सिनेमा के अनोखे सफ़र की दिलकश दास्तां
( आलेख ) डा लोक सेतिया
सौ वर्ष हो गये हैं सिनेमा के , फ़िल्म जगत के। इन सौ वर्षों में सिनेमा भी बदला है और शायद बाक़ी समाज से अधिक तेज़ी से बदला है। बाहरी रूप से भी और भीतर से भी। शायद सभी को एक अंतराल के बाद रुक कर इस बात पर विचार करना चाहिये कि हम चले कहां से थे , जाना किधर को था और आज किस जगह आ गये व आगे किस दिशा को जाना है। अक्सर लोग जब कभी सिनेमा की बात करते हैं तब अधिकतर उनकी बातचीत का विषय अदाकारों तक सिमित रहता है या ज़यादा से ज़यादा गीत संगीत नृत्य तक। जब कि परदे के पीछे तमाम लोग होते हैं , कैमरामैन , निर्देशक , निर्माता , कथाकार ही नहीं और तमाम तरह के कम करने वाले कितने ही लोग। इनमें से सभी का अपना अपना महत्व है। हर एक पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है , एक एक फ़िल्म पर ही बहुत होता है लिखने को। ऐसे में सिनेमा के पूरे इतिहास को किसी एक लेख में तो क्या किसी ग्रंथ में भी लिखना संभव नहीं है। इस लेख में हम केवल फिल्मों के समाज को दिये योगदान , उसके हर तरह से समाज पर हुए प्रभाव की ही बात करेंगे। पहली बात तो यही समझनी होगी कि सिनेमा मात्र एक मनोरंजन का माध्यम ही नहीं है। समाज को तमाम बातों की समाजिक , भैगोलिक , राजनैतिक , धार्मिक एवं परिवारिक संबंधों की जानकारी देकर लोगों को शिक्षित करना , जागरूक करना प्रारम्भ से ही फिल्मों का मकसद रहा है। दहेज प्रथा , गरीबी , भूख , अन्याय , भेदभाव , आडंबर जैसी बातों यहां तक कि वैश्यावृति जैसी समस्या पर मुखर रही हैं हमारी पुरानी फ़िल्में। एक फ़िल्मी गीत विवश कर देता है समाज को , देश के कर्णाधारों को अपने भीतर झांकने के लिये। जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं , आज भी प्रसांगिक है ये गीत।
अगर एक फ़िल्म की बात करें तो मुझे सबसे पहले नया दौर फ़िल्म की याद आती है , बलदेव राज चौपड़ा जी की ये फ़िल्म बदलते समय में मज़दूर और मशीन को लेकर चिंता जताती है कि कैसे जब एक बस वाला कारोबार करने आता है तो कितने तांगे वालों कि रोटी का सवाल खड़ा हो जाता है। दिलीप कुमार और वैजंती माला की जोड़ी कई फिल्मों में लाजवाब रही है। नैय्यर जी का संगीत भी लाजवाब है इस फ़िल्म में , साथी हाथ बढ़ाना गीत आज भी मन में नया उत्साह नई उमंग जगाता है। रेशमी सलवार कुर्ता जाली का गीत हो या फिर मांग के साथ तुम्हारा मैंने मांग लिया संसार , कभी न भूलने वाले गीत हैं सभी। जिस देश में गंगा बहती है फ़िल्म डाकुओं के हृदय परिवर्त्तन की बात करती है। बहुत बार जो बात फ़िल्म में कितने ही दृश्य नहीं समझा पाते उसे किसी एक गीत की दो लाईनें सपष्ट कर देती हैं। आना है तो आ राह में कुछ फेर नहीं है , भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है। फ़िल्म बैजूबावरा संगीत प्रधान फ़िल्म थी तो जल बिन मछली नृत्य बिन बिजली , नृत्य एवं संगीत दोनों का संगम। संगम फ़िल्म से प्रेम