अक्टूबर 31, 2018

POST : 948 ऊपर वाले का नया नोटिस ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

      ऊपर वाले का नया नोटिस ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

      लिखा है तुझे पहले भी कितनी बार नोटिस भेजा है , रिमाइंडर भी अनेक भेजे हैं , तुम में एक बात अच्छी है कि पढ़ते ज़रूर हो और सोचते भी हो मेरे भेजे हर नोटिस पर , अन्यथा तो लोग पढ़ते ही नहीं समझना तो दूर की बात है। फिर से याद दिलवा रहा हूं जिस काम को तुझे दुनिया में भेजा था मैंने अब तो वो काम कर लो। अभी तक मनमानी करते रहे हो। अब आप बताओ मुझे क्या करना चाहिए। सरकारी नोटिस का नोटिस सभी लेते हैं क्योंकि उस में साफ चेतावनी लिखी होती है दंड की सज़ा की जुर्माना लगाने की। कोई पता भी नहीं जवाब किस तरह भेजा जाये कि मुझे अपने किसलिए दुनिया में भेजा था कभी बताया ही नहीं। अपना तरीका बदलो और जब भी जिसको धरती पर भेजो साथ में विस्तार से लिखित सूचना भी नत्थी करो कि इसका जन्म किस मकसद से हुआ है। मैंने तो हर दिन विचार किया है और हमेशा मुझे यही लगा है कि मेरा जन्म बेमकसद ही हुआ है और मुझे बेमकसद यही लिखने का काम करना है जिस से किसी को कोई ख़ुशी नहीं होती न कोई फर्क ही पड़ता है। कुछ भी और मुझे आता ही नहीं है। शायद भगवान की भक्ति या कोई अच्छे काम करने की बात कहना चाहते हो तो मुझसे होता नहीं है कि देश समाज में जो भी होता रहे उसको अनदेखा कर मैं किसी की भक्ति स्तुति गुणगान करता फिरूं। और लोग बहुत हैं मुझे रहने दो जैसा भी हूं।

    अक्सर सुनता रहता हूं ऊपर वाले का बुलावा आने की बात से डरते हैं सभी। मज़ाक की बात नहीं मैंने तो हमेशा चाहा है बुला ले जब मर्ज़ी क्या करना है बहुत जी लिये हैं। पर इतना तो है सोचता हूं मरने के बाद ही सही सामने आओगे नज़र तो बात तो करनी है। मेरा हिसाब लिखा हुआ है कभी अपना भी हिसाब सोचा क्या किया है दुनिया बनाकर उसकी देखभाल करना ही याद नहीं रखा। दुनिया बनाई थी कितनी अच्छी थी सुंदर थी फिर उसको क्यों बेकार नफरत झगड़े स्वार्थ दुश्मनी जैसे रोगों से खराब होने दिया। बस यही सोच कर खुश हो लेता हूं जैसे भी सही तकलीफ देकर नोटिस भेजकर ही सही ऊपर वाले को याद तो है कि इक इंसान है जिसे जन्म दिया है और वापस भी बुलाना है। मगर ये सरप्राइज की आदत का खेल किसलिए पहले से बताया होता एक्सपायरी की तारीख क्या है तो जो नोटिस भेजने से नहीं होता बिना किसी नोटिस मुमकिन है संभव हो जाता। कब आना है बताओ या अब बुला भी लो , कितनी लंबी आयु बस अब काफी है। 

 

अक्टूबर 30, 2018

POST : 947 अगर जीना है ज़माने में तो हंसी का कोई बहाना ढूंढो - जीने का सलीका - डॉ लोक सेतिया

        अगर जीना है ज़माने में तो हंसी का कोई बहाना ढूंढो - 

                               जीने का सलीका - डॉ लोक सेतिया

      आज अपने अनुभव की बात , ज़िंदगी जीने का ढंग। जैसे सबको किसी की तलाश होती है कोई अपना जो समझे जो प्यार करे जो अपनाये जो दुनिया के ग़म दुःख दर्द भुला दे। हैं ऐसे लोग मगर आस पास मिलते नहीं हैं जिनको मिलते हैं बहुत खुशनसीब होते हैं। अधिकतर नाते रिश्ते शर्तों से बंधे होते हैं और शर्तों पर जीना तो बार बार मरना होता है। समझाते समझाते ज़िंदगी बीत जाती है। मुझे नहीं मिला कोई अपना जो समझता मगर मुझे फिर भी अगर किसी ने संबल बनकर ज़िंदा रखा है तो सबसे पहले संगीत ने और उसके बाद साहित्य लिखने पढ़ने ने। किताबों में आपकी हर समस्या का हल है हर सवाल का जवाब है कभी तलाश कर के देखना। सोचना जब भी आप वास्तव में अकेले होते हैं आपकी तनहाई का साथी हमेशा किताबें या संगीत हो सकते हैं। शीर्षक ही इक गीत से लिया हुआ है पूरा अंतरा यूं है। 

               ज़माने वालों किताबे ग़म में ख़ुशी का कोई फ़साना ढूंढो ,

                अगर जीना है ज़माने में तो हंसी का कोई बहाना ढूंढो। 


  जीने की राह , फिल्म का नाम भी यही है। ऐसा भी नहीं कि आशावादी गीत ही आपको जीना सिखा सकते हैं , अक्सर दर्द भरे गीत भी इक सुकून थोड़ी राहत का अनुभव ही नहीं देते अपितु आपको समझ आता है कि शायद आपसे अधिक दुःख दर्द और लोग भी झेलते हैं सहते हैं। मैंने हमेशा उदासी निराशा अकेलेपन में पुराने गीत सुने हैं गुनगुनाए हैं और मुझे जैसे इक नई आशा इक उमंग मिलती रही है। मरने का सलीका आते ही जीने का शऊर आ जाता है। एक लाइन कितना कुछ कह जाती है। इक दिन तो समझ लेगी दुनिया तेरा अफसाना , ऐ मेरे दिले नादां तू ग़म से न घबराना। हमने उन किताबों को पढ़ना छोड़ दिया है जो जीने का पाठ पढ़ाया करती थीं या फिर आज भी पढ़ा सकती हैं। किसी ने समझाया ही नहीं कि महीने में ही सही एक किताब साहित्य की खरीदी जाये और अच्छी तरह उसे पढ़ा जाए। शिक्षित होने का अर्थ पढ़ना लिखना छोड़ देना तो नहीं हो सकता , और जिनको पढ़ना उकताता है उन्होंने पढ़ा जितना भी समझा नहीं है। पढ़ने का मज़ा ही तभी आता है जब आप समझते हैं। यही संगीत की बात है जब तक शब्दों के भावार्थ आपको भीतर तक महसूस नहीं होते संगीत और शोर एक जैसे हैं। मुझे जिन फ़िल्मी गीतों से चैन मिलता है वो कुछ इस तरह हैं। 
 
           ओ माझी चल , रात भर का है महमां अंधेरा , किस तरह जीते हैं ये लोग , अपने लिए जिए तो क्या जिए , किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार , कोई जब राह न पाए मेरे संग आये की पग पग दीप जलाये मेरी दोस्ती मेरा प्यार। मुझसे नाराज़ हो तो हो जाओ , आप अपने से तुम खफ़ा न रहो। न सर झुका के जिओ और न मुंह छिपा के जिओ। साहित्य कला संगीत वास्तव में रंग भरते हैं ज़िंदगी में बेरंग जीवन किसी अभागिन महिला की तरह होता है। इक बात को समझना ज़रूरी है कोई भी किसी का साथ हमेशा नहीं निभा सकता है , कभी न कभी किसी न किसी मोड़ से रास्ते बदलते रहते हैं। जब तक हम इस जीवन की वास्तविकता को स्वीकार नहीं करते हैं हम दुःख दर्द को खुद जकड़े रहते हैं। जिस का साथ जितना रहा उसी को बहुत समझना ज़रूरी है कोई जब अनचाहे साथ निभाता है तो बनावटीपन होता है जीवन में वास्तविकता बचती नहीं। सब से पहले खुद अपने आपको तलाश करना और अपने संग रहना आना चाहिए। चल अकेला चल अकेला चल अकेला , तेरा मेला पीछे छूटा रही चल अकेला। सब से महत्वपूर्ण बात इक ग़ज़ल से समझी जा सकती है। 

जब किसी से कोई गिला रखना , सामने अपने आईना रखना। 

मिलना जुलना जहां ज़रूरी हो , मिलने जुलने का हौसला रखना। 

घर की तामीर चाहे जैसी हो , उस में रोने की इक जगह रखना। 

और भी ग़ज़लें हैं जो आपके काम आती हैं जब कोई आपके साथ नहीं होता है। 
अपना ग़म ले के कहीं और न जाया जाये , घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये।

अक्टूबर 29, 2018

POST : 946 काली पहाड़ी के पीछे ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

       काली पहाड़ी के पीछे ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

      कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है इधर उधर तथाकथित महानयक उपदेश देते हैं। जो भी चाहिए सब ऑनलाइन ऐप्प पर मिलता है। खलनायक ने आज़ादी को अपने कब्ज़े में कर लिया है और सोशल मीडिया पर खुलेआम घोषणा की है जिसको आज़ादी को आज़ाद करवाना है फिरौती देकर ले जाये। जगह वही जो हर हिंदी फिल्म में रही है काली पहाड़ी के पीछे। शोर मच गया है गब्बर सिंह ज़िंदा है और उसने बंधक बना लिया है हमारी आज़ादी को। हर चैनल अपने ढंग से बहस करवा रहा है , कोई अफवाह बता रहा है कोई वीडियो दिखा रहा है। सरकार अभी तथ्य पता लगा रही है उसकी कड़ी निगाह पल पल की घटना पर है। लोग फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर दहाड़ रहे हैं अपने अपने ज्ञान बघार रहे हैं। गूगल पर तलाश की जा रही है वो काली पहाड़ी , पहाड़ ही पहाड़ हैं हरियाली है रंग बिरंगे पत्थर हैं टूटी फूटी सड़कें हैं टेड़े मेड़े रास्ते हैं कुछ रेत वाले टीले भी हैं जो पहाड़ जैसे लगते हैं। काली पहाड़ी मिल नहीं रही है , चलो उसी महानयक से पता करते हैं उसने कई बार अपनी फ़िल्मी नायिकाओं को बचाया है। हंस कर सवाल उड़ाया है जवाब दिया है काली पहाड़ी काली ही है ऐसा कब किसी ने कहा आपको। आप जिस किसी पहाड़ी को काली पहाड़ी नाम देकर बुला सकते हैं। मेरी हर फिल्म में महानगर की सीमा पर जंगल और काली पहाड़ी होती थी आपने अपने गांव शहर में कोई जंगल कोई पहाड़ रहने दिया हो तो दिखाई देती काली पहाड़ी। फिर भी उनकी ऐप्प ने इक काली पहाड़ी ढूंढ ही ली। अब समस्या ये है कि उसका अगला भाग किधर है और पिछले कौन सा है। पूरी गोलाई में ऑनलाइन तलाश किया तो हर तरफ से इक जैसी दिखाई देती है। समस्या खड़ी हो गई है कि पहाड़ी के एक तरफ कोई देश है दूसरी तरफ कोई दूसरा देश है और दोनों देशों से हमारा संबंध बिगड़ा हुआ है। हम उन दोनों देशों को बता भी नहीं सकते कि हमने उस पार आकर अपनी आज़ादी को छुड़वाना है। सर्जिकल स्ट्राइक भी नहीं की जा सकती क्योंकि आज़ादी को खतरा है। 
 
                           अभी तक आपको ये काल्पनिक बात लग रही है तो चलो आपको आपकी वास्तविकता दिखाते हैं। घर की छत पर खड़े पकड़ो पकड़ो चिल्लाते हैं डरते हैं बाहर निकलना तो दूर छत से नीचे भी नहीं आते हैं। गुंडे बदमाश आतंकवादी जब चले जाते हैं आप तब सोशल मीडिया पर अपनी बनाई वीडियो वायरल कराते हैं और अपनी कायरता पर इतराते हैं। चोर चोर का शोर मचाते हैं मगर ऐसा कर चोरों का हौंसला बढ़ाते हैं। शेरदिल हैं सोशल मीडिया के पर शाम को घर में दुबक जाते हैं अंधेरे में अपने ही साये से डर जाते हैं घबरा कर भूत भूत चिल्लाते हैं। बात को और नहीं बढ़ाते हैं आईये आपको काली पहाड़ी की कथा की असलियत समझाते हैं। हम लोग समझते हैं हम अपनी सरकार बनाते हैं मगर दो दिन बाद खुद ही बतलाते हैं किस दल की किस नेता की सरकार है समझते समझाते हैं। उसके बाद हम सभी पछताते हैं मगर नेता लोग नाचते गाते जश्न मनाते हैं। जो कोई अधिकार की बात करता उसको आंखें दिखाते हैं। सत्ता पाकर सभी नेता एक जैसे हो जाते हैं , खलनायक बनकर आज़ादी को हमारी छीन कर अपना बंधक बनाते हैं। पांच साल किस तरह शासन चलाते हैं आज आपको सामने दिखाते हैं , क्या आपको हर दिन विज्ञापन नज़र आते हैं। मगर विज्ञापन की रोटी पानी भूख प्यास तो नहीं मिटाते हैं। धोखा देते हैं नेता हम धोखा खाते हैं। अब साफ सीधी बात पर आते हैं। सब पुरानी कहानियां दोहराते हैं , पहले वो करते थे अब ये कर दिखाते हैं।

          जो भी मुख्यमंत्री बनता है या प्रधानमंत्री बनाया जाता है , हर सप्ताह कभी इधर कभी उधर जाते हैं। मकसद देश या राज्य की वास्तविकता समझना या देखना नहीं होता है , अपनी महत्वाकांक्षा अपना वर्चस्व अपना विस्तार बस यही ध्येय बन जाता है। सच तो ये भी है इनको समाज की असलियत से नज़रें चुराना होता है सावन के अंधों को हर तरफ हरा भरा दिखाना होता है। आम जनता से बात होती नहीं है विरोध करने की अनुमति मिलती नहीं है। अधिकारी सब काम छोड़ इनके दल के आयोजन और सरकारी आयोजन का भेद भूल जाते हैं। सत्ताधारी नेताओं की आये दिन की सभाओं पर सरकारी साधन बर्बाद किये जाते हैं। कोई नियम कायदा नहीं लागू होता है। हर दिन अधिकारी कर्मचारी अनावश्यक सभाओं में लगे रहते हैं अपना कर्तव्य छोड़ कर। हम लोग उनकी तमाम गलत बातों पर खामोश रहते हैं सवाल नहीं करते क्या इसे जनता की सेवा कहते हैं। नेता जब जिस भी शहर जाते हैं कुछ लोग अधिकार मांगने नहीं खैरात लेने की तरह जाते हैं। अपना स्वार्थ पूरा होने पर खुश हो जाते हैं , बाकी हर तरफ कितना गलत है भूल जाते हैं। बड़ी बड़ी बातें करते हैं मगर इतना नहीं हिसाब लगाते हैं ये नेता आए दिन हमारा पैसा अपने मकसद को फज़ूल उड़ाते हैं।

