जून 30, 2019

POST : 1140 बेनाम चिट्ठी बिना पते की ( आरज़ू ए दिल ) डॉ लोक सेतिया

   बेनाम चिट्ठी बिना पते की ( आरज़ू ए दिल ) डॉ लोक सेतिया 

( जो नहीं जानते उन्हें बताना लाज़मी है कि मेरी आदत रही है अक्सर ख़त लिख कर रखता हूं किसी को पढ़ाने के वास्ते । 

ख्वाब है कि कोई है जो मेरी तरह लिखता होगा मेरे ख़तों के जवाब भी ऐसे ही । 

कई दिन बाद फिर दिल कुछ कहना चाहता है सुनता कोई नहीं , लिख के रखता हूं जब कभी वो सपने का अपना मिलेगा तो दे दूंगा पढ़ने को । )

मेरे अनाम दोस्त ,

आज इतनी सी बात बतानी है कि इक छोटी सी आरज़ू है दिल में अभी तलक भी। ज़िंदगी को जीना चाहता हूं खुद अपने साथ रहकर बगैर किसी बंधन किसी कैद किसी ज़ंजीर के मर्ज़ी से। अभी हैं कुछ बाकी काम दुनियादारी के फ़र्ज़ निभाने को रहते हैं उनको पूरा कर लूं तभी बिना कोई बोझ क़र्ज़ का सीने पर लिए जी पाऊंगा भले एक साल ही सही ज़िंदगी से मोहलत मिले तो सही। जाने किस किस ने अपनी बही खाते में मेरे नाम क्या कुछ बकाया लिखा हुआ होगा। मेरे पास तो किसी का कुछ भी जमा नहीं है मगर तकाज़ा है हर किसी का लेनदारी का जो इनकार नहीं किया जा सकता है। नहीं मालूम ज़िंदगी को कितनी ऐसी शर्तों में किस ने जकड़ा हुआ बनाया है बड़ा कठिन हिसाब है ये दुनिया का जिस में क़र्ज़ का पलड़ा भारी रहता है रिश्तों नातों दोस्ती के तराज़ू के पलड़े में। लाख कोशिश करने पर भी बराबर नहीं होते हैं। बाट भारी हैं उठाये भी नहीं जाते आसानी से बड़ी मशक्क़त से कोशिश करने पर भी सांस फूलती है और घायल होने का डर रहता है। 

आंखे हैं कि नज़र धुंधली होती जाती है पास से भी कुछ नज़र नहीं आता कोई आवाज़ ठीक से सुनाई भी नहीं देती और जो कहता हूं कोई सुनता नहीं सुन भी ले तो समझ नहीं पाता लोग कहते हैं मुझे बात कहनी नहीं आती शायद भूल गया हूं दुनिया से संवाद करने का तौर तरीका। साफ सीधी खरी बात भी लोग कहते हैं बेकार की बात है किस युग किस ज़माने की है ये बात। आजकल इन बातों का कोई मतलब नहीं रह गया है तुम भी निकलो इस अपनी ख्वाबों की दुनिया से बाहर। मगर ये बाहरी दुनिया मुझे कब रास आई है बड़ी बेदिल और बेरहम दुनिया है डराती है दूर से ही पास जाने का साहस ही नहीं होता मुझसे। 

  चमकती हुए रेत सी है ये दुनिया और मैं भागते भागते तक गया हूं आराम करना चाहता हूं थोड़ा रुककर किसी पेड़ की छांव में ठंडी हवा के झौंके से किसी ममता की गोद में किसी के आंचल को ढककर सो जाने का मन है। चलने की ताकत बची नहीं है कुछ देर को चैन मिल जाये तो फिर आगे की राह चलने का इरादा करना है मगर अब के कोई कारवां कोई काफ़िला साथ नहीं रखना। अब अकेले खुद के साथ अपनी मंज़िल को तलाश करना है। मौत से पहले ज़रा सा जीना चाहता हूं , सभी का हिसाब चुकता करने के बाद मुमकिन है इतनी फुर्सत मिले ज़िंदगी से। 

 मेरा खत पढ़ कर उनको सुनाना जो नहीं पढ़ते हैं , जिनको सुनाई नहीं देता उनको समझा सको तो समझा देना। जिनको मतलब समझ नहीं आता उनको उनके हाल पर छोड़ देना। तुम समझ लो तो शायद तुम्हारे नाम लिखी चिट्ठी है नाम नहीं जनता पता नहीं मालूम मुझे फिर भी पहुंचेगी किसी दिन किसी तरह से। जवाब लिख सको तो लिखना मुझे भेजना भी कितने अरसे से इंतज़ार है। 

तुम्हारा दोस्त 

लोक सेतिया। 


 



POST : 1139 कुआं मेंढक खुद को समंदर समझना ( सच केवल सच ) भाग दो - डॉ लोक सेतिया

      कुआं मेंढक खुद को समंदर समझना ( सच केवल सच ) 

                           भाग दो   -      डॉ लोक सेतिया


बात फिर से शुरू करते हैं ग़ालिब की इक ग़ज़ल के शेर को दोहराते हुए। हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है , तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है। दो सौ साल पहले कोई बादशाह के दरबार में स्थापित शायर अपने सिवा किसी को बराबर नहीं समझता था शेरो सुखन की महफ़िल में। इशारा था आप ही बताओ ये कैसी तहज़ीब है जो जानते समझते हुए भी किसी को जतलाना कि उसकी कोई पहचान नहीं है। होते हैं ऐसे लोग जो कहने को बरगद जैसे विशाल होते हैं लेकिन उनकी छाया किसी पौधे को उगने पनपने नहीं देती है। तमाम राजनैतिक दलों में ऐसा वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं सत्ता की बागडोर हाथ लगते ही राजनेता कई मगर जब कोई खुद को खुदा समझने लगता है उसकी खुदाई रहती थोड़े दिन ही है। इतने विशाल देश का संविधान किसी को ऐसा करने की अनुमति नहीं देता है। सबसे अनुचित होता है कुछ नहीं करते हुए सब कुछ करने का दिखावा करना। राजनीति की मछली हर तलाब को गंदा करने पर तुली है लोग राजनीति को समझते नहीं उसकी चाल का शिकार होकर आपस में नफरत झगड़े बिना तथ्य की बहस करने लगे हैं।

     सोशल मीडिया पर हर राजनेता की एक नहीं अनेक फेसबुक और व्हाट्सएप्प्प ट्विटर अकाउंट हैं मगर छल की बात है कि कोई भी नेता खुद नहीं है उसके नियुक्त लोग वेतन लेकर उनके नाम से आपसे संवाद करते हैं और हर बार संवाद करने वाले लोग बदल जाते हैं जैसे किसी नौकरी पर आठ घंटे की सेवा करना होता है। कोई कोई कभी खुद भी एक फेसबुक पर रहता है मगर हर अपने नाम की फेसबुक या सोशल मीडिया अकाउंट पर पढ़ कर लगता है खुद को सच्चा भला और ईमानदार घोषित करना मकसद है। जो वास्तव में नहीं हैं जो कभी होना चाहते नहीं हैं उसका दिखावा करते हैं। दोस्ती नहीं करनी उनको दोस्त बनकर आपको अपनी चिकनी चुपड़ी बातों में लाना है। जाने कितने लोग नासमझी करते हैं जो इन को लेकर कौन बनेगा विधायक सांसद खेलते रहते हैं। इक मंच जो आपस में संवाद स्थापित करने का अपने विचार अभिव्यक्त करने की जगह था झूठ चालाकी और मतलब का माध्यम बन गया है। आपको लगता है आपके राज्य के राजनेता से दोस्ती है पहचान है मगर होता ये है कि व्हाट्सएप्प पर हर दो दिन बाद कोई आपसे अपना परिचय मांगता है नाम पूछता है। मुझे हैरानी होती है जब मेरी भेजी हर पोस्ट पर मेरा नाम लिखा रहता है शीर्षक में ही फिर भी सवाल किया जाता है भाई कौन हैं आप। ऐसे लोगों को क्या समझ सकते हैं या समझा सकते हैं उनके ग्रुप्स हैं बने हुए उनकी महिमा का गुणगान करने को।

         सोशल मीडिया पर हर कोई भली बातें सुंदर संदेश देता है उपदेशक बनकर सच्चाई और धर्म का सबक सिखलाता है चाहे खुद कैसा भी हो। मगर जनता को ठगने को हर खलनायक मसीहा होने का दावा करता नज़र आता है फेसबुक व्हाट्सएप्प पर। खुद को चालाक समझना ठीक है आपकी चाल चालाकियां लोग नहीं समझ पाते वो भी अपनी जगह मगर इरादा सत्ता पाकर देश की संम्पदा की लूट का और दावे देश भक्ति जनता की सेवा करने की भावना के ये तो हद से आगे बढ़ना है। अच्छा बनकर दिखाना कोई नहीं चाहता मगर हर कोई कहलाना चाहता है तुम से अच्छा कौन है। बड़े धोखे हैं इस राह में कभी मुहब्बत प्यार को लेकर कहते थे अब सोशल मीडिया को लेकर कहना पड़ता है। हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है। आपको जो भी राजनेता अपने लगते हैं वो किसी के भी होते नहीं हैं कल किसी दल के नेता को आदर्श बताते थे उनके अनुयाई बने फिरते थे आज दलबदल कर सुर बदले हुए हैं। जिनको गली देते थे उनकी वंदना करते नज़र आते हैं उनके चरण धोने से चरणों में नतमस्तक होने तक सब करते हैं और कल जिसे अपना खुदा कहते थे आज उसी को पापी अधर्मी बताते लाज नहीं आती। दोगलापन नहीं उस से बढ़कर गिरगिट से जल्दी रंग बदलने वाले इंसान नहीं हो सकते। सत्ता की हवस ने अंधा और पागल किया हुआ है विचार का कोई मतलब ही नहीं है। ये राजनीति की लंका है जिस में हर कोई बावन गज़ का है मगर ये चमकती हुई लंका खालिस सोना की क्या पीतल की भी नहीं हैं जंग लगे हुए लोहे पर सोने के रंग से पुताई की हुई है।

अब इस को लेकर लिखना समय बर्बाद करना है अधिक क्या कहा जाये आखिर में पुरानी कहावत की बात याद कर लेते हैं। कहते हैं राजनीति और वैश्यावृति दुनिया के दो सबसे पुराने पेशे हैं और दोनों में बहुत समानताएं हैं। कानूनन जिस्मफ़रोशी अपराध है मगर ईमान बेचा जा सकता है राजनीति करने की छूट है उस में झूठ कपट छल धोखा सब की इजाज़त है पता चलता है तो हम हैरान नहीं होते कह देते हैं ये तो राजनीति की बात है अर्थात गंदी बात है। ये समाज कहता है भली बातें करना सीखो मगर करता है गंदी बातें दिन भर गंदी राजनीति छाई रहती है दिलो दिमाग पर। गंदी बातों में आनंद मिलता है अच्छी बातें सुनकर लोग बोरियत महसूस करते हैं। जैसे हर कोई प्यार इश्क़ मुहब्बत में तारीफ खूबसूरती की करते हुए भीतर भावना कुत्सित वासना की रखते हैं किस लिबास में कौन किसी की अस्मत लूटना चाहता है किसी का ऐतबार नहीं है। इस दौर में हर कोई राम का रूप धारण किये है मगर लोकतंत्र की सीता का अपहरण करने की फ़िराक में है यही सार है अपने आज की राजनीति की वास्तविकता को ब्यान करना हो अगर।   
 

 

जून 29, 2019

POST : 1138 कुआं मेंढक खुद को समंदर समझना ( सच केवल सच ) भाग एक - डॉ लोक सेतिया

       कुआं मेंढक खुद को समंदर समझना ( सच केवल सच ) 

                          भाग एक -    डॉ लोक सेतिया 

 अपनी हैसियत को लेकर मुगालते में रहने वाले लोग भी होते हैं। बात चाहे किसी भी समाज की हो ऐसे लोग मिलते हैं जो जतलाते हैं अगर दुनिया कायम है तो उन्हीं के दम से है। किसी और की क्यों खुद अपनी बात करता हूं मैं क्या हूं कुछ भी नहीं मुझसे पहले कितने डॉक्टर भी और लेखक भी हुए हैं जिनके सामने मेरी कोई बिसात ही नहीं है साहित्य की दुनिया के समंदर में मेरा अस्तित्व किसी कतरे से भी कम है न होने जैसा। कई लोग हुए हैं अभी भी होंगे जिनको लगता है हिंदी साहित्य की शान उनसे है जबकि हिंदी ही नहीं अन्य भी भारतीय भाषाओं का साहित्य बहुत समृद्ध रहा है। जिनको किसी और भाषा का साहित्य उच्च कोटि का लगता है उन्हों भारतीय ग्रंथों को समझा तो क्या पढ़ा ही नहीं है। महाभारत जैसा काव्य ग्रंथ रामायण जैसा दुनिया में कहीं नहीं मिलेगा , गीता की संक्षेप की बात और सार की बात अनुपम है तो गुरु ग्रंथसाहिब किसी भी अन्य धर्म से अलग अपनी मिसाल है तभी उसको प्रकट गुरु समझने को कहा गया है। टैगोर का लिखा साहित्य अभी सारा छप नहीं सका है ग़ालिब मीर कबीर रहीम रसखान और रूहानियत के कवि खय्याम से लेकर लंबी सुचि है हम बस उनकी रचनाओं को जानते हैं थोड़ा बहुत। फिर भी हैं जो आज खुद को समझते हैं साहित्य के हस्ताक्षर हैं। बात किसी और की करनी है मगर मगर पहले अपने भीतर झांकना उचित था और मुझे ये स्वीकार करने में रत्ती भर संकोच नहीं है कि मैं कुछ भी नहीं हूं इक तिनके से कम हैसियत है जो तेज़ आंधी की बात क्या ज़रा सी हवा भी उड़ाकर जिधर चाहे ले जा सकती है। अब आगे आजकल की बात। 

