जून 26, 2013

POST : 347 नहीं मिला तुम सा कोई ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

 नहीं मिला तुम सा कोई ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

तुन्हें अच्छा लगता था
कोई और
जिसके प्यार में
तुमने छोड़ दिया
मुझे ही नहीं
सारी ही दुनिया को भी ।

बेरुखी से तुम्हारी
तड़पता रहा मैं
रात दिन बहाता रहा अश्क
तुम्हारे प्यार में मैं बरसों ।

कर दिया हालात ने
जुदा हम दोनों को
मगर दिल से नहीं हुए कभी
हम इक दूजे से जुदा उम्र भर ।

अब नहीं हो तुम
अपनी दुनिया में
अब नहीं हो तुम
किसी दूजे की दुनिया में
छोड़ कर चले गये
इस जहां को तुम
अलविदा कहे बिना किसी से
मगर फिर भी रहते हो
मेरे दिल की
दुनिया में  सदा तुम ।

तुम्हें भी कुछ नहीं मिल सका
कभी किसी से
उम्र भर दुनिया में
मैं भी नहीं बसा सका
बिना तुम्हारे
अपने ख्वाबों की
कहीं कोई दुनिया ।

आज
अकेला बैठा सोचता हूं
हम दोनों फिर से
मिलें शायद एक बार
अगले किसी जन्म में
और बसायें
अपना प्यार का कोई जहां
जिसमें दूजा कोई भी नहीं हो
मेरे और तुम्हारे सिवा मेरे दोस्त । 
 

 

जून 24, 2013

POST : 346 बिना मंजिल का सफ़र है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

बिना मंज़िल का सफर है ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

दौड़ रहे हैं
सभी दौड़ रहे हैं
क्यों  किसलिये
नहीं जानते
कहां जा रहे हैं
क्यों जा रहे हैं
फुर्सत नहीं है 
किसी को सोचने की
बस हर किसी को
यही  डर है
कहीं पीछे न रह जायें हम
सभी को सब से
आगे निकलना है ।

कौन सी मंज़िल है
कौन सा रास्ता
किसका साथ है
छूट गया क्या क्या कैसे
नहीं जानता कोई भी
अपना अंजाम
बस भाग रहे हैं
तेज़ और तेज़
वक़्त से आगे
निकलना है सभी को
जीवन भर
भागते जाना है
बेमकसद
इस अंधी दौड़ में
छूट गया जीवन भी
हासिल कर लिया बहुत
बहुत अभी करना है
अंत में मिलनी है
हर किसी को
दो गज़ ज़मीन
भागते भागते
निकल जानी है
किसी दिन जान ।

विकास के नाम पर
विनाश की ओर जा रहे
मानवता के मूल्यों को
लोग सब बिसरा रहे
भौतिकता में
उलझे हैं हम
सुबह से शाम तक
रात को सुबह बताते
दिन को रात बता रहे
जानते हैं
समझते हैं
सही नहीं दिशा हमारी
मगर नासमझने को
समझदारी मानते
जो नहीं आया
खुद को भी अभी तक समझ
वही सबक लोग सब
औरों को समझा रहे ।

चल रहे हैं लोग
ऐसी राह पर
जिस पर नहीं है
कोई भी मंज़िल कहीं
ख़त्म हो सकती नहीं
ज़िंदगी की दूरियां
चाहते हैं सभी खोजना
अपनी अपनी ज़िंदगी
हो रहे हर पल
मगर हैं दूर सभी लोग 
अपनी ज़िंदगी से । 
 

 

जून 20, 2013

POST : 345 सितम रोज़ दुनिया के सहते रहेंगे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 सितम रोज़ दुनिया के सहते रहेंगे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सितम रोज़ दुनिया के सहते रहेंगे
नहीं पर शिकायत कभी कर सकेंगे ।

तेरा शहर गलियां तेरी छोड़ देंगे
नहीं अब कभी आपसे हम मिलेंगे ।

कहें और क्या हम यही बस है कहना
तुम्हें खुश रखे हम खुदा से कहेंगे ।

मिली ज़िंदगी मांगते मौत रहते
हैं ज़िन्दा नहीं हम , न हम मर सकेंगे ।

न कोई भी मंज़िल न कोई ठिकाना
चले रास्ते जिस तरफ चल पड़ेंगे ।

मेरे दिल के टुकड़े हज़ारों ही होंगे
किसी दिन तेरा तीर खाकर मरेंगे ।

बुझानी हमें प्यास "तनहा" सभी की
सभी जाम खाली हुए हम भरेंगे । 
 

 

जून 07, 2013

POST : 344 खुदा देखता तेरे गुनाह , डरना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुदा देखता तेरे गुनाह , डरना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुदा देखता  तेरे  गुनाह , डरना
सितमगर सितम की इन्तिहा न  करना ।

