जून 13, 2025

POST : 1985 धुंध से आना धुंध में जाना ( शून्य से शून्य तक ) डॉ लोक सेतिया

 धुंध से आना धुंध में जाना  ( शून्य से शून्य तक  ) डॉ लोक सेतिया 

भला कीजे भला होगा , बुरा कीजे बुरा होगा , 
बही लिख लिख के क्या होगा ,  यहीं सब कुछ चुकाना है ।
 
संवेदना खो जाती है जब लोग किसी अनहोनी पर खामोश नहीं रहते बल्कि शोर शराबा करने लगते हैं । किसी ख़ास घटना की बात नहीं कर रहा वास्तव में हर घड़ी हर दिन किसी न किसी विचलित करने वाली बात पर लोग सोचे समझे बगैर निष्कर्ष निकालने लगते हैं । कुछ अपने कारोबार का विस्तार तलाश करते हैं और उसी को लेकर आपको रौशनी नहीं दिखाते अंधेरे में अंधविश्वास की राहों पर लाने का प्रयास करते हैं । नासमझ लोग दिन समय की संख्या से ढूंढते हैं कभी उसी अंक से क्या जोड़ा जा सकता है । कुछ लोगों को हर घटना  को ग्रहों की स्थिति से जोड़ने का हुनर आता है आपको दिन में तारे दिखाना उनका व्यवसाय है । कभी कभी जब अधिकांश साधारण लोग स्तब्धता में निःशब्द होते हैं तब भी तमाम लोग सोशल मीडिया पर पोस्ट फोटो वीडियो और कुछ अधकचरी जानकारी देते हुए अपनी वाणी अपनी लेखनी से खुद भटकन का शिकार हो आपको भी भटकाने की कोशिश करते हैं । मकसद कुछ नहीं खुद को सुर्ख़ियों में रहने की चाहत होती है । कोई आपको किसी धार्मिक किताब की बात करता है तो कोई अचानक किसी पुरातन युग की किसी की बात का मतलब अपनी सुविधा से निकालता है ये साबित करने को कि ऐसा कभी घोषित किया गया था । 
 
आपको अजीब लग रहा है ये क्या बात कहना चाहता हूं , मुझे भी समझ नहीं आता की कुछ भी समझना नहीं सिर्फ समझाना किसको किस लिए सभी चाहते हैं । कभी किसी ने परामर्श दिया था इक किताब को पढ़ना जब कुछ भी समझ नहीं आता हो कोई रास्ता दिखाई देगा उसे पढ़ कर अर्थ जानकर । कोई धार्मिक किताब नहीं है कोई आस्था अनास्था का विषय नहीं है , कभी सदियों पहले जाने कैसे कुछ लोगों ने लोककथाओं और नीतिकथाओं जैसी आसानी से समझ आने वाली कहानियों से जीवन का ढंग और सही मार्ग दिखलाने को उनका संकलन किया था । बड़े बूढ़े बज़ुर्गों की अनुभव की समझ से बताई बातों का गहन मतलब निकलता था जैसे किसी पिता का अंतिम समय बेटों को गढ़े धन का रहस्य बताना उनको मेहनत करने को विवश करता है । कुछ ऐसी इक कथा है जिस में जैसा करोगे वैसा पाओगे की बात कही है , ऊपरवाले की लाठी से कितनी बातें हैं शामिल उस में कितने उदाहरण हैं कितने निहितार्थ हैं । 
 
  पहले भी कितनी बार मैंने लोक - कथाओं , नीति - कथाओं से पौराणिक कहानियों , पंच तंत्र की कहानियों की चर्चा की है जो जैसा करता है परिणाम उसी तरह मिलता है । समाज सरकार से प्रशासन तक जब सभी मार्ग से भटक कर अपने अपने स्वार्थों में अंधे होकर विनाश की राह चलने लगे हैं तो परिणाम विनाशकारी मिलना है स्वीकारना ही पड़ेगा । बोया पेड़ बबूल का आम कहां से खाय , शासक वर्ग धनवान लोग ताकतवर लोग जब निरंकुश होकर मनमानी करते हैं तब खुद उनका नहीं देश समाज का हाल बर्बादी के सिवा कुछ भी नहीं हो सकता है । ऐसे शासकों का गुणगान करना अनुचित को उचित बताना भले किसी लोभ से हो अथवा किसी डर से अनुचित ही होगा । आपकी कथनी जैसी है करनी भी उसी जैसी होनी चाहिए । जब तमाम लोग पाप और अपराध को उचित बताने लगते हैं तब समाज को कुमार्ग को अग्रसर करते हैं चाहे बाद में पछताते हैं । अब पछताए क्या होत , जब चिड़िया चुग गई खेत । हैरानी की बात है जिसे भी देखते हैं उसी डाल को काटने में लगा है जिस पर बैठा हुआ है ,  हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम ए गुलिस्तान क्या होगा । ये सभी कहावतें सामने सच हुई खड़ी हैं फिर भी हम अनजान हैं परिणाम से तो क्या हासिल होगा । समाज शासन प्रशासन और आदमी जैसा व्यवहार करते हैं नियति वैसा ही परिणाम देती है । 
 
कभी ऐसा भी होता है शासक से लेकर साधरण जन सामान्य तक अपने मार्ग से भटक कर झूठ की राह पर चलने लगते हैं और अन्याय अत्याचार के पक्ष में दलीलें देने लगते हैं । ईश्वर से धर्म तक को लेकर सभी उपदेश देते हैं आचरण विपरीत करते हैं । विधाता अथवा कुदरत प्रकृति अपना न्याय अपना कर्तव्य निभाने को इस तरह से दुनिया को डांवाडोल करते हैं जैसे धरती आकाश हवा सागर से जीव जंतु पेड़ पौधे सभी का ढंग परिवर्तित होकर भयभीत करता है । आपको मालूम है चेतावनी की बात समझना ज़रूरी होता है , खेद है हमने समझना छोड़ दिया है जब रौशनी करने वाले आग लगाते हैं और ऐसी भीषण आग से घना अंधकार फैलता है तब सभी कुछ ख़ाक़ में मिल जाता है जलकर राख़ हो जाता है । आपको विज्ञान हर चीज़ का कारण कभी नहीं बता पाएगी क्योंकि विज्ञान अथवा आर्टिफीसियल इंटेलीजैंस की इक निर्धारित सीमा है जितना उस में भरा गया है उसी से कुछ अंश निकलते हैं जबकि अंतरिक्ष की तरह सृष्टि और धरती पाताल से गगन और उस के बीच शून्य की कोई सीमा कोई नहीं जानता है । जब कुछ ऐसा घटित होता है जिस से हम लोग चकित रह जाते हैं तब कभी नहीं समझते कि कुछ भी होता है तो पीछे कोई कारण होता है , मगर हमारी सोच नज़र सिर्फ इक दायरे तक जाती है उस पार नहीं जानते कितना रहस्य अभी जिस से अनभिज्ञ है संसार । क्या हमने ईश्वरीय शक्ति को मानना छोड़ दिया है , अगर नहीं तो जब समाज का हर वर्ग सही मार्ग छोड़ किसी न किसी गलत मार्ग पर चलने लगा है तब वह सर्वशक्तिमान सब देख कर अनदेखा कैसे कर सकता है । कुछ भी उसकी मर्ज़ी बिना नहीं होता तो किस अपराध पाप की सज़ा मिलती है समाज को अनहोनी घटनाओं के रुप में सोचने और चिंतन की बात है । शायर साहिर लुधियानवी जी की रचना फिल्म धुंध का गीत है , किसी ने कोशिश की है उस को विस्तार देने की मगर मुझे ज़रूरत नहीं कुछ जोड़ने घटाने की , उनकी बात अपने आप संपूर्ण है पढ़िए और समझिए । 
 
संसार की हर शाय का इतना ही फ़साना है   , 
इक धुंध से आना है इक धुंध में जाना है ।  
 