         सत्ता पाकर आज़ादी पर डाका किसने डाला है देश का यही सबसे बड़ा घोटाला है। हर नेता को अपने दफ्तर में रहकर काम करना चाहिए। अपने बड़ी बड़ी कंपनियों के चलाने वालों को कभी इस तरह बेकार आते जाते देखा है , हर शहर उनका कारोबार है अधिकारी नियुक्त हैं सब काम की जानकारी लेते हैं। अगर इस तरह अपने अधिकारीयों कर्मचारियों को अपने आने जाने के आयोजन पर लगाएं और पैसा उड़ाएं तो कंगाल हो जाएं। मगर यहां नेता अधिकारी देश और जनता के धन को समझते हैं चोरी का माल है जितना खा जाओ सब हलाल है। इतना बड़ा देश इतने संसाधन होते भी घाटे में इसीलिए जाता है क्योंकि हर शासक लूटता है और लुटवाता है। लूट के माल का कोई भी नहीं रखा बही खाता है। अभी भी नहीं समझा जो अनाड़ी है , आपके सामने जो है यही काली पहाड़ी है। 
 


         

अक्टूबर 27, 2018

POST : 945 सीबीआई मार्का पटाखों की गूंज ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  सीबीआई मार्का पटाखों की गूंज ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      आधी रात को गूंज दूर तक जाती है तभी सरकार ने आधी रात को सीबीआई मार्का पटाखों को आज़मा कर देखा। अदालती आदेश है दीपावली पर ऐसे पटाखे चलाए जाने चाहिएं जो कम प्रदूषण करें अब इन से कोई प्रदूषण हुआ ही नहीं और धमाका देश भर में अभी भी गूंज सुनाई दे रही है। आप बेकार चिंता मत करो कितनी संस्थाओं का क्या हाल है जब देश बदहाल है तो ये सभी देश से अलग भला कैसे रह सकते हैं। क्या ये सरकारी दीवाली थी या दिवालिया घोषित करना ये बहस करते रहेंगे जिनको आदत है चिंता करने की। चिंताराम की चिंता करने से कोई समस्या हल हुई कभी। सकारात्मकता तलाश करना आना चाहिए दशहरा से अनहोनी की चिंता होने लगी थी। आपको वास्तविकता अभी तक भी शायद समझ नहीं आई है। जिस इमारत को समझा गया था ऐसे पत्थर की बनी हुई है कि कभी दरार तक नहीं आएगी , ज़रा से तपिश में पिघल रही है मोम की तरह। सरकारी संस्थाओं की मज़बूती ऐसी ही होती है रावण के ऊंचे बुत को दो पल नहीं लगते ख़ाक होते समय। जिसका दावा था सबसे भरोसे की नींव पर बनाया गया है उसी में हर कोई भरोसा तोड़ता मिला। मेरे दोस्त जवाहर लाल ज़मीर जी का शेर है शायद दिल्ली की बात लगती है। 

       इक फूल को छुआ तो सब कागज़ बिखर गए , तुम कह रहे थे मेरा बहारों का शहर है।

यहां तो फूल तक पत्थर के होते हैं राजधानी में दिखावे को लगते हैं असली जैसे मगर खुशबू नहीं होती न ही कोमलता का एहसास होता है। दूर से दर्शन करो यही अच्छा है हाथ लगाओ तो घायल भी हो सकते हैं। अब हर राज्य अपने अपने विभाग को निर्देश जारी करने वाला है कि आप भी ऐसे धमाके करके दीवाली मनाओ। सीबीआई के पटाखे ही नहीं मिठाईयां भी मंगवाओ। त्यौहार है सब मिलकर मनाओ नाचो गाओ। अभी तो अपने सैंपल देखे हैं अभी तो फिल्म बाकी है ये केवल ट्रेलर था। अगले महीने रिलीज़ होगी सारी फिल्म और सुपर डुपर हिट होनी तय है। ठगज़ ऑफ हिंदुस्तान के बाद इसकी बारी है आमिर खान की चिंता बढ़ गई होगी। अभी तक मामला चोर पुलिस वाला था जो वास्तव में चोर चोरी और चौकीदार था मगर किसी को खबर नहीं थी। बात निकलती है तो कितनी दूर तलक जाएगी ये शायद खुद बोलने वालों को खबर नहीं होती। काहे को लफड़ा किया अंदर बैठ चुपचाप सुलटा लेते तो ऐसी छीछालेदारी तो नहीं होती। नाम कमाने में सालों लगते हैं नाम मिटाने को इक लम्हा भी नहीं। आज जो लिखी है लघुकथा लगती है , कल यही कहानी बनेगी और बाद में इसी का उपन्यास बनाया जाएगा। अभी थोड़ा रुकना चाहिए तमाशा शुरू हुआ है खत्म नहीं होने वाला जल्दी से । मध्यांतर । 

 

POST : 944 साधु और शैतान की नई कथा ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

    साधु और शैतान की नई कथा ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

      बात शुरु तो नन्हा फरिश्ता से करना चाहता था जिस में तीन खूंखार डाकू इक नहीं सी बच्ची के कारण इंसान बन जाते हैं। मगर ऐसा मुमकिन नहीं है क्योंकि संवेदना बची नहीं है समाज में। बात साधु और शैतान से शुरू करनी पड़ रही है जबकि वास्तव में इधर साधु भी साधु बनकर शैतान को भी सोचने पर विवश कर रहे हैं कि इनमें कोई विवेक कोई अंतरात्मा नाम का कुछ नहीं है। अन्यथा ऐसा कैसे संभव है कि ये सब अंधे हो कर अपनी ख़ुशी अपने स्वार्थ के लिए धन दौलत सत्ता धर्म नियम कानून हर चीज़ का गलत इस्तेमाल करें। और ये सब घोर पाप अपराध करने के बावजूद धार्मिकता का चोला पहने हुए हों। जिस देश की पुरानी परंपरा और गुरुकुल की शिक्षा की बात करते हैं जब भारत विश्वगुरु कहलाता था और लोग ज्ञान पाने को आते थे उस समय की शिक्षा और उन सभी वेदों ग्रंथों उपनिषदों नीतिशास्त्र की किताबों की बातों को पढ़ना तो क्या उन पर चिंतन करना भी छोड़ दिया है। आज उन्हीं किताबों की कथाओं का सार निचोड़ इस अध्याय में आधुनिक संदर्भ में बताया जाएगा। 
 
           पाप क्या है पापी कौन है अपराध किसे कहते हैं हर शब्द की व्याख्या है। लोग भूख से मरते हैं मगर सत्ता पर बैठे व्यक्ति को कोई एहसास नहीं होता है और वो खुद अपने पर बेतहाशा धन सुःख साधनों पर अपने नाम के गुणगान और शोहरत हासिल करने पर खर्च करता है तो ऐसा करना गुनाह है। जो शासक जनता को वादे करता है उनकी भलाई करने के मगर उस पर खरा उतरता नहीं है बल्कि उन वादों को भूलकर विपरीत आचरण करता है केवल अपने चाटुकार लोगों को पदों पर बिठाता है और अपने ख़ास लोगों को अनुचित ढंग से फायदा पहुंचाने को हर नियम कायदा ताक पर रख देता है वो अधर्मी शासक है। जो धनवान अपने धन को केवल और अधिक बढ़ाने का काम करते हैं हर किसी से लूट लेना चाहते हैं और जिनकी पैसे की हवस खत्म होती ही नहीं है उनकी गरीबी सबसे अधिक है और ऐसी कमाई कभी खुद उन्हीं के विनाश का कारण बनती है। जिस के पास अपनी ज़रूरत से अधिक धन होता है उसको उसका उपयोग लोगों की सहायता और समाज कल्याण में करना चाहिए वास्तव में दीन दुखियों की सहायता कर के न कि आडंबर कर दिखावे को दान आदि देकर। रहीम के दोहे के अनुसार " देनहार कोऊ और है देत रहत दिन रैन , लोग भरम मोपे करें याते नीचे नैन "। दान या सहायता दाता बनकर नहीं ये विचार कर करनी चाहिए कि ईश्वर ने दिया है मुझे तो माध्यम बनाया है कोई आदमी दाता नहीं हो सकता है। 
 
               अपराधी कौन हैं इसकी भी व्याख्या की गई है। आपको ओहदा मिला अधिकार मिले मगर आप देश या समाज के लिए पूरी लगन और ईमानदारी से कर्तव्य पालन नहीं करते हैं तो आप अधिकारी या डॉक्टर शिक्षक उद्योगपति बनकर भी अज्ञानी और अत्याचारी हैं जो काबिल होकर भी नाकाबिल हैं क्योंकि जो करना फ़र्ज़ है उसे नहीं करते और जो कभी नहीं करना वही करते हैं। अगर ऐसा करने के बाद आप खुद को आस्तिक मानते हैं तो इससे बड़ा छल कपट और कुछ नहीं हो सकता है। डॉक्टर का पहला काम उपचार करना है उसके बाद उचित कमाई की बात। शिक्षक जब ज्ञान का कारोबार करता है तो गुरु कहलाने का हक नहीं रह जाता है उसको भटका हुआ अज्ञानी समझना चाहिए। अधिकारी बनकर देश और समाज को अच्छा शासन नहीं देकर अधिकारों का दुरूपयोग करने वाला चोर डाकू और अन्यायी बनकर भगवान की अनुकंपा का निरादर करता है। 
 
               धर्म कोई इमारत का नाम नहीं है , मंदिर मस्जिद गिरजाघर गुरूद्वारे बनाना धर्म है ऐसा किसी किताब में लिखा नहीं है। हर धर्म संचय नहीं करने और जो पास है उसे गरीबों की दुःखियों की बेबस लोगों की सहायता में खर्च करना चाहिए यही समझाता है। पत्थरों में नहीं भगवान इंसानों में देखना चाहिए और धर्म के नाम पर धन दौलत सोना चांदी हीरे जवाहरात का अंबार जमा करना तो अधर्म हो सकता है धर्म नहीं। अब विचार करना होगा कौन कौन है जो साधु होने का दम भरता है मगर काम शैतान से भी बढ़कर गंदे करता है। शायद हर किसी ने समझ लिया है उनकी वास्तविकता कोई नहीं जानता और भगवान भी उनकी दिखावे की भक्ति और पूजा पाठ से खुश होकर उनके पाप अपराध क्षमा कर देगा। मगर ऐसा नहीं है ऊपर वाला कोई रिश्वतखोर या अपनी स्तुति से खुद होने वाला हम लोगों जैसा आदमी नहीं है और उसको कोई कुछ भी नहीं दे सकता है न ही उसको किसी से कुछ भी चाहिए। उसका हिसाब सच्चाई और झूठ को तोलना और अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब करना है। देर है अंधेर नहीं है और शायद अब अधिक देर तक ईश्वर भी ये होने नहीं दे सकता है।  
  

अक्टूबर 25, 2018

POST : 943 तोता मैना की कहानी नया अध्याय ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

  तोता मैना की कहानी नया अध्याय ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

          जब से देश में घोटाले होने लगे तभी से सरकार ने इक तोता पाल रखा था। कथावाचक तोता जो लिखा हुआ मिलता उसे बांचता था। कभी किसी ने दक्षिणा पर सवाल नहीं उठाया मामला जितना बड़ा दक्षिणा  उतनी अधिक। कथावाचकों  का झगड़ा कोई अनहोनी बात नहीं है कथावाचक आरोप लगाते रहते है सरकार बीच बचाव करती और किसी को खबर नहीं होती। नये नेताजी को उस तोते पर भरोसा था जो बीस साल से उनकी पसंद की कथा पढ़ता रहा था। मुश्किल सामने आई कि तोता अनुभव में कम था और उस से अधिक अनुभवी कथावाचक तोते पहले से विभाग में थे। मगर बीच का रास्ता तलाश किया और अपने तोते को दूसरे नंबर पर बराबरी के अधिकार देकर नियुक्त किया और पहले पर भी अपनी पसंद का थोड़ा अनुभवी तोता रख लिया। जो काबिल और अनुभवी थे उनको रखना मुश्किल था क्योंकि उनको पुरानी कथा कंठस्त थी मगर सत्ता को अपनी लिखवाई किताब की कथा बंचवानी थी। सरकार ने उन दोनों को अपनी पसंद की कथा समझा दी थी और उनको पढ़नी भी आ गई थी। ऐसे में कोई नया घोटाला सामने आने को था जो नज़र आता भी छुप जाता भी। ऐसे कठिन समय में दो कथावाचक खुद को देशभक्त और दूसरे को देशभक्त नहीं चोर है का आरोप लगाने लगे। चोरी हुई सब जानते हैं मगर चोरी का माल बरामद नहीं हो सकता था। ज़रूरत थी उस पुरानी वाली देशभक्ति की किताब की मगर उसको पहले ही नष्ट किया जा चुका था ऊपरी आदेश से। फिर भी किताब तलाश करने की बात ज़रूरी थी और तलाशी शुरू भी कथावाचक से शुरू की गई।    
   
    वादों की किताब अभी सुरक्षित रखी हुई है अलमारी में। चुनाव जीतने के बाद संभाल कर रखी दी थी। और इरादों की किताब पर अमल शुरू कर दिया था जो अभी जारी है। इरादे बहुत हैं कुछ सामने हैं कुछ छुपे हुए हैं। इरादों की किताब बहुत विस्तार में लिखी है। लिखने वाले लिख कर शर्मिंदा भी बहुत थे मगर फिर भी दंगों की किताब को जलाया नहीं देश जलाने के बाद भी। विश्वास था सत्ता उसी से मिलेगी तभी उसकी नियमित पूजा करते रहे हैं उनके बाद उनके शागिर्द भी। बड़े मियां ने सिखाया छोटे मियां को वही भाया। अभी नफरत को और बढ़ाना है जो सबक भूल गये उनको याद करवाना है। जाना चाहिए जाना चाहते नहीं दोबारा आज़माना है वही किस्सा पुराना है। चोरों की किताब दो भाग में लिखवाई हुई है सभी विभागों को अलग अलग ढंग से समझाई हुई है। आपको भी भिजवाई हुई है भूली क्यों सीबीआई है। पहला भाग है चोरी करने के ढंग हज़ार पढ़ते हैं बड़े अधिकारी और उसके सब यार। चोरों के उसूलों की है जो आधी बाकी किताब हुआ उसी को लेकर है नया फसाद। उसूल तोड़ने वाले पर लिखवाई एफआईआर मचा हुआ है हाहाकार। खो गई उसूलों की किताब है जिसमें हर सवाल का दिया जवाब है। इतिहास की भी किताब रखी है दूध में गिरी कोई मक्खी है। किताबों की बात कभी नहीं बदलती है यही बात उनको मगर खलती है। देशभक्ति को बेचना बात अच्छी है झूठ की हर इक बात सच्ची है। सच्चाई कड़वी है नीम जैसी है , बात झूठी अफ़ीम जैसी है। झूठ मक्खन भी है मलाई भी और खिलाता है वो मिठाई भी। हो गई गुम है देशभक्ति की किताब जिसमें शामिल था सभी का सांझा हिसाब। जाने किस ने चुरा लिया उसको , हम सभी ने भी भुला दिया जिसको। गब्बर सिंह तक हैरान है अभी तलक उस पर नहीं बसंती भी लगा सकी गलत कोई इल्ज़ाम है। नाचना गाना कब किसने कहा हराम है जब भी मौज मस्ती हो वही सुहानी शाम है। डाकू तक देशभक्ति की किताब को अच्छा बताते थे , उसी के सामने सर झुकाकर बदल जाते थे। जिस किसी ने किताब चुराई है लौटा दे दुहाई है।

