मई 29, 2022

तस्वीर देखी है मुलाक़ात नहीं हुई ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

   तस्वीर देखी है मुलाक़ात नहीं हुई ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

   आपको जैसा लग रहा है वैसा हर्गिज़ नहीं है। किसी फ़िल्म की बात नहीं जिस में कोई किसी की तस्वीर लिए उस से मिलने को नायिका के गांव जा रहा है मधुर गीत गुनगुनाता हुआ। न ही उस फ़िल्म की बात है जिस में कोई कलाकार अपनी कल्पना से अपनी महबूबा की तस्वीर बना रहा होता है और नायिका अपनी तस्वीर देख इक अनजाने अजनबी से इश्क़ कर बैठती है। आधुनिक युग में असली तस्वीर से अधिक खूबसूरत तस्वीर किसी ऐप से बन सकती है कैमरे से सुंदर छवि कैद करने का ज़माना खो गया है। माजरा जिस का है वास्तव में लोग उस की तलाश उसकी चाहत अब नहीं करते हैं सब समझदार हो गए हैं कि भगवान को ढूंढना उसको पाना ज़िंदगी भर भटकना है कौन इतनी अनथक कोशिश करे । इक खेल खेलते हैं जगह जगह इमारतों में उसकी निशानियां खोजने लगे हैं और जाने किस किस चीज़ को देख दावा करते हैं कि ये उसी के पांव या कोई अन्य अंग के बाक़ी निशां हैं। सोचता हूं कभी किसी दिन किसी को वास्तविक भगवान मिल जाए तो होगा क्या कुछ ऐसा हो सकता है। 
 
उस खण्डर में घायल फ़टे हुए कपड़े आंखों से बहती अश्रुधारा वाला शख़्स देख सोचने लगे कोई आदमी नहीं कोई भिखारी है जिसको चोरी करते पकड़ किसी ने अच्छी तरह मरम्मत की हो। ऊंची आवाज़ में पूछा उस से कौन हो यहां छिपकर क्या कर रहे हो। उसने जवाब दिया आपको क्या चाहिए क्या खोजने इधर आये हो। हम सब भगवान के भक्त हैं ढूंढ रहे हैं इस इमारत में उसकी कोई निशानी कहीं ये उसका निवास तो नहीं क्या तुम जानते हो इस बारे में कुछ। वो बोला नहीं पहचाना मैं साक्षात भगवान ही तो हूं , सुनकर सभी हंसने लगे। कोई पागल लगता है सोचने लगे ये जानकार सब कुछ जानने वाला भगवान बोला जैसा आप सब समझ रहे मैं कोई भिखारी नहीं न ही पागल ही हैरानी है मुझे जानते पहचानते नहीं बस मेरी निशानियां तलाश कर रहे हो। जाति न पूछो साधु की , पूछ लीजिए ज्ञान , मोल करो तलवार का , पड़ा  रहने दो म्यान । कबीर जैसे संत आपको समझा गये मगर आप नहीं समझे कि बाहरी आवरण को छोड़ कर वास्तविक अनमोल वस्तु की कीमत जानो और भीतर की वास्तविक चीज़ को फैंक कर निशानियां देख रहे हो सोचते हो भगवान के निशान हैं । 
 
   कितने धर्मों को बनाकर अनगिनत आलीशान भवन निर्माण कर क्या क्या नाम देकर कितना कुछ करते हो आरती पूजा ईबादत अर्चना उपासना के नाम पर कितनी जगहों पर। भगवान हैं भी उन स्थानों पर या नहीं विचार नहीं किया जिस ने जो चाहा लिख दिया लिखवा लिया ईश्वर अल्लाह जीसस के नाम पर उपदेश देने को खुद उन बातों को अपनाया नहीं बल्कि उनका कारोबार बना डाला। भगवान को बेचोगे खरीदोगे कभी सोचा है ये क्या है। मेरी खराब हालत किसी और ने नहीं की है आप जैसे तथाकथित आस्तिक लोगों ने आस्था को भी सामान बना दिया है और कौन धार्मिक कौन अधर्मी है इस का निर्णय कर प्रमाणपत्र बांटते फिरते हो। खुद ईश्वर भगवान विधाता के साथ छल कपट करने वाले खुद को भगवान समझने लगे हैं। 
 
एक बार सभी अपनी आंखें बंद करो आपको खुद दिखाई देगा किस की पूजा आराधना ईबादत करते हैं आप। कोई शिक्षित है डॉक्टर इंजीनियर कोई अधिकारी कोई उद्योगपति कोई राजनेता कोई धर्मगुरु कोई शिक्षक कोई समाजसेवक सभी का आवरण है बाहर अंदर लोभी लालची अहंकारी कर्तव्य नहीं निभाने वाला आदमी बैठा है। भीतर झांकोगे तो समझोगे आपका भगवान सिर्फ पैसा है और पागलपन ही है कि भले जितना मिलता रहे आपकी भूख बढ़ती रहती है। जिस के पास सब हो मगर अधिक पाने की हवस रहती हो वो दुनिया का सबसे दरिद्र व्यक्ति होता है ये सभी धर्मों की किताबों में समझाया हुआ है। ईमानदारी सत्य और सामाजिक कर्तव्यों नैतिकता को त्याग कर कोई ईश्वर भक्त नहीं बन सकता है। भगवान की भक्ति का अर्थ है सभी दीन दुखियों की बेबस असहाय लोगों की सहायता करना जबकि आप तो विपरीत आचरण करते हैं। पैसे को ही अपना भगवान नहीं समझते बल्कि पैसे की खातिर आप शैतान की भी वंदना करते हैं कितने शैतानों को सोशल मीडिया अखबार टीवी वालों ने भगवान मसीहा घोषित कर दिया है। शैतान हमेशा खुद को विधाता से ताक़तवर समझते रहे हैं लेकिन हर बार शैतान का अंत होता है सच्चाई की लड़ाई में सत्य कभी पराजित नहीं होता है। जिस दिन झूठ और सत्य की जंग होगी आपके महल आपकी शोहरत दौलत धन वैभव सभी राख में मिल जाएंगे और आप विधाता की अदालत में गुनहगार बनकर खड़े सज़ाओं के हकदार बन जाएंगे। 
 

