जुलाई 31, 2023

POST : 1700 बड़े क्या हुए बदनाम हो गए ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

       बड़े क्या हुए बदनाम हो गए ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

  नाम वाले सभी बदनाम हैं कमाल है बदनामी को शोहरत समझने लगे हैं आजकल सभी । सुना करते थे बदनाम हैं तो क्या हुआ नाम तो है पर कोई ऐसा चाहता नहीं था जैसा इधर चाहे नहीं चाहे होने लगा है और बदनामी से लोग घबराते नहीं हैं । दाग़ अच्छे हैं क्या अजीब विज्ञापन है दाग़ कपड़े पर हो या चालचलन पर किसे परवाह है । यहां आज अलग-अलग समाज की बात करते हैं कैसे बदनामी ख़ास होने की निशानी बन गई है । बुरा होना चाहते हैं इधर लोग बदनाम होकर वो सब मिलता है जो शराफ़त से ज़िंदगी भर नहीं मिलता । बुराई की आरती पूजा ईबादत होने लगी है ये दुनिया खुद अपनी लाश कंधों पे ढोने लगी है ।
 
सोशल मीडिया पर देश से राज्य के शहर गांव तक जिनकी छवि ख़राब है गुंडे बदमाश सफेद लिबास में समाज देश के नियम कायदे को ताक पर रखने वाले राजनीति करते भली भली बातें करते नज़र आते हैं । कोई लोक लाज नहीं हैं कैसे और बनते कैसे हैं साधु का भेस धारण किये शैतान इस युग की पहचान हैं लूट डाका घोटाला समाज में आतंक फैलाना उनको शान की बात लगता है । इनकी शान ओ शौकत खुद की कमाई की नहीं देश राज्य के ख़ज़ाने की बदौलत होती है । बाड़ बन कर खेत को खाने वाले राजनेता समाजसेवक सरकारी अधिकारी कर्मचारी जनता की भलाई देशसेवा और ईमानदारी से लेकर संविधान की झूठी शपथ उठाते हैं । पुलिस न्यायपालिका अन्यायी अत्याचारी गुनहगार गंभीर अपराध के दोषी की ढाल बन कर देश में अराजकता को जुर्म को बढ़ावा दे रही है । अख़बारों में उनका नाम तस्वीर छपती है लेकिन इश्तिहार की तरह झूठी सच्ची बात कभी नहीं छपती क्योंकि टीवी अखबार खबर नहीं ढूंढते खबरें उनके पास खुद आती हैं साथ पैसा दौलत और विशेषाधिकार भी लाकर । ईमान को बेच कर बड़ी उंचाईयों को छूने का दावा करने वाले वास्तव में इतना नीचे गिर चुके हैं कि रसातल तक पहुंच गए हैं । सत्ता और धन की ताकत ने आदमी को हैवान बना दिया है और हैवानियत को कोई भला चंगा नाम देने लगे हैं । 
 
अब बात करते हैं प्यार इश्क़ मुहब्बत की जो आजकल शायद ही कोई करता है लेकिन जिधर देखो इसी का चर्चा है । वो प्यार जो दिलों में पलता था गुलाबी ख़त से लेकर खूबसूरत नग्में गाते थे , हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू हाथ से छू के उसे रिश्तों का इल्ज़ाम न दो । सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो । अपने प्यार की तौहीन नहीं करते थे मिलन हो नहीं हो दिल में आख़िरी सांस तक रहते थे दर्द सहते थे कुछ नहीं कहते थे । आजकल खुले आम सोशल मीडिया पर प्यार का कारोबार होता है किसी एक से नहीं जाने किस किस को कितनों से कितनी बार ये जिस्मानी प्यार होता है । किसी को कभी नहीं किसी का ऐतबार होता है ये सिलसिला ख़त्म होता है नया शुरू होने को ये शराब का उतरता ख़ुमार होता है । सिनेमा टीवी सीरियल से रियल्टी शो तक प्यार को बदनाम करते रहते हैं अपनी गंदी मानसिकता शारीरिक आकर्षण की चाहत को आशिक़ी का नाम देकर कितना बुरा काम करते हैं । कुछ बड़े नाम वाले लोगों को लेकर झूठे सच्चे किस्से मनघड़ंत कहानियां ये मीडिया वाले बनाते हैं कौन किस से वफ़ा करता रहा कोई उनसे जाकर नहीं पूछता घटिया बातों को नासमझ नादान लोग प्रेम गाथाएं बतलाते हैं । इक दहशत है इक डर है ये प्यार नहीं है हर किसी के हाथ में गुलाब है हर किसी के दिल में पत्थर है । 
 
धर्म की बात क्या बताएं किस किस का सच झूठ आज़माएं हमने देखा है हर जगह जाकर कुछ नहीं मिला रास्ता ढूंढा किस तरह से बचें निकलें उनके चंगुल से ख़ैरियत से अपने घर आएं । सब लोग वहां जाते हैं पाने को जिस को मिलता उस का कोई निशान नहीं लेकिन ये पिंजरा नहीं कैदखाना नहीं इक जंगल है फ़ैली आग जिस में कोई भी ठहरने का मुकाम नहीं बाहर निकलना ज़िंदा आसान नहीं । है कितना कुछ बस कोई भी आदमी अच्छा इंसान नहीं । और किस किस की बात की जाए हर तरफ यही बदहाली है और इस बर्बादी को समझने लगे हैं यही आधुनिकता है चमकने वाली हर चीज़ सोना नहीं होता मालूम है मगर समाज इस झूठी चमक दमक इस जगमगाती चकाचौंध रौशनी का कायल हो गया है । झूठ का कोई देवता बनाकर उसकी आराधना करने लगे हैं अमृत समझ ज़हर पी खुद अपने हाथों मरने लगे हैं लोग । बाहर उजाला ही उजाला है मगर सभी के भीतर मन में कोई घना अंधकार छाया हुआ है । सुबह होने की उम्मीद तक छोड़ बैठे हैं यही है नसीब समझ बैठे हैं ।

ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया ' तनहा '


जिन के ज़हनों में अंधेरा है बहुत
दूर उन्हें लगता सवेरा है बहुत ।

एक बंजारा है वो , उसके लिये
मिल गया जो भी बसेरा है बहुत ।

उसका कहने को भी कुछ होता नहीं
वो जो कहता है कि मेरा है बहुत ।

जो बना फिरता मुहाफ़िज़ कौम का
जानते सब हैं , लुटेरा है बहुत ।

राज़ "तनहा" जानते हैं लोग सब
नाम क्यों बदनाम तेरा है बहुत ।
 

 
 
 

जुलाई 30, 2023

निकले थे कहां जाने को पहुंचे कहां ( भटकाव ) डॉ लोक सेतिया

     विवेकशील इंसान नहीं बने ( भटकाव ) डॉ लोक सेतिया  

                      (  निकले थे कहां जाने को पहुंचे कहां  )

आपकी नहीं ज़माने की नहीं ख़ुद अपनी बात करता हूं कभी कभी ख़ुद को लेकर ख़ुद से सवाल करता हूं । ज़िंदगी ठोकरें खाती रही बिना सोचे समझे चलता रहा मुझे जिस मंज़िल की चाहत थी ये रास्ता उस तरफ जाता ही नहीं था शायद विवेक से काम लेता सोचता समझता कि मैं कौन हूं क्या हूं क्या चाहता हूं । ज़िंदगी का कोई मकसद होता तब उस मंज़िल की खोज में जीवन व्यतीत भी होता तो तसल्ली होती कि पता था किधर जाना है । पहुंचना ज़रूरी नहीं है शायद पहुंचता कोई नहीं लेकिन जो चलते हैं तय कर के कि उनको क्या करना है उनकी कोशिश असर लाती अवश्य है । समाज के कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर चिंतन करते हैं क्या होना चाहिए क्या है जो नहीं होता तो अच्छा होता । धन दौलत नाम शोहरत ताकत और ज़माने भर की दिखावे की खुशियां हासिल कर भी अपने भीतर का इक ख़ालीपन कुछ अधूरापन कोई कमी महसूस होती है जो बेचैन करती है । ऐसा लगता है तो हम भटकते रहे हैं हीरे मोती नहीं कंकर पत्थर जमा करते रहे हैं । ये दुनिया जैसी हमको मिली थी हमने उसको सजाया संवारा और शानदार बनाया है या फिर हमने सिर्फ खुद अपने मतलब अपनी ख़्वाहिशों अपनी ज़रूरत अपनी अधिक सब पाने की हवस को पूरा करने की खातिर बर्बाद किया है । थोड़ा विचार करते हैं समझते हैं किसी के समझाने से नहीं अपने ख़ुद के विवेक से जानते हैं वही मन आत्मा सबसे बड़ा गुरु है । 
 
कल इक धर्म उपदेशक की बात सुनी बड़ी अच्छी लग रही थी मगर विवेक से समझा तो वास्तविकता बिल्कुल विपरीत थी जो धर्म अंधविश्वास पर कटाक्ष करता है उसी की बात करने वाले ख़ुद मनघडंत कथाओं से सुनने वालों को सच छोड़ गुमराह कर रहे हैं । जिनको अपने धर्म की सबसे ज़रूरी बात को ध्यान रखना ज़रूरी नहीं लगता और अपनी बात का प्रभाव जमाने को अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं वो धर्म की नहीं किसी और राह की बात कर रहे हैं । आपको सैर करना घूमना अच्छा लगता है रमणीक स्थल आलीशान महल ऊंचे पर्वत सागर घाटियां देखते हैं अपनी फोटो करवाते हैं और खूब पैसा समय खर्च कर आनंद का अनुभव कर लौट आते हैं । बस कुछ यादें रहती हैं कि हमने देखा था वो खूबसूरत जहां का दृश्य दिलकश नज़ारा लेकिन वो हमारा था नहीं होता भी नहीं बस किसी मृगतृष्णा की तरफ़ दौड़ते रहते हैं । कभी सोचा तक नहीं कि जिस घर जिस गांव जिस शहर जिस बस्ती में रहते हैं उसे ही अपनी कोशिश से अच्छा बनाने का प्रयास करते तो अधिक ख़ुशी मिलती जो वास्तविक होती हमेशा साथ रहती सिर्फ यादों में तस्वीरों में नहीं । अपनी कल्पनाओं को साकार करना बड़ी लगन का काम होता है लेकिन कठिन होता है हम कठिनाईयों से भागते हैं ।  
 
