जून 29, 2024

POST : 1852 नियम स्वीकार , शर्तें नामंज़ूर ( नज़रिया ) डॉ लोक सेतिया

    नियम स्वीकार , शर्तें नामंज़ूर ( नज़रिया ) डॉ लोक सेतिया

 आपको सब मिल जाएगा अगर आप नियम और शर्तों को मंज़ूर करने को राज़ी हैं , नियम कितने भी कठोर लगते हों समझना कठिन नहीं है शर्तों की बात बिल्कुल अलग है अक़्सर शर्तें आपको ठगती हैं । शर्तों से बंधा बंधन आखिर बचता नहीं है नियम कायदा उचित हो सकता है शर्त कभी सही नहीं होती है । ज़िंदगी से लेकर राजनीति के खेल तक नियम बदलते रहते हैं टूट भी सकते हैं मगर शर्तों की हथकड़ी जिस किसी ने पहन ली मर्ज़ी से या मज़बूरी से बाद में पछताना पड़ता है । शर्तों पर जीना मुश्किल है दिल को ये समझाना मुश्किल है उनका मझको बुलाना मुश्किल है बिन बुलाये मेरा भी जाना मुश्किल है । सच बताना मुश्किल है सच को छिपाना भी आसान नहीं बहाना बनाना मुश्किल है , आस्मां से ज़मीं का रिश्ता निभाना मुश्किल है सरकार झुकती नहीं सरकार का देश की जनता को झुकाना मुश्किल है । सर कटवाने को तैयार हैं कुछ लोग उनके सर को झुकाना मुश्किल है । आपने जगह जगह लिखा हुआ देखा पढ़ा होगा नियम और शर्तें लागू दो अलग अलग बातें हैं इनको इक साथ लाना मुश्किल है । आपको घर में रहना है चाहे किसी सभा में दफ़्तर में अथवा किसी महफ़िल में आपको दिशानिर्देश का पालन करना अनिवार्य है अन्यथा आपको निकाला जाता है या निकलने की नौबत आ सकती है । दुनिया का पहरा हर सांस पर रहता है आपको खुली हवा में भी सांस लेनी है तो सावधान रहना चाहिए नफ़रत का ज़हर फ़िज़ाओं में घुला हुआ है कोई नहीं जान पाता अक़्सर । 
 
आजकल समाचार पढ़ कर चिंता होने लगती है कोई घर से भाग गया किसी ने अपनी जान ख़ुदकुशी कर लेकर ज़िंदगी से निजात पा ली । रिश्तों नातों की ही नहीं सामाजिक बंधनों की बेड़ियां इंसान को अपनी मर्ज़ी से जीने ही नहीं देती हैं । सरकार भी संविधान के नियमों की अवहेलना अनदेखी कर चलती रहती है लेकिन संख्या बल का गणित ऐसी शर्त है जिस से कभी भी लड़खड़ाने से गिरने की नौबत पेश आ सकती है । इस समाज में इंसान को चैन से जीने देना कोई नहीं ज़रूरी समझता लेकिन कोई गलती कोई भूल दिखाई दे जाए तो हर कोई जीना हराम कर देता है । जियो और जीने दो की बात किसी को समझ नहीं आती है कुछ इसी तरह से सरकार को खतरा रहता है कभी भी किसी समय पकड़े जाने पर हटाए जाने की चर्चा होने का । ऐसा कहते हैं सरकार नैतिक अधिकार खो चुकी है उसे लोकतान्त्रिक मर्यादा का ध्यान रखते हुए सत्ता छोड़ देनी चाहिए । सत्ता का मोह कभी जाता नहीं है भले कोई कुछ भी कहता रहे सत्ता से इश्क़ सभी को पागल बना देता है और इश्क़ और जंग में सब चलता है । भाग कर ज़ोर ज़बरदस्ती से डरा कर बहला फुसला कर शादी करना अनुचित नहीं होता बस इसी तरह से जोड़ तोड़ कर खरीद कर धमका कर समर्थन हासिल करना सब किया जाता है । नीचे गिर कर ऊंचाई पाना राजनीति की रणनीति कहलाता है । जो समझौता नहीं करता फिर पछताता है ।  शर्त लगाना भी इक आदत होती है जुआ होता है जो बुरा है फिर भी खेलने वाले को मज़ा आता है , कौन है जो इस बात पर शर्त लगाता है । हार कर भी कोई जश्न मनाता है , गंधर्व राग गाकर कोई रूठी महबूबा को मनाता है ये हुनर किसी किसी को रास आता है । हर सामान सारा माल गरंटी का लेबल लगा मिलता है आखिर में नियम और शर्तें लागू आपको उल्लू बनाता है ।
 
 
 नियम एवं शर्तें - इंडियन एसोसिएशन ऑफ मस्कुलर डिस्ट्रॉफी (IAMD)

जून 28, 2024

POST : 1851 चलती का नाम गाड़ी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

        चलती का नाम गाड़ी ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

सरकारी गाड़ी है , ढोती सवारी है , सफ़र लंबा है अधूरी तैयारी है , उस पर किस की कैसी गारंटी साफ़ बता दिया गया है अपने जान और सामान की रखवाली खुद करनी है । बड़े साफ शब्दों में चेतावनी भी है बगैर टिकट पकड़े जाने पर जुर्माना या सज़ा अथवा दोनों झेलनी पड़ सकती हैं । चालक प्रशिक्षण पर है ऐसा सामने पीछे घोषित किया हुआ है संभल संभल कर धीरे धीरे चलना है मुश्किल ये है कि निर्धारित समय तक नहीं मिली मंज़िल तो मुसीबत वापसी को कोई साधन नहीं मिलेगा । आप उनके भीतर का डर कभी नहीं समझ सकते ये बस वही जानते है इस गाड़ी की हालत कैसी है किसी का भरोसा नहीं कौन कब किस जगह साथ छोड़ दे । इंजन से लेकर पहिये तक कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा जैसी हालत है तभी अपना भय मिटाने को उस की कमियां ढूंढ रहे हैं जो अवसर मिलते ही ब्रेक लगते ही उनसे आगे बढ़कर मंज़िल पर कदम रख सकती है । कोई सवारी उतर कर उनकी सवारी में चढ़ जाए तो कयामत से पहले कयामत आ जाएगी । टैंकी भी मिलावटी तेल से भरी हुई है कब धोखा दे जाए नहीं मालूम विवशता है तेल भरवाना भी उन्हीं से ज़रूरी था जिन से लेन देन चलता है । गलती से उस पर आरोप लगा बैठे थे कि उनका टैम्पो किसी और को कितना देता देखा है । कारोबारी लोग भरोसे के काबिल नहीं होते हैं बदलते समय को देख धारा जिस तरफ जाती लगती है उधर रुख मोड़ लेते हैं । संकट से भगवान राम को भी हनुमान जी बचाते हैं हमने इस का ध्यान नहीं रखा लोग सफ़र करते हुए जगह जगह हनुमान जी का नाम जपते हैं । हनुमान चालीसा याद नहीं और कोई मंत्र मुश्किल में कष्ट से मुक्ति देता नहीं है सबको अपना मंत्र देते देते भूल गए मंत्र सही और शुद्ध उच्चारण से पढ़ना ज़रूरी है । एमरजेंसी में कोई नहीं जानता क्या क्या ज़रूरत आन पड़ती है शायद तभी उसकी याद सता रही है , गाड़ी बुला रही है सीटी बजा रही है , चलना ही ज़िंदगी है चलती ही जा रही है । 
 
दोस्त मुसीबत में काम आते हैं लेकिन उनकी मुश्किल यही है कि दोस्ती वाला सबक उनको कभी अच्छा ही नहीं लगता उनको दुश्मनी ही आती है । ऐसे ऐसे लोग खु.द अपनी गाड़ी में बिठाए हैं जिन का कोई भरोसा ही नहीं कब गर्दन पकड़ कर गाड़ी को किसी खाई में गिरते देख छलांग लगा अपनी जान बचा चलती गाड़ी का क्या हाल कर देंगे । खिड़की दरवाज़ा सब को बंद किया है ताज़ी हवा का झौंका भीतर नहीं आ सकता सब का दम घुटता है पर बंधन जकड़े हुए हैं हिलना डुलना मना है । सफर सुहाना है कहने को लेकिन अजब कदम कदम यातना है , रोना बेकार हैं हंसना भी मना है । रास्ते में कोई नहीं जानता किस किस जगह कोई कमज़ोर पुल बना है जिस से गुज़रना है जीना नहीं मरना है , कुछ भी नहीं करना बंद आंखें कर किस्मत से बचना है । 
पहाड़ों पर चढ़ाई करनी है मौसम से लड़ाई करनी है फिसलन भरी पत्थरीली सड़क है राम दुहाई है । इंजन पुराना है बदलना नहीं है इतिहास रचाना है दूर की कौड़ी खोज लाये हैं दो इंजन और जोड़ कर रफ़्तार बढ़ाये हैं छैंया छैयां झूमे नाचे गाये हैं दुश्मन जां के खुद गले लगाए हैं ।  खिज़ा का मौसम है आया मौसम ए बहार नहीं सरकार क्या नेता क्या करता कोई भी किसी पर ऐतबार नहीं , कल जाने क्या हो इस पर दुनिया का भी इख़्तियार नहीं । बीच भंवर हैं सभी कोई इस पार नहीं उस पार नहीं ।
 