 

मई 26, 2022

जनसेवा का अजब कारोबार ( गंदा है पर धंधा है ) डॉ लोक सेतिया

 जनसेवा का अजब कारोबार ( गंदा है पर धंधा है ) डॉ लोक सेतिया 

सभी चाहते हैं इस गंगा में स्नान करना , स्थानीय निकाय के चुनाव घोषित होते ही गली गली सड़क पर इश्तिहार बैनर लगने लगे हैं। खुद को ईमानदार और मिलनसार ही नहीं सबकी सहायता को रात दिन तैयार रहने वाला बताकर अपनी सेवा का अवसर मांगते हैं। साल भर पहले से अपना गुणगान खुद पैसे खर्च कर करने लगते हैं। लाखों की बात नहीं करोड़ों तक चुनाव पर खर्च करना चाहते हैं जो उनको समाज की देश की छोड़ो अपने शहर गली बस्ती की परवाह होती तो इतना पैसा लगाकर कई आस पास की समस्याओं का समाधान कर सकते थे मगर कभी नहीं करते। किसी संस्था को थोड़ा पैसा देते हैं अगर तो पहले हिसाब लगाते हैं फ़ायदा क्या होगा नाम शोहरत के साथ चुनावी गणित साधते हैं। कुछ साल पहले इक दोस्त के बड़े भाई टिकट हासिल करने को बड़े नेता को बुलाकर सभा आयोजित कर रहे थे। मुझसे मिलने आये निमंत्रण देने तो उनके छोटे भाई की आर्थिक दशा और स्वास्थ्य की हालत को लेकर चर्चा हुई। मैंने कहा आप इस पर लाखों खर्च करते हैं क्या भाई की सहायता नहीं कर सकते बल्कि उन्होंने बताया था भाई बहन और अन्य रिश्तेदार खराब हालत को देख मिलते तक नहीं शायद डरते हैं कुछ उधार नहीं मांग ले। जबकि उन्होंने नहीं मांगी आर्थिक सहायता किसी से कभी। जवाब मिला छोटे भाई की सहायता कर सकता हूं क्या आप मेरा पैसा सूद समेत लौटाने की ज़िम्मेदारी लेते हैं। मैंने कहा आपके भाई ने नहीं कहा मुझसे कोई क़र्ज़ दिलाने को ये तो मैंने आपसी परिवारिक संबंध को देख कर सलाह दी थी , लेकिन जिस चुनाव की टिकट की दावेदारी कर रहे हैं किसी ने उस टिकट की गारंटी दी है और टिकट मिल गई तो भी जीतने की कोई गारंटी देता है। क्या आप इक जुआ नहीं खेल रहे हैं इस राजनीति के कारोबार में किसी का कोई भरोसा नहीं है। आपसे जितना चंदा मांग रहे हैं दल वाले कोई उस से अधिक दे दे तो टिकट उसको मिल जाएगी। 
 
आज की बात पर आते हैं जितने भी लोग चुनाव लड़ना चाहते हैं किसी राजनीतिक दल में शामिल होकर खुद को बिना विचारधारा की बात सोचे बंधक रखने को तैयार हैं। जब जिस को भी जीत कर कुर्सी मिली तब उसकी निष्ठा उसकी वफ़ादारी जनता के लिए नहीं उस दल के और नेताओं के लिए होगी। समाज सेवा जनता की भलाई की बात पीछे छूट जाएगी और बंदरबांट का खेल शुरू हो जाएगा। कुर्सी पर बैठ कर हर काम में मुनाफ़े में हिस्सा लेंगे कर्मचारी अधिकारी ठेकेदार मिलकर। कितनी संस्थाएं सामाजिक बदलाव से लेकर सफाई पर्यावरण नशा का कारोबार बंद करवाने की आड़ में खूब पैसा बना रहे हैं। संस्थाओं एनजीओ के नाम पर शान से गुलछर्रे उड़ाते हैं। यहां धर्मराज कहलाने वाले सत्ता पाने से पहले खुद अपना ईमान बेचते हैं और बहुत ऐसे लोग अपनी जाति बिरादरी को बंधक या गिरवी रखने की कोशिश करते हैं। अभी सबको फेसबुक व्हाट्सएप्प पर संदेश भेजते हैं मगर किसी से पहचान नहीं है फोन पर बात नहीं करते संदेश का जवाब नहीं देते कोई पूछे कौन हैं क्या जानते हैं मुझे। पता चला आप सभी से संपर्क करने को ठेके पर आई टी सैल बना लिया है कभी आप को ज़रूरत हो तब आई टी सैल किस काम आएगा उसको जिस काम का अनुबंध मिला चुनाव तक रहेगा। 
 
