गया ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

              असली क्या है नकली क्या है मत पूछो कोई। हरि को भजे सो हरि सा होई। जिनको लोग समझते हैं जनाब को बिल्कुल नहीं भाते जनाबेआली उन्हीं जैसा बनने की ख्वाहिश दिल में पाले हैं। मामला हिंदी फिल्मों की तरह लगता है , ना ना करते प्यार तुम्हीं से कर बैठे। करना था इनकार मगर इकरार तुम्हीं से कर बैठे। सत्ता सुंदरी की वफ़ा बदलती रहती है गाइड का नायक सन्यासी बन जाता है तो घर बार छोड़ने वाला चक्कर में आ फंसता है। खुदा उनकी हालत उस तरह की नहीं करे कि गली गली गाता फिरता हो , क्या से क्या हो गया बेवफ़ा तेरे प्यार में। लब कुछ कहते हैं मन की बात और होती है मगर समझने वाले समझ जाते हैं। उनकी जैकेट थी इनको भी थोड़ी बदल पसंद रही। सजना धजना सीखा काफी उन्हीं से मिलता हुआ। फोटो सेशन देख लो पोज़ भी उन्हीं जैसे बनाते हैं इसी को कहते हैं किसी का भूत सवार होना। ये नफरत है कि दिल में छुपी हुई चाहत जो हर बात उनकी बात से शुरू उनकी बात पर खत्म भी होती है। मनोविज्ञान वाले बता सकते हैं जिनसे आप को लगता है नफरत करते हैं वास्तव में उनके लिए आपके भीतर आदर प्यार मुहब्बत छुपी हुई है। मज़बूरी है उनकी चाहत मुहब्बत ज़ाहिर नहीं कर सकते अन्यथा आपको खड़ा करने वाले संबंधी आपको ज़मीन पर नहीं आसमान से सीधे रसातल में पहुंचा सकते हैं। मगर इक बात जान लेना ज़रूरी है फ़िल्मी नायक के डुप्लीकेट होना कभी अच्छा नहीं होता है और राजनीति में अपने विरोधी दल के नेताओं की तरह बनते बनते अपनी वास्तविकता खो जाती है। कितने लोग अपनी असलियत को भुलाकर नकली निभाये हुए किरदार बनकर जीते जीते जीना भूल जाते हैं।  

      कहते हैं आपके आलोचक वही लोग होते हैं जो वास्तव में चाहते हैं आपसा बनना मगर जानते हैं इस काबिल हैं नहीं। जनाब को जाने क्यों सबसे पहले शासक से खुद को अच्छा कहलवाने की ज़िद है। जो उन्होंने कहा था देश का पहला सेवक होने की बात उसी को दोहराया भी। अब सुनते हैं उनकी तरह ही देश को लेकर किताब लिखने का इरादा है , अब कौन समझाए कि लिखने में सच लिखना पहली शर्त होती है। जिसने अभी तक लिखे हुए को मिटाना ही सीखा उस को सच को सच लिखना कोई कैसे बताएगा। दिन रात आपको उनकी याद सताती रही है जैसे बचपन का कोई डरावना ख़्वाब फिर देख नींद खुल जाती है। नेता लोग जो नहीं हो सकते चाहते हैं सब उनको वही समझने लगें। सत्ता से कोई मोह नहीं की बात की थी मगर अब सत्ता हाथ से छूट नहीं जाये का डर सताने लगा है। सत्ता हासिल की थी जिन वादों की बौछार कर उनका अब ज़िक्र भी करना पसंद नहीं है जो करने को कहा था उसको छोड़ क्या क्या किया है समझाना चाहते हैं। भविष्य में आगे बहुत कुछ कर दिखाने की बातें हैं मगर कोई ये नहीं सोच ले कि पिछली बार की तरह फिर सत्ता मिली तो करना कुछ और है। हाथी के दांत खाने को अलग दिखाने को अलग होते हैं। सब जानते हैं कीमत बाहर दिखाई देने वाले दांतों की होती है। सफ़ेद हाथी की तरह साबित हुए हैं जनाब सत्ता पाने के बाद जनता को। देश की विवशता रही है सफ़ेद हाथियों को पालना जिनको नागरिक की जीने की समस्याओं की चिंता नहीं रही बस अपनी खुद की गुणगान की शानो शौकत की चिंता रही है।  

 नेता जी की चाहत कुर्सी है मगर उनकी निगाह लक्ष्मी पर रहती है। सत्ता बूढ़े नेता जी को युवा घोषित करती है और धन की देवी लक्ष्मी से गठबंधन करवा देती है। सत्ता से पहले नेता जी को लक्ष्मी के रंग पर आपत्ति थी और काली कलूटी कहकर चिढ़ाया करते थे ऐसे में जब उसी पर सब न्यौछावर करने की बात कही तो हैरानी हुई। मगर नेता जी पलटी मार गए कहने लगे भला लक्ष्मी कभी काले रंग की होती है सांवरी सलौनी लगती है हरी साड़ी लाल पीली रंग की चोली पहन क्या खूबसूरत लगती है। अब पुरानी सब बातें काला धन की राजनीति की छोड़ कर तुझ संग लगन लगाई सजनी की धुन बजाते हैं। किसी ने पूछा अबकी बार कालाधन की बात करनी है कि नहीं। हंस दिये नायक जी भला लक्ष्मी का रंग कोई देखता है घर आई लक्ष्मी की आरती उतारते हैं आती हुई लक्ष्मी सुंदर लगती है जाती हुई गरीबी और चिंता भाती है। सत्ता किसी को बुरी नहीं लगती और सत्ता मिलती है तो लक्ष्मी का वरदान मिलता है वरदान में मिली सौगात की रंगत की बात कौन करता है। धन काला सफ़ेद नहीं होता है जगह बदलने से उसका नाम बदल देते हैं। काला रंग भी सफ़ेद रंग से मिलता है और सलेटी रंग बनकर खूब अच्छा लगता है।

        बाबाजी भी काला धन पर नहीं बोलते हैं उनकी कमाई की चमक से चमकदार कुछ भी नहीं।  उनका डिटरजेंट उनका घी उनका शहद उनका साबुन खुद उनकी दाढ़ी सब असली हैं उनकी काली दाढ़ी में कोई तिनका ढूंढना देश विरोधी कार्य है जैसे नेताजी की किसी बात की आलोचना पाप और जांच की बात देश भक्ति के खिलाफ समझी जा सकती है। काला धन और विकास की बात कभी बाद में की जा सकती है पहले सत्ता की देवी लक्ष्मी और कुर्सी से गठबंधन का जोड़ कायम रखना महत्वपूर्ण कार्य करना है।

मार्च 24, 2019

POST : 1032 नहीं का नहीं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

             नहीं का नहीं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

चुप रहने की आज़ादी है 
लब खोलने की भी मिली है 
 
हर बात पर हर बार मगर 
हां कहने की है नहीं की नहीं । 

रिश्तों के बंधन जाने कैसे हैं 
दुःख दर्द सहने की आज़ादी है 
 
चुपके चुपके छुपके रोने की भी 
खुश रहने की कभी मिली नहीं । 

घुट घुट कर जीने की आज़ादी 
मर मर ज़िंदा रहने की भी है 
 
हर सांस पर पहरा लगा हुआ 
मौत की मरने की मर्ज़ी पर नहीं । 

जिस राह पर जाना ज़रूरी है 
उसी डगर चलने की मनाही है 
 
काटों की राह चलना पड़ता है 
रुकने ठहरने की अनुमति नहीं । 

उलझन कोई भी नहीं सुलझती 
सुलझाने से बढ़ती जाती है और 
 
समझाते हैं सभी हर किसी को 
समझता उलझन नहीं कोई नहीं । 

हां वही है जो नहीं है नहीं है 
वही नहीं जो होकर भी है नहीं 
 
इकरार इनकार दोनों इक जैसे 
हां कहा नहीं , नहीं सुना नहीं ।
 

 

मार्च 21, 2019

POST : 1031 मैं शहंशाह ए आलम हूं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

     मैं शहंशाह ए आलम हूं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 


      होली है होली है होली है घर से बाहर आवाज़ सुनाई दी तो उनको दरवाज़ा खोलना पड़ा। देखते ही सभी लोग चौकीदार जी बधाई हो आपको शुभकामाएं अगला चौकीदार भी आप ही को बनाया जाए। लगा मानो होली का मज़ाक करने आये हैं रंग लगाने की ज़रूरत नहीं रही उनके चेहरे पर पल भर में कितने रंग आते जाते नज़र आने लगे। उनका संयम टूटने लगा और बोले बस बहुत हुआ चौकीदार अबकी बार मुझ शहंशाह की ही सरकार , पहला सेवक न कोई चौकीदार और नहीं कोई झूठा किरदार। अब तो समझो मुझको यार देश की बागडोर है या होली का त्यौहार। ये क्या हुआ कैसे हुआ कब हुआ क्यों हुआ जब हुआ हुआ तब हुआ को छोड़ो। भंग का असर तो नहीं कोई नहीं समझ पाया लगा मामला संगीन है। पिचकारी का रंग बेरंग पानी होकर धरती पर बिखर गया। ऐसे में जानकार मीडिया वाले को सूझा हल तो उसने जयघोष कर दिया , शहंशाह ए आलम की जय हो आपका इकबाल बुलंद हो आपको होली मुबारिक हो। सबने दोहराया तो जनाब को भी चैन आया। शहंशाह का दीवान सजाया गया और तख्त ताज से सुशोभित नेता जी आसन पर बैठ सबको बैठने का इशारा किया।

               शहंशाह कहने लगे मेरे दिल की बात आप सभी जानते ही हैं हमेशा से। ज़ुबान फिसल गई थी जब खुद को पहला सेवक और बाद में चौकीदार घोषित कर दिया। कहने से कोई कुछ बन नहीं जाता है मन की बात कोई नहीं समझता मन की बात मन में रहती है लबों पर आती नहीं है। अब सोचा कि अभी नहीं तो कभी नहीं और दिल की घबराहट को काबू कर सत्ता की देवी सुंदरता की मिसाल कुर्सी को जन्म जन्म तक बंधन में बांधने की बात कह दी है। तुम बिन जीवन कैसा जीवन। अभी किसी नेता ने ब्यान दिया है इस बार मुझे वरमाला पहनाई तो फिर देश में कोई चुनाव नहीं होगा। अच्छा लगा सुनकर कोई मेरे दिल की बात बिना कहे समझता है। आप मुझे गलत नहीं समझना मुझे कोई लालच कोई मोह सत्ता का नहीं है मगर मेरी बात आप सब जानते हैं मुझसे अच्छा कोई न कभी हुआ न कोई कभी हो सकता है कभी भी। मगर इस देश की भोली जनता को कोई भी बहला सकता है कमसिन गोरी की तरह और लूट सकता है। उनकी लूट लूट होती है मैं जो भी करूं मेरी मर्ज़ी मेरा अधिकार और देशभक्ति जनता की भलाई है। अब बार बार ये रिस्क उठाना उचित नहीं है इसलिए जैसे आपत्काल में संविधान को बदला संसद का कार्यकाल बढ़ा दिया था उसी तरह इस संसद का कार्यकाल अनंतकाल तक बढ़ाने की ज़रूरत है। कितने चुनाव हुए मगर बदला क्या केवल नाम बदलते रहे सांपनाथ नागनाथ। फिर इतना समय इतना धन और साधन खर्च करना किस काम का।

