नवंबर 26, 2024

POST : 1922 पचहत्तर साल का बाबा ( तीर ए नज़र ) डॉ लोक सेतिया

       पचहत्तर साल का बाबा ( तीर ए नज़र ) डॉ लोक सेतिया

सालों की गिनती का क्या महत्व है किताब की बात हो तो जो लिखा गया वही होता है पढ़ना हो अगर मगर उनको संविधान की किताब से कोई सबक नहीं सीखना उस में समझाई बातों पर अमल नहीं करना सिर्फ उसका लाभ उठाना है सत्ता मिलती है उसी का करिश्मा है । अचानक किसी को लगा कितने साल से उस की चर्चा करने की ज़रूरत नहीं महसूस हुई अब जब राजनीति की नैया डोलने लगी हिचकोले खाने लगी सत्ता की डोली घबराने लगी सियासत अपना ढंग दिखाने लगी किसी चौखट पर सर झुकाने लगी । हमको बचपन की बात याद आई बाबा जी कहते थे सभी परिवार रिश्तेदार गांव शहर वाले , जीवन भर बड़ी मेहनत से कमाई की कितना कुछ बनाया । पुराने बज़ुर्ग बड़े सीधे सादे भोले हुआ करते थे जिस ने हाथ जोड़ जो भी मांगा बिना सोचे दे देते हर कोई सहायता मांगने चला आता । बूढ़े हुए तो घर की बैठक या ड्योढ़ी में चौखट पर बैठे कभी विश्राम करते आदत थी छोटे बड़े से आदर से प्यार से बात करते तो किसी को कोई परेशानी नहीं थी । इक घटना वास्तविक है हम बच्चे सभी भाई चुपचाप ख़ामोशी से रात को छोटे दरवाज़े से सिनेमा देखने चले गए बिना अनुमति बिना बतलाए । चतुराई की थी बैठक का दरवाज़ा भीतर से खुला छोड़ बाहर से सांकल लगा आये थे । फिल्म देख वापस आने पर बैठक का दरवाज़ा खोला तो सामने बाबा जी हाथ में उनकी इक खूंडी हमेशा रहती थी , सभी घबरा गए लेकिन बाबा जी ने कोई शब्द नहीं बोला न कुछ भी सज़ा ही दी । लेकिन कुछ था उनकी नज़रों में जो हमको हमेशा याद रहा । बाबा जी कहते थे तुम लोग चाहे जहां भी जाओ कुछ भी खादी का साधरण कपड़ा पहन रखा हो तुम्हारी पहचान मेरे पोते हो हमेशा रहेगी । बाबा जी का निधन पचास साल पहले हुआ तो हमको शायद ही समझ आया हो हमने कितना शानदार रिश्ता खो दिया है । 
 
मुझे ये कहने और स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि हमारे सैंकड़ों लोगों के बड़े परिवार में उन जैसा कभी कोई नहीं बन पाया । उनके विचार उनकी सभी को अपना बनाने भरोसा करने की आदत किसी में नहीं है निस्वार्थ और ईमानदारी से आचरण करना और कभी किसी से नहीं डरना खराब हालात का डटकर सामना करना इक ऐसा किरदार था जिस में कोई अहंकार कभी नहीं दिखाई दिया , कोई बड़ा छोटा नहीं सभी बराबर थे उनके लिए । संविधान की किताब का उन से कोई मतलब नहीं है लेकिन खुद अनपढ़ होने के बाद भी हमको पढ़ना लिखना उन्हीं ने सिखाया था । मुझसे हमेशा धार्मिक किताबें पढ़ कर सुनाने को कहते और मैं कभी इनकार नहीं करता था बाकी भाई बहाना बना बचते थे । आज लगा ये जितने लोग संविधान की वर्षगांठ मनाने का आयोजन उत्स्व मना रहे हैं क्या पढ़ते हैं किताब को समझते हैं अनुपालना करते हैं । शायद लोग भगवान धार्मिक कथाओं को भी पढ़ते समझते नहीं बस उनको अलमारी में या किसी जगह सजावट की तरह रख कर सर झुकाते हैं । विडंबना इस बात की है कि सर भी झुकाते हैं तो किसी स्वार्थ की खातिर कुछ चाहते हैं या फिर किसी डर से या गलती की क्षमा मांगने के लिए । आजकल बड़े बज़ुर्गों की तस्वीरें बनवा दीवार पर टंगवाने और फूलमाला चढ़ाने का चलन है , हम लोगों ने बाबा जी की कोई तस्वीर नहीं बनवाई , किसी ने नहीं लगवाई मरे पर पासपोर्ट साइज़ की अलबम में अवश्य सुरक्षित है । 
 