दौलत शोहरत ताकत पाने की ललक ने कितने लोगों को स्वार्थ में अंधा कर पागल बना दिया है । कितने ऐसे लोग जीवन भर भटकते रहे मगर कभी इधर कभी उधर के बनकर भी खाली हाथ चले गए दुनिया से। जाना सबको ख़ाली हाथ है बस कुछ सार्थक वास्तविक समाजसेवा करने वालों का जीना सार्थक हो जाता हैं और मर कर भी उनकी सच्चाई ईमानदारी बाक़ी रहती है। लेकिन कई ऐसे होते हैं जिनको सत्ता पद मिल भी जाते हैं तब भी उनकी लूट की भ्र्ष्टाचार की दौलत और शानो-शौकत उनके किरदार को ऊंचा नहीं छोटा बना देती है उनकी असलियत सामने आती अवश्य है हर कोई जानता है उनके महल गरीबों की लाशों पर बने हैं उनकी अवैध संपत्ति काली कमाई कारनामे सभी समझते हैं। ऊपरवाला भी हिसाब लिखता है। 
 
 
ये सच जिनको उजागर करना चाहिए जब देखते हैं उनका भाईचारा नेताओं अधिकारियों और प्रशासनिक कर्मचारियों से है और उनके वीडियो किसी का विज्ञापन किसी अधिकारी की चाटुकारिता उसकी महिमा का बखान करने पर केंद्रित हैं तब निराशा होती है। अपना कर्तव्य ईमानदारी से निष्पक्षता से निभाना है तो देश जनता समाज की सच्चाई सामने लानी ही होगी।
भटक गए हैं तो अभी भी सही राह पर चल सकते हैं अन्यथा झूठ को सच साबित करना कोई महान कार्य नहीं है।

मई 24, 2022

ग़लत सवाल का जवाब है बस ख़ामोशी - डॉ लोक सेतिया

      क्या हो पूछते हैं , मैं कौन हूं , नहीं जानते लोग ( उलझन ) 

                           डॉ लोक सेतिया 

    दुनिया करे सवाल तो हम क्या जवाब दें , तुम को न हो ख़्याल तो हम क्या जवाब दें । मीना कुमारी की फिल्म " बहू - बेगम " का ये गीत मैंने कॉलेज में रैगिंग के दिन सुनाया था शायद हमेशा से मेरे मन में ये बात रही है वर्ना कितने और गीत मुझे पसंद थे जिनको सुना सकता था । ज़माना बदलता रहा लेकिन दुनिया का तौर नहीं बदला कभी भी कितनी अजीब बात है हर कोई पूछता है क्या हैं आप कभी कोई समझना नहीं चाहता जानने की ज़रूरत नहीं समझता कि कौन क्या है । ग़ालिब को कहना पड़ा हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है , तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़ ए गुफ़्तगू क्या है। दुनिया तेरे बाज़ार से अजनान हूं मैं नहीं कोई ख़रीदार न ही बिकने वाला बाज़ारी सामान हूं मैं। सवालों से परेशान नहीं हैरान हूं मैं , सब होशियार हैं इस ज़माने में , नासमझ और नादान हूं मैं। सियासत और अदावत की दुनिया में मुहब्बत की अहमियत कुछ भी नहीं है खोटे सिक्के चलते हैं खरे की पहचान नहीं है , चलन में नहीं शराफत ईमानदारी और सच्चाई आजकल। काश सवालात करने वालों को खुद अपने बारे में मालूम होता कि उनकी वास्तविकता क्या है। जो दिखाई देते हैं जो कहलाना चाहते हैं जो सोचते हैं हम हैं दरअसल हो नहीं सकते उनकी विडंबना है झूठी ज़िंदगी जीते हैं दो किरदार निभाते हैं समाज में कुछ और एवं वास्तविक जीवन में उस के विपरीत। ये महलों ये तख्तों ये ताज़ों की दुनिया ये इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है। लोग खुद को नहीं समझते दुनिया को समझने की बात करते हैं मैंने खुद को समझने जानने की कोशिश की है किसी और को समझने समझाने की फ़ुर्सत नहीं है।  
 
गलत सवालात के उतर कैसे सही हो सकते हैं उन सवालों को छोड़ देना उचित है अन्यथा जवाब की जगह इक सवाल पर हज़ार सवाल खड़े हो जाएंगे। ख़ामोशी का अर्थ ये नहीं कि हमको मालूम नहीं उनके पूछने का मकसद क्या है खामोश रहते हैं कि किस किस को कितनी बार समझाएं असली मुद्दा क्या है। जब लोग बचना चाहते हैं सच से तब सच पर सवाल खड़े करते हैं। बज़ुर्ग कहते थे जहां सलीके से बात नहीं हो रही हो और लोग असभ्य भाषा और कुतर्क का उपयोग करने लगें उस महफ़िल में चुप रहना ही बेहतर है। जब लोग सिर्फ यही सोचते हैं कि क्या हैं आप जानना नहीं चाहते कौन हैं आप तब उनसे वार्तालाप से कुछ हासिल नहीं हो सकता है। 
 

 
 

      

 
 

मई 16, 2022

मज़ाक मज़ाक में देश बर्बाद किया ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  सब बर्बाद हुआ किसलिए ( शहंशाह की मौज ) डॉ लोक सेतिया 