ये राह कहां से है ये राह कहां तक है  , 
ये राज़ कोई रही समझा है न जाना है ।  
 
इक पल की पलक पर है ठहरी हुई ये दुनिया , 
इक पल के झपकने तक हर खेल सुहाना है ।
 
क्या जाने कोई किस पर किस मोड़ पर क्या बीते , 
इस राह में ऐ राही हर मोड़ बहाना है ।   
 
हम लोग खिलौना हैं इक ऐसे खिलाड़ी का , 
जिस को अभी सदियों तक ये खेल रचाना है ।  
 
 Sansaar Ki Har Shay Ka Itna Hi Fasana Hai| By Dr.Sabina Toppo|Mahendra  Kapoor|Dhund|Old Is Gold|Ravi - YouTube
 

जून 12, 2025

POST : 1984 राजनीति की आत्मकथा ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया

    राजनीति की आत्मकथा ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया  

ये पुरातन काल की बात है  , देखा तो नहीं ऐसा भी ज़माना हुआ करता था लोग वास्तव में आदमी जैसे कार्य किया करते थे । जनता खुशहाल थी शासक कभी चैन से नहीं रहते थे उनको खुद अपनी नहीं देश राज्य और समाज की फ़िक्र सताती थी । अच्छा शासक प्रशासक होना कदम कदम इक इम्तिहान से गुज़रना होता था और कोई भी तानाशाह अत्याचारी शासक कहलाना कभी नहीं चाहता था । राजा होकर भी जनता की सेवा अपना धर्म समझते थे कोई राजधर्म पढ़ाया समझाया जाता था जिस का पालन अपना सभी कुछ न्यौछावर कर भी करना ज़रूरी जाये , प्राणों से प्रिय था अपना कर्तव्य पालन करना । ऐसा करने में कोई सुख सुविधा नहीं मिलती थी दिन रात परिश्रम करते थे मगर इक अनुभूति आत्मिक शांति मिलती थी जिसे सभी ऐशो आराम से बढ़कर समझा जाता था अनमोल रत्न की तरह । सत्ता का सिंहासन फूलों की सेज नहीं हुआ करता था सर पर ताज होना शान नहीं उत्तरदायित्व की निशानी हुआ करता था । शासक अपना उत्तराधिकारी घोषित करने से पहले विचार करते थे जिसे ये उत्तरदायित्व सौंपना है वो कितना काबिल और देश राज्य जनता के प्रति सच्ची निष्ठा रखता है । समय करवटें बदलता रहा और शासक सत्ता और ताकत में अपना विवेक खोकर अहंकारी और क्रूर बनते गए । लेकिन कोई भी अन्यायी शासक अधिक काल तक शासन नहीं कर पाया और सभी का अंत आखिर होना ही था , जो बोया वही काटना पड़ता है यही युग युग का विश्व का इतिहास रहा है । 
 
राजा रजवाड़े जागीरदार नहीं रहे और दुनिया में तमाम तरह के शासनतंत्र स्थापित हुए और आखिर जनता ही देश राज्य की भाग्यविधाता है ऐसा स्वीकार करना ज़रूरी हो गया । हमारे देश में जिस लोकतंत्र को अपनाया गया उस में वक़्त के साथ बदलाव होते होते लोक कहीं खो गया और सिर्फ तंत्र ही बचा है जो निरंकुश है और निर्जीव संवेदना रहित किसी मशीन की तरह काम करता है और ऐसी प्रणाली है जो उनकी सुरक्षा करती है जो मशीनी लोकतंत्र के चालक हैं और जिस जनता की भलाई की खातिर बनाया गया था उस जनता को रौंदती है कुचलती है और ऐसा कर किसी खलनायक की तरह अट्हास करती है । यही मेरी पहचान है मुझे देश की राजनीति कहते हैं । होती होगी कभी देशसेवा जनकल्याण की राजनीति अब वो कहीं नहीं है जैसे कोई करंसी नोट चलन से बाहर हो जाता है तब उसकी कीमत रद्दी की आंकी जाती है कोई ख़रीदार नहीं होता बस कुछ सिरफिरे लोग निशानी की तरह संभाल कर रख लिया करते हैं । लेकिन राजनीति में ऐसा करना किसी अपराध से कम नहीं है छुपाकर रखने पर भी जान का जोख़िम बना रहता है सत्ताधरी उसकी चिता की राख तक को रहने नहीं देते हैं । 
 
राजनेता क्या हैं कैसे बनते हैं और चाहे किसी भी दल की हो राजनीति कैसे की जाती है  , आपको लाखों राजनेताओं की कहानी जीवनी पढ़नी ज़रूरी नहीं है ये इक राजनेता की आत्मकथा है जो वास्तव में सभी की सही तस्वीर है । फ़रेबीलाल नाम रखते हैं असली का क्या करना है फरेब उनका चरित्र है , फ़रेबीलाल को कुछ भी पसंद नहीं था पढ़ना लिखना सोचना समझना और मेहनत करना तो बिल्कुल भी नहीं भाता था । फ़रेबीलाल बचपन से लूटकर छीनकर या मांगकर खाता था उसको ये महान कार्य लगता था और खुद को बड़ा नायक समझता अपने अभिनय पर गर्व करता लोग तालियां बजाते वो इतराता था । काश इक दिन वही दुनिया का मालिक भगवान बन जाये ऐसे सपने देखता और दिखलाता था , वो कोई नई दुनिया बनाएगा सभी को ख्वाबों से बहलाता था । नसीब ने उसको क्या से क्या बना दिया बड़ा शासक बनाकर सत्ता पर बिठा दिया , ज़हर को ज़हर का ईलाज समझ जनता ने ख़ुशी ख़ुशी निगल लिया जाने कैसे हज़्म हुआ किस तरह से पचा लिया । उसका ज़हर भी मिलावटी निकला मरने को खाया मगर मौत भी नहीं आई , वो आशिक़ था या कोई खूबसूरत हसीना थी महबूबा थी जो भी था निलका हरजाई । राजनेता बनकर शैतान बन गया है जैसे कोई देवता लगता था शैतान बन गया है , जो आया था अपने घर आसरा मांग कर अब मालिक समझता खुद को ऐसा मेहमान बन गया है । कभी भी किसी को घर लाओगे राजनीती का खिलाड़ी निकला तो बहुत पछताओगे ज़िंदगी बीत जाएगी सोचते रह जाओगे , अतिथि तुम कब जाओगे । 
 
 
 
 राजनीति का कड़वा सच - Divya Himachal

जून 08, 2025

POST : 1983 शोध प्यार के फूलों पर ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      शोध प्यार के फूलों पर ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

पीएचडी के लिए इक छात्र ने ये विषय चुना है उसने अपनी नानी से कभी इक कहानी सुनी थी कोई पौधा होता था जिस पर प्यार के फूल खिलते थे और समय आने पर खूब फलता फूलता था दो तरह के फल लगते थे भाई बहन कहलाते थे ।  पूरी की पूरी कहानी दो लोगों के प्रेम से विवाहित जीवन को दर्शाती थी लेकिन सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्यार के फूलों के खिलने का मौसम और मुहब्बत के गुलशन में बहार आने की बात को लेकर छात्र को ज़रूरी लगा तो उसने तलाश करना शुरू किया कहीं ऐसा कोई फूल खिला दिखाई दे जाये । छात्र ने अपने मामा जी से पूछा आपको माता जी ने कुछ पहचान बताई होगी अगर याद है तो मुझे आसानी होगी । मामा जी कुछ दार्शनिक प्रकार के थे उन्होंने समझाया नानी दादी की कहानियां वास्तविक जीवन में नहीं मिलती हैं उनकी काल्पनिक सपनों की दुनिया हुआ करती थी जिस में परियां झरने पंछी चिड़िया फूल बंदर रहते थे । बाद में कुछ कवियों ने कविता लिखी प्रेम को पवित्र भावना बतलाया तो कुछ लिखने वालों ने प्यार को त्याग का नाम देकर उसे भगवान बनाया । प्यार वास्तव में धरती पर नहीं पैदा हुआ था कोई उस को स्वर्ग से लेकर आया और धरती को बड़ा खूबसूरत बनाने को अपना मकसद बनाकर जीवन बिताया । जाने कहां से कोई आया जो नफरतों की आंधी साथ लाया उसने प्यार के फूलों को मसला कुचला उस गुलशन को तबाह बर्बाद किया और अपना इक महल बनाकर खिलखिलाया । 
 