किताब से आवाज़ आती सुनाई दे रही है , बेबस लाचार बना दिया है मुझे इन्हीं लोगों ने जो भाषण में मुझे कितना महान बतला रहे हैं । वास्तव में मुझे अपने मतलब की खातिर दरवाज़े पर बिठाया हुआ है क्योंकि मेरा शरीर देखने में बड़ा बलशाली लगता है कोई चोर लुटेरा घर में प्रवेश करते घबराएगा । असल में मुझसे हिला भी नहीं जाता और रात भर जागता रहता हूं कितनी चिंताएं हैं मेरी भावनाओं की परवाह किसी को नहीं है ।

संविधान दिवस पर विशेष कार्यक्रम, 75 साल पूरे होने पर पुरानी संसद में आयोजन  City Tehelka

नवंबर 24, 2024

POST : 1921 नकली होशियारी झूठी यारी ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया

   नकली होशियारी झूठी यारी ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया 

जब पहली बार नकली होशियारी अथवा ए आई (   artificial intelligence ) का पता चला तभी मैंने तय कर लिया था इस नामुराद से बच कर रहना ज़रूरी है । होशियारी से अपना यूं भी कभी कोई नाता नहीं रहा है , सब कुछ सीखा हमने न सीखी होशियारी सच है दुनिया वालो कि हम हैं अनाड़ी । लोग भले चाहते हैं सब कुछ आसानी से पलक झपकते हो जाये बस किसी अलादीन के चिराग़ से निकले जिन को आदेश देते असंभव भी संभव हो जाये । हमको मुश्किल राहों से उलझनों परेशानियों से गुज़र कर कुछ भी हासिल करना अच्छा लगता है नाकामियों से घबराना नहीं आता हमको । कागज के फूल हुआ करते थे अब प्लास्टिक से बने मिलते हैं और हमने इंसानों में भी पत्थर जैसे लोग देखे हैं जो हमेशा खूबसूरत दिखाई देते हैं लेकिन कुछ भी खुशबू नहीं बांटते नकली फूल । अभी तक दुनिया समझती समझाती थी नकली से बचना चाहिए ये क्या हुआ जो लोग नकली होशियारी पर ऐसे फ़िदा हैं । बताते हैं ये सब कर सकता है उसको कहोगे तो कुछ भी लिख देगा किसी भी की आवाज़ की हूबहू नकल करेगा जाने क्या क्या । लेकिन जानकारी लेने पर पता चला कि उस में जो भी सामिग्री जानकारी सूचनाएं भरी गई होती हैं उन्हीं से अंदाज़े से आपकी वांछित बात देता है । इसको समझदारी नहीं चालाकी चतुराई कहना चाहिए क्योंकि कंप्यूटर या मशीन खुद कुछ भी सृजन नहीं करती हैं केवल वही करती है जिस के लिए इंसान ने उसे बनाया हुआ है । 
 
ऐसे ढंग से कोई आपको अनाज फल खाने पीने की चीज़ें रोटी सब्ज़ी बनाकर प्रस्तुत कर भी दे तब भी आप उस को खा नहीं सकते , भविष्य में आपको मानसिक रोगी बना सकता है ये । सोचो आपको भूख लगी हो मगर ये नकली होशियारी आपको बताये कि आपका पेट अब भर चुका है ऐप्प पर देख सकते हैं । अभी इस को लोग उपयोग करने ही लगे थे कि कितनी ऐप्प्स बाज़ार में आ गई इनकी वास्तविकता को परखने को , अब उनसे जानकारी ली जाने लगी है कि नकली होशियारी से बनी हुई झूठी चीज़ है । अभी तो सरकार उसका उपयोग करने की बात सोचती हो शायद मगर बाद में लोग समझ सकते हैं कि चलो सरकार नेता सभी का कोई भरोसा नहीं रहा चलो इस के सहारे देश की व्यवस्था चलाते हैं । योजनाएं बजट सब इस से बन जायेगा और उनसे अधिक भरोसेमंद क्योंकि मशीन को रिश्वत भाईचारा स्वार्थ और जालसाज़ी की ज़रूरत नहीं होगी । लेकिन शोध कर्ता बताते हैं जब इसी से लिखवाई बात को कुछ दिन बाद इसी को परखने को कहा तो इस ने जवाब दिया ये किसी मूर्ख की समझाई गलत बात है । ऐसे एक दिन इस में जब कोई वास्तविक नई सही जानकारी नहीं भरी जाएगी क्योंकि हमने सब इस के हवाले कर दिया होगा खुद चैन की बंसी बजाते होंगे तब इस में कुछ नहीं बचेगा केवल कचरा मिलेगा । दुनिया में पहले भी ऐसा होता रहा है चतुर सुजान बनकर कुछ लोग अपना कचरा कूड़ा कर्कट अन्य देशों को बेच कर अपनी मुसीबत से छुटकारा पाते हैं साथ में कमाई भी करते हैं । बड़े बज़ुर्ग कहते थे हम चमकने वाली चीज़ सोना नहीं होती फिर इसका तो नाम ही   artificial intelligence है मतलब नकली का प्रमाणपत्र सलंगन है । झूठी यारी बड़ी बिमारी होती है । 
 
 What is Artificial Intelligence (AI) and Why People Should ...