         कोतवाल को रपट लिखनी है किस भाषा में लिखी हुई किताब है जिस किसी ने पढ़ी हो सामने आये। सुनी है मगर देखी नहीं देखी थी मगर पढ़ पाये नहीं सब यही जवाब देते हैं। सीबीआई को सुरक्षा करनी थी देशभक्ति की किताब अनमोल थी। जितने मुंह उतनी बातें हो रही हैं सरकार कहती है जिनको किताब की सुरक्षा करनी थी उन्हीं को जांच का अधिकार नहीं हो सकता है। सीवीसी को पता होगा किताब को किसे तलाश करना है। नेता लोग ब्यानबाज़ी से बाज़ नहीं आते हैं कोई कहता है जब आज़ादी के बाद उस किताब की पढ़ाई ही बंद कर दी गई और केवल कई तरह की बातों को ही देशभक्ति मान लिया गया तो किताब को दीमक चाट गई होगी। आजकल देशभक्ति तिरंगा फहराना कोई दौड़ आयोजित करना किसी खेल की हार जीत पर ख़ुशी या दुःख होने से दिखाई देती है या दो दिन खास तौर पर छुट्टी मनाते गीत गाने से नज़र आती है। पुराने ढंग की देशभक्ति जिसमें जान नयौछावर करने का जज़्बा होता था इधर चलन से बाहर है। राजनेता देश को लूटने को देशभक्ति नाम देते हैं। कहीं किसी विदेशी हाथ की बात तो नहीं है पता चले कि देशभक्ति की किताब कोई और देश अपने अजायबघर में रखे हुए हो और जिसे देखनी हो वो किताब उसे दाम चुकाना पड़ता हो। दाम चुकाने वाली देशभक्ति आज कौन चाहता है , हर किसी को देशभक्त बनना है सांसद विधायक या कोई तमगा पाकर। 

             सत्ता का कहना है आपको देश में अगर रहना है झूठ को सच ज़रूरी कहना है। देशभक्ति उन्हीं की सच्ची है आज़ादी से पहले की देशभक्ति तो कोई बच्ची है। किताब फिर से लिखवानी होगी जिस में बस उनकी सिर्फ कहानी होगी। न कोई दादा होगा न कोई नाना नानी होगी , आपको ताली ही बजानी होगी , नेता जी को सुनानी है उन्हीं की ज़ुबानी होगी। आग पहले लगानी होगी फिर आग से आग बुझानी होगी। जहां राजा होगा वहीं राजधानी होगी , रानी नई होगी न ही पुरानी होगी। लोग शक कर रहे हैं जिस पर उसका कहना है किताब मिट गई हमारी राजनीति में पिसकर। सत्ताधारी खामोश है किताब की सुरक्षा उसी का ज़िम्मा था। उसको पहले सत्ताधारी ने सौंपी थी आने वाले को अपने बाद सौंपनी थी। सवाल हैं जवाब नहीं हैं , उनका सब ज़ुबानी जमा खर्च है कोई बही खाता नहीं है। जानकर कहने लगे हैं ये तो पुरानी कथा का नया अध्याय है। जो पहले कोई करता वही चल रहा है। बेकार लोग तोते की साख की चिंता करते हैं जब तोता है वो भी सरकारी सत्ता का पिंजरे में बंद तोता तो साख बचती कहां है। जो पढ़ाया वही दोहराता है फिर भी सभी को क्यों भाता है। आधी रात को दो तोतों को पिंजरे से बाहर कर दिया और इक तोता वहां रख दिया गया , पिंजरा खाली नहीं रहना चाहिए। जिन को किताब खोजने पर लगाया गया था उनको भी आज़ाद कर भेज दिया अलग अलग जगहों पर। हर तोता रखवाली करने वाला था अब हर तोते पर पहरा लगाया गया है। किताब मिल गई तो चौकीदार की नौकरी पर बन आएगी। एक डाल पर तोता बोले एक डाल पर मैना , दूर दूर बैठे हैं लेकिन प्यार तो फिर भी है ना , बोलो है ना। कोयल भी गीत सुना रही है मेरी ग़ज़ल गुनगुना रही है।


     बिका ज़मीर कितने में हिसाब क्यों नहीं देते , सवाल पूछने वाले जवाब क्यों नहीं देते।


     सभी यहाँ बराबर हैं सभी से प्यार करना तुम , सबक लिखा हुआ जिसमें किताब क्यों नहीं देते।


     नहीं भुला सके हम खाव्ब जो कभी सजाये थे , हमें वही सुहाने फिर से ख्वाब क्यों नहीं देते।


     यही तो मांगते सब हैं हमें भी कुछ उजाला दो , नहीं कहा किसी ने आफताब क्यों नहीं देते।


अक्टूबर 23, 2018

POST : 942 वैधानिक चेतावनी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        वैधानिक चेतावनी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

   म्यूच्यूअल फंड्स का विज्ञापन सभी दस्तावेज़ों को ध्यान से पढ़ने को सचेत करता है। हर शराब की बोतल पर है सिगरेट की डिब्बी पर भी सावधानी की बात लिखना ज़रूरी है। बीमा कंपनी वालों की बात ओह माय गॉड फिल्म तक बना डाली मगर बदला नहीं चलन कोई भी। चेतावनी देने से किसी का धंधा मंदा नहीं हुआ है। चर्चा हो रही है मुहब्बत इश्क़ प्यार के बाज़ार की , कुछ दिनों से गुलाब कम बिक रहे हैं आई लव यू वाले महंगे कार्ड की बात क्या सस्ते भी कोई खरीदार नहीं मिलता है। आशिक़ लोग कभी डरपोक नहीं होते थे , जब प्यार किया तो डरना क्या। मगर इधर डर महबूबा के बाप का नहीं है न उसके भाइयों का ही , महबूबा ही कभी बाद में मीटू कर सकती है डर सताता है। मजनू को पहले कोई चेतावनी देता पत्थर मारने की नौबत भी होगी तो शायद वो भी सौ बार सोचता। हीर रांझा रोमियो जूलियट की कहानी कुछ और होती अगर उनको अंजाम का पता होता पहले से। मगर प्यार के बाज़ार का कारोबार करने वाले आशिक महबूबा दोनों की चिंता समझते हैं। तभी हर मुहब्बत का इज़हार करने वाले उत्पाद पर बाद में मीटू की बात लिखनी ज़रूरी समझी जा रही है। कोई भी कारोबार करने वाला ये जोखिम नहीं उठाना चाहता कि उनके उत्पाद किसी भी तरह से किसी को इश्क़ विश्क का सबक पढ़ाने को ज़िम्मेदार रहे हैं। किसी को प्यार का इज़हार करना है या नहीं उनके उपहार बेचने का उससे कोई मतलब नहीं है। भविष्य में किसी होने वाली घटना से कारोबार करने वाली कंपनी का कोई नाता नहीं होगा। बहुत ही बारीक शब्दों में चेतावनी लिखी रहती है जिस पर किसी का ध्यान नहीं जाता , पहले अपनी महबूबा से पूछ लें कि किसी मतलब या ज़रूरत से तो नाता नहीं बना रही और कभी बाद में मीटू में शामिल होकर खुद को भोली मासूम बेचारी कहकर आशिक़ को बदनाम तो नहीं करोगी। हैरानी की बात नहीं है आजकल प्यार भी सोच समझ कर हिसाब किताब लगाकर होता है। पढ़े लिखे लोग हैं नासमझी वाला इश्क़ नहीं करते कभी। रही बात आज जो कहा बाद में उस पर कायम रहने की तो उसका उपाय कोई नहीं है मुकरने वाले लिख कर भी मुकर सकते हैं। मामला अदालत में पहुंच गया है मुमकिन है अदालत कोई नया ढंग प्यार करने का भी समझा दे या कोई कानून बनवा सकती है आशिकों का पंजीकरण ज़रूरी हो जाये।

        एक्सपायरी की तारीख दवाओं की तरह रिश्तों की भी होती है , तमाम उम्र कहां कोई साथ देता है , मैं जनता हूं मगर थोड़ी दूर साथ चलो। बीच राह में साथ छोड़ना ही नहीं कहते कभी रास्ते भी बदलते रहते हैं जिस को जिधर जाना हो जाने दो आप जिधर जाना चाहते हो चले जाओ। मगर जितना साथ निभाया उस का आभार समझना चाहिए , किसी को बेवफ़ा कहना मुझे अच्छा नहीं लगता , निभाई थी कभी उसने भी उल्फत याद रखते हैं। दिलबर की रुसवाई नहीं होने देनी चाहिए वर्ना आपकी अपनी वफ़ा भी झूठी साबित हो जाएगी। चलो किसी ने मीटू का आरोप लगाया तो चिंता की क्या बात है आपको साथ लेकर डूबने की ही बात है। हम तो डूबेंगे सनम तुम्हें भी साथ लेकर डूबेंगे नाकाम आशिक़ी का अंजाम है। पर मानहानि का दावा करना उचित नहीं है , आशिक़ों को भला कब से मान सम्मान की फ़िक्र होने लगी। आशिक़ी करनी है तो दिल से करो और दिल धक धक धड़कता है मुहब्बत में डर से नहीं , डर दिमाग़ की उपज है। इक उपाय किया जा सकता है , जिन जिन जगहों पर आशिक़ मिलते हैं सब जानते ही हैं उन सभी जगहों पर बड़े बड़े बोर्ड विज्ञापन की तरह लिखवा कर टंगवाये जाने लाज़मी हैं जिन पर चेतावनी लिखी हुई हो। सड़कों पर खतरनाक मोड़ की बात की तरह वाले। फिर जब कोई अदालत पुलिस थाने जाएगा तो पहला सवाल यही किया जाएगा , आप की दो आंखें हैं अंधे तो नहीं हैं फिर चेतावनी को पढ़कर अनदेखा क्यों किया। दिल दिया दर्द लिया तो दिल एक मंदिर है अब दिल है कि मानता नहीं फिर दिल का क्या कसूर। दिल ने फिर याद किया है अब दिल दे के देखो। दिल हाय दिल जब दिल की बात है तो दिल के डॉक्टर से सलाह लेना अनिवार्य किया जाना चाहिए। आशिक़ी करने से पहले दिल की जांच करवाई होती तो दिल टूटता नहीं। मुश्किल और है कि डॉक्टर दिल का ईलाज भले करते हैं उनके पास दिल होता नहीं है। बड़े बेदिल होते हैं दिल के डॉक्टर तभी दिल को चीरते हैं दिल पर छुरी चलाते हाथ नहीं कांपते उनके। मेरा दिल आपके पास है संभाल कर रखना कहने वाले बिना दिल जीते कैसे हैं। या दिल की सुनो दुनिया वालो या मुझको अभी चुप रहने दो। बात दिल की थी दिल में रखते जुबां पर लेकर क्यों कयामत ढाने की बात करते हैं। सरकार को कोई भी ढंग नहीं मिला तो मुहब्बत करने पर रोक लगाई जा सकती है। प्यार करना समाज को अपराध लगता है अगर कानून भी इसे गुनाह मान लेगा तो कैसे प्यार करोगे। लोग गुज़र बसर कर भी लेंगे मगर लिखने वाले कहानी कविता ग़ज़ल कहने वाले और उनपर फिल्म टीवी सीरियल बनाने वाले सभी बर्बाद हो जाएंगे। ज़रा सी बात पर जाने कितने तूफ़ान खड़े हो सकते हैं।
 

अक्टूबर 22, 2018

POST : 941 शोध अच्छे दिनों पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

        शोध अच्छे दिनों पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

     दादा जी याद किया करते थे वो भी क्या दिन थे दो रूपये में घर की महीने भर की ज़रूरत का सामान मिल जाता था। अच्छे दिन की सही परिभाषा यही है। हर दौर में सुनते हैं ऐसे खराब दिन आएंगे ख्वाब में भी नहीं सोचा था। गुज़रा हुआ ज़माना आता नहीं दोबारा। तभी समझ जाना था जब कोई अच्छे दिन लाने की बात कर रहा था।  गया वक़्त कभी वापस लौट कर नहीं आता है हां आशिक़ ज़रूर कहते हैं मेहरबान होकर बुला लो मुझे जब चाहो , मैं गया वक़्त नहीं हूं जो आ भी न सकूं। गुज़रे वक़्त की ताबीर नहीं ला सकते तो तस्वीर दिखला रहे हैं , ज़ालिम क्या ज़ुल्म किया करते थे समझाने को ज़ुल्म ढा रहे हैं। देखो आपको भी वही पुराने दिन अच्छे थे समझ आ रहे हैं। बुरा वक़्त ठहरता है जाने का नाम ही नहीं लेता अच्छा वक़्त कब चला गया पता ही नहीं चलता है। जो लोग पछता रहे हैं दिल को अब इस तरह बहला रहे हैं चलो अच्छे दिन नहीं आये तो क्या बुरे दिन बस अभी जा रहे हैं। राज़ की बात है जो आज हम बतला रहे हैं आपको अच्छे दिनों से मिला रहे हैं। सामने देखो , उस तरफ मेरी तरफ नहीं दूसरी तरफ दो हमशक्ल साथ साथ आ रहे हैं। 
 
       अच्छे दिन बुरे दिन दोनों जुड़वां भाई हैं राम और शाम सीता और गीता की तरह। आते जाते रहते हैं उसी घर में बारी बारी से। जब जो जिस घर में रहता है तब उस घर में उसी के जैसे दिन रहते हैं। महलों वाले गरीबों से कहते हैं हम से मत पूछो कितने बेचैन रहते हैं अच्छे दिन हैं मगर बड़े ज़ालिम हैं हर घड़ी लगता है महलों को अभी ढहते हैं। अच्छे दिन का सुख रहता नहीं अधिक दिन जब तक रहता है और अच्छे दिनों की चाहत खुश होने नहीं देती है , बुरे दिन साथ निभाते हैं जाते नहीं आसानी से। इस दुनिया में खलनायक ही अच्छे दिन वापस ला सकता है शरीफ नायक तो बेचारा सितम सहता है। नायक किसी काम का नहीं खलनायक बड़े काम आता है। शराफत से अच्छे दिन नहीं ला सकते आदमी को थोड़ा खराब होना चाहिए , मौका मिलते ही बराबर हिसाब होना चाहिए। बर्बाद करने वाले को भी बर्बाद होना चाहिए। 
 