हमारे पथपदर्शक बने नायक धर्म उपदेशक शासक राजनेता प्रशासक धर्म उपदेशक कहते भले कुछ भी रहते हों लेकिन उन्होंने कभी दुनिया देश समाज को वास्तव में पहले से अच्छा बनाने को कुछ नहीं किया है बल्कि ये लोग इंसान नहीं बन पाये और भगवान बनने कहलाने होने का कार्य करते रहे । जिनको देश की जनता की भलाई करनी चाहिए जिस के लिए उनको कितना कुछ मिलता है उन्होंने अपना कर्तव्य निभाया होता तो आज समाज की हालत इतनी खराब नहीं होती । जिस देश समाज में अन्याय अत्याचार ज़ुल्म ढाने वाले शान से रहते हैं और आम नागरिक अपने अधिकारों न्याय की याचना करते करते ज़िंदा रहते मरता रहता है वो देश समाज कोई आदर्श नहीं हो सकता है । चिंता की नहीं शर्म की बात है कि जिनको शिक्षा स्वास्थ्य सुरक्षा और सुरक्षित रहने का वातावरण बनाना था उन्होंने उल्टा किया है और भय और अराजकता का आलम बना दिया है उस पर उनको अपने अपराधों अपने गुनाहों पर कोई अफ़सोस भी नहीं बल्कि अपना गुणगान करवाते हैं खुद को मसीहा साबित करते हैं । हमारा दोष है कि हम ऐसे लोगों को अपना आदर्श समझने लगे हैं उनके अनुचित कार्यों को अनदेखा कर उनकी जयजयकार करते हैं । आख़िर में शाईर साहिर लुधियानवी जी की इक रचना से कुछ शेर पेश करता हूं ।

संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है  ,     

इक धुंध से आना है इक धुंध में जाना है ।

ये राह कहां से है ये राह कहां तक है  ,             

ये राज़ कोई राही समझा है न जाना है । 

इक पल की पलक पर है ठहरी हुई ये दुनिया , 

इक पल के झपकने तक हर खेल सुहाना है । 

क्या जाने कोई किस पर किस मोड़ पर क्या बीते ,    

इस राह में ऐ राही हर मोड़ बहाना है । 

हम लोग खिलौना हैं इक ऐसे खिलाड़ी का ,   

जिस को अभी सदियों तक ये खेल रचाना है । 

इंसान समझता है वो इल्म का सागर है ,    

उस ने अभी दुनिया  के इक कतरे को जाना है । 





 

जुलाई 29, 2023

बर्तनों की तकरार ( सत्ता की रसोई ) डॉ लोक सेतिया

         बर्तनों की तकरार ( सत्ता की रसोई ) डॉ लोक सेतिया 

राजनीति का खुला बाज़ार है असलियत छुपी हुई है झूठी नकली तकरार है हर बंदा हर साज़ो सामान है बना हुआ किसी का चाटुकार है ये सबसे बड़ा राजनीति का इक हथियार है । बैरभाव है सबके मन में नहीं किसी को कोई प्यार है लेन देन की बात है भाई कौन किसी का करता ऐतबार है । सरकारी दफ़्तर इक रसोई है खाना स्वादिष्ट तैयार है कुछ बर्तन आपस में टकराये हैं ये राजनीति के घुंघरू हैं कि पायल की झनकार है । पतीला कड़ाही का झगड़ा है कड़छी चिमटा कटोरी थाली बर्तन पर बहस हो रही मैं मैं - तू तू कौन छोटा कौन बड़ा सरकार है असली बात कुछ और है जिसकी जूतम पैजार है । सब का खेल तमाशा है क्या जीत क्या हार है इक थाली के बैंगन हैं सबको टमाटर दरकार है । पतीले का आरोप है कड़ाही किसलिए मेरे बराबर है मुझे नीचे दिखलाती है ये बावर्ची की साज़िश है बस तभी इतराती है । ख़ामोश कड़ाही सोच रही है पतीले की ये कैसी मानसिकता है ये नारी को छोटा समझता है अहंकारी है साथ साथ नहीं रहना चाहता झूठे बहाने बनाता है शैल्फ़ पर दूरी रखता है । ये सब कुर्सी का किस्सा है बिल्लियां चूहों को तरस रही बंदर के हाथ तराज़ू है उसका इंसाफ़ वही पक्का है बराबर करने को इक इक कर सब कुछ खाता जाता है जो कोई उसकी तरफ देखे बंदर गुर्राकर डराता है । बावर्ची इक तमाशाई है सच बोलूं तो हरजाई है आधा कच्चा आधा पक्का कुछ कड़वा कुछ ज़्यादा नमक डाल सब का करता कबाड़ा है ये दस्तरख़ान बन गया कबड्डी का अखाड़ा है । चम्मच कटोरी गिलास सब में कायम भाईचारा है थाली और चिमटा झगड़ पड़े जो भी जीता सब हारा है । मनमुटाव सिर्फ़ इक बहाना है सबको हलवा खुद खाना है ये सबसे बड़ा कमाल है कचहरी है इक थाना है हलवा अभी बनाया नहीं उसका बजट पारित करवाना है । जिस में सभी ख़लनायक हैं सबको सबसे बचाना है जब सैंया जी कोतवाल हैं फिर काहे घबराना है ये चोर सिपाही का खेल नहीं ये कुछ अलग अफ़साना है । सब को गरूर है यही सभी अंधे और वो काना है अंधों में काना राजा का इतिहास वही दोहराना है चोरों की बस्ती में चुनाव लड़ना जीतना हरवाना है । किसी को कुछ भी करना नहीं जनता को उल्लू बनाना है टके सेर भाजी टके सेर खाजा अंधेर नगरी चौपट राजा किस्सा बड़ा पुराना है सबका अपना याराना है घर को मैदान बनाना है ईंट से ईंट बजाना है । 
 
खोटा खरा कोई नहीं सब के सब ताश के पत्ते हैं जोकर जिस की जेब में है ऊपर तक जिस के रिश्ते हैं ये बाज़ी उसी की चाल है देश सेवा की टकसाल है जूतों में बंटती दाल है सियासत का ऐसा हाल है । इक सूखे की बाढ़ आई है चुप रहना राम दुहाई है जनता क्या है बस बकरा है हर शासक बना कसाई है । ये सब शतरंज के मोहरे हैं कागज़ी तलवारों से लड़ी जाती नित नई नई लड़ाई है । चलो बात को समझते समझाते हैं इक पुरानी कविता दोहराते हैं ।

सवाल है ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

जूतों में बंटती दाल है
अब तो ऐसा हाल है
मर गए लोग भूख से
सड़ा गोदामों में माल है ।

बारिश के बस आंकड़े
सूखा हर इक ताल है
लोकतंत्र की बन रही
नित नई मिसाल है ।

भाषणों से पेट भरते
उम्मीद की बुझी मशाल है
मंत्री के जो मन भाए
वो बकरा हलाल है ।

कालिख उनके चेहरे की
कहलाती गुलाल है
जनता की धोती छोटी है
बड़ा सरकारी रुमाल है ।

झूठ सिंहासन पर बैठा
सच खड़ा फटेहाल है
जो न हल होगा कभी
गरीबी ऐसा सवाल है ।

घोटालों का देश है
मत कहो कंगाल है
सब जहां बेदर्द हैं
बस वही अस्पताल है ।

कल जहां था पर्वत
आज इक पाताल है
देश में हर कबाड़ी
हो चुका मालामाल है ।

बबूल बो कर खाते आम
हो  रहा कमाल है
शीशे के घर वाला
रहा पत्थर उछाल है ।

चोर काम कर रहे
पुलिस की हड़ताल है
हास्य व्यंग्य हो गया
दर्द से बेहाल है ।

जीने का तो कभी
मरने का सवाल है । 

ढूंढता जवाब अपने
खो गया सवाल है । 
 

 

जुलाई 23, 2023

राजा का हमशक़्ल भिखारी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  राजा का हमशक़्ल भिखारी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

ज़िंदगी मज़े से गुज़र रही थी जब जिधर चाहा चल देता भिक्षा मांगकर अच्छा गुज़र बसर होता थी । कोई घर परिवार की चिंता न कोई फ़िक्र कल क्या होगा । अचानक इक दिन किसी सरकारी दफ़्तर के भीतर चला गया छुट्टी का दिन था कोई भी नहीं था बस इक चपरासी था हुक़्क़ा पीता रहता चौबीस घंटे कोई नशा किया करता था । भिखारी उस के पास चला आया तो चपरासी ने पूछा कश लगाना है तो पहली बार इक अजीब सा नशा सवार हो गया । नशे में दोनों दोस्त बन क्या क्या बातें करते रहे और अंधेरा होते ही चपरासी ने पूछा कोई घरबार है तुमको कहां जाना है भिखारी ने बताया कोई नहीं सबको छोड़ दिया है अब वापस लौटना भी नहीं और कोई उसका लौटने का इंतज़ार भी नहीं करता है । दफ़्तर में ही चारपाई पर दोनों भाई नींद में कितने सुनहरे ख़्वाब देखते रहे । दिन हुआ तो चपरासी ने हैरानी से बताया कि तुम्हारी शक़्ल तो बिल्कुल राजा की जैसी है । दफ़्तर की फाइल में उसे राजा की तस्वीर दिखलाई और हंसते हुए बोला कहीं तुम राजा के जुड़वां भाई तो नहीं और इक फ़िल्मी कहानी सुनाई जिस में जन्म लेते बिछुड़ गए थे दो जुड़वां भाई । 
 