           संविधान बना क्या था उसके बनाने का उद्देश्य क्या था कोई सोचता नहीं समझता नहीं। जैसे गीता रामायण पढ़ने को नहीं शीश झुकाने को रह गये हैं संविधान सत्ता पाने के बाद शपथ उठाकर भूल जाने को रह गया है। सत्ता पाने के बाद सब संविधान को दरकिनार कर मनमानी करते हैं। ये आडंबर बंद होना चाहिए। जब हर दल और नेता चुनाव जीतने के बाद खुद को जनता का सेवक समझता नहीं और शासक बनकर मालिक की तरह आदेश देता है फिर बेकार दिखावे के देशसेवा के दावे करने का मतलब क्या है। जब नाचन लागी तो घूंघट काहे , बस अब सेवक चौकीदार का तमगा उतार जो है असली चेहरा सामने दिखाना है। बस बहुत खेली होली देश की जनता और देश की व्यवस्था संग और संविधान की पालना की झूठी रट लगाना। हम तो आज़ादी से पहले से जानते हैं इस देश को लोकशाही नहीं राजाओं की गुलामी ही मिलनी उचित है। विदेशी शासक या देश के काले अंग्रेज़ बात एक जैसी है। चार साल कितने चिंतामुक्त रहे हैं हम और कब कुछ महीने बाकी रह गये सत्ता पर रहने को पलक झपकते समय बीत गया। बार बार जीत हार का डर कब तक सहना है कठोर निर्णय लेना पड़ता है। अगर होली पर नहीं तो दस दिन बाद पहली अप्रैल पर सही। दस दिन हैं विचार करने को चुनावी खेल को रोकने को बहाने बहुत हैं। काठ की हांडी बार बार चढ़ती नहीं है और लोग झूठे वादों को समझने लगे हैं। अन्य सभी बातों को छोड़ इक ज़रूरी ऐलान करना है , होली पार अपनी गलतियों की भूल की माफ़ी मांगने की परंपरा रही है। जिन पहले सत्ताधारी नेताओं को भला बुरा कहने की गलती करते रहे उनकी आत्माओं से माफ़ी मांगनी है उनको बताना है मेरे मन में उनके लिए गांधी जी की ही तरह से आदर है। वास्तविकता भी यही है आपको भी समझना होगा मेरी राह इंदिरा गांधी की राह से अलग कदापि नहीं है। उनकी जीवनी से बहुत सीखा है और सीखना भी बाक़ी है। कोई नहीं जानता आज जो व्याख्यान सुना क्या उसे होली की मस्ती समझना चाहिए या कोई खतरा भविष्य में देश पर मंडरा रहा है।

          कल शायद कहने वाला भी भूल जाएगा नशे के आलम में मदहोशी में जो कहा उसका अर्थ और सुनने वाले भी कोई सपना देखा हो यही सोच खामोश रहना उचित समझेंगे।

मार्च 19, 2019

POST : 1030 क्योंकि मैं सच नहीं बोलता ( होली है ) डॉ लोक सेतिया

     क्योंकि मैं सच नहीं बोलता ( होली है ) डॉ लोक सेतिया 

                                  कुछ चुटकियां होली पर 

    आप शोर बहुत करते हैं मुझे कहा किसी ने। लोग चैन से सो रहे हैं आपकी आवाज़ से नींद में खलल पड़ता है। कोई ज़माना था उठ जाग मुसाफिर भौर भई गाते थे। इधर खामोश रहकर स्मार्ट फोन पर बिना आवाज़ का शोर करते सुनते हैं। गोविंदा की इक फिल्म आई थी क्योंकि मैं झूठ नहीं बोलता जिस में उनका किरदार वकालत करने वाले अधिवक्ता का था। सच बोलकर नहीं झूठ को सच बनाकर मुकदमा जीतने का हुनर आता है उनका इक वकील दोस्त शराफत की ज़िंदगी जीता सेंटीमेंटल फूल कहलाता है। बहुत लोग अभी भी नेताजी के झूठ बोलने को झूठ नहीं मानते। किसी ने समझाया कि अगर बोलने वाला और सुनने वाला दोनों को मालूम हो तो ऐसा झूठ बोलना पाप नहीं होता है। आजकल किसी को झूठी कसम खाने से मौत तो क्या बुखार भी नहीं आता है। आशिक़ से महबूबा ने प्यार करते हो कसम खाओ की बात की तो जवाब मिला ये नहीं पता कितना कम या अधिक करता या नहीं करता मगर तेरे बिना समय नहीं गुज़रता। वास्तव में आजकल रिश्ते वक़्त बिताने और मतलब निकलने को साहूलियत से बनते निभाते हैं। सच का झंडा बरदार होने का दावा करने वाले झूठे नंबर दो हैं पहला नंबर आरक्षित है उनसे बड़ा झूठा इस देश में कोई हुआ नहीं आगे भी संभावना कम ही है। सत्यवादी इधर इक गाली की तरह लगता है कोई कड़वा सच लिखता है तो उपहास करने को उपयोग किया जाता है ये इस शब्द को। तभी मैंने बचाव को शीर्षक ही लिख दिया क्योंकि मैं सच नहीं बोलता। 

                         कल कई साल बाद इक पुराने दोस्त का फोन आया नये बदले नंबर से। अब ये इक समस्या भी है और समाधान भी लोग नंबर बदलते रहते हैं। किसी को बात करनी तो नंबर पता नहीं क्या बदला हुआ और कोई बात नहीं करना चाहता तो नंबर बदल लेता है। अच्छा लगा दोस्त से बात कर और फिर से मेल मुलाकात की राह खुल गई। बोले भाई ये मेरे शहर में अमुक दल के पदाधिकारी हैं होली पर कविता का पाठ करने को बुलाने को बात करना चाहते हैं। दुआ सलाम के बाद आने को कहा तो बताना ज़रूरी समझा कि मुझे सब आता है राग दरबारी नहीं आता और किसी भी दल के नेता की जय जयकार करना सीखा नहीं है। जी कोई बात नहीं मगर आपको बाद में बताते हैं कब आना है , ये शिष्ट ढंग है हम दोनों जानते हैं उन्होंने बुलाना नहीं और हमको भी जाना नहीं। दूध का जला छाछ को भी फूंककर पीता है। 

                      पढ़ने लिखने की बात समझनी ज़रूरी है। कभी लोग थोड़ा पढ़ लिख लेते थे तो अख़बार रिसाला मांगकर भी पढ़ते थे। कॉलेज की पढ़ाई करने के बाद पुस्तकालय से किताब लेकर या फिर बाज़ार से खरीदकर पढ़ते थे। आजकल फेसबुक पर किताबों को फुटपाथ पर वज़न के हिसाब से 150 रूपये किलो भाव का फोटो नज़र आता है। फेसबुक शुरू हुआ तो लेखक पोस्ट लिखते पाठक पढ़ते थे मगर आजकल कोई पढ़ता ही नहीं टाइमलाइन  पर और मेसेंजर या व्हाट्सएप्प पर संदेश तक देखते हैं और तस्वीर देखना या फिर शीर्षक पढ़कर समझना पढ़ लिया की आदत है। लंबा लेख पढ़ना बोरियत भरा काम है क्योंकि अब ज्ञान की जानकारी की ज़रूरत नहीं है मनोरंजन सबसे महत्वपूर्ण है। जानकारी को गूगल सर्च है ही। अनपढ़ लोग भी स्मार्ट फोन खरीद समझदार बन सकते हैं। हमने इतने साल व्यर्थ महनत की इक स्मार्ट फोन होता तो ढाई आखर पढ़ लिए होते लेकिन कितनी किताबें पढ़ीं मगर वही ढाई अक्षर नहीं समझ पाये हम लोग। 

 


मार्च 18, 2019

POST : 1029 चोर-पुलिस खेल और चौकीदार ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  चोर-पुलिस खेल और चौकीदार ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

  सब का काम बड़े आराम से चल रहा था हर कोई मस्त था। पुलिस-चोर भाईचारा कायम था चौकीदार से कोई मतलब नहीं था। चौकीदार जागते रहो की आवाज़ लगाता लोग चैन की नींद सोते रहते। चोर पुलिस सहयोग से सात घर छोड़ चोरी करने के नियम का पालन करते और आपसी मिल बांट ईमानदारी से होती रहती थी। जब पुलिस को ज़रूरत होती चोर खुद थाने आकर चोरी कबूल करते और बड़े लोगों की चोरी की भैंस गाय क्या तोता तक बरामद हो जाता था। चौकीदार को महीने महीने वेतन मिलता था और डंडा बजाने को मिल जाता था ताकि गली के कुत्ते चौकीदार को काटने की हिम्मत नहीं कर सकें। पुलिस चोर दोनों को चौकीदारी से कोई परेशानी नहीं थी। समस्या उस दिन खड़ी हुई जब चौकीदार चोर पुलिस दोनों को नाकारा बता कर खुद चोर पकड़ने और चोरी नहीं होने देने की बात का शोर मचाने लगा। सदियों से हर कोई अपना धंधा चलाता रहा है चोरी का धंधा बंद होने से पुलिस का काम भी बंद होने की नौबत आने का अंदेशा था। ऐसे में चौकीदार का महत्व बढ़ गया था और चोर पुलिस दोनों उसकी शर्त मानने को राज़ी हो गए थे।

    चौकीदार का संविधान लागू होते ही चोर और पुलिस बेबस होते गए। चौकीदार शान से गुलछर्रे उड़ाने लगा और झूठ को सच बनाने लगा। कौन साहूकार है कौन खज़ाने का चौकीदार कोई समझ नहीं पा रहा था। खज़ाना चौकीदार की सुरक्षा में है चौकीदार बताकर बहला रहा था। चौकीदारी के नाम पर अपनी चला रहा था मैं हूं चौकीदार बाकी सभी हैं चोर का शोर मचा रहा था। चौकीदार सोते रहना देश वालो क्या आलाप लगा रहा था। उधर खज़ाना खाली होता जा रहा था चौकीदार दोस्ती निभा रहा था मामला सुलझने की जगह उलझता जा रहा था। चोरी के थान बांसों के गज से नापने का जुमला दोहराया जा रहा था। घर दुकान की अलमारी नहीं बैंक का खज़ाना लुटता जा रहा था लूटने वाले को कोई रास्ता बता रहा था। बैंकों पर बोझ बढ़ता जा रहा था अर्थव्यवस्था का कचूमर निकला जा रहा था। चौकीदार विदेश की सैर पर आ जा रहा था किस को कौन कैसे कहां भगा रहा था। चौकीदार वापस पकड़ लाने का ऐलान फरमा रहा था भगोड़ा आराम से विदेश में परचम फहरा रहा था।