       अच्छे दिन पूछते हैं भाई बुरे दिन तुम रहते कहां हो , बुरे दिन कहते हैं तेरी तलाश में रहता हूं। हर कोई यही गलती करता है उनकी तलाश में रहता है जो आने नहीं हैं बीत चुके हैं। अच्छे दिन एक सपना है बुरे दिन वास्तविकता है। लोग सपनों के पीछे भागते हैं , राजनीति केवल रेगिस्तान की दूर दूर तक फैली गर्म रेत जैसी है जिसमें जनता प्यासे मृग की तरह लोग चमकती रेत को पानी समझ भागते रहे हैं प्यासे मरने को। शोध जारी है कल जाने किसकी बारी है।

अक्टूबर 21, 2018

POST : 940 जमुना मौसी का बुलावा ( खरी खरी ) डॉ लोक सेतिया

     जमुना मौसी का बुलावा ( खरी खरी ) डॉ लोक सेतिया

     गंगा मैया के बेटे मोदी पिछली बार मुझे देर से पता चला कि बेटे आजकल बुलावे पर आते हैं मां के पास। तुम गंगा के बेटे हो तो जानते तो होंगे जमुना मौसी को मुझे , इस बार कोई और बुला ले उस से पहले मैं बुला रही हूं। और कहीं दूर भी नहीं जाना उसी दिल्ली में ही मुझे मिल लेना , अब तो दिल्ली घर जैसी लगती भी होगी। ग़ालिब की दिल्ली ज़फर की दिल्ली , कौन जाता है दिल्ली की गलियां छोड़कर। जो लोग दिल्ली की लाख कमियां गिनवाते हैं वो भी दिल्ली से सब कुछ लेते हैं दिल्ली की बदनसीबी है दिल्ली से लेकर खाते हैं फिर भी गरियाते भी हैं। मेरा दिल भी दिल्ली की तरह विशाल है किसी से कोई भेदभाव नहीं करती। गंगा जमुना संस्कृति की बात सुनी ज़रूर होगी हम हिंदी उर्दू भाषा और सभी धर्मों के मेल की बात को सबसे महत्वपूर्ण मानती हैं। चिंता मत करना मुझे किसी से कुछ भी नहीं चाहिए और मैं नहीं सवाल भी पूछूंगी कि गंगा कितनी स्वच्छ हुई अब तक। मन की बात दिल की बात दोनों एक ही हैं और दिल की बात देश का दिल कहलाने वाली दिल्ली से नहीं होगी तो किसी और से हो भी नहीं सकती है। मेरा महत्व इसी से समझ लेना कि सभी महान लोगों की समाधियां मेरे किनारे पर ही तो हैं। सबकी आत्माओं का मुझसे गहरा नाता है। तुम दिल्ली की जनता के मानस को गलत मत समझना उसे कोई नहीं जान पाया है , चिंता मत करना कि दिल्ली से तुम्हारे दल को बुरी पराजय मिली थी। साहस होना चाहिए दिल्ली का दिल जीतना मुश्किल नहीं है , मगर अहंकार से दिल्ली किसी को नहीं मिली इतिहास गवाह है। नफरत की जगह दिल्ली वालों को भाती नहीं है और दिल्ली का अनुभव है कि जो उसे छोटा समझता है उसे सबक भी सिखाती है। तभी जिसे सभी संसदीय क्षेत्र में जितवाती है विधानसभा में हरवा भी सकती है। गंगा स्नान से पाप धुलते हैं तो जमुना की डुबकी लगाने वाले पाप करने से ही तौबा किया करते हैं। मौसी बुलाए तो हिसाब नहीं लगाते कि जाना फायदे की बात होगी या नुकसान की , मौसी मां से बढ़कर प्यार करती है अगर दिल से बात करता है कोई। 
 
     कोई मांग नहीं है न मेरा कोई झगड़ा है किसी से भी। हरियाणा हो या दिल्ली हो मैं रोकने से रूकती नहीं , जो भी बाहें फैलता है चली आती अविरल बहती हर रुकावट को पार कर। कुछ लोग हैं जो मौसी के रिश्ते को समझते नहीं हैं अन्यथा हर मौसी अपने बच्चों की तरह सभी बहनों के बच्चों को प्यार करती है। मौसी सा रिश्ते निभाना चाचा ताऊ भाई जीजा साला मामा मामी कोई नहीं जानता है। जिनको मां भी कभी प्यार नहीं करती किसी भी कारण उनको भी मौसी सीने से लगाती है। लिखने वालों ने मौसी के किरदार को ठीक से समझा और पहचाना नहीं है वर्ना मौसी की बात पर शोले की बसंती की मौसी याद नहीं आती। यहां ये बताना ज़रूरी नहीं है मगर ध्यान दोगे तो याद आ जाये शायद जब कोई मां जान लेती है कि बच नहीं सकूंगी तब बच्चों का ख्याल रखने को जिसे कहती है वो मौसी ही हो सकती है। हो सकता है तुम्हारे मन में ये बात आये कि मैं खुद तुम्हें क्यों बुलावा भेज रही हूं , मेरा कोई स्वार्थ तो नहीं है। इशारे से समझ जाना मां को जब अपने बच्चे को बचाना होता है तो अपनी छोटी बहन से कहती है तुम उसे अपने घर बुला लेना मेरे पास आएगा तो डरती हूं कोई सज़ा नहीं मिल जाये। और मौसी कभी नहीं पूछती किस बात की सज़ा क्या शरारत की है उसने। भरोसा कर सकते हो सगी मौसी हूं सौतेली मां नहीं हूं। मुझे चुनाव तक तुम्हारा इंतज़ार रहेगा। अपना ख्याल रखना मैसी की ताकीद है।

POST : 939 शुरू भी हमसे खत्म हमीं पर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        शुरू भी हमसे खत्म हमीं पर ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

          चार साल बाद फुर्सत मिली अपनी कुर्सी पर बैठे तो पीठ पीछे लिखे नामों को ध्यान से पढ़ने लगे। सचिव को बुलाया और सवाल दाग दिया मेरा नाम सबसे आखिर में इतना नीचे क्यों लिखवाया गया है। सचिव ने बताया कि हर दफ्तर में ऐसा ही चलन है शुरुआत पहले नंबर से की जाती है आप का नंबर आखिर में ही है पहले 13 और नेता पद पर रहे बारी बारी और एक बीच में कार्यवाहक भी बनाये गये थे। नेता जी को अपना नाम ऊपर चाहिए था इसलिए कहने लगे कि अगर इस को बदलकर उलटी तरह लिखा जाये तो क्या परेशानी है। सचिव ने बताया ये संभव नहीं है कि हर बार संख्या घटती हुई लिखी जाये ऐसे में शुरुआत किस संख्या से करेंगे क्योंकि ये सिलसिला आगे बढ़ता रहेगा। आपके बाद जो बनेगा उसका नाम आपके नीचे लिखा जायेगा। नेता जी को ये अच्छा नहीं लगा , उनको लगता है उनके बाद भी उन्हीं को ही बनना ही है। उनको तो जो नाम पहले लिखे उनको नीचे करना है और सबसे ऊपर अपना लिखवाना है। हमारा नाम वारणसी बाबू , बने हैं हम बनेंगे भी हम हमारा नाम वाराणसी बाबू। नेता जी सुबह शाम दिल ही दिल में यही सोचते रहे तो ये होना ही था कि दिल की बात ज़ुबान पर आ गई। दिन रात यही सोचते रहते और यही सपना देखते कि काश उनका नंबर सबसे ऊपर हो जाये।

             ऐसे में ख्वाब में मनचाही मुराद मांगने की बात सुनते ही कहा कि बस यही बात खलती है कि मुझे 14 वें 15 वें स्थान पर नहीं पहले स्थान पर होना चाहिए था। मुझे हमेशा से लगता रहा है कि इस पद की कुर्सी और मैं एक दूसरे के लिए ही बने हैं। जब भी कुर्सी पर बैठता हूं मुझे लगता है जो जो भी पहले इस पर बैठे काबिल नहीं थे। जिस तरह हर कुंवारा चाहता है उसकी दुल्हन को किसी ने भी पहले छुआ नहीं हो , मुझे भी लगता है कि जब तक मैं नहीं बनाया गया था इस कुर्सी को दूसरे किसी को बैठने देना नहीं था। मेरा इंतज़ार करती रहती। सपना टूट गया वरदान मिलते मिलते रह गया। अपनी उलझन उसको बताई जो इस समस्या का समाधान कर सकता है। बताया कि अगर इस पद का नाम ही वारणसी बाबू हो जाये तो जो भी चुना जाएगा उसी को देश का चौकीदार नहीं वाराणसी बाबू ही कहकर पुकारा जाएगा। नेता जी की चिंता अपनी जगह है उनकी अपनी जगह। ज़िद पर अड़े हैं कि पद का नाम वाराणसी बाबू हो और उसके साथ संख्या एक से लेकर बढ़ती जाये। वाराणसी  शब्द  ही उनका नाम है। संविधान में बदलाव कर हमेशा को पद पर बैठे व्यक्ति को उसी तरह संबोधित किया जाना चाहिए जैसे एलिजाबेथ एक दो तीन हुआ करता था। मगर उलझन है कि नेता जी संविधान में संशोधन भी आज़ादी के बाद से करना चाहते हैं ताकि इतिहास में शुरुआत से ही उन्हीं का नाम लिखा जाये बदल कर। मगर संविधान लागू किया ही बाद में गया था 26 जनवरी 1950 को। अब उससे पहले की तारीख में संशोधन कैसे हो सकता है लेकिन उनका कहना है जब मेरे पास तीन चौथाई बहुमत है तो सब मुमकिन है। आज़ादी की तारीख तक बदल सकते हैं नेता जी का दावा है। नेता जी को पुराना इतिहास पसंद नहीं है बदलना चाहते हैं। सड़कों शहरों के नाम बदलने से बात बनती नहीं लोग तब भी पुराने नाम को याद करते हैं। नेता जी को लगता है इतिहास को दोबारा लिखवाया जाये और ऐसा घोषित किया जाये कि आज़ादी मिली ही उसी दिन जिस दिन उनको कुर्सी मिली थी। और देश की सत्ता जिस का हाथ हो उसको वाराणसी बाबू कहा जाये अभी खुद वाराणसी बाबू हैं तो लिखा जाना चाहिए वाराणसी बाबू एक उसके बाद जब तक उनकी सत्ता है संख्या पहली ही रहेगी जब कभी कोई और बनेगा तो उसको भी वास्तविक नाम से नहीं वाराणसी बाबू दो उसके बाद तीन चार लिखते रहेंगे ताकि अनंतकाल तक उन्हीं का ही नाम रहे। सोशल मीडिया पर बहस जारी है , उनके बाद भी उनकी ही बारी है। सत्ता की ज़िद हमेशा जीतती है कब भला हारी है। नाम लिखना नहीं मिटाना है दिल में बेकरारी है। नाम की भूखी दुनिया सारी है बड़ी मुश्किल से मिलती बारी है। क्या करना है मर्ज़ी हमारी है। निभानी थोड़ी सी मगर दुनियादारी है।

         मगर नेता जी असली बात भूल गये हैं , ख्वाब में जो उनसे बातें कर रहा था वो वाराणसी का गंगा का तट था। उसने बताया था आप को सत्ता मिली ही वाराणसी से जीत के कारण है। जिस दिन वाराणसी ने आपको ठुकरा दिया आप पुराने राज्य से जीत कर भी देश की राजधानी में सत्ता नहीं हासिल कर सकते हैं। वारणसी बाबू नाम दिया था उसी तट ने वो याद रहा मगर असली बात भूल गये। क्या वाराणसी अपनी राय बदलेगी या शायद खुद जनाब ही वाराणसी छोड़ कोई और किनारा तलाश करने लगेंगे। गंगा फिर से उनको बुलाएगी ऐसी संभावना लगती नहीं है। जब नाम ही नहीं रहा वाराणसी बाबू कोई दूसरा बन गया तो क्या होगा। ख्वाब की बात अक्सर आधी अधूरी याद रहती है। ख्वाब तो ख्वाब है उनके सपने भी कमाल के हैं खुद ही अपना नाम याद करते हैं इस डर से कि कहीं भूल ही जाऊं मैं कौन हूं कहां से आया हूं। सिवा अपने कुछ नहीं याद।

अक्टूबर 20, 2018

POST : 938 क्या सच लिखने वाले नहीं थे ( सवालिया निशान ) डॉ लोक सेतिया

  क्या सच लिखने वाले नहीं थे ( सवालिया निशान ) डॉ लोक सेतिया 

       ये मामला अजीब लगता है दुनिया काली और सफ़ेद दो रंगों की नहीं हो सकती। मगर जितने भी महान समझे जाने वाले ग्रंथ हैं उन को पढ़कर लगता है ऐसा थी दुनिया। जो अच्छे थे बहुत अच्छे थे और जो बुरे थे बहुत खराब थे। इतना ही नहीं बुरे खलनायक को भी समझाने वाले अच्छे लोग थे मगर उसको बुराई अच्छी लगती थी मरना मंज़ूर था अच्छा होना नहीं। दार्शनिक बताते हैं ये वास्तविकता हो नहीं सकती है , असली दुनिया में न कोई फरिश्ता बनकर जी सकता है न ही शैतान होकर जीना चाहता है। फिर लिखने वालों ने ऐसा क्यों किया , जो जीता जंग उसको नायक और जिसकी हार हुई उसको खलनायक बना दिया। झगड़ा ईनाम वज़ीफ़े का रहा होगा , किसी को खुश करने को भगवान कहना पड़ा। आज भी कितने लोग हैं जो अपने स्वार्थ को किसी को भगवान घोषित करते हैं , उसकी कोई कमी कोई बुराई उनको दिखाई दे ही नहीं सकती। जाने किसकी खुराफ़ाती दिमाग़ की उपज है जो मसीहा देवी देवता पय्यमबर होने का भी प्रमाण बना दिया कि असंभव को संभव कर दिखाना। जिस किसी ने अंधविश्वास के खिलाफ बात की उसी को सूली चढ़ा दिया ज़हर पिला दिया या समाज से बाहर निकाल दिया। ऐसे ऐसे कारनामे करने का दावा किया गया जो आधुनिक विज्ञान लाख जतन कर आज भी नहीं कर सकता। चलो मान लिया उनकी काबलियत इनसे बढ़कर रही होगी तो उन सभी ने तो सबकी भलाई को किया था जो भी कर सकते थे फिर अपनी किसी भी खोज को सभी की भलाई को बाकी लोगों को बताते ताकि दुनिया को बांटते अपने ज्ञान की दौलत। मगर जब वास्तविकता नहीं केवल कल्पना से बात बनाई हो किसी को मसीहा या खुदा या पय्यमबर बनाने को तो ये तो झूठ की बुनियाद पर महल खड़ा करना हुआ। मगर कोई सवाल भी नहीं करे इसके लिए आस्था की ऊंची ऊंची दीवारें बना दी गईं। सवाल करना अपराध है नास्तिकता है। सांच को आंच नहीं तो सच को छुपाने बचाने का कोई तर्क नहीं है। सच को तो खुद सामने आकर साबित करना चाहिए , झूठ को छिपाना पड़ता है लाख पर्दों के पीछे।

