जुलाई 30, 2013

POST : 355 आँगन ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

   आंगन ( कविता )  डॉ लोक सेतिया 

ऊंचीं ऊंची दीवारें हैं घेरे हुए मुझे
बंद है हर रास्ता मेरे लिये
धूप आंधी सर्दी गर्मी बरसात
सब कुछ सहना पड़ता है मुझे ।

खिड़कियां दरवाज़े हैं सब के लिये
मेरे लिये है खुला आसमान
देख सकता हूं उतनी ही दुनिया
जितनी नज़र आती है
ऊंची ऊंची दीवारों में से
दिखाई देते आकाश से ।

खुलते हैं दरवाज़े और खिड़कियां
हवा के लिये रौशनी के लिये
सभी कमरों के मुझ में ही आकर
जब भी किसी को पड़ती है कोई ज़रूरत ।

रात के अंधेरे में तपती लू में
आंधी में तूफान में
बंद हो जाती है हर इक खिड़की
नहीं खुलता कोई भी दरवाज़ा ।

सब सहना होता है मुझको अकेले में
सहना पड़ता है सभी कुछ चुप चाप
मैं आंगन हूं इस घर का
मैं हर किसी के लिये हूं हमेशा
नहीं मगर कोई भी मेरे लिये कभी भी । 
 
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जुलाई 27, 2013

POST : 354 अभ्यस्त ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

      अभ्यस्त ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

परेशान थी उसकी नज़रें
व्याकुल थी देखने को
मेरी टूटती हुई सांसें ।

मैं समझ रहा था
बेचैनी उसकी
देख रहा था
उसकी बढ़ती हुई घबराहट ।

वक़्त गुज़रता जा रहा था
और उसके साथ साथ
बदल रहा था हर पल
उसके चेहरे का रंग ।

मुझे दिया था भर कर
अपने हाथों से उसने
जब विष का भरा प्याला
और पी लिया था
चुपचाप मैंने सारा ज़हर ।

उसके साथ साथ मैं भी
कर रहा था इंतज़ार मौत का
पूछा था सवाल उसने
न जाने किस से
मुझसे अथवा खुद अपने आप से
नहीं क्यों हो रहा है
उसके दिये ज़हर का
कोई भी असर मुझपर ।

समझ गया था मैं लेकिन
किस तरह समझाता उसे
उम्र भर करता रहा हूं
प्रतिदिन विषपान मैं
दुनिया वालों की
सभी अपनों बेगानों की
बातों का जिन में भरा होता था 
नफरत के ज़हर का ।

अभ्यस्त हो चुका हूं
विषपान का कब से
तभी कोई भी ज़हर अब मुझ पर
नहीं करता है कुछ भी असर ।  
 

 
 
 

जुलाई 14, 2013

POST : 353 कविता को क्या होने लगा है आज ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कविता को क्या होने लगा है आज ( कविता  )   डॉ लोक सेतिया

रात कविता सुन रहा था मैं
घर में बैठा
टीवी पर बन दर्शक ।

सुना रहा था कोई कवि
कविता व्यंग्यात्मक
देश की दशा पर
बात आई थी
देश में नारी की अस्मत लुटने की ।

और टीवी कार्यक्रम में
शामिल सुनने देखने वाले
कह रहे थे
वाह वाह क्या बात है ।

कोई झूमता नज़र आ रहा था
जब कह रहा था कवि
बेबसी  भूख विषमता की बात ।

मेरे भीतर का कवि रो रहा था
देख कर ऐसी संवेदनहीनता
अपने सभ्य समाज की ।

और सोच रहा हूं
क्या इसलिये लिखते हैं
हम कविता  ग़ज़ल
लोगों का मनोरंजन कर
वाह वाह सुनने के लिये ।

या चाहते हैं जगाना संवेदना
सभी सुनने वालों
कविता पढ़ने वालों में
समाज में बढ़ रहे
अन्याय अत्याचार आडंबर के लिये ।

भला कैसे कोई हंस सकता है
नाच सकता है
गा सकता है मस्ती में
किसी के दुःख दर्द की बात सुन ।