कितनी किताबें पढ़ कर दुनिया भर में प्यार की निशानियां ढूंढ ढूंढ देख समझ कर शोधग्रंथ बनाया है अभी तक उसको ढाई आखर का मतलब नहीं समझ आया है । खुद उसने इस बीच किया प्यार और धोखा खाया है खुद जिस को नहीं समझ पाए दुनिया को समझाया है । कभी लोग नासमझ थे नादान थे दुनियादारी से बिल्कुल अनजान थे कोई अपना था न ही पराया था जिस किसी ने बात की सभी को अपनाया था । प्यार क्या होता नफरत कैसे कोई नहीं जानता था घर गली गांव बस्ती सभी की बात सच है हर कोई मानता था । झूठ बोलना पाप कहलाता था हर आदमी ईमान से रखता नाता था । मगर इक दिन किसी वीराने में कोई चमकदार चीज़ नज़र आई थी बस उसी देख नीयत डगमगाई थी अपनी सभी ने बतलाई थी जानते हैं क्या थी वो चीज़ झूठ की परछाई थी । अचानक किसी ने किसी को पास बुलाया था सभी को बताना हमारी बनाई हुई है ये उसको अपना साथी बनाया था । प्यार के रिश्ते की शुरुआत झूठ से होती है ये हक़ीक़त है सच बोल कर कोई किसी से मुहब्बत नहीं कर सकता है , मुझे दुनिया में सबसे अच्छे आप लगते हो तुमसे बढ़कर सुंदर कोई भी नहीं है । प्यार का पहला सबक यही है दो लोगों को लगा दुनिया की सबसे कीमती चमकीली चीज़ हमको मिली है और दोनों उसी को संभालने संवारने लगे रहे उम्र भर । 
 
दुनिया सतरंगी नहीं बहुरंगी अतरंगी है , हर कोई उसी तरह की चीज़ पाने की कल्पना करने लगा और किसी ने कहा है फ़िल्मी डायलॉग है ' इतनी शिद्दत से मैंने तुम्हें पाने की कोशिश की है , की हर ज़र्रे ने मुझे तुमसे मिलाने की साज़िश की है ।  कमाल ऐसा हुआ कि जिसको जो मिला उसने उसे ही मुहब्बत नाम दे दिया और ऐसे सभी को जैसी पसंद थी वैसी मुहब्बत की कली मिलती रही खिलती गई । प्यार ही प्यार हर तरफ सभी की झोलियां भरी हुई थी , लेकिन आपसी संबंधों में बीच में तकरार आई और कभी प्यार कभी तकरार होना विवाहित होने की निशानी बन गया । लोग बदले दुनिया बदलती रही और इंसान की चाहत भी फ़ितरत भी बदलतने लगी लोग आपस में नहीं ज़माने की बातों को चाहने लगे , इस जगह आने तक कितने ही ज़माने लगे । दौलत शोहरत ताकत हासिल करने को प्यार को ठोकर लगाने लगे ऐसे लोग अपनी कोई नई दुनिया अलग बसाने लगे कभी उस तरफ कभी इस तरफ आने जाने डगमगाने लगे ज़रा सी हलचल से डगमगाने लगे ।    
 
शायद कोई दर्पण था जिस ने दुनिया को उलझाया हर शख़्स ने देखा खुद पर इतना प्यार आया मुझसे प्यारा और न कोई गीत गुनगुनाया । भगवान ने इक जैसा हर इक इंसान बनाया मगर अपनी शक़्ल देख सभी को महसूस हुआ वही विधाता है अहंकार ने खुद को ख़ुदा से बड़ा समझा कोई ये खेल नहीं समझ पाया । किसी को सत्ता ने पास बुलाया कुर्सी पर बैठा है आदमी जहां से हुआ पराया उसने चाबुक से शेर को पिंजरे में कैद कर दिखाया तो उसका जादू सभी को बहुत भाया । शासक का तराज़ू था दौलत और मुहब्बत दोनों पलड़ों पर रख कर देखा दौलत का पलड़ा भारी था जितने भी बार आज़माया । प्यार बिकने लगा कीमत चुकाकर बोली पर ख़रीददार ख़रीद लाया , इक दिन किसी ने मुहब्बत का बाज़ार लगाया क्या अपना क्या पराया । प्यार एक से नहीं हज़ार से हो सकता है जिस किसी को जितना मिले थोड़ा है पाकर फिर खो सकता है । आगे बहुत कुछ है पर आखिरी अध्याय पर आते हैं आपको अंजाम ए इश्क़ की व्यथा बताते हैं । 
 
ये इक्कीसवीं सदी है प्यार मुहब्बत इक खिलौना है , हर कोई समझता है करना है नहीं होना है , कौन मुकाबिल है क्या पाने की आरज़ू है सोच समझ कर साफ साफ बात करते हैं । भविष्य की रूपरेखा क्या क्या शर्त है पहले जानते समझते हैं तभी इक दूजे के होते हैं । समझदार हो गए हैं चलता फिरता आजकल लोग इश्तिहार हो गए हैं । आदमी औरत नहीं प्यार जानवर से होने लगा है मत पूछना ज़ालिम बोझ कैसा सर पर ढोने लगा है । वो पहले सी मुहब्बत कोई मांगता नहीं है हर कोई व्यस्त है इतनी फुर्सत ही किसी को नहीं है , जब तक साथ निभाए कोई उपकार समझना है उम्र भर कौन देता साथ ये नाता बेकार समझना है ।  अब कभी सूखे हुए फूल किताबों में नहीं मिलते हैं कागज़ के फूल जिधर देखो खिलते हैं बिखरते हैं ज़रा से झौंके से तेज़ हवा के आंधी तूफ़ान का हाल ना पूछो , शोध ने किया जो कमाल ना पूछो । बस इतना समझ लो ये सबक पढ़ना लाज़मी है , मिल जाएं आप गर तो किस बात की कमी है । 
 
 भारत में प्रेम के रुझान: मैक्एफ़ी ने बढ़ते एआई घोटालों और नकली डेटिंग ऐप्स  के बारे में चेतावनी दी | टेक न्यूज़ - बिज़नेस स्टैंडर्ड
 
 

जून 06, 2025

POST : 1982 दोस्ती अच्छी ना दुश्मनी अच्छी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     दोस्ती अच्छी ना दुश्मनी अच्छी  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

चोरी चोरी चुपके चुपके नहीं सोशल मीडिया पर दुनिया भर के सामने लड़ना झगड़ना  ऐसे धनवान लोगों का और ताकतवर देशों के शासकों का सभी ने देखा रात भर जागकर । देसी भाषा में इसको खुला खेल फर्रुखाबादी कहते हैं , अमेरिका में क्या कहते हैं नहीं मालूम । लेकिन मैं उनकी तरह कोई विश्लेषण नहीं करने वाला जिनको सब पता होता है और सभी कुछ का वीडियो बनाकर यूट्यूब चैनेल पर शेयर करना होता है वो भी सबसे पहले और सबसे शानदार । हमने सरकारों की बादशाहों की पैसे वाले धनवान भाई बहनों से लेकर कारोबार में टक्कर देने वालों की कौन बड़ा कौन छोटा को लेकर टकराव की चर्चा बहुत सुनी हैं । मैंने कभी उनकी दोस्ती को दोस्ती नहीं समझा और न ही दुश्मनी को दुश्मनी समझने की भूल की है । बड़े लोगों की बातें कभी बड़ी नहीं होती हैं कभी देखना सोचना समझना तो गली के शहर के चौक पर झगड़ते हुए छोटे छोटे बालक जैसे लगते हैं झट से बाप दादा मां बहन पर उतर आते हैं कभी हाथ नहीं लगाते कायर बन कर दूर से धमकियां देते हैं । 
 