मोदी को लेकर बड़ा शोर है उन्होंने देश की शान बढ़ाई है जैसे उनसे पहले देश बेनाम था और उसकी अपनी कोई पहचान नहीं थी कोई विरासत नहीं थी। ये इस महान देश की महत्ता महान परंपरा विरासत को भूलना है। ठीक जैसे कुछ लोग आज़ादी को गांधी जी की उपलब्धि समझते हैं जबकि गांधी इक चेहरा थे विचारधारा का जो अहिंसक तरीके से देश की लड़ाई लड़ रहे थे और करोड़ों लोगों को अपने साथ खड़ा करने का काम कर दिखाया था मगर साथ ही कितने ही और भगत सिंह बोस जैसे भी लोग अपनी अपनी तरह से आज़ादी की जंग में शामिल थे। बर्तानिया सरकार के साथ समझौता या संधि होने से सारा श्रेय उनको नहीं दिया जा सकता है और अभी भी देश की जनता उनको महानायक मानती है गांधी नेहरू के योगदान को समझ कर भी उनकी कुर्बानी को याद रखते हैं दिल से आदर से। कुछ लगाव है जो आज भी उनके नाम से ही हमारा खून दौड़ने लगता है इक भावना का संचार करता है देशभक्ति का जज़्बा पैदा करता है। हज़ारों साल का अपना गौरवशाली इतिहास है और जाने कितने शासक हुए हैं जिनका योगदान कोई भूल नहीं सकता है। वो चाहे कोई मुस्लिम शासक हों या सिक्ख राजा उन्होंने हिंदुस्तान को सभी धर्म के लोगों को जोड़ने और उनका कल्याण करने तथा न्याय का आदर्श स्थापित करने का कार्य ईमानदारी और निष्पक्षता से किया ताकि हर कोई खुद को सुरक्षित महसूस कर सके। विश्व के देशों से पहले हमारा देश बेहद समृद्ध रहा है आर्थिक रूप से भी और ज्ञान विज्ञान को लेकर भी हम दुनिया को ज्ञान बांटने का काम करते रहे हैं। 

कई विदेशी अंग्रेजी शासकों ने हमारे इस बेहद समृद्ध भंडार को दरकिनार कर अपनी शिक्षा और नीतियों को लादने का काम किया और हमारे कुछ लोग जो शासक वर्ग और अभिजात वर्ग से थे उनकी चाल को समझने में नाकाम रहे और देश को गुलामी की जंज़ीरों में जकड़े जाता देख किनारे खड़े रहे। उनको अपने लिए पैसा तमगे उपाधियां और ख़िताब इतने भाए कि उनकी आंखें ही नहीं सोच भी कुछ भी नहीं देख रही थी। ऐसे लोगों की गलतियों और स्वार्थ से देश दो सौ साल गुलाम रहा है। मगर हमने इक़बाल की बात को शायद नहीं समझा है कि कुछ बात है जो हस्ती मिटती नहीं हमारी बरसों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा। आज कुछ लोग शायद अपने स्वार्थ में अंधे होकर ऐसा शोर करते हैं जैसे किसी एक नेता के आने से देश का परिचय विश्व से हुआ है। हम नहीं समझते राजनीति का खेल हमेशा से सत्ता और ताकत और लूट का तरीका रहा है जो भी देश हमसे दोस्ती के रिश्ते रखते हैं उनका खुद का मतलब होता है कोई आर्थिक या वैश्विक राजनीति से जुड़ा स्वार्थ छुपा होता है। जो भी देश आगे बढ़ते हैं अपने दम पर लगन से महनत से बढ़ते है किसी और देश से खैरात लेकर नहीं। खैरात पाने वालों का अंजाम सामने है पड़ोसी देश को देख सकते हैं , जब तक मतलब था ज़रूरत थी उपयोग करना था उसको कितना कुछ दिया और जब मतलब के नहीं समझते तो मझधार में छोड़ते हुए समय नहीं लगाया है। 

   केवल बातों को भाषण को सुनकर किसी को महान मत समझना ऐसा शेख चिल्ली होने को कितने हो सकते हैं वास्तविक नायक कहने में नहीं कर दिखाने में यकीन करते हैं। ध्यान से समझोगे तो उनकी कही बात वास्तविकता में सच नज़र नहीं आती है। लेकिन हम जिन टीवी अख़बार वालों से प्रभावित हो जाते हैं वो खुद क्या हैं अपने खुद को सबसे बेहतर हैं का खुद ही तमगा देते हैं। कहते हैं हमारे चाहने वाले सबसे बढ़कर हैं जब कि उनकी इसी बात को नापसंद करने वाले उनसे परेशान हैं उनको नहीं खबर। कई लोग ऐसे होते है जिनको खुद को बाज़ार में ऊंचे दाम बेचना आता है और आपके सामने हैं कोई योग की दुकानदारी करता है कोई किसी खेल को पैसा बनाने का जरिया तो कोई अभिनय को शोहरत दौलत पाने का माध्यम बना नज़र आता है उनसे बड़ा कोई नहीं हुआ है मगर ये छल है और उनसे अधिक काबिल लोगों को किनारे करने भूल जाने का काम है। 
 
                   ( अभी विषय अधूरा है बाकी बात अगली पोस्ट पर )

 

जून 28, 2019

POST : 1137 आग बरसाने वाले पेड़ ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      आग बरसाने वाले पेड़ ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

   दुष्यंत कुमार अब बताओ हम कहां जाएं। आपको दरख्तों के साये में धूप लगती थी और कहने लगे चलो यहां से चलते हैं और सदा के लिए। आजकल जो पेड़ पूर्वजों ने छांव देने को फल की आस रखकर लगाए थे उनके पत्ते तक आग बरसाने लगे हैं। जिसको गुलशन कहते थे वही तपता रेगिस्तान बना डाला है उन लोगों ने जो मसीहाई का मुखौटा लगाकर आए थे और कहते थे हम इस धरती को जन्नत बना देंगे। दोजख़ भी क्या इस से बुरा होगा कोई इस नर्क को देख कर लोग जीने से घबराते हैं। बड़ी अजीब तहज़ीब के लोग हैं जो भगवान देवी देवताओं के नाम का शोर मचाते हुए ज़ालिमाना ढंग से इंसाफ का नाम लेकर क़त्ल करते हुए खुद को भगवान और धर्म के बंदे बताते हैं लेकिन हैं शैतान और शर्मसार करते हैं हैवानियत तक को भी। 

संविधान को समझते हैं सत्ता पाने तक काम की चीज़ है उसके बाद उनका अपना वहशीपन उनका कायदा कानून निज़ाम का दस्तूर सब कुछ है। और कहते ही नहीं समझाते हैं उनको देशभक्त और अच्छा भी बताना होगा नहीं तो आपका जीना दुश्वार मरना मुहाल हो जाएगा। ये दावा करते हैं कहीं अंधेरा नहीं है और अंधकार के ही पुजारी हैं बस्तियां जलाते हैं दूर से तमाशा देखते हैं जलाकर और सोचते हैं यही रौशनी है। घर को जलाने लगे हैं ये कैसे चिराग़ हैं जो रौशनी के नाम पर धुआं बांटने का काम करते हैं। कौन है जिसको इतिहास में जगह पानी है और शोहरत समझते हैं नाम बदनाम होने को भी। खलनायकी के कायल होने लगे हैं लोग और भले-मनसाहत को ठेंगा दिखाने को ताकत मानते हैं। सिंहासन पर राज है अंधकार का कारोबार करने वाले का उसका काम ही रौशनी के नाम पर अंधेरा बेचना है। जाँनिसार अख्तर जी की बात सामने है। जब मिले ज़ख्म तो क़ातिल को दुआ दी जाये , है यही रस्म तो ये रस्म उठा दी जाये। आजकल लोग लिखते कम हैं पढ़ते बिल्कुल भी नहीं है जानकर होने का दावा करते हैं और जो सबक सीखा नहीं कभी खुद उसका उपदेश देते हैं। 

गधे को बाप बनाने की भी कोई हद होगी मगर जब सत्ता की खातिर कत्ल बलात्कार के गुनहगार को शासक संत कहने लगे तो समझना होगा मंदिर किसी कातिल का बनवाना उनकी मंशा थी और आगे इरादा क्या है कोई नहीं जानता है। ख़ुदपरस्ती की आदत इंसान को इतना भी खराब करती है कि भले बुरे का भेद नहीं समझ पाते हैं लोग। जो उनकी ज़ुबान से निकले वही झूठ सबसे बड़ा सच है और बाकी हर सच हर वास्तविकता जो सामने है उसका होना ही नहीं स्वीकार है अर्थात इसी का नाम सरकार है। ये राजनीति है या धोखे  का झूठ का कारोबार है जिसको कहते हैं इनायत है दरअसल अत्याचार है। हर युग के ज़ालिम को रहता अहंकार है हो रही नाम की हर तरफ जय जयकार है। दहशत से छीनता जो नहीं होता वो प्यार का हकदार है किसी को भी नहीं लेकिन इनकार का अधिकार है। ये सही गलत से भला किसको सरोकार है हर दीवार पर चिपका उनका इश्तिहार है , अब नज़र आती नहीं किसी को कोई दरार है। याद आता फिर दुष्यंत कुमार है। उनको कुछ भी कहना नहीं , कुछ भी कहना बेकार है। उन पर चढ़ा हुआ सत्ता का खुमार है। इस पार भी है वही शायद यही उस पार है। जनता खरबूजा बन कटती है सत्ता की तीखी कतार है ये कहलाती राहत की भरमार है। जो भी कहो पहले कहो कहना भी अब बेकार है। दो ग़ज़ल सुनते पढ़ते हैं सर धुनते हैं जब जीते हुए ज़िंदा लाश की तरह हो गए हैं संवेदनाशून्य समाज के कायर लोग हैं हम सभी।


  धुआं धुआं बस धुआं धुआं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा' 

धुआं धुआं बस धुआं धुंआ
न रौशनी का कहीं निशां। 
 
हैं लोग अब पूछते यही
कहां रहें जाएं तो कहां। 
 
बहार की आरज़ू हमें
खिज़ा की उसकी है दास्तां। 
 
है जुर्म सच बोलना यहां
सिली हुई सच की है ज़ुबां। 
 
जला रहे बस्तियां सभी
नहीं बचेगा कोई मकां। 
 
न धर्म कोई न जात हो
हमें बनाना वही जहां। 
 
उसी ने मसली कली कली
नहीं वो "तनहा" है बागबां।

दर्द अपने हमें क्यों बताये नहीं - लोक सेतिया "तनहा"

दर्द अपने हमें क्यों बताये  नहीं ,
दर्द दे दो हमें ,हम पराये  नहीं।

आप महफ़िल में अपनी बुलाते कभी ,
आ तो जाते मगर , बिन बुलाये  नहीं।

चारागर ने हमें आज ये कह दिया ,
किसलिए वक़्त पर आप आये नहीं।

लौट कर आज हम फिर वहीं आ गये  ,
रास्ते भूल कर भी भुलाये  नहीं।

खूबसूरत शहर आपका है मगर ,
शहर वालों के अंदाज़ भाये  नहीं।

हमने देखे यहां शजर ऐसे कई ,
नज़र आते कहीं जिनके साये  नहीं।

साथ "तनहा" के रहना है अब तो हमें ,
उनसे जाकर कहो दूर जाये  नहीं।

( चारागर :::: डॉक्टर )          ( शजर ::::: पेड़ )

जून 27, 2019

POST : 1136 अरे ओ आस्मां वालो ( ज़माने से अपनी बात ) डॉ लोक सेतिया

  अरे ओ आस्मां वालो ( ज़माने से अपनी बात ) डॉ लोक सेतिया 

  आपको पढ़ना है पढ़ लेना नहीं पढ़ना तो आपकी मर्ज़ी है। समझाना क्या है समझना क्या है बस थोड़ा सा ज़माने वालों की दुविधा को मिटाना चाहता हूं। कोई उपदेशक नहीं खुद को कोई भला या बड़ा आदमी नहीं समझता सब जैसा इंसान ही हूं मगर शायद आपकी दुनिया से बहुत अलग सोच वाला बन गया या बनाया है बनाने वाले ने। जैसा लोग समझते हैं आलोचक नहीं हूं मैं लिखना मेरी आदत ही नहीं ज़रूरत भी है चाहत भी और लिखना सच को सच झूठ को झूठ मेरी विवशता है। ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर , कबीरा खड़ा बाज़ार में सबकी मांगे खैर। अदावत नफरत मेरे पास है नहीं किसी के लिए भी और जो है शायद इस दुनिया के काम का नहीं है। कोई ऊंचे ख्वाब कोई आकाश के ऊंचाई वाले सपने नहीं हैं धरती पर चैन से सादगी से और आराम से रहना चाहता हूं किसी को क्या उलझन है मुझसे नहीं जानता।