कोई पीछे छूट जाए , कोई राह से भटकाए , लंबे बड़े हैं शाम के ढलते साये , सब लोग वही हैं हमको जब भी नहीं भाये जी भर कर हमने सताए । कहते हैं लोग सुबह का भूला शाम को घर लौट आये वो भूला नहीं कहलाये । आपने मीत सभी हमेशा थे भुलाये जब ख़ुद भंवर में पहुंचे हाथ पकड़ नाख़ुदा को मना लाये , उस दिल से निकली हाय अपने हुए पराये फिर भी हैं काम आये । ये कारवां है नौटंकी का तमाशा हर शहर दिखाना है ख़ाली पेट जनता को सपनों से बहलाना है , रुपया क्या है कीमत चार आना है परिंदों की खातिर इक जाल बिछाना है । चिड़िया को खबर है दाना खिलाने का बहाना है ये नया ज़माना है तेरा जाल पुराना है , दुनिया ने देखा है समझा है ये जाना है सभी मुसाफ़िर हैं चार दिन ठिकाना है । बाबू समझो इशारे हौरन पुकारे पम पम पम , यहां चलती को गाड़ी कहते हैं प्यारे पम पम पम ।  
 
 तू किसी रेल-सी गुज़रती है, मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ…दुष्यंत कुमार – पवन  Belala Says❣
 
 
 

जून 27, 2024

POST : 1850 घायल लोकतंत्र की चिंता ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया

       घायल लोकतंत्र की चिंता ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया 

जब शुरुआत ही विवादित प्रस्ताव से कर रहे हैं जिस में संविधान और लोकतंत्र की चिंता से बढ़कर सत्ता का स्वर बुलंद कर विपक्ष की आवाज़ को चुप करवाने की भावना दिखाई दे रही थी तब भविष्य में क्या नहीं होगा कोई भविष्यवाणी करना कठिन है । जिस आपात्कात के चीथड़े तक जनता ने अपने हाथ से ख़ाक में मिला दिए थे चुनाव में ऐसा सबक सिखाया था कि अच्छे अच्छों की ज़मानत तक ज़ब्त हो गई थी आज उसकी निंदा करने से कुछ भी हासिल नहीं होगा सिर्फ संसद को आमने - सामने खड़ा कर बांटने का प्रयास है ताकि शासक दल पर कोई संविधान से खिलवाड़ नहीं करने की अपेक्षा जताए तो ईंट का जवाब पत्थर से देना का कार्य किया जाए । कुछ लोग पुराने ज़ख्मों को कुरेदते रहते हैं भरने नहीं देना चाहते क्योंकि उनको मरहम लगाना नहीं आता है । निंदा करने को बहुत कुछ सत्ता पक्ष के खिलाफ भी है लेकिन समझदार लोग पुराने अनुभव और इतिहास से सबक लेते हैं उनको दोहराते हैं तो खुद शर्मसार होते हैं । सत्ताधारी कुछ कहे विपक्ष कुछ कहे तो सदन के अध्यक्ष को अपने पद की गरिमा कायम रखते हुए कोई रास्ता तलाश करना चाहिए । खुद अध्यक्ष जब टकराव की बात करने लगे तो देश संविधान लोकतंत्र की चिंता नहीं कोई छुपी हुई ऐसी मानसिकता है जो कदापि उचित नहीं है । आपको आग बुझानी है मगर आप चिंगारी को हवा देने लगे हैं बीते हुए कल की वर्तमान को ही नहीं भविष्य को भी सज़ा देने लगे हैं । कोई भी ऐसी शुरुआत की प्रशंसा कभी नहीं कर सकता है अर्थात संसद के नवनिर्वाचित अध्यक्ष का ये कार्य कोई शुभ संकेत नहीं है । 
 
किसी शायर की नज़्म है अख़बार में छपी हुई :- 
 

चीथड़े में हूँ भले पर हिंदुस्तान हूँ ( नज़्म ) दंडपानी नाहक

कहते हैं देश का मान सम्मान हूँ
मैं अन्नदाता हूँ गरीब किसान हूँ । 


मेरी फटेहाली का सबब कोई हो
चीथड़े में हूँ भले पर हिंदुस्तान हूँ ।  

 

ये नया सूरज पहले मुझे खायेगा
क्षितिज तक फैला जो आसमान हूँ ।  



मेरी स्थिति में परिवर्तन क्यों होगा
रहनुमां अंधे मेरे और मैं बेज़ुबान हूँ ।  


इज़्ज़त की मौत तो दे ऐ मुल्क मेरे
मैं सदियों से तेरा जो मेहरबान हूँ । 

 

अजीब दौर है इसका ग़ज़ब का तौर है , ख़ुद बनाने से पहले तोड़ने पर लगाया ज़ोर है । एकता भाईचारा समाज की समानता की नहीं परवाह किसी को बस यही लक्ष्य है बाहुबली है कौन कौन बड़ा कमज़ोर है । हर किसी से कई गलतियां हो जाती हैं लोग उनको सज़ा भी देते हैं और कभी आवश्यकता होने पर क्षमा भी कर इक अवसर भी देते हैं । जनता सभी का हिसाब रखती है कौन कितना गुनहगार है हर सवाल का जनता जवाब रखती है । यहां राजनीति में कोई भी मसीहा नहीं है कुछ के अपराध साबित हो गए कुछ के जुर्म साबित नहीं हुए मगर लोग जानते हैं किस ने दंगे करवाए किस ने धर्म के नाम पर लोगों को बांटने का अपराध किया । देश की आज़ादी से पहले जिस ने मुखबरी की खुद स्वीकार किया अपनी गलती को नादानी समझ सभी ने उस को इसी संसद में बड़े पद पर बिठाया भी , कभी किसी ने निंदा प्रस्ताव की बात नहीं की क्योंकि जो बीत गई सो बिसार आगे की सुध लेना समझदारी है । अभी भी कितने नेता हर दल में हैं जिन पर कितने ही गंभीर आरोप हैं मगर हर दल ने उनको किनारे नहीं लगाया जनहित और न्याय को महत्व देते हुए , चुनावी लाभ की खातिर पापियों का पाप धोते धोते ये संसद की गंगा कब की मैली हो चुकी है इस को अपराधियों से मुक्त करवाने का संकल्प किसी को याद नहीं है । अपनी सरकार बचाए रखने को अपने दल के नेताओं की निंदा नहीं कर उनका बचाव करते रहना क्या इस की निंदा नहीं की जानी चाहिए । सबसे पहले उनकी घोर निंदा का प्रस्ताव लाया जाना चाहिए जिन्होंने उन महान नेताओं की छवि खराब करने की कोशिश की जिन्होंने अपना सारा जीवन देश की आज़ादी और लोकतंत्र को कायम रखने में लगाया था । खुद अटल बिहारी बाजपेयी जी ने जिनको सबसे लोकप्रिय और शानदार बताया और जिस ने प्रधानमंत्री पद पर रहते सभी विपक्षी नेताओं को आदर दिया उनकी बातों को महत्व दिया कभी खुद को महिमामंडित नहीं करवाना चाहा आज कौन उनकी बराबरी कर सकता है । देश की राजनीति आज किस सीमा तक भटक कर आदर्श और नैतिकता के निचले पायदान पर खड़ी हुई लगती है । धरती के ज़ख्मों पर मरहम नहीं लगा सकते हैं तो नमक छिड़कने की बात मत करो , अहंकार को छोड़ कर भविष्य की सुंदर कामनाओं से सद्भावना पूर्वक आचरण अपनाने की ज़रूरत है । 
 
शायद लोग आईना नहीं देखते अन्यथा पता चलता कि खुद उन्होंने क्या क्या नहीं किया जो देश समाज और संविधान के अनुसार किया नहीं जाना चाहिए था । किसी और के चेहरे पर लगा दाग़ दिखाई देता है अपनी कालिख़ ढकी हुई दुनिया को दिखाई नहीं भी दे तब भी ज़मीर जानता है कौन दूध का धुला है । इतिहास की गलतियों से सबक सीखना उचित है मगर उनका उपयोग राजनीतिक द्वेष से करने से किसी का भी भला नहीं हो सकता है । अपने गुण अपने अच्छे कार्य को छोड़ किसी की कमियों का शोर मचाने से कोई व्यक्ति गुणी नहीं कहलाता है । नकारात्मक राजनीति से देश समाज का कभी कल्याण नहीं हो सकता है । लोकतंत्र में जीत हार को विनम्रतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए अन्यथा प्रतीत होता है कि जनमत को समझने के बजाय अपने वर्चस्व को किसी भी तरह कायम रखने की ज़िद में अनावश्यक दीवार खड़ी करने का प्रयास किया जा रहा है ।   डॉ बशीर बद्र कहते हैं ।
 

इस तरह साथ निभाना है दुश्वार सा , 

तू भी तलवार सा मैं भी तलवार सा । 

Ramdhari Singh Dinkar Famous Poem Kalam Ya Talwar - Amar Ujala Kavya - कलम  या कि तलवार:रामधारी सिंह "दिनकर"


 

जून 25, 2024

POST : 1849 पकड़ो पकड़ो डोर सजनियां ( हास्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

 पकड़ो पकड़ो डोर सजनियां ( हास्य कविता ) डॉ लोक सेतिया

 
लोकतंत्र भाग्य तेरा ऐसा संविधान का छीका टूटा , 
मत पूछो किस किस ने कितना कैसे क्यों है लूटा ।
 
जनता की तकदीर है खोटी छिन गई इक धोती ,
पहेली कौन बूझे नेता सब के सब ही हैं पनौती । 
 
किस सांसद का है कौन जगह कैसा मज़बूत खूंटा
रस्सी छूटी कमज़ोर ज़रा गठबंधन से नाता ही छूटा । 
 