      कई लोग चाहते हैं ईश्वर भगवान खुदा जो भी है सामने आकर दर्शन दे। मुंबई से इक अख़बार निकलता है जिसका नाम ही है। " भगवान सामने आकर दिखाई दो "। आपको सनक लग सकती है उनको आस्था लगती है। मगर सोचो अगर जो भी कोई है जिसने दुनिया बनाई है सामने आकर कहे तो कितने लोग कितने सवाल खड़े करेंगे उससे सबूत मांगेंगे। उसको क्या पड़ी है खुद के होने का प्रमाण उनसे पाने की जिनका खुद होना नहीं होना कब तलक है उनको नहीं मालूम। शायद तभी वो सामने नहीं आया न कभी आना चाहेगा। लोग हर किसी पर शक करते हैं उसे भी इतना तो पता है फिर जिसे भरोसा नहीं उसे भरोसा करवाना किसलिए। मानो चाहे नहीं मानो उसको क्या। मदिर मस्जिद गिरजाघर बना लिए और गुरूद्वारे भी मगर उन में ईश्वर है भी कि  नहीं कोई नहीं जानता , सोचना मना है क्योंकि सोचोगे तो समझ आएगा कि अगर है तो उसी के घर में वो सब कैसे हो रहा है जो कभी नहीं होना चाहिए। धर्म और भगवान सबसे बड़ा कारोबार बना लिया गया है , कोई नुकसान नहीं है मुनाफा खूब है। ये सब कहते हैं वो एक ही है फिर कितनी दुकानें कितने नाम और सब एक दूसरे से मुकाबला करते हुए क्यों हैं। ईश्वर हो भी तो कितना बेबस होगा कि कैसे किस किस को समझाए। जिनको तलाश करनी थी उन्होंने चिंतन किया भटकते रहे दुनिया भर में मगर पाने का दावा नहीं किया। जो कुछ भी नहीं कर सकते थे उन्होंने हमेशा अपने आस पास किसी को ईश्वर का रुतबा देने की बात कहकर खुद अपने को महाज्ञानी महात्मा घोषित करवा लिया। उपदेश दिया सबको बांटने का मगर खुद अपने पास संचय करते रहे , पर उपदेश कुशल बहुतेरे। औरों को नसीहत खुद पालन नहीं और हम उनकी हर बात को तब भी सही समझते हैं तो आंखे होते हुए भी अंधे हैं। उदारहण नहीं दिये क्या क्या लिखा हुआ किस किस किताब में जो वास्तविकता हो नहीं सकता केवल कल्पना है। इक सपना है जो ठगी करने वालों ने दिखाया अपने धंधे की खातिर। धरती पर सभी इंसान हैं फ़रिश्ते ज़मीं पर नहीं आते ये केवल ख्वाब है। लोग ख्वाब भी बेचने लगे हैं आजकल। दुष्यंत कुमार का शेर भी अब लगता है अर्थ खो तो नहीं रहा कभी।

                                 खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही ,

                                 कोई हसीं नज़ारा तो है नज़र के लिए। 


 


अक्टूबर 18, 2018

POST : 937 मुफ्त दवा दे देना मुफ्त सलाह मत देना ( अनुभव ) डॉ लोक सेतिया

 मुफ्त दवा दे देना मुफ्त सलाह मत देना ( अनुभव ) डॉ लोक सेतिया 

     जब मैंने डॉक्टर बनकर अपनी क्लिनिक खोली तब मुझे कुछ महीने साथ रखकर शिक्षा देने वाले विशेषज्ञ डॉक्टर ने मुझे नीले रंग का अंर्तदेशीय पत्र लिखकर जो बातें समझाईं थी उनमें ये भी शामिल था कि कोई गरीब हो तो बेशक उसे अपनी फीस से कई गुना महंगी दवा बिना पैसे लिए दे देना मगर कभी भी अपनी सलाह की फीस किसी को भी नहीं छोड़ना। मैंने उनकी समझाई अन्य तमाम बातों को भरसक कोशिश कर पालन करने का ध्यान रखा मगर अपनी फीस को लेकर कभी ऐसा नहीं कर सका जो वास्तव में उचित था। आज भी मैं समझता हूं अधिकतर लोग मुफ्त मिली सलाह की कीमत नहीं समझते हैं। डॉक्टर की फीस हर किसी को अनुचित लगती है मगर दवा कितनी महंगी हो या जांच पर कितने पैसे खर्च होते रहें उनको अनुचित नहीं लगता है। जबकि सबसे अधिक कीमत डॉक्टर की राय की ही होती है और समझी जानी चाहिए। मुझे लगता है अधिकतर जिन छोटे शहरों में मरीज़ डॉक्टर को उचित फीस नहीं देना चाहते उनसे ही उससे भी अधिक दवाओं और जांच करवाने पर खर्च करवाते हैं डॉक्टर। पुरानी कहावत है पानी पुल के नीचे से सी बहता है , सीधी तरह नहीं मिलती तभी लोग उलटी तरह से वसूल करते हैं। जो लोग रस्ते चलते या कहीं भी मिलते डॉक्टर से राय लेते हैं उनको पता होना चाहिए इस तरह की अधकचरी सलाह हानिकारक हो सकती है। मगर लोग केमिस्ट से या किसी के भी कहने से दवा लेकर खुद अपनी ज़िंदगी से खिलवाड़ करते हैं। कई लोग डॉक्टर के पास जाते हैं तब भी खुद ही बहुत जल्दबाज़ी करते हैं और डॉक्टर को अपनी बात बताने और उसके बाद डॉक्टर की सलाह को ठीक से समझते तक नहीं है। सही निदान सही दवा भी रोगी को ठीक नहीं कर सकती अगर सही ढंग से ली नहीं जाये तो। मैंने कई लोगों को ऐसा करते पाया है , पांच दिन की दवा ली मगर दस दिन बाद आकर बताते हैं आज खत्म की है अर्थात अपने सही डोज़ नहीं ली है और कम डोज़ से आप ठीक नहीं हो सकते हैं। अपने डॉक्टर पर भरोसा रखना ज़रूरी है और ये भी समझना होगा कि हर डॉक्टर अपने रोगी को तंदुस्त करना चाहता है। अगर आप केवल डॉक्टर की फीस से बचने को खुद दवा खाते हैं किसी भी तरह से जानकारी लेकर तो आपको ऐसा करना बहुत महंगा पड़ सकता है। बिना डॉक्टर की राय दवाएं खाई जाती हैं भारत देश में जिनसे रोग और बढ़ते जा रहे हैं ऐसी चेतावनी विश्व स्वास्थ्य संगठन कई बार देता रहता है। आपको एक बात समझनी ज़रूरी है कि हर दवा के दुष्प्रभाव होते हैं और जिन दवाओं की ज़रूरत नहीं हो लेकर आप कोई बीमारी खरीद रहे हो सकते हैं। जिस दिन आपको डॉक्टर की सलाह का सही अर्थ समझ आएगा आपको डॉक्टर की फीस अधिक नहीं लगेगी और आप खुद चाहोगे डॉक्टर अपनी फीस ले मगर आपका उपचार उचित ढंग से हो। केमिस्ट जांच लैब दवा कंपनियों से हिस्सा नहीं लेंगे डॉक्टर तो अपने जो फीस दी उससे अधिक फायदा आपको खर्च में भी होगा और अच्छी दवाओं और ज़रूरी टेस्ट पर भी कम खर्च होगा। इस बार किसी भी डॉक्टर से ईलाज करवाने जाओ तो ये बात खुद कहना आपको फायदा ही होगा कोई नुकसान नहीं। 

 

अक्टूबर 16, 2018

POST : 936 हमें उस राह से बचकर गुज़रना है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

         हमें उस राह से बचकर गुज़रना है ( ग़ज़ल ) 

                         डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

हमें उस राह से बच कर गुज़रना है
फिसल कर फिर नहीं आसां निकलना है । 

किया किसने नशे में प्यार का वादा
जिसे वादे से अपने फिर मुकरना है । 

मुहब्बत इस तरह कोई निभाता है
किसे अब साथ जीना साथ मरना है । 

तुम्हारी सादगी पर है फ़िदा कोई
तुम्हें किस के लिए सजना संवरना है ।
 
निभाना है नया किरदार कुछ ऐसे
फरिश्ता बन के सारे जुर्म करना है । 

हुई थी भूल तुम भी भूल जाना सब 
संभल जाओ नहीं फिर से फिसलना है । 

रहोगे कब तलक "तनहा" ऊंचाई पर
कभी आखिर ज़मीं पर ही उतरना है । 
 

 



अक्टूबर 15, 2018

POST : 935 हर जान की कीमत जानते हैं ( बेसुरी तान ) डॉ लोक सेतिया

   हर जान की कीमत जानते हैं ( बेसुरी तान ) डॉ लोक सेतिया 

     मुझे आज रात भर नींद नहीं आई , खुद को गुनहगार समझता रहा। जाने उनको कैसे आती होगी नींद जो बेवजह किसी की जान ले लेते हैं। पत्नी ने मना किया है मत लिखना इस विषय पर फिर भी लिख रहा हूं। क्या इसे पानी में रहते मगर से बैर कहते हैं। जो लोग सरकारी विज्ञापन से अपनी ज़ुबान पर ताले लगा लेते हैं शायद समझदार होते हैं। कुछ लोग जो ज़्यादा जानते हैं , इंसान को कम पहचानते हैं , ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं। जहां दिल में सफाई रहती है होठों पे सच्चाई रहती है , हम उस देश के वासी हैं जिस देश में गंगा बहती है। ग़ालिब को भी नींद नहीं आती थी , मौत का एक दिन मुअयन है नींद क्यों रात भर नहीं आती , कहते हैं। मुझे तो मौत से डर नहीं लगता है मकतल खुद ही चला जाता हूं , डरता हूं तो रहबरों से। हुआ यूं कि पत्नी ने बताया पूरब की ही बात है उत्तर प्रदेश के सीएम उस महिला के घर गए शोकसभा पर और कई लाख और नौकरी देने की बात कह आये उसकी पत्नी को जिसके पति को सरेराह कोई पुलिस वाला मिल गया था और गोली मार दी थी। हुई होगी शायद इंसाफ की भी बात वहां पर मगर मेरी पत्नी को उस महिला की चिंता थी चलो अच्छा हुआ बेचारी का जीना आसान हो गया। मैंने यूं ही सोचा और कहा भी कि क्या अभी कल ही जिस जज की पत्नी और का कत्ल और बेटे को गोली मार घायल किया उसी जज की सुरक्षा को नियुक्त पुलिस वाले ने क्या उस पति को भी इसी तरह पत्नी की मौत का मुआवज़ा पाकर संतुष्ट किया जा सकता है। पत्नी को गुस्सा आया आप पुरुषों को किसी महिला की भलाई भाती ही नहीं। रात भर लगता रहा मैं ही गुनहगार हूं जिस सरकार और उसकी पुलिस एनकउंटर करती कराती है बड़ी दयालु हैं। जाँनिसार अख्तर का शेर याद आया है। 

      जब मिले ज़ख्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये , है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाये। 

      हमने इंसानों के दुःख दर्द का हल ढूंढ लिया , क्या बुरा है जो ये अफवाह उड़ा दी जाये। 

    ये किसी के ज़ख्मों पर मरहम लगाना है जो तमाम जीवन याद रहेगा कि किस के कारण क्या मिला था। बात जिस देश में गंगा बहती है के गीत की थी। गंगा की हालत यही है कि सरकार गंगा का बेटा खुद को बताने वाला चला रहा है और करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद गंगा और गंदी हो गई है और कोई नासमझ गंगा की सफाई की खातिर अनशन पर बैठा रहा मगर सरकार पर कोई असर नहीं हुआ और 111 दिन बाद निधन हो गया। शायद उस 85 साल के देवता की भी कीमत सरकार आंक सकती है। कोई नेता जाकर भाषण देकर उनके सपनों को सच करने की घोषणा कर सकता है।  बस 2022 नहीं तो 2050 तक तारीख़ बढ़ती जाएगी गंगा बहती जाएगी। 
 
       ये खबर आजकल खबर बनती ही नहीं कि कहां कहां पुलिस ने किसे क्या समझ कर मार डाला। लोग अपनी रंजिश निकालने को पुलिस से सहायता लेते हैं , नेता अधिकारी तो अधिकार समझते हैं अपने दुश्मन क्या विपक्षी को भी सबक सिखाने को। सीबीआई का मकसद यही हो गया है , किसी को नकेल डालनी हो तो जांच के नाम पर पर्दे के पीछे सब होता है। ये जाने कब से होता आया मगर हंगामा हुआ था 1984 में जब इंदिरा गांधी को उनके सुरक्षा करने वालों ने कत्ल कर दिया था। उनके बेटे को मुआवज़ा बिना मांगे मिल गया था गद्दी पर बिठाया था किसी ने उपकार का बदला चुकाने को। जाने कितने बेकसूर लोगों को दंगों की आग में जलाया गया और समझाया गया जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती है। हम आम लोग तो पेड़ पौधे क्या घास भी नहीं हैं कीड़े मकोड़े की तरह हैं जो मसले जाते हैं कुचले जाते हैं। अभी तक किसी ने भी वास्तविक समस्या पर गहराई से चिंतन ही नहीं किया , जब बचाने वाला मारता है तो ऊपर वाला भी नहीं बचा सकता है। हमने जिनको देश के नागरिकों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सौंपी है जब वही खतरा बन जाएंगे तो कौन किसे बचाएगा। मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है क्या मेरे हक में फैसला देगा। आम नागरिक पर कब कौन सी धारा लगा दी जाये उनकी मर्ज़ी है हम तो धारा  144 से ही डर जाते हैं। जो धारा 144 लगी होने पर भी पंचकूला पहुंच जाते हैं उन पर अदालती बयानबाज़ी भी किसी काम नहीं आती। जान की कीमत नहीं लगाई जा सकती मगर लगाते हैं सत्ता वाले भी और बाकी लोग भी जब पचास लाख करोड़ की बात होती है। आम नागरिक का जीना मरना एक समान है। किसी शायर को तो लगता है कि  " हाथ खाली हैं तेरे शहर से जाते जाते , जान होती तो मेरी जान लुटाते जाते "। हम ज़िंदा कब हैं जो हमें मरोगे। राख के साथ बिखर जाऊंगा मैं दुनिया में तुम जहां खाओगे ठोकर वहीं पाओगे मुझे। आह भरना भी गुनाह है आखिर में :-

       हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम , वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होता।


अक्टूबर 14, 2018

POST : 934 शोध करने का नया विषय ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      शोध करने का नया विषय ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