भिखारी ने चपरासी से मिलकर राजा के महल जाने की ख़्वाहिश जताई चपरासी ने कहा चल मेरे भाई महल की दासी है मेरी मौसी और दरबान है अपने गांव का जंवाई । पर तुझे देख कर कोई परेशानी नहीं हो इसलिए तुमको बनना पड़ेगा मेरी लुगाई घूंघट में मुखड़ा छुपा कर रखना राजमहल में दरोगा है बड़ा हरजाई । बस इस तरह से फ़िल्मी ढंग से भिखारी राजा के महल से कुछ दिन में उसके शयनकक्ष तक पहुंच गया और देख राजसी शानो शौकत नीयत में ख़राबी आई और चार लोगों ने मिलकर राजा को चुपके से किसी खण्हर में बंद कर भिखारी को राजा की जगह शासन पर बिठाया । खेल ऐसा था कोई कुछ नहीं समझ पाया यारों ने मिलकर सब खज़ाना मौज मस्ती में उड़ाया भिखारी राजा बन कर भी रहता हमेशा घबराया बस यही चिंता उसको भीतर से जाती खाई क्या होगा जब आखिर में मिलेंगे दोनों जुड़वां भाई । इक दिन भिखारी बना राजा चला गया खंडहर मिलने असली राजा से उस से पूछा क्या हाल चाल है तो जवाब मिला काश मुझे उस महल से पहले मिल जाती रिहाई यहां आकर चैन मिला नींद आई और बचपन से बिछुड़ी इक राजकुमारी भी मुझसे मिलने आती है दुनिया की खुशियों से बढ़कर होती है मुहब्बत मेरे भाई । 
 
भिखारी का दिल भी मचला खूबसूरत दिलरुबा का दीदार करने को उस ने असली राजा से कहा आज इक दिन तुझे यहां से आज़ाद करता हूं तुम महल चले जाओ मैं इक दिन यहीं ठहरता हूं । वादा करता हूं तेरे प्यार की लाज रखूंगा उसको भाभी समझ मिलकर कल तुम्हारा मिलन करवा सौंप दूंगा । असली राजा की हथकड़ी खोल भिखारी ने खुद को कैदी बनाया ये राजनीति का सबक उसको नहीं समझ आया । महल पहुंच ख़ामोशी से असली राजा ने चारों लुटेरों को पकड़ कर जेल भिजवाया और भिखारी को कुछ दिन वहीं खंडहर में रख कर मज़ा चखाया । कुछ दिन बाद उसको दरबार में बुलवाया और आदेश दिया जाओ कोई सज़ा नहीं आखिर तुमने हमशक़्ल होने का फ़ायदा ही उठाया लेकिन असली गुनहगार मेरे अपने लोग थे जिन्होंने इक जाल बिछाया तुम ने उनकी असलियत मुझे बताई । हम नहीं हैं फ़िल्मी जुड़वां भाई फिर भी ऊपर वाले ने इक जैसी शक़्ल अपनी बनाई ये उसकी मर्ज़ी है कोई राजा कोई भिखारी है मगर ये सफ़र ज़िंदगी का रहता जारी है । हमने फरमान किया जारी इक सरकारी है हर भिखारी को सरकारी अनुदान मिलेगा कुछ दिन हर कोई राजमहल का महमान रहेगा । सरकारी चपरासी के हुक़्क़े का नशा अभी तलक हावी है भिखारी को इंतज़ार है आने वाली इक राजकुमारी की शाही सवारी है । 
 

 

जुलाई 22, 2023

महान नहीं अच्छा तो बनाएं ( देश-समाज ) डॉ लोक सेतिया

    महान नहीं अच्छा तो बनाएं ( देश-समाज ) डॉ लोक सेतिया  

ख़ुद भी अपना गुणगान करते हैं और चाहते हैं दुनिया भी हमारे देश को महान समझे चाहे उस के लिए हमको अपनी वास्तविकता पर कितने झूठ के पर्दे डालने पड़ें , बल्कि जितना धन और साधन जो हम कदापि नहीं वही दिखलाने को करते हैं उसी का उपयोग बेहतर देश बनाने में किया जाता तो मुमकिन था महान नहीं पर देखने के काबिल अच्छा अवश्य बना सकते थे । हमारे लिए महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए दुनिया में शान का दिखावा प्रदर्शन अथवा अपने देश समाज की अनगिनत समस्याओं का समाधान स्थाई रूप से ढूंढना । क्या अजीब विडंबना है कि हमारी सरकार देश राज्य की और प्रशासन कभी पहले से सचेत नहीं रहता कि कोई समस्या पैदा होने की संभावना ही नहीं होने देने पर पहले से ध्यान रखे , इंतज़ार करते हैं दुर्घटनाओं अन्य परेशानियों के सामने आने के बाद समझने की उनसे निपटने का उपाय खोजने का तरीका समझने का । विज्ञान इंटरनेट आधुनिक सॉफ्टवेयर एप्प्स हमारी परेशानी कभी नहीं समझ सकते जिनको हमने इतना अधिक महत्व देना शुरू कर दिया है कि खुद कुछ भी करने क्या सोचने समझने को तैयार नहीं हैं । कड़वा सच यही है कि सत्ता काबिल लोगों के हाथ में नहीं बल्कि ऐसे राजनेताओं के हाथों में है जिनको समझ ही नहीं देश की समस्याओं को हल करने को सही योजनाएं बनाने की क्योंकि जिस क्षेत्र संबधी समस्या हो उसे लेकर नेताओं की जानकारी लगभग शून्य होती है और उनके सलाहकार योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि अन्य कारणों से नियुक्त होते हैं । सबसे खेदजनक बात है कि कार्यपालिका अधिकारी कर्मचारी सुरक्षाकर्मी से संवैधानिक संस्थाओं पर कार्यरत लोग सत्ता पर आसीन नेताओं की कठपुतलियां बन गए हैं और उनके अनुचित कार्यों गलत नीतियों पर खामोश रहते हैं । देश की समस्याएं जनता का अभिशाप होती हैं लेकिन सरकार प्रशासन के लिए वरदान जैसा क्योंकि सूखा बाढ़ या दुर्घटना भी कुछ लोगों के लिए घर भरने का अवसर होती हैं उनको लाशों का कारोबार करते भी संकोच नहीं होता है । अपराध समस्याएं उनके लिए शोक का नहीं जश्न मनाने का अवसर होती हैं मगरमच्छ के आंसू पर मत जाना । 

बड़े लोग ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया

बड़े लोग बड़े छोटे होते हैं
कहते हैं कुछ
समझ आता है और

आ मत जाना
इनकी बातों में
मतलब इनके बड़े खोटे होते हैं ।

इन्हें पहचान लो
ठीक से आज
कल तुम्हें ये
नहीं पहचानेंगे

किधर जाएं ये
खबर क्या है
बिन पैंदे के ये लोटे होते हैं ।

दुश्मनी से
बुरी दोस्ती इनकी
आ गए हैं
तो खुदा खैर करे

ये वो हैं जो
क़त्ल करने के बाद
कब्र पे आ के रोते होते हैं । 
 
  75 साल बाद साफ पीने का पानी तक उपलब्ध नहीं सभी नागरिकों को दो वक़्त रोटी शिक्षा स्वास्थ्य सेवाओं और रोज़गार की हालत की बात क्या करें । खुद शान ओ शौकत से रहने वाले शासक प्रशासक जनता को बुनियादी अधिकार नहीं देना चाहते और उस को ख़ैरात बांटने की बात करते हैं जो वास्तव में गर्व की बात नहीं है कि इतनी बड़ी आबादी को मुफ़्त अनाज या ऐसी ही सरकारी अनुकंपा पर बेबसी भरा जीवन बसर करना पड़े । आज भी पुलिस से लेकर राजनेता तक सभी सामन्य नागरिक को सुरक्षा प्रदान नहीं करते बल्कि अपराधियों को संरक्षण देने का कार्य करते दिखाई देते हैं इतना ही नहीं अन्याय अत्याचार करने वालों का समर्थन करते नज़र आते हैं धनबल और बाहुबल के सामने नतमस्तक होकर । जिनको चुनाव में बहुमत पाने को अपराधियों और काली कमाई करने वालों की आवश्यकता होती है उनसे ईमानदारी से देश की जनता की सेवा की उम्मीद करना व्यर्थ ही है । अब तो लगता ही नहीं कि सांसदों विधायकों से आईएएस आईपीएस अधिकारी बड़े पदों पर बैठे प्रशासकों को जनता की परेशानी दुःख दर्द उनकी बदहाली से कोई भी सरोकार वास्तव में है । सच तो यही है कि देश की तीन चौथाई जनता के पास कुछ भी नहीं और एक चौथाई रईस धनवान साधन सम्पन्न वर्ग के पास ज़रूरत से बहुत ज़्यादा है फिर भी उनको और अधिक और भी अधिक की भूख है लालसा है जो ख़त्म नहीं होती बढ़ती जा रही है । सुदामा पांडेय धूमिल जी ने इक कविता में कहा है एक आदमी रोटी बेलता है एक आदमी रोटी खाता है एक तीसरा है जो रोटी बेलता नहीं रोटी खाता भी नहीं रोटी से खेलता है वो तीसरा कौन है इस पर देश की संसद मौन है ।  
 
ये एक तिहाई से एक चौथाई लोग हैं देश की आबादी के जो रोटी से खेलते हैं । समाजसेवा धर्म सिनेमा टीवी चैनल से सोशल मीडिया तक पत्रकारिता से लेखन कार्य को इक निजी स्वार्थ का नाम शोहरत पाने का माध्यम समझ समाज को सच दिखाना छोड़ झूठ को सच साबित कर मालामाल होने को मकसद बना चुके हैं । हम हैरान होते हैं अपराध और असामाजिक तत्वों की बढ़ती गतिविधियों को देख कर जबकि सत्ताधीश और प्रशासन कोशिश करता है किसी तरह ऐसी तमाम घटनाओं को छिपाने या दबाने की क्योंकि उनका अक्सर गठजोड़ रहता है तमाम अवैध धंधों नशे का कारोबार से गुंडागर्दी तक से अपना आतंक कायम रखने को ।   हमारे धार्मिक ग्रंथों में अन्न को भगवान मानते हैं खाने को बर्बाद करना पाप अधर्म समझा जाता है लेकिन कभी शायद सोचा ही नहीं होगा कि देश के राष्ट्रपति भवन से लेकर कितने ही सरकारी आवास निवास स्थलों पर हर दिन कितना खाना बर्बाद किया जाता है जो चाहे किसी भी व्यक्ति या पद की खातिर हो देश की भूखी जनता के ख़िलाफ़ भद्दा मज़ाक ही है कभी पता लगाना कौन कितने लाख का खाना एक दिन का खाता है कोई मानव कभी नहीं खा सकता है ।   
 