शहंशाह को मज़ाक पसंद है ख़ास कर जिनको पसंद नहीं करते उनका उपहास करना किसी को ज़ख़्मी कर उस के घाव पर मरहम लगाने के नाम पर नमक छिड़कना उनको लगता है शासन करने का मज़ा इसी में है। उनके सभी झूठ देश की जनता के साथ गंदे मज़ाक ही होते हैं और कुछ भी नहीं सत्ता का नशा चढ़ता है तो मदहोशी की नहीं सुरूर की बात होती है। तोडना फोड़ना मनचाहे ढंग से मिटाना अहंकार गरूर की बात होती है। शासकों को सचिव से भरोसेमंद और कोई नहीं लगते हैं सचिव की हैसियत सचिवालय से बढ़कर होती है और हर सत्ताधारी का सचिव उसको भगवान से बढ़कर लगता है। शासन करते चुनाव जीतते बहुमत हासिल करते समय का पता ही नहीं चला तो इक दिन शहंशाह को सचिव ने अनुरोध किया उनकी जीवन कथा लिखनी ज़रूरी है। शहंशाह खुद नहीं लिख सकते सचिव जानते हैं सरकारी बाबू भी ये काम नहीं कर सकते जिन कलम वालों को शहंशाह ने खरीदा हुआ है उनकी लिखी जीवनी पर दुनिया यकीन ही नहीं करेगी। काफी सोच विचार कर इक निर्भीक साहित्यकार का चयन किया गया खोजबीन कर मिल ही गया कोई। शर्त थी लिखने वाले की यही कि जनाब को अपनी जीवन कथा लिखवानी है तो लिखने वाले को सच सच बताना होगा और उसकी किसी बात से खफ़ा बिल्कुल नहीं होना बल्कि सही आलोचना करने पार ठीक उसी तरह तालियां बजानी होंगीं जैसे लोग प्रशंसक उनके झूठ सुनकर बजाते रहे हैं । साहित्यकार ने बताया लोग आपको जैसा समझते हैं अगर आप साबित कर सकते हैं कि वैसे नहीं हैं और आपकी जीवनी का हर अध्याय दुनिया को अचरज में डाल कर चौंकाता हो तब कौतूहलवश सभी पढ़ना चाहेंगे अन्यथा किसी सरकारी लायब्रेरी की अलमारी में आत्मकथा दम तोड़ती रहती है। शहंशाह हमेशा सन्यासी होने की बात कहते रहे हैं सोचा अपने तमाम झूठों पर पर्दा डालने को इस एक बात को सच साबित करना उचित होगा। जीवन कथा उसी अवसर पर छपवाना तय किया गया क्योंकि जब सब त्याग कर जा रहे हों तब खोना क्या पाना क्या। शहंशाह की बात उन्हीं के शब्दों में ध्यान पूर्वक पढ़िए।
 
मैंने रिश्ते नाते सब छोड़ दिए थे परिवार पत्नी भाई मां सबको त्याग कर दर दर भटकता रहा भीख मांग कर गुज़र बसर करता रहा। किस्मत से मुझे सिकंदर बना दिया नासमझ लोगों ने ख़राबहाल बंदे के ख़्वाब बर्बादी को ख़त्म कर खानाबादी लाने की बात पर भरोसा कर अपनी बदनसीबी को खुद बुला लिया। भटकते भटकते मुझे आभास हुआ था कि लोग भौतिकता के जाल में धन दौलत मोह माया में राम नाम जपना भूल गए हैं। आधुनिक शिक्षा ने उनको सही मार्ग से भटका दिया है तभी जिस को खुद अपनी मंज़िल की खबर नहीं उस से राह पूछने की मूर्खता करने लगे थे। राजनेताओं से जनता की भलाई की उम्मीद करना बिल्ली से दूध की रखवाली जैसा काम था। चौकीदार बनकर चोरी करना नेताओं की फ़ितरत होती है। मैंने बहुत कमाल के तौर तरीके से जो कुछ भी पहले शासक बनाते रहे उन सब संगठनों संस्थाओं को मर्यादाओं को एक एक कर छिन्न भिन्न कर दिया और इस ढंग से टुकड़े टुकड़े कर दिया जिस को कोई फिर जोड़ नहीं सकेगा। देश समाज बर्बाद हुआ तो लोग कब तक आबाद रहेंगे उनको भी तबाह होना ही होगा धीरे धीरे। लेकिन ऐसे में उनको अपनी बर्बादी पर जश्न मनाने की आदत बनानी पड़ेगी और समझना होगा जब शहंशाह और सिकंदर ख़ाली हाथ दुनिया से रुख़सत होते हैं तो उनको पैसा और साज़ो-सामान की चिंता छोड़ राम नाम जपने और खाली पेट भजन कीर्तन करने का महत्व समझना होगा। 
 
लिखने वाला समझ गया उपरवाले की माया है उस ने किसी को दुनिया बसाने को भेजा होगा शुरआत में     कभी अब जब लगा कि ये दुनिया किसी काम की नहीं तो बर्बाद करने को इक शहंशाह को भेज दिया।
वास्तव में जब तक लोग ऊपरवाले ईश्वर को अपना विधाता समझते रहे उसको भी दुनिया की फ़िक्र होती थी लेकिन जब लोग खुद भगवान बनने लगे अपना भगवान यहीं धरती पर किसी को बनाने लगे तब दुनिया का अच्छा रहना संभव नहीं था। असली भगवान से नकली भगवान की तुलना नहीं की जा सकती है। हुआ ऐसा कि लोगों ने नकली मुखौटे लगाकर भेस बदलने वाले बहरूपिए को असली समझ लिया और उस की चिकनी चुपड़ी बातों में आकर अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य किया। गांव गांव शहर शहर गली गली चेहरा बदल भगवान बनकर लोगों की भावनाओं से खेल बहरूपिए अपना पेट भरते थे उनको महनत करना नहीं आता था मुफ्त भीख मांगने की आदत होती थी। शहंशाह ने शुरुआत नकली शासक बनकर नकली लालकिला बना भाषण देने से ही की थी। 
 