कई लोग फिसले , फिसलते गये हैं
वहीं पर खड़े हो , संभलकर उतरना ।

किये दफ़्न तुमने , जिस्म तो हमारे
बहेगा हमेशा प्यार का ये झरना ।

परिंदे यही फरियाद कर रहे हैं
किसी के परों को मत कभी कतरना ।

नहीं दूर अपनी मौत जानते हैं
किया पर नहीं मंजूर रोज़ मरना ।

बिना नीवं देखो बन गई इमारत
किसी दिन पड़ेगा टूटकर बिखरना ।

सुबह शाम "तनहा" देखकर के सूरज
हैं कहते, सिखा दो डूबकर उभरना । 
 

 

जून 06, 2013

POST : 343 कलयुगी भक्त , कलयुगी भगवान ( हास्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

 कलयुगी भक्त , कलयुगी भगवान ( हास्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

सभी धर्मों के ईश्वर
वहीं पर थे
सभी के सामने
लगी हुई थी
भक्तों की लंबी लंबी कतारें ।

सभी बढ़ा कर हाथ
दे रहे थे अपने भक्तों को आशीष
खुश हो रहे थे
पा कर ढेर सारा चढ़ावा ।

किसी को नहीं था मतलब
कौन है अच्छा और कौन बुरा
कोई नहीं दे रहा था
जैसे जिसके कर्म हों
उसको वैसा फल ।

देख कर चुप नहीं रह पाया
आखिर को वो था इक पत्रकार
छोड़ सभी को पीछे
चला आया था वो सबसे आगे
बढ़ा दिया अपना कैमरा
सामने उन सभी भगवानों के ।

और माइक पकड़
पूछने लगा उन सब से
अपने सवाल
ये क्या देख रहा हूं मैं
क्या कर रहे हैं सभी आप
सोचते नहीं -देखते नहीं ।

किसने किये कितने पुण्य
नहीं किसी को भी कह रहे
करते रहे कितने पाप।

मुस्कुराने लगे
सभी के सभी ईश्वर
सुन उसकी बात ।

फिर समझाया उसको
किस युग की करते तुम बात
कलयुग में नहीं
लागू हो सकते नियम
सत्य युग वाले ।

इस युग में खुली छूट है
लूट ले छीन ले
जैसे भी कमा ले
बस हर बार हमें याद रख
सर झुका चढ़ा चढ़ावा
खुश कर हमें ।

और फलने फूलने का
हमसे आशीष पा ले
पत्रकार हो  इतना नहीं जानते ।

कलयुग कैसे कलयुग रहेगा
अगर पाप ही नहीं रहेगा
पापियों के लिये ही है ये युग
इसमें पाप हमेशा ही बढ़ेगा । 
 
 विकट बाढ़ की करुण कहानी नदियों का संन्‍यास लिखा है - अदम गोंडवी | जखीरा,  साहित्य संग्रह

जून 03, 2013

POST : 342 अब सभी को खबर हो गई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अब सभी को खबर हो गई ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अब सभी को खबर हो गई
बेहयाई हुनर हो गई ।

ख़त्म रिश्ते सभी कर लिये
बेरुखी इस कदर हो गई ।

साथ कोई नहीं जब चला
शायरी हमसफ़र हो गई ।

आपने ज़ुल्म इतने किये
हर ख़ुशी दर बदर हो गई ।

कल अचानक मुलाकात इक
फिर उसी मोड़ पर हो गई ।

आज नीची किसी की नज़र
क्यों हमें देखकर हो गई ।

और "तनहा" नहीं कुछ हुआ
जुस्तजू बेअसर हो गई । 
 

 

जून 01, 2013

POST : 341 कह रहे कुछ लोग उनको भले सरकार हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

     कह रहे कुछ लोग उनको भले सरकार हैं ( ग़ज़ल ) 

                     डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कह रहे कुछ लोग उनको भले सरकार हैं
तुम परखना मत कभी खोखले किरदार हैं ।

छोड़कर ईमान को लोग नेता बन गये
दो टके के लोग तक बन गये सरदार हैं ।

देखकर तूफ़ान को, छोड़ दी पतवार तक
डूबने के बन गये अब सभी आसार हैं ।

फेर ली उसने नज़र, देखकर आता हमें
इस कदर रूठे हुए आजकल दिलदार हैं ।

पास पहली बार आये हमारे मेहरबां
और फिर कहने लगे फासले दरकार हैं ।

हम समझते हैं अदाएं हसीनों की सभी
आपके इनकार में भी छुपे इकरार हैं ।

गैर जब अपने बने, तब यही "तनहा" कहा
ज़िंदगी तुझसे हुए आज हम दो चार हैं ।