हमको तो अपनी बात कहनी है हमने सब कर के देख लिया है न तो दोस्त बनाकर दोस्ती करना अच्छा है न ही दुश्मन बनाकर दुश्मनी करना अच्छा है । हमको तो हमेशा महसूस हुआ है कि जिनको न दोस्ती करने का सलीका आता है न ही दुश्मनी निभाने का तरीका आता है उन से रिश्ता नाता क्या पहचान तक नहीं रखनी चाहिए । मगर ये अपने बस की बात नहीं क्योंकि जब भी अजनबी अनजान लोगों से मिलते हैं जान पहचान होती है बातें मुलाकातें होती हैं तब बातों बातों में प्यार भी होता है किसी से किसी से तकरार भी हो जाती है । वास्तव में ज़िंदगी की अधिकतर परेशानियां ऐसे ही मिलती हैं कभी बाद में सोचते हैं कि काश उनसे पहचान क्या परिचय ही नहीं होता तो बेहतर था । तेरी दुश्मनी से बढ़कर तेरी दोस्ती ने मारा , हमने तो ढूंढ लिया है किसी मझधार में कोई किनारा , सभी जीता किये मुझसे मैं सभी से बाज़ी हारा ।  
 
चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों , मुहब्बत हुई शादी हुई अब आप कुछ भी कर लें कभी अजनबी की तरह जीना संभव नहीं है । पहली बात तो अलग होना ही आसान नहीं है और कितनी मुसीबत से बचने को समझौता कर लेते हैं । अलग अलग होने पर भी ख़लिश रहती है , परवीन शाकिर कहती है , ' कैसे कह दूं कि मुझे छोड़ दिया है उसने , बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की । शायद ही कुछ लोग मिलते हैं जिनको आता है जियो और जीने दो का ढंग अन्यथा अधिकांश जीते हैं न जीने ही देते हैं । मीरा भी कहती है जो मैं इतना जानती प्रीत  किये दुःख होय , नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत ना करियो कोय ।  मुझे लगता है जितनी भी कहानियां हैं उन में दोस्ती और दुश्मनी को लिखने वालों ने अपनी सुविधा के लिए उपयोग किया है जब चाहा कोई दोस्ती की परिभाषा बनाई और किसी ने दोस्ती निभाने को अपनी जान की बाज़ी लगा दी । कभी दुश्मनी को इस हद तक बढ़ाया की नफ़रत की इंतिहा कर दी , मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे ऐसे शब्द कहने वाला कभी वास्तव में प्रेमी रहा हो यकीन नहीं किया जा सकता । मगर लेखक को गीत लिखना था इसलिए इक ज़रा सी गलतफ़हमी से इतना बदगुमां हो गया , क्या ऐसे नायक से नायिका फिर कभी नाता कायम रखना चाहेगी , ज़िंदगी में जाने कब कोई ऐसा दृश्य दिखाई दे जाये । कभी किसी अगली कहानी में नायक पछताता है गलतफ़हमी का शिकार होकर अपनी पत्नी से अलग होने के बाद , गाता है ज़िंदगी के सफर में गुज़र जाते हैं जो मक़ाम वो फिर नहीं आते । आज दोस्ती दुश्मनी के गीतों के बोलों को याद करना भी अनावश्यक लगता है । बहुत देर लगती है समझ आने में कि ये दोनों ही सिर्फ पागलपन हैं कुछ भी और नहीं हैं किसी से दोस्ती अच्छी न किसी से दुश्मनी अच्छी । अमेरिका के शासक की दोस्ती दुश्मनी हो चाहे अपने देश के शासक की यारी दुश्मनी हमको क्या मतलब है क्या हासिल होगा कल उनके रिश्ते बदल जाएंगे हमको क्या पता कौन कितने पानी में है । आज कुछ शेर अपनी ग़ज़ल से दोहराना चाहता हूं । 
 
 
 

हमको ले डूबे ज़माने वाले ( ग़ज़ल ) 

 

 डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 

हमको ले डूबे ज़माने वाले
नाखुदा खुद को बताने वाले ।
 

हो गये खुद ही फ़ना आख़िरकार 
मेरी हस्ती को मिटाने वाले । 
 
 
एक ही घूंट में मदहोश हुए 
होश काबू में बताने वाले । 
 
 
तूं कहीं मेरा ही कातिल तो नहीं
मेरी अर्थी को उठाने वाले ।


तेरी हर चाल से वाकिफ़ था मैं
मुझको हर बार हराने वाले ।


मैं तो आइना हूँ बच के रहना
अपनी सूरत को छुपाने वाले ।
 
 
 Mira bhajans: Rhythm divine

जून 05, 2025

POST : 1981 आप जनाब आप हैं हम क्या हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

     आप जनाब आप हैं हम क्या हैं ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

कुछ लोग पहली कतार में बैठते हैं , उनको पिछली कतार में बैठना मंज़ूर नहीं तो कुछ मंच पर विराजमान होते हैं उनको सामने बैठना पड़ता है मगर तब जब मुख्य अध्यक्ष या कुछ बेहद  विशिष्ट सम्माननीय अथिति घोषित किया जाता है । भूलता नहीं भूलना भी नहीं चाहिए इक बार मुझे खुद जिन्होंने आमंत्रित किया जो कार्यक्रम का मंच संचालन भी कर रहे थे मुझे पहली कतार की पिछली कतार में खुद बिठाया और कुछ देर बाद मंच से ही कहा था कि उस कतार में केवल पत्रकार बैठ सकते हैं आप उठ जाएं और कोई दूसरी जगह तलाश करें । अभी तक मुझे समझ नहीं आया कि मेरी जगह कहां है या शायद कहीं भी नहीं है । महफिलें आपकी , और तन्हा हैं हम , यूं न पलड़े में हल्का हमें तोलिये । खैर पुरानी बातों को भुलाना आता है उचित है कि नहीं मगर मैंने उस घटना से सबक ज़रूर सीखा लेकिन दोस्त से संबंध कायम रखा शायद उनको भी अपनी गलती का एहसास हुआ तभी अगले दिन मेरे दरवाज़े के बाहर खड़े होकर कहा था भीतर आने की इजाज़त है । मैंने हमेशा दोस्तों को फिर से गले लगाया है ये तजुर्बा कितनी बार हुआ है । करीब चालीस साल पहले किसी मशहूर लेखक प्रकाशक के घर पर मिलने चला गया था , तब कोई फोन पर आने से पहले बताना संभव ही नहीं होता था । मिलकर इक ग़ज़ल लिखी थी उनको भी भेजी थी ।  कुछ साल बाद मोबाइल फोन पर उनसे बात हुई शायद उनको पहली मुलाक़ात भूल गई थी , मैंने फिर उनसे जाकर मिलना उचित नहीं समझा था , कहा था कभी मुमकिन हुआ तो मिलेंगे । पहले उस हादिसे पर लिखी ग़ज़ल फिर मालूम नहीं आगे क्या कहना है । 
 
 

अपने हो कर भी हम से वो अनजान थे ( ग़ज़ल ) 

    डॉ  लोक सेतिया "तनहा"