 
 

 

जुलाई 19, 2023

जनता का गठबंधन कब होगा ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया

   जनता का गठबंधन कब होगा ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया  

  सबका अपना अपना सांझा मंच होता है नौकरी कारोबार शिक्षक डॉक्टर्स से सामाजिक धार्मिक कितने ही संगठन हैं । ज़रूरत मुसीबत के समय इनका आपसी तालमेल भी होता रहता है अधिकांश जनसमस्याओं को लेकर आपसी मतभेद को एक तरफ छोड़ मतलब की दोस्ती भाईचारा निभाना पड़ता है , अभी उनके इस आचरण को एक तरफ रख कर देश की सत्ता की राजनीति की चर्चा करते हैं । चुनाव से पहले का हिसाब अलग होता है और चुनाव बाद सरकार बनाने का बिल्कुल अलग । भले किसी दल को कितना बड़ा बहुमत हासिल हो सरकार का गठन शुद्ध लेन देन का घाटे मुनाफ़े का गणित लगा कर किया जाता है । कमाल की बात यही है सत्ता मिलने के बाद सत्ता सुःख और भविष्य में सत्ता विस्तार पर ध्यान रखते हैं देश जनता और बाक़ी सभी लोकलुभावन बातों को किसी कूड़ेदान में फैंक देते हैं या किसी तहखाने में रखते हैं ताकि जब कभी सीधे ढंग से बात नहीं बने उंगली टेढ़ी कर घी निकाला जा सके । ये आसान तो नहीं होगा फिर भी कभी कोई इस को लेकर शोध करना चाहे कि देश राज्यों की राजनीति की विचारधारा को लेकर कब कौन कितनी बार इधर से उधर उधर से किसी और तरफ पाला बदलते रहे तो दुश्वारी यही होगी कि सभी मौसेरे भाई कभी सगे कभी सौतेले रहे हैं । ये आपसी परिवारिक झगड़ा है कोई दुश्मनी हर्गिज़ नहीं बस बंटवारा बराबर होना संभव ही नहीं है किसी भी बंदर को बिल्लियों का भरोसा नहीं बचा है बंदरबांट का खेल जारी है हर सरकार कन्या कुंवारी है दूल्हों की तैयारी है आती नहीं जनता की बारी है ये कैसी लाचारी है । 
 
  पूरा किस दिन इक ख़्वाब होगा देश में सच्चा इन्क़लाब होगा हर लुटेरा बेनकाब होगा सभी गुनहगारों के गुनाहों का हिसाब होगा । देश की जनता एक साथ मिलकर नेताओं अधिकारियों झूठ के कारोबारियों को हर मंच पर हराएगी गुलामी की जंज़ीरों को तोड़ असली आज़ादी का जश्न मनाएगी । कोई बड़ा न कोई छोटा होगा कोई ख़ास नहीं कोई शासक नहीं ज़ुल्म का नाम निशान मिट जाएगा सर उठाकर जिएंगे हम कोई किसी के सामने नहीं अपना सर झुकाएगा ।  जनता शासकों से टकराएगी जब सच्चाई झूठ से नहीं घबराएगी राजनीति की पाठशाला गुलामी को छोड़ आज़ादी का मतलब समझाने को मिट्टी से तिलक लगाएगी ये सड़ी गली व्यवस्था उठा कर फैंक दी जाएगी । तानाशाही जड़ से मिट जाएगी तलवार ज़ालिम की हाथों से गिर जाएगी साहिर की ख्वाबों की वो सुबह जिस दिन आएगी जेलों के बिना दुनिया की सरकार चलाई जाएगी । देश की भोली जनता समझेगी मालिक खुद को सर पर जो नाच रहे उनको पांवों तले धरती पर ढायेगी जिनको सेवक चुना उनको कर्तव्य का सबक पढ़ाएगी । आपसी मतभेद भुलाकर असली दुश्मन को पहचानेगी तख़्त ओ ताज़ को जनता ठोकर लगाकर खुद सिंघासन पर बैठ अपने अधिकार लेकर अपने निर्वाचित सेवादारों को ईमानदारी की राह चलने को विवश कर सामाजिक समानता की आधारशिला रख कर इक ऐसी ईमारत उठाएगी जिस पर गर्व करेंगें देशवासी दुनिया भी ख़ुशी मनाएगी । 
 

राजनीति पर कुछ दोहे पेश हैं :- 

 
नतमस्तक हो मांगता मालिक उस से भीख
शासक बन कर दे रहा सेवक देखो सीख ।

मचा हुआ है हर तरफ लोकतंत्र का शोर
कोतवाल करबद्ध है डांट रहा अब चोर ।

तड़प रहे हैं देश के जिस से सारे लोग
लगा प्रशासन को यहाँ भ्रष्टाचारी रोग ।

दुहराते इतिहास की वही पुरानी भूल
खाना चाहें आम और बोते रहे बबूल ।

झूठ यहाँ अनमोल है सच का ना  व्योपार
सोना बन बिकता यहाँ पीतल बीच बाज़ार ।

नेता आज़माते अब गठबंधन का योग
देखो मंत्री बन गए कैसे कैसे लोग ।

चमत्कार का आजकल अदभुत  है आधार
देखी हांडी काठ की चढ़ती बारम्बार ।

आगे कितना बढ़ गया अब देखो इन्सान
दो पैसे में बेचता  यह अपना ईमान ।
 

इक बेचैनी है देशवासियों के दिलों में उसे लेकर कविता पेश है :- 

 
पढ़ कर रोज़ खबर कोई
मन फिर हो जाता है उदास ।

कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस ।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास ।

कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास ।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास ।

सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास ।

जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास ।

बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास ।

कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास ।
 


 

जुलाई 15, 2023

चंदा मामा ख़ुश हुए ( कुछ सच्ची कुछ झूठी ) डॉ लोक सेतिया [ व्यंग्य कहानी ]

  चंदा मामा ख़ुश हुए ( कुछ सच्ची कुछ झूठी ) डॉ लोक सेतिया 

                                  [  व्यंग्य कहानी ] 

चंद्रयान को लेकर इक फ़िल्म बनानी पड़ेगी बॉलीवुड की नज़र थी सौ तरीके ढूंढ लेते हैं फ़िल्मकार बड़ी चतुराई से चोरी चोरी चुपके चुपके इक नायक को चंद्रयान के गुप्त कक्ष में जगह उपलब्ध करवा चांद पर भेज दिया गया ये राज़ कोई नहीं जानता आप भी बताना मत बस उधर से आने वाली सूचनाओं को जानिए । चांद को देखा तो हैरान हुए अभिनेता ये पाकर कि जैसा सोचा था वैसा कुछ भी नहीं नज़र आ रहा था मगर जाने कहां से मधुर गीतों की आवाज़ सुनाई दे रही थी कोई आशिक़ अपनी माशूका को सुनहरे सपने दिखला रहा था । ये रात ये चांदनी फिर कहां , चौदवीं का चांद हो या आफ़ताब हो , चांद सी महबूबा हो मेरी , चांदनी है रात सितारों की बारात हम थामे हाथों में हाथ निभाना जन्म जन्म का साथ , कितने नये पुराने गीत बज रहे थे । आखिर ढूंढा तो मिल गया इक उपकरण जिस में ये संगीत भरा खुद बज रहा था । बड़ी ही उबड़ खाबड़ जगह थी उसको ज़मीन नहीं कह सकते थे पांव रखते तो फ़िसल कर सीधे पाताल जाने का ख़तरा सामने दिखाई देता था धरती पहाड़ समंदर सब गायब थे जैसे किसी तेज़ हवा में तिनके जाने कहां खो गए हों । शायद कुछ नशा सा छाया था या नींद आने लगी और नायक गहरी मदहोशी में चला गया ।

नींद में ख़्वाब था अभिनेता के सर पर ताज था चांदनगरी इक देश था जिस पर उसका राज था । उसका भव्य शानदार दरबार था वही जनता वही राजा खुद अपनी सरकार था । बस इक मामा था जो किसी जादूगर की कहानी का जिन था जो मांगो सब तैयार था । मामा को उस से प्यार था यही इक ऐतबार था हर दिन इक रविवार था खाने की भूख नहीं न कोई पीने की प्यास थी कोई पेड़ पौधा नहीं कोई घोड़ा गधा नहीं बस बड़ी दूर दिखाई देती हरी हरी घास थी । चांद पर चांदनी की नहीं कोई औकात थी अंधेरा था न उजाला था कोई दिन था न कोई रात थी फिर भी कुछ तो बात थी फ़ैली हुई चमचमाती लुभाती कोई सौगात थी । अचानक इक आवाज़ आई संभलना मेरे भाई छूना मत किसी को भूले से ये सब है करिश्माई । ख़्वाब में ख़्वाब पूरा हो रहा था अभिनेता फिर से जवान होने लगा बुढ़ापा अपनी निशानी मिटो चुका था । धरती पर अपने चाहने वाले राजनेता को फोन लगाया था पहुंच गया सुरक्षित आपने जिस जगह भिजवाया था । हम दोनों यहां मिलकर झूमेंगे नाचेंगे गाएंगे अपनी दुनिया नई बसाकर विधाता हैं कहलाएंगे सदियों तक पूजे जाएंगे । खाने को पीने को कुछ नहीं है हम सबको यहां लाएंगे लेकर बस्तियां बसाएंगे भूखे नंगे ख़ुशहाल कहलाएंगे खाली पेट भजन गाएंगे । जागो सुबह हो गई है पत्नी ने जगाया था तब महानायक को होश आया था सीधे आसमान से धरती पर आया था । चांदनी का ख़्वाब था कि कोई घना काला साया था रात अधिक पी ली थी सर चकराया था जाने कौन था जिसको मामा समझा था जो घर छोड़ने आया था । 
 