नवंबर 20, 2024

POST : 1920 चुपके से छुपते छुपाते धंधा है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  चुपके से छुपते छुपाते धंधा है  ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

  आशिक़ी हो कि राजनीति हो कौन बच सकता है सभी करना चाहते हैं मगर सभी को सब कुछ मिलता नहीं है । लेकिन ये दो अलग अलग विषय हैं किताबें भी अलग अलग हैं , जाने क्यों नासमझ लोग आशिक़ी में भी राजनीति करने लगते हैं और कुछ लोग राजनीति में दिल लगा बैठते हैं , जबकि राजनीति में कोई भी किसी का होता नहीं है । लेकिन आज दोनों विषयों पर इक साथ लिखना मज़बूरी है क्योंकि आजकल समझना बड़ा दुश्वार है क्या ये राजनीति का कारोबार है या फिर किसी को किसी से हुआ सच्चा प्यार है । माजरा आपसी लेन देन का है और ऐसा लेना देना सार्वजनिक तौर पर नहीं करते अन्यथा हंगामा खड़ा हो जाता है । अधिकांश लोग अवैध लेन देन को रिश्वत कहना उचित नहीं मानते इसे उपहार कहना ठीक समझते हैं । सत्ता की राजनीति में उपहार का चलन पुराना है जनता को बड़ी मुश्किल से पड़ता मनाना है उसे अपना बनाना है तो नित नया रास्ता बनाना है । शराब की बोतल से कभी बात बन जाती थी कभी साड़ी बांटने से भरोसा जीत सकते थे वोट का नोट से रिश्ता अटूट है आपको सब करने की छूट है सरकार की योजना गरीबी मिटाने की नहीं है ये लूट खसूट है यही सच है बाक़ी सब झूठ है । भिक्षा कभी बेबस गरीब मांगते थे या फिर कुछ साधु संत सन्यासी पेट भरने को झोली फैलाते या भिक्षा पाने का कोई कटोरा हमेशा लिए रहते थे । भीख भिखारी भिक्षा सभी बदल चुके हैं आजकल ये धंधा सब बाक़ी व्यवसायों से अधिक आसान और बढ़िया बन चुका है उस से ख़ास बात ये है कि इस में कभी मंदा नहीं आता न ही इसको छोटा समझा जाता है । दानपेटी से कनपटी पर बंदूक रख कर ख़ुशी से चाहे मज़बूरी से देने के विकल्प हैं । दाता के नाम देने की बात आजकल कारगर साबित नहीं होती है डाकू गब्बर सिंह का तरीका भी अब छोड़ दिया गया है क्योंकि उस में खतरे अधिक और फायदा थोड़ा बदनामी ज़्यादा होती है । 

आपको ध्यान होगा कभी सरकारी दफ़्तर में रेड क्रॉस बांड्स के नाम पर वसूली खुले आम हुआ करती थी , बांड मिलते नहीं थे बस मूल्य देना पड़ता था । लेकिन हिसाब रखते थे वास्तव में कुछ बांड की बिक्री की कीमत जमा करते थे मगर उस पैसे को खर्च स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध करवाने पर नहीं बड़े अधिकारी की सुख सुविधाओं पर करते थे । तबादला होने पर अधिकारी खाते में जमा बकाया राशि कुछ खास अपने लोगों को वितरित किया करते थे , भविष्य में उसका फल मिलता रहता था । वक़्त बदला तो इस हाथ दो उस हाथ लो का नियम व्यवहारिक लगा तो परिणीति चुनवी बांड्स में हुई मगर कुछ ही समय बाद उनको अवैध घोषित कर दिया गया अदालत द्वारा । लोकतंत्र का तमाशा अजीब है जिस में ऐसी बातें राज़ कहलाती हैं जिनके बारे में हर कोई जानता है । जब तक सामने दिखाई नहीं देता किसी को कोई मतलब नहीं होता जानते हैं कि सभी दल यही करते हैं ईमानदारी की मूल्यों पर आधारित राजनीति कोई नहीं करता सब समझते हैं जो चाहे वही करूं मेरी मर्ज़ी । कोयले पर हीरे का लेबल लगाया हुआ है राजनीति काजल की कोठरी है कालिख से कौन बच सकता है । देश की आधी से अधिक संपत्ति धन दौलत कुछ लोगों के पास जमा हुई है तो सिर्फ इसी तरह से जनता से वसूल कर खज़ाना भरने और उस खज़ाने से योजनाओं के नाम पर अपनों को वितरित करने या अंधा बांटे रेवड़ियां फिर फिर अपने को दे । इधर चुनाव में बांटने बटने साथ रहने पर चुनाव केंद्रित था किसी को खबर नहीं थी कि मामला पैसे बांटने की सीमा तक पहुंचेगा ।
 