अपने हो कर भी हम से वो अनजान थे
बिन बुलाये- से हम एक मेहमान थे ।

रख दिये  इक कली के मसल कर सभी
फूल बनने के उसके जो अरमान थे ।

था तआरूफ तो कुछ और ही आपका
अपना क्या हम तो सिर्फ एक इंसान थे ।

हम समझ कर गये थे उन्हें आईना
वो तो अपनी ही सूरत पे कुर्बान थे ।

ग़म ज़माने के लिखते रहे उम्र भर
खुद जो एहसास-ए-ग़म से भी अनजान थे ।

आदमी नाम हमने उन्हें दे दिया
आदमी की जो सूरत में शैतान थे ।

महफिलों से निकाला बुला कर हमें
कद्रदानों के हम पर ये एहसान थे ।    
 
मुझे सच नहीं पता कि मेरी जगह कहां है मैं कौन हूं लिखता हूं मेरी चाहत है विवशता भी है बिना लिखे कुछ बेचैनी रहती है । कभी कुछ लोग समझते हैं कितनी किताबें छपवाई हैं कितने ईनामात सम्मान पुरुस्कार मिले हैं किस किस तरह से शोध किया है प्रयोग किये हैं साहित्य को समर्पित किया है जीवन अपना । देश में कभी विदेशों में कभी बड़े बड़े आयोजनों में कितनी यात्राएं साहित्य अकादमी की सदस्यता उनके साथ जुडी हुई लंबी सूचि है जिस तरफ मैंने कभी इक कदम भी नहीं बढ़ाया । जाने की चाहत ही नहीं बल्कि बचता हूं कभी किसी ऐसे प्रलोभन का शिकार होकर भटक नहीं जाऊं । लेकिन अचानक किसी ने अपना परिचय दिया और इक किताब जिस में सिर्फ उनकी शख़्सियत का घोषित संक्षिप्त परिचय है । मेरे लिए उनका नाम भी लेना शायद अनुमति लेनी चाहिए कभी कोई कॉपीराइट का विषय नहीं बन जाये । अभी कुछ दिन पहले किसी ने अपना इक ग्रुप बनाया ताकि प्रदेश में रहने वाले लिखने वालों की जानकारी इक पुस्तक में शामिल की जा सके । किसी ने कुछ विचार प्रकट किये तो उन्होंने बड़ी ही तल्ख़ी से जैसे उनको नहीं सभी को डांट दिया अर्थात मेरी मर्ज़ी जो चाहे करूं किसी को कुछ बोलने का अधिकार नहीं , ऐसे लोग खुद को इतना बड़ा और महान मानते हैं कि किसी से सलीके से पेश नहीं आते । 
 
अच्छा है मैंने कभी ऐसा होना नहीं चाहा बड़ा साहित्यकार कथाकार इत्यादि इत्यादि ।  सच कहूं तो कितने ही ऐसे लोग हैं जिनकी प्रकाशित पुस्तकों की संख्या बड़ी है पाठकों की शायद कम ही होगी । अधिकांश मैंने उनके लेखन में किसी मकसद का अभाव अनुभव किया है सिर्फ़ लिखने को लिखना कागद कारे करना होता है । तब अजीब लगता है जब कोई खुद ही अपने आप को कोई ऐसा विशेषण देने का कार्य करता है जानते हुए भी कि उसका वास्तविक किरदार बिल्कुल भी मेल नहीं खाता है । हमने कितने महान रचनाकारों की बातें उनकी अनुपम कृतियों को लेकर जाना है समझने का प्रयास किया है लेकिन उन में किसी ने खुद को कुछ ऐसा मानकर प्रयास किया हो मनवाने का कभी नहीं सुना किसी से बल्कि विनम्रता पूर्वक खुद को हमेशा साहित्य का उपासक या छात्र ही बतलाते रहते थे ।
 
 पुरानी नहीं साहिर लुधियानवी की ही बात है जिन्होंने  कहा  ' मैं पल दो पल का शायर हूं पल दो पल मेरी कहानी है , पल दो पल मेरी हस्ती है पल दो पल मेरी जवानी है । कल और आएंगे नग्मों की खिलती कलियां चुनने वाले ,   मुझसे बेहतर कहने वाले तुमसे बेहतर सुनने वाले । हर नस्ल इक फ़स्ल है धरती की , आज उगती है कल कटती है । जीवन वो महंगी मदिरा है जो कतरा क़तरा बटती है । सागर से उभरी लहर हूं मैं सागर में फिर खो जाऊंगा , मिट्टी की रूह का सपना हूं मिट्टी में फिर सो जाऊंगा । कल कोई मुझको याद करे क्यूं कोई मुझको याद करे , मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए क्यों वक़्त अपना बरबाद करे । वो भी इक पल का किस्सा थे मैं भी इक पल का किस्सा हूं , कल तुमसे जुदा हो जाऊंगा गो आज तुम्हारा हिस्सा हूं । पल दो पल में कुछ कह पाया इतनी ही सआ'दत  काफ़ी है , पल दो पल तुमने मुझको सुना इतनी ही इनायत काफ़ी है ।  
 
   Main Pal Do Pal Ka Shair Hoon | Sahir Ludhianvi | Geet | Kabhi-Kabhi -  YouTube
 

जून 04, 2025

POST : 1980 तस्वीर लगाई है संग-संग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

             तस्वीर लगाई है संग-संग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

यहां आज उन तस्वीरों का ज़िक्र नहीं है जो दिन महीने मौसम देख कर बदलते रहते हैं क्योंकि उनका कोई हिसाब नहीं और कौन है जो दिखावे को ऐसा नहीं करता , दिखावे की ज़रूरत ही तभी पड़ती है जब वास्तव में आप में कुछ होता नहीं है । इस में खेल त्यौहार धर्म से देशभक्ति क्या संविधान लोकतंत्र तक की बात होती है जिन्होंने शपथ उठाई होती है सभी से न्याय करने पक्षपात नहीं करने की उनको निभाना कब आता है । ये मगर कुछ अलग विषय है हर कोई किसी भी जाने माने व्यक्ति साथ मिलता है तो इक तस्वीर बनवाता है । राजनेता वर्ग की मज़बूरी है उनको अपने आका को माई बाप बताना होता है ख़ास हैं उनसे करीब हैं ये भ्र्म फैलाना होता है । लेकिन इधर देखते हैं अपनी फेसबुक पर कितने ही लोगों ने शासक वर्ग किसी राजनेता से बड़े अधिकारी संग अपनी तस्वीर लगाई है क्या आपको मालूम है कौन अच्छा है किस में क्या बुराई है । कल किसी हिस्ट्रीशीटर की फोटो बड़े राजनेता संग मंच पर अभिवादन करते नज़र आने पर हंगामा होने लगा सोशल मीडिया पर तभी देखा जो सच लिखते हैं खुद उन्होंने झूठे के सामने हाथ जोड़ते हुए शान से तस्वीर बनवा कर कवर फोटो सजाई है । किसी बड़े रचनाकार साथ मंच सांझा किया उसकी याद संजोना ठीक है मगर किसी बड़बोले नेता जिस की बात का कोई भरोसा नहीं क्या कर बैठे कब पता नहीं उनसे दूर रहते तो लगता आपको समझ है झूठ को सच नहीं समझते हैं लेकिन आप तो शोहरत पाने को तरसते हैं क्या जीते हैं कि ज़िंदा होकर भी मरते हैं । 
 
लिखते कुछ हैं अपनी बात से मुकरते हैं किस बात का डर है इतना क्यों डरते हैं । चलो आज मिलकर खुद आईने में अपनी सूरत देखते हैं समाज को दिखलाते हैं आईना मगर सामने आईना हो तो घबरा कर अपनी शक़्ल अजीब लगती है जितना भी बनते सजते संवरते हैं । कैमरा आपको नचाता है पोज़ बदलने से क्या किरदार बदल जाता है हमने देखा है जनाब यही काम करते हैं दिन में कितने लिबास बदलते हैं लोग इनकी इस अदा को क्या समझते हैं उनकी शोहरत से लोग जलते हैं । कुछ दिन पहले देश की राजधानी में ख़ास आयोजन हुआ साहित्य के बदलाव और बदलाव के साहित्य विषय को लेकर । यूट्यूब पर देखा वहां कुछ भी नहीं बदला है वही बड़े छोटे का बढ़ता अंतर वही सर झुकाना वही औपचरिकता निभाते हुए जितना बताना उस से अधिक छुपाना । कोई ग़ज़ल कहता था मुझको ये मंज़ूर नहीं आदमी आदमी में इतना फ़र्क नहीं होना चाहिए आज आचरण में दूसरा ही तौर दिखाई दिया , जब आप ख़ास बन जाते हैं तब साधारण जैसे नहीं रह पाते हैं । चर्चा जिस विषय पर करनी थी वही पीछे रह गया शायद और शान ओ शौकत क्या सजावट क्या बनावट से चलते चलते बड़ा आदर सत्कार क्या लज़ीज़ खाना था कितना खूबसूरत नज़ारा था बस मलाल था कुछ घड़ी के मेहमान है लौट कर अपने घर जाना था , अपना उस महानगर में कहां कोई ठिकाना था । अब उन तस्वीरों से दिल बहलाया करेंगे यारों को झूठे सच्चे किस्से सुनाया करेंगे ।   
 