काठ की हांडी बार बार चढ़ाने का जादू पहली बार देखा है दुनिया ने। अब भला इस से बढ़कर खराब हाल क्या होंगे कि लोग अपने क़ातिल को मसीहा समझते हैं उसकी चाटुकरिता करते करते वास्तिक भगवान को भुलाकर उसकी भक्ति करते हैं। लोग मनोरंजन और खेल तमाशों से इस हद तक बहलने लगे हैं कि उनको मालूम नहीं पड़ता कि कब कोई बहरूपिया रूप बदल कर उनको तमाशा दिखलाते दिखलाते तमाशाई से तमाशा बना गया है। उसकी तरह झोला उठाकर सन्यासी बनना सबके बस की बात नहीं है। लेकिन शहंशाह बने बहरूपिए की ज़िद है सबको लोभ मोह माया छोड़ सन्यासी बनाने की। जीवनी लेखक ने जैसा कहा शहंशाह की कथा ने सबको सकते में डाल दिया है जब जनाब जाने किधर चले गए हैं। पर लिखने वाला स्तब्ध है कि असलियत जानकर भी लोग नाराज़ नहीं है उस नकली भगवान बने बहरूपिए को उसके बनवाये मंदिरों में मूर्तियां लगाकर आरती पूजा करने लगे हैं। उसकी लीला वही जाने कहते हैं फिल्म वाले इक और नई फ़िल्म बनाने पर विचार कर रहे हैं। बदलता कुछ नहीं नाम चेहरे बदलते रहते हैं इसी को राजनीति और लोकतंत्र कहते हैं।  


मई 13, 2022

सब कुछ पास , फिर भी ख़ाली हाथ ( खरी - खरी ) डॉ लोक सेतिया

  सब कुछ पास , फिर भी ख़ाली हाथ ( खरी - खरी ) डॉ लोक सेतिया 

बहुत दिन से आजकल के दौर के हालात को देख परेशान था। 

शीर्षक लिखते ही डॉ बशीर बद्र जी की ग़ज़ल का इक शेर ज़हन में आ गया। 

" कई अमीरों की महरूमियां न पूछ कि बस , गरीब होने का एहसास अब नहीं होता। " 

                        चलो आपको पूरी ग़ज़ल ही सुनाते हैं। 

अदब की हद में हूं  , मैं बेअदब नहीं होता , 
तुम्हारा तज़्किरा अब रोज़ो-शब नहीं होता। 
 
कभी-कभी तो छलक पड़ती हैं यूं ही आंखें ,
उदास होने का कोई सबब नहीं होता। 
 
कई अमीरों की महरूमियां न पूछ कि बस ,      
गरीब होने का एहसास अब नहीं होता। 
 
मैं वाल्देन को ये बात कैसे समझाऊं ,               
मुहब्बतों में हसबो-नसब नहीं होता। 
 
वहां के लोग बड़े दिलफ़रेब होते हैं ,             
मेरा बहकना भी कोई अजब नहीं होता। 
 
मैं उस ज़मीन का दीदार करना चाहता हूं ,    
जहां कभी भी खुदा का ग़ज़ब नहीं होता। 
 
जिस बात को लिखने को कितनी किताबें कम पड़तीं शायर ने इक ग़ज़ल में सब कह दिया। शायरी समझना सबको नहीं आता है जहां आह भरनी होती है लोग वाह वाह कहते हैं और जब अश्क़ बहने चाहिएं सुनने वाले जोश से भर कर तालियां बजाते हैं। कभी कभी ग़ज़ल की मुहावरेदार शैली से बात नहीं बनती तब खरी - खरी बात कहने को व्यंग्य की भाषा उपयोग करनी पड़ती है। लोग आलीशान घरों में रहते हैं धन दौलत नाम शोहरत ऐशो-आराम सब हासिल है मगर दिल भिखारी का भिखारी है। हाथ फैलाते रहते हैं मांगने को किसी को देते नहीं कभी कुछ भी यही बदनसीबी है बड़े बड़े उद्योगपतियों कारोबारी घरानों शहंशाहों शासकों धनवान लोगों की। हसरतें अधूरी हैं दुनिया भर की ज़मीन चाहते हैं अफ़सोस आखिर दो गज़ ज़मीन भी मिलना आसान नहीं होता है। 
 
पढ़ लिख कर भी इंसानियत शराफ़त ईमानदारी विनम्रता नहीं सीखी और अहंकार करते हैं अपने बड़े ज्ञानी होने पर। अज्ञानता और छोटापन है किरदार ऊंचाई को नहीं छूता रसातल की तरफ जा रहे हैं अपनी आत्मा को बेचते हैं अमीर होने को। खुद को सबसे जानकार समझने वाले मीडिया अखबार टीवी सिनेमा के लोग पैसे को भगवान समझ झूठ की जय-जयकार करते हैं। दर्शक पाठक को सही मार्ग नहीं दिखलाते बल्कि भाषा से लेकर अभिनय तक में अशलीलता गंदगी और हिंसक बनाने का कार्य करते हैं। समाज को गलत दिशा दिखला रहे हैं अमानवीय आचरण को उचित ठहरा सबको भटका रहे हैं। साहित्य के पुजारी तक राग दरबारी सुना रेवड़ियां पाकर इतरा रहे हैं। 
 
कल डॉ हैम जीनॉट जो बचपन की मनोविज्ञान से संबंधित रहे हैं जिन्होंने विनाश के दृश्य देखे थे बचने के बाद उनकी बात पढ़कर रौंगटे खड़े हो गए। मैं यातना शिविर से बच गया लेकिन जो मैंने वहां देखा कोई भी कभी नहीं देखे। मैंने देखा शिक्षित इंजीनियर गैस चैंबर बना रहे थे मानवता को ख़त्म करने को , फिज़ीशियन ज़हर देकर जाने ले रहे थे , नर्सें छोटे छोटे बच्चों को क़त्ल कर रही थी। उच्च शिक्षित लोग महिलाओं और बेबस इंसानों को बंदूक की गोलियों से मार रहे थे। उन्होंने सलाह दी है कि बच्चों को अच्छे इंसान बनाना केवल शिक्षित मनोरोगी और राक्षस नहीं बनाना किताबी शिक्षा नहीं सामाजिक आदर्शों मूल्यों की वास्तविक समझ देना ज़रूरी है। 
 