        चोरी होना जारी रहा बस चोरी की घटना सार्वजनिक करना रोक दिया गया। अख़बार टीवी वालों को खबर की जगह बेखबर रहने की कीमत मिलने लगी थी। चोरी की बात पर चर्चा करना अपराध बताया जाने लगा , पुलिस पर आरोप लगते थे कोई चिंता नहीं थी चोरों के नाम सामने आते तब भी कोई घबराहट नहीं थी मगर चौकीदार की चौकीदारी पर सवाल करना गंभीर बात समझी गई। चोर पकड़े जाते तो इलाका बदल दिया जाता पुलिस वालों को किसी और थाने तबादला करना भी आम बात थी लेकिन चौकीदार को बदलने की बात की तो हंगामा खड़ा हो गया। चौकीदार का रुतबा इतना बढ़ गया था कि उसके नाम के पर्चे छप कर हर दीवार पे चिपका दिये और आजकल किसी घर की दीवार में कोई दरार नहीं नज़र आती है सब छेद ढक दिये गये हैं इश्तिहारों से। अचानक चौकीदार रखवाने वाले के निर्देश पर चौकीदार के फोटो छपे पर्चे इश्तिहार हटवा दिए गए हैं तो लगता है बिना चौकीदार अमन चैन कायम हो रहा है। चौकीदार को अभी जागते रहो की पुकार बंद करने को निर्देश दिया हुआ है। पुलिस चोर भाईचारा फिर से पहले की तरह सामान्य होने लगा है। कोई कहने लगा है अब भी उसी चौकीदार को रख लिया तो फिर चौकीदार को कभी हटाया नहीं जा सकेगा और चोर पुलिस चौकीदार सबकी पहचान करना असंभव हो जाएगा। सब हैरान रह गये जब अदालत को जानकारी दी गई कि चौकीदार के पास से सुरक्षा से जुड़े दस्तावेज़ चोरी हो गये हैं और किसी ने चोरी हुए दस्तवेज़ के आधार पर आरोप लगाया है मगर अदालत को उस को अनदेखा करना चाहिए। चोर कौन है जिसने देश के सबसे कड़ी सुरक्षा वाली जगह से इतने महत्वपूर्ण कागज़ चुरा लिए और जाने किस किस तक पहुंच गये। अभी भी चोर की नहीं चौकीदार की पैरवी की जा रही है। चोर-सिपाही का खेल जारी है और चोर-पुलिस मिलकर होली का त्यौहार मनाने वाले हैं शायद चौकीदार भी आने वाले हैं। चुनाव आने वाले हैं। 

   बच्चे भी चोर पुलिस वाला खेल नहीं खेलना चाहते माता पिता को शिक्षक मना कर गये हैं। हर कोई मैं भी चौकीदार खेलना चाहता है इक अनार सौ बीमार की बात है। चौकीदार का मुखौटा लगा लोग धोखा खाने लगे हैं असली चोर खिलखिलाने लगे हैं। चौकीदार एसोसिएशन अब जागी है अपने नाम का दुरूपयोग नहीं होने देगी ये कहानी आधी है। जनता की अदालत निर्णय सुनाएगी चोर को चोर पुलिस को पुलिस बनाकर फिर चौकीदारी की बात पे गौर फ़रमाएगी। 

मार्च 17, 2019

POST : 1028 फिर चली बात जूतों की ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

    फिर चली बात जूतों की ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

    निकल पड़ी है बारात जूतों की , फिर होने लगी है बात जूतों की। कल सुनी हुई बरसात जूतों की , देखना चाहते हो करामात जूतों की। खेल कोई भी हो जूतों की अपनी बात होती है देखना शह मात जूतों की। जूतों का खेल कोई आजकल का नहीं है सदियों से जूता चलता रहा है। गली के शोहदे मनचले और छोटे चोर जूते की सज़ा से बरी हो जाते हैं खरबूजा या गन्ना खेत से चुराने वाले की जूतों की सज़ा देना नाइंसाफी समझा जाता है डांट डपट ही बहुत होती है। कुछ माता पिता बिगड़े बच्चों को जूतों से सुधारने की नाकाम कोशिश करते हैं मगर बच्चे और बिगड़ जाते हैं। जूता चलता रहा है और चलता रहेगा मगर उसकी सफलता का कोई मापदंड नहीं है। लोग किसी की पिटाई होते देख भीड़ में घुस जूते चलाने का लुत्फ़ लेते हैं बिना जाने कि जिसको जूते पड़े उसका दोष क्या था। सभाओं में सस्ते घटिया जूते विरोधी दल के लोग उपलब्ध करवाते हैं मगर चालाक लोग जूट लेकर भी फेंकते नहीं पहन कर निकल लेते हैं। जूते बनाने वाली किसी कंपनी ने राजनीति के काम आने वाले अच्छे सस्ते और टिकाऊ जूट बनाने पर गौर नहीं किया अन्यथा चुनाव में खूब बिकते। वास्तव में जूतों का खेल बेहद मनोरंजक खेल है , पुलिस थाने में जूता इक छड़ी से बांधा टंगा रहता है पहले उसकी मार मुंह खुलवाती थी आजकल उसको दिखला कर ही काम चल जाता है। नेताओं पर जूता फेंकना खुद मुसीबत को घर बुलाना है अब कोई ऐसा नहीं करता मगर खुद नेता नेता को जूतों से सम्मानित करते हैं कभी कभी। घोषणा कर के जूतों की बारिश करने वाले संसद की चर्चा है कि बात का पक्का है इरादे पर खरा होगा ही। 

                   माना जूता विरोध जतलाने को इक साधन हो सकता है लेकिन जिस देश में करोड़ों लोग नंगे पांव रहते हैं फैंकने को जूता खरीदना मुश्किल है। किसी सरकार ने इस के लिए सबसिडी पर जूते मिलने की योजना नहीं बनाई है। विरोध का ये बेहद महंगा तरीका सांसद और विधायक उपयोग करते हैं संसद में या विधानसभा में। भारत ही नहीं अमेरिका वाले भी अपने शासक को इतनी सुरक्षा के बाद भी जूता चलने से सुरक्षित रख नहीं सके। उनके इतिहास में इस घटना का महत्व 9 / 11 की घटना से कम नहीं है। उस जूते का नंबर तक जानते हैं दस नंबरी था और उसका निशान तक मिटा दिया गया फिर भी बुरा सपना बनकर दिखाई देता है। बहुत मुमकिन है किसी दिन चुनावी उम्मीदवार की जूतों की क्षमता पर भी ध्यान देने लगे पार्टी का आलाकमान। कितने खा सकता है कितने से बचाव करना जानता है और कितनी दूर तक जूता फैंकने की क़ुअत है। कोई कंपनी दावा कर सकती है कि उसके बनाये जूते भारी नहीं बेहद हल्के हैं लगने पर दर्द भी नहीं होता बस धीरे से लगते हैं मगर उनकी गूंज दिल्ली तक सुनाई देती है। हाथों हाथ बिक जायेगा सब माल। आप देखना इक दिन आपके हर शहर में इक जूता चौक नाम का स्थान होगा जहां कोई ख़ास दिन जूतों को फूलमाला चढ़ाकर जूतों का महत्व समझने की बात होगी। कभी जूतों की माला पहनाई जाती रही है आशिक़ों को या समाज विरोधी कार्य करने पर। 

   
         जूतों की कहानी इतनी भर नहीं है। विवाह के समय दूल्हे के चुराये हुए जूते मुंह मांगे दाम देकर वापस लेते हैं। शादी का अर्थ समझाने को ये बहुत काम की रस्म है। पांच सौ का जूता दो हज़ार का हो जाता है। मंदिर जाने पर मांगने वाले की मुराद पूरी नहीं हो बेशक लेकिन जो मंदिर जूते चुराने को जाते हैं नंगे पांव जाते हैं और मनपसंद जूता डालकर घर आते हैं। जूतों की महिमा इसी से पता चलती है कि पुराने लोग जूता देखकर इंसान की पहचान किया करते थे।

मार्च 16, 2019

POST : 1027 आदर्श आचार संहिता ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      आदर्श आचार संहिता ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

     मैं जनता की भलाई को ध्यान रखते हुए निर्वाचन आयोग से इक निवेदन इक विनती करना चाहता हूं। बस बहुत लागू कर के देख चुके अब आदर्श आचार संहिता को तुरंत वापस ले ले। न तो मुझे कोई चुनाव लड़ना है न ही राजनीति से कोई मतलब है मुझे फिर भी तमाम कारण हैं जिन पर विचार करने के बाद समझ आया है कि इस से जिनको मुश्किल होनी चाहिए ऐसा समझते हैं उनको नहीं वास्तव में बाकि जनता को मुश्किल होती है। सबसे पहली बात अपने चुनाव आचार संहिता बनाते समय आम जनता की कोई सलाह ली ही नहीं। जबकि इसका असर पड़ता जनता जनार्दन पर ही है। राजनैतिक दलों से मशवरा करने का क्या औचित्य है ये उस तरह की बात है जैसे खेल के नियम खिलाडियों से राय से बनाये जाएं। राजनीति का मतलब राजनेताओं से नहीं बाकी सभी लोगों से अधिक होता है क्या जनता बस खेल की तमाशाई है तालियां बजाने भर को। सब को मालूम है ऐसी किसी संहिता का पालन होता नहीं है और इसको मानकर चुनाव जीतना क्या लड़ना भी संभव नहीं है। जब शुरुआत पर्चा दाखिल करते समय ही बात झूठा शपथ पत्र देने से की जाती है तो आगे भगवान ही मालिक है। जनता पर इसका कितना खराब असर होता है इसकी व्याख्या करना ज़रूरी है तभी आयोग को भूलसुधार करने की बात समझाई जा सकती है।

    इस देश में अधिकारी आदी हैं कोई काम बिना ऊपरी आदेश नहीं करने की आदत के। खुद ब खुद अगर उचित कार्य करने की रिवायत होती तो विनती करने को अर्ज़ी देने दफ्तर जाकर कतार में खड़े होने की नौबत नहीं आती। खुला दरबार लगाने की परंपरा का अर्थ भी शासक का दाता बनकर अनुकंपा करना है जबकि वास्तव में लोग जाते हैं उचित कार्य नहीं किये जाने की शिकायत लेकर। सत्ता को शिकायत सुनना पसंद नहीं है और अधिकारी अगर रिश्वत लेने का लालच नहीं हो तो कोई काम करने की ज़हमत उठाते ही तभी हैं जब कोई सत्ताधारी दल का नेता सिफारिश करता है। चुनाव से पहले इस सब को रोकने से क्या मतलब यही है कि आपको बाकी पांच साल तक उचित काम भी मनमानी पूर्वक करने की खुली छूट मिली हुई है। जैसे उपवास के दिन खाने पीने पर कोई रोक या ऐतिहात की बात हो। नेता अपने ख़ास लोगों और धनवान चंदा देने वालों के सभी काम हमेशा करने को तत्पर रहते हैं यही अकेला अवसर जनता के लिए था वोट मांगने आने वाले नेताओं से अपने काम करवाने की बात करने का उसे भी आयोग ने छीन लिया। नेताओं की मंशा कभी नागरिक के उचित काम बिना फायदा उठाये करने की होती नहीं है इस तरह उनको बहाना मिल गया है नहीं करने का।