सरकार ने चुनकर कुछ सांसदों को विदेशी दौरों पर भेजा था , दुनिया को अपना पक्ष समझाना था हमको आतंकवाद का अर्थ बताना था । उनके फोटो वीडियो सोशल मीडिया पर छाये हैं उन्होंने क्या गीत गाकर सुनाये हैं महफ़िल में झूमे हैं खूब नाचे हैं सैर सपाटे किये हैं घूम कर दुनिया लौटे हैं ख़ाली है दामन बस कुछ उपहार कीमती मिले हैं असली मकसद का क्या हुआ कोई नहीं जानता है कितने घने गहरे उनके साये हैं । हमने कैसा चलन चलाया है तस्वीरों में हर कोई छाया है जाने कैसी प्रभु की माया है सब को भरमाया है जिसे देखते हैं अपना हुआ पराया है । आधुनिक युग का यही इतिहास है देखने में कोई कैसा भी है तस्वीरों में क्या बात है रात दिन है दिन अंधियारी रात है ।  हमने कही है ग़ज़ल में जो अपनी बात है दो ग़ज़ल हैं उसी में अपनी शह है सबकी मात है । 
 
 1 

राहे जन्नत से हम तो गुज़रते नहीं ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 

राहे जन्नत से हम तो गुज़रते नहीं
झूठे ख्वाबों पे विश्वास करते नहीं ।

बात करता है किस लोक की ये जहां
लोक -परलोक से हम तो डरते नहीं ।

हमने देखी न जन्नत न दोज़ख कभी
दम कभी झूठी बातों का भरते नहीं ।

आईने में तो होता है सच सामने
सामना इसका सब लोग करते नहीं ।

खेते रहते हैं कश्ती को वो उम्र भर
नाम के नाखुदा पार उतरते नहीं । 
 
 2 

हम तो जियेंगे शान से ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हम तो जियेंगे शान से
गर्दन झुकाये से नहीं ।

कैसे कहें सच झूठ को
हम ये गज़ब करते नहीं ।

दावे तेरे थोथे हैं सब
लोग अब यकीं करते नहीं ।

राहों में तेरी बेवफा
अब हम कदम धरते नहीं ।

हम तो चलाते हैं कलम
शमशीर से डरते नहीं ।

कहते हैं जो इक बार हम
उस बात से फिरते नहीं ।

माना मुनासिब है मगर
फरियाद हम करते नहीं ।

 तारों भरा आसमान, फिर भी रात काली क्यों होती है? - BBC News हिंदी

जून 03, 2025

POST : 1979 ख़तरनाक हैं ख़िलौने ( हास- परिहास ) डॉ लोक सेतिया

     ख़तरनाक हैं ख़िलौने ( हास- परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

यही गलती विधाता से हुई थी इंसान रुपी खिलौने बनाये थे अपनी दुनिया को सजाने को , उसी आदमी ने भगवान की बनाई खूबसूरत दुनिया का क्या हाल किया है । जिस दिन से इंसान ने ईश्वर को चुनौती देना शुरू किया तभी से भगवान इक सामान बन गया और इंसान भगवान का भी भगवान बन गया । खिलौने बनाने की शुरुआत दोनों ने मिट्टी से ही की आदमी खिलौना था भगवान भी खिलौना बन गया है , अंजाम मिट्टी का मिट्टी होना है । आपको लग रहा होगा क्या दकियानूसी बात कर रहा हूं , नहीं बड़ी महत्वपूर्ण बात है और आज इस से ज़रूरी कुछ भी नहीं है । दुनिया में जंग का आलम है ऐसे में किसी ने अजब ग़ज़ब ढाया है खिलौनों का बाज़ार हर तरफ छाया है । ड्रोन जिसे हमने इक खिलौना समझा था उस ने अपना परचम लहराया है ।  ड्रोन कितने का बनता है , फाइटर प्लैन कितने का कौन बड़ा कौन छोटा है परिभाषा उपयोगिकता से समझ आती है कुछ लाख से बना इक खिलौना हज़ारों करोड़ खर्च कर बनाये लड़ाकू विमान और बंबों की वर्षा करने वाले जेट विमानों को ध्वस्त कर सकता है । हम चांद छूने की ख़्वाहिश पूरी भले कर ली हो लेकिन अभी तक खुद सैनिक लड़ाकू विमानों का इंजन नहीं बना पाये सभी कलपुर्ज़े विदेश से मंगवा कर देश में जोड़ने को ही कहा हम आत्मनिर्भर हो गए हैं और जब आवश्यकता पड़ी तो उनके तरफ देखने लगे जिन से महंगे विमान खरीदे थे मंगवाए थे लेकिन तकनीकी जानकारी बकाया थी ' उधार की खाई आगे कुंवा पीछे खाई ' कहावत याद आई ।
 
हमने भी देश में समाज में कुछ कीमती सामान बनाये हैं , लोकतंत्र कितनी महंगी कीमत चुकाकर लाये हैं । संसद विधानसभा संविधान न्यायपालिका बड़े कीमती गहने हैं कितना मोल चुकाया है जनतंत्र की चादर पर दाग़ ही दाग़ हैं खोकर आज़ादी पछताए हैं । इतने ऊंचे भव्यतापूर्ण संस्थानों का भी हुआ यही हाल है लूट भ्र्ष्टाचार की राजनीति से लोकतंत्र घायल और बेहाल है , सांसद विधायक मंत्री प्रशासन न्यायपालिका सुरक्षा व्यवस्था तक असली कुछ भी नहीं बचा है सभी नकली मिलावटी माल है ।  राजनेताओं से प्रशासनिक सरकारी अधिकारियों विभागों का बुना हुआ ऐसा जाल है जिस में ख़ास लोगों की मौज है साधारण जनता बेबस और बदहाल है । सत्ता के चेहरे पर नज़र आती जो लालिमा है भूखी नंगी जनता की खून पसीने की गाड़ी कमाई है लूटी है सत्ता की बेहयाई है । सियासत से लेकर रणनीति कूटनीति सभी को खेल तमाशा बना दिया है , इतना बहुत है आज ख़ामोश रहना निज़ाम की चाहत है वर्ना मुसीबत है । 
 
एक मुसाफ़िर एक हसीना फिल्म का गीत है रफ़ी जी की आवाज़ है शायर हैं रिज़वी जी  : -
 
हमको तुम्हारे इश्क़ ने क्या क्या बना दिया 
जब कुछ न बन सके तो तमाशा बना दिया । 
 
काशी से कुछ गरज़ थी न काबे से वास्ता 
हम ढूंढने चले थे मोहब्बत का रास्ता 
 
देखा तुम्हारे दर को तो सर को झुका दिया ।  
 
दिल की लगी ने कर दिया दोनों को बेकरार 
दोहरा के दास्तां ए मोहब्बत फिर एक बार 
 
मजनूं हमें और आपको लैला बना दिया । 
 
निकले तेरी तलाश में और खुद ही खो गए 
कुछ बन पड़ी न हमसे तो दीवाने हो गए 
 
दीवानगी ने फिर तेरा कूचा दिखा दिया । 
 
जलवों की भीख फेंकने वाले की खैर हो 
पर्दा हटाके देखने वाले की खैर हो 
 
बनके भिखारी इश्क़ ने दामन बिछा दिया ।  
 
 
 Indias top 10 formidable weapons - Agni, K-9 Vajra, Rafale... भारत के 10  खतरनाक हथियार जिनके आगे बेबस हो जाएगा पाकिस्तान - Indias top 10 formidable  weapons render Pakistan defenseless with their
 