भूल-भुलैयां चलो संग संग सैंयां डाल के गलबहियां ,
हमको मिल कर  करनी है ता-ता-थैया ता-ता-थैया । 
 
दुल्हन मंडप छोड़ भाग गई बारात है नाच दिखाती  ,
रपट लिख़ाओ मिल नहीं सकेगा चितचोर सिपहियां ।   

शोर है यही चहुंओर लागा चोर को मोर सजनियां ,
कटी पतंग उड़ चली पकड़ो पकड़ो डोर सजनियां ।  
 
सत्तासुंदरी नाच रही है हर दिन का है वही तमाशा ,
ख़ुश हैं शासक मौज मनाते जनता की बढ़ी हताशा ।  


   कटी पतंग - Paperwiff
 
 

जून 24, 2024

POST : 1848 कुत्तों से मुहब्बत क्यों है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

     कुत्तों से मुहब्बत क्यों है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

उनका भरोसा है वफ़ादार हैं , आदमी नासमझ हैं , कुत्ते समझदार हैं । इक महिला की लिखी कहानी है दूध दूध पानी पानी है हर बात की कोई निशानी है नानी कहती है बिल्ली मौसी है शेर से रिश्ता है उसकी नादानी है । महिला ने सभी को अपना बनाया हर किसी से रिश्ता नाता निभाया पर कोई अपना नहीं हुआ सारा जहां पराया । तब जाकर ये राज़ समझ आया टॉमी मिला जब तब लगा ख़ुदा मिल गया है फटा हुआ कुर्ता फिर से सिल गया है । जिसके मिलने से दुनिया खूबसूरत लगती है जाने क्यों उसकी ज़रूरत अपनी चाहत लगती है । संग बस उसी का हसीन हर लम्हा कोई ख़्वाब था जो अब हक़ीक़त लगती है जिनसे निभाया साथ अभी तलक कुछ नहीं इक अज़ाब था । टॉमी के गले में पट्टा बांध कर जन्म जन्म का नाता बना लिया है बस यही ऐतबार के काबिल है दुनिया भर को आज़मा लिया है । कुत्ता कहना नहीं अच्छा अपना हबीब है दुनिया में वही सबसे करीब है । हर आदेश समझता है जो चाहें कर दिखाता है हर किसी को भौंककर डराता अपने पास दुम हिलाता है । मुझको सबसे बढ़कर उसी का ख़्याल है कितना समझदार है कुदरत का कमाल है । गले उसको लगाती है गोदी में बिठाती है बच्चों की ममता उस पर लुटाती है । ज़माना कितना बदल गया है अजब दस्तूर चल गया है कोई सर पर बैठा है कोई हाथों से फिसल गया है । 
 
देश की सरकार भी देती है यही गवाही सब ने कसम भुलाई की है बेवफ़ाई सिर्फ कुत्तों ने वफ़ादारी खूब निभाई है बिक चुके हैं फिर भी कीमत है चुकाई । सांप नेवले की देखी है लड़ाई लेकिन मिल बैठे जब जान पर है आई कोई क्या करे बढ़ाई , कोई क्या किसे सुनाए चाचा हो या हो ताई ज़माने की बेहयाई किस ने नहीं दिखाई । कुत्तों ने अपनी पहचान कायम रखी है जिस किसी ने हड्डी फैंकी दौड़कर उठाई , कुत्तों से बचना काट लिया तो जान पर बन आई । कुत्तों को बचाव के टीके लगवा अपनी ज़िंदगी बचाई , कुत्तों की एकता है अपनी गली में किसी और को नहीं आने देते , दुश्मन है क्या कौन भाई । कुत्तों का रुतबा ऊंचा है औकात बड़ी है जिस का कोई पालतू उसकी हर बात बड़ी है । है कौन मालिक कौन हुक़्म चलाता है हर पालने वाले को कुत्ता बेबस बताता है उसको तरस आता है इंसान को नहीं देता खुद भी कम खाता है हमको मनचाहा लेकर हाथ से खुद खिलाता है । आदमी आदमी से नफ़रत करते हैं जानवर से क्या मुहब्बत करते हैं , हिफ़ाज़त करते हैं आदमी की कुत्ते आदमी से आदमी अदावत करते हैं । जिन लोगों का कुत्ता भगवान बन गया है फ़रिश्ता उनको लगता शैतान बन गया है । इक दिन तो हक़ीक़त कुत्तों को समझ आएगी , सरकार उनको मौलिक अधिकार सभी दिलाएगी , कुत्तों की बस्ती उजाला शहर में अंधेरा वो सुबह कभी तो आएगी । कुत्तों की भीड़  मिलकर शेर को खा सकती है किसी दिन ऐसी नौबत भी आ सकती है कुत्तों की हुक़ूमत दुनिया चला सकती है । राजनीति ऐसा बहुमत जुटा सकती है कोई कुतिया सभी कुत्तों को मज़ा चखा सकती है । जिस जगह छुपा हुआ कोई खज़ाना है उसी पर कुत्तों का बना ठिकाना है आदमी ढूंढता फिरता अपना आशियाना हैं ग़ज़ब ज़माना है ।
 
 
 हिन्दू धर्म अनुसार कुत्ता पालना उचित या अनुचित? | dog rearing

जून 22, 2024

POST : 1847 ये हर दिन का तमाशा है ( ख़ुशी - ग़म ) डॉ लोक सेतिया

       ये हर दिन का तमाशा है ( ख़ुशी - ग़म ) डॉ लोक सेतिया 

  सब नाच रहे झूम रहे हैं , हमको भी साथ देना चाहिए क्योंकि हम किसी से कम नहीं । कल योग दिवस था जिधर देखो वही नज़ारा था , इतने दिन हैं कि गिनती करना मुश्किल है साल में 365 दिन लेकिन आयोजन कितने कोई नहीं जानता , खुद अपने अवसर कभी कभी मिलते हैं सार्वजनिक आयोजन ऐसा कोई दिन नहीं जब नहीं होता है । बुरा कुछ भी नहीं अगर मकसद किसी भी उचित आवश्यक लाभदायक कार्य की बात करने का महत्व समझने पर ध्यान केंद्रित हो , लेकिन सिर्फ कहने को दिखाने को रोज़ कुछ आयोजन करने पर संसाधन पैसा ऊर्जा खर्च करना कदापि उचित नहीं है । यहां जब लोग भूखे हैं अभावग्रस्त हैं बदहाल हैं जाने कितनी परेशानियों से जूझते रहते हैं मगर कोई समाधान नहीं करता सरकार से समाज तक सभी निष्ठुर बने तमाशा देखते हैं ऐसे में सिर्फ आडंबर करने पर देश का धन बर्बाद करना अनुचित ही नहीं आपराधिक कृत्य भी है । सभी को फोटो करवाने से सेल्फ़ी लेने का जैसे कोई रोग लग गया है लोग ज़िंदगी को वास्तविकता से कहीं अधिक तस्वीरों में जीना चाहते हैं । मैं खुद ऐसे पागलपन का शिकार रहा हूं कॉलेज के समय स्कूल के साथियों संग फोटो करवाता रहता था जो अभी भी कुछ पुरानी अलबम कुछ किसी लिफ़ाफे में सुरक्षित रखी हैं । इक दिन इक पोस्ट ब्लॉग पर दोस्ती को लेकर लिखी तो कुछ खास करीबी दोस्तों से फोटो मांगे भी जिन के मेरे पास उपलब्ध नहीं थे । आज सोचता हूं सभी से रिश्ते बदल गए बस तस्वीरें नहीं बदली दिल बहलाता हूं कि कभी सभी अपने थे । लगता हैं हम ये जानते हैं जो भी रोज़ करते हैं अगले ही दिन अर्थहीन हो जाता है बस शायद यादों को एकत्र करने का कार्य कर रहे हैं लेकिन जैसे भी हैं अच्छी बुरी उनको सहेजना भी है इसे लेकर सोचते ही नहीं । 
 
कभी हम सभी खुशियां और ग़म मिलकर सांझा करते थे , अब वास्तव में कोई ख़ुशी में शामिल होता है न ही किसी के ग़म को समझता है । हर अवसर पर औपचरिकता निभाते हैं और फोटो वीडियो बना कर सिर्फ उन पलों की यादें जमा करते रहते हैं कभी कभी तो बाद में उनको देखते ही नहीं क्योंकि देख कर कोई भावना कोई उल्लास जीवित नहीं होते हैं । हमने धन दौलत जमा कर ली मगर उनका उपयोग सही मकसद को लेकर करना हम नहीं जानते हैं , अपनी रईसी का दिखावा करना वास्तव में हमको बड़ा नहीं छोटा करता है । हम ऊंचाई पर खड़े फोटो करवाते हैं तो ऊंचे नहीं बौने लगते हैं । अजीब लगता है जब कोई योग को या आयुर्वेद को ही नहीं बल्कि भगवान को भी आस्था से नहीं विकास और अर्थव्यवस्था से जोड़ता है । कैसी विडंबना है कितने महान उद्देश्य अपनी राह से भटक कर बाज़ार की कोई चीज़ बनने को अभिशप्त हैं , ये कुछ पाना नहीं है जो पुरातन था उसको खोना है जैसे कोई किसी महल को खंडहर बनाकर समझता है उस पर गर्व किया जाना चाहिए कि ऐसा भव्य महल हुआ करता था । सादगीपूर्ण जीवन आजकल किसी को पसंद ही नहीं आता है बस जिन्होंने सादगी से बिना किसी ताम झाम समाज को अपना सर्वस्व अर्पित किया उनके बुत बनवा कर कोई सड़क बनाकर समझते हैं बहुत है । अचानक याद आया अभी खबर पढ़ने को मिली हरिशंकर परसाई के नाम पर जन्मशताब्दी वर्ष में इक सड़क बना रहे उनके नाम पर , अब उनका कोई घर क्या निशान तक जबलपुर में बचा नहीं है । रचनाकार कभी मरता नहीं ज़िंदा रहता है अपनी कालजयी रचनाओं में और ऐसे बड़े कलमकारों को तस्वीर या समाधि स्थल की ज़रूरत नहीं होती है । आजकल लोग अपना नाम खुद ही इधर उधर पोस्टर छपवा कर लगवाते हैं शोहरत हासिल करने की ख़ातिर जबकि वास्तविक जाने माने लोग इस को कभी ज़रूरी नहीं समझते थे , किसी शायर का कहना है :- 
 