आपको क्या लगा जिस से बात शुरू की थी इश्क़ आशिक़ी उस को भुला दिया या उस का कोई मतलब ही नहीं है । ऐसा नहीं है सच कहें तो सिर्फ राजनेता अधिकारी उद्योगपति ही नहीं सभी पैसे से दिल लगा बैठे हैं पैसे की हवस ने समाज को पागल बना दिया है । राजनीति समाजसेवा देशभक्ति की खातिर नहीं होती अब आजकल सत्ता हासिल कर नाम शोहरत ताकत का उपयोग कर दौलत हथियाने को की जाती है । जिस जगह कभी कुंवां था शायर कहता है उस जगह प्यास ज़्यादा लगती है बस वही बात है जिनके पास जितना भी अधिक पैसा होता है उसकी लालसा उसका लोभ उतना ही बढ़ता जाता है । आपने ठगी करने की कितनी बातें सुनी होंगी ठग पहले कुछ लालच देते हैं बाद में लूटते हैं जैसे शिकारी जाल बिछाता है पंछी दाना चुगने आते हैं जाल में फंसते हैं । राजनीति जो जाल बुनती है बिछाती है दिखाई नहीं देता कभी कोई हादसा पेश आता है तो ढकी छुपी असलियत सामने आती है तब हम हैरान होने का अभिनय करते हैं जैसे हमको नहीं पता था कि ऐसा ही होता रहा है और होना ही है क्योंकि हमको आदत है बंद रखते हैं आंखें । आखिर में पेश है मेरी इक पुरानी ग़ज़ल । 
 

कैसे कैसे नसीब देखे हैं  ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कैसे कैसे नसीब देखे हैं
पैसे वाले गरीब देखे हैं ।

हैं फ़िदा खुद ही अपनी सूरत पर
हम ने चेहरे अजीब देखे हैं ।

दोस्तों की न बात कुछ पूछो
दोस्त अक्सर रकीब देखे हैं ।
 
ज़िंदगी  को तलाशने वाले
मौत ही के करीब देखे हैं ।

तोलते लोग जिनको दौलत से
ऐसे भी कम-नसीब देखे हैं ।

राह दुनिया को जो दिखाते हैं
हम ने विरले अदीब देखे हैं ।

खुद जलाते रहे जो घर "तनहा"
ऐसे कुछ बदनसीब देखे हैं ।   
 

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नवंबर 17, 2024

POST : 1919 क्या हुआ क्योंकर हुआ बोलता कोई नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       क्या हुआ क्योंकर हुआ बोलता कोई नहीं ( ग़ज़ल ) 

                         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

क्या हुआ क्योंकर हुआ बोलता कोई नहीं 
बिक गया सब झूठ सच तोलता कोई नहीं । 

शहर में रहते हैं अंधे उजाला क्या करे 
खिड़कियां हैं बंद दर खोलता कोई नहीं । 



POST : 1918 तलाश कहां होगी कब पूरी ( पुरानी डायरी से ) डॉ लोक सेतिया

   तलाश कहां होगी कब पूरी ( पुरानी डायरी से  ) डॉ लोक सेतिया 

अभी नहीं मालूम अगली ही पंक्ति में लिखना क्या है सुबह सुबह ये ख़्याल आया कि इस दुनिया में सभी कुछ तो है फिर भी सभी की झोली ख़ाली दिखाई देती है तो किसलिए । बहुत सारी पुरानी डायरियां संभाल कर रखी हुई है , अक़्सर जब कोई सवाल परेशान करता है तो उनको पढ़ता हूं और न जाने कैसे मुझे जो बात नहीं समझ आ रही थी पल भर में समझ आ जाती है । आज विचार आया मन में बातचीत में व्यवहार में सोशल मीडिया से लेकर साहित्य फ़िल्म टीवी सीरियल सभी में ऐसा लगता है देख सुन कर जैसे जहां में प्यार वफ़ा ईमानदारी भरोसा जैसे शब्द अपना अर्थ खो चुके हैं ऐसा कुछ मिलता ही नहीं किसी को भी ढूंढते ढूंढते सब का जीवन गुज़र जाता है ।
 
कुछ रचनाएं आधी अधूरी पुरानी डायरी में लिखी हुई हैं , पढ़कर देखा , जिनको किसी न किसी कारण से मुकम्मल नहीं किया जा सका था , लेकिन उनकी शायद दबी हुई भावनाओं को खुद ही आकार देने की क्षमता अभी तक नहीं रही खुद मुझी में , तो किसी को क्या बताता और कोई कैसे समझाता  । उम्र के इस मोड़ पर जो मुझे समझ आया वो इक वाक्य में कहा जा सकता है ' मैंने सही लोगों में सही जगह उचित तरीके से जिन बातों की चाहत थी बेहद ज़रूरत थी दोस्ती प्यार अपनेपन की नहीं की,  और जिन लोगों जिन जगहों पर उनका आभाव था वहां उन सब को ढूंढता रहा '। तभी मैंने अपने जीवन को रेगिस्तान में पानी की तलाश ओएसिस जैसा बार बार कहा है रचनाओं में । आसानी के लिए वही कुछ पुरानी कविताएं नज़्म या जो भी है सार्वजनिक कर रहा हूं विषय की ज़रूरत है ऐसा सोच कर । 
 