    आपकी दुनिया इक बाज़ार है जिस में लोग अपने दर्द बेच कर ख़ुशी खरीदना चाहते हैं और मुझ जैसे लोग हैं कुछ जो औरों के दर्द को अपना समझते हैं। दर्द से मुहब्बत है दर्द से घबराते नहीं हैं लेकिन दर्द की दुकान नहीं लगाते बेचते खरीदते नहीं हैं हो सके तो किसी का दर्द बांटने का काम करते हैं। आपकी दुनिया की दौलत मेरे पास नहीं है बस इक खज़ाना है दोस्ती इंसानियत भाईचारे का हर किसी के लिए। जिनको शोहरत की बुलंदी पर खड़ा होना है उनसे बचता हूं इसलिए कि मुझे ऊंचाई से घबराहट होती है पांव ज़मीन पर रखना चाहता हूं उड़ने को मेरे ख्याल बहुत हैं जो आज़ाद हैं। किसी पहाड़ पर चढ़कर अपनी ऊंचाई बढ़ाने का कायल नहीं हूं। मुझे दर्द मिले हैं मिलते हैं और दर्द से परेशानी नहीं होती है थोड़ी राहत मिलती है डर लगता है जब कोई ख़ुशी कुछ पल को आती है पास चली जाती है खुशियां ठहरती नहीं अधिक देर तक जानते हैं सभी। दर्द का रिश्ता बड़ा अच्छा होता है दर्द कहते है खुद दवा बन जाता है ग़लिब कहते थे मुश्किलें मुझ पर इतनी पड़ीं कि आसां हो गईं। अब तो घबरा के कहते हैं कि मर जाएंगे , मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएंगे। मौत से घबराकर जीना नहीं छोड़ सकते है सच कहूं तो मुझे हमेशा से लगता है मौत तो दरअसल इक सौगात है , हर किसी ने इसे हादिसा कह दिया।

      आपको नहीं समझ आती मेरी बातें तो छोड़ दो समझना कोई मज़बूरी नहीं है। मेरा रास्ता अपना है मेरी मंज़िल और है आपको अपनी मर्ज़ी की राह चलने की आज़ादी है मुझे अपनी राह जाने दो कोई टकराव नहीं है। हो सकता है किसी मोड़ पर कोई चौराहा आये अपनी राहें मिल जाएं या मिल कर फिर किसी तरफ मुड़ रही हों तब दुआ सलाम करने की औपचारिकता निभा लेना। मुमकिन हो तो जैसे आप हैं उस तरह रहें मगर मुझे भी रहने दें जैसा भी अच्छा बुरा मैं हूं। ग़ालिब की तरह कोई परसाई का दावा मैं भी नहीं करता हूं। अब इक रचना लिख कर बात को विराम देता हूं भले बात पूरी नहीं हुई है आधी कही है आधी बाकी रह गई किसी और दिन कहने को।

मेरे दुश्मन मुझे जीने की दुआ न दे (  ग़ज़ल  ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

मेरे दुश्मन मुझे जीने की दुआ न दे
मौत दे मुझको मगर ऐसी सज़ा न दे।

उम्र भर चलता रहा हूं शोलों पे मैं
न बुझा इनको ,मगर अब तू हवा न दे।

जो सरे आम बिके नीलाम हो कभी
सोने चांदी से तुले ऐसी वफ़ा न दे।

आ न पाऊंगा यूं तो तिरे करीब मैं
मुझको तूं इतनी बुलंदी से सदा न दे।

दामन अपना तू कांटों से बचा के चल
और फूलों को कोई शिकवा गिला न दे।

किस तरह तुझ को सुनाऊं दास्ताने ग़म
डरता हूं मैं ये कहीं तुझको रुला न दे।

ज़िंदगी हमसे रहेगी तब तलक खफा
जब तलक मौत हमें आकर सुला न दे। 

जून 26, 2019

POST : 1135 लंबी ख़ामोशी से पहले कहना है ( फ़लसफ़ा ज़िंदगी का ) डॉ लोक सेतिया

       लंबी ख़ामोशी से पहले कहना है ( फ़लसफ़ा ज़िंदगी का ) 

                                डॉ लोक सेतिया 

  अभी नहीं अभी तो कुछ कहा ही नहीं चुप होने की बात नहीं कहो ख़ामोश होने से पहले मुझे कुछ दिल की बात कहने दो। फ़ोन पर चेतावनी मिलती रहती है आजकल सोच समझ का कुछ कहना सरकार संदेश भेजती है बताने को कानूनी भाषा जो समझ नहीं आती किसी को फोन का उपयोग सोच समझ कर करें सरकार की नापसंद की बात पर अंजाम भुगतने को तैयार रहना। लिखा जो भी हो मतलब निकलता यही है। सब लोग भी डराते हैं क्या मुझे डर नहीं लगता , अब क्या कहूं डर किस बात का है। डर यही है कि किसी दिन हमेशा को खामोश होना ही है उस से पहले जो चाहता हूं कह तो लूं। अभी तो कुछ भी नहीं कह पाया अच्छी तरह से बस हर दिन अल्फ़ाज़ निकलते हैं फुसफुसाहट बनकर रह जाते हैं आवाज़ बनकर सुनाई नहीं देते बहरे समाज को निज़ाम को। सच बताऊं फिर आज सोचा था नहीं लिखा जाएगा नहीं बोला जाएगा जो कहना है अल्फ़ाज़ मिलते ही नहीं है बस यूं की कागज़ काले करने से फायदा क्या है। आज बताऊं मुझे क्या लिखना बाक़ी है क्या है जो कहना है कह नहीं पाया कहा नहीं जाता या कोई भी दिखाई नहीं देता जिस से कहूं जो सुने भी और समझे भी। अभी तलक किसी को मेरी कही बात समझ आती नहीं है कहता हूं जो समझते हैं सब लोग उसके उलट ही अर्थ निकाल कर। सुबह सैर पर जाता हूं यूं ही कोई गीत सुन कर गुनगुनाता रहता हूं अच्छा लगता है चैन मिलता है दिल को राहत भी। आज नहीं लिखने की बात थी फिर मन में ऐसे में अचानक फैज़ अहमद फैज़ की नज़्म इक़बाल बानो की गाई हुई सुनकर याद आया अभी मकसद पूरा कहां हुआ है अधूरा है कुछ लिखना रह गया है कुछ है जो कहना है लंबी ख़ामोशी से पहले। 

    न मैं फैज़ बन सकता हूं न मुझे ग़ालिब होना है दुष्यंत कुमार भी नहीं होना मुमकिन। थोड़ा थोड़ा सब है मुझ में मिला हुआ नानक भी कबीर भी रहीम भी रसखान भी। फैज़ की तरह आरज़ू है देखने की उस दिन को जिसका वादा है। जब सब ताज उछाले जाएंगे सब तख़्त गिराए जाएंगे और राज करेगी आम जनता जो तुम भी हो और मैं भी हूं। मेरा कहा मानोगे यही गीत नज़्म रोज़ सुना करो सीने में इक आग जलती रहेगी जो दुष्यंत कुमार कहते हैं हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए। जाँनिसार की याद आई ऐसे में , जल गया अपना नशेमन  तो कोई बात नहीं , देखना है कि  अब आग किधर लगती है। सारी दुनिया में गरीबों का लहू बहता है हर ज़मीं मुझको मेरे खून से तर लगती है। ये सब अपनी अपनी मशाल जलाकर दे गए हैं हम सब को। ऐसी मशाल जो बुझती नहीं लाख बुझाने की कोशिश करे कोई हाक़िम। बहुत कोशिशें की गईं नहीं बुझा पाए उनकी शमां को , नहीं रोक पाए उनकी आवाज़ को बंद करने को किसी कैदखाने की ऊंची दीवार से भी। ज़फ़र का दर्द अपनी ज़मीन से बिछुड़ कर भी छिपाया नहीं जा सका आज भी याद है , लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में। रूह तक जाती है टीस बनकर उनकी ग़ज़ल की बात। 

मुझे लिखना है या कि बनाना है इक प्यार का जहां इक शहर मुहब्बत का जिस में किसी को किसी से बैर नहीं हो कोई नफरत नहीं करे किसी से अदावत की कोई बात नहीं हो। यही चाहा है कोई महल नहीं धन दौलत की चाहत नहीं कोई शोहरत की आरज़ू भी नहीं बस थोड़ा प्यार अपनापन हमदर्दी का ज़रा सा स्पर्श मिल जाये। कुछ पल को जीने को ज़िंदगी की ज़रूरत है उसके बाद मौत से तो इश्क़ करना ही है। कौन जाने जन्नत की चाह में मर के भी दोजख़ ही नसीब हो , ये माना ये दुनिया मेरी चाहत की दुनिया नहीं है पराई पराई सी है। फिर भी मुझे यहीं इसी में तलाश करनी है कोई दुनिया अपनी भी हो जो। अब भी रुख्सत होने से पहले कोई इक गीत कोई ग़ज़ल कोई नग्मा कोई कहानी मुहब्बत की कहनी है जो जाने के बाद इक दिया बनकर कोई चिराग़ बन कर उजाला करे हमेशा हमेशा को। शायद इतने घने अंधकार में जुगनू की तरह टिमटिमाता हुआ मेरा थोड़ा सा वजूद इक उम्मीद बनकर किसी को रास्ता दिखलाता रहे। आपकी नफरत की जंग की भेदभाव की दुनिया से थोड़ा छुटकारा मिल जाता तो लिख लेता अपना गीत दोस्ती मुहब्बत प्यार का। इसी बहाने की गीत भी गाता गुनगुनाता चलूं आपको सुनाता हुआ।  पर जो लिखना रह गया है बाकी है उस का इंतज़ार करना ज़रूर शायद थोड़ा विलंब से फिर भी होगा यादगार ऐसा दिल कहता है। 

 गीत प्यार का गुनगुनाऊं ( गीत ) डॉ  लोक सेतिया

गीत प्यार का गुनगुनाऊं कैसे।

लोग पूछते हैं तुम्हारी बातें
याद कौन रखता हमारी बातें
आसमां पे तुमने बसाया है घर
मैं तुम्हें ज़मीं पर बुलाऊं कैसे।
गीत प्यार का ......................

खुद से खुद को जब दूर करना चाहा
और ग़म से घबरा के मरना चाहा
मौत ने मुझे किस तरह ठुकराया
आज वो कहानी सुनाऊं कैसे।
गीत प्यार का ........................

छोड़ कर मुझे लोग धीरे धीरे
चल दिए कहीं और धीरे धीरे
साथ साथ चलने के वादे भूले
रूठ कर चले जब मनाऊं कैसे।
गीत प्यार का .....................

कब वफ़ा निभाई यहां दुनिया ने
हर रस्म उठाई यहां दुनिया ने
जिस्म भी हुआ और दिल भी घायल
ज़ख्म आज सारे दिखाऊं कैसे।
गीत प्यार का गुनगुनाऊं कैसे।
    


 


जून 25, 2019

POST : 1134 डराता धर्म उन्माद और दहशत की देशभक्ति - डॉ लोक सेतिया

  डराता धर्म उन्माद और दहशत की देशभक्ति - डॉ लोक सेतिया 

ये सौ साल पहले होता था ज़मीदार के लठैत या जागीरदार के गुंडे जिस किसी को चाहे मार पीट देते थे। पीड़ित लोग न्याय की गुहार भी अन्यायी के दरबार में लगाने को विवश थे। ऐसे में शासक जैसे कोई पिता शरारत करने वाले बच्चे की शिकायत सुन कर शिकायत करने वाले की तसल्ली की खातिर दिखावे की डांट लगाते थे बदमाश आगे से मत करना। चलो जिसकी पिटाई की उसके साथ गले लगो हाथ मिलाओ दोस्ती कर लो। मगर जब शिकायती चले जाते तो शाबासी मिलती बच्चे को और समझाते कि ये तमाशा करना ज़रूरी है। चिंता मत करो कुछ नहीं बिगड़ने वाला तुम शासक के साथी हो नियम कानून किसी और के लिए हैं। इधर फिर से आज़ाद देश में जनता की चुनी सरकार देश के नियम कानून और संविधान को ताक पर रखकर ऐसा समझने लगी है मानो देश उनकी जागीर है और जो उनको पसंद वही सही जो नहीं पसंद उसको मिटाना है। सत्ताधारी लोग सत्ता के मद में चूर ही नहीं लगते बल्कि पागलपन का शिकार होकर मनमानी करने लगे हैं। भीड़ बनकर किसी को भी किसी आरोप की बात पर ज़ालिमाना इंसाफ करते हैं मार देते हैं। उनका ऐसा हौंसला आता वहीं से है जहां सत्ता के गलियारे से अपराधी सोच के नेता धर्म के नाम पर नफरत की बातें करते हैं और देश की एकता अखंडता को तार तार करते हैं। आपको डरना चाहिए क्योंकि आप शासित हैं जनता हैं और जिनको अपने चुना था वो आपसे वोटों की भीख मांगने वाले जीत कर सेवक नहीं राजा मानते हैं खुद को।