त्रिकोण की कहानियों की शुरुआत हुई थी , प्रेम हमेशा से फिल्मों , कहानियों , कविताओं का पहला विषय रहा है। संगम फ़िल्म से दोस्ती और प्यार दोनों को एक अलग पहचान मिली है। एक दोस्त अपने दोस्त के लिये अपनी प्रेमिका को छोड़ ही नहीं देता बल्कि अंत में अपनी जान देकर भी दोनों को एक करने का काम कर जाता है। दिल एक मंदिर का प्यार भी ऐसा ही पावन है। मगर सच्चे प्यार की परिभाषा को जितना अच्छा फ़िल्म ख़ामोशी में दर्शाया गया है , वो अनुपम है। हमने देखी है इन आंखों की महकती खुश्बू ,हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्ज़ाम न दो , सिर्फ एहसास है ये रूह से महसूस करो प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो।
अमर प्रेम फ़िल्म भी प्यार को बुलंदी पर ले जाने का काम करती है। हालात से मज़बूर , समाज के स्वार्थी लोगों द्वारा नाच गाने के कोठे पर पहुंचाई गई नायिका से नायक का वो प्यार जो जिस्म नहीं रूह तक जाता हो , और एक नाचने वाली कोठे वाली का प्यार को तरसते छोटे बच्चे के लिये ममता का प्यार। प्यार एक इबादत बन जाता है जब इस बुलंदी तक आता है। रैना बीती जाये शाम न आये , क्या कोई सोच सकता कि ये भजन है या किसी गाने वाली की आवाज़ जो कोठे की ररफ ले आती है नायक को खींच कर। गीत संगीत अभिनय सभी शानदार हैं इस फ़िल्म के , राजेश खन्ना और शर्मिला टैगोर की जोड़ी भी क्या खूब रही कितनी ही फिल्मों में।
लीडर फ़िल्म दिलीप कुमार कि पुरानी बेहतरीन फिल्मों से एक है। अपनी आज़ादी को हम हर्गिज़ भुला सकते नहीं , सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं , अभी तक हर जुबां पर रहता है गीत , इक शाहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल , रफी और लता का गया युगलगीत क्या सुंदर प्रेम गीत है।
धूल का फूल फ़िल्म हमारे समाज को इक और समस्या पर झकझोरती है , नाजायज़ समझी जाने वाली संतान की बात कर के। बी आर चौपड़ा जी की ही एक अन्य फ़िल्म साधना वैश्यावृति के हर इक पहलू को उजागर करने का काम करती है। लता जी का गाया गीत औरत ने जन्म दिया मर्दों को , मर्दों ने उसे बाज़ार दिया , जब जी चाहा मसला कुचला , जब जी चाहा धुतकार दिया। पूरा गीत रौंगटे खड़े कर देता है , एक एक शब्द शूल सा चुभता है। हर संवेदनशील व्यक्ति की पलकें नम कर देता है। आज जैसा माहौल बन गया है , हर दिन महिलाओं के साथ अनाचार की ख़बरें टीवी पर अख़बारों में भरी रहती हैं , तब इस गीत की सुनने ही नहीं समझने की भी ज़रूरत और भी अधिक महसूस होती है। दूसरी तरफ इन फिल्मों से हमें कितने ही भजन मिले हैं जो सुन कर चैन देते हैं , तोरा मन दर्पण कहलाये ,भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाये। मन तड़पत हरि दर्शन को आज , सुख के सब साथी दुःख में न कोई , इतनी शक्ति हमें देना दाता मन का विश्वास कमज़ोर हो न , हम चलें नेक रस्ते पे हमसे , भूल कर भी कोई भूल हो न। अल्लाह तेरो नाम , ईश्वर तेरो नाम , सब