आस पास देखते हैं लोग शानदार पहनावा लिबास वाले लेकिन उनका व्यवहार उनका आचरण असभ्य और जंगली जानवर जैसा लगता है। किसी और की कोई परवाह नहीं उनको जो करना है करते हैं और कितना भी आपत्तिजनक कार्य करते उनको कोई शर्मिंदगी नहीं होती है। सत्ता पद पैसे ताकत का दुरूपयोग कर उनको गर्व का अनुभव होता है कहने को धर्म ईश्वर की बातें करते हैं मगर अधर्म करते संकोच नहीं करते हैं। हमारे आस पास कितने रईस लोग वास्तव में बेबस लोगों गरीबों से उनकी मज़बूरी का फायदा उठाकर अमीर बन गए हैं। शासक सरकारी अधिकारी नेता लोग बोलते कुछ हैं होते कुछ और हैं शिकायत करने विरोध करने वालों पर अन्याय अत्याचार करते उनको लज्जा नहीं आती जबकि वास्तव में उनका कर्तव्य जनता की सेवा करना है शासन का रौब दिखाना नहीं। पैसा किसी भी तरीके से कमाया हुआ है कोई नहीं देखता अपराध को बढ़ावा देकर अपराधियों का साथ देकर खुद को बलवान समझते हैं जो सही मायने में भीतर से खोखले होते हैं। 
 
संक्षेप में सार की बात इतनी है कि हमने सच्चाई अच्छाई की राह को छोड़ कर जुगाड़ और छोटा रास्ता चुन लिया है जिस में अमीर बनने शोहरत ताकत हासिल करने सुख सुविधा झूठी शान दिखाने को अपना लिया है। हमारे शब्द शानदार लगते हैं जिनका अर्थ कुछ भी नहीं है बस व्यर्थ की बातों में ज़िंदगी गुज़ार ही नहीं रहे बल्कि जीने का मकसद तक बचा नहीं है। जिधर देखते हैं छल कपट वाले इश्तिहार दिखाई देते हैं मगर दावा यही किया जाता है समाज शिक्षा जनहित कल्याणकारी कार्य है कारोबार नहीं मतलब झूठ की सीमा नहीं है। किसी शायर ने कहा है " वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से , मैं ऐतबार न करता तो क्या करता।

मई 08, 2022

वक़्त के हालात ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

          वक़्त के हालात ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

दिल के जज़्बात यही थे , मेरे तेरे एहसास यही थे 
पास थे और दूरियां थीं , तब भी दिन रात यही थे । 
 
नहीं मिलने की थी मज़बूरी , कुछ कदम की थी दूरी
नज़रें समझतीं थी बस , होंठों पर अल्फ़ाज़ नहीं थे । 
 
डर ज़माने का यही था , मिलते थे मिल पाते नहीं थे 
धड़कनों की आवाज़ यही , जानते थे समझते नहीं थे । 
 
ज़िंदगी कैसे बिताई हमने , दास्तां सुनी सुनाई हमने 
अलग-अलग रहकर भी पर , दिल से बिछुड़े नहीं थे । 
 
प्यार की मज़बूरियां कुछ , कुछ हौंसलों की भी कमी 
थे जुदा  क्योंकि दोनों , इक मंज़िल के राही नहीं थे । 
 
सोचता हूं मैं आज तुम भी , सोचती हो बात यही कि 
ज़िंदगी पर हक़ होता काश , नसीब तो अपने नहीं थे । 
 
वो प्यार था पहला हमारा , याद है हमको वो नज़ारा 
दिल की बातें दिल में रखीं , कहना जो कहते नहीं थे । 
 
सोचता रहता हूं मैं जो , क्या तुम्हें भी महसूस होता है 
आज कुछ और बात है , मगर हालात कभी ऐसे नहीं थे । 
 

 

मई 05, 2022

सपनों की दुनिया की तलाश ( दोस्ती - प्यार ) डॉ लोक सेतिया

  सपनों की दुनिया की तलाश ( दोस्ती - प्यार ) डॉ लोक सेतिया 

शायद कोई कहानी कोई उपन्यास कोई नाटक कोई फिल्म बचपन में असर कर गई और मैंने ज़िंदगी उसी दोस्ती - प्यार की तलाश के नाम कर दी। सोचा नहीं समझा नहीं कहीं से पता ठिकाना नहीं पूछा कोई डगर नहीं मिली जिस पर कोई नाम लिखा हुआ होता कि यही वो रास्ता है जो मुहब्बत की बस्ती नगर गांव को जाता है। भरोसा था कोई तो होगा जिसको मेरी चाह होगी मुझे ढूंढता होगा। ज़माना ठोकरें लगाकर सबक सिखाता रहा कोई पागलपन बताकर हंसता रहा मगर दिल को भरोसा था कोई कुछ भी कहे मुझे रुकना नहीं है जीवन भर अपनी तलाश जारी रखनी है। इधर उधर भीड़ में सुनसान राहों में खिले हुए गुलशन में उजड़े हुए चमन में धूप में छांव में रेगिस्तान में समंदर में सब जगह तलाश किया यहां तलक कि फेसबुक इंटरनेट पर वास्तविक दोस्ती की उम्मीद कर मृगतृष्णा का शिकार हो प्यास से निढाल हुआ। दोस्त बनाए मिले बिछुड़े और हक़ीक़त और ख़्वाब की बात समझ आती गई। सोशल मीडिया से आधुनिक साधन से इंटरनेट से गूगल से सर्च की खबर पता चली तो अचानक विचार आया ये ख्याल पहले क्यों नहीं आया। बस और समय बर्बाद नहीं करना जहां खुली आंख वही सवेरा समझते हैं सोचकर इस को आज़माया है। 
 