     चुनाव होने के बाद नेताओं को सरकार बनाने गिराने से अधिक महत्व किसी बात का नहीं होता है। आम नागरिक से मिलने को फुर्सत नहीं होती न ही मिलना चाहते हैं। आम जनता से मुलाक़ात कभी संभव हो तब भी टरकाने को सौ ढंग हैं अर्ज़ी ले लेना विभाग को आगे भेजने की बात कहना या फिर दिखावे को भेज भी देते हैं लेकिन वास्तव में काम किस का करना है हिदायत देने पर ही होता है वर्ना अर्ज़ियां रद्दी की टोकरी में चली जाती हैं। आम जनता के लिए हिदायत चुनाव के वक़्त दी जाती थी उसी को बंद करवा दिया आपने। क्या संविधान उचित काम चुनाव के दिन नहीं करने को कहता है , नेताओं को सिफारिश से रोकना है तो हमेशा को बंद करना चाहिए। सब जानते हैं नेताओं की सिफारिश बिना काम जायज़ ढंग से होते ही नहीं ये कुछ दिन की पाबंदी नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज पर जाने की चुटकुले जैसी बात है।

   दूसरा नियम चुनवों में खर्च पर सीमा को लेकर है हर बार जो हमुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ता जाता है। सीमा में खर्च का शपथ देना कोई चुनावी उपहास जैसा है। पांच साल नेता हज़ार तरह से कल्याण राशि के नाम पर कोई और तरीका अपना कर देश के खज़ाने और जनता से चंदा रिश्वत किसी रूप में वसूल कर लूट का व्यवसाय करते हैं और पता चलता है उनके कुछ हज़ार करोड़ों बन चुके हैं ऐसा जादू का करिश्मा अन्य कोई नहीं जनता देश में। देश की संपत्ति का बड़ा हिस्सा इन पास है अगर इनको सीमा से कम नहीं बल्कि ऐसा नियम होता कि आपको दो करोड़ से अधिक खर्च करना लाज़मी है अन्यथा आपका चुनाव रद्द हो जाएगा तब जितना काला सफ़ेद धन इनकी तिजोरी में सड़ता है उसको हवा लगती और देश की अर्थव्यवस्था में इतना पैसा आने से कितने लोगों को थोड़ा हिस्सा मिल जाता। वैसे भी कोई शरीफ और ईमानदार आदमी चुनाव लड़ने की बात सोच भी नहीं सकता है।  चुनाव  लड़ने जीतने को गुंडागर्दी बदमाशी अपराधी होना ज़रूरी शर्त जैसा है आधा सदन इनकी बदौलत है।

          आखिर में सार की बात समझने को कई ढंग हो सकते हैं मगर कई बातें सुनने को अच्छी लगती हैं वास्तव में अच्छी साबित नहीं होती हैं। कितने राज्य शरब बंदी लागू करते हैं मगर शराब बिकनी बंद नहीं होती। शराब के दाम कई गुणा बढ़ जाते हैं और शराब माफिया घर घर बोतल पहुंचाता है। अभी कितने लाख करोड़ हर दल चुनाव पर खर्च करने को लिए बैठा है सब जानते हैं। उनको खर्च करना है जाने किस किस ढंग से कोई रास्ता तलाश कर के या फिर खर्च करने का नाम और तरीका बदल कर। आयोग आचार सहिंता की भूल को सुधार सकता है या बेशक इसका स्वादिष्ट अचार डाल कर सबको खाने खिलाने की बात कर मालामाल हो सकता है। जैसे हर सरकारी विभाग आयकर विभाग अकेले नहीं कई तरह से कुछ फीसदी जुर्माना या कर वसूल कर अनुंचित उचित का अंतर खत्म कर देता है। हर उम्मीदवार से खर्च का बीस तीस फीसदी लेकर छूट दे सकता है। मिल बांट कर खाना अच्छी बात है , न खुद खाऊंगा न किसी को खाने दूंगा का सच कौन नहीं जानता है आपको भी अभी की सी ए जी की रिपोर्ट को देख जान लिया होगा। सत्ता की भूख से बढ़कर कोई हवस नहीं दुनिया में। गागर में सागर भरने जैसे बात कही है थोड़े लिखे को बहुत समझना।

POST : 1026 ईमानदार उम्मीदवार की खोज ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      ईमानदार उम्मीदवार की खोज ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     चिंताराम जी को चिंता का नामुराद रोग लगा ही रहता है। हर दिन किसी चिंता में डूबे रहते हैं और चिंतन करते रहते हैं। उनका नाम चिंताराम शहर वालों का दिया हुआ है। कभी शहर की बदहाली की कभी सफाई व्यवस्था की कभी शिक्षा की कभी स्वास्थ्य सेवाओं की खराब दशा की कभी पुलिस और अधिकारियों की कथनी और आचरण की तमाम तरह की मुसीबत उनके सर है। सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है। पिछले चुनाव में राजनीति के अपराधीकरण की चिंता में दुबले हुए फिरते थे और कितने दिन इसी जानकारी जुटाने का काम करते रहे कि किस किस नेता पर कितने मुकदमें चल रहे हैं। कितने हैं जिनके गुनाह गंभीर हैं मगर गवाही नहीं मिली तो साबित नहीं हुए और उन्होंने अपनी बेगुनाही और रिहाई का जश्न भी धूमधाम से मनाया और आलाकमान भी उनको क्लीन चिट देकर बहुत खुस हुआ। सरदार खुश हुआ की तरह। जिस  दल को सत्ताधारी दाग़ी लगते रहे चुनाव के समय अपने दल में शामिल कर सारे दाग़ धो डाले तो समझ आया दाग़ अच्छे हैं। कुछ बेकार के बुद्धीजीवी टाइप लोग मिलकर इक संस्था बनाई और अपराधी घोषित नेताओं को जाकर मिल कर इक सभा में आने का बुलावा दे आये सवाल जवाब देने को। नेताओं ने समझाया कि अभी मामला अदालत में है इसलिए कुछ कहना उचित नहीं मगर आप इंतज़ार करें जल्दी ही पाक साफ़ होकर निकलने का भरोसा अदालत पर है। अदालत राजनेताओं को उनकी पसंद का न्याय देने में कभी संकोच नहीं करती जानते हैं चिंताराम जी भी। उसके बाद नेताओं के सहयोगी आये और चेतावनी दे गये इस पचड़े से दूर रहो अन्यथा नेताजी को क्या है इक मुकदमा और सही आपके ऊपर हमले का। पागल हैं फिर भी नहीं समझे और सभा की बात बीच में अटकी रही मगर अपनी धुन के पक्के हैं जो बात दिमाग में घुसी निकलती नहीं है। 

    अपनी समस्या को लेकर चले आये मेरे घर पर , चाय पीते पीते आह भर कर बोले चुपचाप बैठने से क्या होगा। आपको क्या समाज की चिंता नहीं होती है कलम घिसाने से ज़रूरी काम और भी हैं , थोड़ा परेशान लगे। हुआ क्या पूछा तो धमकी मिलने की बात बताई और अख़बार वाले दोस्त भी कन्नी काटने लगे हैं जिस से उनकी चिंता और बढ़ गई थी। हमने बिना कोई विचार किये कह दिया आप कोई और दूसरा तरीका क्यों नहीं अपनाते हैं। बदमाश नेताओं के साथ शराफत की बात करने जाने की जगह किसी शरीफ और ईमानदार नेता के पास जाते और उनको अपनी सभा में बुलाते तो पॉज़िटिव अप्रोच होती। यूं उनको किसी की बात जचती नहीं है मगर मेरी ये बात उनको उचित लगी और उन्होंने तलाश किये कुछ शरीफ और ईमानदार लोग राजनीति की गंदगी में रहते हुए भी बेदाग़ रहने वाले। जब उनको जाकर मिले तो पता चला उन में किसी को भी अपने दल ने टिकट देकर खड़ा किया ही नहीं था। इसके बवजूद भी कुछ उनकी सभा में इस विषय पर बात कहने से बचना चाहते थे इस डर से कि कहीं इसको आलाकमान बगावत नहीं समझ ले। असंतुष्ट भी बाग़ी कहलाने को राज़ी नहीं थे अनुशासनात्मक करवाई की जा सकती है। शरीफ आदमी नेता होकर भी डरपोक रहता है। 
     
  सवाल मुश्किल था क्योंकि चुनाव में खड़े हुए बिना लोग किसी को वोट दे ही नहीं सकते हैं। शरीफ लोग लड़ने से डरते हैं भले बात चुनाव लड़ने की ही हो। अब राजनीति का मतलब विचारों की मतभेद की बात नहीं रही सत्ता की जंग है जिस में जीतने को सब करना जायज़ है। शांति पूर्वक चुनाव लड़ना संभव ही नहीं है। लेकिन उनकी हिम्मत रंग लाई और उन्होंने इक ऐसा नेता खोज ही लिया जो बेदाग़ था ईमानदार और शरीफ होने के बाद भी एक दल ने जिसे टिकट देकर उम्मीदवार बनाया हुआ था। बहुत खुश होकर उनके पास गये चिंताराम जी और निवेदन किया कि बहुत अच्छी बात है जो आप जैसे लोग भी राजनीति में हैं। हमारी संस्था आपको सभा में लोगों से रूबरू करवा कर सम्मानित करना चाहती है। राजनीति के अपराधीकरण पर आपके साथ सवाल जवाब करना चाहती है। उनके सच्चे आश्वासन के बाद सभा की तैयारी में जुट गये। अचानक उनको ख्याल आया पहले उन्होंने जो जो सवाल बना रखे थे वो अपराधी नेताओं से पूछने थे , इस ईमानदार नेता  बुला लिया मगर उनसे सवाल क्या करेंगे ये सोचा ही नहीं। समस्या लेकर मेरे पास चले आये कि अपने सुझाव दिया था अब सवाल भी आप ही बनाओ। मैंने उनकी समस्या का समाधान किया और ये सवाल पूछने को लिखवा दिए। ईमानदार होकर राजनीति में कैसे बने हुए हैं बताओ। पार्टी से टिकट कैसे मिला इसका कोई राज़ है तो बताओ। ईमानदारी से नियम पर चलकर चुनाव जीत कैसे सकेंगे। चुनाव का खर्च कैसे संभव होगा। क्या जनता ने जितवा दिया तो कोई पद मिलने की उम्मीद है और बिना मंत्री बने जनता को किये आश्वासन पूरे कर सकेंगे। जब ये सब सवाल उनको पहले लिखकर देने गए तो उनका कहना था ईमानदारी की बात है मैं इन सवालों के जवाब नहीं दे सकूंगा अतः मुझे क्षमा करें। 
      
उनके घर से निराश होकर लौटते चिंताराम जी को इक उम्मीदवार खुद मिल गए। और कहा चिंताराम जी आपकी समस्या हम जानते हैं और हम जानते हैं आप कब से किसलिए भटकते फिरते हैं। वो ईमानदार नेता हमारी धमकी से डर गए हैं कि अगर आपकी सभा में गये तो उनके ऊपर ऐसा केस बनवा देंगे कि नानी याद आ जाएगी। आप बताओ ऐसे डरपोक क्या करेंगे ईमानदारी और शराफत का। आप हमें बुलाएं और अवसर दें , आपके सभी सवाल हम जानते हैं। कोई केस किसी थाने में दर्ज नहीं हमारे खिलाफ। किसी थानेदार की मज़ाल नहीं कोई रपट भी लिखने की हमारे विरुद्ध। चिन्तराम जी के तैयार सभी सवाल उनकी तेज़ आंधी में उड़ते चले गए और उन्होंने सभा बुलाने का इरादा छोड़ दिया है। आजकल की राजनीती का वाक्य है बेदाग़ ढूंढते रह जाओगे।

मार्च 15, 2019

POST : 1025 मुझे कैसे सांसद विधायक चाहिएं ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