   क्या आपको हम सभी को उनकी वास्तविकता इतने सालों तक समझ नहीं आई। हर अत्याचारी अपना गुणगान चाहता है अपने अपराधी लोगों को संसद में बिठाया है तो उनसे शराफत की उम्मीद तो मत करो। कसूर हमारा है हमने बिना सोचे समझे अनपढ़ ज़ाहिल गंवार किस्म के आपराधिक छवि के लोगों को राजनीति से बाहर करने की जगह सबसे ऊपर स्थापित कर अपने ही कत्ल का सामान किया है। इस देश में दो तरह से कानून लागू होते रहे हैं , राजनेताओं धनवान लोगों जाने माने शोहरत हासिल वर्ग और सरकारी अधिकारी लोगों के लिए नियम कानून फुटबॉल की तरह हैं उनकी ठोकर पर मगर आम नागरिक की खातिर कदम कदम पर तलवार बनकर घात लगाए खड़े हुए अवसर मिलते ही अपना काम बेरहमी और बेदर्दी से करते हैं। जो लोग भलाई देशसेवा और ईमानदारी की सोच रखते हैं उनकी जगह कहीं भी नहीं है राजनीति उनको अपनाती नहीं और समाज ऐसे लोगों की बात सुनता नहीं है। जो शोर मचाता है जिसका परचम लहराता है उसी की जय जयकार करती भीड़ बिना विचारे ज़ालिम को मसीहा कहने लगती है। कायरता और स्वार्थ ने सब को नपुंसक बनकर जीने का आदी बना दिया है। सच के साथ खड़े होना तो दूर हम सच से घबराते हैं अपनी ज़ुबान पर चुप का ताला लगा लेते हैं।

      क्या इसको आज़ाद देश कहते हैं जिस में गुनहगार स्वभाव के लोग मनमाने ढंग से मनमानी करते हैं और हम दहशत के साये में जीते हैं मुजरिम बनकर सहमे हुए निरापराध लोग। जब ऐसी घटनाएं घटने लगती हैं और उनको बढ़ावा मिलता है अंकुश नहीं लगाया जाता तब सरकार नाम का कुछ नहीं होता है सरकार के नाम पर दिखावे को कुछ किया जाता है पर्दे के पीछे से गंदा खेल राजनीति जारी रखती है। आवारा भीड़ के खतरे सब जानते हैं भीड़ का न्याय ज़ुल्म की हद होता है इंसाफ के नाम पर। अवल तो मुजरिम ऐसे कर्म करने के बाद पकड़े नहीं जाते हैं पुलिस रपट दर्ज करती है कुछ लोगों के नाम पर बिना कोई नाम की पहचान किये ही। जिनको सबने सामने देखा है पुलिस उनको खोज नहीं सकती क्योंकि खोजने की चाह नहीं है और पुलिस न्यायपालिका कार्यपालिका सब संविधान और कर्तव्य को भुलाकर सत्ताधारी के आदेश का पालन करने लगते हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए क्या ये कहना गुनाह है अगर नहीं है तो याद कर लो इसी बात कहने की आड़ लेकर 1975 मैं जेपी के भाषण की बात लेकर इमरजेंसी लगाई गई थी और फिर 19 महीने सत्ता की मनमानी चलती रही। विडंबना की बात है और खेद की भी कि जो तब आपात्काल को काला अध्याय इतिहास का बताते थे वही आज उस से आगे बढ़कर बिना आपात्काल की घोषणा के उसी तरीके से चल रहे हैं विरोध करने वालों को जेल में बंद नहीं सरेआम कत्ल करवाने की बात होने लगी है। सरकार अगर अराजकता को रोकने का काम नहीं करती है लोग सरकार पर भरोसा खो देते हैं तो ऐसी सरकार होने का अधिकार खो देती है। लोहिया जी की बात भूल नहीं जाना कि ज़िंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करती हैं। और छल बल से झूठे प्रचार से पैसे और सत्ता के साधन के दुरूपयोग से अपराधी लोगों को साथी बनाकर सरकार बनाई जा सकती है मगर उस पर लोगों का विश्वास नहीं जीता जा सकता है। बातें करने से संविधान की शपथ नहीं पूरी निभती है आपका आचरण लोकतांत्रिक होना और न्याय मिलने का विश्वास जनता को होना पहली शर्त है अन्यथा सत्ता होते भी सरकार का शासन गुंडाराज कहलाता है। आज ऐसी हालत है और देश इक भयानक मोड़ पर खड़ा हुआ है।




जून 24, 2019

POST : 1133 ज़िंदगी का सफरनामा ( अनकही दास्तान ) डॉ लोक सेतिया

    ज़िंदगी का सफरनामा ( अनकही दास्तान ) डॉ लोक सेतिया 

 दुनिया मुसाफ़िरख़ाना है कहते हैं मुसाफ़िर आते हैं जाते हैं रुकते हैं कुछ वक़्त को चले जाते हैं आगे अपनी किसी मंज़िल की तरफ। शायद ऐसा हो या शायद ऐसा नहीं हो सबकी दास्तां एक जैसी नहीं होती है। कई किरदार अपनी कहानी से भटकते हुए किसी राह चलते चलते मिल जाते हैं जीवन के सफर में थोड़ी देर को साथ चलते चलते जान पहचान मुलाकात हो जाती है कुछ लगाव हो जाता है। ऐसा ही हमारा सफरनामा है। 

तुम इसको मिलना नहीं समझते दूर दूर से देखना इशारे इशारे से बातें करना कभी बुलाना कभी समझना समझाना कभी कोई न कोई मज़बूरी का बहाना। हम जीवन के लंबे सफर पर अपने अपने कारवां के संग चल रहे थे। आधा सफर कट जाने के बाद इस रास्ते पर काफिले साथ साथ चलते बढ़ते रहे। अपने कारवां में हम अकेले थे हमराही तुम्हें छोड़ गया था मेरा साथ नहीं था बिछुड़ गया था। हमसफ़र बन जाते हैं तब बाद में समझ आता है अपनी मंज़िल जुदा जुदा है। कुछ देर सफर का साथ होने से अपनापन लगाव हो जाता है शायद एक दूसरे की आदत होते होते चाहत होने लगती है। लगने लगा था ऐसे ही सफर चलता रहे हम साथ साथ आगे बढ़ते रहें। मगर तभी इक दोराहा आया तो हमारे काफिले दो अलग राहों पर आगे जाने लगे तब हम उदास हैं अलग होना पड़ेगा अपने कारवां को छोड़ना मुश्किल है और रास्ते बिछुड़ रहे हैं हम मिल नहीं सकते बिछुड़ कर जाना भी नहीं चाहते पर चाहने से कुछ भी नहीं होता है जाना अपने काफ़िले के साथ है। 

ये कोई मुलाकात नहीं थी पहचान भर थी इत्तेफ़ाक़ था जान पहचान थी। अब कोई नहीं जानता मैं भी नहीं तुम भी नहीं कि जिस राह आगे जाना है अपने कारवां के साथ हमने फिर आगे कहीं कोई मोड़ आएगा जो दोबारा उसी तरह एक साथ नहीं होते हुए भी साथ साथ रहने का अवसर दे सकेगा। हम नहीं जानते कितना सफर बाकी है और फिर क्या कभी कोई मोड़ आएगा जो दो अलग अलग राहों से आने वाले काफिलों को फिर एक राह पर चलने का फैसला सुनाएगा। यहां से राह बिछुड़ रही हैं मुसाफिर को अपने अपने काफिले के साथ चलते जाना है बस इक ख्वाब है या उम्मीद कि इसी तरह आगे फिर कहीं मुड़ते हुए दो अलग काफिलों के रास्ते मिलकर एक हो जाएं और दो मुसाफिर साथ साथ चलते हुए भी अलग नहीं हों सफर एक साथ चलता रहे। हर किसी की ज़िंदगी का सफरनामा ऐसे जाने कितने रास्तों से गुज़रता हुआ चलता जाता है। 
 

 

जून 23, 2019

POST : 1132 योग का रोग लगा है सखी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   योग का रोग लगा है सखी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

     किसी बात की रट लगाना कहते थे सनक सवार हो गई है । कोई डर दिल दिमाग़ पर छाया रहे तो ऐसा समझते थे उसे फोबिया हो गया है । आजकल सब को लगता है योग से लोग प्यार करने लगे हैं , जबकि असल में लोग घबरा गए हैं खासकर दिल के रोग को लेकर या अन्य रोग होने पर उपचार पर होने वाले खर्च के डर से । सबसे महत्वपूर्ण बात है कि लोगों को ऐसी गलतफ़हमी का शिकार बनाया गया है कि योग करने से ही आप स्वस्थ्य रहेंगे और रोग नहीं लगेगा बल्कि जिनको कोई रोग है वो भी ठीक हो जाएगा । जबकि सब जानते हैं कि किस तरह से कोई रोग होता है और कैसे किस दवा या उपचार से निरोग होते हैं ये सालों की जांच और शोध कर्म के बाद मालूम होता है । पहली बात ये समझना है कि सेहतमंद होना क्या है । जिस तरह से हर कोई महिला है तो तथाकथित जीरो फिगर और पुरुष है तो सिक्स ऐप सीने पेट और बाजुओं का मांसल होना चाहते हैं किसी तरह दिखने को आकर्षित लगना उसको स्वस्थ्य नहीं शायद मानसिक रोग कहना ज़्यादा उपयुक्त होगा । भेड़चाल की आदत भी अच्छी नहीं और किसी की इश्तिहारबाजी से कायल होकर कुछ भी बिना विचारे अपनाना भी उचित नहीं है । कहीं ऐसा तो नहीं कि हम लोग शारीरिक स्वास्थ्य की खातिर कोई मानसिक रोग पालने का काम कर रहे हैं । हमने अपनी गलतियों से सबक नहीं सीखा अन्यथा कुछ साल पहले जैसे डॉक्टर्स भी रिफाइंड घी खाने की सलाह कुछ कंपनियों की इश्तिहारबाज़ी से कायल हो कर देते रहे मगर जब घुटने बदलने की नौबत आई तब समझ आया दिल बचा या नहीं बचा मालूम नहीं चलना फिरना मुहाल हो गया । अब कहते हैं देसी घी खाओ या सरसों का तेल मगर रिफाईन्ड आयल नहीं । योग तो पहले भी था मगर जो जानते थे उन्होंने इसका बाजार नहीं लगाया क्योंकि ये कारोबार करने की नहीं सभी की भलाई की बात थी । जो खुद को योग गुरु कहने लगे हैं मुमकिन है उनको इसकी अधकचरी जानकारी ही हो क्योंकि जिस तरह उन्होंने इसको सामान बनाकर बेचा है ये उस बात की कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता है । जैसा लोग समझते हैं उस जैसा संभव ही नहीं योग से न किसी और बात से । नासमझी नहीं मूर्खता की बात है आधुनिक युग में बिना किसी शोध या सबूत को जाने समझे उसके पीछे भागना ।

        शायद लोगों को ये सस्ता और आसान रास्ता लगता है मगर कहते हैं सस्ता और आसान बाद में महंगा पड़ता है अक्सर और जो कीमत देनी पड़ती है उसका हिसाब नहीं होता है । पढ़ा नहीं और समझना चाहा नहीं बस किसी की नकल करते जाते हैं मगर कभी विचार किया है आपकी जान की कोई कीमत लगाई जा सकती है । जिस से आपकी ज़िंदगी जुड़ी हो उसको बिना परखे सुनी सुनाई बातों से कैसे स्वीकार कर सकते हैं । अगर योग करने से बीमार नहीं होते तो इतने साल से योग बढ़ने के बाद रोगी कम क्यों नहीं हो रहे बढ़ते जाते हैं । कोई वैज्ञानिक तथ्य सामने नहीं आया कि किसी का गंभीर रोग योग से ही ठीक हो गया हो । अपने कारोबार की खातिर पैसे देकर अपने अनुसार ब्यानबाज़ी का काम कई लोग किया करते हैं और लोग भोलेपन या नासमझी में धोखे में आ जाते हैं । रोग उपचार या निदान स्वास्थ्य इक शिक्षा है विज्ञान है कोई टोटकेबाज़ी नहीं है । और  बात फिर से दोहराना चाहता हूं एलोपैथी होमियो आयुर्वेद सिद्ध कोई भी हो शिक्षित डॉक्टर से मिल का दिखाकर सही उपचार हो सकता है ऐसे किसी के नाम पर हर शहर दुकानदारी खतरनाक है लोगों के स्वस्थ्य से खिलवाड़ भी है । शायद लोग नहीं जानते हमारे देश में इसको लेकर सरकार कभी गंभीर नहीं रही है तभी कोई नीमहकीम मनमानी करता है तो कोई शिक्षित डॉक्टर भी पैसे बनाने को अनावश्यक जांच दवाएं और ऑप्रेशन तक करने से संकोच नहीं करते हैं । जिस पेशे को भगवान समझा जाता है उस से जुड़े लोग पैसे के पुजारी बन जाएं तो शायद इससे अधिक पतन नहीं हो सकता है ।