गूगल से पूछने पर सब मिलता है इश्तिहार देखा कितनी बार , ढूंढा कोई गली कोई सड़क कोई बस्ती कोई गांव कोई नगर कोई जगह जहां वो दुनिया हो जिस में दोस्ती प्यार हो कोई और दुनियादारी का झगड़ा कोई पराया बेगाना कोई छोटा बड़ा अमीर गरीब का भेदभाव नहीं होता हो। इतने विकल्प बताए गूगल ने बस वही नहीं दिखलाया जिसकी बात की थी। अचानक ध्यान आया कोई मंदिर कोई पीर पैयम्बर की जगह कोई नदी तालाब जहां जाकर मांगने से मुराद पूरी होती हो उसकी खोज करते हैं। धन दौलत नाम शोहरत दुनिया भर की भौतिक वस्तुओं की मनोकामना पूरी होती हैं जहां ऐसे कितने अनगिनत विकल्प सामने थे लेकिन दोस्ती-प्यार जहां मांगने से मिलता हो कोई ऐसा स्थल कहीं नहीं था। जाने कैसे इक अजनबी से वार्तालाप हो गई जिस ने अंतरिक्ष में खोज करने में ज़िंदगी भर काम किया हुआ था। बहुत सोच समझ कर मेरी तलाश की बात पर गंभीर विमर्श कर उन्होंने कहा कि ज़रूर ऐसी कोई दुनिया हो सकती है लेकिन हमारी इस धरती पर संभव नहीं है। दार्शनिक बनकर समझाने लगे इस दुनिया में हर कोई हर नाते रिश्ते संबंध से जुड़ता है संपर्क में रहता है अपनी इच्छा की पूर्ति की खातिर जिस नाते रिश्ते से कोई लाभ कोई ज़रूरत कोई चाहत नहीं पूरी होती हो उसको छोड़ने में क्षण भर भी देरी नहीं करते हैं। सबको औरों से पाने की हसरत होती है और नहीं मिलने पर शिकायत रहती है। निस्वार्थ दोस्ती-प्यार इस दुनिया में समझदार लोग करते नहीं हैं यहां कोई मूर्खता करने की बात नहीं करता है मूर्खताएं करते हैं मगर मूर्ख कहलाना बनना नहीं चाहते लोग। 
 
 यहां कथाओं कहानियों में प्यार मुहब्बत दोस्ती की बातें मिलती हैं लोग राधा श्याम मीरा घनश्याम से लेकर हीर रांझा सलीम अनारकली की पुराने और कुछ आधुनिक काल की सिनेमा टीवी सीरियल की काल्पनिक कहानियों की बात शान से करते हैं लेकिन वास्तविक जीवन में ये सब किसी काम के नहीं लगते हैं। हर कोई भौतिकता बाहरी शारीरिक सुंदरता और शानो-शौकत का तलबगार है यहां आधुनिक समय में प्यार का भी सजा हुआ बाज़ार है। दिल नहीं जैसे कोई इश्तिहार है दिल टूटता है फिर जुड़ जाता है कहीं किसी और पर आते देर नहीं लगती बसंत की ज़रूरत नहीं बहार की कोई कीमत नहीं वेलेनटाइन का दिन बड़ा शानदार त्यौहार है। फूल कहते हैं इंग्लिश में बुद्धू बनने को रंगबिरंगे फूलों का कारोबार है। प्यार कोई राज़ की बात नहीं है युगों से सदियों से इस खेल की बाज़ी खेलते रहे हैं सब कुछ खोने को पाना कहते हैं बंदे का ख़ुदा हो जाना कहते हैं। रूह की आत्मा की एहसास की कहानी होती है जिस्म की बात बेमानी होती है जहां जिस्मानी वासना की ख़्वाहिश होती है मुहब्बत भूली बिसरी कहानी होती है। 
 
चाहत इक ईबादत है उसको ज़रूरत और आदत बनाया तो क़यामत होती है। दिल मिलना नसीब की बात होती है इश्क़ की चांदनी रात अश्कों की बरसात होती है बड़ी हसीन वो मुलाक़ात होती है लफ़्ज़ों से नहीं आंखों आंखों में बात होती है। वो मुलाक़ात बड़ी मुद्दत के बाद होती है। सच्चा प्यार सबके मुकद्दर की बात नहीं है झूठी हसरतों ने हर किसी को भटकाया है जिस ने पाने को प्यार समझा है प्यार को नहीं समझ पाया है खुद को खोया है जिसने उसी ने मुहब्बत का ख़ुदा पाया है। प्यार तो दर्द का रिश्ता है इश्क़ से आदमी बनता कोई फ़रिश्ता है। ज़मी पर फ़रिश्ते जब उतरते हैं लोग सब इक दूजे से प्यार करते हैं। चली जब से नफरतों की आंधी है प्यार की अर्थी उठाए फिरते हैं लोग वो कोई और चीज़ है जिसको आशिक़ी समझते हैं लोग। किसी की पलकों से किसी के दामन पर गिरकर मोती बनता है कोई आंसू कीमत उसकी नहीं कोई लगा सकता ये गली है जिस में और कोई दूसरा नहीं समा सकता। 
 