 1 

ज़िंदा रहने की इजाज़त ही नहीं मिली , 
प्यार की मुझको इक दौलत नहीं मिली ।
 
मिले दोस्त ज़माने भर वाले , लेकिन , 
कभी किसी में भी उल्फ़त नहीं मिली । 
 
नासेह की नसीहत का क्या करते हम , 
लफ़्ज़ों में ख़ुदा की रहमत नहीं मिली ।   
 
 2 

किसी की आरज़ू में  खुद अपने भी न बन पाए ,  
गुलों की चाहत थी कांटों से भरे सब चमन पाए । 
 
मुहब्बत की गलियों में में यही देखा सब ने वहां ,  
ख़ुद मुर्दा हुए दफ़्न हुए तब खूबसूरत कफ़न पाए ।  
 
अजनबी अपने देश गांव शहर में लोग सभी मिले  ,   
जा के परदेस लोगों ने कभी अपने हम-वतन पाए ।
 
 3 

अपने अपने घर बैठे हैं हम सब ये कैसा याराना है ,  
मिलने की चाहत मिट गई फुर्सत नहीं का बहाना है ।  
 
फूलों सी नमी शोलों में लानी है हमने पत्थर दिलों में , 
मिटानी हर नफरत और एहसास प्यार कर जगाना है ।  
 
ढूंढता फिरता हूं खुद ही अपने क़ातिल को मैं कब से   , 
मुझको कोई तो नाम बताओ किस किस को बुलाना है ।
 
 
कुछ यहां तो कुछ वहां निकले , 
नासमझ सारे ही इंसां निकले ।
 
मैंने दुश्मनी का सबब पूछा जब  , 
दोस्त खुद ही बड़े पशेमां निकले ।  

उस का इंतज़ार करते रहे वहीं रुक  , 
जहां से थे वो सभी कारवां निकले । 
 
 5 

कोई अपना होता गर तो कुछ गिला करते , 
ज़माना गैर है किसी से बात ही क्या करते । 
 
बेवफ़ाई शहर की आदत थी पुरानी बनी हुई , 
हमीं बताओ आख़िर कब तलक वफ़ा करते । 
 
ज़ख़्म नहीं भरें कभी यही तमन्ना अपनी थी , 
चारागर पास जाके  क्योंकर इल्तिज़ा करते ।  
 
 
इतना काफ़ी आज की बात को समझने को और नतीजा निकला जवाब समझ आया कि जिस को जो चाहिए पहले ये सोचना समझना होगा वो है कहां मिलेगी कैसे किस से तब अपनी उस को हासिल करने को कोई रास्ता बनाना होगा । चाहत बड़ी कीमती चीज़ होती है सब को इसकी समझ होती नहीं है जब मनचाही चीज़ मिले तो दुनिया की दौलत के तराज़ू पर नहीं रखते हैं दिल के पलड़े पर पता चलता है सब लुटा कर भी कोई दौलतमंद बनता है तो पैसे हीरे मोती सब किसी काम नहीं आये जितना इक शख़्स जीवन में मिल जाए तो किस्मत खुल जाती है । तय कर लिया है जहां प्यार वफ़ा ईमानदारी और विश्वास नहीं हो उस तरफ भूले से भी जाना नहीं है । मुझे अपनापन प्यार और हमदर्द लोग मिले जिनसे मिलने की उम्मीद ही नहीं की थी । उसी रेगिस्तान में पानी कुछ हरियाली को ढूंढता हूं मैं मुझे मालूम है चमकती हुई रेत को पानी समझना इक मृगतृष्णा है उस से बचना है और यकीन है जिस दुनिया की तलाश है वो काल्पनिक नहीं वास्तविक है और मिल जाएगी किसी न किसी दिन मुझे ।  
 
 


नवंबर 11, 2024

POST : 1917 शानदार आवरण में खोखलापन ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