 मुझे कैसे सांसद विधायक चाहिएं ( आलेख )  डॉ लोक सेतिया 

    आज सुबह इक दोस्त का फोन आया मिलकर लोगों को समझाया जाये कैसे व्यक्ति को चुनना चाहिए। अभी शाम को इक और दोस्त ने व्हाट्सएप्प पर पूछा फिर किसको वोट देना चाहिए। जाने क्यों टीवी चैनल अख़बार फेसबुक सोशल मीडिया पर हर कोई सबको समझाना चाहता है किसी पक्ष को समर्थन देने को। पहली बात यही गलत है कि कोई किसी के कहने पर किसी को वोट डाले , सब को खुद विचार करना चाहिए देश और समाज की भलाई किस को वोट देने से मुमकिन है। इसलिए आपको जिसको वोट देना है अपनी मर्ज़ी से देना मेरे या किसी और के कहने से नहीं। आपका चुनाव सही गलत हो सकता है मगर आपकी अपनी सोच से तो हो किसी के कहने से कदापि नहीं। मुझे कैसी सरकार कैसे संसद विधायक पसंद हैं आज इसकी बात करना चाहता हूं। 
 
           जो संसद या विधायक सरकारी बंगला नहीं कार नहीं कोई विशेषाधिकार और मुफ्त की सुविधा नहीं चाहते हों और देश जनता की सेवा की आड़ में सुख सुविधा शान वीवीआईपी रुतबा नहीं मांगता और हम जैसे आम नागरिक की तरह अपनी खुद की आमदनी से अपने घर में रहकर काम करना चाहता हो। जिनको राजनीति अपना कारोबार या खानदानी धंधा लगता हो उनको वोट देना मुझे पसंद नहीं है किसी की मौत के बाद उसकी बेटी बहु दामाद बेटा पत्नी को उसकी जगह विधायक संसद बनाना सबसे गलत बात है। जब हम खुद उनको विरासत की तरह ये सब देते हैं तो देश के संविधान और लोकतंत्र की अवहेलना करते हैं। जिनका आपराधिक इतिहास है जो गुंडागर्दी और तमाम असामाजिक कार्य करते हैं सरकारी ज़मीन पर कब्ज़े करते हैं और असामजिक तत्वों को सहायता देते हैं उनको वोट देना अर्थात बदमाशी को बुलावा देना होगा। 
 
       आपको अच्छे सच्चे ईमानदार लोग खुद चुनकर खड़े करने चाहिएं न कि किसी दल के खड़े गलत उम्मीदवार को विवश होकर चुनना चाहिए। आपको वोट मांगने आये व्यक्ति से सवाल करना चाहिए किस तरह की सरकार बनवाने को वचन देते हैं। मुझे ऐसी सरकार पसंद है जिस के लिए देश की जनता को एक समान शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाना सबसे महत्वपूर्ण कार्य और अपना कर्तव्य लगता हो। जीने की बुनियादी सुविधाएं हर नागरिक को एक समान मिलनी चाहिएं। बड़े छोटे अमीर गरीब का जीना मरना बराबर होना चाहिए। करोड़ों लोग बेघर हैं और किसी की समाधि बनाने को कई एकड़ भुमि देना इक अपराध जैसा है। कहने को हम देश की जनता की सेवा करते हैं मगर वास्तव में उनके एक एक मिंट की महंगी कीमत देशवासी चुकाते हैं और बदले में पाते क्या हैं झूठे वादे और घोषणाएं। नफरत की बांटने की जाति धर्म की राजनीति संविधान की भावना के विपरीत है ऐसी राजनीति ने ही देश को बदहाली से निकलने नहीं दिया है। आपको सामने दिखाई देता है हर उम्मीदवार कितना पैसा चुनाव आयोग के नियम को दरकिनार कर खर्च करता है फिर जिस को कानून नियम तोड़ने में संकोच नहीं उसी को वोट देकर कैसे आशा की जा सकती है देश के संविधान की पालना करने की। उनकी कथनी नहीं उनके वास्तविक आचरण को देखकर अपना वोट देना चाहिए। सबसे पहली बात जिसको चुनना है क्या वो खुद अपने विचार निडरता से रखने को शपथ देता है और किसी भी अन्य नेता या दल की उचित अनुचित हर बात को ख़ामोशी से मानने वाला इक कठपुतली बनकर अपने स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है। अपनी विचारों की अभ्व्यक्ति की आज़ादी की चिंता नहीं करता हो जो भी उसको आपकी आज़ादी और अधिकार की चिंता कैसे होना मुमकिन है।

       किया क्या करना क्या चाहिए और देश की तस्वीर बदल सकती कैसे है 

       कहने को तमाम बातें हैं मगर अभी तक जो होता आया है पहले जो भी थे उनकी आलोचना करना और उसके बाद खुद वही सब करना भी ऐसा करने से हासिल क्या हुआ। देशभक्त होने का तमगा लगाना आसान है देशभक्त होना चाहता कोई नहीं है। सत्ता पाना ही अगर ध्येय बन गया है तो ऐसी राजनीति को किसी कूड़ेदान में फैंकना बेहतर है वास्तविक मकसद सत्ता मिलने पर देश की हालत सुधारना है। आपको तो देश भी सड़क भवन पुल जैसी बेजान चीज़ें लगती हैं जबकि देश वास्तव में सवा सौ करोड़ लोग हैं जिनकी आप उपेक्षा करते हैं। ये अहंकार से कहना मैंने मेरी सरकार ने अमुक अमुक कार्य किये हैं कितना उचित है , अपने आकर अपनी कमाई अपनी मेहनत से कोई तिनका भी नहीं तोड़ा है अपने जनता के धन को जनता की मेहनत से उसी के पसीने से सड़क भवन बनवा अपना नाम लिखवा कितना गलत किया है। कोई राजा महाराजा नहीं जिसने अपने खज़ाने से कोई विकास किया है। सत्ता का मतलब अधिकार मानने की बजाय अगर कर्तव्य समझते तो बात और होती वास्तव में। हर जनसेवक अधिकारी को अपने दफ्तर में बैठ जनता की समस्याओं को समझना और हल करना चाहिए मगर जिस देश के प्रधानमंत्री अपने फ़र्ज़ को समझ दफ्तर जाने की ज़हमत नहीं उठाते और पांच साल इधर उधर सत्ता का विस्तार और भाषण देना सैर सपाटे मनोरंजन करना अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने में व्यस्त रहते हैं देश संविधान की उपेक्षा करने का काम करते हैं। ये कैसा आज़ाद देश है जिस में कोई मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री या कोई बड़ा राजनेता अधिकारी पुलिस न्यायालय का न्यायधीश आता जाता है तो इक काफिला साथ चलता है सड़क रोकते हुए आम नागरिक को बाधा देते हुए। अपने कारण बाकी लोगों को असुविधा होना कोई नियम कानून नहीं हो सकता और जो अधिकार आपको बाकी जनता के अधिकारों का हनन करने के बाद मिलता है वो खुद अन्याय है जबकि अपने कसम खाई थी संविधान की न्याय करने की। 
 
        देश की जनता का धन खून पसीने की गाढ़ी कमाई को अपने ऐशो आराम पर बर्बाद करना देशभक्ति नहीं गुनाह कहला सकता है। कितनी अजीब बात है हर दिन आपकी मीटिंगस सजे धजे हाल में मेज़ पर तमाम खाने पीने का सामान और दिखावे की औपचारिकता पर पैसा समय संसाधन बर्बाद किये जाते हैं मगर असल में ऐसी बैठकों का कोई औचित्य ही नहीं होता है। हर शहर के अधिकारी हर दिन बैठकों में करते क्या हैं कोई जाकर देखेगा तो सर पीट लेगा ये समझ कि कोई मतलब की बात नहीं थी। जितना समय चाय पकोड़े और बेमतलब की गप शप में लगाते हैं उस का उपयोग जनता की बात समझने में लगाते तो काम भी होता। काम करना नहीं मगर काम करते हैं इसका दावा और दिखावा करना कर्तव्य के साथ छल ही तो है। कोई भी अधिकारी अपने फ़र्ज़ को दरकिनार कर रोज़ किसी संस्था की सभा में अपनी शोभा बढ़ाने को और कुछ ख़ास लोगों की तरफदारी करने को जाता है तो अनुचित है। ये आपका कार्य नहीं है किसी जाति वर्ग धर्म का पक्ष नहीं सबको बराबर मानना आपका कर्तव्य होना चाहिए। अपने जो किया उसकी इश्तिहार की ज़रूरत नहीं है सबको सामने दिखाई देना चाहिए क्या हुआ है। साल होने के सरकारी इश्तिहार क्या मतलब रखते हैं राजनेताओं को अपने गुणगान की लत लग गई है जो कोई भली बात नहीं है। कोई भी राजनेता मसीहा कदापि नहीं होता है। अपने स्वार्थ को सत्ता का दुरुपयोग करना जैसे आदत बन गई है और ऐसा करते कोई शर्म या अपराधबोध नहीं होता है। इस से बढ़कर बेशर्मी क्या होगी जब कोई नेता अधिकारियों की सभा में अपने दल के लोगों की बात मानने को निर्देश देता है। देश की सेवा करते हैं सरकारी अफ़्सर कर्मचारी न कि किसी राजनेता की जीहज़ूरी और चाटुकारिता करने को उनको नियुक्त किया गया है। जनता पर कानून की तलवार मगर ख़ास लोगों को मनमानी की छूट देना खुद पुलिस और विभागीय अधिकारी का अपराधी बनना है। जो गलत चलता रहा है चलते रहना ठीक नहीं है उसको बदलना होगा। सरकार बदलने से कुछ नहीं होगा अब सरकारी तौर तरीके बदलने होंगे और ऐसा नेता अधिकारी खुद करेंगे नहीं लगता है। जनता को जागरुक होकर अपने अधिकार मांगने और छीनने होंगे उनकी खैरात नहीं मांगनी है। 
 
        संविधान किसी दलीय व्यवस्था की बात नहीं करता है और ऐसा नियम बनाना कि राजनैतिक दलों को मिलने वाले चंदे देश से या विदेश से का कोई हिसाब नहीं पूछ सकता बताता है वास्तविक समस्या चोर की दाढ़ी में तिनका नहीं शहतीर छुपा है। हर नेता चंदा लेकर देने वाले को कई गुणा फायदा देने का काम करता है वो भी अपनी जेब से नहीं देश की जनता की कमाई किसी कारोबारी को देकर। ये लूट की खुली कहानी है जिसका अंत होना ज़रूरी है। बातें बहुत हैं मगर आखिर में बात घोटालों की , देश का अभी तक का सबसे बड़ा घोटाला सरकारी इश्तिहार के विज्ञापन हैं जिनसे अख़बार टीवी चैनल मालामाल हैं तभी खामोश हैं। ऐसे विज्ञापन कोई देश की जनता की भलाई नहीं करते केवल लूट का हिस्सा पाकर झूठ को सच बनाते हैं। केवल जनता को उनके अधिकारों की जानकारी या किस तरह अपने साथ अनुचित होने को रोकना है जैसे विषय के इश्तिहार छपने चाहिएं और ऐसा कानून बनाया जा सकता है कि जनहित की ऐसी बात छापना और दिखाना अख़बार टीवी वालों को ज़रूरी हो बिना कोई शुल्क लिए  क्योंकि उनको जितने अधिकार मिलते हैं ये उसी का अंग है। सबसे अच्छी बात इस से मीडिया की निष्पक्षता फिर से बहाल हो सकती है जो आज कहीं बची नहीं है। 