को संमति दे भगवान। लेकिन जब किसी फ़िल्म में फ़िल्मकार बुरे चरित्र को नायकत्व प्रदान करता है तब शायद वो अपनी राह से भटक जाता है। सारांश जैसी भी फ़िल्में बनती रही हैं जो सत्य के साथ अडिग खड़े रहने और अन्याय से टकराने को प्रेरित करने का काम करती हैं। मुगलेआज़म फ़िल्म एक शाहकार है , मधुबाला को अपने समय की सब से खूबसूरत अभिनेत्री माना जाता था , मगर आजकल की अभिनेत्रियों की तरह उसको अपना अधनंगा बदन दिखाने की ज़रूरत कभी नहीं पड़ी। आज हर नायिका आईटम नंबर करना चाहती है , नृत्य के नाम पर अशलीलता का प्रदर्शन केवल पैसों की खातिर। जब भी पुरानी किसी फ़िल्म में कहानी की मांग होती थी कल्ब आदि में नृत्य की तब हर फ़िल्म निर्माता - निर्देशक को ज़रूरत होती थी एक ही अभिनेत्री की। हेलन नाम नृत्य शब्द का जैसे पर्यायवाची बन गया था , नृत्य को ही पूरी तरह से समर्पित थी हेलन।
अफसाना लिख रही हूं दिले-बेकरार का , आंखों में रंग भर के तेरे इंतज़ार का , बहुत ही मधुर थी उमा देवी की आवाज़ जो बाद में हास्य अभिनेत्री बन टुन टुन के नाम से विख्यात हुई। श्वेत श्याम फिल्मों में दोस्ती फ़िल्म एक मील का पत्थर है , बिल्कुल नये दो लोग अभिनय करने वाले ,मगर बेहद मर्म स्पर्शी कहानी। एक अंधे और एक अपाहिज मित्र की कहानी थी , फ़िल्म को राष्ट्रपति पुरुस्कार प्राप्त हुआ था। हर गीत बेमिसाल था , जाने वालो ज़रा , मुड़ के देखो मुझे , एक इंसान हूं मैं तुम्हारी तरह। जिसने सब को रचा अपने ही हाथ से उसकी पहचान हूं मैं तुम्हारी तरह। गुड़िया कब तक रूठी रहोगी , कब तक न हसोगी ,देखो जी किरन सी मुस्काई , आई रे आई रे हसी आई। ऐसी फ़िल्में मन की गहराईयों में उतर जाया करती थी और फ़िल्म के पात्रों से दर्शक एक रिश्ता बना लिया करते थे। बार बार आंसू छलक आया करते थे फ़िल्म देखते हुए। हमें संवेदनशील बनाती थी उस दौर की फ़िल्में , मगर आजकल नई परिभाषा देने का काम करने लगे हैं कुछ लोग। मनोरंजन मौज मस्ती ठहाके लगाना न कि समाज को कोई राह दिखलाना। जाने ये समाज में आये पतन का असर है फिल्मों पर अथवा फिल्मों का असर समाज पर कि पैसा कमाना , सफलता हासिल करना ही ध्येय बन गया है सब का और जितने महान आदर्श हुआ करते थे सब भूल गये हैं। कुछ लोग बनाते रहे हैं किसी मकसद को लेकर फ़िल्में , आज भी कुछ लोग हैं जो ऐसा करते हैं। देवानंद की फ़िल्म गाईड वही बना सकता है जो भविष्य की बदलाव की चाह रखता हो वक़्त की आहट को पहचानता हो। एक पहले से विवाहित महिला को बंधन मुक्त करवा कर इक नई परिभाषा देना प्रेम की। कांटों से खींच के ये आंचल , तोड़ के बंधन बांधी पायल , आज फिर जीने की तमन्ना है , आज फिर मरने का इरादा है , कितनी महिलाओं को प्रेरित कर सकता है ये गीत। सचिन देव बर्मन की आवाज़ में गीत , वहां कौन है तेरा मुसाफिर जायेगा कहां , कभी कभी लिखे जाते हैं ऐसे गीत। हम दोनों भी देवानंद जी की ही फ़िल्म थी , दो हमशक्ल फौजियों की कहानी। मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया , कभी खुद पे कभी हालात पे रोना आया। क्या गीत थे मन को छूने वाले।