जुलाई 14, 2023

आओ तुम्हें चांद पे ले जाएं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

    आओ तुम्हें चांद पे ले जाएं ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

किस तरह तुझे बाढ़ से बचाएं आओ तुम्हें चांद पे ले जाएं प्यार भरे नग्में सुनाएं धरती पर नहीं अच्छे हालात सातवें आसमान पर तुझे बिठाएं । चांद किस का किस की चांदनी चुनाव में नया मुद्दा बनाएं ख़्वाब जनता को दिखलाकर हक़ीक़त से आंखें हम चुराएं । फिर किसी को ढूंढ कर मसीहा घोषित करें फिर किसी के झूठे वादों पर ऐतबार करें और पछताएं । भूखे बच्चों को उनकी माएं चूल्हे पर पानी उबलना रख बहलाएं और शाहंशाह मौज मस्ती मनाएं दुनिया भर को जो चाहें दिखलाएं । चांद पर मंगल मनाएं जिनको हासिल सब खाने पहनने को गरीब रोएं कि चिल्लाएं कौन सुनता उनकी सदाएं । आधुनिक हथियार लड़ाकू विमान खरीद कर हम शांतिदूत हैं आपस में भाईचारा बनाएं शासक तुम भी शासक हम भी जी भर मक्खन मलाई खाएं बाक़ी सभी को छाछ भी खैरात में बंटवाएं और जनता के सेवक कहलाएं खुद को मालिक समझते हैं सच बोलने से घबराएं । राजधानी शर्म से पानी पानी हुई रहनुमाओं की मेहरबानी हुई अजब ग़ज़ब की कहानी हुई उनसे कैसे ये नादानी हुई । समंदर दरिया खुद चल कर आते हैं उनके चरणों में सर झुकाते हैं उनकी ख़ास बात है बहती गंगा में नहाते हैं यमुना के तीर महफ़िल सजाते हैं किसी विख्यात गुरु को बुलाते हैं प्रकृति से खिलवाड़ करने वालों को सब मनमानी करने देते हैं उस के बाद नियम कायदे याद आते हैं जुर्माना लगाते हैं पिंड छुड़ाते हैं । लोग हर बात भूल जाते हैं कौन हैं जो कश्तियां डुबाते हैं खेवनहार भी कहलाते हैं । 
 
भगवान पर भरोसा किया उम्र भर पर गरीबों का कोई भगवान नहीं मिला अमीरों का भगवान पैसा है उनको जिस की ज़रूरत होती बना लेते खरीद कर इंसान से भगवान तक को । बहुत है आरती हमने उतारी नहीं सुनता वो लेकिन अब हमारी । जमा कर ली उसने दौलतें खुद धर्म का हो गया वो है व्योपारी । तरस खाता गरीबों पर नहीं वो अमीरों से हुई उसकी भी यारी । रहे उलझे हम सही गलत में  क्या उसको याद हैं बातें ये सारी । कहां है न्याय उसका बताओ  उसी के भक्त कितने अनाचारी । सब देखता , करता नहीं कुछ  न जाने लगी कैसी उसको बिमारी । चलो हम भी तौर अपना बदलें आएगी तभी हम सब की बारी । बिना अपने नहीं वजूद उसका  गाती थी भजन माता हमारी । उसे इबादत से खुदा था बनाया  पड़ेगी उसको ज़रूरत अब हमारी । आख़िर में इक ग़ज़ल पेश है । 
 

                        ग़ज़ल डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

चंद धाराओं के इशारों पर
डूबी हैं कश्तियाँ किनारों पर ।

अपनी मंज़िल पे हम पहुँच जाते
जो न करते यकीं सहारों पर ।

खा के ठोकर वो गिर गये हैं लोग
जिनकी नज़रें रहीं नज़ारों पर ।

डोलियाँ राह में लूटीं अक्सर
अब भरोसा नहीं कहारों पर ।

वो अंधेरों ही में रहे हर दम
जिन को उम्मीद थी सितारों पर ।

ये भी अंदाज़ हैं इबादत के
फूल रख आये हम मज़ारों पर ।

उनकी महफ़िल से जो उठाये गये
हंस लो तुम उन वफ़ा के मारों पर ।
 

 
 

जिसे करना मना वही करना पसंद है ( हादिसा ) डॉ लोक सेतिया

  जिसे करना मना वही करना पसंद है  ( हादिसा ) डॉ लोक सेतिया

                      करणो हुतो सु ना कीओ परिओ लोभ कै फंध ॥
                     नानक समिओ रमि गइओ अब किउ रोवत अंध ॥

जिस तरफ जाना मना है उस तरफ जाना सबको अच्छा लगने लगा है , गुरुनानक जी की बात धर्म की सच्ची राह की है लेकिन यहां हर जगह यही हालत है । तीन दिन पहले इक खबर थी गलत दिशा से तेज़ रफ़्तार से आती बस ने सही दिशा को जाती कार को टक्कर मर कुचला और कई लोग दुर्घटना में मारे गए ।  खबर में बताया गया कि देश की सड़कों पर ऐसा होता है जो रोज़ कितने लोगों की मौत का कारण है । लेकिन हर शहर में तमाम लोग यही आपराधिक गलती करते दिखाई देते हैं क्योंकि आदत ही नहीं रही सही ढंग से रहने चलने और अपनी नहीं बाक़ी सभी की ज़िंदगी की कीमत समझने परवाह करने की । हर चौराहे पर खड़े पुलिस वाले इस तमाशे को देखते हैं रोकते टोकते नहीं समझाते नहीं कि आपको अपनी नहीं औरों की जान जोख़िम में डालने की अनुमति नहीं है । मोटरसाईकल पर कान से फोन लगाए सड़क पर ऐसे चलते हैं लोग जैसे सड़क उनकी ख़ातिर बनाई गई है किसी को उस पर आना जाना है तो बच कर रहना होगा । अधिकांश ऐसे लोग सामन्य व्यक्ति को दहशत में रखते हैं कहीं रुक कर फ़ोन पर बात करने की फुर्सत नहीं क्या ऐसा कार्य है जो किसी की जान से बढ़कर है । 
 
कल इक राजनेता की मौत पुलिस की लाठीचार्ज से घायल होने पर हुई तब मुझे लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी का 25 जून 1975 का भाषण याद आया । उन्होंने यही ही तो कहा था पुलिस और सुरक्षाबलों से कि शांति पूर्वक विरोध प्रदर्शन करना संवैधानिक अधिकार है और ऐसा करने पर बलप्रयोग़ लाठीचार्ज या गोली चलाना सही नहीं है और सत्ताधारी शासक के अनुचित आदेश को पालन करने से मना कर सकते हैं । आपको याद दिलाना ज़रूरी है एमरजेंसी इसी बात को बहाना बनाकर लगाई गई थी , अब इस से बढ़कर विडंबना की बात क्या हो सकती है कि आपत्काल को पानी पी पी कर कोसने वाले लोकनायक जयप्रकाश को आदर्श बताने वाले खुद सत्ता मिलते वही दोहराते रहते हैं । कानून पुलिस अदालत सबको अपनी मुट्ठी में कैद किए हुए हैं । एमरजेंसी लगाने की ज़रूरत नहीं बिना लगाए जनता को विरोध प्रदर्शन से रोकने को किसी भी सीमा तक सत्ता का अनुचित उपयोग किया जाता है । 
 
  रोज़ खबरें आती हैं बाढ़ आने पर सरकारी आपदा प्रबंध से लेकर पहले से इनको रोकने को उपाय नियम कायदे लागू नहीं करने की आपराधिक लापरवाही करने के । ऐसे ही सालों तक अवैध निर्माण से आंखें मूंदे किसी अपराधी को पकड़ने अदालत में दोषी साबित करने से बचकर बुलडोज़र से घर ईमारत को गिराने को न्याय कहने लगे हैं । ये न्याय आश्वस्त नहीं करता भयभीत करता है क्योंकि बुलडोज़र किसी सत्ताधारी राजनेता की अवैध ईमारत की तरफ नहीं देखता है । पुलिस जब सुरक्षित महसूस नहीं करवाती बल्कि डरावनी लगती है और सामन्य नागरिक को पुलिस थाना किसी सुनसान हवेली जैसा लगता है जिस से बचना दूर रहना चाहता है हर कोई तब संविधान कानून देश की न्यायप्रणाली सभी का औचित्य नहीं रह जाता है । किसी भी सरकारी दफ़्तर में आम आदमी से अधिकारी कर्मचारी शालीनता से व्यवहार करना नहीं सीखे आज़ादी के 75 साल बाद तक । 
 
पुलिस सरकार अधिकारी ही नहीं शिक्षक डॉक्टर्स समाजसेवक धर्म उपदेशक तक सभी अपने वास्तविक मकसद कर्म से भटके हुए हैं जो करना चाहिए उसे छोड़ वो करते हैं जिसे करना चाहते हैं अपने किसी निजी स्वार्थ की खातिर । गली गली राजनीति से जुड़े लोग आडंबर अधिक करते हैं वास्तव में करना नहीं ज़रूरी समझते हैं । विधायक सांसद मंत्री मुख्यमंत्री तक जो करना उनका कर्तव्य है उसे अनुकंपा करने की बात जताते हुए सोशल मीडिया पर दिखाई देते हैं । कोई राजनेता कोई अधिकारी अपनी जेब से आमदनी से कुछ नहीं देता जो जनता को मिलना चाहिए सरकारी नियम से उस का कुछ भाग देते हुए खुद को दानवीर मसीहा समझना इक धोखा ही है । कर्तव्य निभाने को एहसान समझना कितना गलत है जब सोचते हैं तो जिसे देखते हैं उसी गलत दिशा को जाता है जाने को व्याकुल है । ख़ास जाने माने लोग इश्तिहार देते हैं अपनी महिमा अपना गुणगान करने वाले कभी कोई नहीं बताता उनकी कमाई कितनी खरी है कितनी खोटी है । इक अजीब पागलपन छाया हुआ है सभी खुद को ख़ास बड़ा महान कहलाना चाहते हैं जबकि ऐसा चाहना अपने आप में इक जुर्म है ऐसा कहा जाता है ।  शोहरत की कामना करना इक अपराध है आपको अपना कर्तव्य निभाना चाहिए बिना किसी स्वार्थ के तब शोहरत अपने आप मिलती है कोई चाहे या नहीं चाहे तब भी । ये जाने कैसा समाज है आधुनिक कहलाने वाला जहां मौसम से डरने लगे हैं बारिश को जाने क्या समझने लगे हैं और प्यार के नाम पर आशिक़ किसी का क़त्ल करने लगे हैं ये कोई सच्चा इश्क़ नहीं है कुछ और है फ़िल्म टीवी सीरियल वालों ने दुश्मनी दोस्ती का अंतर भुला दिया है नफरत भरे दिमाग़ को आशिक़ी का नाम दे कर बड़ा गुनाह किया है । आदमी आदमी से डरने लगा है और जानवर से प्यार की बात करने लगा है खुद इंसान के भीतर का इंसान मरने लगा है । खूबसूरत दुनिया को बर्बाद कर रहे हैं खुद तबाही को बुलाया है और बचने की फरियाद कर रहे हैं । आखिर में मेरी इक पुरानी ग़ज़ल , हर मोड़ पर लिखा था आगे नहीं है जाना , लेकिन सबको मर्यादा की लक्ष्मणरेखा को लांघने की ज़िद है कोई समझा नहीं कोई माना नहीं । 