 

मार्च 14, 2019

POST : 1024 पत्थर के खुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसां पाये हैं - डॉ लोक सेतिया

  पत्थर के खुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसां पाये हैं -

                                  डॉ लोक सेतिया

पत्थर के खुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसां पाये हैं

तुम शहरे मुहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आये हैं

होटों पे तब्बुसम हल्का सा आंखों में नमी सी है फ़ाकिर 

हम अहले मुहब्बत पर अक्सर  ऐसे भी ज़माने आये हैं । 

हम सोच रहे हैं मुद्दत से अब उम्र गुज़ारें भी तो कहां

सहरा में ख़ुशी के फूल नहीं शहरों में ग़मों के साये हैं । 

तुम शहरे मुहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आये हैं 

पत्थर के खुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसां पाये हैं । 

   सुदर्शन फ़ाकिर जी की  जगजीत सिंह की गाई ग़ज़ल है। आदमी में भावना होती हैं सुख दुःख का एहसास होता है मानवीय संवेदना रहती है। जब ये सब नहीं बचता तो आदमी पत्थर बन जाता है। पत्थर घायल करता है तो कसूर उसका नहीं किसी इंसान का होता है जो किसी पर पत्थर फैंकता है। जब लोग घायल होते देख कर दर्द नहीं महसूस करते और उसे देखने का आनंद लेने लगते हैं तब उनकी इंसानियत मर जाती है और उनके भीतर का शैतान जग उठता है। जिनको किसी को दर्द देना अच्छा लगता है वो इंसान हैवान बन जाते हैं और शैतान खुश होता है। सत्ता ताकत अधिकार दौलत मिलने से अगर आदमी इंसानियत खोकर हैवानियत करने को जायज़ समझने लगता है तब दुनिया का भला नहीं होता बर्बादी होती है। ये जो कायदे कानून लोगों ने अपनी सुविधा से बना लिए हैं अगर उनसे सदभावना और भाईचारा नहीं नफरत दहश्त का माहौल बनता है तो उनको बदलना होगा। ये किस युग की बात है कि कोई धर्म की किताब में ढोल पशु गंवार और नारी को एक समान बताकर ताड़न का अधिकारी बताता है ऐसी किताब को किसी समंदर में फैंक देना उचित होगा। 
     सत्ता पद पाकर मानव कल्याण करने की बात समझने की जगह जब लोग नेता अधिकारी बनकर तलवार की तरह ज़ख्म देने लगते हैं तो इसे उन्नति नहीं अवनति कहना होगा। वोट पाने को रिश्वत लेने को मनमानी करना व्यवस्था नहीं कायम करता है। किसी शायर का शेर है :-

           हमने ये बात बज़ुर्गों से सुनी है यारो , ज़ुल्म ढायेगी तो सरकार भी गिर जायेगी। 

  अपनी वहशत को अधिकार नहीं समझना चाहिए और आपके नहीं समाज के नियम बदलते रहते हैं। जो कानून जो नियम न्याय नहीं अत्याचार करते हैं उनको लागू करना अमानवीय अपराध है। शासक अपनी मर्ज़ी से नियम बनाते हैं और कुदरत का एक ही नियम है खुद भी इंसान बनकर जियो और सबको जीने दो। अगर कभी इतिहास को समझोगे तो ज़ालिम को नहीं रहमदिल शासक को लोग महान मानते हैं। सत्ता से मिले अधिकार अन्याय करने को कदापि नहीं हैं। बेशक कोई स्वर्ग नर्क है या नहीं कोई नहीं जानता कगर मेरा अनुभव है अपने कर्मों अपकर्मों का हिसाब इसी जीवन में चुक्ता करना पड़ता है। किसी बेबस की बद्दुआ या आंसू कभी व्यर्थ नहीं जाते हैं और बड़े बड़े ताकतवर और धनवान ही नहीं खुद को महान शासक समझने वालों का अंजाम और अंत विनाशकारी होता है। आदमी की सब से बड़ी भूल यही है कि सामने देखते हुए भी सोचता है मेरे साथ ऐसा नहीं हो सकता कभी। मगर आखिर ऊपर वाले का या कुदरत का नियम कायम रहता है और बबूल बोन वाले को कांटे मिलना लाज़मी है। 
 

 



मार्च 13, 2019

POST : 1023 ताकि सनद रहे ( मेरे देश की पुलिस और उसके कानून ) डॉ लोक सेतिया

        ताकि सनद रहे ( मेरे देश की पुलिस और उसके कानून ) 

                                         डॉ लोक सेतिया 

  चलो इसी बहाने कई पुरानी बातें याद आईं। अपने देश में सरकार शासन करने को होती है देश की दशा बदलना उनका काम नहीं। अधिकारी शासक वर्ग की जीहज़ूरी करने और शान आन बान कायम रखने को होते हैं जनहित इनकी डायरी में नहीं लिखा होता है। पुलिस उसी ज़माने की सोच रखती है जब देश गुलाम था और राज करने को पुलिस डर दहशत का नाम था। मगर अपना जन्म आज़ाद भारत में हुआ और हमने जो स्कूल कॉलेज में शिक्षा में पढ़ा वो सच नहीं है आज तक भी। कोई किस्से कहानी सुनी सुनाई बात नहीं हर घटना खुद देखी झेली जानी है। बात 1980 से शुरू करता हूं। 
 
     दिल्ली में रहता था और तिलकनगर थाने का एरिया था हरिनगर जी आठ के फ्लैट्स। थोड़ा हैरान हो सकते हैं जानकर कि उन दिनों किरन बेदी पुलिस की ए सी पी थी और उनका ब्यान आया करता था जनता उन से दिन में 11 बजे से 1 बजे तक खुद आकर मिल सकती है। हम फ्लैट्स के वासी परेशान थे इक व्यक्ति अवैध रूप से शराब बेचता था इक फ्लैट में कोका कोला की बोतल में शराब मिलती थी और शाम को शराबी पीकर पड़े रहते थे उसके सामने चौक में। समझाने पर उसका कहना था पुलिस की मिलीभगत है यूं भी वह वास्तव में सरकारी विभाग में नौकरी करता था और शराब बेचने का धंधा उसकी पत्नी भी चलाती थी और एक नहीं दो जगह उसका काम था। एसोसिएशन के कहने पर मैंने किरन बेदी जी को समस्या लिखी डाक से चिट्ठी भेजकर। मुझे दिन और समय दिया आकर मिलने को। मगर जब गया मिलने तो बात करने को फुर्सत नहीं थी और जिस पुलिस वाले की शह पर शराब का धंधा चलता था मुझे उसी से बात करने को बोल दिया था। समय देकर बुलाना क्या था वास्तव में मेरे जाने से पहले शराब बेचने वाला और पुलिस वाला उनसे मिल चुके थे और मुझे देख कर मुस्कुरा रहे थे। बहुत समय लगता है समझने में कि थाने में कानून की हैसियत क्या होती है। 
 
          अगली घटना 1994 की है हम मॉडल टाउन के डॉक्टर यहां झौपड़ियों में चलते देह के कारोबार और शराब एवं अन्य गलत धंधे देख परेशान थे। बड़े बड़े डॉक्टर्स मिलकर अधिकारी से शिकायत करने गए थे मगर इक बच्चों के डॉक्टर के अस्पताल के कर्मचारी को इक झौपड़ी वाली ने कहा था उनको पुलिस खुद ले जाती है जब भी किसी को खुश करना हो और कोई हटवा नहीं सकता है। हुआ भी यही था। 
 
      ऐसी घटनाएं होती रहीं फिर भी कोई समस्या हो मज़बूरी में थाने जाना पड़ता है। अभी पिछले कुछ सालों की एक दो घटनाओं की बात करता हूं। स्वच्छ भारत अभियान की बात पर मेरे निवास के सामने पपीहा पार्क के भीतर जाने के मार्ग को रोककर चंडीगढ़ से आये अधिकारी भाषण दे रहे थे। बहुत बढ़िया सफाई की बात हो रही थी और जैसे भाषण खत्म हुआ मैंने हाथ उठाया बात कहने को। कहिये उनका कहना था और मैंने ये शब्द बोले थे अभी आपको जो बताया दिखाया गया सब झूठ है चलो सामने यहीं आपको गंदगी के ढेर दिखलाता हूं। 65 साल का आदमी कोई लाठी हाथ में नहीं थी मगर पुलिस वाले चार लोग मुझे पकड़ खींच कर सभा से दूर ले गये ज़बरदस्ती। अधिकारी और नगरपरिषद के लोग मुझे जानते थे खामोश देखते रहे। मैंने अगले दिन इक खत भेजा था पीएमओ को मोदी जी से सवाल करता हुआ। लिखा था 25 जून 1975 को जेपी जी का भाषण सुनने गया था मैं जिस में उन्होंने सुरक्षा बलों से निवेदन किया था शांति पूर्वक विरोध करने वाले लोगों पर बल उपयोग नहीं करने का। उसी बात को बहाना बनाकर आपात्काल घोषित किया गया था। मेरा सवाल था क्या आप जेपी जी की बात को गलत मानते हैं और आपात्काल लगाना उचित था और अगर उनकी बात सही और आपत्काल गलत था तो जो मेरे साथ हुआ उसको उचित नहीं ठहरा सकते। कुछ दिन बाद इक पुलिस के अधिकारी पीएमओ से भेजे खत को लेकर मेरे पास आये थे। क्या करना है इस का मुझसे पूछने लगे। मैंने घटना बताई तो कहने लगे हुआ तो गलत था मगर मालूम नहीं किस किस की डुयटी लगी हुई थी , मैंने कहा अपने रिकॉर्ड में देख सकते हैं। मगर उनको नहीं मालूम था न्याय किसे कैसे देना है और थोड़े दिन बाद मामला खत्म करने को इक ब्यान लिखवा लिया था ये कहकर कि उनकी तरफ से मैं माफ़ी चाहता हूं। 
 
      ऐसी घटनाएं होती रहती हैं खुद पुलिस जब जिस जगह मर्ज़ी कोई आयोजन करती रहती है उनको किसी से अनुमति नहीं लेनी। सड़क रोकनी है पार्क में शोर करना हो जैसे भी उनकी मर्ज़ी है। आपको सीएम की सभा में जाना है काले कपड़े क्या जुराब स्वेटर नहीं पहन कर जा सकते है। ये किस संविधान की किस कानून की किताब में लिखा है कोई नहीं जनता है। मुझे जाना भी नहीं पड़ा मगर जब भी सीएम आते हैं रास्ते सड़क सब बंद उनके लिए जाने ये सुरक्षा का मामला है या वीवीआईपी होने का ऐलान। दो साल पहले की बात है मुझे इक साहित्य के कार्यकर्म में भाग लेने सिरसा जाना था। बस स्टैंड पर पांच पुलिस वाले खड़े थे मुझे कहा कि उनको नई बनी अनाजमंडी तक लिफ्ट मिल सकती है और मैंने उनको लिफ्ट दी थी सभा स्थल पर छोड़ दिया था। दोपहर को वापस आते हुए बाईपास के पुल पर फतेहाबाद आने का सड़क का रास्ता रोक वही पुलिस वाले खड़े मिले मुझे बताया सीएम को जाना है इसलिए आम लोग नहीं जा सकते इधर से और मुझे करीब आठ दस किलोमीटर का लंबा रास्ता तय कर घर आना पड़ा था। शायद इस देश की यही विडंबना है कि नियम कानून सरकार पुलिस अधिकारी पर लागू नहीं होते बल्कि उनकी नियम कनून और समानता की बात में रत्ती भर आस्था नहीं होती है। जो नियम आपको समझाते हैं उनको शायद इसका पता नहीं कि नियम जनता की सुविधा और व्यवस्था कायम रखने को बनाये हुए है जनता को परेशान करने को या दहशत कायम रखने को नहीं और देश के किसी कानून की किसी किताब में कोई कानून नहीं लिखा हुआ कि नेताओं का कोई विशेषाधिकार होगा सड़कों रास्तों पार्कों और सरकारी इमारतों पर। आखिर में मेरी पहली कविता। 