अशोक कुमार जी को दादा मुनि कहा जाता था प्यार और आदर के साथ। हर प्रकार का अभिनय किया उन्होंने , ज्वैल थीफ में खलनायक का भी और विक्टोरिया नंबर 203 में हास्य कलाकार का भी। बहुत ही विविधता थी उनके अभिनय में। ठीक ऐसे ही अभिनेता प्राण जो कभी खलनायक की पहचान समझे जाते थे ,मनोज कुमार की फ़िल्म उपकार में मलंग बाबा बन कर ऐसे आये कि उसके बाद उनका चरित्र अभिनेता का नया रूप नया अंदाज़ देखने वालों को लुभाता रहा। जिन फिल्मों ने सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित किये उनमें शोले , मेरे महबूब , उपकार , हम आपके हैं कौन और दिल वाले दुल्हनियां ले जायेंगे के नाम शामिल हैं। नई फिल्मों में जब वी मैट , थ्री ईडियट जैसी फ़िल्में भी सफल रही हैं। फिल्मों ने देश प्रेम की भावना जागृत करने का काम भी बाखूबी किया है। आम जनता की समस्याओं को लेकर रोटी कपड़ा और मकान जैसी फ़िल्में भी बनी और शहीद भगत सिंह जी पर भी कई बार फ़िल्म बनी है। मनोज कुमार को अपना नाम भारत रखना पसंद रहा है , पूरब और पश्चिम फ़िल्म देशभक्ति को दर्शाती है। आमिर खान ने लगान और तारे जमीं पर जैसी सार्थक फिल्मों का निर्माण किया और अपनी इक पहचान बनाई है। आजकल की समस्या पर बागबां फ़िल्म एक अच्छी कहानी पर बनी लाजवाब फ़िल्म है। दामिनी फ़िल्म भी एक यादगार फ़िल्म कही जा सकती है , जिसमें समाज की मानसिकता उसका दोगलापन भी उजागर होता है , साथ ही हमारी व्यवस्था न्याय प्रणाली ,और प्रशासन के तौर तरीके पर सवाल खड़े करती है। नमक हराम फ़िल्म धनवानों द्वारा गरीब मज़दूर व कर्मचारियों का शोषण उनमें फूट डलवाना और अपने स्वार्थ के लिये हर अनुचित हथकंडे अपनाना जैसी बातों को उजागर करती है। माना इन सब फिल्मों के बावजूद भी समाज में हालत नहीं सुधरी है , मगर फिल्मकारों ने इस सब पर सोचने चर्चा करने को विवश तो किया ही है दोगले समाज को बार बार।
फिल्मों ने एक और अच्छा काम किया है जाति धर्म और समाज कि अनुचित परंपराओं पर सवाल उठा कर। प्रेम विवाह का प्रचलन फिल्मों के कारण ही आया है , बेशक आज भी इसका विरोध समाप्त नहीं हुआ है। कभी इक दूजे के लिये फ़िल्म से सच्चे प्रेम को दर्शाया गया तो इधर नई पीड़ी को गुमराह भी किया गया है डर और बाज़ीगर जैसी फिल्मों द्वारा , नतीजा आज अपना प्रेम स्वीकार नहीं करने पर तेज़ाब फैंकने जैसी घटनायें सामने हैं। सच है बुराई का असर जल्द होता है अच्छाई का बहुत देर से। अमिताभ बच्चन जी जब निशब्द जैसी फ़िल्म करते हैं तो भूल जाते हैं कि इससे समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं। अपनी बेटी की सहपाठी , बेटी की उम्र की लड़की से विवाहित होने के बावजूद इश्क क्या कभी भी उचित समझा जा सकता है। आज समाज ऐसी बीमार मानसिकता का शिकार है तो फ़िल्म वाले टीवी वाले इसके लिये अपने ज़िम्मेदार होने से