फ़रवरी 18, 2021

उनकी दी सज़ा है प्यार का मज़ा है ( हास्य-व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

 उनकी दी सज़ा है प्यार का मज़ा है ( हास्य-व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

ये आशिक़ी है प्यार है वफ़ा है उनके हर सितम को करम समझना कभी नहीं थमता ये वो सिलसिला है। चलो इक ग़ज़ल से शुरुआत करते हैं। 
 

                              ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "

 
हमको जीने की दुआ देने लगे
आप ये कैसी सज़ा देने लगे।

दर्द दुनिया को दिखाये थे कभी
दर्द बढ़ने की दवा देने लगे।

लोग आये थे बुझाने को मगर
आग को फिर हैं हवा देने लगे।

अब नहीं उनसे रहा कोई गिला
अब सितम उनके मज़ा देने लगे।

साथ रहते थे मगर देखा नहीं
दूर से अब हैं सदा देने लगे।

प्यार का कोई सबक आता नहीं
बेवफा को हैं वफ़ा देने लगे।

कल तलक मुझ से सभी अनजान थे
अब मुझे मेरा पता देने लगे।

मांगता था मौत "तनहा" रात दिन
जब लगा जीने , कज़ा देने लगे।  
 
समझ गये ये उन्हीं की बात है जो कहते हैं तुम नासमझ हो नादान हो नहीं जानती तुम्हारी भलाई इसी में है। धर्म कहता है पति के आदेश का पालन पत्नी का धर्म होता है शासक की बात मानना जनता का कर्तव्य होता है। सवालात नहीं कर सकते भरोसा रखते हैं उन्होंने बुरा भला कहा लाठी डंडे से पिटाई की तो उनका अधिकार है जैसा उनको पसंद है वही करने को विवश करना अगर नहीं मानते तो मनवाना अपने तरीके से। यही सबक हमने फ़िल्मी नायक से समझा है जिस पर आशिक़ होते हैं उसके साथ छेड़खानी करने से लेकर उसको परेशान करने तक मनमानी करते हैं उसको सताते हैं। बोल राधा बोल संगम होगा कि नहीं , आखिर जान छुड़ाने को नायिका कहती है मज़बूर हो कर कहना पड़ता है। होगा होगा होगा। हमारे समाज के युवाओं ने यही सबक सीखा समझा है अपनी हवस को मुहब्बत का नाम देकर शारीरिक संबंध को प्यार कहकर बदनाम किया है। सत्ता मिलते ही राजनेता खुद को देश की जनता का स्वामी समझने लगते हैं और जब कोई उनकी जीहज़ूरी छोड़ सवाल जवाब करने लगता है तब अहंकारी पति की तरह पत्नी को ठीक करने को कमीनी हरामज़ादी जैसे आभूषणों से नवाज़ते हैं। जनता और पत्नी का कोई आदर सम्मान नहीं होता है बस जब उनकी ज़रूरत पड़ती है दो मीठे बोल बोलते हैं खुश करने को उपहार देने की बात कहकर मना लेते हैं। 
 
आप बिना कारण छोटी छोटी बात का बुरा मान जाती हो समझती नहीं पति की मार में भी प्यार है। इधर महिलाएं भी अपना प्यार दिखाने को बहुत कुछ करने लगी हैं ये होना था मगर ऐसा होने पर समाज को अखरने लगी हैं। ज़माना बदल गया है तराना बदला गया है पति पत्नी का अफ़साना बदल गया है। आजकल पति गुलाम पत्नी महारानी हो गई है औरत तेरी यही कहानी आंचल में है दूध आंखों में पानी , पुरानी हो गई है। लेकिन सरकार पहले से भी स्यानी हो गई है बिल्ली थी जो कभी शेर की नानी हो गई है। सारी महफ़िल जिन अदाओं की दीवानी हो गई है उनकी हर इक अदा क़ातिलानी हो गई है। ज़ख़्म जनता के बदन पर उनकी मोहब्बत की मोहर है टैटू गोदना निशानी है सबूत है लिख दिया नाम जिसका उसको भगवान बना दिया है लिख कर नाम अपना रेत पर उसने मिटा दिया उसका खेल था खाक़ में हमको मिला दिया। सरकार बनकर नेताओं ने यही सिला दिया है वादा निभाना जब नहीं वादा भुला दिया है। आली जनाब हिसाब सबसे मांगते हैं हम उनसे वो किताब मांगते हैं उनसे उनका हिसाब मांगते हैं। जो कल तक गरीब भिखारी थे कैसे इतने अमीर बन गए हैं राजा कैसे फ़क़ीर बन गए हैं। 
 
सत्ता के दरबार की असली कहानी और होती है ये वो दुल्हन है जो हंसती भी नहीं न कभी रोती है। नाचती है खुद किसी के इशारे पर नचाती है किसी को अपने इशारे पर। ये पतवार नहीं तलवार है मंझधार से निकल जाओ फिर भी डुबोती है किनारे पर। पति पत्नी जैसा संबंध रखते हैं लेकिन इक ऐसा अनुबंध रखते हैं ऊंची दीवारें होती हैं रास्ते छोटे और तंग रखते हैं। जब तक मतलब होता है प्यार का साथ अपना संग रखते हैं। कुर्सी का प्यार क्या होता है जो कभी अच्छा नहीं होता ऐसा बीमार होता है। राजनीति और जिस्मफ़रोशी दुनिया के सबसे पुराने धंधे हैं दोनों में समानताएं बहुत हैं हुस्न रहने तक ख़रीदार होते हैं कुर्सी पर रहते सभी इख्तिहार होते हैं। बिकना चाहते हैं कीमत कम लगती है कभी नहीं शर्मसार होते हैं। वैश्या की वफ़ा रात भर की होती है नेताओं की वफ़ा झूठी दिखावे की चुनाव तक रहती है। आखिर में सुनोगे इक ग़ज़ल जो कहती है। 
 
 

                            ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "

चंद धाराओं के इशारों पर
डूबी हैं कश्तियाँ किनारों पर।

अपनी मंज़िल पे हम पहुँच जाते
जो न करते यकीं सहारों पर।

खा के ठोकर वो गिर गये हैं लोग
जिनकी नज़रें रहीं नज़ारों पर।

डोलियाँ राह में लूटीं अक्सर
अब भरोसा नहीं कहारों पर।

वो अंधेरों ही में रहे हर दम
जिन को उम्मीद थी सितारों पर।

ये भी अंदाज़ हैं इबादत के
फूल रख आये हम मज़ारों पर।

उनकी महफ़िल से जो उठाये गये
हंस लो तुम उन वफ़ा के मारों पर। 
 
  

फ़रवरी 16, 2021

वैक्सीन पे ऐतबार किया ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      वैक्सीन पे ऐतबार किया ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

पहले इंतज़ार किया , नहीं खुद को बेकरार किया सोचा समझा विचार किया , फिर उनसे करार किया। इधर जाएं उधर जाएं , जाएं तो हम किधर जाएं मौत का इंतज़ार करें या मौत आने से पहले डर कर जीते जी मर जाएं। मर्ज़ी थी हमारी कुछ तो अलग कर जाएं रोग से नहीं दवा ईलाज से भी नहीं मौत आखिर आनी है इक दिन ग़ालिब कह गए चैन की नींद आएगी अभी ठहर जाएं। इतना तो तय है लोग कोरोना से क्या किसी रोग से नहीं मरना चाहते। ये फ़लसफ़ा है राजेश रेड्डी जी कहते हैं , अजब ये ज़िंदगी की कैद है दुनिया का हर इंसां , रिहाई मांगता है और रिहा होने से डरता है। यहां हर शख्स हर दिन हादिसा होने से डरता है , खिलौना है जो मिट्टी का फ़ना होने से डरता है। 
 
चलो बताते हैं आखिर हमने वैक्सीन लगवाई तो क्या समझ कर। समझदारी वास्तव में हमने कभी की नहीं पागलपन करते रहे हैं हमेशा। दुनिया साल भर से जिसका इंतज़ार कर रही थी हमें लगता था उसे तब आना है जब उसका आना नहीं आना बराबर हो , देर से आते हैं जिनकी अहमियत होती है। खैर जैसा भी हो तमाशा अभी ख़त्म हुआ नहीं हसीना आई तो सही। कौन आशिक़ नहीं होगा जिस शोख़ अदा से नाज़ुकी से उसने नकाब हटाई और दीदार करवाया। मिलेगी उन्हीं को पहले जिनसे जन्म जन्म का नाता निभाना है उन चारगरों ने बाकी को उस से मिलवाना है डॉक्टर अस्पताल नर्सिंग-होम क्लिनिक उसका ठिकाना है। 
 
इतना तो पता है अमर कोई नहीं है बारी बारी जाना सभी को है कोई भी जल्दी नहीं जाना चाहता जबकि हर काम में सभी सबसे पहले होना चाहते हैं। मौत के लिए लखनवी अंदाज़ याद आता है , नहीं जनाब पहले आप। मुश्किल सामने खड़ी थी फैसले की घड़ी थी टीका लगवाते तो कहते आखिर कोरोना से घबरा गए नहीं लगवाते तो ये कहते टीका लगवाने से भय खा गए। दुनिया का क्या है किसी तरह छोड़ती नहीं है। समझदार लोग कहने लगे कितने नासमझ हो लोग तरसते हैं आपको मिल रही है तब नखरे दिखलाते हैं। ताया जी के बेटे बड़े भाई कहते थे इक बात दोहराते हैं। जो भी सरकारी चीज़ मुफ्त मिलती हो ज़रूर ले आते हैं चाहे काम नहीं आये छोड़ते नहीं वर्ना पीछे पछताते हैं। 
 