    रसिकलाल जी ने पी एच डी के लिए आधुनिक विषय चुना है। मीटू से पहले मीटू मीटू के समय और मीटू मीटू के बाद। इंतज़ार था अच्छे दिनों का , अदालत ने निर्णय दिया विवाहित महिला अपनी मर्ज़ी से शारीरिक संबंध बनाने को आज़ाद है पति की जायदाद नहीं है। कोई गुनाह नहीं है मगर पति चाहे तो तलाक मांग सकता है। इससे पहले जाने क्या बला है ये गे कहलाने वाले उनको भी न्याय मिल गया था। ऐसे में किसी ने सालों पहले अपने साथ की छेड़खानी की बात कही तो सभी इसी बहस में शामिल होते गये। कोई कत्ल करता है कोई किसी को घायल करता है कोई डूबता नज़र आता है तो लोग बचकर निकलते हैं या फोटो लेते विडिओ बनाते हैं आगे बढ़कर कोई किसी को बचाता नहीं है। मगर मी टू की चर्चा में टीवी चैनल अख़बार फेसबुक व्हाट्सएप्प सब शामिल हो गये हैं। कभी सरकार के लोगों और गुंडों के खिलाफ इतनी भीड़ होती तो कितना अच्छा होता। मगर इस विषय पर किसी ने शोध नहीं किया होगा ऐसा सोचकर रसिकलाल आगे आये हैं। देखते हैं राख के ढेर से कितनी चिंगारियां निकलती हैं और कैसी ज्वाला भड़कती है। 
 
         यार उस बदशक्ल काली कलूटी को लोग छेड़ते रहे कितनी हैरानी की बात है। सुंदर महिलाओं का कोई अकाल पड़ा था। जिसने किसी पर बदनीयती का आरोप लगाया था अपनी सहेली के भी उसी पर आरोप लगाने से नाराज़ होने लगी कोई दूसरा नहीं मिला हमेशा यही करती है उतरन की आदी है। इक फ़िल्मी कहानी में जिस महिला से अनाचार किया गया , बाद में सालों तक कोई वकील कोई पुलिस वाला कोई और जो कहने को दर्द बांटने वाला था , उसकी रूह को सवाल पूछ पूछ कर ज़ख़्मी करते रहे। किस किस ने उसके साथ वही कितनी बार किया उसी समझ नहीं आया कि वास्तविक अपराधी से अधिक गुनहगार बाकी समाज कब क्यों हो गया। समझना कठिन है कि लोग खाली हैं और समय बिताने को फालतू की बहस या चर्चा में लगे रहते हैं या कि किसी को किसी के लिए भी फुर्सत ही नहीं है। सब कहते हैं वक़्त नहीं बेकार की बातों के लिए मगर वास्तव में सभी बेमतलब की बातों में रात दिन वक़्त बर्बाद करते हैं।

       आज जो बात लगता है देश और समाज की सबसे पहली चिंता की बात है अगले ही दिन पता चलता है उसमें कोई दम ही नहीं था। हर टीवी चैनल खबर को दरकिनार कर अखबर को खबर बनाता है , जो हुआ ही नहीं उस पर दिन भर बहस चर्चा और जाने क्या क्या किया जाता है फिर अंत में राज़ खुलता है कि ये विडिओ वास्तविकता से हज़ारों मील दूर है। सब का दावा है सच्चे होने का मगर सच लापता है किसी की दुकान में मिलता ही नहीं। झूठ खूब बिकता है और झूठ को मनचाही कीमत मिलती है। इक नया चलन शुरू हुआ है जिस पर आरोप लगाया जाता है उसी को जांच करने को भी अधिकार हासिल है और निर्णय भी वही करता है। कोई दलील किसी काम नहीं आती है जिसकी लाठी उसकी भैंस बस यही हाल है। आज के हालात पर इक ग़ज़ल  मंज़र भोपाली जी याद आती है।

अब अगर अज़मत ए किरदार भी गिर जाएगी
आपके सर से ये दस्तार भी गिर जाएगी।

बहते धारे तो पहाड़ों का जिगर चीरते हैं
हौंसले कीजे ये दीवार भी गिर जाएगी।

हम से होंगें न लहू सींचने वाले जिस दिन
देखना कीमते-गुलज़ार भी गिर जाएगी।

सर फरोशी का जुनूं आपमें जागा जिस दिन
ज़ुल्म के हाथ से तलवार भी गिर जाएगी।

रेशमी लब्ज़ों में न क़ातिल से बातें कीजे
वर्ना शाने लबे-गुफ़्तार भी गिर जाएगी।

अपने पुरखों की विरासत को संभालो वर्ना
अब की बारिश में ये दीवार भी गिर जाएगी।

हमने ये बात बज़ुर्गों से सुनी है मंज़र
ज़ुल्म ढाएगी तो सरकार भी गिर जाएगी।

                  आपको शायद लगता होगा कि मामला तो हल्का फुल्का था ये इतनी संजीदा बात ऐसे में लाने की ज़रूरत क्या थी। जब देश की सियासत वास्तविक समस्याओं को छोड़ केवल दलगत राजनीति और किसी भी ढंग से चुनावी खेल में लगी हो तो कोई रचनाकार मनोरंजन नहीं परोस सकता है। ये लिखने वाले की विवशता है कि कड़वे यथार्थ को भी चासनी चढ़ानी पड़ती है अन्यथा कोई पढ़ता ही नहीं। देश जलता है जले लोग हास उपहास में मस्त रहना चाहते हैं। अब अगर नैतिकता को भुलाया जाएगा , तो सर उठाकर शान से जीना असंभव है। अगर देश की खातिर सुभाष की बात को याद कर लहू नहीं देंगे हम तो आज़ादी मिली नहीं मिलने जैसी होगी। कायरता को छोड़ सरफ़रोशी की तम्मना लेकर चलेंगे तभी ज़ालिम की तलवार का सामना होगा। ये जो लोग देश को लूट रहे हैं या बर्बाद करने को लगे हैं सत्ता और अधिकारों के गलत उपयोग कर रहे हैं उनके सामने नतमस्तक होना तो देश समाज को रसातल को ले जाना होगा। अपने महान देशभक्तों और शहीदों की विरासत को क्या हम सहेज संभाल नहीं सकते हैं। ये कब तक नेता हमें वास्तविक अधिकारों से वंचित रखकर कुछ खिलौनों से बहलाते रहेंगे और हम उनकी बातों में आते रहेंगे। सरकार गंगा की सफाई पर करोड़ों रूपये बर्बाद करती रहेगी और गंगा पहले से भी गंदी होती जाएगी और कोई सच्चा गंगा का बेटा जी डी अग्रवाल 111 दिन अनशन के बाद सरकारी संवेदनहीनता से मर जाएगा मगर हम मी टू मी टू की उलझनों में उलझे रहेंगे।

अक्टूबर 13, 2018

POST : 933 इन्हीं लोगों ने ले लीना ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

     इन्हीं लोगों ने ले लीना ( तरकश  ) डॉ लोक सेतिया

   महानगर की महिलाओं की सभा हालात पर चर्चा कर रही है। इक अतिथि महिला ख़ास तौर पर बुलाई गई है जो इस विषय पर कितनी बार शोध करने का नाम कमा चुकी है। उसने पहले ही इक बात कह दी है कि आज सब सच बताना है और दुनिया की बातों से नहीं घबराना है। आज सभी ने खुद को पाकीज़ा बताना है और इल्ज़ाम सभी लोगों पर लगाना है। अर्थात अब सब एक हैं और मिलकर पाकीज़ा फिल्म का गीत गाना है। इन्हीं लोगों ने ले लीना दुप्पटा मेरा। मेरी न मानो सिपहिया से पूछो , मेरी न मानो बजजवा से पूछो , रंगरजवा से पूछो , बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। हर बात के सोचने के दो तरीके होते हैं , गलास आधा खाली है भी सही है और अधूरा भरा हुआ है ये भी ठीक है। मुझे किसी की पुरानी बात याद आई है कि कुदरत ने केवल औरत को ऐसी विशेषता दी है जिस के सहारे हम अपनी रोज़ी चला सकते हैं कमाई कर सकते हैं खुद अपनी कीमत लगा सकते हैं। हम जो चाहें करें अपनी मर्ज़ी है मगर इधर बात थोड़ा उलझन की है , किसी ने खुद किसी को छेड़खानी करने दी या किसी के साथ बिना इजाज़त छेड़खानी की गई समझने की बात है। किसने जिस्म की कीमत वसूली किसे कीमत नहीं मिली ये भी समझना है। आपको इक कहानी सच्ची सुनाते हैं। 

 इक पतित नारी की जीवन गाथा ( सत्य कहानी ) डा लोक सेतिया

बहुत साल पहले की घटना है , इक पत्रिका में किसी महिला की आपबीती प्रकाशित हुई थी। तब उम्र नहीं थी गहराई से उसको लेकर सोचने की , मगर मैं उस नारी की व्यथा को कभी भुला नहीं सका। जब फेसबुक पर मित्रता के नाम पर अशलीलता का फैला हुआ जाल देखा तब उसको अपनी कल्पना के माध्यम से इक लघुकथा का रूप दिया। आज कुछ कुछ उसी तरह की कहानी लिखने जा रहा हूं जो मुझे लगता है कि बहुत लोग जो फेसबुक पर हैं उनको खुद से जुड़ी लग सकती है। शायद जितना मैं लिख सकता उससे कहीं बढ़कर। चलो भूमिका को छोड़ आपको इक नारी की पीड़ा की उसकी बेबसी की उसके गंदगी में कीचड़ में फसने से रसातल में गिरने की कहानी सुनाता हूं। और उसका अंत जो हुआ वो भी , जो शायद होना ही था , होता ही है , लेकिन जो ऐसा करते हैं वो ये शायद ही सोचते हैं कि किसी दिन उनका बनाया जाल ही खुद उनको फंसा सकता है।

             नीता इक अध्यापिका थी , रौशन शर्मा की बेटी को टयूशन पढ़ाने उसके घर जाया करती थी। उसके घर की आर्थिक दशा उसको ऐसा करने को विवश करती थी। एक दिन जब नीता गई टयूशन पढ़ाने तब घर पर उनकी बेटी और पत्नी नहीं थी और रौशन अकेला था। नीता को रोक लिया था उसने ये बता कर कि बेटी अभी आने वाली है मां के साथ बाज़ार तक गई है। और उस दिन रौशन ने ज़ोर ज़बरदस्ती करके नीता की अस्मत लूट ली थी। अपना सर्वस्व लुटा कर जब नीता बिलख रही थी तब रौशन ने उसको बहुत सारे पैसे जितने शायद वो टयूशन से वर्ष भर में लेती थी देकर कहा था लो मेरी तरफ से कोई उपहार ले लेना। और ये बात किसी से मत कहना वरना तुम्हारी ही बदनामी होगी। नीता ने लिखा था तब अपना नाम बदल कर पत्रिका को कि तब उसको समझ नहीं आ रहा था कि अपनी अस्मत लुटने पर रोये या पहली बार इतने पैसे पाकर खुश हो। रौशन को आता था महिलाओं को चिकनी चुपड़ी बातों से बहलाना। उसने जब अपनी बात का असर होता देखा नीता पर तो कहने लगा मुझसे भूल हो गई है तुम्हारे हुस्न का जादू चल गया था मुझ पर और मैं तुमसे सच में प्यार करता हूं। लेकिन मुझे तुम्हारे साथ ज़बरदस्ती नहीं करनी चाहिये थी , कसम खाता हूं अब कभी नहीं करूंगा ऐसा दोबारा। लेकिन अगर तुम चाहोगी तो मैं तुमको जो भी चाहिये देता रहूंगा। तुम ये बात मन से निकल दो कि हमने कुछ गलत किया है , जिस बात से हमको ख़ुशी मिलती हो और किसी का कोई बुरा नहीं उसमें बुराई नहीं है। आखिर अपना तन मन हमारा है , हम जो पसंद हो करें , किसी को बताने की कोई ज़रूरत नहीं , इस तरह रौशन ने नीता को मना लिया था कि इस घटना का ज़िक्र किसी से नहीं करेगी। मगर अभी तक वो कश-म-कश में उलझी थी कि क्या करे क्या नहीं , इसलिये उसने अब किसी के घर जाकर टयूशन पढ़ाना ही बंद कर दिया था। जिनको पढ़ना हो वो उसके घर आ सकते हैं , रौशन चाहता था नीता को अपने जाल में फंसाये रखना इसलिये उसने भी बेटी को नीता के घर टयूशन पर भेजना शुरू कर दिया। नीता चाह कर भी उस घटना को भुला नहीं पा रही थी। मगर फिर उसने अपनी आर्थिक मज़बूरी से विवश हो कर एक दिन रौशन का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। रौशन उसके घर आता अपनी वासना पूरी करता और नीता को बहुत से पैसे देता। मगर क्योंकि नीता अपने घर पर हमेशा अकेली नहीं मिलती थी इसलिये उसने नीता को अपनी ही एक जगह उपलब्ध करवा दी थी टयूशन का काम करने को। यूं सब को यही मालूम था कि किराये पर ली है जबकि किराया उसको अपना बदन सौंप कर ही चुकाना होता था।

                वक़्त बीतता गया और नीता ने खुद को बदल लिया था समय के साथ। अब वो दिखाने को टयूशन का काम करती थी मगर वास्तव में उसी को अपना कारोबार बना लिया था , हर किसी से शारीरिक संबंध बनाना और पैसे लेना। रौशन की बेटी जवानी की दहलीज पर थी और नीता के घर अभी भी नियमित आती जाती थी। नीता उसको कई प्रकार से सहयोग किया करती , उसको परीक्षा में नकल करवाना , उसकी बुरी आदतों को पूरा करने को जब तब पैसे देना। रौशन की बेटी को नीता बहुत प्यारी लगती थी , क्योंकि वो उसको जो चाहती वो करने में सहायता देती रहती थी। शायद कहीं अनजाने में वो अपने साथ उसके पिता द्वारा किये अपकर्म का बदला ले रही थी उसकी बेटी को उसी राह जाते देख कर। अक्सर जब कोई नीता के पास आता तब वो रौशन की बेटी को कुछ अशलील तस्वीरें देखने को , कुछ ऐसे पत्रिकाएं पढ़ने को देकर साथ के कमरे में चली जाती अपना कारोबार करने। तब वो छुप कर दरवाज़े की दरार से नीता को सब करते देखती कितनी बार। और ऐसे में उसने एक दिन नीता को ये बता दिया था कि क्या मुझे ये सब सिखा सकती हैं। और इस तरह रौशन की बेटी ही नहीं और लड़कियों को भी नीता ने उसी जाल में फंसा लिया जिसमें खुद मज़बूरी में फंस गई थी।