      शानदार आवरण में खोखलापन ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

जो नज़र आता है वास्तविकता नहीं होता है , ठीक जैसे सुंदर लिबास और चेहरे के भीतर आदमी नहीं कोई शैतान रहता है । बगुला जैसे हैं हम लगते हैं बड़े साफ़ मन वाले मगर बस मौका मिलते ही अपनी असलियत पता चलती है झपटने को तैयार रहते हैं । धार्मिक बनकर कितना कुछ करते हैं पूजा अर्चना इबादत भजन कीर्तन धार्मिक स्थल पर जाना सर झुकाना ग्रंथों को पढ़ना सुनना हाथ में माला जपना भक्ति श्रद्धा करना दीपक जलाना फूल चढ़ाना नाचना झूमना आंसू बहाना । मगर हमेशा रहता है कहीं पर निगाहें कहीं पे निशाना । कौन कितना भला कितना बुरा नहीं कोई भी पहचाना , छोड़ा नहीं झूठ बोलना दुनिया को जैसा नहीं होकर दिखलाना । लोभ छोड़ा न नफरत छोड़ी अहंकार कितना कितनी दौलत कैसे जोड़ी चलन है निराला भीतर अंधेरा है बाहर उजाला । देशभक्त कहलाते हैं मगर हैं छलिया जिस शाख पर बैठते हैं उसे ही काटते रहते हैं चोर डाकू कुछ भी उनके सामने नहीं है ये समाज को बर्बाद करते हैं भटकाते हैं कुर्सियों पर बैठ दरबारी राग गाकर क़ातिल होकर मसीहा कहलाते हैं । पढ़ लिखकर बड़े सभ्य लगते हैं लेकिन वास्तव में मतलबी और कपटी हैं जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करते जाते हैं । प्यार मुहब्बत की ख़त्म हुई कहानी है बच्चे नहीं भोले आजकल न कोई बुढ़िया रानी है बचपन सीख रहा है जंग और लड़ाई वाले खेल कितने अब नहीं हैं परियां नहीं हैं खूबसूरत से सपने । 
 
समझदार बनकर क्या हमने है पाया नींद खोई है अमन चैन गंवाया भाई नहीं लगता कोई हमसाया सबको दुश्मन अपना बनाया । सोशल मीडिया ने जाल इक ऐसा बिछाया जिस ने सभी को सही रास्ते से भटका कोई खतरनाक रास्ता दिखला पागल है बनाया । टीवी सीरियल चाहे फ़िल्मी कहानी सभी को है बस दौलत बहुत कमानी करते हैं कितनी नादानी इस युग में काल्पनिक भूतों की डरावनी कहानी लगती है सबको कितनी सुहानी जो है मृगतृष्णा रेगिस्तानी लगता है प्यासे को पानी । भूलभुलैया में डूबी है नैया कहीं भी नहीं कोई ऐसा खिवैया जो बचाये भईया , समझ लेते हैं जिसको सैंयां उसी ने करानी है ता ता थैया । दुनिया में मिलता नहीं इंसान ढूंढने से शैतान लगता है भगवान देखने से आज किसी की कल किसी की है बारी हैवानियत हुई इंसानियत पर भारी । राजा थे हम बन गए हैं भिखारी विनाश की करते रहते हैं तैयारी दिल करता है कहीं किसी दिन चुपचाप भाग जाएं कोई अपनी खुद की दुनियां बनाएं जिस में कोई छल कपट झूठ नहीं हो जैसा हो किरदार नज़र वही आएं । लेकिन मुश्किल है इस शानदार आवरण को उतरना भीतर का खोखलापन बाहर निकालना , सब सुनाते हैं अपनी आधी कहानी सच्चाई नहीं लिखता कोई सुनाता कोई अपनी ज़ुबानी । जिस दिन मनाते हैं हम दीवाली होती है अमावस की रात कितनी काली , खड़ा है उस दर पर कौन बनकर इक सवाली भरी झोली किसकी रही सबकी खाली । ज़माने को क्या दिखला रहे हैं हम जो नहीं हैं बनने की कोशिश में अपनी असलियत को झुठला रहे हैं । जाने किस बात का जश्न मना रहे हैं हर दिन और भी नीचे धसते धरातल की तरफ जा रहे हैं । 
 
 
 Message Of Diwali Is To Remove Darkness Of Ego Clarity And Enlightenment  Related To Human Existence - Amar Ujala Hindi News Live - दिवाली पर अहंकार  मिटाने वाली रोशनी:प्रकाश आपके भीतर... मानव