चलो विषय को अपनी तरह समझाते हैं। बहुत कुछ बहुत सोचकर बनाते हैं। केवल रोग की बात नहीं है दवाएं उपचार जाने क्या क्या आधुनिक उपकरण बनते जाते हैं। लोग स्वास्थ्य नहीं और बीमार होते जाते हैं। बाबा जी की क्या बात है योग बेचते हैं योग से निरोग बनाते हैं , मगर हर मर्ज़ की दवा वही बेचते मुनाफा कमाते हैं। कोरोना की भी इक दवा बताई थी उनकी कितनी हुई जगहंसाई थी फिर भी अपनी मनमानी चलाई थी खिलाई अपनी दवाई की कमाई थी। पुलिस थाने गली गली बढ़ते जाते हैं चोर लुटेरे अपराधी क़त्ल करते हैं नहीं पकड़ में आते हैं। संविधान की शपथ नेता हमेशा उठाते हैं मगर उसको पांव तले कुचलते रहते हैं बढ़ते जाते हैं। न्यायपलिका को छोड़ो न्याय मिलते नहीं खरीदे बेचे गवाह सबूत जाते हैं तारीख पर तारीख़ फ़िल्मी डायलॉग है सच बताते हैं। सरकार और अधिकारी समस्या को हल नहीं करते कभी रोज़ नई समस्या खड़ी करते हैं बस इसी की कमाई खाते हैं। खुद नहीं होते जनता को बतलाते हैं सही रास्ते अंधी गली से निकलते हैं खाई में गिराते हैं घर बैठे लोग बच जाते हैं। लोग हर मोड़ पे रुक रुक के संभलते क्यों हैं , इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं। शायर राहत इंदौरी जी कहते हैं। सच तो ये है कि आजकल ऐतबार शब्द का कोई अर्थ ही नहीं रहा मगर ज़िंदगी का भरोसा नहीं है फिर भी ज़िंदा रहते हैं। उम्मीद पर दुनिया कायम है हमने वैक्सीन पे भरोसा किया है अब उसकी मर्ज़ी निभाती है वादा वफ़ा का कब तलक। क्यों डरें कल न जाने क्या होगा नहीं कुछ भी होगा तो तजुर्बा होगा। 
 
बनाने वालों ने जो भी बनाया है अपना शाहकार बनाने वाले को भाया है। सरकारी कानून कितने अच्छे हैं मान जाओ अच्छे बच्चे हैं जो कंपनी दवा कोई बनाती है इसी तरह सबको समझाती है। शराब को सब खराब कहते थे काम आई वही तब लाजवाब कहते हैं हाथ अल्कोहल से लोग धोने लगे हैं। आपको सबक ये भी पढ़ाना है झूठ कहता रहा ज़माना है उनको भला और क्या चाहिए जिनको शराब मिलती मिलता मयख़ाना है। दुनिया की निगाहों में भला क्या है बुरा क्या , ये बोझ अगर दिल से उतर जाये तो अच्छा। शराब सरकार को कितनी अच्छी लगती है जब ख़ज़ाना भरती है नशा शराब में नहीं सत्ता और पैसे दौलत में भी होता है मगर अच्छा लगता है जिनके नसीब में होता है। अकबर इलाहाबादी कहते हैं , नातजुर्बाकारी से वाइज की ये बातें हैं , इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है।
 

 

फ़रवरी 13, 2021

अब नहीं रोयेंगे किसी के लिए ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

अब नहीं रोयेंगे किसी के लिए ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

 ऐसे वक़्त मां की याद आती है याद करते मां दौड़ी चली आती है। मां ने फोन किया बोली मेरा बच्चा रोता भी है तुझे तो सबको रुलाना है। जब से तुझे आंसू बहाते देखा परेशान हो गई हूं। बेटा बोला मुझे समझ नहीं आ रहा इस समस्या का समाधान कैसे हो सांप भी ज़िंदा रखना है जो लाठी लिए खड़े हैं उनसे लाठी भी छीननी है आंदोलन वाली। मां ने कहा उपाय तो सरल है बस उसको मना लो जिसको हर दर्द की दवा का पता होता है। ऐसा कौन है बताओ मां , बोली मां जाओ बहुरानी को मनाओ अपनी मन की उलझन उसी को बताओ कहो अपनी पत्नी से मेरी नैया डूबती है तुम बन पतवार कश्ती किनारे लगाओ। दुनिया की हर समस्या का समाधान पत्नियों के हाथ होता है। मैंने तरकीब बताई है चूहे बिल्ली की लड़ाई है झूठ बोलने की कसम तुमने जो उठाई है भीड़ में भी तुझे लगती तन्हाई है।

  ये सोच लो अब आखिरी साया है मोहब्बत , इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा। 

समझदार को इशारा काफी होता है डूबने वाले को तिनके का सहारा काफी होता है। पत्नी को फोन लगाया मझधार में माझी नहीं कोई सच बताया। पत्नी ने कहा ज़रूरत पर कौन काम आता ये अब आपको समझ आया। नहीं आपने मुझसे कभी रिश्ता निभाया मगर मैंने नहीं सीखा होना अपनों से पराया। मुझ पर छोड़ दो ये परेशानी जो करना है बताउंगी तो होगी हैरानी याद करना पहली रात सुनाई थी जो कहानी वो लोग हैं शेर मगर मैं शेर की भी नानी। उलझन सुलझेगी नहीं मुश्किल कोई समझदारी ज़रूरी है ये बात आपस तक रखना करना मेहरबानी। सोशल मीडिया से बचकर रहना होगी आसानी। पत्नी ने मगर दिल ही दिल में कुछ और ही ठानी। लिखनी है फिर से हर पुरानी कहानी। समझ गई सासु मां ने समझाया है मतलब की खातिर लौट बुद्धू घर आया है। ये सुबह का भूला नहीं जो शाम ढले आया हो ये है जो न अपना हो न पराया हो।
 
पत्नी जी पहुंच गई आंदोलन करने वालों के बीच अचानक बिना बताये। किसान मकसद मगर समझ नहीं पाये। हाथ जोड़कर बोली मुझे अपनी बहन समझना राखी बंधवाना रिश्ता निभाना पहले मेरा साथ दो मुझे बिखरा घर है बसाना जिस रोज़ मुझे मिल गया दिल्ली में ठिकाना उस रोज़ मेरे घर आना फिर चूल्हे में तीनों कानून खुद मुझको है जलाना। देखो मुझे रोना नहीं है अब बदला है उसका  चुकाना उसने मुझे रुलाया है बहुत मेरी बारी आई है मिलकर हमने उसे दिखलाना बदला ज़माना। ये सच है मुझे खुद उसने बताया है ऊंठ पहाड़ के नीचे आया है मगर चाल उसकी नहीं चलेगी दाल उसकी नहीं गलेगी। मिलकर सबने पैग़ाम है भेजा कोई छुपी बात नहीं सरेआम है भेजा। पहले अपनी पत्नी को घर में बसाओ साथ माता जी को दिल्ली बुलाओ समझौता अपना करो तब चर्चा हम से मिकर चलाओ। ये जाल नहीं चाल नहीं मिसाल हमने बनाई है ये बहना है हर किसान इसका भाई है। 
 
पढ़कर पैगाम जनाब हैरान हैं पत्नी क्या होती है नहीं जानते नादान हैं। भूली हुई दास्तां याद आई है बिल्ली शेर ने घर बुलाई है उसने पढ़ाई आधी पढ़ाई है। पत्नी का नहीं साथ जीतना मुश्किल है टूटी हुई कश्ती का पत्नी होती साहिल है। बिस्मिल समझा नहीं उसने मुझे घायल नहीं समझा मैंने भी छनकती है कैसे पायल नहीं समझा। मैसेज किया मुझे समझ नहीं आया खुलकर बताओ कहीं अकेले जाओ फोन लगाओ मुझे बचाओ मत डराओ मैंने सताया तुम तो न सताओ। सच बोलना कसम अपनी जान की खाओ। कॉल किया पत्नी ने कहा आप हैं झूठे सच्ची हूं मैं सच्ची बात पर थे आप मुझसे रूठे बंधन तभी तो थे अपने टूटे। शेर खुद को समझते हैं पति बनकर मगर सामने खड़ी थी इस युग की पत्नी तनकर। भाग गए थे बहाना बनाकर सर्कस वाले शेर होते हैं बहुत और कुछ कागज़ वाले भी असली नहीं होते। बस आपका भरोसा बार बार नहीं करना है मुझे भी किसान भाईयों की तरह बेमौत नहीं मरना है। अब बिल्ली शेर की चाल समझती है अपना मतलब निकलते खाओगे मुझे सरकार समझती है। जो शेर हैं जंगल के कभी घास नहीं खाते हैं सर्कस की तरह परोसा हुआ मांस नहीं खाते हैं। विदुर ने कहा था लाक्षाघर मत बनाना लगाई खुद आग जिसने उसे जल जाना बचना है अगर बिल कोई बनाना तीन बिलों का तो है बहाना आपको आता नहीं अच्छों से निभाना। सब जानते जिनसे आपका है बड़ा याराना , उनकी दोस्ती को कभी आज़माना बन जाएगी ज़िंदगी इक दिन अफ़साना। 
 

       न ख़ुदा ही मिला न विसाल ए सनम , न इधर के हुए  न उधर के हुए । 

       रहे दिल में हमारे ये रंज-ओ-अलम , न इधर के हुए न उधर के हुए। 


 