पढ़ कर रोज़ खबर कोई ( बेचैनी )  लोक सेतिया "तनहा"

पढ़ कर रोज़ खबर कोई ,
मन फिर हो जाता है उदास।

कब अन्याय का होगा अंत ,
न्याय की होगी पूरी आस।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं ,
आएगा जाने कब मधुमास।

कब होंगे सब लोग समान ,
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें ,
फिर वो न आए हमारे पास।

सरकारों को बदल देखा ,
हमको न कोई आई रास।

जिसपर भी विश्वास किया ,
उसने ही तोड़ा है विश्वास।

बन गए चोरों और ठगों के ,
सत्ता के गलियारे दास।

कैसी आई ये आज़ादी ,
जनता काट रही बनवास।  

 

मार्च 12, 2019

POST : 1022 जीवन का अर्थ संक्षेप का विस्तार ( चिंतन बेला ) डॉ लोक सेतिया

  जीवन का अर्थ संक्षेप का विस्तार ( चिंतन बेला ) डॉ लोक सेतिया 

   हर कोई चाहता है जल्दी से समझना , लंबी बात पढ़ने को फुर्सत नहीं है। पढ़ने के बाद विचार नहीं करना बस पसंद करना तक की बात है। दो लफ़्ज़ों की कहानी भी इतनी छोटी नहीं होती है। जाने कैसी पढ़ाई की है कि पढ़ना अच्छा नहीं लगता , हर कोई बोलना चाहता है सुनता कोई भी नहीं। मुझे कहते हैं लिखा तो सबको भेजने की ज़रूरत क्या है नहीं पढ़ता कोई विस्तार से इतनी लंबी बात। शब्द क्या है मन की भावना को इक आवाज़ देने का उपाय भीतर कुछ है बाहर आना चाहता है लब पर आते हैं शब्द तभी अर्थ समझता है सुनने वाला और शब्द सार्थक हो जाते हैं। किसी से कहना नहीं कोई जानेगा नहीं समझेगा नहीं तो लिखना किस काम का। जीवन में सबसे पहले खुद को समझना है फिर पाना है अपने आप को अपने अस्तित्व को जानकर। भगवान खुदा की बात उसके बाद की बात है मगर दुनिया के बहकावे में हम विपरीत दिशा को जाने लगे हैं। आज थोड़ा विस्तार से फिर भी कम शब्दों में संक्षेप से तमाम बातों की चर्चा करते हैं। सिलसिलेवार इक इक को लेकर चिंतन करते हैं। 

राजनीति समाज और साहित्य :-

इनको अलग नहीं किया जा सकता है। राजनीति का पहला मकसद नीति की बात को समझना है मगर आजकल नीति की कोई बात ही नहीं करता। जिसको आप राजनीति समझते हैं वो वास्तव में किसी का या शायद सभी का इक सत्ता की सुंदरी पर आसक्त होना है। वासना में जब आकर्षण से बंधे किसी के पांव छूने चाटने लगते हैं तब मुहब्बत की प्यार की बात नहीं कुत्सिक मानसिकता की बात होती है। आजकल राजनीति सत्ता पाने का मार्ग बनकर रह गई है सत्ता पाकर देश समाज की दशा बदलने की बात छूट गई है। साहित्य अख़बार अथवा आधुनिक परिवेश में मीडिया टीवी चैनल वास्तव में किसी दर्पण की तरह होने चाहिएं। और आईने का अपना कोई अस्तित्व नहीं होता है उसको समाज की छवि को सामने लाना होता है। मगर यहां आईना खुद को तस्वीर समझने लगा है और वास्तविकता को नहीं देखता न दिखलाना चाहता है। फिर ये आईना किस काम का है , जब कोई दर्पण सच नहीं झूठी तस्वीर बनाकर दिखाने लगे तो उसको हटवा देना उचित है। ऐसे आईने को तोड़ना अच्छा है। जो चिंतक विचार बनकर राह दिखलाते थे समाज और राजनीति के आगे चलते थे मार्ग दिखलाते थे आज सत्ता और स्वार्थ की राजनीति के पीछे भागते हुए पागल होकर अपने मकसद से भटक गये हैं। हम यही कर सकते हैं कि इनको कोई महत्व नहीं देकर इनके पतन को ऊंचाई समझना छोड़ नकार दें। ये खुद ब खुद मिट जाएंगे अपनी नियति को पाकर। कोई इनकी दूषित सोच को सही नहीं कर सकता है इस तालाब का सारा पानी गंदा है इसको बदलना होगा तालाब को खाली कर नया साफ पानी डालना होगा। 

मुहब्बत रिश्ते नारी पुरुष संबंध :-

ये जो नदी है आपको लगता है बहती जाती है और अपने समंदर से मिलती है। मगर नदी क्या है नदी दो किनारों का नाम है जो कहीं नहीं चलते उसी जगह रहते हैं आमने सामने दो आशिक़ साथ भी और फासले को निभाते हुए भी। कोई पुल इन किनारों को जोड़ता है मगर मिलवाता नहीं है बस इस किनारे से उस किनारे कोई आता जाता है। जैसे कोई डाकिया किसी खत को आदान प्रदान करता है। बहता पानी है दोनों के बीच में और राह में कोई प्यास बुझाता है कोई मैल धोता है कोई मछली पकड़ता है कोई डुबकी लगाता है कोई तैरता है कोई डूब कर फिर उभरता नहीं है। पानी के साथ बहते बहते जाने क्या क्या अपनी मंज़िल की तलाश में बहता हुआ किसी जगह जा पहुंचता है। समंदर तक जाते जाते पानी जीवन का आखिरी पल समंदर से मिलने से नहीं उस में विलीन होने पर खो देता है। समंदर की गहराई आशिक़ के भीतर की घुटन को छुपाने को होती है और हम बाहर खड़े उसकी लहरों को देख समझते हैं थाह पा ली है। समंदर की ख़ामोशी को कोई हवा तोड़ने का काम करती है थोड़ी देर को तूफ़ान बनकर मगर तूफ़ान गुज़र जाता है हवाएं थम जाती हैं और समंदर खामोश ही रहता है। उसके भीतर की आवाज़ का कोई शोर नहीं होता है उसकी गहराई बहुत कुछ छुपाये रखती है। नदी का सफर पर्वत से समंदर तक धरती का सफर है पानी की धारा जीवन में मधुर संबंध प्यार रिश्ते नाते की तरह है जिसको समझे बिना हम कोई अनुभव नहीं हासिल कर सकते हैं। प्यार की मुहब्बत की भावना की धारा हमारे भीतर बहती नहीं है और स्वार्थ की अपने मतलब हासिल करने की भावना दुश्मनी और नफरत का ज़हर भरा रहता है जिस से हम जीते हैं मगर जीवन नहीं होता है। 

               आज विराम देते हैं अभी कितने विषय बाकी हैं फिर कभी सही । 


 


मार्च 11, 2019

POST : 1021 रामायण महाभारत अच्छे दिन की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    रामायण महाभारत अच्छे दिन की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

   शासक को फिर कोई गीता रामायण महाभारत की तरह अच्छे दिन की कथा पढ़कर सुना रहा है। पिछले चुनाव में इसी का पाठ करने से वरदान मिला था बहुमत का। अभी तक लोग संशय में हैं कि अच्छे दिन क्या बला हैं क्या वास्तव में होते हैं अच्छे दिन क्या सच में अच्छे दिन आने वाले थे आये थे और अगर आये थे तो किस को मिले थे कितनों को इक जुमला लगता है और कई इसको इक वहम मानते हैं जैसे भूत होते नहीं हैं मन का डर होता है उसी तरह अच्छे दिन नहीं होते दिल की ख़ुशी को इक ख़्वाब देखते हैं। मुझे पंडित जी हर साल कुंडली देख अच्छे भाग्य जल्द आने का भरोसा देते रहे और इसी में 67 साल उम्मीद पर बिता दिये। अभी भी अच्छे दिन की राह देखते रहते हैं हम। 

        संजय उवाच , राजन आपकी तिजोरी से अच्छे दिन मिले हैं इस किताब के नीचे रखे हुए थे। गिनती की है तो पाया है बहुत थोड़े बचे हैं लगता है किसी विपक्षी दल वाले की नज़र पड़ गई थी जिसने चुपके से चुरा लिए हैं। शासक हंस दिये बोले भला मेरी तिजोरी कोई सरकारी दफ्तर है जिस से कोई सुरक्षा के दस्तावेज़ चुरा ले जाये , कोई चोरी नहीं हुई है सब चौकीदारी का कमाल है। अधिकतर अच्छे दिन मैंने खुद अपने लिए उपयोग किये हैं और पांच साल अच्छे नहीं कमाल के दिन का लुत्फ़ उठाता रहा हूं कभी कभी कुछ अच्छे दिन मैंने अपने ख़ास लोगों को उपहार की तरह बांटे हैं। मेरे दल की सरकार कितने राज्यों में बनवाई है और उन की बागडोर बस ख़ास अपने और संघ के लोगों के हाथ देकर अच्छे दिन दिखलाने का काम किया है। कितने ऐसे हैं जो सपने में कुर्सी नहीं देख सकते थे खाट भी नहीं नसीब होती थी मेरी मेहरबानी से सत्तासीन हैं। जिनकी किस्मत में अच्छे दिन थे वो सब मेरे दल में शामिल होते रहे हैं। गंगा स्नान की तरह भाजपा में आकर चोर और दाग़ी भी देशगभक्त और पाक साफ़ बन गये हैं।