नवंबर 09, 2024

POST : 1916 अजीब दास्तां है ये ( अंधेर नगरी चौपट राजा ) डॉ लोक सेतिया

अजीब दास्तां है ये ( अंधेर नगरी चौपट राजा ) डॉ लोक सेतिया

दो घटनाएं अलग अलग होते हुए भी टेलीविज़न पर एक ही दिन चर्चा में आने से एक दूजे से जुडी हुई लगती हैं । सुबह इक राज्य में मुख्यमंत्री के आगमन पर पांच तारा होटल से मंगवाया नाश्ता उनकी जगह उन के ही स्टाफ को खिलाया गया जिसकी जांच विभाग ने घोषित की है हालाँकि जब इसका उपहास होने लगा तब सरकार ने खुद को उस से अलग रखने की कोशिश की । शाम को इक टीवी शो में इक बड़े अधिकारी को आमंत्रित किया गया था जिनके जीवन पर लिखी पुस्तक पर इक सफल फ़िल्म बन चुकी है । विडंबना की बात ये है कि कितनी मुश्किलों को पार कर अधिकारी बनने वाले जब वास्तविक कार्य की जगह सत्ताधारी नेताओं की आवभगत और उनके लिए तमाम प्रबंध करने में अपना वास्तविक कर्तव्य भूल जाते हैं तब लगता है की जैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर राजा और गुलाम के किरदार दिखाई देने लगे हैं । क्यों जब कोई भी नेता किसी सरकारी कार्य पर किसी विभाग में आता जाता है तब तमाम सरकारी अमला उसकी सुविधा और जीहज़ूरी में लगे रहते हैं जबकि वो कोई महमान बनकर नहीं सरकारी काम से आये होते हैं । शायद असली कार्य भूल जाता है और अधिकांश ऐसी बैठकें औपचारिकता मात्र होती हैं , असली कामकाज तो कंप्यूटर फोन से ऑनलाइन अथवा वीडियो कॉन्फ्रेंस से होते रहते हैं या हो सकते हैं । हक़ीक़त तो ये है कि अधिकांश सरकारी अधिकारी कर्मचारी राजनेता सामन्य जनता का कोई भी कार्य करने को तैयार नहीं होते सिर्फ खास वर्ग या सिफ़ारिश रिश्वत वाले काम तुरंत किये जाते हैं । कोई भी कारोबारी जब किसी कार्य से कहीं जाता है तब खुद अपना सभी प्रबंध करता है खाने रहने का । कोई भी नेता या अधिकारी जब सरकारी कार्य करने जाते हैं तो क्या उनके पास आने जाने खाने पीने को धन नहीं होता है जो बाद में विभाग से वसूल किया जा सके व्यक्तिगत ढंग से बिना सरकारी तंत्र को बर्बाद किए । सिर्फ इस कार्य के लिए तमाम सरकारी विभाग के लोगों को लगाना जनता के लिए कितनी परेशानियां पैदा करते हैं । क्योंकि बड़े से बड़े पद पर आसीन लोग इस अनावश्यक अनुचित परंपरा के आदी हो चुके हैं इसलिए उनको उचित अनुचित की समझ नहीं आती है । 
 
ये सवाल कोई केवल पैसों का नहीं है बल्कि वास्तविकता तो यही है कि सांसद विधायक मंत्री मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री तक सभी प्रतिदिन अधिकांश सरकारी अमले ससाधनों को अपने लिए आरक्षित रखते हैं जिस से सामान्य नागरिक के साधारण कार्य भी होते ही नहीं आसानी से । आज़ादी के 77 साल बाद सामन्य लोगों की बुनियादी समस्याएं हल नहीं होने का प्रमुख कारण यही है । सत्ता के मद में उनको अपना जनसेवा करने का फ़र्ज़ याद ही नहीं रहता बल्कि खुद को शासक समझ कर व्यवस्था का दुरूपयोग करते हैं क्योंकि सभी इक जैसे हैं इसलिए कौन किस को क्या समझाए ।  विवेकशीलता का नितांत आभाव है और अहंकार तथा मनमानी करना किसी को अपराध क्या अनुचित नहीं प्रतीत होता है । देश में हर जगह यही हालत है जैसे अंधेर नगरी चौपट राजा की कहानियां सुनते थे सामने दिखाई देती हैं । नैतिकता की बात कोई नहीं करता और सादगीपूर्ण जीवन किसी को स्वीकार नहीं है सभी को शाहंशाह जैसा जीवन चाहिए भले उसकी कीमत साधारण जनता को जीवन भर चुकानी पड़ रही है समानता का सपना कभी सच नहीं होगा इस ढंग से । 
 
अगर कभी कोई इनसे हिसाब मांगता और जांच परख की जाती तब मालूम होता इतने सालों में सरकारी लोगों की अनावश्यक यात्राओं आयोजनों पर नेताओं की व्यर्थ की प्रतिदिन की सभाओं आयोजनों पर उनके विज्ञापनों प्रचार प्रसार पर जितना धन बर्बाद किया गया है उस से करोड़ों लोगों की बुनियादी सुविधाओं शिक्षा स्वास्थ्य इत्यादि की व्यवस्था संभव थी ,अर्थात इन्होने ये सब नहीं होने दिया जो ज़रूरी था । ये सभी सिर्फ सफेद हाथी जैसे देश पर बोझ बन गए हैं जिसको समाज देश कल्याण कहना छल ही है ।  इसका अंत होना ही चाहिए अन्यथा देश कभी वास्तविक लोकतंत्र नहीं बन सकता है लूट तंत्र बन गया है या बनाया गया है ।
 
  Srinivas BV - अंधेर नगरी, चौपट राजा!