फ़रवरी 12, 2021

अनकही छोड़ जाएंगे हम कहानी अपनी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       अनकही छोड़ जाएंगे हम कहानी अपनी ( ग़ज़ल ) 

                               डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

अनकही छोड़ जाएंगे हम कहानी अपनी 
ढूंढने पर नहीं मिलेगी निशानी अपनी । 
 
प्यार हमने किया उसे दिल ही दिल में लेकिन 
पर कभी कह सके नहीं हम ज़ुबानी अपनी । 
 
हमको तालाब मत समझना हैं बहते दरिया 
रोकने से नहीं रुकेगी रवानी अपनी । 
 
झूठ कहते नहीं खरा सच हमेशा कहते 
हम बदलते नहीं वो आदत पुरानी अपनी ।
 
एक दिन उनसे जब मुलाक़ात होगी "तनहा" 
पूछना मत कि आएगी याद नानी अपनी ।
 

 



फ़रवरी 11, 2021

अपशब्द बोलकर लीद मत खाओ ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

  अपशब्द बोलकर लीद मत खाओ ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

चलो सबसे पहले उनकी कही बात को उनके तराज़ू के पलड़े पर रखते हैं तोलते हैं बाट भी वही रखना ज़रूरी है। तो कहा है इक जमात है जो जिस किसी का आंदोलन हो वहीं मिलते हैं। बड़ी देर कर दी मेहरबां बताते बताते हम नहीं समझते सोचते रह जाते। ये राजनेता कौन हैं जो हर गली हैं जाते हर सभा में ये नासमझ पढ़े लिखों को सबक पढ़ाते। छुपाते हैं अपने सारे बही खाते शर्म इनको नहीं आती झूठ को सच बताते। धर्म की बात धर्म वालों पर छोड़ो सत्ता मिली है राजधर्म समझो निभाओ नहीं जोड़ सकते देश को मगर इस तरह मत तोड़ो मरोड़ो। सच की बात समझो मन की बात करना छोड़ो मन की बात मतलब की बात होती है मन आत्मा ज़मीर कुछ और होते हैं खुद से खुद मुलाकात होती है। कुर्सी मिल गई तो खुद को सर्वज्ञानी समझने लगते हैं हर विषय पर भाषण देने को किसी से लिखवाने लगते हैं अन्यथा तथ्य गलत बतलाने लगते हैं। ये राजनेता कौन हैं जो कभी किसी कभी दल जाने लगते हैं जो दुश्मन थे दोस्त बनकर शासन चलाने लगते हैं। अर्थव्यवस्था का सबक जो समझाने लगते हैं उनको हिसाब अपना समझने में बड़े ज़माने लगते हैं। इतिहास बदलकर गलत को सही सही को गलत समझते हैं अपनी नासमझी पर हंसकर रुलाने लगते हैं। जिस विषय पर कुछ नहीं जानते हर उस विषय पर टीवी पर सभा में भाषण चर्चा कर गंगा को जमुना बताने लगते हैं। होश इनके चुनाव हार कर ठिकाने लगते हैं। माहमारी की बात से बचाव से उपचार तक कौन है जो सब को समझाता है नहीं जिसको क ख ग तक इस का आता है जनाब हर किसी के अंगने में आपका क्या काम है। जो है नाम वाला वही तो बदनाम है। परजीवी कितने हैं कौन हैं कैसे कैसे हैं सबकी तलाशी ज़रूरी है। जिनका गुज़ारा बिना सत्ता के नहीं होता है सफ़ेद हाथी देश पर बोझ हैं उनकी पहचान अवश्य की जाए देशसेवा के नाम पर लूट बंद की ही जाये।  
 
चलो आज धर्म वालों की तर्ज़ पर सच झूठ और अर्धसत्य की परख करने को दो पुरानी धार्मिक कथा और बोध कथा नीति कथा की चर्चा करते हैं। कथा से पहले इक लोक कहावत जैसी बात करते हैं किसी चमड़े के धंधे वाले को इक दिन राजा बनाया तो उसने चमड़े के सिक्के जारी कर दिए। इक और बात कहते हैं इक भिखारिन को राजा ने रानी बनाया तो उसको तब तक चैन नहीं आता था जब तक भीख नहीं मांगे इसलिए वो रानी बनकर भी महल की दीवारों से भीख मांगती थी। भीख मांगने की आदत खराब होती है। अब धार्मिक कथा शुरू करते हैं। इक साधु राजा के पास भिक्षा मांगने आया तब राजा ने कहा अभी मेरे पास घोड़ों की लीद है वही उसके बर्तन में डाल दी। भगवान आपको कई गुणा फल दे आशीर्वाद दिया और चला गया। भीतर जाकर अपनी पत्नी को बताया तो उसने समझाया ये आपने क्या कर दिया है। जानते हैं आपको अगले जन्म में वही लीद कितना बड़ा ढेर खाना पड़ेगा। राजा की पत्नी साथ रहती थी और हर पत्नी पति की गलती बतलाती है चाहे राजा हो या भिखारी। जिनकी पत्नी साथ नहीं रहती उनको कौन गलती समझा सकता है। खैर राजा उस साधु की कुटिया पर गया क्षमा मांगने तो देखा वहां लीद का अंबार लगा हुआ था। साधु ने बताया दान की वस्तु इसी तरह बढ़ती है और अभी कुछ पल हुए हैं आपके जीवन काल तक इसका पहाड़ बन जाएगा। 
 
राजा ने विनती की कोई उपाय बता सकते हैं। साधु ने कहा मुझे पिछले जन्म का फल मिला है तब मैंने आपसे भीख मांगी थी आपने कुछ नहीं दिया और मैंने आपको अपशब्द बोले थे। अपशब्द का बदला मुझे लीद खानी पड़ेगी। फिर भी आप आएं हैं तो आपको उपाय बताता हूं। आपको कुछ ऐसा करना होगा जिस से शहर भर के लोग आपको गाली अपशब्द बोलकर आपकी ये लीद खुद खा लें। तब राजा ने इक रथ पर किसी नर्तकी के साथ हाथ में शराब की बोतल लेकर सवारी निकाली जिस के आगे आगे उनके कर्मचारी घोषणा करते जाते कि राजा जी आ रहे हैं उनका अभिवादन करें। और हर नगरवासी बाहर निकलता राजा के पाप कर्म को देखता और उसे गाली अपशब्द कहता। मगर इक दार्शनिक को देखा राजा को नमस्कार किया अपशब्द नहीं बोले। राजा ने उसको दरबार आने को संदेश भिजवाया। आपने मुझे अधर्म करते देखा कुछ नहीं कहा क्यों क्या डरते हैं। नहीं दार्शनिक बोले मुझे आपके बदले लीद नहीं खानी है उतनी बची होगी आपको खुद खानी होगी। आपके सभी नागरिक नहीं समझे और आपकी बात दोहराते रहे मुझे नहीं किसी की अनुचित बात का समर्थन करना मगर उसके फल का भागीदार भी नहीं बनना है। 
 
उनकी पत्नी साथ रहती तो अवश्य समझाती आपको जीवन भर भीख मांगनी पड़ी क्योंकि आप ने पिछले जन्म कुछ ऐसा किया होगा मगर अब इस जन्म अपशब्द बोलकर फिर से लीद खाने का काम मत करो जाकर अपनी गलती की क्षमा मांग लो ये लोग माफ़ कर देते हैं।  

फ़रवरी 10, 2021

अश्क़ बहाने पर मेरा शोध ( जीवन अनुभव ) डॉ लोक सेतिया

    अश्क़ बहाने पर मेरा शोध ( जीवन अनुभव ) डॉ लोक सेतिया 

  ( कुछ दोस्तों और दुश्मनों की मेहरबानी के आभार सहित फ़िल्मी गीतों ग़ज़लों का आभारी हूं )

ये सार्वजनिक करना उचित है अथवा नहीं कहना कठिन है विशेषकर तब जब मैंने अपनी ग़ज़ल में साफ़ कर दिया था बहुत पहले कि हमने आंसू बहाना छोड़ दिया। ग़ज़ल से शुरुआत करते हैं। 
 
ग़म से दामन बचाना छोड़ दिया
हमने आंसू बहाना छोड़ दिया।

अब बहारो खिज़ा से क्या डरना
हमने अब हर बहाना छोड़ दिया।

जब निभाना हुआ नामुमकिन तब
रूठ जाना ,  मनाना छोड़ दिया।

हो गये हैं जो कब से बेगाने
उनको अपना बनाना छोड़ दिया।

कब कहाँ किसने कैसे ज़ख्म दिये
हर किसी को बताना छोड़ दिया।

उनको कोई ये जा के बतलाये
हमने रोना रुलाना छोड़ दिया।

मिल गया अब हमारे दिल को सुकून
जब से दिल को लगाना छोड़ दिया।

ख्याल आया हमारे दिल में यही
हमने क्यों मुस्कुराना छोड़ दिया।

हमने फुरकत में "तनहा" शामो-सहर
ग़म के नगमें सुनाना छोड़ दिया।  
 
ये ग़ज़ल 2012 में ब्लॉग पर पोस्ट पब्लिश की हुई है। अश्क़ बहाना कोई खराब आदत भी नहीं होती है और मैंने अकेले में सबके सामने भी बहुत बहाये हैं अश्क़ मगर जब आपके आंसुओं की कीमत कोई नहीं समझे तब अनमोल खज़ाने को व्यर्थ गंवाना नहीं चाहिए। ये भूमिका आपको अपने अश्क़ दिखाने को नहीं लिखी ये समझाना चाहता हूं कि मेरा शोध कोई चोरी किया हुआ नहीं है। 