            रौशन नहीं जनता था कि जिस रास्ते पर उसने नीता को डाला था आज उसकी जवान बेटी उसी राह पर भटक रही है। ऐसे में इक दिन रौशन ने नीता को होटल में आने को कहा तो उसने पूछा क्या मेरी बजाय कोई नई जवान लड़की अगर हो तो आपको क्या चाहिये मैं या वो। और रौशन ने कहा था कि अगर कोई नई और जवान मिल जाये तो अधिक पसंद है। जब होटल के कमरे में नीता अपने साथ उसी की बेटी को लेकर पहुंची तब उसको होश ही उड़ गये। बहुत नाराज़ हुआ वो नीता को बदचलन बताया , नीता ने वही बात दोहराई जो कभी रौशन से उसको कही थी। किसी को भी अपना बदन अपनी मर्ज़ी से किसी को भी ख़ुशी से सौंपने में बुराई नहीं है। जो तुमने किया और मुझे सिखाया वही तुम्हारी बेटी ने भी सीख लिया है , अब तुम लाख चाहो जो हो चुका उसको बदल नहीं सकते। रौशन ने नीता को और अपनी बेटी को वहां से जाने को कह दिया था और ये विनती की थी कि ये सब किसी को नहीं बताना , मैं समझ गया मुझे अपने कर्मों का फल ही मिला है। वो चली आई थी , अगली सुबह होटल के कमरे से रौशन की लाश मिली थी।  उसने ख़ुदकुशी कर ली थी। सुसाईड नोट छोड़ गया था कि अपनी मौत का वो खुद जिम्मेदार है।

          सवाल कई हैं कोई अपने साथ गलत होने पर डाकू बन जाती है और बदला लेती है। कई हैं जो रात गई बात गई समझ भूल जाती हैं। आज जब नाचने लगी हैं तो घूंघट क्यों नहीं उठाती हैं , इक फ़िल्मी डायलॉग बोलकर पिंड क्यों नहीं छुड़ाती हैं। कुछ गलती पुरुषों की गंदी मनसिकता की थी कुछ हमारी कायरता की भी थी बोलना है तो क्यों शर्माती हैं। अभी चार दिन लोग सहानुभूति जताएंगे फिर हर किसी को कुल्टा बताएंगे , जो ये करते रहे सीना तान बतलाएंगे किस किस का नाम नहीं सामने लाएंगे।  गड़े मुर्दे जो उखाड़े जाएंगे कितने लोग फिर बच पाएंगे। सच और झूठ आपस में जो मिल जाएंगे इक नया इतिहास बनाएंगे। हमारी तर्ज़ पर पुरुष भी कोई गीत गाएंगे। वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया है इल्ज़ाम किसी और के सर जाये तो अच्छा।  कितनी कहानियां ऊंची ऊंची दीवारों में कैद हैं किस किस को सुनाओगी खुद रोओगी उनको नहीं रुला पाओगी। आज चुप रहने पर पछताती हो कल शायद बोलने पर पछताओगी , बदनाम किसी पुरुष को करोगी बदनामी अपने घर लाओगी। ये जो सच है दोधारी तलवार है कोई कत्ल होगा या बचेगा तुम खुद ज़रूर ज़ख़्मी औरत बन जाओगी। क्या ब्यानबाज़ी से आगे जाओगी अपने पर अत्याचार का हिसाब बराबर कर आओगी। या इसी तरह ख़ामोशी से अपनी बात कहोगी औरों की सुनोगी तालियां बजाओगी , जब घर जाओगी तो सोचोगी कौन है जिस को घायल नहीं किया समाज में मैं अकेली ही तो न थी। यही समझ तसल्ली पाओगी।

अक्टूबर 12, 2018

POST : 932 मैं भी मैं भी मैं भी ( नंगा समाज ) डॉ लोक सेतिया

       मैं भी मैं भी मैं भी ( नंगा समाज ) डॉ लोक सेतिया 

     बंद कमरों की राज़ की बातें जब खुलती हैं तो बहुत कुछ ध्वस्त होता है। हम जिसे सभ्य समाज मानते रहे वो कितना बड़ा फरेब था हर कोई हैरान है। नहीं उन महिलाओं पर अविश्वास नहीं करना चाहता मगर ये सवाल ज़रूर आता है कि इतनी लंबी ख़ामोशी उस समाज की जो महानगर में आज़ाद था किसी गांव में या वीराने में बंदी नहीं था कि बोल भी नहीं सके। अपने साथ अनुचित होने देना चाहे आर्थिक विवशता रही हो बाकी महिला जगत को भी गलत संदेश देता है और जो पुरुष कुछ भी करने के बाद शान से रहे उनके गलत इरादों को भी बढ़ावा देता है। मगर इस में दोष हमारे समाज का भी है जो अमिताभ बच्चन और रेखा को लेकर अलग सोच रखता है , हेमा मालिनी के विवाहित पुरुष से विवाह को मंज़ूर करता है , राजकपूर के साथ कितनी नायिकाओं को जोड़ते हुए और राय रखता है।  लेकिन अपने आस पास किसी को मुहब्बत करने की अनुमति नहीं देता है। अभिनेता तक अपनी सिक्स ऐप्स को दिखाते हैं टीवी फिल्म शो में। जो महिलाएं चाहती तो ये सब पहले ही बता सकती थीं मगर खामोश रहीं क्या उनका दोष नहीं है अपने समाज को और गंदा होते देखते रहने का। शायद तब उनको खुद को छोड़ बाकी महिला समाज की चिंता ही नहीं रही थी। यही महिलाओं की सब से बड़ी गलती है। आज भी तमाम महिलाओं को अपनी शख्सियत से अधिक चिंता अपने सुंदर दिखाई देने को रहती है। आज भी क्यों नारी पुरुष से उपहार पैसे सोना चांदी के गहने की अपेक्षा रखती है। समानता क्या यहां नहीं ज़रूरी है। माना पुरुष की मानसिकता गंदी होती है जगज़ाहिर है मगर क्या कई महिलाएं अभी भी मेनका की तरह खुद भी ये करने की दोषी नहीं हैं।

 अपराधी महिला जगत के ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

आप हां आप भी
शामिल हैं महिलाओं के विरुद्ध
बढ़ रहे अपराधों में
किसी न किसी तरह ।

आप जो अपने कारोबार के लिये 
परिधान के विज्ञापन के लिये 
साबुन से लेकर हर सामान
बेचने की खातिर दिखाते हैं
औरत को बना कर
उपभोग की एक वस्तु ।

आपकी ये विकृत मानसिकता
जाने कितने और लोगों को
बनाती है एक बीमार सोच।

जब भी ऐसे लोग करते हैं
व्यभिचार किसी बेबस अबला से
होते हैं आप भी उसके ज़िम्मेदार।

आपके टी वी सीरियल
फ़िल्में आपकी जब समझते हैं 
औरतों के बदन को मनोरंजन का माध्यम
पैसा बनाने कामयाबी हासिल करने के लिये। 

लेते हैं सहारा बेहूदगी का
क्योंकि नहीं होती आपके पास अच्छी कहानी
और रचनात्मक सोच
समझ बैठे हैं फिल्म बनाने सीरियल बनाने को
सिर्फ मुनाफा कमाने का कारोबार।

क्या परोस रहें हैं  अपने समाज को
नहीं आपको ज़रा भी सरोकार
आप हों कोई नायिका चाहे कोई माडल
कर रही हैं क्या आप भी सोचा क्या कभी
थोड़ा सा धन कमाने को 
आप अपने को दिखा  रही हैं 
अर्धनग्न  सभ्यता की सीमा को पार करते हुए। 

आपको अपनी वेशभूषा पसंद से
पहनने का पूरा हक है मगर पर्दे पर
आप अकेली नहीं होती
आपके साथ सारी नारी जाति
का भी होता है सम्मान
जो बन सकता है अपमान। 

जब हर कोई देखता है बुरी नज़र से
आपके नंगे बदन को आपका धन या
अधिक धन पाने का स्वार्थ ,
बन जाता है नारी जगत के लिए शर्म।

ऐसे दृश्य कर सकते हैं  लोगों की
मानसिकता को विकृत
समाज की हर महिला के लिये।
हद हो चुकी है समाज के पतन की
चिंतन करें अब कौन कौन है गुनहगार। 

   मुझे अपनी पुरानी लिखी कविता लिख कर शुरुआत करनी पड़ रही है। इसका मतलब हर्गिज़ ये नहीं है कि मैं पुरुषवादी अनुचित सोच को सही समझता हूं। मैं मानता हूं हमारे समाज में अधिकतर पुरुषों की सोच आज भी बेहद खराब है और महिला को ऐसी ही नज़र से देखते हैं।  मगर मुझे उन महिलाओं से शिकायत है जो अपने बदन की नुमाइश करती हैं पैसे की खातिर। आगे वास्तविक विषय की बात से पहले मेरी इक और कविता लिखना चाहता हूं जो मेरी सोच ही नहीं मेरा विश्वास भी है कि हर औरत को ऐसा सोचना चाहिए।

औरत    ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

तुमने देखा है

मेरी आँखों को

मेरे होटों को

मेरी जुल्फों को,

नज़र आती है तुम्हें 

ख़ूबसूरती नज़ाकत और कशिश

मेरे जिस्म के अंग अंग में ।


तुमने देखा है 

केवल बदन मेरा 

प्यास बुझाने को 

अपनी हवस की

बाँट दिया है तुमने

टुकड़ों में मुझे

और उसे दे रहे हो 

अपनी चाहत का नाम।

तुमने देखा ही नहीं

कभी उस शख्स को 

एक इन्सान है जो 

तुम्हारी तरह जीवन का

हर इक एहसास लिये 

जो नहीं है केवल एक जिस्म 

औरत है तो क्या। 

 
            क्या अभी भी हम इस सब का अंत नहीं करना ज़रूरी समझेंगे। सोशल मीडिया टीवी सीरियल फिल्मों का काम क्या समाज को रसातल में धकेलना होना चाहिए केवल अपनी आमदनी के लिए। मंदिर शिक्षा के विद्यालय की तरह समाज को राह दिखाने की बात भूल कर किसी कोठे वाली जिस्म फरोश या नाचने वाली वैश्या की तरह पैसे की खातिर सब करना दोनों का अंतर साफ है। 

 

POST : 931 कानून उनके लिए फुटबॉल है ( अंधेर नगरी चौपट राजा ) डॉ लोक सेतिया

         कानून उनके लिए फुटबॉल है ( अंधेर नगरी चौपट राजा ) 

                                  डॉ लोक सेतिया 

    कल की कई घटनाओं की बात आज। कल लोककनायक का जन्म दिन था।  कल गंगा सफाई के लिए अनशन करने वाले जी डी अग्रवाल का निधन हुआ। कल मुझे पुलिस वालों का परवाना मिला आज जाकर उपस्थित होने को। कल रात ही उत्तर प्रदेश के लखनऊ में आजतक टीवी चैनल वालों ने खबर में पुलिस वालों को सोते हुए दिखाया। इनका एक साथ बताना समझने को ज़रूरी है कि देश में नेताओं अधिकारीयों ने कानून को कैसे फुटबॉल बना रखा है। शुरआत 27 नवंबर 2015 से करता हूं। मैं तब 64 साल का था और बीमार भी था मगर उस दिन मैंने सी एम विंडो पर शिकायत दर्ज करवाई थी गैरकानूनी कार्यों और गंदगी को लेकर। कभी इधर कभी उधर भेजी जाती रही शिकायत करवाई को मगर सब विभाग और अधिकारी किसी और को करने की बात लिखते रहे , ये किसी ने नहीं कहा कि शिकायत झूठी है। मगर करीब साल भर बाद शिकायत दो बार बंद कर खुलने के बाद खुद सी एम के ऑफिस के पास चली गई। और मुख्यमंत्री दफ्तर द्वारा निपटान किया गया टिप्पणी लिखकर कि ये कोई शिकायत ही नहीं इक सुझाव मात्र है। मैंने इक खुला खत भेजा विभाग को मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री जी को कि आपको साल लगता है ये साबित करने में कि ये शिकायत है या सुझाव और इसी तरह हर ऐप्प पर दफ्तर में बैठे निपटारा किया जाता है तो ऐसी एप्प्स की उपयोगिता ही कुछ नहीं है। मगर हैरानी हुई जब विभाग से सूचना मिली कि उस खुले खत को ही शिकायत बना लिया गया है जिस पर लिखा हुआ था मुझे कोई शिकायत नहीं है। अर्थात आपकी मर्ज़ी है सुझाव को शिकायत बना सकते है और शिकायत को सुझाव। मगर करना कुछ भी नहीं केवल कागज़ी खानापूर्ति कर दिखानी है। अब कल की बात को लेकर वास्तविकता। 
 
            इक ऐसा ही जनहित का पत्र ईमेल से भेजा सभी अख़बारों और अधिकारीयों को करीब दस दिन पहले जब किसी नागरिक को उत्तर प्रदेश पुलिस ने एनकउंटर कर मार दिया और उसी दिन हरियाणा में एक नेता का ब्यान आया कि हरियाणा का साल में एकाध ही शहीद होता है इसलिए मुख्यमंत्री से कहकर सहायता राशि बढ़वा देंगे। लिखा था नशे में हैं जनाब , सत्ता का नशा है समझने नहीं देता क्या बोल रहे हैं। ये कनून व्यवस्था पर ध्यान दिलवाने को जनहित का खत था जिसको हरियाणा पुलिस ने न केवल शिकायत माना बल्कि खत लिखने वाले को ही दफ्तर आकर सफाई देने को फरमान भेज दिया। उनको लगता ही नहीं सरकार या विभाग को किसी सुधार की ज़रूरत है , जब जिस भी पुलिस वाले से बात हुई है उसी से सुना है जनता को सुधारना है। फिर ये सेवा सुरक्षा सहयोग का स्लोगन क्या है। 
 
               कभी अख़बार भी पाठकों के पत्र छापते थे और सरकारी विभाग भी चिट्ठी मिलने पर कुछ करवाई किया करते थे। उसके बाद जब लाज का घूंघट उतरा तो मिले खत रद्दी की टोकरी में डालने लगे। अब लोग ईमेल और सोशल मीडिया पर शिकायत करने लगे तो समस्या हुई है कि बिन में आप डाल सकते हैं भेजना वाला जाने कब तक नहीं डिलीट करता है। बड़े बड़े पढ़ लिख कर उच्च पदों पर आसीन लोग भी पढ़कर समस्या का समाधान नहीं करने पर विचार करते , ईमेल भेजने वाले को अपने दफ्तर बुलाकर जो मर्ज़ी बयान लिख कर हस्ताक्षर करवा मामला निपटाते हैं। समस्या की तरफ कोई ध्यान नहीं देता है , बात व्यवस्था के ढंग को बदलने की है। कल ही इक पोस्ट लिखी थी जो इस तरह है :-

                      कौन होते हैं हम लोग ( जनहित की बात वाले ) 