बाद ए फनां फ़िज़ूल है नाम ओ निशां की फ़िक्र  ,  जब हमीं न रहे तो रहेगा मज़ार क्या ।   

 Systematica Releases First Assessment on Milan Public Realm, Green Areas  and Gathering Places | ArchDaily

 

जून 20, 2024

POST : 1846 मारे गये गुलफ़ाम ( ऐतबार मत करना ) डॉ लोक सेतिया

   मारे गये गुलफ़ाम ( ऐतबार मत करना  ) डॉ लोक सेतिया

सच्ची बात कही थी मैंनेसच्ची बात कही थी मैंने

 लोगों ने सूली पे चढ़ायामुझको ज़हर का जाम पिलायाफिर भी उनको चैन ना आया

 सच्ची बात कही थी मैंने

 ( सच्ची बात कही थी मैंने )

 

ले के जहाँ भी वक़्त गया हैज़ुल्म मिला है, ज़ुल्म सहा हैसच का ये इनाम मिला है

 सच्ची बात कही थी मैंने

 ( सच्ची बात कही थी मैंने )

 

सब से बेहतर कभी ना बननाजग के रहबर कभी ना बननापीर पयम्बर कभी ना बनना

 सच्ची बात कही थी मैंने

( सच्ची बात कही थी मैंने )

 

चुप रह कर ही वक़्त गुज़ारोसच कहने पे जाँ मत वारोकुछ तो सीखो मुझसे, यारो

 ( सच्ची बात कही थी मैंने )

 ( सच्ची बात कही थी मैंने )

 ( सच्ची बात कही थी मैंने )

 सच्ची बात कही थी मैंने सबीर दत्त की ग़ज़ल है जो हरियाणा के इक शायर हैं , तीसरी कसम फिल्म बनी थी फणीश्वर नाथ ' रेणु ' जी की कहानी पर बड़ी शानदार थी असफ़ल होना ही नसीब था । वो आंदोलन पीछे छूट गया लेकिन जनाब अन्ना हज़ारे को लोग अभी तक सोशल मीडिया पर क्या कुछ नहीं कहते जैसे कोई बड़ा गुनाह किया हो उन्होंने । कौन है जो कभी किसी पर ऐतबार नहीं करता कि जो कह रहा है कुछ करने को वास्तव में करना चाहता है या नहीं अथवा कर सकेगा भी या नहीं । इतनी पुरानी कहानी है जिसका आधुनिक संस्करण कह सकते हैं । अच्छा हुआ मुझे शुरुआत से ही यकीन नहीं आया था जब देखा उस अंदोलन में सभी चोर उचक्के शामिल थे । कभी मोदी जी से नहीं सवाल किया वादे क्या हुए अन्ना जी से कोई खतरा नहीं उनको लताड़ते रहते हैं , आपने क्या अपनी समझ से कोई काम नहीं किया बस किसी पर आरोप लगा रहे सब उन्हीं का किया धरा है । आपको इक और कवि हरिभजन सिंह रेणु की किताब ' तुम कबीर न बनना ' से इसी शीर्षक की कविता पढ़ने को पेश करता हूं , वो भी हरियाणा से ही थे , पंजाबी के बड़े शायर थे हिंदी में किताब का अनुवाद किया था मेरी मित्र गीतांजलि जी ने । 
 

तुम कबीर न बनना ( कविता )

जब 
मेरे दोस्त 
मुझे कबीर बना रहे थे 
 
मैं प्यादों की ताकत से 
ऊंटों की शह मात 
बचा रहा था 
घोड़े दौड़ा रहा था 
 
तभी 
मेरे भीतर बैठा कबीर 
कह रहा था 
तुम कबीर मत बनना । 
 
ये अक्षरों 
गोटियों का खेल त्याग 
और मेरे साथ चल 
ताणा बुन 
ध्यान दे 
घर का 
गुज़ारा चलाती 
लोई का 
कमाले को किसी काम लगा 
धूणे पर फिरता है 
उसको हटा । 
 
कबीर बनेगा 
तो लोग कहेंगे 
गंगा घाट मिला 
गुमनाम विधवा ब्राह्मणी का 
लावारिस है । 
 
नीरू मुस्लमान के घर पला 
कबीर जुलाहा है 
अंधेरे में पड़े 
हमारे गुरु ने 
पांव छूकर ज्ञानी बनाया है । 
 
दिन में बुनता और गाता है 
रात भर जागता और रोता है 
दिल में आई कहता है 
मुंह में आई बकता है 
काशी से निकल मगहर आया 
कहीं की मिट्टी कहीं ले आया 
राम रहीम इक सार उचारे 
अढ़ाई अक्षर पढ़े बेचारे । 
 
तुम कबीर मन बनना 
 
मैंने धीरे से कहा 
ताणा तो मैं डाल लेता हूं 
चादर तो मैं भी बुन लेता हूं । 
 
पर 
सिंह बकरी को खाता रहे 
मंदिर मस्जिद लड़वाते रहें 
किसी कमाल के हिस्से 
चरखा सूत ना आए 
लहू धब्बे धोते-पौंछते 
कालिख़ मिट्टी बुहारते 
हाथ काले हो जाएं 
तो मैं क्या करूं । 
 
मुझ से धरी नहीं जाती चादर 
ज्यों की त्यों ।
 
तो मुझे लगा 
वो भी मन में सोच रहा था 
कबीर को किसने कहा था 
कबीर बन  !
कबीर बन  !!  
 
ये राजनीति का गोरखधंधा भलेमानुष लोग कब समझते हैं , काला धन सफ़ेद करते करते जिन के हाथ ही नहीं सारा बदन कालिख़ से ढक जाए उनको लाज शर्म नहीं आती क्योंकि जिस हम्माम में सभी नंगे हों उस सत्ता की हवेली में ऐसे चश्में बिकते हैं कि हर किसी को हरियाली दिखाई देती है । अन्ना बेचारे नसीब के मारे फिरते हैं किसी सागर किनारे अपना सब कुछ हारे । ऐसे कितने लोगों को सीढ़ी बनाकर लोग सत्ता पर बैठ कर कीर्तिमान स्थापित करते रहे और जिन्होंने भ्र्ष्टाचार तानाशाही के ख़िलाफ़ लड़ाई शुरू की उनकी पीठ पर स्वार्थी झूठे मक्कार लोग छुरा घौंपते रहे । आजकल अजीब घटनाएं घटित होने लगी हैं अवतार कहलाने लगे हैं । काशी से अब कोई  फिर से ख़ुद को क़बीर नहीं कह सकता या बड़ा दुश्वार कार्य है भूले से भी मत कहना मैं कबीर मैं क़बीर , मैं क़बीर नहीं हूं सच कहता हूं । क़बीर सभी के भीतर रहता है । लोग मैली चादर पर तंज कसते हैं जिनका सब सूट बूट कोट काला है उनकी तारीफ़ में क्या शान है कहते हैं । मरे गए गुलफ़ाम अजी हां मारे गए गुलफ़ाम ।
 

 

जून 19, 2024

POST : 1845 झूठ कल्पना सच से परे ( हम कैसा समाज ) डॉ लोक सेतिया

     झूठ कल्पना सच से परे ( हम कैसा समाज ) डॉ लोक सेतिया  

जिस तरह से कोई जादूगर किसी को सम्मोहित कर लेता है हमारी दशा उस व्यक्ति जैसी है जो जादूगर चाहता है वही दिखाई देता है । हमारी फ़िल्में टीवी सीरियल से आधुनिक तथकथित सीरीज़ तक सभी रोमांचक बनावटी कथित तौर पर वास्तविक घटनाओं पर आधारित कहानियां सत्य से परे और समाज को रास्ता दिखाने की बात कह कर गुमराह करती हुई हैं । हमने अपने विवेक सोच समझ अपनी बुद्धि से काम नहीं लेकर उनको स्वीकार ही नहीं कर लिया बल्कि हमारे मन मस्तिष्क पर उनका ऐसा गहरा असर हुआ है कि हम जो सच सामने दिखाई देता है उस पर ही शंका करने लगते हैं और सोच कर घबराने लगते हैं कहीं कुछ बुरा घटित होने वाला है । हम दुनिया की बात क्या करें खुद अपने आप से अनजान हैं अजनबी लोग अपने और अपने बेगाने लगते हैं । सामने जिधर भी नज़र जाती है अफ़साने पुराने लगते हैं समझना नहीं समझ आते नहीं बहाने बनाने लगते हैं । ज़िंदगी से रूठे हैं मौत को मनाने लगते हैं ज़मीं से नहीं रिश्ता कोई आशियां आस्मां पर बनाने लगते हैं किसी की बात का कोई ऐतबार नहीं करता सब हर किसी को आज़माने लगते हैं । नज़र से नज़र मिलते ही हम ख़ुद नज़रें चुराने लगते हैं । पलक झपकते ही ग़ायब होने वाले क़रीब जिनको लाने में कितने ज़माने लगते हैं , इस महफ़िल में सभी ख़ामोशी की दास्तां ज़माने की सुनाने लगते हैं । हर तरफ मेले ही मेले हैं सभी लोग रहते अकेले हैं किसी को फुर्सत नहीं दुनिया के सौ झमेले हैं । 
 