आप क्यों रोये जो हमने दास्तां अपनी सुनाई 

 

आपने देखा होगा टीवी शो पर कोई अपनी दर्द भरी कहानी सुनाता है या कभी ऐ मेरे वतन के लोगो ज़रा आंख में भर लो पानी गीत सुनते हैं तब बस पल भर को हम संवेदनशील हो जाते हैं। बाद में कहीं कुछ भी सामने दिखाई देता रहे हमको मतलब नहीं होता। ये अश्क़ वास्तविक होकर भी हमेशा को नहीं रहती भावना वाले दिखाने को बाहरी होते हैं भीतर अंतर्मन में भावनाओं में नहीं बहने की बात होती है। शोध किया तब पता चला कि जब किसी के दुःख को सुनकर देख कर हमको रोना आता है तब हम औरों के लिए नहीं कहीं अपनी किसी दर्द भरी याद के ताज़ा होने पर भावुक होकर सहानुभूति जताते हैं। 

कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया ,
बात निकली तो हर इक बात पे रोना आया। 
कौन रोता है किसी और की खातिर ए दोस्त ,
सब को अपनी ही किसी बात पे रोना आया। 
 

मुस्कुराने लगे थे मगर रो पड़े

 

किसी की शोक सभा में किसी की मौत पर संवेदना व्यक्त करने जाने पर अपने आप पर संयम रखना होता है। मुस्कुराहट को छिपाना होता है चेहरे पर उदासी लानी पड़ती है भले आपको कोई एहसास नहीं हो अफ़सोस जतलाने को शब्द ढूंढते हैं। थोड़ा अलग होते ही दुनिया कारोबार जाने क्या क्या ज़रूरी होता है। अभिनय करना सभी जानते हैं कोई शायर कहता है " हर मोड़ पे मिल जाते हैं हमदर्द हज़ारों , लगता है मेरे शहर में अदाकार बहुत हैं। " मगर इक नायिका गाती है आज दिल पर कोई ज़ोर चलता नहीं मुस्कुराने लगे थे मगर रो पड़े। मुस्कुराने की तो कोई कीमत नहीं आंसुओं से हुई है हमारी कदर। 
 

टुकड़े हैं मेरे दिल के ए यार तेरे आंसू 

 

महबूबा के आंसू आग बुझाते नहीं और बढ़ जाती है लगी आग। बहने नहीं दूंगा मैं दिलदार तेरे आंसू। तबाही तो हमारे दिल पे आई आप क्यों रोये। हमारा दर्दो ग़म है ये इसे क्यों आप सहते हैं।ये क्यों आंसू हमारे आपकी पलकों से बहते हैं।  न ये आंसू रुके तो देखिये फिर हम भी रो देंगे ,
हम अपने आंसुओं में चांद तारों को डुबो देंगे। फ़ना हो जाएगी सारी ख़ुदाई आप क्यों रोये। मगर समझने की बात और है। ऐ मेरे दिल ए नादां तू ग़म से न घबराना , इक दिन तो समझ लेगी दुनिया तेरा अफ़साना। फ़रियाद से क्या हासिल रोने से नतीजा क्या , बेकार हैं ये बातें इन बातों से होगा क्या। इक ग़ज़ल है जिस में कहा है " घर की तामीर चाहे जैसी हो , उस में रोने की कुछ जगह रखना। 

बड़े लोगों के आंसुओं का समंदर 

 

राजनेताओं फ़िल्मी कलाकारों के आंसू सितम ढाते हैं। उनके आंसू देख कर लोग होश खो देते हैं। हारी बाज़ी जीत जाते हैं आंधी फ़िल्म की तरह तब और अब मामला इतना खतरनाक सीमा तक बढ़ गया है कि आंधी फ़िल्म नहीं बवंडर चक्रवात तूफ़ानी आंधी की पटकथा लिखने को कमलेश्वर जैसा मिलना मुश्किल है। बिग बॉस के घर से निकलने वाले को गले लगाकर आंसू बहाते हैं बाकी औपचारिकता निभाते हैं खुद बच गया खैर मनाते हैं। संसद में नेता आते हैं निर्धारित अवधि बाद चले जाते हैं क्यों इसका शोक मनाते हैं वास्तव में बाकी सदस्य यही सोच कर घबराते हैं उनके दिन भी घटते जाते हैं। ये विदाई के आंसू औपचरिकता भर नहीं हैं सच तो ये है बिना कुर्सी सत्ता उनको लगता है जीवन बेकार है अश्क़ निकल आते हैं। चलो आज इनका वास्तविक सच बताते हैं। पढ़ना इक रचना सुनाते हैं। इक नज़्म हाज़िर है। 
 

बड़े लोग ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया

बड़े लोग बड़े छोटे होते हैं
कहते हैं कुछ
समझ आता है और

आ मत जाना
इनकी बातों में
मतलब इनके बड़े खोटे होते हैं।

इन्हें पहचान लो
ठीक से आज
कल तुम्हें ये
नहीं पहचानेंगे

किधर जाएं ये
खबर क्या है
बिन पैंदे के ये लोटे होते हैं।

दुश्मनी से
बुरी दोस्ती इनकी 
आ गए हैं
तो खुदा खैर करे

ये वो हैं जो
क़त्ल करने के बाद
कब्र पे आ के रोते होते हैं।  

ग़ालिब से लेकर आज तक लिखने वालों के आंसू 

 

चचा ग़ालिब कह गए रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल , जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है। जनाब हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है , तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़ ए गुफ़्तगू क्या है। ये कमाल की बात है हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है। अब उनको शिकवा है लिखने वाले कविता कहानी लिखा करें देश समाज की वास्तविकता पर खामोश रहना अच्छा है अन्यथा बुद्धीजीवी को परजीवी घोषित किया जा सकता है उन्हीं द्वारा जो खुद परजीवी हैं देश जनता की कमाई पर जीते हैं राजनीति उनका मकसद नहीं कारोबार बन गया है। छाज तो बोले सो बोले छलनी भी बोले जिस में हज़ार छेद। इनको महनत की कमाई से गुज़ारा करना पड़ा तो बेमौत मर जाएंगे शासक अधिकारी सभी। हमारे दोस्त रामनिवास मानव जी के शब्द हैं आंसुओं को लेकर। 
 

बार बार लिख कर थकी , थक कर हुई उदास

कब लिख पाई लेखनी , आंसू का इतिहास। 

हम लिखने वाले अपनी कलम से अश्क़ों की स्याही से लिखा करते हैं। दरबारी लोग सोने चांदी के कलम उपहार में पाते हैं जिन में स्याही की जगह गरीबों का लहू भरा होता है सत्ता वालों की मर्ज़ी का इतिहास लिखने को। आखिर में किसी शायर के दो शेर पेश हैं। 

न मिले ज़ख़्म न निशान मिले , पर परिंदे लहू-लुहान मिले। 

यही संघर्ष है ज़मीं से मेरा , मेरे हिस्से का आसमान मिले।


फ़रवरी 09, 2021

एक के बदले सौ मिलेंगे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया ( व्यंग्य भी साथ चार ग़ज़ल भी )

   एक के बदले सौ मिलेंगे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

                   ( व्यंग्य भी साथ चार ग़ज़ल भी )

ये भी नोटबंदी की तरह ही है मगर क्योंकि योजना ख़ास वर्ग तक सिमित है इसलिए इसकी घोषणा नहीं की जा सकती थी। करंसी नहीं सच की बदलने की बात है क्योंकि उनको पक्का यकीन हो गया था सच बहुत पुराने युग में उपयोगी था और आजकल झूठ उसकी जगह स्थापित हो चुका था अतः सच की कीमत कुछ भी नहीं रही इसलिए बदलना लाज़मी था। बस जो जो भी सच का धंधा करते थे उनको समझा दिया था जितना बचा हुआ सच आपके तहखाने में है उसको हम से बदल सकते हैं। सिर्फ इतना नहीं आपको गले सड़े बेकार सच के बदले में खनकदार चमकीला झूठ मिलेगा सस्ते दाम पर एक देकर सौ वापस पाओ समय रहते फायदा उठाओ। योजना मिल बांट कर खाओ पहले खुद को बेचो उसके बाद झूठ बेचने का धंधा चलाओ जितना चाहो लेते जाओ रोज़ आओ रोज़ पाओ खूब खाओ खिलाओ। सच की दुकानदारी करने वालों ने सच बेच कर झूठ सौ गुणा पाया और शॉपिंग मॉल में शोरूम बनाकर भाव और भी बढ़ाकर मुनाफा कमाया। किसी को भी ये समझ नहीं आया सच जिस ने खरीदा उसने क्या कमाया। झूठ बेचने वाला खामोश रहा अपना खोटा सिक्का चलाया उल्लू सबको खूब बनाया सच का नामो-निशान मिटाकर खुद सच बनकर सामने आया। आखिर इक दिन हमको सारा खेल दिखाया सच और झूठ दोनों से मिलवाया। 
 