कविता में गीत में ग़ज़ल में
क्यों असफल होती लग रही है
आज के दौर की ये नयी कविता
सुनने वाले , पढ़ने वाले में
मानवीय संवेदना के भाव
जागृत करने के
अपने वास्तविक कार्य में । 
 

 

जुलाई 10, 2013

POST : 352 तुम्हारी विजय , मेरी पराजय ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

तुम्हारी विजय , मेरी पराजय ( कविता )  डॉ लोक सेतिया

छल कपट झूठ धोखा
सब किया तुमने क्योंकि
नहीं जीत सकते थे कभी भी
तुम मुझसे
इमानदारी से जंग लड़कर ।

इस तरह
तुमने जंग लड़ने से पहले ही
स्वीकार कर ली थी
अपनी पराजय ।

मैं नहीं कर सका तुम्हारी तरह
छल कपट कभी किसी से
मुझे मंज़ूर था हारना भी
सही मायने में
इमानदारी और उसूल से
लड़ कर सच्चाई की जंग ।

हार कर भी नहीं हारा मैं
क्योंकि जनता हूं
मुश्किल नहीं होता
तुम्हारी तरह जीतना
आसान नहीं होता हार कर भी
हारना नहीं अपना ईमान । 
 

 

जुलाई 09, 2013

POST : 351 झूठ वाला पर कदे नां अखबार बणना ( पंजाबी ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

     झूठ वाला पर कदे नां अखबार बणना ( पंजाबी ग़ज़ल )

                          डॉ  लोक सेतिया

कुझ वी भांवें होर बंदे सौ वार बणना
झूठ वाला पर कदे नां अखबार बणना ।

दुश्मनी करना बड़ा सौखा कम है लोको
पर बड़ा औखा है हुंदा दिलदार बणना ।

राह मेरी रोक लैणा मैं भुल न जावां
मैं नहीं भुल के कदीं वी सरकार बणना ।

लोक तैनूं जाणदे हन सौ झूठ बोलें
सिख नहीं सकिया किसे दा तूं यार बणना ।

हर किसे दे नाल करदा हैं बेवफाई
कम अदीबां दा नहीं इक हथियार बणना ।

नावं चंगा रख के कीते कम सब निगोड़े
सोच लै हुण छड वी दे दुहरी धार बणना ।

शौक माड़ा हर किसे दे दिल नूं दुखाणा
आखदे ने लोक मंदा हुशियार बणना । 
 

 

POST : 350 मंगण तां अग तू आई ते चुल्ले दी मालक बण बैठी ( एक पंजाबी कविता ) डॉ लोक सेतिया

         मंगण तां अग तू आई ते चुल्ले दी मालक बण बैठी            

                   इक पंजाबी कविता - डॉ लोक सेतिया

मंगण तां अग तू आई ते चुल्ले दी मालक बण बैठी
तैनू सी भैन बणाया मैं तू मेरी ही सौतण बण बैठी ।

खसमां नूं अपणे खाण दी गंदी हे आदत वी तेरी
छडिया ना इक वी घर जिसने इनी डायन बण बैठी ।

भौरा वी अपणे कीते ते आई न तैनू शरम कदे
तेरा हथ पकड़िया जिस जिस ने सभ दे सर चढ़ बैठी ।

जाणदी एं की करदी हें अपणे आप नू वेखा है कदी
माड़े माड़े करमां नाल वेख आपणी झोली भर बैठी ।

धुप विच जिस रुख ने तैनू ठंडी ठंडी छां सी दित्ती
अपणे हथां नाल अज कटदी हैं उसदी तू जड़ बैठी ।

न कदे किसे दी होई तू छड आई एं सारियां नूं
किचड़ मिट्टी विच जा बैठी मिट्टी दे ढेले घढ़ बैठी ।  
 
 
 ਜਿੰਦਗੀ ਜਾਲੀ Punjabi kavita - ਮੇਰੇ ਜਜ਼ਬਾਤ

जुलाई 07, 2013

POST : 349 जीना सीखना है मैंने ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

 जीना सीखना है मैंने ( कविता )   डॉ लोक सेतिया

मुझे याद है बचपन में
जब भी कोई कहता था
सब है ईश्वर
और भाग्य के हाथ में
मेरे मन में
उठा करते थे बहुत सवाल
जो पूछता था मैं
उन सभी से
जिनका काम था
फैलाना अंधविश्वास ।