जून 01, 2025

POST : 1978 ख़ामोशी का आलम है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        ख़ामोशी का आलम है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

खुश्क हैं आंखें जुबां खामोश है ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

खुश्क हैं आंखें जुबां खामोश है
इश्क़ की हर दास्तां खामोश है ।

बस तुम्हीं करते रहे रौशन जहां
तुम नहीं , सारा जहां खामोश है ।

क्या बताएं क्या हुआ सबको यहां
चुप ज़मीं है , आस्मां खामोश है ।

झूमता आता नज़र था रात दिन
आज पूरा कारवां , खामोश है ।

तू हमारे वक़्त की , आवाज़ है
किसलिए तूं जाने-जां खामोश है । 
 
दस साल पुरानी कही ग़ज़ल से शुरुआत की है , जाने क्यों आज एहसास हुआ कब से हमने बातचीत करना छोड़ दिया है । शोर फ़िल्म की बात याद आई है नायक जिस आवाज़ को सुनने को बेताब रहता है जब उस संतान की आवाज़ वापस आती है तो खुद फिर हादिसे में उसका सुनना चला जाता है । ज़िंदगी और कुछ भी नहीं तेरी मेरी कहानी है , मगर हम सभी गूंगे बहरे नहीं हैं फिर क्या हुआ जो हमने बोलना छोड़ दिया है । अक़्सर सोचता रहता हूं किसी से मिलकर नहीं तो फोन पर ही बाहर रहते हुए भी बात करूं । स्मार्ट फोन पर हज़ार नाम हैं दुनिया भर से परिचय होने का झूठा प्रमाण है असल में शायद कोई हमको जानता है शायद ही किसी को हम जानते हैं । फिर भी कुछ लोग हैं जिनसे बात की जानी चाहिए कभी हुआ करती थी घंटो की बातचीत लैंडलाइन फोन पर , घर दुकान पर मिलना बात करना जीवन का हिस्सा था । कब कैसे ये हो गया कि हम भूल गए संवाद रखना कितना महत्वपूर्ण है , हुआ ऐसे कि लोग व्यस्त होने से अधिक व्यस्तता का प्रदर्शन करने लगे । शायद जिस ने फोन किया है उसे कोई विशेष बात बतानी हो , बिना सोचे फोन काटने लगे और संदेश भेजने लगे अभी ख़ाली नहीं बाद में फोन करता हूं । कभी ऐसा भी नहीं होता और कभी कोई फोन उठाते ही पूछता कुछ ख़ास बात है कोई कारण या काम है तो बताओ । ऐसा सिर्फ पहचान वाले नहीं बेहद करीबी समझे जाने वाले लोग भी कहने लगे । आदमी आदमी से बात नहीं करता हर शख्स अपने फोन पर जाने क्या क्या देखता ढूंढता फिरता है , जिस बेजान चीज़ में कोई अपनत्व नहीं इक वही अपना लगता है बाक़ी सब पराये लगते हैं , बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी । 
 
ऐसा कदापि नहीं कि किसी को फुर्सत नहीं होती थी , बल्कि अधिकांश अनावश्यक कार्यों में किसी ख़ास मकसद से समय बिता रहे होते थे बस उनकी प्राथमिकता कोई और होते थे । मोबाइल फोन ने जाने किस तरह हम सभी को मतलबी बना दिया था बात करने की कीमत मिनटों में पैसे से दिखाई देती थी खुद का नहीं फोन का टॉकटाइम कीमती लगता था , अब भले अनलिमिटेड कॉलिंग मुफ़्त मिलती है कुछ सौ रूपये का रिचार्ज करवाने से लेकिन घंटों सोशल मीडिया पर और रास्ते चलते भी बात करने लगे हैं तब भी संपर्क जिन से कुछ हासिल होता है उन्हीं से रखते हैं । शुभकानाएं हर दिन देते हैं व्हाट्सएप्प पर कोई कुशलक्षेम नहीं पूछते हैं । औपचारिकता निभाते हैं किसी से कोई हाल चाल सांझा नहीं करते हैं । आज भी चाहता था किसी से बात करूं पहले की तरह बिना किसी मतलब या ज़रूरत लेकिन किस से करनी है से भी पहले सोचना पड़ा बात क्या करनी है कुछ विशेष है नहीं बस दिल चाहता है । दिल चाहता है कभी न बीतें चमकीले दिन , दिल चाहता है हम न रहें कभी यारों के बिन । इक घबराहट सी होती है कि जिसे भी फोन मिलाया उधर से सवाल आया कैसे याद आई कुछ ख़ास बात है तो बताएं तब क्या जवाब देंगे । 
 
आपको याद है राजेश खन्ना की फ़िल्म थी आनंद जिस में आनंद किसी भी अनजान अजनबी व्यक्ति को हमेशा मुरारीलाल नाम से बुलाता और लोग हैरान होते । अमिताभ बच्चन कहते हैं पहले देख लिया करो तब राजेश खन्ना बताता है कि किसी मुरारीलाल नाम वाले को वो जानता ही नहीं , ये तो किसी से दोस्ती करने बात करने का इक तरीका है । लेकिन इक दिन कोई उसी तरह मिल जाता है और आनंद को जयचंद कहकर बुलाता है । जब राजेश खन्ना अमिताभ बच्चन को बताता है कि उसे मुरारीलाल मिल गया है तब जॉनी वॉकर कहते है कि उसका नाम भी मुरारीलाल नहीं , ईसाभाई सूरतवाला है जैसे राजेश खन्ना का आनंद है । कभी सोचा नहीं था किसी से अचानक यूं इक बार मुलाक़ात हो सकती है पहचान होने से कितनी लंबी बात हो सकती है लेकिन ऐसा वास्तव में हुआ कल ही ऐतबार करना कौन क्या ये फिर कभी कभी अगर मिलना हुआ तो । हां कोई नाम लेने की आवश्यकता नहीं पड़ी , मुलाक़ात हुई क्या क्या बात हुआ आपको बताता हूं ।    
 
कल अचानक कुछ अलग बात हो गई , जैसे कोई काल्पनिक कहानी हक़ीक़त बनकर सामने खड़ी हो गई हो ।अपने नगर से बाहर आया हुआ हूं कुछ दिन पारिवारिक काम से । अजनबी शहर है कुछ जान पहचान वाले हैं भी तो बड़े शहर में मिलना जुलना कठिन लगता है साथ सभी की अपनी अपनी दिनचर्या होती है किसी से मुलाक़ात की बात नहीं हुई । कुछ दूर इक पार्क में सुबह सैर पर जाता हूं थोड़े अनजान चेहरे दिखाई देते हैं कुछ पहचान सी लगने लगी है । सड़क के उस छोर पर इक घर थोड़ा अलग लगता रहता जिस के बाहर इक नाम लिखा हुआ है कभी कोई रहने वाला नज़र नहीं आता था , कल सुबह बड़ा सा पुराने ढंग का लोहे का गेट दोनों तरफ खुला हुआ था और इक व्यक्ति खड़ा था । शायद उन्होंने ही पहल की और पूछा अभिवादन कर आप क्या यहीं रहते हैं , मैंने बताया जी नहीं मैं हरियाणा में रहता हूं यहां बेटा रहता है आना जाना रहता है । उन्होंने बताया वो भी किसी और शहर में रहते हैं यहां घर बनाया हुआ है कभी कभी आते हैं । कुछ सोच कर उन्होंने घर में भीतर बुलाया ये कहते हुए कि चाय पीते हैं मिल कर बैठते हैं , इनकार नहीं किया आग्रह को देख कर । 
 