नवंबर 08, 2024

POST : 1915 केक और समोसों का ग़बन ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      केक और समोसों का ग़बन ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

ये विकट समस्या है ख़ास वीवीआईपी लोगों के लिए मंगवाए गए नाश्ते को उनके अधीन स्टॉफ को खिलाने को सरकार विरोधी कृत्य घोषित कर जांच करवाई जाएगी । देश की राजनीति आजकल ऐसी ही गंभीर परेशानियों से जूझ रही है । गोलगप्पों से मेल मुलाक़ात शुरू हुई थी जलेबी तक पहुंच गई कोई आपत्ति नहीं जताई क्योंकि सभी दलों में आम सहमति कायम थी । लेकिन लज़ीज़ समोसे और केक मुख्यमंत्री जी की जगह उनके अधीन स्टॉफ को खिलाना अक्षम्य अपराध है ज़रूरत हो तो इस पर सर्वोच्च न्यायालय को इक जांच आयोग गठित कर कठोर दंड देने और नियम कड़े करने चाहिएं । न्याय की देवी को सब दिखाई देता है जब से काली पट्टी खुली है । शायद ऐसे खबर से जिस हलवाई जिस बेकरी से समोसे और केक मंगवाए गए वो अपने दाम बढ़ा सकते हैं , आखिर ख़ास बन जाना बड़ी बात होती है । इधर जैसे ही शासक बदलते हैं उनका खाने खिलाने से रहन सहन तक सभी को लेकर बदलाव करने अनिवार्य हैं । राजनेता भले कुछ भी खाएं उनको छूट है पशुओं का चारा से कोयला क्या शराब से कवाब तक आसानी से हज़्म हो जाता है नेताओं की पाचनशक्ति कमाल की होती है । सीमेंट लोहा क्या ज़मीन पेड़ पौधे से मिट्टी रेत तक सब नेताओं की मोटी तोंद में समा जाता है । सरकारी कर्मचारी कब क्या कितना चुपचाप गटकते हैं इसकी कभी किसी को खबर नहीं होती है उनको हमेशा संभल संभल कर अपने पेट में तमाम चीज़ों को फ़ाइलों में आंकड़े भर कर भरना पड़ता है । मुख्यमंत्री जी ने अपने ख़ास मित्र विरोधी दल के नेता को जांच आयोग का अध्यक्ष बनाया है , समोसे और केक को लेकर दोनों एकमत हैं बहुत पसंद करते हैं जब भी मिलते हैं खाते खिलाते हैं । 
 
देश में कोई गरीबी भूख या अन्य समस्या नहीं है बस नेताओं की बढ़ती भूख सत्ता की हवस से जो भी दिखाई दे उसे अपने भीतर समाहित करने की व्याकुलता एकमात्र समस्या है जिसका कोई समाधान नहीं है । गर्म समोसे और स्वादिष्ट केक की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू , नेता जी को कोई देवदास की नायिका का डायलॉग बोलने का अभ्यास करवा रहा है । आपने कभी ऐसा अनुभव किया है किसी पार्टी में आपने कितना कुछ खाया हो लेकिन बाद में कोई आपको इक ऐसा व्यंजन लाजवाब था बताये जो आपको नहीं मिला हो तब बाक़ी सभी का स्वाद फीका लगता है । लेकिन उस से बढ़कर ये भी होता है कि कभी आपको इतनी अधिक भूख लगी हो और किसी होटल में जाने पर बताया जाये अब सिर्फ इक चीज़ ही उपलब्ध है जो शायद कभी आपको खाना पसंद भी कम हो मगर उस दिन वही इतनी स्वादिष्ट लगती है कि दोबारा उस जैसा स्वाद कभी मिलता नहीं आप तरसते हैं । राजनेताओं को कुछ खाने को नहीं मिले जो उनकी खातिर मंगवाया गया हो इस से अधिक अनुचित कुछ भी नहीं हो सकता है । लगता है जैसे कोई बचपन में स्कूल में सभी का टिफ्फ़न छीन कर खाता रहा हो पहली बार उसका टिफ्फ़न कोई और खा गया हो तब धैर्य से काम नहीं ले सकते हैं । ये ग़बन है कोई छोटी बात नहीं है इसलिए जांच का नतीजा कुछ भी हो नेता जी को चैन नहीं मिलेगा कभी ।  
 
विपक्षी दल को विषय की गंभीरता नहीं समझ आ रही है , सवाल कोई मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो जैसा मासूम नहीं है , कोई भी सरकारी खर्च जिस भी पर व्यय किया गया बताया जाये अगर जानकारी मिले कि उसको मिला ही नहीं तो मामला घोटाले का बनता है । समोसे और केक से तमाम लोगों की भावनाएं जुड़ी रहती हैं जैसे कॉलेज में कोई सहपाठी लड़की चाट पकोड़े किसी से खाये मगर फ़िल्म देखती किसी और साथ दिखाई दे जाये तो उसे दोस्त का रकीब बनना कहते हैं ।  कोई नहीं जानता किसी के दिल पर क्या बीतती है जब उसके हिस्से की मनपसंद चीज़ कोई और खा जाये हज़्म ही कर जाये । दार्शनिक लोग समझाते हैं कौन किसी के नाम का कुछ खाता है सब का नाम दाने दाने पर लिखा आता है । जांच आयोग भी आखिर निर्णय यही सुनाएगा सब को अपने नसीब का मिलेगा खोएगा क्या पाएगा ।
 
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