खरा सच खालिस दूध सबसे लिया अपनी मशीन में डालकर मख्खन चिकनाई अलग कर उसका शुद्ध देसी घी बनाया खुद पिया अपने लोगों को बेचकर बदले में समर्थन या मनचाहा काम लिया। बचा हुआ था सफेद पानी उसमें मिलवट कर गाड़ा किया सौ गुणा कर वापस उन्हीं को दिया। सच वाले झूठ बेचने लगे हैं तलवे चाटने लगे हैं हाथ जोड़ने लगे हैं। सच नज़र आये उसको क़त्ल करते हैं नहीं ज़िंदा सच कोई छोड़ने लगे हैं। । उनके पास झूठे वादों का भंडार जमा था तमाम अच्छे दिन रोज़गार काला धन विदेश से लाने और खैरात बांटने से विकास और सस्ता पेट्रोल डीज़ल जो मांगो मिलने वाले। सब से बचाने को खुद चौकीदार बन भाई बंधुओं को भी चौकीदार बनकर रखवाली करने के नाम पर हरियाली पाने के रंग ढंग निराले बनाये हैं। एक एक सच को दफ़नाया हज़ार झूठ उगाये हैं झूठ के बाग़ लगाए है लोग सारे रुलाये हैं अच्छे दिन खुद अपने बनाये हैं। नया ज़माना लाये हैं राहों पर कांटें बिछाए हैं कुछ लोग खिलखिलाए हैं जिनको अंदाज़ भाए हैं बाकी सभी बहुत पछताए हैं। 
 

 सच लिखना अपराध है बोलना मना है सच को ग़ज़ल बनाकर सुनाया जा सकता है सामने दिखलाया भी जा सकता है और झूठ से छिपकर बचाया भी जा सकता है।  जाँनिसार अख़्तर जी की लाजवाब ग़ज़ल पहले उसके बाद इस नाचीज़ की भी तीन ग़ज़ल सच को लेकर हाज़िर हैं। 

ग़ज़ल - जाँनिसार अख़्तर जी की 

जब लगे ज़ख़्म तो क़ातिल को दुआ दी जाए 
है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाए। 
 
दिल का वो हाल हुआ है गमें दौरां के तले 
जैसे इक लाश चटानों में दबा दी जाए। 
 
हमने इंसानों के दुःख दर्द का हल ढूंढ लिया 
क्या बुरा है जो ये अफ़वाह उड़ा दी जाए। 
 
हम को गुज़री हुई सदियां तो न पहचानेंगी 
आने वाले किसी लम्हे को सदा दी जाए। 
 
हम से पूछो कि ग़ज़ल क्या है ग़ज़ल का फ़न क्या 
चंद लफ़्ज़ों में कोई आग छुपा दी जाए। 
 
कम नहीं नशे में जाड़ों की गुलाबी रातें 
और अगर तेरी जवानी भी मिला दी जाए।
 
 

इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का ( ग़ज़ल ) 

        डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का
अब तो होने लगा कारोबार सच का।

हर गली हर शहर में देखा है हमने ,
सब कहीं पर सजा है बाज़ार सच का।

ढूंढते हम रहे उसको हर जगह , पर
मिल न पाया कहीं भी दिलदार सच का।

झूठ बिकता रहा ऊंचे दाम लेकर
बिन बिका रह गया था अंबार सच का।

अब निकाला जनाज़ा सच का उन्होंने
खुद को कहते थे जो पैरोकार सच का।

कर लिया कैद सच , तहखाने में अपने
और खुद बन गया पहरेदार सच का।

सच को ज़िन्दा रखेंगे कहते थे सबको
कर रहे क़त्ल लेकिन हर बार सच का।

हो गया मौत का जब फरमान जारी
मिल गया तब हमें भी उपहार सच का।

छोड़ जाओ शहर को चुपचाप "तनहा"
छोड़ना गर नहीं तुमने प्यार सच का।  
 
 

इक आईना उनको भी हम दे आये ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इक आईना उनको भी हम दे आये
हम लोगों की जो तस्वीर बनाते हैं।
 
बदकिस्मत होते हैं हकीकत में वो लोग
कहते हैं जो हम तकदीर बनाते हैं।

सबसे बड़े मुफलिस होते हैं लोग वही
ईमान बेच कर जो जागीर बनाते हैं।

देख तो लेते हैं लेकिन अंधों की तरह
इक तिनके को वो शमशीर बनाते हैं।

कातिल भी हो जाये बरी , वो इस खातिर
बढ़कर एक से एक नजीर बनाते हैं।
मुफ्त हुए बदनाम वो कैसो लैला भी
रांझे फिर हर मोड़ पे हीर बनाते हैं। 
 
 

पथ पर सच के चला हूं मैं ( ग़ज़ल )

 डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

पथ पर सच के चला हूं मैं
जैसा अच्छा - बुरा हूं मैं। 

ज़ंजीरें , पांव में बांधे 
हर दम चलता रहा हूं मैं।

कोई मीठी सुना लोरी
रातों रातों जगा हूं मैं। 

दरवाज़ा बंद था जब जब
जिसके घर भी गया हूं मैं। 

मैंने ताबीर देखी है
इन ख्वाबों से डरा हूं मैं। 

आना वापस नहीं अब तो
कह कर सबसे चला हूं मैं। 

खुद मैं हैरान हूं "तनहा"
मर कर कैसे जिया हूं मैं।
 
 
 
 

फ़रवरी 08, 2021

मौका मिला है राज चलाओ ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      मौका मिला है राज चलाओ ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

ये समझो और समझाओ मौका मिल जाये तो मत शर्माओ जो चाहो करते जाओ अपनी भूख प्यास मिटाओ पाछे नहीं पछताओ। युग बदलता है पिता की विरासत बच्चों को मिलती है पूरी होती है बाप की दौलत से क्या क्या हसरत दिल में पलती रही अधूरी होती है। बहू जब भी सास बनती है छलनी बदलती है चाल चलती है बहू क्या नहीं पैतरें बदलती है बस ये चलन है सुबह होती है शाम ढलती है। जब से हमने सरकार बनाई है अपना मख़्खन दूध मलाई है छाछ सभी को बंटवाई है। लोग पुराने थे पुरानी सोच रखते थे नींद में भी जो होश रखते थे हम तो चैन की नींद सोते हैं खुल कर जीते हैं मौज मनाते हैं हम कभी नहीं रोते रुलाते हैं और रुलाकर हंसते है उनकी किस्मत में रोना है रोते हैं। कितने मूर्ख होते थे दौलत को संभालते बढ़ाते थे खुद सादा जीवन बिताते थे खर्च कम करते अधिक बचाते थे। हमने बदले दस्तूर पुराने हैं अपने याराने याराने हैं सब खज़ाने हमको लुटाने हैं दोस्त दुनिया भर से खरीद लाने हैं सबको इस राज़ का पता भी है सबसे आसान ये रास्ता भी है। साथ कोई कुछ नहीं लाया है और कुछ साथ लेकर नहीं जाना है किसलिए बचाना है खाना ख़ज़ाना खाकर जाना है। बाद वालों को सबक सिखाना है अपने दम पर जहां बनाना है हम नहीं कायल उनके जो ढंड से खुद मर जाते हैं और रज़ाई अपनी बच्चों के नाम छोड़ जाते हैं। उनको जीने का हुनर नहीं मालूम था जीना क्या होता है चलो आज हम बताते हैं। अपनी कथा कहानी खुद लिखते हैं खुद सुनते हैं सुनाते हैं हम मियांमिठ्ठू बनकर अपने को सबसे अच्छा बताते हैं। झूठ नहीं है सच वही है जो हम मानते ही नहीं मनवाते हैं। 
 

   ( कथा काल्पनिक है पहले बताते हैं। चलो खुद से खुद भी मिलते हैं आपको मिलवाते हैं। )

अध्याय पहला। कभी किसी की मत सुनो अपने सपने खुद चुनो बुनकर ख़्वाब अपनी धुन पर नाचो झूमों गाओ लोग क्या कहते हैं घर परिवार सबको छोड़ो इक दोहा याद आया है सुनते जाओ। अजगर करे न चाकरी पंछी करे न काम , दास मलूका कह गए सबका दाता राम। काम करना ज़रूरी नहीं है आराम करना ज़रूरी है आराम बड़ी चीज़ है। आपको धंधा करना है तो सोच समझ कर चयन करना उचित है। भीख मांगना खराब नहीं है भिखारी से बढ़कर कोई नवाब नहीं है। भीख सभी लोग चाहते हैं वेतन काम का जितना भी हो रिश्वत बिना गुज़ारा नहीं होता है पैसे बगैर कोई हमारा सहारा नहीं होता है। कभी बख़्शीश कहा जाता था काम के बाद अधिकारी क्लर्क बिना मांगे पाकर सर झुकाता है मगर रिश्वत का अपना आधार है ये नहीं सिर्फ उपहार है ये लेन देन का खुला बाज़ार है आपको हाज़िर जो भी दरकार है इक यही बिन छपा इश्तिहार है। पैसे वालों की रही हमेशा अपनी सरकार है। भीख मांगने में शर्म की बात नहीं बस इसी झगड़े पर सुहागरात बन पाई सुहागरात नहीं। दोनों मिलकर भीख मांगेंगे उनको बात सच्ची भाई नहीं बस मानते हम नहीं अपनी लुगाई नहीं सब कुछ पाना है हमने कोई हरजाई नहीं। बात उसने भी आगे बढ़ाई नहीं। हमारी हजामत करे मिला नाई नहीं दाढ़ी बढ़ती गई बढ़ाई नहीं सच समझते मेरे भाई नहीं। 
 
अध्याय दूसरा। भीख मांगने वाले साधु महात्मा संत बनकर विकास की डगर चलते रहते हैं। भीख देने वाले वहीं रह गए भिखारी हलवा पूरी खाकर संतोष की व्याख्या समझाते रहे दान देने से दौलत बढ़ती है इसका मतलब दिखाते रहे भीख वाले दौलत जमाते रहे। धर्म का काम महनत की कमाई से किया जाता नहीं चोर डाकू धर्म करते हैं पूजा पाठ दान सभी कुछ भगवान के पास सब भक्त समान हैं एक नंबर दो नंबर का कोई खाता नहीं जो सर झुकाता नहीं कुछ बिन मांगे पाता नहीं। ये हिसाब सबको समझ आता नहीं।  
 