  बड़े से प्लॉट में आखिरी कोने में आवास बनाया हुआ था अधिकांश जगह हरियाली पेड़ पौधे और बड़ा सा फैला हुआ आंगन , बताने लगे उनको ऐसा ही पसंद है । मैंने भी बताया कि हमारा घर भी कुछ इसी तरह आसपास हरियाली है सार्वजनिक पार्क हैं सामने वास्तव में ऐसा माहौल शानदार लगता है । उन्होंने अपने इक सहायक को दूध लाने को कहा चाय बनाने को , पता चला उनकी चाय पीने की आदत ही नहीं है । मैंने कहा आप रहने दें अथवा चलें हमारे निवास चाय पीते हैं । चाय के लिए दूध आने चाय बनने में कितना समय लगा बिल्कुल पता ही नहीं चला , पहली बार की मुलाक़ात में कैसे खुलकर इतनी बातें हुईं मालूम नहीं । पुराने गाने सुनाने लगे जाने कितने गीत और वास्तव में मधुर आवाज़ में जबकि कहने लगे उनको संगीत की कोई जानकारी नहीं है । मैंने बताया कभी मैं हॉस्टल में दिन भर गाता - गुनगुनाता रहता था अब गला ख़राब हो गया है । लेकिन उन्होंने कोई गीत सुनाने को कहा तो मैंने बताया कुछ दोस्त कभी शाम को मिलकर ऐसे ही घंटों सुनते सुनाते थे । अजीब लगेगा लेकिन कोई डेढ़ घंटा हम बैठे ऐसे ही जाने कितनी बातें करते रहे सामाजिक से व्यक्तिगत साधारण बातें जिनका कोई ख़ास महत्व नहीं होता है अपनी पसंद जैसे उनका रोज़ शाम को फुटबॉल खेलना इत्यादि । शायद मेरे लिए इक खूबसूरत याद बन कर रहेगी उनसे मुलाक़ात । 
आखिर में इक ग़ज़ल से ही अपनी बात रखते हैं , ग़ज़ल जनाब महशर काज़िम हुसैन लखनवी जी की है ।
 

मुद्दतें हो गई हैं चुप रहते , कोई सुनता तो हम भी कुछ कहते ।   

 

जल गया ख़ुश्क हो के दामन- ए - दिल , अश्क़ आंखों से और क्या बहते ।

 

बात की और मुंह को आया जिगर , इस से बेहतर यही था चुप रहते । 

 

हम को जल्दी ने मौत की मारा , और जीते तो और ग़म सहते । 

 

सब ही सुनते तुम्हारी ऐ ' महशर ' , कोई कहने की बात अगर कहते ।  

 
 
 खामोश अल्फ़ाज़
  

POST : 1977 कहां है सीमा उलझन आन पड़ी ( चिंतन - मनन ) डॉ लोक सेतिया

  कहां है सीमा उलझन आन पड़ी  ( चिंतन - मनन ) डॉ लोक सेतिया 

हद के भीतर रहना ज़रूरी है , माना बात कहना मज़बूरी है लेकिन आपसी तालमेल रखना है दिल से दिल मिलते नहीं हमेशा ख़त्म नहीं होती बीच की दूरी है । किस सीमा तक संयम रखना है कब कहां धैर्य और साहस की बीच की इक रेखा है हमने क्या समझा है कितना देखा है । दोस्ती हमको निभानी है अपनी अहमियत बचानी है आपका दर्द समझना है हमसे भी खफ़ा खफ़ा ज़िंदगानी है । अभी तलक हमने यही नहीं जाना है ज़ुल्म सहना है हर किसी का बस किसी तरह नाता बचाना है ये कैसा याराना है हमको खोना है उनको पाना है । आज सच को सच कहना है झूठ से आज टकराना है , छोड़ना हर इक बहाना है । हमने प्यार मुहब्बत में दरिया समंदर पार किए कितने भंवर कितने तूफ़ान रास्ते में खड़े थे टकराये भी कभी डूबे भी दुनिया ने भी अपनी नफरतों की इंतिहा कर दी हमको इक कश्ती बादबानी दी और हवाओं को छीन लिया । 
 
हद के अंदर हो नज़ाक़त तो अदा होती है , हद से बढ़ जाये तो आप अपनी सज़ा होती है , इतनी नाज़ुक ना  बनो , हाय इतनी नाज़ुक ना बनो । जिस्म का बोझ उठाये नहीं उठता तुमसे , ज़िंदगानी का कड़ा बोझ सहोगी कैसे । तुम जो हलकी सी हवाओं में लचक जाती हो , तेज़ झौंकों के थपेड़ों में रहोगी कैसे । ये ना समझो कि हर इक राह में कलियां होंगी , राह चलनी है तो कांटों पे भी चलना होगा । ये नया दौर है इस दौर में जीने के लिये , हुस्न को हुस्न का अंदाज़ बदलना होगा । कोई रुकता नहीं ठहरे हुए रही के लिए , जो भी देखेगा वोह कतरा के गुज़र जायेगा । हम अगर वक़्त के हमराह ना चलने पाये , वक़्त हम दोनों को ठुकरा के गुज़र जायेगा । फिल्म वासना , साहिर लुधियानवी का गीत याद आया है , खुद को वक़्त के अनुसार बदलना है वक़्त कभी किसी की खातिर नहीं बदलता है । दर्द जब हद से बढ़ जाता है कहते हैं दवा बन जाता है मगर ऐसा अभी हुआ तो नहीं दर्द की हद क्या है उम्र भर कौन कैसे इंतज़ार करे । भरी दुनिया में क्या कोई नहीं जो हमको समझे और प्यार करे । तू प्यार का सागर है तेरी इक बूंद के प्यासे हम । बस और नहीं ।  
 
शराफ़त की हद होती है , सियासत ने सभी सीमाओं का उलंघन किया है लोकतंत्र को छलनी कर जनता को देश समाज को बर्बाद कर संविधान न्याय को बदहाल किया है । शासकों प्रशासकों के गुनाहों का कौन हिसाब करेगा क्या भगवान सभी ज़ालिमों को माफ़ करेगा अगर ऐसा हुआ तो किस दुनिया में कोई इंसाफ़ करेगा । सरकारों धनवानों और प्रशासनिक अधिकारियों कर्मचारियों की मनमानी और अपना कर्तव्य नहीं निभाने की शैली पर रोक नहीं है जैसा चाहा था हमारा देश वैसा लोक नहीं है । दोस्ती प्यार रिश्ते संबंध से सामाजिक आचरण तक सभी से हर शख़्स परेशान निराश है क्योंकि सभी ने मर्यादाओं नैतिक मूल्यों का परित्याग कर ख़ुदग़र्ज़ी का दामन थाम लिया है किसी को डुबोकर खुद अपनी नैया पार लगाने का दौर है । आखिर इक ग़ज़ल सुनाता हूं ।  
 
 

सुन ज़माने बात दिल की खुद बताना चाहता हूं ( ग़ज़ल )  

डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 

सुन ज़माने बात दिल की खुद बताना चाहता हूं
पौंछकर आंसू सभी , अब मुस्कुराना चाहता हूं ।

ज़िंदगी भर आपने समझा मुझे अपना नहीं पर
गैर होकर आपको अपना बनाना चाहता हूं ।

दोस्तों की बेवफ़ाई भूल कर फिर आ गया हूं
बेरहम दुनिया को फिर से आज़माना चाहता हूं ।

किस तरफ जाना तुझे ,अब रास्ते तक पूछते हैं
बस यही कहता हूं उनको इक ठिकाना चाहता हूं ।

आप मत देना सहारा ,जब कभी गिरने लगूं मैं
टूट जाऊं ,बोझ खुद इतना उठाना चाहता हूं ।

आपसे कैसा छिपाना ,जानता सारा ज़माना
सोचता हूं आज लेकिन क्यों दिखाना चाहता हूं ।

नाचते सब लोग "तनहा" तान मेरी पर यहां हैं
आज कठपुतली बना तुमको नचाना चाहता हूं । 
 
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