    सरकार इस को लेकर क्यों संवेदनशील नहीं है क्यों उसको देश की जनता की भलाई से अधिक चिंता कुछ और बातों की है । वास्तव में हमने जिनको चुना है और जो भी राजनेता सत्ता पर आसीन रहते हैं उनकी पहल ही कुर्सी और अधिकार पाने तक सिमित रहती है । खराब व्यवस्था जंगलराज या अपराध को मिटाना उनकी सोच में शामिल ही नहीं और अनुचित ढंग से कमाई करने वाले धनपशु नेताओं को चंदा देने वालों में होते ही हैं । सरकार तमाम नियम कानून स्वस्थ्य को लेकर लचीले रखती है उनका पालन करवाने की कोशिश ही नहीं करती है । क्या किसी ने सवाल किया है अस्पपतालों नर्सिंग होम को लेकर कानून कड़ाई से क्यों नहीं लागू किये जाते और जब भी घोषणा की जाती है विरोध के सामने झुक जाती है सरकार कोई सौदेबाज़ी होती होगी पर्दे के पीछे । स्वास्थ्य को लेकर ये रवैया आपराधिक है । 2014 से 2023 तक नौ साल बाद शोध किया जाना चाहिए की योग से देश में या 2015 से विश्व में कितना कम लोग अस्पताल में आये कितनी संख्या घटी है मरीज़ों की अगर वास्तव में कोई लाभ नहीं हुआ तो लोगों को सही तथ्यात्मक जानकारी देना समाज देश के हित में ज़रूरी है । उपचार नहीं कर योग की सलाह कोई डॉक्टर देता तो नहीं होगा । सरकार की सुविधा है स्वास्थ्य सेवाओं को छोड़ योग दिवस से दिल बहलाना ख्याल अच्छा है हक़ीक़त सभी जानते हैं या अभी इंतज़ार है , अंत में किसी शायर का इक शेर ।

                    वो अगर ज़हर देता तो सबकी नज़र में आ जाता 

                      तो यूं किया कि मुझे वक़्त पर दवाएं नहीं दीं । 

 


 


जून 22, 2019

POST : 1131 माई री मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की ( व्यथा-कथा ) डॉ लोक सेतिया

      माई री मैं कासे कहूं पीर अपने जिया की ( व्यथा-कथा ) 

                                           डॉ लोक सेतिया 

    बैठे हैं नदी किनारे और प्यासे हैं , सामने मयखाने हैं साकी भी बहुत हैं कितने ही पैमाने हैं। हम अजनबी हैं इस दुनिया की रस्मो रिवाज़ से बेगाने हैं। हर तरफ यही अफ़साने हैं लोक हो गए क्या दीवाने हैं। इक ग़ज़ल से शुरू करते हैं। 


प्यार की बात मुझसे वो करने लगा ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

प्यार की बात मुझसे वो करने लगा
दिल मेरा क्यों न जाने था डरने लगा।

मिल के हमने बनाया था इक आशियां
है वही तिनका तिनका बिखरने लगा।

दीनो-दुनिया को भूला वही प्यार में
जब किसी का मुकद्दर संवरने लगा।

दर्दमंदों की सुन कर के चीखो पुकार
है फ़रिश्ता ज़मीं पे उतरने लगा।

जो कफ़स छोड़ उड़ने को बेताब था
पर सय्याद उसी के कतरने लगा।

था जो अपना वो बेगाना लगने लगा
जब मुखौटा था उसका उतरने लगा।

उम्र भर साथ देने की खाई कसम
खुद ही "तनहा" मगर अब मुकरने लगा।

कल तक डराता था जो उसी को आज प्यार आने लगा है खुदा खैर करे। ये ज़ालिम लोग भी बड़े अजीब होते हैं सितम करने से थक जाते हैं तो मुहब्बत जताने लगते हैं। कल घर से निकलने को कहते थे आज पास बुलाने लगते हैं। दास्तां अपनी सुनाने लगते हैं सितमगर हैं फिर भी दिल को भाने लगते हैं चोरी चोरी चुपके चुपके दिल चुराने लगते हैं। भ्र्ष्टाचार कुछ ऐसे मिटने लगते हैं नहीं पीने वाले पीने लगते हैं नहीं खाने वाले खाने लगते हैं।

बहस भ्र्ष्टाचार पर वो कर रहे थे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

बहस भ्रष्टाचार पर वो कर रहे थे ,
जो दयानतदार थे वो डर रहे थे।

बाढ़ पर काबू पे थी अब वारताएं ,
डूब कर जब लोग उस में मर रहे थे।

पी रहे हैं अब ज़रा थक कर जो दिन भर ,
मय पे पाबंदी की बातें कर रहे थे।

खुद ही बन बैठे वो अपने जांचकर्ता ,
रिश्वतें लेकर जो जेबें भर रहे थे।

वो सभाएं शोक की करते हैं ,जो कल ,
कातिलों से मिल के साज़िश कर रहे थे।

भाईचारे का मिला इनाम उनको ,
बीज नफरत के जो रोपित कर रहे थे।  
 
अब इधर उधर की बात छोड़ साफ बात कहते हैं। कलंदर हैं हम अपनी मस्ती में रहते हैं। कल ही की बात है हर कोई योगी बना हुआ था हम ने साफ बोल दिया हमारे मतलब की बात नहीं है। किसी के इशारों पे चलना नहीं आता है मनमौजी हैं आई मौज फकीर की दिया झोपड़ा फूंक , नहीं भाई उनकी फ़कीरी नहीं है जिस में शाही ढंग से राजा की तरह रहकर फ़क़ीराना लिबास की दिलचस्प कहानी सुनाते हैं खुद हंसते हैं और मुस्कुराते हैं बाकी लोग रो रो आंसू बहाते हैं गाते गाते चिल्लाते हैं। दुष्यंत कुमार बजा फरमाते हैं फिर से अजब मंज़र नज़र आते हैं। ये सत्ता की मर्ज़ी है मार दिया जाये कि छोड़ दिया जाये बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाये। जब रुलाकर उनको लुत्फ़ नहीं आता तो ज़बरन हंसाने लगते हैं हमको शोले वाले गब्बर सिंह याद आने लगते हैं। सारे बच गए कहते कहते तीनों को ठिकाने लगा दिया उनका खेल था किसी की जान गई तो गई। 
 
    भोगी भी योगी बन जाते हैं योगगुरु योग सिखलाते हैं। ऐसे करो ऐसे और ऐसे नहीं अपने बस का हम जाते हैं। क्या करना है जीकर इतना भी जाने की बेला है जाते हैं। कोई थे जो कहते थे संगीत सिखाते हैं ऊंचा नीचे स्वर रखने का पाठ समझते थे नहीं हुआ किसी और की तरह जब बोलना हो खामोश रहना और जब चुप सी लगी हो शोर की तरह आलाप लगाना। कभी मध्यम सुर कभी बस होंटों को जुंबिश देना फुसफुसाना। रोना भी इस तरह से इसी तरह से गाना , भाई हमको तो आता है मस्ती में गुनगुनाना। सैर करते हैं खुली हवा में रहते हैं बंधी बंधाई योग की अदाओं के हम कायल नहीं हैं सांस भी उनकी मर्ज़ी से हिलना जुलना भी उन्हीं के इशारों पर और तो और कब खुलकर हंसना है कब ताली बजानी है। ये आज़ाद देश की अजीब कहानी है सुननी नहीं है औरों को सुनानी है। अली बाबा चालीस चोर थे अब शामिल हुई चोरों की भी नानी है। 
 

    समझने को दस्तक फिल्म की ये ग़ज़ल बहुत है ज़रा सुनकर समझना सभी लोगो। 

 

 



जून 21, 2019

POST : 1130 लूट सके तो लूट ( भली लगे कि लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया

    लूट सके तो लूट ( भली लगे कि लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया 

  कहने को बहुत है चुप रहना सीखा नहीं सच बोलना कभी किसी सरकार को शासक नेता या अधिकारी को कब भाया है। घोटाले घोटाले का फर्क है किसी के घोटाले खराब थे किसी को लगता है ये शाकाहारी किस्म के घोटाले हैं। बहुत पुरानी किसी ठेकेदार की बात याद आई है कहा करते थे सरकार से और अपनी मां से जितना हो सके पा सकते है इतना ही नहीं उनका मत था सरकारी घी मुफ्त मिलता हो और आपके पास बर्तन नहीं हो तो अपने साफे या सर ढकने वाले कपड़े में झोली बना ले लेते हैं। बह जाएगा बेशक फिर भी चिकनाहट तो कपड़े में बची रहेगी रोटी चुपड़ने को इस्तेमाल कर लेंगे। माले मुफ्त दिले बेरहम या चोरी का माल बांसों के गज जैसी कितनी कहावतें हैं। अर्थात ये इक आम राय बनी हुई है जनता का धन सरकारी धन होता ही है अवसर मिलते ही लूटने को। आज आपको विस्तार से बताते हैं किस किस ढंग से होता है। तेरी गठरी को लागा चोर मुसाफिर जाग ज़रा या भी राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट , जिसने कहा उसका मकसद धर्म की आस्था की बात करना था मगर समझने वालों को कुछ और समझ आया है। 

  आज की घटना से बात शुरू करते हैं हरियाणा में सरकार योग दिवस मना रही है अब स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है रोगी है तो निजि अस्पताल नर्सिंग होम जा सकते है सरकार उपाय करेगी कोई बीमार ही नहीं हो। योग जब से अब से नहीं कब से है मगर योग करने से रोग नहीं होगा ऐसा कभी किसी ने दावा नहीं किया था। जब इसको कारोबार बना लिया किसी ने तो सरकार ने जानने की कोशिश ही नहीं की कि इस के करने वाले कितने स्वस्थ हुए हैं। युग ही इश्तिहारबाजी का है और टीवी अख़बार को विज्ञापन दे कर कोई भी महान कहला सकता है। पैसा फैंको तमाशा देखो। तमाशा दिखाने वाले और तमाशाई अपनी जगह हैं किसी सरकार को अपने अस्पताल अपने स्कूल अपने जनस्वास्थ्य विभाग की चिंता होनी चाहिए ताकि लोग इन सेवाओं से फायदा उठा सकें। रोहतक में राज्य सरकार योग दिवस मना रही थी आज सुबह और लोगों को चटाई और टीशर्ट बांटी गई मुफ्त में और बाद में वापस करने की जगह लोग साथ लेकर चलते बने। ये किसी टीवी चैनल पर दिखाया तो बात खुली अन्यथा हर दिन सरकारी आयोजन किये जाते हैं इसी तरह सरकारी खज़ाने से बेदर्दी से महंगे दाम सामान खरीद कर फिर किस वस्तु को कौन ले गया कोई हिसाब नहीं रखता है। चलो ये भी समझते है ऐसा होता कब कब है। 

      कुछ दिन पहले साईकल दिवस था नेता जी को ही नहीं उनके साथ कई और लोगों को भी फोटो करवानी थी साईकल पर दफ्तर जाने की। नई नई साईकलें सब एक जैसी नज़र आई तो समझे खरीदी गई होंगी आधे घंटे का तमाशा दिखावा करने को सरकारी खज़ाने से बाद में अगले साल फिर नई लेंगे इन को क्या किया किस को हिसाब देना है। दो दिन पहले तथाकथित मैराथन दौड़ हो रही थी कोई कह रहा था उस कंपनी का बैनर क्यों नहीं है बेशर्मी खुलेआम थी सरकारी लोग अधिकारी क्या किसी निजि कंपनी के कारोबार को बढ़ावा देने को ये करते हैं मगर सत्ताधारी लोग साथ हैं तो सब जायज़ है। कल रिहसल थी उसका आयोजन किया गया आज योग दिवस का सब सरकारी साधनों से दुरूपयोग की बात है। और ये साल के 52 सप्ताह में होता सैंकड़ों बार किसी न किसी नाम से है। मतलब समझें तो इतने दिन सरकारी अमला इस काम में लगा रहता है उस से पहले एक दो दिन तैयारी करते हैं। सरकार के पास जैसे करने को कोई काम बचा नहीं है 100 दिन इस तरह और सप्ताह की दो छुट्टियां और कितने दिन सैर सपाटे को भी शामिल कर लो तो बाकी कितने दिन हैं काम करना भी चाहो अगर।  सरकार कोई भी हो तौर तरीका वही रहता है करना नहीं करना कर रहे हैं इसका दिखावा करते रहना। अपने टीवी चैनल पर भाग्य बताने वालों को देखा है बारह राशियों का भाग्य क्या संभव है समान राशि वाले सभी का समान अच्छा खराब समय , मगर कौन सवाल करता है अंधविश्वास को बढ़ावा देते हैं। कुछ ऐसे ही सरकारी अधिकारी आपके भाग्य बदलने की बात कहते हैं हम पर भरोसा रखो।

इस सप्ताह अभी रविवार को इक आयोजन और होना है राहगीरी नाम से हरियाणा पुलिस विभाग  गीत संगीत की मनोरंजन की महफ़िल सजाते है दो घंटे की। न तो इस से कोई जन संपर्क की बात होती है न कोई वास्तविक कार्य पुलिस विभाग का लगता है होता है। बस उनको करना है करते हैं कोई सवाल जवाब नहीं कर सकता कि इसका औचित्य क्या है हासिल क्या हुआ या हो सकता है। कुछ कर रहे हैं भले बेमतलब ही किया जाए आपको दिखाई देता है सरकार आये हैं। सलाम कीजिए आली जनाब आये हैं। देश भर में ऐसे निर्रथक अनावश्यक और बेमतलब के आयोजन कितने होते हैं जिन पर कितना पैसा खर्च किया जाता है जब देश की वास्तविक समस्याओं पर खर्च करने की कमी बताई जाती है। अधिकांश किसी नेता या अधिकारी की खुद की पसंद की बात को लेकर ये होता है। उनका शौक है जनाब आप कौन होते हैं मगर देश का राज्य का खज़ाना यूं लुटता रहे इसे खामोश होकर देखना भी अनुचित का साथ देना है । 