अध्याय तीसरा। स्वर्ग नर्क की दास्तां हैं अपने लिए सब कुछ यही जहां है ज़िंदगी मौत के दरमियां कौन जाने क्या इम्तिहां है। जान है तो जहान है अपनी शान अपनी पहचान है घर किसी और का है दुनिया में हर कोई चार दिन का महमान है। गरीबी अभिशाप है अमीरी वरदान है ये राजनीति जो नहीं समझता है नासमझ बड़ा नादान है। हमने तीन रास्ते बनाये हैं फ़रिश्ते ढूंढ कर हम लाये हैं जाल ऐसे बिछाए हैं लोग नाहक घबराये हैं। मौत का क्या भरोसा है ज़िंदगी ने यही परोसा है जन्नत मिलती है मरने के बाद मौत से डरकर जी नहीं सकते। ज़हर पीते हैं झूठा शहद लगता है अमृत सच का पी नहीं सकते। स्वर्ग नर्क मोक्ष की चाह ने ज़माने को उलझाया है जिसने खोजा है उसने पाया है लोग डरते हैं जिससे खुद उन्हीं का साया है। आपने टीका लगवाना है नहीं कोई चलेगा बहाना है रोग भागे नहीं भागे नहीं जानता कोई मगर कहा मैंने सभी ने माना है। टीका लगवाने से क्या क्या होगा कुछ नहीं होगा तो तजुर्बा होगा। मौत से बढ़कर कुछ हो नहीं सकता रोना यही है खोने वाला खोकर रो नहीं सकता। हमने बड़ी महनत से इनको बनाया है समझ लो उपरवाले की यही माया है दर्द दवा का यही रिश्ता है। रोग से मरने से अच्छा है ईलाज से मर जाना। सोचो अगर पैसे से दवा से उपचार से लोग मौत से बच सकते तो कोई धनवान कभी नहीं मरता दुनिया में गरीबी कब की खत्म हो गई होती। 
 

  ( ये शुरुआत है कथा कभी ख़त्म नहीं होती है। पढ़ सुन कर चिंतन करते हैं। )

फ़रवरी 07, 2021

शक़्ल नहीं तस्वीर है आईने में ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      शक़्ल नहीं तस्वीर है आईने में ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

बड़ा नाम सुना था बाज़ार है सच वाले आईने हैं हर शोरूम दुकान फुटपाथ से चलते फिरते जाने कैसे कैसे। पहली ही दुकान अपनी पहचान वाले की थी उनसे साफ़ शक़्ल देखने वाला दर्पण मांगा तो उन्होंने लकड़ी के फ्रेम में इक तस्वीर सामने कर दी और बोले देख लो ये आप ही हैं। हमने कहा क्या बता रहे हैं आप मुझे जैसा समझते हैं वैसा दिखला रहे हैं मैं कोई नादान बच्चा नहीं किसको ऐसे बहला रहे हैं। हंस कर बोले हम धंधा चला रहे हैं कभी हंसने वाले को रुला रहे हैं कभी रोते बच्चे को खिलौना थमा रहे हैं कुछ भी समझ लो हम पैसा बना रहे हैं। हम बिकते हैं बेचते भी हैं लोग हमारी कीमत बढ़ा रहे हैं हम रामधुन बजा रहे हैं रावण को ऊंचा उठा रहे हैं उसके गुणगान के मतलब सबको समझा रहे हैं। सीता और गीता राम और श्याम दोनों किरदार अकेले निभा रहे हैं दर्शक ताली बजा रहे हैं क्यों आप झल्ला रहे हैं देखो हम जश्न मना रहे हैं झूठ को मंच पर बिठाकर फूलमाला दीपक मां सरस्वती को अर्पित करवा रहे हैं। सुनते हैं लोग बहरे हैं बेशक मिलकर सभी गूंगे मधुर गीत गा रहे हैं। 
 
सुबह से शाम तक बाजार सारा छान मारा मगर मिला नहीं कश्ती को कहीं किनारा। हर किसी ने यही कहा बाबूजी समझो ज़रा इशारा क्या हाल हुआ तुम्हारा क्या हाल है हमारा। फेसबुक व्हाट्सएप्प का बदला है सब नज़ारा जिसे मौत ने बचाया उसे ज़िंदगी ने मारा। हमको तो मिल गया है सरकार का सहारा कागज़ की कश्ती दरिया का वो किनारा सागर का खारा पानी हमको नहीं लगता खारा। शीशे में देखो हमने क्या क्या नहीं उतारा सच झूठ दोनों भाई क्या भलाई क्या बुराई अपना हर किसी से नाता है जब तक काम आता है रिश्ता निभता जाता है। हर खरीदार को हम आईना दिखलाता है शक़्ल जैसी भी हो हम तस्वीर बनाकर फ्रेम में लगाता है। आपको उधर से उजाला इधर से अंधेरा नज़र आएगा मगर हमारी कलाकारी से खुद को सबकी नज़र से खूबसूरत दिखलाएगा। सेल्फ़ी लगाओगे या डीपी बनाओगे सोशल मीडिया पर छाओगे गज़ब ढ़ाओगे। 
 

संक्षेप में समझाया है गागर में सागर भरने की बात है आखिर में आर पी महरिष की ग़ज़ल। 

आईने में देखना अच्छा लगा 
अपना अपना चौखटा अच्छा लगा। 
 
आत्मश्लाघा में खुद अपनी पीठ को 
थपथपाना ठोंकना अच्छा लगा। 
 
आज विश्वामित्र के बहरूप को 
मेनका ने फिर छला अच्छा लगा। 
 
आधुनिक बनने की अंधी दौड़ में 
उनको चस्का जाम का अच्छा लगा। 
 
एक ख़लनायक की कटु मुस्कान पर 
हो गए दर्शक फ़िदा अच्छा लगा। 
 
बाद उत्सव के निमंत्रण पत्र वो 
खूबसूरत सा मिला अच्छा लगा। 
 
हम तो रुकने ही को थे "महरिष" मगर 
उसने रोका रास्ता अच्छा लगा।
 

 

फ़रवरी 06, 2021

मयक़दा बन गया है बाम अपना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 मयक़दा बन गया है बाम अपना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 
मयक़दा बन गया है बाम अपना 
फिर भी खाली रहा है जाम अपना । 
 
अब नहीं आएंगे कभी भी वापस 
दोस्तो आखिरी सलाम अपना । 
 
लोग अच्छे हमें बुरा हैं कहते
चुप रहे हम यही था काम अपना । 
 
क़त्ल कर के उन्हें मिला सुकूं क्या 
मौत मुझको लगी इनाम अपना । 
 
आप चाहें मुझे खरीद लेना 
प्यार करना यही तो दाम अपना । 
 
ज़िंदगी का सफ़ा अभी है ख़ाली 
लिख दे कोई तो उस पे नाम अपना । 
 
एक इंसानियत ही धर्म "तनहा" 
हम हैं अल्हा के और राम अपना ।
 

 
 
 
 
 
 

फ़रवरी 05, 2021

किस तरह कहें यहां कुछ भी नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 किस तरह कहें यहां कुछ भी नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

किस तरह कहें यहां कुछ भी नहीं 
जो कही वो दास्तां कुछ भी नहीं । 
 
लो सुनो गरीब कहने लग गए 
झूठ है वो आस्मां कुछ भी नहीं । 
 
राख में कहीं चिंगारी है अभी 
तुम समझ रहे धुआं कुछ भी नहीं । 
 
झूठ बोलती रही सरकार है 
रौशनी कहां निशां कुछ भी नहीं ।
 
बात आपकी नहीं साबित हुई 
क्या है आपका बयां कुछ भी नहीं । 
 
दोस्त हम रकीब कैसे बन गए 
ऐतबार दरमियां कुछ भी नहीं । 
 
छोड़कर सभी गए "तनहा" मुझे 
रह गया है अब जहां कुछ भी नहीं ।
 

 
 
 
 
 

मुलाक़ात हुई क्या बात हुई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   मुलाक़ात हुई क्या बात हुई ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कौन बड़ा कौन छोटा कठिन है बताना हमको क्या मतलब खाना खिलाना उनका याराना नया है मगर पुराना अच्छा लगता है साथ निभाना हम उनके पाले हुए हैं मत भूल जाना खामोश रहना है सलीके से दुम हिलाना। कुत्तों को मिलता है मिलने का बहाना कभी उसको घर बुलाना कभी चलके घर किसी के जाना। हर दिन पालने वालों की मुलाक़ात होती है उनके पाले कुत्तों की बात होती है शाम होती है आधी रात होती है। अफ़्सर की पत्नी को प्यार है टॉमी से नेता जी का शेरू लाडला है उनका दोनों की दोस्ती की अपनी दास्तां है टॉमी की नानी शेरू की सगी मां है। अफ़्सर भी लगता नेता जी का साला है बस और नहीं मालूम क्या क्या घोटाला है। कुत्तों की पहचान बड़ी है जिसके कहलाते हैं उनकी शान बड़ी है। टॉमी बता रहा  है शेरू दुम को हिला रहा है किस्सा मज़ेदार है बड़ा मज़ा आ रहा है। 
 