                        ग़ज़ल डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

हर मोड़ पर लिखा था आगे नहीं है जाना
कोई कभी हिदायत ये आज तक न माना ।

मझधार से बचाकर अब ले चलो किनारे
पतवार छूटती है तुम नाखुदा बचाना ।

कब मांगते हैं चांदी कब मांगते हैं सोना
रहने को झोंपड़ी हो दो वक़्त का हो खाना ।

अब वो ग़ज़ल सुनाओ जो दर्द सब भुला दे
खुशियाँ कहाँ मिलेंगी ये राज़ अब बताना ।

ये ज़िन्दगी से पूछा हम जा कहाँ रहे हैं
किस दिन कहीं बनेगा अपना भी आशियाना ।

मुश्किल कभी लगें जब ये ज़िन्दगी की राहें
मंज़िल को याद रखना मत राह भूल जाना ।

हर कारवां से कोई ये कह रहा है "तनहा"
पीछे जो रह गए हैं उनको था साथ लाना ।
 



जुलाई 08, 2023

तीन में नहीं तेरह में भी नहीं ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  तीन में नहीं तेरह में भी नहीं ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

मुहावरे की बात करते हैं लेकिन पहले मुहावरे को समझते हैं ये कैसे बना कब शुरू हुआ । एक बेहद धनवान व्यक्ति अपने नगर की एक तवायफ पर मोहित हो गया था । रोज़ उसका मुजरा देखने के लिए जाता था और उसे उपहार में काफी धन , रत्न एवं आभूषण दिया करता था । एक भी दिन ऐसा नहीं जाता था जब उस धनवान व्यक्ति की ओर से तवायफ को कोई उपहार ना मिलता हो । एक दिन उस धनवान व्यक्ति को नगर से बाहर जाना था । उसने अपने निजी सचिव को एक काफी महंगा सोने का हार देते हुए कहा कि , कल मेरी अनुपस्थिति में तुम चले जाना और उसे कहना कि यह उपहार उसे सबसे ज्यादा चाहने वाले व्यक्ति ने भेजा है । आदेश अनुसार निजी सचिव तवायफ के पास पहुंचा और सोने का हार देते हुए कहा कि यह उपहार आपको आपके सबसे ज्यादा चाहने वाले व्यक्ति ने भेजा है । तवायफ ने कंफर्म करने के लिए सबसे पहले तीन नाम लिए तीनों में उस धनवान व्यक्ति का नाम नहीं था । फिर तवायफ ने 10 नाम और बताए लेकिन इसमें भी धनवान व्यक्ति का नाम नहीं था । निजी सचिव तवायफ से सोने का हार वापस वापस लेकर चला आया । दूसरे दिन जब धनवान व्यक्ति यात्रा से लौट कर आया और पूछा कि क्या तुमने तवायफ को मेरा उपहार मेरे मैसेज के साथ दे दिया । तब उसके निजी सचिव ने उसे बताया कि सेठ जी आप , तीन में न तेरह में , न सेर भर सुतली में , न करवा भर राई में । 

   इधर सरकार को सब का ख़्याल आने लगा है हर वोटर को लुभाने को खैरात बंटवाने की बात होने लगी है । वरिष्ठ नागरिक विधवा बुढ़ापा उपेक्षित वर्ग से गरीब बेबस के बाद फ़रमान सरकारी है जिनका कोई नहीं पति पत्नी कुंवारे हैं उनकी भी आई बारी है । कुछ और बाकी रह गए हैं उनकी कौन समझता कितनी लाचारी है । यहां त्रिशंकु जैसे लोगों की बात है जिनका कोई दिन नहीं न कोई रात है जिनकी फ़सल पर हुई बेमौसमी बरसात है जिनके हाथ में नहीं किसी का हाथ है । ज़मीं नहीं जिनकी न कोई आस्मां है बिखर गया जिनका आशियां हैं कोई मंज़िल है न कोई कारवां हैं । अलग-अलग होने वालों की ये दर्द भरी दास्तां हैं मुझे कुछ नहीं कहना बस लिखना उन सभी का बयां हैं जो ढूंढते हैं चैन दिल का मिलता कहां है । 

   सीधी साफ सच्ची बात कहते हैं जो अपने हमसफर से बिछुड़ गए छोड़ा किस ने किस को छोड़ो जो हुआ सो हुआ तन्हा-तन्हा रहते हैं । कुछ तलाकशुदा कुछ मझधार में अटके हैं अदालत की चौखट पर क्या बताएं कितना भटके हैं । सरकार उनकी तरफ भी निगाह ए करम डालो उनको मिलते समाज में बस झटके ही झटके हैं । इक तो जुदाई का ग़म उस पर ये सितम भी नहीं कम सरकार की निगाह में उनका कोई वजूद नहीं है उनकी गिनती तीन में नहीं न तेरह में ही है । परवीन शाकिर कहती हैं कैसे कह दें कि मुझे छोड़ दिया है उस ने , बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की । जनाब राहत इंदौरी जी भी कहते हैं  , मुझे वो छोड़ गया ये कमाल है उस का , इरादा मैं ने किया था कि छोड़ दूंगा उसे । सरकार से गुज़ारिश है जिनकी कोई खबर नहीं लेता उनकी भी खबर लेनी चाहिए । कुंवारे विवाहित बड़े बूढ़े सब की चिंता है तलाकशुदा औरत मर्द दोनों की भी बात इस बार होनी चाहिए । कुंवारे लोगों को पेंशन मिलने लगी तो क्या वो विवाह नहीं करेंगे आपकी राह चलने लगेंगे या कहीं चुपचाप शादी कर या बिना शादी संग संग रहते हुए चार चार लड्डू खाने को पाते रहेंगे इस से किसी को क्या लेना देना । लेकिन तलाक लेने देने के बाद समाज में उपेक्षित वर्ग की उपेक्षा सरकार भी करने लगी तो मामला भेद-भाव का समानता का मौलिक अधिकार से लेकर न्याय में समानता का बन जाएगा  । हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन , खाक़ हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक , चचा ग़ालिब फरमाते हैं बस और देर मत करना कहीं देर न हो जाए । 
 
आखिर में सत्ताधारी दल ही नहीं सभी राजनैतिक दलों को अवसर का लाभ उठाना चाहिए और घोषणापत्र में सिर्फ तलाकशुदा की ही नहीं जिनको चाहत है तलाक लेने की उनके लिए भी कोई वादा कोई लुभाने को आर्थिक कानूनी मदद की बात की जा सकती है । सर्वेक्षण करवा देखें कितने आपको चाहने वाले मिलेंगे जो सामने नहीं आते मगर ख़ामोशी से समर्थन और वोट डालकर आपकी बिगड़ी सूरत को संवार सकते हैं । कहते हैं जिनका कोई नहीं उनका भगवान होता है लेकिन भगवान की चौखट से ख़ाली हाथ ख़ाली दामन लौटने वाले कहां जाएं कोई दर उनको भी खुला मिलना चाहिए । 
 

 

मेरी पुरानी डायरियों से ( कुछ यादें कुछ एहसास ) डॉ लोक सेतिया [ भाग - दो ]

     मेरी पुरानी डायरियों से ( कुछ यादें कुछ एहसास ) डॉ लोक सेतिया 

                                              [ भाग - दो ]

अधिकांश लिखने वाले अपनी शुरूआती अधकचरी रचनाओं को संभाल कर नहीं रखते बल्कि छुपाए रहते हैं और कभी उनका नामो निशान मिटा देते हैं । कहा जाता है कि उनको पढ़कर किसी को महसूस हो सकता है कि कैसी कैसी अधकचरी रचनाएं लिखते थे । मैं कच्ची मिट्टी की तरह था ज़माने की आग ने मुझे पकाया तब जाकर कुछ पढ़ने के लिए लिखना आया मुझे 45 सालों में लेकिन उस गीली मिट्टी की सौंधी सौंधी खुशबू मुझे अभी भी आती हुई लगती है तभी अपनी पुरानी डायरियों को विरासत की तरह संभाले रखा है ।   
 
     
15 दिसंबर 1976 

ख़्वाबों में ख्यालों में जिए हैं हम 
आरज़ू करते करते मुरझाए फूल 
दिन ख़िज़ाओं के न हो सके कम । 

हर किसी पर ऐतबार किया है 
हम सबके सभी हैं अपने ही तो 
सोचते हैं कौन था कोई भी नहीं 
हमने क्योंकर इंतज़ार किया है । 

सब को चांदनी नहीं कभी भी मिलती 
नादानी वो चांद को छूने की कोशिश 
यूं ही हमने कई बार किया नासमझी 
ज़िंदगी ठहरी नहीं कहीं रही चलती ।  

16 नवंबर 1979 

नज़र आता है हर तरफ अंधेरा 
मेरी नज़रों का नज़ारों से नहीं 
नाता ।

मेरे अधरों का मुस्कानों से जैसे 
टूट गया कोई भूला बिसरा था 
नाता । 

27 मार्च 1984 

जाने क्या हो 
अंजाम ज़िंदगी का अपनी 
जिएं कैसे मरें भी किस तरह 
कुछ भी तो समझ नहीं आता । 