कैसे बच सकते हैं जब वे आज भी औरत को एक सजावट की वस्तु की तरह ही प्रस्तुत करने का ही कम करते हैं। खेद की बात है समाज की बदलाव की बड़ी बड़ी बातें करने वाले खुद अपने लिये कोई सीमा निर्धारित नहीं करते कि कहां नारी का सम्मान उनके अपने हितों से अधिक महत्व रखता है। बाकी लोगों की तरह सिनेमा का मकसद भी अगर मात्र पैसा बनाना ही हो जाये तो इसको उसकी प्रगति नहीं पतन ही समझा जायेगा। जब महान उदेश्यों को लेकर बनाई संस्थायें एक कारोबार बन जायें तो समाज को चिंता होनी चाहिये। अब यही सब जगह नज़र आता है , शिक्षा स्वास्थ्य , राजनीति प्रशासन हो या टीवी सिनेमा। आज सभी को चिंतन की ज़रूरत है और सिनेमा को आगे आना चाहिये ये बात कहने को कि बस बहुत भटक चुके सभी अब और नहीं।
राजनीति कुछ फिल्मों का विषय रही है। मगर राजनीति का सच जिस बाखूबी से किस्सा कुर्सी का फ़िल्म और आंधी फ़िल्म में दिखाया गया वो सब में नहीं। इन दोनों फिल्मों को मुश्किलों का भी सामना करना पड़ा जो हर युग में सच की बात कहने वालों को करना ही पड़ता है , मगर इस से कभी रुकते नहीं हैं सच की राह पर चलने वाले। कहने को इन दिनों भी राजनीति को लेकर फ़िल्में बनी मगर उनमें ईमानदारी का आभाव खलता है , इन के पात्र नाटकीय अधिक नज़र आये। कई बार ऐसा प्रतीत हुआ मनो फ़िल्म कहानी पर नहीं बनी बल्कि किसी अभिनेता के लिये या किसी राजनेता की छवि के लिये लिखाई गई है कहानी। इस तरह आज का सिनेमा अपने मार्ग से भटक चुका लगता है।
अब तो हालत ये है कि फ़िल्में पूरे समाज का आईना नहीं रह गई बल्कि एक वर्ग विशेष को ध्यान में रख कर बनने लगी हैं आज की फ़िल्में। शहरी सुविधा सम्पन्न , अच्छा वेतन , अच्छी आमदनी वाले लोग , इन के लिये फ़िल्में इन के जैसे पात्र। पी वी आर में यही तो देखेंगे जाकर फ़िल्में। इस प्रकार आज का सिनेमा अपनी जड़ों से कटने लगा है। देश की दो तिहाई जनता की इनके पास कोई जानकारी नहीं , जो देश गांवों में बसता है उसके लिये इनको न खुद कुछ समझना है न किसी को समझाना ही। हैरानी की बात है अब आज के फ़िल्मकार नया कुछ भी प्रस्तुत करने से घबराते हैं , तभी जो फ़िल्म सफल होती है उसका दूसरा तीसरा भाग बना कर धन कमाना चाहते हैं केवल और केवल। कोई पुरानी फ़िल्म को फिर से बनता है , रचनात्मता का आभाव साफ छलकता है। सृजन में नवीनता बहुत ज़रूरी होती है , कब तक आप लकीर के फ़कीर बने रहोगे। प्रकृति का नियम है बीते हुए को कभी न दोहराना , नित नया निर्माण ही सृजन है। शायद हमें प्रकृति से ये सबक सीखना चाहिये , लाख बदलाव , अवरोध उसे रोक नहीं सकते आगे बढ़ने से। फ़िल्म वालों ने कितनी बार यही कहा है , गीतों में कहानियों में। गिरना नहीं है , गिर के संभलना है ज़िंदगी , रुकने का नाम मौत है चलना है ज़िंदगी। सफ़र फ़िल्म का गीत भी कहता है , ओ माझी चल ओ माझी चल , तूं चले तो छम छम बाजे मौजों की पायल। सफ़र सिनेमा का चलते रहना चाहिये , कभी रुकना नहीं चाहिये उसका सुहाना सफ़र।