हम बहुत सारे लोग हैं कोई नाम नहीं कौन कौन कहां कहां है। न कोई संगठन न कोई एन जी ओ न किसी भी जाति धर्म से कोई वास्ता। मानवता है जो हर दिन याद रहती है। कहीं कुछ भी गलत होता है हम बेचैन होने लगते हैं। हम आवाज़ उठाते हैं अन्याय अत्याचार भेदभाव किसी के भी साथ होता देखकर। कोई डूब रहा है तो हम तमाशाई बनकर विडिओ नहीं बनाते। तैरना नहीं आता फिर भी दरिया के लहरों से टकराते हैं और चिंता नहीं करते मरने से नहीं डरते कोशिश करना छोड़ते नहीं है। हमने हार नहीं मानी है कि कुछ भी सुधर नहीं सकता है। हमने कोई सीमा नहीं बनाई हुई कि अपने गांव की गली की शहर की बात करनी है , राज्य की बात करनी है , हमने समाज की बात करनी है देश के हर भाग की बात करनी है। न किसी ने हमें आदेश दिया है न किसी का कोई निर्देश है , पुराने लोग पुरानी परंपरा बिभाते हैं। समाज को समाज का सच दिखलाते हैं। कोई वेतन कोई रुतबा कोई शोहरत नहीं मांगते हैं कहीं भी किसी का शोषण नहीं हो अराजकता नहीं हो कोई लाचार नहीं हो इतना चाहते हैं। जब भी जिस जगह कोई बात ठीक नहीं नज़र आती संबंधित लोगों विभाग को जाकर बताते हैं , उनको वास्तविकता बताने को कई ढंग अपनाते हैं। कभी खुद जाना होता था , कभी खत लिखकर सूचना देते थे कभी फोन पर समस्या बताते थे आजकल ईमेल और सोशल मीडिया से कर्तव्य निभाते हैं। कहीं कोई घायल है कहीं कोई दबा कुचला किसी का बंधक बना हुआ है कहीं शिक्षा स्वास्थ्य की कोई खामी है कहीं सरकारी विभाग की नाकामी है जब जो भी सामने आता है अपना कर्तव्य हमें बुलाता है। 
 
     देश समाज की समस्याओं को हमने अपना समझा है , कुछ कोशिश करने का बीड़ा उठाया है। निराश होकर नहीं बैठे थककर हार नहीं मानी कटु अनुभवों से मन नहीं घबराया है , हर दिन किसी न किसी तरह कोई सबक समझ आया है। आज ऐसे इक जी डी अग्रवाल की खबर आई है 85 साल की आयु है गंगा सफाई को 109 दिन से अनशन पर बैठे हैं। कोई किसी गांव में अकेला रास्ता बनाता है , कोई और सड़क किनारे बच्चों को खुद बुलाकर पढ़ाता है। कोई किसी मुसाफिर को मंज़िल बतलाता है बिना वर्दी यातायात को सुचारु ढंग से चलवाता है। ऐसे तमाम लोग अपने घर परिवार से बाहर सब को अपनाते हैं निस्वार्थ काम आते हैं। मगर जिस किसी की गलती पर उंगली उठाते हैं उसकी आंख का कांटा बन जाते हैं। सरकार सवाल करती है अधिकारी लताड़ लगाते हैं आप कौन हैं।  क्या बताएं कोई जवाब भी नहीं बस मौन हैं। समाजसेवक देशभक्त कई लोग हैं जो तमगा लगाए फिरते हैं हम अनाम गुमनाम कोई स्वार्थ नहीं अच्छा लगता है यही काम करते हैं। जिस किसी को दाग़ दिखलाते हैं उसी के कोप का भोजन बन जाते हैं। हम कोमल बदन कोमल दिल वाले लोग तूफानों से पत्थरों से टकराते हैं घायल होकर भी नहीं रुकना जानते चलते जाते हैं। जब भी कोई हमारे होने पर ऐतराज़ जताता है हमारी आवाज़ को खामोश करना चाहता है अपने शुभचिंतक को विरोधी समझता है , अफ़सोस बस जताते हैं। हम उजालों की बात करते हैं खुद को जलाकर रौशनी करते हैं मगर अब तो ये भी होता है अंधेरे हमीं पर इल्ज़ाम धरते हैं। सच की मशाल लेकर चलते रहे हैं झूठ की बस्ती से नहीं गुज़रते हैं। हम राहों से कांटे चुनने वाले लोग हैं जिधर से भी हम गुज़रते हैं फूल खिलते हैं। जाने ये कैसा निज़ाम आया है चलना गुनाह रेंगने तक की मनाही है। बार बार यही होता है , मुजरिम समझा जाता है जो फूल बोता है। आम खाने की बात करते हैं बबूल बोकर भी कुछ लोग , जिनको गुलों से लगाव नहीं है वो कहते हैं हम दरख्त हैं मगर मिलती लोगों को छांव नहीं। आज इतना ब्यान है मेरा कल फिर कोई इम्तिहान है मेरा। मुझे सरकार से कोई शिकायत नहीं है न ही उम्मीद है , केवल जनहित को बताया है। सफाई दे रहा हूं । 

 

अक्टूबर 11, 2018

POST : 930 कौन होते हैं हम लोग ( जनहित की बात वाले ) डॉ लोक सेतिया

    कौन होते हैं हम लोग ( जनहित की बात वाले ) डॉ लोक सेतिया 

हम बहुत सारे लोग हैं कोई नाम नहीं कौन कौन कहां कहां है। न कोई संगठन न कोई एन जी ओ न किसी भी जाति धर्म से कोई वास्ता। मानवता है जो हर दिन याद रहती है। कहीं कुछ भी गलत होता है हम बेचैन होने लगते हैं। हम आवाज़ उठाते हैं अन्याय अत्याचार भेदभाव किसी के भी साथ होता देखकर। कोई डूब रहा है तो हम तमाशाई बनकर विडिओ नहीं बनाते। तैरना नहीं आता फिर भी दरिया के लहरों से टकराते हैं और चिंता नहीं करते मरने से नहीं डरते कोशिश करना छोड़ते नहीं है। हमने हार नहीं मानी है कि कुछ भी सुधर नहीं सकता है। हमने कोई सीमा नहीं बनाई हुई कि अपने गांव की गली की शहर की बात करनी है , राज्य की बात करनी है , हमने समाज की बात करनी है देश के हर भाग की बात करनी है। न किसी ने हमें आदेश दिया है न किसी का कोई निर्देश है , पुराने लोग पुरानी परंपरा बिभाते हैं। समाज को समाज का सच दिखलाते हैं। कोई वेतन कोई रुतबा कोई शोहरत नहीं मांगते हैं कहीं भी किसी का शोषण नहीं हो अराजकता नहीं हो कोई लाचार नहीं हो इतना चाहते हैं। जब भी जिस जगह कोई बात ठीक नहीं नज़र आती संबंधित लोगों विभाग को जाकर बताते हैं , उनको वास्तविकता बताने को कई ढंग अपनाते हैं। कभी खुद जाना होता था , कभी खत लिखकर सूचना देते थे कभी फोन पर समस्या बताते थे आजकल ईमेल और सोशल मीडिया से कर्तव्य निभाते हैं। कहीं कोई घायल है कहीं कोई दबा कुचला किसी का बंधक बना हुआ है कहीं शिक्षा स्वास्थ्य की कोई खामी है कहीं सरकारी विभाग की नाकामी है जब जो भी सामने आता है अपना कर्तव्य हमें बुलाता है। 
 
     देश समाज की समस्याओं को हमने अपना समझा है , कुछ कोशिश करने का बीड़ा उठाया है। निराश होकर नहीं बैठे थककर हार नहीं मानी कटु अनुभवों से मन नहीं घबराया है , हर दिन किसी न किसी तरह कोई सबक समझ आया है। आज ऐसे इक जी डी अग्रवाल की खबर आई है 85 साल की आयु है गंगा सफाई को 109 दिन से अनशन पर बैठे हैं। कोई किसी गांव में अकेला रास्ता बनाता है , कोई और सड़क किनारे बच्चों को खुद बुलाकर पढ़ाता है। कोई किसी मुसाफिर को मंज़िल बतलाता है बिना वर्दी यातायात को सुचारु ढंग से चलवाता है। ऐसे तमाम लोग अपने घर परिवार से बाहर सब को अपनाते हैं निस्वार्थ काम आते हैं। मगर जिस किसी की गलती पर उंगली उठाते हैं उसकी आंख का कांटा बन जाते हैं। सरकार सवाल करती है अधिकारी लताड़ लगाते हैं आप कौन हैं।  क्या बताएं कोई जवाब भी नहीं बस मौन हैं। समाजसेवक देशभक्त कई लोग हैं जो तमगा लगाए फिरते हैं हम अनाम गुमनाम कोई स्वार्थ नहीं अच्छा लगता है यही काम करते हैं। जिस किसी को दाग़ दिखलाते हैं उसी के कोप का भोजन बन जाते हैं। हम कोमल बदन कोमल दिल वाले लोग तूफानों से पत्थरों से टकराते हैं घायल होकर भी नहीं रुकना जानते चलते जाते हैं। जब भी कोई हमारे होने पर ऐतराज़ जताता है हमारी आवाज़ को खामोश करना चाहता है अपने शुभचिंतक को विरोधी समझता है , अफ़सोस बस जताते हैं। हम उजालों की बात करते हैं खुद को जलाकर रौशनी करते हैं मगर अब तो ये भी होता है अंधेरे हमीं पर इल्ज़ाम धरते हैं। सच की मशाल लेकर चलते रहे हैं झूठ की बस्ती से नहीं गुज़रते हैं। हम राहों से कांटे चुनने वाले लोग हैं जिधर से भी हम गुज़रते हैं फूल खिलते हैं। जाने ये कैसा निज़ाम आया है चलना गुनाह रेंगने तक की मनाही है। बार बार यही होता है , मुजरिम समझा जाता है जो फूल बोता है। आम खाने की बात करते हैं बबूल बोकर भी कुछ लोग , जिनको गुलों से लगाव नहीं है वो कहते हैं हम दरख्त हैं मगर मिलती लोगों को छांव नहीं। आज इतना ब्यान है मेरा कल फिर कोई इम्तिहान है मेरा ।

 

अक्टूबर 10, 2018

POST : 929 उस एक दिन का असर ( जेपी की बात ) डॉ लोक सेतिया

    उस एक दिन का असर ( जेपी की बात ) डॉ लोक सेतिया 

     हर साल 11 अक्टूबर को मुझे अजीब ही नहीं खराब भी लगता था जब तमाम मीडिया टीवी चैनल वाले अख़बार वाले लोकनायक जय प्रकाश नारायण के जन्म दिन उनको भुलाकर इक फ़िल्मी नायक को महान नायक के संबोधन से सम्मानित कर रहे होते हैं । मगर अब बिल्कुल साफ़ है इन सभी लोगों का भगवान पैसा है और इनका मकसद कारोबारी है देश या समाज को लेकर नहीं है । कल भी यही होगा जनता हूं । मैं आज जो भी जैसा भी हूं शायद नहीं होता अगर उस विशेष दिन मैं उनकी सभा में शामिल नहीं हुआ होता । 25 जून 1975 की वो शाम मेरे जीवन में बेहद महत्वपूर्ण है इतनी अहमियत कि मैं खुद को खुशनसीब समझता हूं उस दिन की गवाही बनने के कारण । उस दिन नहीं मालूम था ये दिन इतिहास में दर्ज होगा और सदियों तक याद किया जायेगा। मगर शायद ऐसा भी कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि तब जेपी के संपूर्ण क्रांति अंदोलन में शामिल लोग भी कभी सत्ता में होंगे और फिर लोकतंत्र पर खतरा मंडराता लगेगा । दुष्यंत कुमार को तब अंधेरी कोठरी में इक रौशनदान की तरह कोई बूढ़ा आदमी दिखाई तो देता था आज वो भी नहीं है ।
 
    आपात्काल की बात अक्सर होती है मगर शायद ही कोई बताता है कि जेपी जी के भाषण को आड़ बनाकर आपत्काल घोषित किस लिए किया गया था । उन शब्दों को दोहराना ज़रूरी है और ये भी कि आज भी कोई उन शब्दों को उपयोग करेगा तो सत्ता को उसी तरह से असहनीय होगा । चलो आपको उन शब्दों की याद दिलाते हैं ।  उन्होंने कहा था :-

संविधान सभी को शांति पूर्वक विरोध प्रदर्शन का अधिकार देता है , इसलिए मुझे सुरक्षा बलों से कहना है 

(   जेपी जी का भाषण भी उपलब्ध है ब्लॉग पर लेकिन 48 साल पहले उनके शब्द आज भी सार्थक हैं ) 

उन्होंने ये खा था कि अगर कोई आपको शांतिपूर्वक विरोध करने वालों पर बलप्रयोग करने का आदेश दे तो अपने विवेक का इस्तेमाल कर देश के संविधान की भावना को समझ ऐसा मत करना । 

    क्या आज की सरकार भी इसको अनुचित मानती है । वास्तविकता और भी चिंताजनक है । विरोध की बात क्या अब नेताओं की सभा में काले रंग के कपड़े पहन कर जाने पर रोकते हैं पुलिस वाले । उनको इस से कोई मतलब नहीं है कि ऐसा करना देश के संविधान के खिलाफ है । आप अधिकारी हो या कर्मचारी सरकारी किसी भी विभाग में आपकी निष्ठा देश के लिए होनी चाहिए न कि सत्ताधारी दल या नेता के लिए । आजकल तो आला अधिकारी ये भी भूल गए हैं कि मंत्री विधायक सांसद सरकारी कामकाज में उचित दखल दे सकते हैं अनुचित नहीं , और सत्ताधारी दल के नेता का सरकार सरकारी कामकाज या किसी अधिकारी पर कोई आदेश देने का अधिकार नहीं है । जो लोग सत्ताधारी नेताओं की चाटुकारिता करते हैं वास्तव में खुद अपना और अपने ओहदे का अपमान करते हैं । उस दिन मेरी आयु 24 साल थी आज उसके 48  साल बाद मैं 73  साल का हूं मगर उस दिन जेपी जी की हर बात मेरे भीतर कुछ इस तरह बैठ गई थी जो कभी बिसरी नहीं मुझे । मुझे नहीं मालूम कोई और उन जैसा सार्वजनिक जीवन में ऊंचे आदर्श के मूल्यों पर चलने वाला दूसरा हुआ हो जिसने कितनी बार कितने बड़े बड़े पदों पर चुने जाने या स्थापित किये जाने अथवा मनोनीत किये जाने से साफ इनकार किया हो । बड़े से बड़े पद को ठुकरा कर जनता के बीच जनता की बात करने वाला गांधीवादी कोई और नहीं हुआ है । उनके भरोसे पर 500 डाकू हथियार डाल देते हैं , छात्र देश सेवा और भ्र्ष्टाचार के खिलाफ पढ़ाई छोड़ सड़कों पर निकल पड़ते हैं । मैं इक युवा डॉक्टर अपनी क्लिनिक बंद कर उनका भाषण सुनने बीस किलोमीटर दूर चला जाता है और इक दोस्त अपनी फैक्ट्री बंद कर साथ साथ बस से जाते है और बस को कई किलोमीटर पहले रोकने पर पैदल जाते हैं मगर ऊर्जा के साथ लौटते हैं । ऊर्जा उनके शब्दों से मिली हुई अभी भी कायम है । उस दिन उस सभा में नहीं गया होता तो मैं जो आज हूं नहीं होता ।