जाने कैसे ये ग़ज़ब हुआ कि हम आस - पास अपने वास्तविक समाज से कटकर किसी काल्पनिक दुनिया में खोये रहते हैं । सोशल मीडिया इक जाल है जिसे बुना है कुछ ख़ुदगर्ज़ लोगों ने और धीरे धीरे कितने लोग उन से सबक सीख कर इस का इस्तेमाल कर मालामाल होने लगे हैं , ऐसे तमाम लोगों को समाज की मानवता की सच्चाई की कोई परवाह नहीं ये सब भाड़ में जाएं उनकी बला से । हम जब भी इस दुनिया से उकताते हैं और निराश होकर बाहर निकलना भी चाहते हैं तब किसी शराबी की तरह इसका नशा हमको वापस खींच लाता है । कितना कमज़ोर और बेबस कर दिया है इक ऐसी झूठी बनावटी दुनिया ने जिस का कोई अस्तित्व ही नहीं है । काल्पनिक लोक से किसी को वास्तविक कुछ भी हासिल नहीं हो सकता लेकिन कोई सोचना ही नहीं चाहता है कि ख्वाबों सपनों की इक सीमा होती है नींद खुलते ही सपने बिखर जाते हैं । कभी जब हम सम्मोहन से बाहर निकलेंगे तो कठिन होगा स्वीकार करना कि जिस को कब से हक़ीक़त समझते रहे वो रेगिस्तान की चमकती रेत थी और हमने उसे पानी समझ अपनी प्यास बुझानी चाही । आदमी जब मृग की तरह मृगतृष्णा का शिकार हो जाता है तो दौड़ते दौड़ते जीवन का अंत हो जाता है ।  शायर राजेश रेड्डी जी की ग़ज़ल पेश है । 
 

अब क्या बताएं टूटे हैं कितने कहां से हम , खुद को समेटते हैं यहां से वहां से हम । 

क्या जाने किस जहां में मिलेगा हमें सुकून , नाराज़ हैं ज़मीं से ख़फ़ा आस्मां से हम । 

अब तो सराब ही से बुझाने लगे हैं प्यास , लेने लगे हैं काम यकीं का गुमां से हम । 

लेकिन हमारी आंखों ने कुछ और कह दिया , कुछ और कहते रह गए अपनी ज़ुबां से हम । 

आईने से उलझता है जब भी हमारा अक़्स , हट जाते हैं बचा के नज़र दरमियां से हम । 

मिलते नहीं हैं अपनी कहानी में हम कहीं , ग़ायब हुए हैं जब से तेरी दास्तां से हम । 

ग़म बिक रहे थे मेले में ख़ुशियों के नाम पर , मायूस हो के लौटे हैं हर इक दुकां से हम ।

 
 
 Shayari of Rajesh Reddy
 

जून 16, 2024

POST : 1844 कुछ नहीं पहले था बाद भी नहीं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     कुछ नहीं पहले था बाद भी नहीं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

आग़ाज़ से अंजाम तक सिर्फ मैं ही मैं हूं इस देश में कुछ भी नहीं था मुझ से पहले यही सत्य है आपको जो भी दिखाई देता था वास्तविकता नहीं था इक भ्रम था कोई मायाजाल था । मुझे किसी ने नहीं बनाया जनता ने नहीं चुना बल्कि इस देश की जनता को मैंने चुना था कल्याण करने को । सदियों से लोग जिस भगवान ईश्वर अल्लाह वाहेगुरु ख़ुदा की आराधना पूजा ईबादत किया करते थे वो पाषाण था कुछ देखता सुनता बोलता नहीं था मैं सिर्फ मैं साक्षात दर्शन देता हूं हर पल हर टीवी चैनेल पर अख़बार में दुनिया भर में चिपकाए खूबसूरत रंग बिरंगे चमकदार इश्तिहार में । अलग बात है मेरे इस कलयुग के आधुनिक अवतार में सारा विश्व है जिस लंबी लगी कतार में पहला भी मैं अंतिम भी छोर पर मेरा ही कोई हमसाया बदले किसी किरदार में । मैंने खुद को बनाया तभी सब कुछ आपको दिखलाया , झूठ सच से कितना बड़ा है कोई कभी नहीं जान पाया । बिन बुलाए चला आया कहकर मैया ने है मुझे बुलाया मेरा भेद कभी नहीं कोई समझ पाया , दुनिया वालों ने सब कुछ खोया बस एक मैंने सभी कुछ पाया । मैंने क्या नहीं कर दिखाया हर खोटा सिक्का मैंने बाज़ार में दोगुना चौगुना दाम पर चलाने का कीर्तिमान बनाया । मुझसे रूठ कर किधर जाओगे जिस तरफ जाओगे मुझसे ही टकराओगे । मेरे सामने हाथ फ़ैलाओगे मुझे फ़रिश्ता समझ मेरे भजन गाओगे भूखे रहकर की खैर मनाओगे । यही नसीब है इस गरीब देश की जनता का सर उठा नहीं सकते इक बार जो झुकाओगे । सारे जहां से अच्छा नेता कोई और नहीं है कहते हैं ग़ालिब इश्क़ पर ज़ोर नहीं है मेरे दर को छोड़ मिलता कोई ठौर नहीं है । सब जानते हैं मुझे आता कोई तौर नहीं है बाहुबली से पूछना क्या मुझसे कमज़ोर नहीं है । सब मेरा है किसी का मालिक कोई और नहीं है मैं उड़ती पतंग हूं जिस की कोई डोर नहीं है । जंगल में नाचता कोई भी मोर नहीं है मत पूछना किसने मोर चुराया है कौन चोर नहीं है । चोर मचाये शोर का ये दौर नहीं है किस ओर नहीं है फिर भी सभी जगह है किस ओर नहीं है ।  
 
भगवान ने दुनिया बनाई या दुनिया ने भगवान बनाया ये राज़ कोई नहीं जानता लेकिन मुझे पता है मैंने खुद को बनाया है किसी ने भी मुझे नहीं बनाया है । मेरे राजनैतिक दल का अस्तित्व मुझी से है सांसद विधायक प्रधान सचिव से मंत्री क्या संत्री क्या सभी मुझ में शामिल हैं उनका नाम काम अंजाम सब  केवल मैं ही हूं । बाक़ी सभी दल के सदस्य मेरे बनाये माटी के खिलौने हैं जब चाहे जिस से खेल सकता जब जी भर जाए तोड़ मरोड़ कर फेंक सकता हूं । मिटाना ही आता है मुझे लिखना नहीं आता है इसलिए मैंने इतिहास को मिटाया है जो बचा है मिटा कर ख़ाक़ में मिलाना है कोई नया इतिहास नहीं बनाना है । धुंध फ़िल्म मैंने धुंध में ही देखी थी कोई दोस्त साथ था हैरान था ऐसा भी होता है रात घर से निकले चाय पीने और पहुंच गए सिनेमाहॉल को ।
मेरा दल मुझ में ऐसा समा गया है हर कोई ख़ुद अपने आप से घबरा गया है उनको अपना अस्तित्व खोना इतना भा गया है , ज़हर पिलाया मैंने कहते हैं मौत का ख़ौफ़ नहीं ज़िंदगी से सरोकार नहीं , जीत नहीं हार है लेकिन मज़ा आ गया है । 

संसार की हर शय का इतना ही फ़साना है ,  

इक धुंध से आना है इक धुंध में जाना है ।   

ये राह कहां से है ये राह कहां तक है ,        

ये राज़ कोई रही समझा है न जाना है ।  

इक पल की पलक पर है ठहरी हुई ये दुनिया , 

इक पल के झपकने तक हर खेल सुहाना है । 

क्या जाने कोई किस पर किस मोड़ पर क्या बीते , 

इस राह में ऐ राही हर मोड़ बहाना है । 

हम लोग खिलौना हैं इक ऐसे खिलाडी का , 

जिस को अभी सदियों तक ये खेल रचाना है । 

( शायर : साहिर लुधियानवी , फिल्म धुंध का गीत )

 
Jab kahi pe kuch nahi bhi nahi tha wahi tha wahi tha (Kun Faya Kun)