कश्ती तूफानों से उलझती है 
है किनारा किधर खबर नहीं 
भंवर भी कहीं नज़र नहीं आता । 

17 मार्च 1985 

तन्हाईयों में जीना ज़िंदगी तो नहीं 
दुनिया की भीड़ में अकेले हम हैं 
उजालों की रौनक है ज़माने भर की 
अपनी खातिर कोई रौशनी नहीं । 

फुर्सत में कभी कभी ख़्याल आता है 
पल दो पल कोई होता साथ साथ 
बुझती ज़रा हमारी प्यार की प्यास 
बस तमन्ना है ये , कोई बंदगी नहीं । 

22 जून 1985 

ग़म रोज़ मिलते रहे नए नए 
वर्ना तूफ़ान गुज़र ही जाते 
ज़ख्म हर किसी से मिले हमें 
वर्ना नासूर भर भी जाते 

जिनकी वफाओं पे नाज़ था 
काश इतना तो करही जाते 
दोस्ती नहीं निभा सकते मगर 
दुश्मनी की हद से नहीं बढ़ जाते 

तंग आए कश म कश से जब भी 
गीत कुछ लब पर चले आये मेरे 
उन्हीं गीतों के सहारे है ज़िंदा अभी
' लोक 'वर्ना  कब के मर ही जाते ।  

23 जून 1985 

बहुत गिला था तुम्हारी बेवफ़ाई का 
हम ने समझे नहीं थे दुनिया के चलन 
 
ज़माने में बनाते हैं ज़रूरतों की खातिर 
नये नये रिश्ते लोग हमेशा कितने ही 
 
छोड़ दिए जाते हैं सहूलियतों के लिए 
अब जाना वफ़ा कुछ नहीं सिवा इसके 

इक शब्द किताब पर लिखा हुआ सिर्फ 
बेबात था शिकवा गिला तुमसे जाता रहा ।  

17 अक्टूबर 1985 

कभी कभी ( कविता ) 

होता है एहसास कभी कभी 
कि अभी तलक ज़िंदा हैं हम 

यूं भी लगता है कभी कभी 
लौट कर आ गए वही दिन 

मन कहता है ये कभी कभी
आने वाले तो मिलने तुम 
 
मैं भूल जाता हूं कभी कभी 
कि बिछुड़ गए कभी के हम । 




 

जुलाई 07, 2023

मेरी पुरानी डायरियों से ( कुछ यादें कुछ एहसास ) डॉ लोक सेतिया [ पहला भाग ]

  मेरी पुरानी डायरियों से ( कुछ यादें कुछ एहसास ) डॉ लोक सेतिया 

                        दिसंबर 1977 नई दिल्ली । 
 
                  [  पहला भाग  ]

बचपन से शौक रहा कुछ कविता कुछ शायरी जैसे अल्फ़ाज़ लिखना जबकि मेरी परवरिश जिस माहौल में हुई ये उस में ये संभव नहीं था । कुछ भी साहित्य संगीत का वातावरण नहीं था न मैंने पढ़ा किताबों में न कहीं से कोई प्रेरणा ही मिली किसी से कभी स्कूल कॉलेज से कहीं से भी । अंतर्मुखी स्वभाव था सोचता रहता कुछ किसी से कहना नहीं अच्छा लगता था । 1973 में कॉलेज से निकलकर हिसार में कुछ महीने रहा कुछ सीखने को कुछ वरिष्ठ डॉक्टर्स के अधीन इक चैरिटेबल ट्रस्ट के अस्पताल में उन दिनों बहुत व्य्स्त रहता अस्पताल में लेकिन इक कमरे में अकेला रहता था साथी बचपन से इक बैटरी वाला रेडियो और कागज़ कलम पुरानी कुछ कापियां कुछ बिखरे पन्ने पेटी में ढेर सारे ख़त तमाम दोस्तों पहचान वालों रिश्ते नाते से कभी कहीं राहों में बस में मुलाकात बातचीत हुई ऐसे अजनबी लोगों से पत्राचार यही सामान था मुझे कोई ख़ज़ाना लगता था । तब बिखरी हुई चीज़ों को समेटा और इक नोटबुक पर एकत्र किया तरतीब से । दिसंबर 1977 में इक डायरी खरीदी जिस पर यही शुरुआत में लिखा हुआ है । बाद में डायरी लिखना इक आदत बन गई और कितनी डायरियां अलमारी में संभाल कर रखी हुई हैं उन से कुछ को यहां लिखने की कोशिश है । 
 
1 अक्टूबर 30 1973 ( हिसार ) 
 
हर मोड़ से फिर की शुरू मैंने ज़िंदगी 
ख़त्म नहीं हुए हैं ज़िंदगी के मोड़ अभी । 
 
3 नवंबर 1973 
 
अश्कों को सजाए पलकों पर इंतज़ार है 
मिल जाए पैग़ाम कोई आएगा कोई कब । 
 
आए हो उस ज़िंदगी का हाल पूछने जब 
कुछ भी बचा नहीं है लुटा था जो वो सब ।  
 
तुझे दर्द की कसम है मेरे दोस्त मेरे हमदम 
इस दिल में रहता है इक तेरे दुःख का ग़म  ,
घबरा न ज़िंदगी से इन हादिसों के डर से 
इक तेरी ख़ुशी की खातिर तो जी रहे हैं हम ।  
 
4 अप्रैल 1974 
 
अपनी कहानी का हमको कोई नाम नहीं मिलता 
सुनेगा कौन हाल ए दिल कोई इंसान नहीं मिलता ,
हमको अभी तलक है उसका इंतज़ार उम्र बाकी 
अजनबी दुनिया है सारी इक मेहरबान नहीं मिलता ।  
 
अश्क़ है कि आहें या ज़िंदगी हसीं है 
देखते हैं सब पर करीब कुछ नहीं है  
मंज़िल की कुछ खबर न कोई रास्ता ही 
कुछ पल ठहरने को सायबान नहीं मिलता ।  

है प्यार न किसी से कोई रंज न कोई गिला है 
नहीं कोई वफ़ा की उलझन न कोई बेवफ़ा है 
ये ऐसा इक जहां है ढूंढने पर जिस में मुझे 
मुझको खुद मेरा अपना निशान नहीं मिलता । 

8 मार्च 1975 

दिल में फिर इक उदासी छाई हुई है क्यों
कहीं दूर से मुझे पुकारा है जैसे किसीने । 

29 मार्च 1975 

हमसफ़र कोई नहीं अब सफ़र करना नहीं 
जीने की खातिर रोज़ हमको तो मरना नहीं । 

इक आंसू में हमारे तेरा जहां बह जाएगा 
वर्ना क्या तेरे लिए अब तलक रोते न हम । 

ज़रा सी आहट पे उठ जाती हैं जो , क्या
अब भी तेरी निगाहों को इंतज़ार है मेरा । 
 
मुस्कुराने लगे ज़रा तो पलकों पे अश्क़ आ गए 
हमको तुमसे तो कहना अपना अफ़साना न था । 
 
31 मार्च 1975 
 
अलविदा ज़िंदगी मुझको सफ़र करने भी दे 
रोके रहेगी कब तलक यूं मुझे तू प्यार से । 
 
28 अप्रैल 1975 
 
छू कर अश्क़ों को मेरे देखते हैं बार बार 
उनको यकीं मेरे रोने का कभी आया नहीं । 
 
9 जून 1975 
 
यह दोस्ती ये प्यार न रास आएगा हमें 
वर्ना ये सारा जहां तो बेवफ़ा होता नहीं । 
 
शिकवा करें तुम से या अपने नसीब से हम 
मुंह फेर लेता है वही देखें जिसे क़रीब से हम । 
 
12 अगस्त 1975 
 
फिर तेरी याद आई हमने पुकारा तुमको 
बेचैन बेकरार दिल दे दो सहारा हमको ,
 
बरसों के पुराने वादे भूल गए तुम जिनको 
होंगे नहीं जुदा कभी कह दो दोबारा हमको ,
 
आकर कभी तन्हाई में बाहें गले में डालो 
उन बंद पलकों में अब हमको  छुपा लो ,
 
या फिर से नाम लिख मरमरी से हाथों पे 
लबों से छू कर हमको मिटा ख़ुद ही तुम ।  

23 अगस्त 1975   वफ़ा 

है अपनी वफ़ा का अंदाज़ कुछ ऐसा दोस्त 
बेवफ़ा बन जाता है जिस से वफ़ा करते हैं । 

हम उनकी बेवफ़ाई का शिकवा न कर दें 
घबरा के दिलाते हैं वफ़ा का यकीन वो । 

आज़मा कर मेरी वफ़ा पशेमान हो जाते हैं सब 
हम तो हर दम तैयार हैं इस इम्तिहां के लिए । 

जिसकी वफ़ा की खातिर हम अब तक जी रहे हैं 
उसी बेवफ़ा की खातिर काश हम मर ही जाते । 

वफ़ा वफ़ा की ख़ातिर की नहीं हमने कभी 
वर्ना खुद को भी हम इक बेवफ़ा ही समझते । 


पलकों पे रोक लेते हैं आंसुओं को अपने 
देख कर कहीं वो शिकवा न समझ बैठें । 

दर्द - ए -दिल तुमने हमें क्योंकर दिया 
हमने नहीं मांगा था ये नज़राना आपसे । 


तुम बिन न कभी जी सकेंगे हम 
तुम बिन जी के क्या करेंगे हम 

तुम बिन यादों में खोये रहते हैं 
तुम बिन यादों का क्या करेंगे हम । 

20 मार्च 1976 

इक चाह न होगी पूरी कोई अपना हो 
लगती है हर ख़ुशी मुझे जैसे सपना हो । 
 
 

 





जुलाई 03, 2023

कैसे कैसे गुरु कैसी कैसी शिक्षा ( आख़िर इस दर्द की दवा क्या है ) डॉ लोक सेतिया

  कैसे कैसे गुरु कैसी कैसी शिक्षा ( आख़िर इस दर्द की दवा क्या है ) 