 

मई 02, 2022

ख़ुद से मुलाकात नहीं होती ( सुकून की तलाश ) डॉ लोक सेतिया

   ख़ुद से मुलाकात नहीं होती ( सुकून की तलाश ) डॉ लोक सेतिया 

  होती है ज़माने से मगर अपने से बात नहीं होती है , इन उजालों में वो बात नहीं होती है शहर में कभी चांदनी रात नहीं होती है। सुबह कब हुई कब हुई शाम खबर नहीं , बादल होते हैं बरसात नहीं होती है दोपहर की धूप से बचना मुश्किल है कोई भी दिलकश सुहानी रात नहीं होती है। भीड़ में हर कोई खुश भी है परेशान भी बैचैन दिल को चैन मिलने की राह नहीं मिलती कश्ती किनारों से बच के निकलती है साहिल से मुसाफ़िर का नाता नहीं कोई फूल की खुशबू से पहचान नहीं है बाग़ों की तितलियों से बात नहीं होती है। 

सोचना याद करना यादों की मधुर बातों को कभी फुर्सत ही नहीं है उन झरोखों से झांककर देखने की। क्या दिन से महफ़िल से उकताहट होती थी तो कभी छत पर कभी खेत खलियान में अकेले पेड़ों की छांव में जा कर चैन मिलता था खुद अपने आप से बात करते थे। गाते गुनगुनाते कभी तन्हाई में अश्क़ बहाते चैन पाते थे अपने दुःख दर्द भरे मौसम छोड़ बहार लाते थे। दोस्तों की महफ़िल में नाचते झूमते गाते थे दिल को इस तरह बहलाते थे अश्कों के मोती बेकार नहीं बहाते थे। शाम ढले सुनसान राहों पर चलते चले जाते थे किसी नहर किनारे लहरों से बतियाते थे। ये कोई पागलपन नहीं था ये खुद को समझने चिंतन मनन करने का ढंग होता था। पढ़ना लिखना याद करना हो तो बाग़ में जाकर बैठते पेड़ से लगकर घंटों गुज़र जाते थे घर हॉस्टल में पढ़ना लिखना मुश्किल लगता था जब कमरे में लोग आते जाते आवाज़ लगाते थे बस करो कितना पढ़ोगे दोस्त मुश्किल बढ़ाते थे। 
 
  अब आजकल हर कोई अकेला है फिर भी दुनिया भर की बेमतलब की बातें बेचैन किए रखती हैं। सोशल मीडिया टीवी फेसबुक व्हाट्सएप्प जाने कितने झंझट जकड़े हुए हैं। आदत लत बनी नशा बन गई है दुनिया भर की खबर है लेकिन कितनी झूठी कितनी सच्ची नहीं समझते और खुद अपने आप से अजनबी हैं। खुद को जानते पहचानते नहीं खुद अपने से मिलते नहीं सोचते नहीं क्या हूं मुझे किधर जाना क्या करना है बस दौड़ रहे हैं भागते भागते थक गए मगर मंज़िल का कोई पता नहीं शायद मंज़िल से दूर होते जाते हैं उलटी दिशा को चलकर। ऋषि मुनि तपस्वी पहाड़ों पर जाते थे जीवन का अर्थ जीने का मकसद ढूंढने को , हम गांव शहर महानगर से पर्वत की सैर करने जाते हैं मौज मस्ती आनंद के कुछ पल व्यतीत करने को। और कुछ दिन बाद वापस उसी कोलाहल में आनंद का एहसास भूलकर बेचैनी को गले लगाते हैं। आदमी की बनाई इस दुनिया ने उसको वास्तविक कुदरती दुनिया से इतना दूर कर दिया है कि अब उस वास्तविक सुकून चैन आनंद की अनुभूति संभव नहीं रही है। मनोवैज्ञानिक शोध कर चौंकाने वाले तथ्य सामने ला रहे हैं असुरक्षा अनावश्यक भय आशंकाओं ने मन मस्तिष्क को घेर लिया है। हर कोई हर किसी को अविश्वास और शंका की निगाह से देखता है। सही बात का कोई और मतलब ढूंढते रहते हैं हमने खुद को इक जेल में कैद कर लिया है और फेसबुक व्हाट्सएप्प की अंधी गली को रौशनी समझने लगे हैं। कहने को कितने शानदार संदेश मिलते हैं भेजते हैं लेकिन आचरण में उनका कोई प्रभाव नहीं होता है। गंधारी की तरह सब लोग अपनी आंखों पर पट्टी बांधी हुए हैं स्वार्थ खुदगर्ज़ी की , लेकिन संजय धृतराष्ट्र को गीता का संदेश सुना रहे हैं जबकि उनका ध्यान मोह माया जीत हार और महाभारत की घटनाओं का आंकलन अपनी सुविधा से करने में लगा है। आधुनिक काल में महाभारत का स्वरूप बदला है गीता का अर्थ बदला है गीता का उपयोग जाने किस किस उद्देश्य से किया जाने लगा है। बगैर समझे ताली बजाना सर हिलाना आदत बन गया है। सोशल मीडिया ने दुनिया को इस ढंग से पेश किया है कि पांव आसमान पर सर धरती पर है मगर उड़ान कहते हैं रसातल की ओर जाने को। जिनको खुद अपनी पहचान नहीं है सबको उनकी तस्वीर दिखलाते हैं । बिकने वाले लोग खरीदार कहलाते हैं। तलवे चाटते हैं दुम हिलाते हैं। अंधे दुनिया को नई राह बताते हैं।