लेकिन जैसे जैसे बड़ा हुआ
मैं भी बन ही गया
उसी भीड़ का ही हिस्सा
और अपनी हर मुश्किल
हल करने के लिये
करने लगा
भरोसा भाग्य का
और देवी देवताओं का ।

खुद पर नहीं रह गया
मुझको यकीन
करने लगा जाने क्या क्या
ईश्वर को प्रसन्न करने को
अपना भाग्य बदलने को ।

मुश्किलें ही मुश्किलें
मिलीं हैं उम्र भर मुझे
ज़िंदगी कभी आसान हो न सकी
मेरे ऐसे हर दिन किये
ऐसे सभी प्रयासों से ।

दुआ मेरी आज तक
नहीं ला सकी कुछ भी असर
हुआ नहीं आज तक
किसी समस्या का कभी
समाधान भाग्य भरोसे
न ही ईश्वर को
प्रसन्न करने को की बातों से ।

आज सोचता हूं फिर से वही
बचपन की पुरानी बात
किसलिये वो सभी हैं परेशान
जो करते हैं तेरी पूजा अर्चना
हरदम रहते हैं डरे डरे
तुझसे हे ईश्वर
करते हैं विश्वास
कि सब अच्छा करते हो तुम
जबकि कुछ भी
नहीं अच्छा होता आजकल ।

सीखा नहीं अभी तक
जीने का सलीका हमने
समझना होगा आखिर इक दिन
सब करना होगा अपने आप
जूझना होगा मुश्किलों से
समस्याओं से  परेशानियों से
और लेना होगा ज़िंदगी का मज़ा ।

खुद पर
अपने आत्मविश्वास पर
कर भरोसा
भाग्य और ईश्वर के भरोसे कब तक
पाते रहेंगे
बिना किये जुर्मों की
हम सज़ा । 
 

 

जुलाई 04, 2013

POST : 348 कलम के कातिल ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कलम के कातिल ( कविता )  डॉ लोक सेतिया 

आपके हाथ में रहती थी मैं
लिखा निडरता से हमेशा ही सत्य
नेताओं का भ्रष्टाचार
प्रशासन का अत्याचार
समाज का दोहरा चरित्र
सराहा आपने
अन्य सभी ने मेरी बातों को
प्रोत्साहित किया मुझे
आपने अपने अंदर दी जगह मुझे
मैं समझने लगी खुद को हिस्सा आपका
मेरी आवाज़ को अपनी आवाज़ बनाकर
मेरी पहचान करवाई दुनिया से
मेरे सच कहने के कायल हो
मुझे चाहने लगे लोग
जो कल तक अनजान थे मुझसे ।

आपका दावा रहा है सदा ही
निष्पक्षता का
विचारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी का
मैंने आपकी हर बात पर
कर लिया यकीन
और कर बैठी कितनी बड़ी भूल
आपके कड़वे सच को लिखकर
आपसे भी बेबाक सच कहने की
मगर आप नहीं कर सके स्वीकार
जीत गया आपका झूठ
मेरा सच
सच होते हुए भी गया था हार ।

आपने तोड़ डाला मुझे
सच लिखने वाली कलम को
और दिया फैंक चुपके से अपने कूड़ेदान में
आपने क़त्ल कर दिया मुझे
सच लिखने के अपराध में
मैं अभी भी हर दिन
सिसकती रहती हूं
आपके आस पास
मुझे नहीं दुःख
अपना दम घुटने का
यही रहा है हर कलम का नसीब
ग़म है इसका
कि मुझे किया क़त्ल आपने
जिसको समझा था
मैंने अपना रक्षक
सोचती थी मैं उन हाथों में हूं
जो स्वयं मिट कर भी
नहीं मिटने देंगे मुझे
मगर अब
आप ही मेरे कातिल
क़त्ल के गवाह भी
और आप ही करते हैं
हर दिन मेरा फैसला
देते हैं बार बार
सच लिखने की सज़ा
मैं करती हूं फरियाद
अपने ही कातिल से
रहम की मांगती हूं भीख
मैं इक कलम हूं
सच लिखने वाले
बेबस किसी लेखक की ।