जून 14, 2024

POST : 1843 ये इश्क़ नहीं आसां ( बैसाखियों का मज़ा ) डॉ लोक सेतिया

     ये इश्क़ नहीं आसां ( बैसाखियों का मज़ा ) डॉ लोक सेतिया  

आज फिर इक फ़िल्मी दृश्य से शुरुआत करते हैं , राजपाल यादव अभिनय और कॉमेडी दोनों लाजवाब करते हैं । वाशरूम जाते हैं जो बैसाखियां हैं उनको भीतर इक तरफ रख कर नृत्य करते हैं और जिस महिला डॉक्टर से मिलने आते हैं उस नायिका का नाम ले कर कहते हैं उनकी खतिर जीवन भर ऐसे ही रहना मंज़ूर है । नायक सलमान खान देख कर हैरान हो जाते हैं , ऐसी बैसाखियां कितनी कीमती होती हैं आशिक़ ही ये राज़ समझते हैं । इधर सरकार बनी तो लोग कहने लगे दो बैसाखियां पुरानी देखी भाली हुई बेहद कमज़ोर हैं पता नहीं कब धड़ाम से सरकार गिर सकती है । बैसाखियों पर मैंने गहन शोध किया है बरसों बरस तक । टीवी चॅनेल अखबार जाने कब से सरकारी बैसाखियों के सहारे तेज़ बहुत तेज़ दौड़ रहे हैं उनको पता है ये भले भरोसे के काबिल नहीं सत्ताधारी नेता अधिकारी वर्ग लेकिन उनकी चाहत नाम शोहरत की ऐसी कमज़ोर नस है जिस पर हाथ रख कर पत्रकार मनचाहा वरदान हासिल कर लेते हैं । सरकार भी जानती है जो बिक जाए वो कभी खरीदार नहीं हो सकता ये दुनिया का दस्तूर है । सभी जानते हैं पिछले दस साल तक उनकी सरकार बहुमत से अधिक कुछ और चीज़ों पर कायम रही है , बस वो बैसाखियां पर्दे के पीछे से आसरा देती रही हैं जान कर भी अनजान बनते हैं लोग समझदार होकर समझते नहीं हैं । सरकार बैसाखियों को पकड़े हुए दिखाई देती है जबकि जकड़ रखी बैसाखियां समझती हैं हाथ छुड़ाना अपना अस्तित्व मिटाना है , इसी को राजनीति में घठबंधन धर्म कहते हैं । दुश्मन को चूड़ियां पहनानी हैं मगर हाथ खाली नहीं ये समस्या कोई नहीं समझता है चूड़ियों की खनक पायल की झनक सिर्फ आशिक़ समझता है झुमका बरेली वाला कानों में ऐसा डाला झुमके ने ले ली मेरी जान हाय मैं तेरे कुर्बान । 
 
 फिल्म में राजपाल यादव जी वाशरूम से निकलते हुए हाथ धोने लगते हैं , मगर धोते नहीं रुक जाते हैं , और बोलते हैं जाओ हाथ नहीं धोता इन गंदे हाथों से हाथ मिलाउंगा सभी से । ये मज़ा कोई आशिक़ ही लेता है या फिर राजनीति में सरकार का बहुमत पाने को कोई शासक , हाथ धोकर पीछे पड़ना बाद की बात होती है पहले हाथ मिलाते हैं गंदे हाथ साफ़ करना संभव नहीं कितनी बार हाथ धोये कोई । कोरोना कब का चला गया हाथ छुड़ा कर सभी से हम हाथ मलते रह गए । 
 
सत्ता में जन्म जन्म का साथ नहीं होता है , तमाम उम्र कहां कोई साथ देता है कदम दो कदम भी साथ निभाना बड़ी बात है । अभी तो चांदनी रात है मेरे हाथों में तेरा हाथ है डरने की क्या बात है जब पिया साथ है । सावन की बरसात है खूबसूरत समां है हमसफ़र साथ है , ऐसे में इक महिला मित्र की कविता याद आई है कुछ भी नहीं दिल से दिल की बात है , मन की बात और दिल की बात थोड़ा अंतर समझ नहीं आता दिल का क्या है दिल तो दीवाना है दिल तो पागल है दिल दिया दर्द लिया कितनी सारी दिल की बातें हैं । चलो सजना जहां तक घटा चले , लगा कर मुझे गले , मेरे हमसफ़र मेरे दोस्त फिल्म का गीत गाते गाते चलते ही जाना है । 

चलो चलें ( कविता ) रश्मी शर्मा

चलो चलें कही दूर
हम दोनों संग चलें
उड़ जायें कहीं  दूर
नीले  आसमान में
उन्मुक्त परिदों की
तरह उड़ान भरने ।
 
चलो न ऐसे जहाँ में
जहाँ बस प्रेम ही हो
खुशियां ही रहती हों
नित ही नव - पल्लव
बागों में खिलते हों
भ्रमर का गुंजन हो
तितलियों मनभावन
फूलों पर नृत्य करना हो ।
 
चलो चलें  न कहीं  दूर
ये सारा जहाँ हमारा हो ।
 
चलो चलें  खो जायें  हम
किसी को नज़र  न आयें
आसमां की गहराइयों में
हमसफर बन चले दोनों
सफ़र की इस तन्हाई में
मीत बन जायें इक दूजे के ,
हर कदम संग चलते जायें ।
 
चलो चलें  न कहीं  दूर
ये सारा जहाँ हमारा हो ।
 
चलो प्रेम भरे गीत गायें
साथ - साथ हँसते जायें
छू लें  इन चाँद सितारों को ,
 
फिर कोई नया नगमा
हम दोनों मिलकर गायें
चाँद से चाँदनी को हम
चुपके से यूँ ही चुरा लायें ।
 
चलो चलें न कही दूर
ये सारा जहाँ हमारा हो ।
 
रश्मि शर्मा "इंदु"   (  जयपुर राजस्थान )

( लेखिका से अनुमति ले कर आभार सहित शामिल किया है। )
 
 दिन में कितने क़दम चलना आपको बना सकता है सेहतमंद? - BBC News हिंदी

जून 13, 2024

POST : 1842 बन बैठे मालिक हैं किरायेदार ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      बन बैठे मालिक हैं किरायेदार ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

लाएंगे हम नई बहार , पतझड़ रही दो बार तीसरी बार होगा अलग संसार हम नहीं कहलाएंगे बस किरायेदार । अपना होगा कुल बाज़ार अब नहीं होता इंतिज़ार , हम दोनों बचपन के यार अमर रहेगा अपना प्यार । पर इक मुश्किल तू उस पार मैं इस पार बीच में दरिया है मझधार । कौन चोर है कौन बटमार करना नहीं इस पर सोच विचार हमको बनानी है सरकार धन दौलत खूब कमाया दिल मांगे सब अबकी बार खरीदनी है नई नवेली इक कार खाना पहनना हुआ बेकार । क़र्ज़ लेकर घी पीना है हमको मिलकर संग-संग जीना है मेरा हलवा पूरी तुम्हारा खट्टा मीठा अचार सब है पास मौज मनाएं सारी दुनिया को दिखलाएं उल्लू सभी को बनाकर सिर्फ हम कहलाएं समझदार । मैं तुझको महापंडित मानता तुम भी मुझको मानते आधुनिक युग का कोई अवतार कौन कहता है काठ की हांड़ी चढ़ती नहीं दूजी बार अपना है अजब इश्तिहार तीसरी बार हम होंगे उस पार । हमने देखा है इक सपना फूलों के नगर में घर अपना , चाहे हमने बबूल उगाये लेकिन आम सभी बाग़ से चुराये मिलकर अपनों से खाये खिलाये माली बनकर गुलशन रौंदा कलियों को मसला खलियान को रौंदा । कुछ कागज़ कहीं से बनवा लाये हैं जो लाया सबको उसको हम लाये हैं अब कोई अपने सिवा नहीं किसी का लोग कहते हैं बड़े लंबे शाम वाले साये हैं हम , पर सभी साथी हैं टूटी पतवार की तरह उनका सहारा लिया है जो हाथ छुड़ा लेते हैं जब चाहे किसी और का हाथ पकड़ , उनकी आदत से घबराये हैं हम । हम दोनों ने मिलकर दुनिया का दस्तूर बनाया है सिक्का खोटा हर बार चलाया है हमने साम दाम दंड भेद सब आज़माया है कौन समझता है क्या था जो भी हमने ढाया है । नगर वालों के घर बाज़ार बस्ती मंदिर मस्जिद ज़मीन सब छीन कर कितना अनुपम मनोरम दृश्य दिखाया है , इस नगरी ने हमको आईना दिखाया है सब खोया है जब उसको भुलाया है मर्यादा छोड़ जितना पाया समझ नहीं पाए क्या क्या गंवाया है । भूखों को हमने भीख मांगना आसान है सबक सिखलाया है जो पढ़ा था सबको पढ़ाया है । आपको कुछ भी समझ नहीं आया कोई बात नहीं इस इक शहर के हर शख़्स को सब समझ आया है , साये में धूप का मतलब यही होता है जिन दरख्तों के साये में धूप लगती हो उनसे रिश्ता निभाना कठिन है । उनसे किनारा कर लिया है जिन्होंने सभी को फुटपाथ पर ही आसरा है ये बतलाया है , भूखे भजन नहीं होता , आपने कितने दिन से कुछ भी नहीं खाया है । 
 

        चलो इक ग़ज़ल पढ़ते हैं दुष्यंत कुमार कहते हैं ।


वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है , माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है । 

वो कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तुगू , मैं क्या बताऊं मेरा कहीं और ध्यान है । 

सामान कुछ नहीं है फटे - हाल है मगर , झोले में उस के पास कोई संविधान है । 

उस सिर-फ़िरे को यूं नहीं बहला सकेंगे आप ,  वो आदमी नया है मगर सावधान है । 

फिसले जो उस जगह तो लुढ़कते चले गए , हमको पता नहीं था कि इतनी ढलान है । 

वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से , ऐसा लगा कि वो भी बहुत बे-ज़बान है ।

                                                                
                
                
        Dushyant kumar ghazal wo aadmi nahi hai mukammal bayan hai         
                                
                                                

जून 11, 2024

POST 1841 कोई नई सोच नहीं नया इरादा नहीं ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

     कोई नई सोच नहीं नया इरादा नहीं ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