सच बात तो यही है अफ़्सर नेता को उल्लू बना रहा है जी सर कहकर जो चाहता पा रहा है। नेता की रग रग से वाकिफ है हां में हां मिलाकर मनमर्ज़ी चला रहा है। मज़बूरी है उनको समझा रहा है कोई अखबार वाला सवाल पूछ कर डरा रहा है। यारी निभाता सबसे सच को छुपा रहा बदले में कीमत भी पा रहा है कहते हैं जो खबर उसी को बना रहा है कभी कभी सच का पैरोकार होने का तमगा दिखा कर रोज़ अपने मतलब हासिल किये जा रहा है। अजब तमाशा है अफ़्सर भी खाता है नेता भी खाता है अखबार वाला भी भरपेट जाता है सबका सभी से अच्छा नाता है दोस्त बनकर दुश्मनी का सबक भी पढ़कर समझाता है। जब कभी खेल बनते बनते बिगड़ जाता है सरकार बदलती है सब गुड़ गोबर हो जाता है।
 
इक और पैसे वाला इन सभी का दाता है इशारों पर अपने सत्ता को नचाता है। नेता अफ़्सर अख़बार टीवी वाले सभी उसी के ख़ास अपने हैं। ऊंचे ऊंचे सबके अपने अपने सपने हैं वो झोली उनकी भरता है हमेशा बस उसको जैसा चाहिए करना पड़ता है कहता है समझता है हमेशा। दौलत के खिलोने हैं खेल उसका मैदान उसी का खिलाड़ी उसके सत्ता हर दिन महमान उसका। कैसे नहीं होगा पूरा हर इक अरमान उसका जब नेता अफ़्सर अख़बार टीवी सभी पर एहसान उसका। काम करते सभी उसका नहीं सामने आता नाम उसका। टॉमी शेरू से कह रहा है दरिया है ये कैसा नीचे से ऊपर को बह रहा है समंदर चुपचाप खड़ा दर्द सह रहा है। दुनिया का चलन बदल गया है आदमी कुत्ता होने को मचल गया है कुत्तों की मौज भी है कुत्तों की फ़ौज भी है। किसी को घर की रखवाली नहीं करनी है गाड़ी में बैठना है शान से जीना है अपनी जगह किसी के लिए खाली नहीं करनी है। 
 
मालिक कौन कौन बन गया है कुत्ता सबको चाहिए अपना अपना हिस्सा। हर कोई अपने अधिकार चाहता है व्यौपार मांगता है इश्तिहार चाहता है कोई शराफ़त वाला निभाना किरदार चाहता है। दिल लगाने का सिलसिला अजीब है ये शायर है जिस में हर दोस्त रकीब है चेहरे पर नकाब है कोई कितना भी करीब है। सलीब पर सलीब है वीवीआईपी खुशनसीब आवाम बदनसीब है। इन ख़ास लोगों की हर रोज़ दिवाली है ईद है। आखिर में आर पी महरिष जी की ग़ज़ल पेश है। 
 
बने न बोझ सफर इक थके हुए के लिए 
हो कोई साथ उसके मिलके बांटने के लिए। 
 
हज़ार देखा किया जाने वाला मुड़ मुड़ कर 
मगर न आया कोई उसको रोकने के लिए। 
 
ये हादिसा भी हुआ एक फ़ाक़ाकश के साथ 
लताड़ उसको मिली भीख मांगने के लिए। 
 
तू आके सामने मालिक के अपनी दुम तो हिला 
है उसके हाथ में पट्टा तेरे गले के लिए। 
 
ये ख़ैरख़्वाह ज़माने ने तय किया आखिर 
नमक ही ठीक रहेगा जले कटे के लिए। 
 
बहानेबाज़ तो महफ़िल सजा रहा था कहीं 
घर उसके हम जो गए हाल पूछने के लिए। 
 
फ़क़ीर वक़्त के पाबंद हैं बड़े " महरिष "
अब उनके हाथ में घड़ियां हैं बांधने के लिए। 
 

 
 
 

फ़रवरी 03, 2021

ऊंचे किले बंद दरवाज़े और हवेली ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

   ऊंचे किले बंद दरवाज़े और हवेली ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

कभी कभी डरावने साये नज़र आने लगते हैं तब बड़े बड़े ताकतवर लोग घबरा जाते हैं। ऐसे में लगता है जो रास्ते बनवाये गए खतरनाक हैं जाने कब किधर से कोई आपकी हवेली में घुसकर कुछ भी कर सकता है। अचूक सुरक्षा व्यवस्था का क्या भरोसा है सबसे पहले आधुनिक संचार व्यवस्था को ठप करना होगा उसके बाद जिन राहों पर आपके लिए अथवा किसी अन्य की खातिर फूल और मखमली कालीन बिछते थे उन पर अवरोधक कांटेदार तारें तीर जैसे ऊंचे कील ज़मीन सड़क पर घायल करने को लगाने के उपाय किये जाने ज़रूरी हैं। जब तक आधुनिक यातायात और आवाजाही बाधित करने संपर्क करने के सभी साधन खत्म नहीं किये जाते नींद कैसे आएगी। किसी और देश नहीं अपने ही देश के लोगों से खतरा है कहीं 25 जून 1975 जैसी हालत नहीं बन जाये क्योंकि तब अंदोलन करने में शामिल थे आज सिंघासन पर बैठे हैं। सत्ता का मोह तब किसी को देश संविधान से महत्वपूर्ण लगता था आज भी हालत कम नहीं है सत्ता की मनमानी ज़िद पर अड़ी है। सवाल कानून का नहीं उनकी नाक का बना लिया है। मगर उस महिला जैसा हौंसला नहीं है अन्यथा राजधानी की सड़कों पर अथाह सागर विरोध करने वाली जनता का था फिर भी तानशाही गरूर ने हार नहीं मानी थी। अनुचित ही सही अनावश्यक ही सही आपात्काल की घोषणा की गई थी। अब तो बिना घोषित आपात्काल की दशा है। इतनी शक्ति और अहंकार के बावजूद घबराहट है फिर कोई कवि वही बात लिखने का साहस नहीं दिखला दे। सिंघासन खाली करो कि जनता आती है। 
 
बात बहुत आगे बढ़ चुकी है सत्ता का खेल संविधान की भावना न्याय और नागरिक अधिकार की अवहेलना करने से खतरनाक जन जन की आवाज़ को खामोश करने को उन्हें दुश्मन समझने लगा है। आपको अपने ही देश में कहीं जाने पर सरकारी रुकावटों बाधाओं को लांघना है सत्ता का मद टकराव चाहता है वार्तालाप की बात दिखावा है। उनको नहीं मालूम इस तरह कितने समय तक आप न केवल विरोध करने वालों बल्कि तमाम सामन्य लोगों को रोक कर उनके संविधान के मौलिक अधिकारों का हनन कर सकते हैं। जो बात विरोध और आंदोलन करने वाले करें तो गलत है वही सरकार देश और राज्य की करते हैं तो मतलब साफ है उनको देश की जनता का भरोसा हासिल नहीं और उनको जनमत पर विश्वास नहीं अपनी सत्ता की ज़िद और अहंकारी रवैये पर भरोसा है कि उसी से बच सकते हैं। न्यायपालिका की बात करना आफत को घर बुलाना है अन्यथा क्या उनको इतना समझ नहीं आता कि जो किया जा रहा उसकी परिणीति क्या हो सकती है और मकसद छुपा हुआ नहीं है। ये ज़रूरी नहीं कोई आपका दरवाज़ा खटखटाये खुद आपको अपनी आंखों की पट्टी खोल सच समझना देखना चाहिए अन्यथा सत्यमेव जयते उदघोष व्यर्थ है। 
 
शायद सत्ता नेताओं को सदियों पुराने ऊंचे ऊंचे किलों में रहना होगा और सड़कों पर टोल प्लाज़ा नहीं पासपोर्ट दिखला देश में इधर उधर जाने पर अंकुश लगाना होगा। मगर तब आपकी सभाएं रैलियां और जलसे जलूस सड़कों पर निकलना भीड़ बनकर इतिहास बन जाएगा। हर शासक को सच और जनमत डरायेगा लेकिन जब भी कोई महल में ऊंचा गुंबद हो कर बुनियाद के पत्थर की ज़रूरत नहीं समझ पाएगा बड़ा पछताएगा। बुनियाद हिलते ही गुंबद गिर कर मिट्टी में मिल जाएगा। शासक जब जब अत्याचार की हद से बढ़ जाएगा कोई जननायक आकर उसको ललकारेगा उसकी हस्ती क्या है समझाएगा।
 
25 जून 1975 जे पी की रैली की तस्वीर है ये इस भीड़ में इक नाम अपना भी है। जाने कितनों को भूल गया मुझे कभी नहीं भुला वो दिन वो भाषण भी। लोकनायक जी ने कहा था और सच कहा था शांतिपूर्वक विरोध करने वालों पर लाठी गोली नहीं चलाना क्योंकि सुरक्षा बल किसी नेता अथवा सरकार नहीं संविधान के लिए निष्ठा रखने वाले होने चाहिएं।
 
 
 
 
J P Andolan And Emergency Story - 42 साल पहले आज के दिन शुरु हुई थी  'संपूर्ण क्रांति', मिला था 'आपातकाल' | Patrika News
  
चलो आखिर में इक फ़िल्मी गीत सुनते हैं। बदले बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं। फूल भी अब तो मुझे खार ( कांटे ) नज़र आते हैं। जिन्होंने आपकी राहों में फूल बिछाये जो लोग फूल उगाते हैं देश को हरियाली से भरते हैं आपको इसलिए अखरते हैं क्योंकि आपसे नहीं डरते हैं। 
 

 

फ़रवरी 02, 2021

झूठे तुम झूठे हम सच्ची मुहब्बत हमारी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

    झूठे तुम झूठे हम सच्ची मुहब्बत हमारी ( हास-परिहास ) 