                        डॉ लोक सेतिया  

अब उनकी तो बात ही क्या की जाए जो शिक्षा देने से इनकार करते थे फिर भी गुरु दक्षिणा में अंगूठा ही कटवा कर बेबस अपाहिज बनाने में संकोच नहीं करते थे । अब सच्चाई ईमानदारी की पढ़ाई कोई अध्यापक कोई शिक्षक नहीं पढ़ाता है खूब पैसे देकर धनवान बनने के तौर तरीके सबक सीखने वाले भी सिखाने समझाने वाले को गुरु तो नहीं समझते हैं । शिक्षा इक बाज़ार ही नहीं कारोबार बन गया है और लूटने के तौर तरीके खोजते हैं और शराफ़त की नकाब लगा कर देश समाज को कितना कैसे लूटना है यही पाठ पढ़ाते हैं । सदाचार की उचित व्यव्हार की बातें नेक कमाई और ऊंचे आदर्श की शिक्षा खुद उनको नहीं भाती न ही पढ़ाना चाहते हैं । लेकिन गुरु हैं और बहुत अनगिनत तरह की शिक्षा उपदेश और उल्टी राह दिखलाने वाले । सोशल मीडिया पर ऐसे कितने लोग हैं जो नफरत का ज़हर बांटते रहते हैं कभी राजनीति कभी धर्म कभी तथाकथित घिसे पिटे संस्कारों संस्कृतियों के नाम पर । अनपढ़ या पढ़े लिखे का कोई अंतर नहीं है सभी अज्ञानी खुद को सर्वज्ञानी घोषित किए हुए हैं ।  उनके दिलो दिमाग़ भरे पड़े हैं ऐसे भटकाने वाले संदेशों या नकारात्मक उपदेशों से पता नहीं कहां से इतना विष उनको मिला है जो खुद उनके भीतर से विवेक को ख़त्म कर सभी को बर्बाद करने को उतावला है । ये विष को अमृत बताते ही नहीं प्रमाणित करते हैं यही असली है कोई न कोई लेबल लगाया हुआ है । उपदेशक तक समाज को सही राह चलने को नहीं कहते बस उनका अनुयायी बन कर उनके हर अपराध है गुनाह को अनदेखा कर उनका गुणगान करने को जाने कैसे इक मज़बूरी बना देते हैं कि गुनहगार अपराधी साबित होने अदालत से दोषी करार दे सज़ा मिलने के बावजूद भी अनुयायी उनको गुरूजी बताते घबराते नहीं है । 
 
बड़े बड़े पदों पर बैठे शासक प्रशासक राजनेता अधिकारी कर्मचारी संविधान और देश राज्य के प्रति निष्ठा और ईमानदारी को ताक पर रख कर अन्याय अत्याचार और सामान्य जनता को सताने का कार्य करना अपना अधिकार समझते हैं । इन सब को भ्रष्टाचार और घोटाले बनाने की शिक्षा किसी न किसी से मिलती है जिसे अपना स्वामी समझ हराम की काली कमाई से चढ़ावा देते रहते हैं । देश समाज को घुन की तरह खाने और खोखला करने वाले लोगों से बड़े बड़े उद्योगपति बड़े कारोबारी गठबंधन कर देश की अर्थव्यस्था को गिराने में रसातल से नीचे पहुंचा रहे हैं लेकिन वास्तविक संत महात्मा नहीं जो जनता को ऐसे पापियों का विरोध करने की बात भी कर सके । सब देखते हैं सुनते हैं समझते हैं पर बापू के बंदर बनकर बिल्लियों को रोटी का बंटवारा करते हैं ।  बहुत थोड़े लोग हैं जिन्होंने किसी को गुरु नहीं बनाया अन्यथा हर कोई किसी ऐसे गुरु की चंगुल में फंसा हुआ है लेकिन बंधक होने को अपना सौभाग्य मानते हैं । गुरु शब्द की परिभाषा फिर से समझाने की आवश्यकता है कि जो आपको विवेकशून्य स्वार्थी और लोभी लालची बनाता है उसकी शरण जाने से कल्याण होता है और आपको मरने तक स्वर्ग का इंतज़ार नहीं करना पड़ता आप जैसे चाहें बिना महनत काबलियत मालामाल होकर आनंदमय जीवन जी सकते हैं किसी पाप अपराध का बोझ नहीं मन पर रखना जो मर्ज़ी करो सब माफ़ है । आधुनिक गुरूजी की माफ़ी सबको मिलती है उनके गुनाहों को उचित मानकर उनके अपकर्मों में सहभागी बन कर । हर कोई इक व्यौपारी है गुरु का चोला धारण कर और भगवान से नहीं डरते क्योंकि उनको यही याद है गुरु भगवान से अधिक महान हैं लेकिन आधुनिक गुरु भगवान से नहीं शैतान से मिलवाते हैं और लोग भी शैतान को देख ख़ुशी से झूमते हैं शैतान से डरना भी और उसका गुणगान करना भी यही सफलता की सीढ़ी है ऐसा पढ़ाया समझाया जाता है । भगवान को लेकर अभी किसी को सोचने की फुर्सत नहीं है कभी कभी किसी धार्मिक स्थल मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे जा कर सर झुका आते हैं नज़र नहीं आता कहीं कोई ईश्वर साक्षात सुविधा है आशिर्वाद मिलता दिखाई देता है भरम बना रहता है दोनों का ईश्वर का और उसे मानने वाले का भी । गुरु दक्षिणा अग्रिम भुगतान से वसूली जाती है जैसे कोई चाहे गुप्त ढंग से नकद या ऑनलाइन सभी तरीके आसानी से उपलब्ध हैं । 
 

 

जुलाई 01, 2023

ग़ुलामी को बरकत समझने लगे हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

  मेरा देश बदल रहा है ( शाहंशाह का डायलॉग ) डॉ लोक सेतिया

     टेलीविज़न के पर्दे का जलवा सिनेमा के थिएटर से बढ़कर लगने लगा है । अमिताभ बच्चन जी का वर्चस्व इतना है कि विज्ञापन जगत में उनकी बात का डंका बजता है उनका हर फ़िल्मी डायलॉग असली बोलों पर भारी है । केबीसी का नया विज्ञापन मेरा देश बदल रहा आजकल खूब दिखाई देता है लगता है खेल खेल में निभाई सत्ता से यारी है ये सलोगन शो का लगता इश्तिहार सरकारी है । जय - वीरू की शोले फिल्म में यारी है बसंती तो बसंती धन्नो भी बलिहारी है । उनको मीठी लगती है चाहे कितनी खारी है ये फिल्म नगरी इक तलवार दोधारी है अयोध्या लंका पर भारी है अदालती फ़रमान जारी है ये नई राम कथा लगती इक गारी है । अब अदालत भी सोचने समझने लगी है पलड़े पर रख कर तोलने लगी है जनमत की बात याद आने लगी है या फिर विरासत डगमगाने लगी है । जाने कब से अदालत खामोश तमाशाई बनकर चाहे जो भी होता रहा देख रही थी चौखट पर कौन हैं कौन दरवाज़े के पर्दे के पीछे से इशारा करता है क्या क्या मतलब है कुछ सोच रही थी । अचानक उसको बोलना याद आया है जब बढ़ने लगा कोई काला साया है शायद नहीं किसी ने हिसाब लगाया है मानहानि की बातों से क्या खोया क्या पाया है सच बोलना गुनाह है झूठ खुद पर इतराया है । ग़ालिब कहता है मस्जिद के ज़ेरे साया एक घर बना लिया है , यह बंदा ए कमीना हमसाया ए ख़ुदा है । शोर सुना था देश कब का बदल चुका है इक ढलान पर चलने लगा है संभाले नहीं संभलेगा इतना फिसल चुका है । सियासत ही नहीं इतिहास भी खुद को झूठा साबित करने तक उतर चुका है इतना बदल गया है कि हद से निकल चुका है । आज़ादी का सूरज कब का ढल चुका है किसी का जादू इस कदर असर ला रहा है कि ग़ुलामी को लोग बरकत समझने लगे हैं बशीर बद्र जी की ग़ज़ल याद आई है असीरों को मिलने लगी ऐसी रिहाई है ग़ुलामी सबके दिल को भाई है । इधर विदेश से ढूंढ कर खबर लाते हैं ये साबित करने को कि बाहर वाले हमारे को बड़ा महान बतलाते हैं ये गवाही चाटुकारों की आदत बन गई सियासत बस इक नफरत बन गई है ये देश इतना बदला गया है कि आस्मां धरती को निगल गया है । चलो आपको दो कविताएं पुरानी सुनाते हैं उस के बाद ओबामा जी का घर दिखाते हैं मतलब की बात कुछ नहीं बस मस्ती मनाते हैं जलता है तो जले सब कुछ हम चैन की बंसी बजाते हैं । 

1    दुनिया बदल रहा हूं ( कविता ) 

दुनिया बदल रहा हूं
खुद को ही छल रहा हूं ।

डरने लगा हूं इतना
छुप छुप के चल रहा हूं ।

चलती हवा भी ठण्डी
फिर भी मैं जल रहा हूं ।

क्यों आज ढूंढते हो
गुज़रा मैं कल रहा हूं ।

अब थाम लो मुझे तुम
कब से फिसल रहा हूं ।

लावा दबा हुआ है
ऐसे उबल रहा हूं ।

" तनहा " वहां किसी दिन
   मैं  चार पल रहा हूं । 

 

 2   जाना था कहाँ आ गये कहाँ  ( कविता  )

ढूंढते पहचान अपनी
दुनिया की निगाह में , 

खो गई मंज़िल कहीं 
जाने कब किस राह में , 

सच भुला बैठे सभी हैं
झूठ की इक चाह में ।

आप ले आये हो ये
सब सीपियां किनारों से , 

खोजने थे कुछ मोती
जा के नीचे थाह में ,  

बस ज़रा सा अंतर है 
वाह में और आह में ।

लोग सब जाने लगे
क्यों उसी पनाह में ,

क्यों मज़ा आने लगा
फिर फिर उसी गुनाह में 

मयकदे जा पहुंचे लोग 
जाना था इबादतगाह में ।