ज़रा सोचें कि दुनिया कितनी तबदील होती जाती है हम जैसे भी होते हैं , पुराने नहीं रहते , आधुनिक बनते हैं आधुनिकता को अपनाते हैं । इंसान ने कितने प्रयास कर जोख़िम उठा कर शोध कर दुनिया को कितना बदल दिया है । भगवान है कि नहीं इस को एक तरफ रख कर विचार विमर्श करते हैं तो समझ आता है भगवान भी हैरान होगा जिस की कल्पना तक नहीं की थी उस ने , आदमी ने उस का आविष्कार कर कीर्तिमान स्थापित कर क्या कमाल किया है । अब कुछ लोग खुश हैं जश्न मना रहे हैं कि किसी को तीसरी बार शासन करने का अवसर मिला है  , शायद किसी ने आंकलन करना ही नहीं चाहा कि पहले दो बार शासन कर उस ने कितना शानदार कार्य किया है या कैसा किया है । जीवन में अवसर सभी को नहीं मिलते हैं लेकिन कुछ ही लोग अवसर मिले तो कुछ अलग कुछ नया और अच्छा कर दिखाते हैं । सिर्फ दिखावे की अंधी दौड़ में तो हर कोई शामिल है सभी ने अपना मकसद बना रखा है धन दौलत पद प्रतिष्ठा साधन सुविधाओं को अन्य सभी को पीछे छोड़ना एवं उनसे बढ़कर हासिल करना । कोल्हू का बैल उसी दायरे में चलता रहता है क्योंकि उस से काम लेने को किसी ने उसकी आंखों पर पट्टी बांधने को खोपरे चढ़ाए जाते हैं जिस से उसे दिखाई नहीं देता कोई हांकने वाला है चाहे नहीं और उसे घूमना है उसी परिधि में इक रस्सी से बंधे जो इधर उधर जाने ही नहीं देती है । विरले लोग होते हैं जो पुरानी राहों पर नहीं चलते बल्कि अपनी कोई नई राह बनाते हैं जिस से बाद में लोग आते जाते हैं , महान लोग रास्तों से कांटे हटाते हैं फूल खिलाते हैं ज़माना कोई रेगिस्तान जैसा है कुछ लोग वहां नदी को लाते हैं नहीं आए तो कोई तालाब बनाते हैं । मतलबी लोग सिर्फ अपनी सोचते हैं मगर अच्छे लोग सभी की प्यास बुझाते हैं दिखावा नहीं करते अपना मानवधर्म निभाते हैं । 

अधिकांश कुछ कर दिखाने को जो भी पुराना उनको अच्छा नहीं लगता उसको ढाकर फिर से कोई ईमारत बनाते हैं हासिल कुछ हो नहीं हो अपने आंकड़े बढ़ाते हैं । शासक हमेशा से आते हैं चले जाते हैं बस कुछ होते हैं जो हमेशा याद आते हैं अधिकतर को लोग भूल जाते हैं कभी कभी समाधिस्थल पर औपचारिकता निभाने को फूल चढ़ाते हैं श्रद्धा जताते हैं । वास्तविक नायक सत्ता शोहरत की भूख नहीं रखते उनके आचरण से सभी उनको विशेष अलग अनोखा बताते हैं । आज़ादी के इतने साल बाद क्यों लोग बेघर हैं शोषित हैं बेबस हैं क्यों सभी को समानता की तलाश है ज़िंदगी सूनी है दिल निराश है , रात अंधेरी है सुबह उदास है । रहनुमाओं को फ़िक्र है सिर्फ खुद अपनी ही , कवि कहता है घोड़े को मिलती नहीं घास है गधा खा रहा च्ववनप्राश है । इधर कुछ लोग भवष्य में नहीं अतीत में जाना चाहते हैं , वर्तमान को स्वीकार नहीं करते है न ही मानते है कि कुछ भी कर के कोई बीते कल को वापस नहीं ला सकता है । जहां तक भविष्य की बात है कोई नहीं जानता क्या होगा लेकिन कोशिश करना कि आज से बेहतर बनाने की ज़रूरी है साथ ही सकारात्मक दृष्टिकोण का होना अनिवार्य है । संक्षेप में इक सार्थक बात है जो मुझे भी पचास साल पहले इक पत्रिका के कॉलम से समझ आई थी , सरिता पत्रिका के हर पाक्षिक अंक में विश्वनाथ जी लिखते थे जो बात दोहराता हूं । 
 
बड़े हुए शिक्षा हासिल की नौकरी कारोबार करने लगे विवाह किया संतान का पालन पोषण किया कोई घर बनाया कुछ सुःख सुविधा के साधन जुटाए , ये सब अनपढ़ भी कर ही लेते हैं , पशु पक्षी जानवर भी कोई घोंसला कोई ठिकाना बना लेते हैं । आप शिक्षित हैं विवेकशील हैं तो आपको अपने देश और समाज को बेहतर बनाने को कुछ अवश्य करना चाहिए , ये आपका कर्तव्य है क्योंकि आपको जितना मिला है अधिक योगदान सामाजिक व्यवस्था का है अन्यथा कोई कितना काबिल हो कितने धनवान पिता माता की संतान हो सब नहीं संभव होता । अजीब विडंबना है माटी का क़र्ज़ या देश के प्रति प्यार की भावना दिखाई देती है शब्दों में ही आचरण में उस की कीमत चुकाना कोई नहीं चाहता है । बचपन की कहानियां नैतिक मूल्यों की और ऊंचे आदर्श सादगी भरा जीवन का सबक कोई आजकल पढ़ाता नहीं समझाता नहीं । शिक्षा से नौकरी कारोबार में पर्तिस्पर्धा का इक पागलपन है जो सिर्फ मृगतृष्णा ही है , आदमी को कितनी ज़मीन चाहिए बस दो ग़ज़ ज़मीन इक अंग्रेजी कहानी है , हाउ मच लैंड ए मैन नीड । यही होने लगा है अधिक की चाहत में जीवन का अंत आ जाता है मंज़िल वही है ख़ाक में मिल जाना ।     

How Much Land Does A Man Need (Classics To Go) eBook : Tolstoy, Leo:  Amazon.in: Kindle स्टोर
 
 

जून 09, 2024

POST : 1840 तीसरी कसम निभाना ( अफ़साना ए सियासत ) डॉ लोक सेतिया

  तीसरी कसम निभाना ( अफ़साना ए सियासत ) डॉ लोक सेतिया 

आपकी कसम , क्या क्या कसमें वादे लोग कहते हैं , झूठ नहीं कसम से , यहां अदालत में धार्मिक ग्रंथ पर हाथ रख कर सच बोलने की कसम खिलाई जाती है निभाई नहीं जाती अधिकांश मुकदमों में । लेकिन भारत इक लोकतंत्र है जिस में उच्चतम पद पर नियुक्ति करते समय संविधान और ईश्वर की शपथ उठवाई जाती है । कुछ कठिन कार्य नहीं पूरी निष्ठा संविधान के प्रति रखना और सभी के साथ न्याय की भावना रखना किसी से अनुराग अथवा पक्षपात नहीं करना । दो बार पहले उठाई है कसम मगर दिल पर हाथ रख कर बताना कभी याद भी आई वो शपथ , शायद ही कोई ऐतबार करेगा क्योंकि आपने हमेशा धर्म से लेकर विपक्षी दलों की ही नहीं पिछले सभी शासकों की अनुचित आलोचना करते समय किसी मर्यादा का कभी पालन नहीं किया है । देश के सभी लोगों की समानता की बात की भावना का पूर्णतय: आभाव रहा है । देशसेवा समाज की भलाई से पहले खुद को बड़ा महान और लोकप्रिय बनाने पर रात दिन एक करने को जनता का कल्याण नहीं कहते हैं । निंदक नियरे राखिए की बात आपको स्वीकार नहीं है जो आपकी बात से सहमत नहीं उसको क्या क्या नहीं घोषित किया गया बल्कि आपने अपना तथकथित आईटी सेल बनाकर विरोध करने को अपराध जैसा मानते हुए भाई को भाई से लड़वाने का कार्य किया है । आपको ये अवसर मिला है तो जो करना नहीं चाहिए था मगर आपने किया डंके की चोट पर और उस में सफल होकर अहंकार से सीना चौड़ा किया , अब उस सब का पश्चाताप और प्रयाश्चित करने पर विचार कर भूलसुधार किया जा सकता है । आपको तीसरी बार शपथ लेने पर शुभकामना देते हुए ये संदेश देश हित और समाज कल्याण की कामना से भेज रहा हूं । 
 
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जून 08, 2024

POST : 1839 झुक गया आसमान ( 2024 चुनाव ) डॉ लोक सेतिया

       झुक गया आसमान ( 2024 चुनाव ) डॉ लोक सेतिया 

याद आया आपको अभिनेता राजेंद्र कुमार अभिनेत्री सायरा बानो की 1968 में इक फ़िल्म आई थी प्यार और कॉमेडी का संगम था । कहानी में ऊपरवाले से इक भयंकर भूल हो जाती है मौत का फ़रिश्ता उसी शक़्ल के किसी दूसरे व्यक्ति के प्राण हर लेता है रूह को ऊपर की दुनिया में ले जाता है । जब धर्मराज को माजरा समझ आता है तो यमराज को आदेश देता है इस भले व्यक्ति को फिर से ज़िंदा कर इक बदमाश की जान लेनी है । समस्या तब खड़ी होती है जब धरती पर वापस पहुंचने पर देखते हैं कि उसकी लाश को जलाया जा चुका है । धर्मराज उपाय बताते हैं कि इस शरीफ व्यक्ति की आत्मा को बदमाश व्यक्ति की रूह निकलते ही मृत शरीर में प्रवेश करवा समाधान किया जा सकता है । लेकिन नायक ज़िद पर अड़ जाता की बदमाश की जगह जीने से उसको सभी बुरा समझेंगे लेकिन शर्तों को मनवा कर तैयार हो जाता है । ये केवल बताने को लिखा है आधुनिक संदर्भ में इस आलेख से इसका कोई भी संबंध कदापि नहीं है , बात अब शुरू करते हैं । 
 