 

POST : 1129 खुदा होने का ख्वाब ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

         खुदा होने का ख्वाब ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

     हर कोई बड़ा होना नहीं महान कहलाना चाहता है। समाज घर परिवार राजनीति कारोबार व्यवसाय से लेकर साहित्य जगत क्या खेल और कला की दुनिया तक इक ऐसी दौड़ है जिसका हासिल यही है कि जितनी पीते हैं मय मयकदा पीकर भी प्यास बुझती नहीं बढ़ती जाती है। नाम शोहरत दौलत ताकत रुतबा किसी रेगिस्तान की मृगतृष्णा की तरह है। लिखने वाले समझाते हैं खुद समझते नहीं उतना ये उतावलापन है जो चैन नहीं लेने देता है। काश अभी और समझते समाज को भली तरह से फिर विचार करते क्या किस तरह का लेखन सार्थक है कालजयी हो सकता है। हमने कल्पना भी नहीं की कभी कि हम जो लिखते हैं छपवाते हैं आने वाले समय में उसकी कीमत क्या समझी जाएगी , कहीं ख़ुदपरस्ती का शिकार होकर स्तही लेखन को किताब का सवरूप देकर हम बाद में रद्दी की तरह सस्ते दाम बिकने का सामान तो नहीं हो रहे हैं। पहले अपने समाज को पूरी तरह जानकर उसकी भलाई और मार्गदर्शन की खातिर कुछ रचने का कार्य करें तो कितना अच्छा होगा।

 ऐसे नाम बहुत हैं जिन पर हम गर्व करते हैं इसी धरती पर रहा करते थे। दो सौ साल बाद ग़ालिब आज भी सभी को दिल से पसंद हैं मुंशी जी भी ज़माना हुआ सौ साल बाद भूले नहीं दुष्यंत को भी चालीस साल हो गये दुनिया से विदा हुए। और भी तमाम लिखने वाले ग़ज़ल कविता कहानी या जिस भी विधा में लिखते थे कमाल करते थे दर्ज हैं दिलों पर बाकी हैं उनके कदमों के निशां कहीं न कहीं। आजकल कितने लोग सोचते हैं किताब छपने से शायद उनकी भी याद उनकी रचनाओं के साथ कायम रहेगी। मगर कभी ये शायद कोई नहीं सोचता होगा कि कितने और भी हुए हैं जो गुमनामी में खो भी गये किसी को नाम भी मालूम नहीं है। बात लाजवाब कलाम की और उनकी महनत के साथ अपने लेखन से उस रिश्ते की भी है जिसको लेकर उन्होंने शिद्दत से साथ जिया भी साथ फ़ना होते भी रहे। उनका मकसद वही था और कुछ भी नहीं जबकि अब हम सभी लोग उस सीमा तक समर्पित होकर शायद ही अपना लेखकीय धर्म निभाते हैं।  मैं समझता हूं हमारी खुशनसीबी है जो हम आज उनको पढ़ सकते हैं और समझने की कोशिश कर सकते हैं।

    ग़ालिब के समय की परेशानी अलग थी मुंशी जी को अपने समाज के वक़्त की बात लिखनी थी और शायर दुष्यंत कुमार की चिंता अपने समय के हालात को लेकर थी देश की आज़ादी के बाद। ग़ालिब विदेशी शासकों के धर्म के नाम पर विभाजन से परेशान थे लोगों को धर्म के नाम पर बांटने का पुरज़ोर विरोध करते थे और हैरान थे कि सब कुछ बिकने लगा है बादशाही तक और शहर क्या फ़ौज भी राजा बेच रहे थे इंसान भी इंसानियत भी। मगर ग़ालिब का स्वाभिमान था जो अपनी ज़िद पर अड़ा रहा झुका नहीं लाख मुश्किलों के बावजूद भी। ग़ालिब सा कद पाने को ग़ालिब बनकर जीना होगा क्या आप टिक सकते हैं आंधी तूफान के सामने डटकर। कह सकोगे कि उनकी बादशाही बादशाहों से कोई छीन सकता है शायर से उसका हुनर उसका कलाम कोई भी नहीं छीन सकता है। ग़ालिब ने चलो हज़ारों ग़ज़ल कही होंगी मगर दुष्यंत कुमार तो पचास ग़ज़ल कहकर जिस बुलंदी पर चमकते हैं आज सौ किताबें लिखने वाले इस दौर के लेखक कभी नहीं पा सकते हैं। शोहरत की बुलंदी से अधिक महत्व रचना की ताकत का समय युग को पार कर सर्वकालिक होने का है। मुंशी जी की हर कहानी आज भी खरी है। ऐसा ही राग दरबारी जैसा उपन्यास लिखने वाले श्रीलाल शुक्ल की बात है और शारद जोशी के व्यंग्य अभी भी लगता है सच हैं।

आजकल मंच पर कविता शायरी कम चुटकलेबाज़ी ज़्यादा की जाती है। घिसी पिटी कविताओं को कितनी बार बार बार दोहराना लगता है लिखना छोड़ शोर करना शुरू कर दिया है। ग़ज़ल की रिवायत को इस कदर छिन्न भिन्न करने लगे है कि कोई ग़ज़ल नहीं इधर उधर से शेर चुनकर तालियां चाहते हैं पैसे के साथ। कलाम को बाज़ार का सामान बना डाला है जो दावा करते हैं आधुनिक काल के नामी कवि शायर हैं। ग़ज़ल से उसकी नाज़ुकी ग़ज़लियत छीनना उचित नहीं है ग़ज़ल का अपना लहज़ा अपने तेवर हैं। तंज करना और बात है और तलवार की तरह जंग लड़ने का अंदाज़ अलग बात है। सच कहना लाज़मी है मगर आधा सच नहीं पूरा भी और खालिस भी मिलावटी नहीं जो इधर नज़र आता है।

        जहां तक अपनी बात है कोई खुशफहमी नहीं है मुझे कभी खुद को कई लोगों की तरह साहित्यकार नहीं समझा है। साहित्य का साधक इक छात्र हूं जो अपने समाज की बात सीधे साफ शब्दों में लिखता है समाज को वास्तविकता बताने को। जानता हूं अपनी सीमाएं हैं शब्दों की और गहराई की मेरे लिए क्योंकि मुझे आना पड़ा है इस तरफ अपनी बात अपने दर्द कहने समाज की हालत को देखते हुए। साहित्य को बहुत कम पढ़ने का अवसर मिला है और रहा भी हूं ऐसे माहौल में जिस में लिखना कोई अच्छी बात नहीं समझी जाती है। फिर भी लिख रहा हूं क्योंकि मेरी कलम मेरा ज़मीर है जो सच है वही लिखती है कलम का सिपाही हूं मैं। मुझे समाज की वास्तविकता को दिखलाना है साहित्य समाज का दर्पण है और समाज की जनहित की बात लिखना अगर किसी को इक पागलपन लगता है तो उनकी समझ है। देश की आज़ादी के दीवाने भी मुझ से रहे होंगे मिलना कुछ भी नहीं था उनको फिर भी देश समाज को लेकर चिंतित परेशान रहे होंगे। बदले में मिलता क्या है किसी को फांसी किसी को जेल किसी को ज़ुल्म सहना पड़ा होगा। अगर यही हासिल है सच कहने का मंज़ूर है। जो लोग समाज देश की बात करने के बदले कुछ चाहते हैं उनको वास्तविक देशभक्ति समाजसेवा और सच्चा धर्म कोई नहीं समझा सकता है। मैंने हर दिन बार बार ये शपथ ली है अपनी राह से हटना नहीं घबराकर न डरकर न किसी फायदे नुकसान को लेकर। नहीं मुझे कोई खुदा बनकर खुदाई पाने की चाह नहीं है हर्गिज़ भी। जिनकी चाहत होगी उनको मुबारिक ये। 

 

जून 19, 2019

POST : 1128 सरकार है मदारी का तमाशा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      सरकार है मदारी का तमाशा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

  सुबह दस बजे सरकारी अधिकारी दफ्तर आते हैं। सभी विभाग के अफ़्सर साथ इक हॉल में बैठे राज्य की राजधानी के दफ्तर में बैठे बड़े अधिकारियों से दुआ सलाम करने के बाद चाय की चुस्कियां लेते हुए ऊपर से जारी आदेश का फरमान जारी करते हैं सुन कर अमल करने की बात करते हैं। कोई नहीं जानता कोई गंभीर समस्या थी जिस पर चर्चा करना लाज़मी था पल भर की देरी भी नहीं होनी चाहिए थी या ऐसा कुछ भी नहीं था और मकसद इक मदारी को अपना नया खेल तमाशा दिखलाना भर था। यकीन करें शायद ही ऐसी कोई ज़रूरत होती है मगर सरकार ने विडिओ कंफ़ेरन्सिंग का कीर्तिमान स्थापित करना है सरकारी ऐप्प्स हैं देश की जनता को किसी अधिकारी से मिलने की ज़रूरत नहीं कोई शिकायत लिखित नहीं करनी। आपकी समस्या है तो आपके पास स्मार्ट फोन होना चाहिए उस पर अनपढ़ लोग भी शिकायत दर्ज करवा फोटो सबूत लगा सकते हैं। मुमकिन बहुत कुछ है मगर होता ये है कि कई बार शाम को पांच बजते ही किसी गड्डे वाली सड़क को ठीक किया जा चुका है बताकर निपटाई जाती है शिकायत तो कोई सी एम विंडो पर शिकायत दो साल तक इस उस अधिकारी को भेजी जाती रहती है और दो साल बाद सी एम दफ्तर घोषित करता है ये तो जनहित की बात इक सुझाव था शिकायत नहीं समझी जा सकती है। दो साल कितने खत कितने लोगों को चेतावनी उचित करवाई नहीं करने पर ज़िम्मेदार समझे जाने की , क्या सब बेकार था अनावश्यक था। 

    सारकार दावा करती है अधिकारी को कॉल व्हाट्सएप्प कर समस्या बता सकते हैं ऑनलाइन शिकायत दर्ज की जा सकती है। मगर फोन बंद मिलते हैं या दफ्तर के नंबर पर कोई बताता है अधिकारी अभी आये नहीं हैं , अभी मीटिंग में हैं अभी किसी सामाजिक समारोह में भाग लेने गए है , अभी कोई सरकारी आयोजन किया जा रहा है उस में व्यस्त हैं। सौ बहाने हैं समय नहीं है मगर किसी नेता की सत्ताधारी दल की राजनैतिक सभा की तैयारी करने को सरकारी काम को छोड़ कर कितने दिन तक उपलब्ध रहते हैं जिस काम से उनका कोई सरोकार नहीं होना चाहिए। आधुनिक सुविधाओं से जनता को सुविधा मिलनी चाहिए थी मगर होता उल्टा है। सरकारी लोग उनको खिलौने की तरह उपयोग करते हैं। योग दिवस या कोई और दिन किसी मकसद को कोई इसका फायदा अपने फायदे और हित साधने को करता है तो किसी नेता को लगता है ये राजनैतिक लाभ उठाने का अवसर हो सकता है और करोड़ों का बजट सरकार खर्च करती है जब उचित ईलाज की व्यवस्था की कमी और नाकामी से बच्चे मरने की खबर पुरानी नहीं हुई है। सरकार की प्राथमिकता क्या होनी चाहिए कोई सवाल नहीं करता क्योंकि अख़बार टीवी सब को हिस्सा मिलता है मलाई खाने को विज्ञापन भी और रुतबा भी। 

चोरी डाका नहीं कह सकते लेकिन है देश की जनता के धन की लूट जो बादस्तूर जारी रहती है। मिल बांट कर खाने का लुत्फ़ लेते हैं सरकारी आयोजन का ठेका एनजीओ के नाम पर और हर शहर में राजनेता अपने खास लोगों को किसी काम का दयित्व सौंप कर कमीशन खाते हैं बिचौलिया बनकर। हर शाख पे उल्लू बैठा है और कितने इंसान हैं जो गिद्ध की तरह मुर्दे को नौचने की राह तकते हैं। कोई नेता मदारी बनकर खेल दिखलाता है कुछ लोग उनके कहने पर जमूरा बनकर नाचते है कोई बंदर बनकर कोई बंदरिया का घूंघट ओढ़े हुए। देश सेवा की आड़ में खेल मनोरंजक चलता है और कमाल की बात है सब की कमाई भी होती है और सभी को शोहरत भी मिलती है सम्मानित किया जाता है ईनाम देते हैं। खेल खत्म पैसा हज़्म की बात है नतीजा वही ढाक के तीन पात रहता है।

