उनकी दी सज़ा है प्यार का मज़ा है ( हास्य-व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
ये आशिक़ी है प्यार है वफ़ा है उनके हर सितम को करम समझना कभी नहीं थमता ये वो सिलसिला है। चलो इक ग़ज़ल से शुरुआत करते हैं।
( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "
हमको जीने की दुआ देने लगे
आप ये कैसी सज़ा देने लगे।
दर्द दुनिया को दिखाये थे कभी
दर्द बढ़ने की दवा देने लगे।
लोग आये थे बुझाने को मगर
आग को फिर हैं हवा देने लगे।
अब नहीं उनसे रहा कोई गिला
अब सितम उनके मज़ा देने लगे।
साथ रहते थे मगर देखा नहीं
दूर से अब हैं सदा देने लगे।
प्यार का कोई सबक आता नहीं
बेवफा को हैं वफ़ा देने लगे।
कल तलक मुझ से सभी अनजान थे
अब मुझे मेरा पता देने लगे।
मांगता था मौत "तनहा" रात दिन
जब लगा जीने , कज़ा देने लगे।
आप ये कैसी सज़ा देने लगे।
दर्द दुनिया को दिखाये थे कभी
दर्द बढ़ने की दवा देने लगे।
लोग आये थे बुझाने को मगर
आग को फिर हैं हवा देने लगे।
अब नहीं उनसे रहा कोई गिला
अब सितम उनके मज़ा देने लगे।
साथ रहते थे मगर देखा नहीं
दूर से अब हैं सदा देने लगे।
प्यार का कोई सबक आता नहीं
बेवफा को हैं वफ़ा देने लगे।
कल तलक मुझ से सभी अनजान थे
अब मुझे मेरा पता देने लगे।
मांगता था मौत "तनहा" रात दिन
जब लगा जीने , कज़ा देने लगे।
समझ गये ये उन्हीं की बात है जो कहते हैं तुम नासमझ हो नादान हो नहीं जानती तुम्हारी भलाई इसी में है। धर्म कहता है पति के आदेश का पालन पत्नी का धर्म होता है शासक की बात मानना जनता का कर्तव्य होता है। सवालात नहीं कर सकते भरोसा रखते हैं उन्होंने बुरा भला कहा लाठी डंडे से पिटाई की तो उनका अधिकार है जैसा उनको पसंद है वही करने को विवश करना अगर नहीं मानते तो मनवाना अपने तरीके से। यही सबक हमने फ़िल्मी नायक से समझा है जिस पर आशिक़ होते हैं उसके साथ छेड़खानी करने से लेकर उसको परेशान करने तक मनमानी करते हैं उसको सताते हैं। बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं , आखिर जान छुड़ाने को नायिका कहती है मज़बूर हो कर कहना पड़ता है। होगा होगा होगा। हमारे समाज के युवाओं ने यही सबक सीखा समझा है अपनी हवस को मुहब्बत का नाम देकर शारीरिक संबंध को प्यार कहकर बदनाम किया है। सत्ता मिलते ही राजनेता खुद को देश की जनता का स्वामी समझने लगते हैं और जब कोई उनकी जीहज़ूरी छोड़ सवाल जवाब करने लगता है तब अहंकारी पति की तरह पत्नी को ठीक करने को कमीनी हरामज़ादी जैसे आभूषणों से नवाज़ते हैं। जनता और पत्नी का कोई आदर सम्मान नहीं होता है बस जब उनकी ज़रूरत पड़ती है दो मीठे बोल बोलते हैं खुश करने को उपहार देने की बात कहकर मना लेते हैं।
आप बिना कारण छोटी छोटी बात का बुरा मान जाती हो समझती नहीं पति की मार में भी प्यार है। इधर महिलाएं भी अपना प्यार दिखाने को बहुत कुछ करने लगी हैं ये होना था मगर ऐसा होने पर समाज को अखरने लगी हैं। ज़माना बदल गया है तराना बदला गया है पति पत्नी का अफ़साना बदल गया है। आजकल पति गुलाम पत्नी महारानी हो गई है औरत तेरी यही कहानी आंचल में है दूध आंखों में पानी , पुरानी हो गई है। लेकिन सरकार पहले से भी स्यानी हो गई है बिल्ली थी जो कभी शेर की नानी हो गई है। सारी महफ़िल जिन अदाओं की दीवानी हो गई है उनकी हर इक अदा क़ातिलानी हो गई है। ज़ख़्म जनता के बदन पर उनकी मोहब्बत की मोहर है टैटू गोदना निशानी है सबूत है लिख दिया नाम जिसका उसको भगवान बना दिया है लिख कर नाम अपना रेत पर उसने मिटा दिया उसका खेल था खाक़ में हमको मिला दिया। सरकार बनकर नेताओं ने यही सिला दिया है वादा निभाना जब नहीं वादा भुला दिया है। आली जनाब हिसाब सबसे मांगते हैं हम उनसे वो किताब मांगते हैं उनसे उनका हिसाब मांगते हैं। जो कल तक गरीब भिखारी थे कैसे इतने अमीर बन गए हैं राजा कैसे फ़क़ीर बन गए हैं।
सत्ता के दरबार की असली कहानी और होती है ये वो दुल्हन है जो हंसती भी नहीं न कभी रोती है। नाचती है खुद किसी के इशारे पर नचाती है किसी को अपने इशारे पर। ये पतवार नहीं तलवार है मंझधार से निकल जाओ फिर भी डुबोती है किनारे पर। पति पत्नी जैसा संबंध रखते हैं लेकिन इक ऐसा अनुबंध रखते हैं ऊंची दीवारें होती हैं रास्ते छोटे और तंग रखते हैं। जब तक मतलब होता है प्यार का साथ अपना संग रखते हैं। कुर्सी का प्यार क्या होता है जो कभी अच्छा नहीं होता ऐसा बीमार होता है। राजनीति और जिस्मफ़रोशी दुनिया के सबसे पुराने धंधे हैं दोनों में समानताएं बहुत हैं हुस्न रहने तक ख़रीदार होते हैं कुर्सी पर रहते सभी इख्तिहार होते हैं। बिकना चाहते हैं कीमत कम लगती है कभी नहीं शर्मसार होते हैं। वैश्या की वफ़ा रात भर की होती है नेताओं की वफ़ा झूठी दिखावे की चुनाव तक रहती है। आखिर में सुनोगे इक ग़ज़ल जो कहती है।
( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "
चंद धाराओं के इशारों परडूबी हैं कश्तियाँ किनारों पर।
अपनी मंज़िल पे हम पहुँच जाते
जो न करते यकीं सहारों पर।
खा के ठोकर वो गिर गये हैं लोग
जिनकी नज़रें रहीं नज़ारों पर।
डोलियाँ राह में लूटीं अक्सर
अब भरोसा नहीं कहारों पर।
वो अंधेरों ही में रहे हर दम
जिन को उम्मीद थी सितारों पर।
ये भी अंदाज़ हैं इबादत के
फूल रख आये हम मज़ारों पर।
उनकी महफ़िल से जो उठाये गये
हंस लो तुम उन वफ़ा के मारों पर।