   संजय उवाच , राजन क्या इस बार भी अच्छे दिन आने वाले हैं का नारा उपयोग करना है या फिर अच्छे दिन आये भी गये भी की बात की जा सकती है। शासक बोले तुम अच्छे दिन आने वाले हैं वाला अध्याय किताब से निकाल ही दो ताकि किसी को याद नहीं आये। अच्छे दिन की परिभाषा बदल चुकी है और लोग इस शब्द को सुनते ही घबराने लगते हैं। सब चाहते हैं अच्छे दिन अब फिर से वापस नहीं आने पाएं , हमने भी अब अच्छे दिन की चर्चा छोड़ दी है काला धन की बात भूल गये हैं देश की बदहाली सत्ता की मनमानी और अपनों को अंधे का रेवड़ियां बांटना भी विषय नहीं है। नफरत उन्माद को बदले ढंग से कोई अच्छा सा नाम  देशभक्ति जैसा देकर भीड़ को जोश में होश खोकर पागल बनने का उपाय करना है। काठ की हांडी इक बार चढ़ती है अच्छे दिन की बात फिर कोई काम नहीं आने वाली है। अच्छे दिन टीवी चैनल वालों को मिलते रहे हैं आगे भी मिलते रहेंगे इसका उपाय किया हुआ है बेशक कोई भी सत्ता पर काबिज़ हो। धर्म वालों को कभी बुरे दिन नहीं दिखाई दिये और बड़े बड़े उद्योगपति खिलाड़ी अभिनेता वीवीआईपी लोग हमेशा से अच्छे दिन का मज़ा लेते हैं। राजनेता किसी भी दल के हों उनके दिन अच्छे नहीं भी हों तब भी जनता की तरह खराब नहीं होते हैं कभी भी। अच्छे दिन की बात उस गठबंधन की तरह है जो आजकल इक टीवी सीरियल में पुलिस और गुंडागर्दी करने वालों के बीच होता है। असली प्यार यही है तकरार भी मुहब्बत भी साथ साथ। अच्छे दिनों की बात इक राज़ की बात थी उसको राज़ ही रहने दो। वापस रख देना तिजोरी में कभी ज़रूरत होगी तो बची पूंजी की तरह बुरे वक़्त काम आएंगे। ठीक है राजन इनको ख़ास आपके लिए रखने का उपाय करते हैं। 
 
         बात करते करते दोनों को नींद आ गई और फिर सपने में जय जयकार सुनाई देने लगा है।

 

मार्च 08, 2019

POST : 1020 हम पुरुष नहीं महिला होते ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया महिला दिवस पर विशेष चर्चा

  हम पुरुष नहीं महिला होते ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

                                  महिला दिवस पर विशेष चर्चा

       आज का विषय गंभीर है फिर भी इसकी बात हल्के फुल्के ढंग से ही करनी होगी। जैसे कोई अधिकारी तबादला होने पर विचार करता है अब तो मुझे शहर की तस्वीर बदलनी थी। अब पछताए क्या होत जब चिड़िया चुग गई खेत जैसी बात होती है। सरकार की हालत भी यही होती है तभी हाथ जोड़ती है पांव पकड़ने से धोने तक सब करती है ताकि जो करना था अभी तो करने को तैयारी की थी पांच साल और चाहिएं सत्ता के नशे में वक़्त बीत जाता है पता ही नहीं चलता । बस पांच साल का सवाल है बाबा झोली खाली होने को है। दाता एक राम है भिखारी सारी दुनिया। जीवन का चौथा पहर ढलती काया बुलावे की बेला वापस जाने की घड़ी कभी भी आने को है तब आज ये ख्याल आया कि सोच विचार किया जाये हम पुरुष बनकर नहीं नारी बनकर दुनिया में आये होते तो क्या क्या मिलता जो खोया है और क्या है जो पुरुष बनकर पाया और नहीं मिलता महिला होने पर। आपने ठीक समझा अपनी मर्ज़ी से कहां पुरुष बने या नारी रूप पा सकते थे। पागलपन है उल्टी-सीधी बात करना मगर पागलपन का अपना ही लुत्फ़ होता है। पागल खुद को जो मर्ज़ी समझ सकता है और पागलपन का ईलाज करने वाला डॉक्टर उसकी हां में हां मिलाकर ही उसको ठीक करता है। आप भी थोड़ी देर को मेरी चर्चा में उसी तरह शामिल हो जाओ और सोचो आप अगर पुरुष हो तो नारी और अगर महिला हैं तो पुरुष होकर क्या होता। कभी रामलीला में पुरुष ही नारी बनकर अभिनय किया करते थे और फिल्मों में भी शुरआत इसी तरह हुई थी। कॉमेडी शो में कितने ही पुरुष महिला बनकर मनोरंजन के नाम पर अश्लील हरकतें करते हैं कमाई करने को। कुछ अभिनय करने वाले महिला बनकर कमाल का अभिनय करते हैं महिला देख कर दांतों तले उंगली दबाने को विवश हो सकती हैं।

 आजकल बड़े नेता लोग भाषण देते हैं तो इक जादू सा छाने लगता है और भाषण सुनने वालों को दुनिया सपनों सी सुंदर लगने लगती है। जो हुआ नहीं दिखाई देता है जो किया नहीं सब भूल जाते हैं। जादूगर का खेल घंटे दो घंटे तक असर रखता है भाषण का असर सोच समझ को सालों तक भटकाये रहता है। आप पर मेरे जादू का असर छाने लगा है और आपकी कल्पना वही करने लगी है। महिला होता तो बन संवर कर घर से निकलता और इठलाता कि हर नज़र मुझी को देखने को बेताब है। सूरत जैसी भी हो हर लड़की किसी न किसी को बेहद सुंदर लगती है अपनी जवानी में। नखरे उठाने को लोग तैयार मिलते और चाल बाल चुनरी और आंखों से लेकर अंग अंग तक बिजली गिराते लगते। पढ़ने लिखने में अध्यापक से लेकर सहपाठी तक खुद सहायक बनने की बात करते। मन ही मन हंसती उनकी नीयत को डगमगाते देखती बचती चलती अपनी डगर पर। समझदार चालाक समझने वाले पुरुष बुद्धू ही नहीं काठ के उल्लू होते हैं। महिला होने पर इक डर को छोड़कर बाकी सब बढ़िया है। अपनी सुरक्षा कोई मुश्किल भी नहीं अगर संभल कर चलना आता हो तो और खतरे महिला को ही नहीं पुरुष को भी होते हैं पग पग पर। मगर महिला होने पर आपको नौकरी मिलने और तरक्की मिलने से लेकर ईनाम पुरूस्कार शोहरत सब आसानी से हासिल होते हैं। इक नज़र इक मीठी मुस्कान से लोग आपको आसमान पर पहुंचा सकते हैं। तीर तलवार की चाक़ू छुरी की ज़रूरत ही नहीं लोग इशारे पर ज़ख़्मी घायल मरने को उतावले हैं। महिला को पहनने को क्या क्या नहीं है पुरुष को धोती कुर्ता और पैंट कमीज़ को छोड़ बाकी सब उसकी नकल ही है। बिंदी चूड़ी हज़ार शृंगार के आभूषण महिला की सुंदरता को चार चांद लगाने को हैं। महिला को लाख बुरा और बेवफ़ा कहने के बाद भी हर कोई उसी की मुहब्बत के गीत गाता है या फिर विरह के दर्द भरे नग्में। नारी की अपनी कथा मिल सकती है इतिहास में धार्मिक किताबों में मगर बगैर महिला इंसान तो इंसान भगवान देवता तक की कोई कहानी नहीं मिलती। न जाने क्यों महिलाओं ने खुद को पुरुष से बराबरी की बात करनी शुरू की है जबकि वास्तव में नारी हर बात में नर से बढ़कर है। कोई है जिसको नारी ने जन्म नहीं दिया हो वो चाहे राजा हो या रंक हो जन्मदाती महिला ही है। सच कहा जाये तो इसका विवरण करना अपने बस की बात नहीं है। सरकार और समाज महिलाओं के लिए तमाम तरह से आरक्षण आदि की व्यवस्था करते हैं। महिला होना सहानुपति पाने का बिना मांगे हक देता है। शर्म नहीं आती बेचारी अबला नारी को परेशान करते , कैसे पुरुष हैं आप। आगे इस बात की चर्चा होगी कि अगर मैं सच महिला पैदा होता तो क्या जो मिला खो सकता था। 
 
    लड़की होने पर मुमकिन है पढ़ाई भी स्कूल तक होती और कुछ बनने का सपना तोड़ दिया जाता। समाज कमज़ोर समझ अपने बिना तर्क के नियम मनवाता और किसी घर में पिंजरे के पंछी की तरह कैद होना किस्मत होता। काबिल होने के बावजूद नासमझ पुरुषों की हर बात को स्वीकार कर पल पल खुद को मरते देखती रहती फिर भी अश्क़ बहाना भी गुनाह समझा जाता और जीवन भर खुद अपने अस्तित्व को मिटाकर अपनी महिला जगत की गलत छवि और परंपरा का बोझ ढोती रहती। ज़िंदगी भर प्यासी रहती खाली जाम की तरह बाकी सभी की प्यास बुझाती और साबित करती कि नारी होना त्याग करने का अनिवार्य अंग है। साल भर अपने स्वाभिमान की बली देने के बाद एक दिन 8 मार्च को महिला दिवस मनाती नाचती झूमती गुनगुनाती और कुछ फूल कुछ शुभकामना संदेश के कार्ड लेकर गर्व अनुभव करती। सिरहन सी होती है सोचकर कि हमारे समाज में आज भी नारी होना इक वरदान समझा जाना चाहिए मगर समझा जाता है जैसे अभिशाप है। महिला होना संभव नहीं है किसी पुरष के लिए मगर फिर भी इस महिला दिवस पर इसकी कल्पना करनी चाहिए हम सभी पुरुष वर्ग को , तब समझ आएगा शायद नारी को कमतर समझना कितना बड़ा अपराध है। मैंने देखा सोशल मीडिया फेसबुक पर महिला लेखिकाओं की रचनाएं उनकी सुंदर फोटो के साथ सैंकड़ों लाईक्स और तारीफ करते कमैंट्स दिन भर मिलते हैं जबकि अधिकतर पुरुष लेखक की फोटो देख कर ही लगता है खूसट जैसा कोई आदमी होगा। महिला की अधिकतर समस्याओं का कारण कोई महिला अधिक और पुरुष कम होते हैं। उसकी साड़ी उसकी सज धज गहने मुझसे अच्छे क्यों ये सबसे कठिन समस्या है। महिला बनकर जीना कठिन होता मगर फिर भी जीने का कुछ अर्थ अवश्य होता है जबकि हम पुरुष कभी समझते ही नहीं हमारा होना नहीं होना क्या अंतर रखता है।

बात को इक मंज़िल तक लाने को आखिर में निष्कर्ष निकलना ज़रूरी है। इस चिंतन के बाद सोचना होगा पुरष को भी और महिला को भी इस भेदभाव को छोड़ इंसान होना चाहिए। अगर हम पुरुष हैं तो बेशक जैसे भी अधिकार हमारे पास विरासत में मिले हों हमें महिला को बराबरी का आदर और अधिकार पाने की हकदार हैं ऐसी सोच बनानी चाहिए। ठीक इसी तरह महिलाओं को अपनी महनत काबलियत को पहचानना चाहिए और केवल औरत होने के कारण पुरुष पर निर्भर नहीं होना चाहिए। ये खेद और चिंता की बात है कि जितने भी आधुनिक समाज की बात करते हैं , पढ़ लिख शिक्षित होकर बड़े बड़े घर सुख सुविधा के मालिक बन जाते हैं अपनी सोच को नहीं बदलते या बदलना चाहते। आज भी अगर महिला सुरक्षा और शिक्षा अगर समस्या है तो इस जुर्म का अपराधी पुरुष वर्ग ही है। वास्तविक समानता उस दिन समझी जानी चाहिए जिस दिन महिला दिवस मनाने की ज़रूरत ही नहीं रहेगी। महिलाओं पुरुषों को मिलकर इस पर कार्य करना होगा।