POST : 1127 रिश्तों की दुनिया के झूठे नाते (अफ़साना-ए-हक़ीक़त) डॉ लोक सेतिया

रिश्तों की दुनिया के झूठे नाते (अफ़साना-ए-हक़ीक़त) डॉ लोक सेतिया

 नाम मुहब्बत प्यार के अपनेपन के हैं फिर भी इन में सब कुछ होता है मधुर संबंध मिलना बड़ा कठिन है। लोग हैं जो निभाए जाते हैं जैसे कोई बोझ ज़िंदगी ने सर पर रख दिया है ढोना मज़बूरी है। हर रिश्ते की कुछ कीमत होती है जो चाहे अनचाहे चुकानी पड़ती है। रिश्ते बनाते नहीं हैं बने बनाये मिलते हैं और निभ सके चाहे न निभे निभाने पड़ते हैं। दिल का दिल से कोई नाता होता भी है सच कोई नहीं जानता बात दिल की कहते हैं दिल से पूछो दिल की दिल ही जानता है। दर्द से दिल भरा होता है फिर भी मिलते हैं हंसते मुस्कुराते हुए ये चेहरे हैं कि मुखौटे हैं जो क़र्ज़ की तरह होटों पर हंसी रखनी होती है और अश्कों को छुपकर किसी कोने में बहाना होता है अकेले अकेले। दुनिया भर में कोई कंधा सर रख रोने को नहीं मिलता कोई आंचल पलकों के भीगेपन को पौंछता नहीं है। दर्द देते हैं अश्क मिलते हैं रिश्ते क्या कोई ख़ंजर हैं जो घायल करना जानते हैं मरहम लगाना नहीं आता है। ये जो सुनते हैं हमदर्दी के साथ निभाने के नाते किस दुनिया की बात है इस दुनिया में तो नहीं मिलते खोजते रहते हैं जीवन भर। मुझे अकेला छोड़ दो कौन है जो ऐसा कहना नहीं चाहता पर कहा नहीं जाता है कहने पर सवाल होते हैं। जब आपको साथ चाहिए आप अकेले होते हैं भरी महफ़िल में और जब कभी आपको अकेले रहना होता है भीड़ लगी रहती है। कोई तकलीफ हो लोग आते हैं हालचाल पूछने को मगर ज़ख्मों को छेड़ कर दर्द बढ़ा जाते हैं , रिश्ते हैं रिश्तों की रस्म निभा जाते हैं। ज़रूरत होती है बुलाओ भी नहीं आ सकते पर बिन बुलाये भी चले आते हैं कितने अहसां जताते हैं। 

  बेगानों ने कहां किसी को तड़पाया है ये किस्सा हर किसी ने सुनाया है जिसको चाहते हैं उसी ने बड़ा सताया है। दर्द देकर कोई भी नहीं पछताया है हर अपने ने कभी न कभी सितम ढाया है। रिश्ते ज़ंजीर हैं रेशम की डोरी नहीं हैं हर किसी का इक पिंजरा है बंद रखने को कैद करने को। रिश्ते आज़ादी नहीं देते हैं जाने कितने बंधन निभाने होते हैं हंसते हंसते तीर खाने पड़ते हैं। कोई नाता नहीं जो खुली ताज़ा हवा जैसा हो जिस का कोई खुला आकाश हो पंछी की तरह उड़ने को फिर शाम को घौंसले में लौट आने को। कितनी शर्तों पे जीते मरते हैं सच नहीं कहते इतना डरते हैं , बात झूठी करनी पड़ती है करते हैं। सुलह करते है फिर फिर लड़ते हैं। मतलब की दुनियादारी है हर रिश्ता नाता बाज़ारी कारोबारी है हर पल बिकती है वफ़ादारी है कितनी महंगी खरीदारी है। भीड़ है हर तरफ मेला है जिस तरफ देखो इक झमेला है कोई बवंडर है कि तूफ़ान कोई ये जो इतना विशाल रेला है। जीना किसने दुश्वार किया है हर किसी को गुनहगार किया है कभी छुपकर कभी सरेबाज़ार किया है। अपने भी तो रिश्तों का व्यौपार किया है खोने पाने का हिसाब हर बार किया है। कितने रिश्तों ने परदा डाला है कितनों ने शर्मसार किया है। ये रिश्ते हैं कि पांव की बेड़ियां हैं हाथ पकड़े हैं कि लगी हथकड़ियां हैं। ज़िंदगी भर जिसको निभाया है हुआ फिर भी नहीं अपना पराया है इक बार नहीं सौ बार आज़माया है। अब नहीं मिलती धूप के वक़्त कहीं भी छाया है । 
 

 


  

जून 18, 2019

POST : 1126 बिना शीर्षक की दास्तान ( कुछ कही-अनकही ) डॉ लोक सेतिया

  बिना शीर्षक की दास्तान ( कुछ कही-अनकही ) डॉ लोक सेतिया

   सोचा तो था आज कुछ नहीं लिखना बस सोचना समझना है। सुबह पहला गीत सुनाई दिया मन रे तू काहे न धीर धरे। थोड़ा चैन दिल को रूह को भी सुकून मिला बेचैनी को करार आया भी। चलते चलते सैर पर कुछ समझ आया तो भूल जाने का डर भी है इसलिए लिखना ज़रूरी हो गया। तक़रीर लिखते हैं लिख कर रखते हैं ताकि सनद रहे ये भाषा तो सरकारी दस्तावेज़ लिखने वालों की हुआ करती थी कोई करारनामा कोई अनुबंध कोई वसीयत पंजीकृत करवाते समय गवाही भी साथ ज़रूरी हुआ करती थी। मेरी बात की गवाही भला कौन देगा सभी तो मुखालिफ राय रखते हैं सहमत नहीं कोई भी अपने साथ मनवाना आता नहीं मानता मैं भी कब हूं अव्वल दर्जे का अड़ियल अपनी बात पर टिका रहता हूं लोग दुनियादारी समझते हैं जब जिस बात से बात बनती हो बात बदलते वक़्त नहीं लगाते। ऐसी अजनबी लोगों की दुनिया है जो कहने को मेरी है जबकि सच में मेरा कुछ भी नहीं है अपना कोई भी मुझे अपना लगता नहीं है। हर किसी के अपनेपन की इक कीमत है और सबको मेरी कीमत कुछ भी नहीं लगती है और खुद मैंने भी अपना दाम लगवाना स्वीकार नहीं किया कभी। जो चीज़ बेमोल मिलती है कोई कीमत नहीं देनी पड़ती उसको कोई तिजोरी में संभाल के क्यों रखेगा। 

  किसी बागबां ने अपने आंगन में पौधा लगाया था सोचकर कि बड़ा होकर फलदार और छाया देने वाला होगा। थोड़ा बढ़ने लगा तभी समझ गए कि ये कुछ और ही है उसको पहचान नहीं थी इस पौधे के पत्ते कड़वे हैं मगर दवा का काम करते हैं इस के फूल सुगंध देते हैं मगर डाली से तोड़ते ही मुरझा जाते हैं। अकेला पौधा बाकी सब ऊंचे पेड़ों से अलग अकेला अजनबी सा महसूस होता उनको भी लगता कि हमारे बीच ये क्या क्यों उग आया है। माली ने कितनी बार उखाड़ कर खत्म करना चाहा मगर पौधे की जड़ रह जाती फिर पनप आता। बागबां को हिसाब लगाना था कितना पानी कितना भोजन कितना खर्च हुआ है किसी तरह से लागत वसूल करनी थी। समझता था ये शायद खोटा सिक्का है मगर कभी लगता कि खोटा सिक्का भी शायद वक़्त पर काम आ ही जाए। बागबां की बदनसीबी जो जब पौधा खुशबू बांटने लगा थोड़ी छांव देने लायक हुआ तो बागबां अचानक दुनिया से रुख्सत हो गया। पौधे को किसी और माली के हवाले कर गया जाते जाते जैसे ही पता चला इसका फायदा उठा सकते हैं और इसकी डाली पत्ते जड़ फूल सभी दवा का काम करते हैं। 
माली ने जिस बाग़ में लगाया उस को लाकर उसके मालिक को रंगीन बाज़ार में बिकने वाले फूल चाहिएं थे अपनी दुकान पर सजाने को शोभा बढ़ाने को। इसकी सुगंध भाती थी और जब कभी दवा की ज़रूरत पड़ती काम भी आता था मगर आमदनी कुछ भी नहीं होती थी कोई सजावट भी नहीं की जा सकती थी। बस न रखने की चाहत न फेंकने का मन होता अधर में लटकते हुए फालतू सा रहने दिया पौधे को कुछ विचार कर कि शायद किसी दिन इसकी कोई कीमत मिल जाएगी। 

दुनिया के बाज़ार में रिश्तों की बोली लगाई जाती है। समझदारी की अपनी परिभाषा है जो किसी भी तरह अपना मकसद हासिल कर लेता है बेशक किसी को अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से बहलाकर या कोई लालच दिखलाकर। जब जिसकी ज़रूरत उसी की तरफ की बात करता है सफल रहता है अपना सामान बढ़ा चढ़ा कर महंगे दाम बेचकर मुनाफा कमाता है सब को अच्छा लगता है। मगर जब कोई सच की बात कहता है झूठ का कवर नहीं लगाता नंगा सच लेकर खड़ा होता है तब उसका सामान बिकता ही नहीं दुनिया के बाज़ार में। सच खरीदने की हैसियत ही नहीं होती तभी बिना बिका रह जाता है। सच्चा शराफत से रहने वाला आदमी किसी भी रिश्तेदार किसी भी संबंधी किसी भी दोस्त को देर तक अच्छा नहीं लगता है। बस अपने मतलब पाने तक उसको भला बताते हैं उल्लू बनाने को और काम निकलते ही दूध की मक्खी सा बाहर कर देते हैं। 

   जान लिया है नसीब अपना यही है जिस किसी से वफ़ा की उसी से अपमानित होकर लौटना पड़ा है। फिर भी कोई मन में मैल नहीं रख खुद अपने संग रहने की कोशिश करने लगा तो हर किसी को ये भी पसंद नहीं आई बात। हमारे बगैर भला ये कैसे रह सकता है , लोग जीने नहीं देते किसी को अपने आप के साथ खुश होकर भी। उनकी अपनी कीमत घटती है या कोई कीमत नहीं रह जाती है। नासमझ होने पर भी इतना तो समझ लेता है कि ये अपनी दुनिया नहीं है और जो अपने ही नहीं न बेगाने ही हैं अजनबी है साथ रहकर भी अनजान हैं उनसे गिला क्या शिकवा कैसा और उम्मीद किस बात की। आखिर में इक शेर अपनी ग़ज़ल से। 

                                       अपने होते तो कुछ गिला करते 

                                       गैर लोगों से बात क्या करते। 

 


 

जून 17, 2019

POST : 1125 आयोग की बैठक से ( उल्टा-सीधा ) डॉ लोक सेतिया

     आयोग की बैठक से ( उल्टा-सीधा ) डॉ लोक सेतिया 

 योजना क्या है नीति कैसी है इस पर चर्चा करना व्यर्थ है। आपकी हर बात पत्थर की लकीर है आप ही न्याय आप ही सत्य आप ही देश आप ही संविधान। सरकार भी आप सरदार भी आप विधान आपका गुणगान आपका। बाकी सब नश्वर है बस स्थाई आप हैं मुहब्बत करना नहीं जानते हैं हरजाई आप हैं। दोहा आप गीत आपका कथा आपकी चौपाई आप हैं। बुरे हैं सब लोग सबकी भलाई आप हैं हम जनता छाछ भी नहीं हैं सब दूध मक्खन मलाई आप हैं। शांति के देवता हैं जंग और लड़ाई आप हैं। अब और क्या क्या हैं कैसे बताएं इस युग के हातिमताई आप हैं। बिना उस्तरे से हजामत करते हैं सभी की ऐसे नाई आप हैं। क्या और कोई चाहिए जब बधाई आप हैं। आयोग की बैठक की शुरुआत इन शब्दों से हुई। इसके बाद देश की समस्याओं पर चिंतन विचार विमर्श हुआ और सभी सर हिलाते सर झुकाते स्वीकार करते रहे। 

   गरीबी का नाम बुरा है गरीबी खराब नहीं है गरीबी नहीं होती तो अमीर अमीर नहीं कहलाते फिर भी गरीबी की बात करना लाज़मी है। गरीबी अभिशाप होगी गरीबों के लिए राजनीति करने वालों के लिए वरदान है। गरीबी को खरीदते हैं गरीबी को बेचते हैं गरीबी के नाम पर खैरात लाते हैं विश्व बैंक से आईएमएफ से कई देशों से और लेकर खैरात बांटते भी हैं। हम सरकार वास्तव में भिखारी हैं मगर बनकर दिखलाते हैं हम दाता हैं। गरीबी से मेरी पहचान है कितने साल से शासक बनकर रहता हूं मगर वोट मांगता हूं तो गरीब परिवार का होने की बात करता हूं। जितना भी रईस बन जाऊं भीतर की गरीबी मिटने वाली नहीं है मुझसे गरीब कोई नहीं है गरीबी मेरी ताकत है मेरी सत्ता का आधार है। गरीब लोगों को योग करना सिखाया जाएगा दुबले पतले होने का फायदा गिनवाया जाएगा। सरकारी खज़ाने से इक नया ताज बनवाया जाएगा अमीर शब्द जिस पर गुदवाया जाएगा हर भूखे नंगे को वही पहनाया जाएगा। इस तरह गरीबी का नाम तक मिटाया जाएगा। देश गरीब नहीं कहलाएगा इक अध्यादेश लाया जाएगा। 