                                 डॉ लोक सेतिया 

बहुत शोध विचार विमर्श चिंतन के बाद ये सच्चाई आखिर समझ आ गई है। हम जैसे होते हैं हमारी सोच पसंद जैसी होती है हमें उसी तरह के लोग अच्छे लगते हैं। मुहब्बत कभी दो सच बोलने वालों में नहीं होती है एक झूठा एक सच्चा हो तब मुहब्बत तभी तक ज़िंदा रहती है जब तक सच को झूठ की पहचान नहीं होती है। मगर जब दोनों तरफ झूठे लोग हों जो जानते समझते हों झूठ बोलते हैं और चाहते हों उनके झूठ का ऐतबार किया जाना शर्त है मधुर संबंध कायम रखने की तब ही स्थाई गठबंधन होता है। जीवन भर प्यार मुहब्बत बना रहे रिश्ता कभी टूटे नहीं इसके लिए दोनों को झूठ का सहारा लेना और दूसरे के झूठ पर सच से बढ़कर भरोसा करना बेहद ज़रूरी है। आशिक़ी में बहुत ज़रूरी है बेवफ़ाई कभी कभी कर ली शायर कहता है। निभाने को झूठ बोलना बड़े काम आता है हर कोई अपनी अपनी बीवी को सबसे खूबसूरत बताता है आपको खाना बनाना नहीं आता है स्वाद अच्छा है बताकर निभाना सीखा लिया सबसे दिलकश यही नाता है। फरेब खाना नसीब होता है दिल दिल के करीब होता है। मानो चाहे नहीं मानो यही आधुनिक काल की सच्ची कहानी है झूठ की मरती नहीं नानी है सुनोगे ये उसी की ज़ुबानी है। 
 
शराबी को मयखाना जुआरी को जुए का ठिकाना दुनिया का सबसे दिलकश लगता है। झूठों का दुनिया में बहुमत है फिर भी झूठ को कभी शासन की बागडोर संभालने का मौका नहीं मिला था। झूठ पीछे से सरकार चलाता सच को सामने रखकर काम चलाता जितना मिलता उतना खाता सच से हमेशा था घबराता। पहली बार झूठ पूर्ण बहुमत से अपने दम पर सत्ता में आया पहले दिन झूठ ने जब लोकतंत्र के मंदिर में सर झुकाया सबने समझा राम राज्य है आया बस झूठ ने सच और ईमानदारी का सुंदर मुखौटा लगाया दुनिया भर को उल्लू बनाकर झूठ का सिक्का खूब चलाया। सभी झूठों को अपना भगवान उसी में नज़र आया झूठ के भगवान के झूठे भक्तों ने कौमी तराना अपना बनाया झूठ को सबसे अनमोल बनाकर सच को गहराई में दफ़नाया सच का जनाज़ा उठाया। जिस किसी ने झूठ को भगवान स्वीकार किया मनचाहा फल पाया। झूठ झूठ मधुर स्वर में जब गाकर सुनाया झूठों का भगवान खुश हुआ हाथ से हाथ मिलाया। अकेले में ख़ामोशी से इक झूठे ने शायद मदहोशी में सच ये बताया। 
 
हम झूठ के भक्त कहलाते हैं झूठ की महिमा गाते हैं क्योंकि भगवान में हम सभी को खुद नज़र आते हैं। सब यही चाहते हैं सत्ता मिल जाए तो उसका जमकर फायदा उठाएंगे यार दोस्तों संग रंगरलियां मनाएंगे कुछ भी करेंगे सही बतलाएंगे अपने ऐशो आराम को देश समाज की भलाई और खुद को सबसे महान शासक कहलाएंगे। जो हम जैसे नहीं उनकी खिल्ली उड़ाएंगे हम अपने विरोधी को देश का दुश्मन बताकर समाज को बांटते चले जाएंगे देशभक्ति के नाम पर आग ऐसी लगाएंगे लोग हमसे मिलने को घबराएंगे। लेकिन कब तक खैर मनाएंगे सभी बकरे किसी दिन हलाल हो जाएंगे जो भी सरकार को भाएंगे। हम जितने उनके चाहने वाले हैं उनकी सभी अहंकारी मनमानी और सत्ता का फायदा उठाने की अनुचित बातों का समर्थन करते हैं क्योंकि यही हमारी सोच है यही हम सभी का सपना है। देश का सबसे बड़ा पद आसानी से नहीं मिलता है कितने हथकंडे अपना कर हासिल होता है। उसको पाकर भी दिखावे की शराफत की बात सोचना कितनी बड़ी नासमझी होगी। जब नाचन लागी तो घूंघट काहे , मुखौटा उतार दिया है जो हैं सामने हैं खुलकर कहते हैं। झूठ के भगवान के भक्त हैं झूठ हमारे दिल में रहते हैं सच को हम लोग बकवास कहते हैं।
 

फ़रवरी 01, 2021

सरकार और भगवान चुकाते एहसान ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

  सरकार और भगवान चुकाते एहसान ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

अरे ओ नादान इंसान पढ़ भगवान और सरकार का अनकहा ब्यान। चुकाते हैं अपने को बनाने वालों के एहसान। भगवान ने दुनिया बनाई थी अच्छाई सच्चाई सबकी भलाई थी नहीं उसने समझी अपनी बढ़ाई थी। ईश्वर अल्लाह नाम कोई नहीं था अकेला था अनोखा अलबेला था कोई नहीं गुरु न कोई चेला था पास रखा पैसा पाई न इक धेला था। कितने समझदार बंदों ने उसको मशहूर कर दिया भक्ति अर्चना ईबादत महिमा गुणगान का दस्तूर मंज़ूर कर दिया। बिना मांगे बगैर किसी आदेश निर्देश उनहोंने अकेले उसके कितने नाम कथा रूप रंग अपनी कल्पना से बनाकर हर किसी को अपने भगवान से परिचित करवा दिया। किस किस चीज़ को इंसान ने अपने हाथ से तराशा सुंदर छवि तस्वीर बहुत कुछ बहुत नाम देकर भगवान को हर किसी का महमान बना दिया। भगवान हैरान हैं कौन किसकी पहचान हैं भगवान ने इंसान बनाये जिन बंदों ने भगवान बनाया बन गए विधाता से बढ़कर महान हैं। पंडित जी मौलवी संत महात्मा असली नकली धर्म उपदेशक मंदिर मस्जिद गिरिजाघर बनाने वालों के ईश्वर पर कितने एहसान हैं बस कैसे सभी से कर्जमुक्त हो भगवान इसी को लेकर परेशान हैं।
 
जो लोग उनको बनाते हैं ये उन्हीं के बन जाते हैं। अमीर चंदा देते हैं चुनाव लड़ते नहीं उनको कठपुतली बनाकर नचवाते हैं लड़वाते हैं सरकार बन जाती है मनचाही मुराद बिन मांगे ही पाते हैं। राजनेता अपनी वफ़ादारी उन्हीं से निभाते हैं तिजोरी खाली करते देश की अमीरों की भरते जाते हैं। मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरूद्वारे जो भी बनवाते हैं पत्थरों पर नाम खुद अपना लिखवाते हैं या जो आपको धर्म की व्याख्या समझाते हैं भगवान को बेचते हैं बदनसीब खरीद लाते हैं। आप भगवान की महिमा गुणगान गाते हैं मांगते हैं खैरात नहीं मगर पाते हैं। रईस बिना मांगे धन दौलत हीरे मोती पाकर अपनी लूट की कमाई को धार्मिक आयोजन पर खर्च कर दानवीर कहलाते हैं। गरीबों की व्यथा दोनों को सुनाई नहीं देती दुर्दशा जनता की दिखाई नहीं देती। सरकार और भगवान जानते हैं उनका आस्तिव्य मतदाता या भक्त नहीं बनाते उनको संसद विधानसभा या मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरुद्वारा में जगह धनवान लोग जिस आमदनी से उपलब्ध करवाते हैं वो खून पसीने की ईमानदारी की महनत की नहीं होती है। जब बीज खाद ऐसे हैं तो फसल कैसे अलग हो सकती है। 
 
भगवान समझ गए हैं जो रोज़ उनके दर पर आते हैं झुकाते सर चंद सिक्के भेंट चढ़ाते हैं खुश रहने कुछ पाने की आस लगाते हैं भजन गाते हैं उसको मनाते हैं सभी हासिल हो जाता है बदल जाते हैं। ईश्वर इंसान को तकलीफ में ही याद आते हैं। भगवान उनकी बातों में कभी नहीं आते हैं भक्तों की परीक्षा लेते हैं उनको आज़माते हैं। मतलबी सभी हैं भगवान को बनाते हैं खुश करने को आरती गाते दीप जलाते हैं। भगवान को ये बात समझ आई है तमाम सामन्य भक्तों की करनी नहीं भलाई है उन्हें भक्त बनाये रखना है इस बात में चतुराई है। ये छोड़ कर भगवान का दर कहां जाएंगे ये घर के बुद्धू घर लौट ही आएंगे। क्या पाएंगे क्या खोएंगे समझ नहीं आता है इंसान खुद अपना भाग्य विधाता है। सरकार भी भगवान भी समझदार होते हैं जो देता है पहले बाद में वही पा जाता है। खैरात उतनी मिलती है जितनी झोली फैलाता है। कभी भरती नहीं सरकार की झोली तिजोरी कभी भगवान बेचने वालों की हसरत नहीं मिटती रह जाती है अधूरी। समझो सभी लोग भगवान की यही मज़बूरी एहसान चुकाना है सब से ज़रूरी।