       भूख को बिमारी को जड़ से मिटाना है देश को स्वस्थ बनाकर दिखाना है। चांद को पानी में सबको दिखाना है बच्चे की तरह जनता को बहलाना है। चांद तारों की बात करनी है भाग्य बदलने की बात करनी है कोई भी काम नौकरी नहीं करनी है ज्योतिषीय उपाय की बात करनी है।  ज्योतिष को भी बढ़ावा देना है भाग्य बदलने को सितारों की बदलने की राह देखनी होगी। भाग्य से जीत हार होती है फिर से अपनी सरकार होती है जनता से हर भूल बार बार होती है। ऊंचे ऊंचे बुत बनवाने हैं हम लोग कितने स्याने हैं पापी अपने घर लाने हैं चुनाव जितवा कर हर गुनहगार पापी के दाग़ धुलवाने हैं। 

        नामुमकिन कुछ भी नहीं है अच्छे दिन लाना भी मुमकिन था मगर अच्छे दिन लाने की ज़रूरत क्या है। हमने गहराई से हिसाब लगाकर समझा बहुत सीधा गणित है। देश की गरीबी स्वास्थ्य और शिक्षा की बदहाली न्याय व्यवस्था को सही ढंग से लागू करने पर जितना धन हर साल चाहिए उतना नहीं उस से अधिक हम ख़ास वीवीआईपी कहलाने वाले लोग हर महीने अपने सुख सुविधा के साधन वेतन भत्ते और मुफ्त घर गाड़ी खाना पीना और अपने गुणगान पर खर्च कर देते हैं। देशभक्त होने का ढौंग करते हैं अन्यथा क्या देश और जनता की खातिर साल में एक महीना हम सरकारी पैसा सुविधा छोड़ दें तो देश की करोड़ों जनता की भलाई हो सकती है। मगर हम सभी मुझे भी शामिल कर आप सब क्या देश को एक महीना अपनी सेवा नहीं दे सकते हैं बल्कि हम तो और अधिक चाहते हैं मांगते हैं। 

POST : 1124 फूलों की ज़ुबां से कांटों की कहानी ( दास्तां ए दर्दे दिल ) डॉ लोक सेतिया

     फूलों की ज़ुबां से कांटों की कहानी ( दास्तां ए दर्दे दिल ) 

                                डॉ लोक सेतिया 

जाने लिखने वाले किस तरह से अपनी जीवनी लिखते हैं कोई स्याही नहीं मिलती जो इस को बयां कर सके। लिखनी पड़ती है आंसुओं से ही और लिखते लिखते धुंधली हो जाती है। कई बार लिखी है फिर मिटा दी थी दिल नहीं माना अपनों की शिकायत दुनिया से करना , मुझे हर दिन कटघरे में खड़ा करने वालों को सवालों की बौछार के सामने लेकर खुद तमाशा बन जाना तमाशाई भी। फिर आज भीतर की घुटन को बाहर निकालने को लिखने लगा हूं तो पहले साफ करना चाहता हूं दोषी भी मैं हूं अपना खुद का क़ातिल भी मैं खुद ही हूं खुद ज़हर खाता रहता हूं जीने को खतावार भी कोई और नहीं मैं ही हूं । सबने मुझे जीने को जो अमृत पिलाया मेरे लिए विष का काम करता रहा मगर जब भी किसी ने ज़हर दिया पीने के बाद भी मुझ पर असर नहीं हुआ कैसे होता जब इतना अभ्यस्त हो गया था ज़हर का कि ज़हर दवा बनकर सांस सांस में समाता गया । कुछ पुरानी लिखी ग़ज़ल कविता हैं जो लिख कर बात कह भी सकता हूं और कहने की ज़रूरत भी रहेगी नहीं बाकी । बीस साल पहले लिखी नज़्म से शुरुआत करता हूं। 

अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग ,
आईने से यूँ परेशान हैं लोग।

बोलने का जो मैं करता हूँ गुनाह ,
तो सज़ा दे के पशेमान हैं लोग।

जिन से मिलने की तमन्ना थी उन्हें ,
उन को ही देख के हैरान हैं लोग।

अपनी ही जान के वो खुद हैं दुश्मन ,
मैं जिधर देखूं मेरी जान हैं लोग।

आदमीयत  को भुलाये बैठे ,
बदले अपने सभी ईमान हैं लोग।

शान ओ शौकत है वो उनकी झूठी ,
बन गए शहर की जो जान हैं लोग।

मुझको मरने भी नहीं देते हैं ,
किस कदर मुझ पे दयावान है लोग।


कल रात चाहा था कुछ लिखना मगर लिखने के बाद मिटाना पड़ा । कड़वी यादों को भूल जाना पड़ा । मैंने इक घर बनाया था मुहब्बत की खातिर दोस्तों को जब भी बुलाना पड़ा नया ज़ख्म खाना पड़ा । अपने भी अजीब होते हैं कहने को शुभकानाएं दुआएं देते हैं असर करती है तो ज़ख्म पुराने हरे हो जाते हैं । इक नज़्म और भी ज़रूरी है बात को संक्षेप में कहना चाहता हूं ।

आपके किस्से पुराने हैं बहुत ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

आपके किस्से पुराने हैं बहुत ,
सुन रखे ऐसे फसाने हैं बहुत।

बेमुरव्वत तुम अकेले ही नहीं ,
आजकल के दोस्ताने हैं बहुत।

वक़्त को कोई बदल पाया नहीं ,
वक़्त ने बदले ज़माने हैं बहुत।

हो गये दो जिस्म यूं तो एक जां ,
फासले अब भी मिटाने हैं बहुत।

दब गये ज़ख्मों की सौगातों से हम ,
और भी अहसां उठाने हैं बहुत।

मिल न पाये ज़िंदगी के काफ़िये ,
शेर लिख लिख कर मिटाने हैं बहुत।

फिर नहीं शायद कभी मिल पायेंगे  ,
आज "तनहा" पल सुहाने हैं बहुत।

कभी कभी सालों बाद राज़ खुलते हैं मेरे दिल में कितने लोगों के राज़ दबे हुए हैं । राज़ को राज़ रखना सब नहीं जानते हैं । किसी को कैसे बताता कि जिस नाते को लेकर आपको गिला शिकवा है वो नाता आपका कभी था ही नहीं । कोई पहले से उलझनों में है उसको इतना बड़ा हादिसा मार ही डालेगा ये भी मालूम नहीं कभी किसी को ये भी शिकायत हो सकती है बताया क्यों नहीं । जबकि बताने पर शायद उनको मेरी बात पर भरोसा ही नहीं आये और राज़ मुझे बताने वाला अपनी कही बात को ही बदल दे कि नहीं ऐसा नहीं ऐसा है । मुझे ही नासमझ घोषित करना खूब जानते हैं लोग । छोड़ो उसकी नहीं खुद अपनी कहानी लिखने लगा हूं मगर क्या किया जाये हर किसी की कहानी में कितने किरदार बाकी लोगों के जुड़े रहते हैं । कितना अच्छा होता मेरी कहानी से कई ऐसे किरदारों का वास्ता ही नहीं पड़ा होता । मगर जब मेरी ज़िंदगी की कहानी का हिस्सा बन गए हैं तो उनको कहानी से अलग रखना संभव ही नहीं है । कितनी बार खुद को लेकर समझा तो महसूस हुआ है कि मैं इक ऐसा पौधा हूं जो जाने कैसे इक रेगिस्तान में पनप गया उग आया बिना किसी के चाहत के । कितने लोग गुज़रते हुए रौंदते रहे पैरों तले कितने जानवर खा जाते रहे कोई बाढ़ नहीं थी बचाने को कोई खाद पानी नहीं मिला फिर भी जाने क्यों बार बार उग जाता रहा धरती से अपनी जड़ से हर बार । आप जब भी मेरी कहानी पढ़ना तो मेरी तुलना उस बाग़ के फलदार पेड़ से मत करना जिसको माली ने सींचा पाल पास कर ऊंचा बड़ा किया । मेरा बौनापन मेरा नसीब है हालात के कारण है । फिर इक ग़ज़ल सुनाता हूं ।


शिकवा तकदीर का करें कैसे ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

शिकवा तकदीर का करें कैसे ,
हो खफा मौत तो मरें कैसे।

बागबां ही अगर उन्हें मसले ,
फूल फिर आरज़ू करें कैसे।

ज़ख्म दे कर हमें वो भूल गये ,
ज़ख्म दिल के ये अब भरें कैसे।

हमको खुद पर ही जब यकीन नहीं ,
फिर यकीं गैर का करें कैसे।

हो के मजबूर ज़ुल्म सहते हैं ,
बेजुबां ज़िक्र भी करें कैसे।
 
भूल जायें तुम्हें कहो क्यों कर ,
खुद से खुद को जुदा करें कैसे।

रहनुमा ही जो हमको भटकाए ,
सूए- मंजिल कदम धरें कैसे।

अभी कहने को बहुत बचा है समझने को रहा कुछ भी नहीं लगता है । कोई नहीं समझेगा समझ कर भी समझना दुश्वार है । अब कुछ लिखने की ज़रूरत नहीं शायद कुछ कविताएं और इक ग़ज़ल बहुत है कहानी को खत्म करने को अन्यथा कहानी उपन्यास की तरह बोझिल बन जाएगी । कविताएं पहले सुनाता हूं ।


  कैद ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

कब से जाने बंद हूं
एक कैद में मैं
छटपटा रहा हूँ
रिहाई के लिये।

रोक लेता है हर बार मुझे 
एक अनजाना सा डर
लगता है कि जैसे 
इक  सुरक्षा कवच है
ये कैद भी मेरे लिये।

मगर जीने के लिए
निकलना ही होगा
कभी न कभी किसी तरह
अपनी कैद से मुझको।

कर पाता नहीं
लाख चाह कर भी
बाहर निकलने का
कोई भी मैं जतन ।

देखता रहता हूं 
मैं केवल सपने
कि आएगा कभी मसीहा
कोई मुझे मुक्त कराने  ,
खुद अपनी ही कैद से।


नाट्यशाला ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

मैंने देखे हैं
कितने ही
नाटक जीवन में
महान लेखकों की
कहानियों पर
महान कलाकारों के
अभिनय के।

मगर नहीं देख पाऊंगा मैं
वो विचित्र नाटक
जो खेला जाएगा
मेरे मरने के बाद
मेरे अपने घर के आँगन में।

देखना आप सब
उसे ध्यान से
मुझे जीने नहीं दिया जिन्होंने कभी
जो मारते  रहे हैं बार बार मुझे
और मांगते रहे मेरे लिये
मौत की हैं  दुआएं।

कर रहे होंगे बहुत विलाप
नज़र आ रहे होंगे बेहद दुखी
वास्तव में मन ही मन
होंगे प्रसन्न।

कमाल का अभिनय
आएगा  तुम्हें नज़र
बन जाएगा  मेरा घर
एक नाट्यशाला।

लोग वसीयत करते हैं जायदाद दौलत की पैसे की । मेरे पास कुछ भी नहीं ऐसा बचा हुआ जो है किसी के काम का नहीं है । फिर भी इक चाहत है कि मेरे बाद कोई रोना धोना कोई शोक का तमाशा नहीं हो , मुमकिन हो तो मुझे अपना समझने बताने कहने वाले मेरी यही आरज़ू पूरी कर दें कि इक जश्न मनाया जाये ख़ुशी मनाई जाये जीने से मिला ही क्या है दर्द आहें तन्हाई आंसू नफरत का ज़हर पल पल पीना पड़ा है । अच्छा हुआ ख़त्म हुई कहानी जीते जी नहीं मानी बात मरने के बाद इतना तो कर सकते हैं । ग़ज़ल ये भी ऊपर की रचनाएं भी आज कल की नहीं सालों पहले से लिखी हुई हैं । दुनिया बदलती रही मेरी ज़िंदगी ठहरी रही नहीं बदला कुछ भी कभी । ग़ज़ल दिल से कही है ।

ग़ज़ल  ( जश्न यारो मेरे मरने का मनाया जाये ) मेरी वसीयत

जश्न यारो , मेरे मरने का मनाया जाये ,
बा-अदब अपनों परायों को बुलाया जाये।

इस ख़ुशी में कि मुझे मर के मिली ग़म से निजात ,
जाम हर प्यास के मारे को पिलाया जाये।

वक़्त ए रुखसत मुझे दुनिया से शिकायत ही नहीं ,
कोई शिकवा न कहीं भूल के लाया जाये।

मुझ में ऐसा न था कुछ , मुझको कोई याद करे ,
मैं भी कोई था , न ये याद दिलाया जाये।

दर्दो ग़म , थोड़े से आंसू , बिछोह तन्हाई ,
ये खज़ाना है मेरा , सब को दिखाया जाये।

जो भी चाहे , वही ले ले ये विरासत मेरी ,
इस वसीयत को सरे आम सुनाया जाये।   
 
किसी से भी कोई गिला नहीं शिकवा शिकायत नहीं है । गुनहगार की तरह रहा आपकी दुनिया में मैं । जुर्म भी स्वीकार किये हैं सज़ाएं भी मांगी हैं । कोई माफ़ी कोई रहम की भीख नहीं चाही है। कहते हैं मरने के बाद भूल जाते हैं जाने वाले की खताएं मुमकिन हो तो भुला देना मुझे सभी । अलविदा कहने की ये ज़िंदगी कई बार फुर्सत ही नहीं देती है । 


बुलबुल और गुलाब