इस चुनाव को लेकर जानकर कितनी राय दे रहे हैं उनका विश्लेषण राजनैतिक सामाजिक अथवा अन्य आधार पर है । ये ज़रा अलग ढंग से जीत हार को एक तरफ कर कौन क्या चाहता था और किस को क्या हासिल हुआ ये देखना है । किसी को सिर्फ एक ही चाहत थी किसी और की बराबरी कर तीसरी बार लगातार सत्ता पर बने रहना और ऐसा करने के लिए विचार क्या अपने दल क्या गठबंधन क्या सबको पीछे रख कर सिर्फ और सिर्फ खुद अपने नाम पर जनादेश मांगा था अपने नाम को गारंटी घोषित किया था । लगता नहीं किसी ने गारंटी पर भरोसा किया दल को भी नहीं बहुमत मिला भी तो गठबंधन को शामिल करने के बाद । लगता है उनकी धड़कन और चिंता की रफ़्तार वही समझते हैं लेकिन खुद को सिर्फ एक मैं ही हूं की सोच निकलते पता ही नहीं चला बस किसी तरह दस्तार बच गई ये तसल्ली हुई । लेकिन तीसरी बार जनमत हासिल करने में क्या नहीं करना पड़ा और किस हद तक नीचे के स्तर तक आना पड़ा विचार करेंगे तो मुमकिन है समझ आए कि सौदा बड़ा ही महंगा पड़ा है , कभी हार कर भी शान बची रहती है कभी जीत कर भी लोकलाज और नैतिकता के तराज़ू पर हल्के साबित होते हैं । ये बताना भूलना नहीं कि जिनकी बराबरी करना चाहते हैं दस साल तक उनको बुरा साबित करने को बदनाम करने को कितना अशोभनीय आचरण नहीं किया । और उन्होंने कभी सत्ता से ऐसा मोह नहीं दिखाया था जैसा इन्होने किया जो भी जाए सत्ता मिल जाए । 
 
अब विपक्षी गठबंधन की बात करते हैं उनका घोषित मकसद था लोकतंत्र और संविधान को बचाना जिसे उन्होंने हारने के बावजूद भी हासिल कर लिया है । अब दस साल तक जिस तरह मनमाने ढंग से सत्ता और संविधानिक मर्यादा की परवाह नहीं कर मनमानी की आधुनिक जनादेश में संभव नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा करते ही जिन बैसाखियों का सहारा है उन से अवरोध मिलने का खतरा है । सही में अब सभी को साथ रखना मज़बूरी होगा और आप कोई बाजपेयी भी नहीं जो सत्ता को चिमटे से भी नहीं छूने का संकल्प लेते हैं और त्यागपत्र दे देते हैं । आसमान को झुकाया भी और इस तरह से कि आसमान धरती के सामने नतमस्तक होने को विवश है , शायद अभी कुछ और समझना बाक़ी है । सच्चाई है कि आसमान का कोई अस्तित्व ही नहीं होता है वो सिर्फ हमारी आंखें नज़र जहां तक देख सकती हैं उसका अंतिम छोर ही है । विपक्षी गठबंधन की सफलता है कि आसमान को झुकना पड़ा है और सत्ता को शर्तों से बांध दिया है गठबंधन के सहयोगी दलों में । त्रिशंकुः जैसी हालत बन गई है , इक कविता से अंत करता हूं । 
 
 

तुम्हारी विजय , मेरी पराजय ( कविता )  डॉ लोक सेतिया

छल कपट झूठ धोखा
सब किया तुमने क्योंकि
नहीं जीत सकते थे कभी भी
तुम मुझसे
इमानदारी से जंग लड़कर ।

इस तरह
तुमने जंग लड़ने से पहले ही
स्वीकार कर ली थी
अपनी पराजय ।

मैं नहीं कर सका तुम्हारी तरह
छल कपट कभी किसी से
मुझे मंज़ूर था हारना भी
सही मायने में
इमानदारी और उसूल से
लड़ कर सच्चाई की जंग ।

हार कर भी नहीं हारा मैं
क्योंकि जनता हूं
मुश्किल नहीं होता
तुम्हारी तरह जीतना
आसान नहीं होता हार कर भी
हारना नहीं अपना ईमान ।




Jhuk Gaya Aasman (1968) | MemsaabStory

POST : 1838 सर ऊंचा आबरू लुटवा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

          सर ऊंचा आबरू लुटवा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

देश की हालत को देखते हैं नेटफ़्लिक्स पर हीरामंडी को देखते हैं लगता है इक जैसे हैं चमक दमक से लेकर बिकने तक सत्ता की खातिर कुछ भी करने को बदन से आत्मा तक का सौदा खुलेआम होता है । दुश्मनी से दोस्ती तक भरोसा नहीं कब कौन किस किरदार में दिखाई देने लगे । शान से जिस्मफ़रोशी के बाज़ार में राजे रजवाड़े जागीरदार जाते हैं किसी की आबरू लूटने में अपनी उतरवा आते हैं । जिसकी आवाज़ किसी को सुनाई नहीं देती वो चमाटा ख़ुशी ख़ुशी खाते हैं । ठीक ऐसे में किसी कमज़ोर महिला ने किसी ताकतवर महिला को थप्पड़ लगाया है इक पुराना सबक याद आया है , यही ज़ुबान तख़्त पे बिठाती है यही किसी को इक दिन सूली पर चढ़ाती है । मालूम नहीं किसलिए पुरानी कहावतें अपने आप याद आने लगी हैं जिनको कब का भुलाए बैठे थे । आशिक़ लाख कोशिश करता है दिल टूटने पर महबूबा को भुलाने की मगर शाम ढलते ही उसकी याद सताने लगती है ऐसा ही इक गीत पता नहीं कैसे इक दोस्त ने हंसी मज़ाक़ में मेरी पहचान बना दी । मुझे भी कुछ दोस्त किसी गीत को सुनकर या कोई फ़िल्म पुरानी देखकर बहुत याद आते हैं , वापस सही विषय पर लौट आते हैं । मुल्तानी कहावत है ढठी हाई खोते तूं ते लड़ी हाई कुंभार नाल । हिंदी में अनुवाद है कि गधे पर बैठ कर सफ़र कर रही थी अचानक गधे ने गिरा दिया तो पत्नी अपने पति कुंभार से झगड़ने लगी ।थप्पड़ भी किसी ने खाया है लेकिन दोषी कोई और था जो उसका मालिक जैसा है गुस्सा उस पर निकालना था निकला किसी पर । करे कोई भरे कोई वाली बात है बस किसी इक से नारज़गी ने कितने बेकसूर लोगों को गुस्सा झेलना पड़ा है चुनावी नतीजों का ये सार समझा कोई भी नहीं बल्कि जिस की ऊट - पटांग बातों से जनता को ऐतराज़ था उसे अभी भी अपनी गलती का एहसास नहीं वो आज भी कुछ दिन चुप रहकर फिर अपने पुराने किरादर में आने लगा है । इंसान की फ़ितरत बदलती नहीं अक़्सर गिरगिट की तरह रंग बदलना जाता नहीं है मज़बूर है झूठ का पुजारी है सच उसको भाता नहीं है । इक कहावत है ऊंचाई से गिर कर दोबारा ऊपर जा सकता है नज़रों से गिर गया जो फिर दिल उसको अपनाता नहीं है ।  
 
कथा कहानियों कहावतों कल्पनाओं से निकलते है खुली हवा में ज़माने से मिलते हैं । आपने मुझे मारा ठीक है लेकिन इतना बताओ गुस्से में पिटाई की या कोई मज़ाक़ था । जवाब मिला गुस्सा हैं तुम पर सुनकर कहने लगे फिर ठीक है क्योंकि मुझे मज़ाक पसंद नहीं , लेकिन आपकी तो आदत है सभी का उपहास करते हैं तो कहने लगे बादशाह लोग मज़ाक़ ही करते हैं उनको कुछ और करना नहीं आता जब तब ये उनका विशेष अधिकार है । राजा नंगा है कहना हमेशा गुनाह रहा है किसी को मुझे आप नंगे हो चुके हैं कभी नहीं कहना चाहिए । जैसे मैंने पिछले शासक का उपहास किया था कि कोई रेन कोट पहन कर नहाते थे जो कोई दाग़ नहीं लगा उन पर अन्यथा सत्ता के हम्माम में नंगा कौन नहीं हमने सभी दाग़दार लोगों को अपने साबुन से चमकदार सफ़ेद ही नहीं बना दिया बल्कि काला धन सफेद धन का भेदभाव मिटा दिया । जिस ने हाथ नहीं मिलाया उसका हाथ ही कटवा दिया , नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली कहावत सुनते थे हमने उस का आंकड़ा लाखों करोड़ तक क्या उस से भी आगे पहुंचा दिया । कोठेवाली की रोज़ सुहागरात होती है सत्ता की कुछ ऐसी बात होती है खुद को नहीं अपना सर्वस्व बेच कर भी हम शर्मिंदा नहीं हैं अपने धंधे को हमने कभी बुरा नहीं समझा बदनाम होना कोई आसान बात नहीं है । शरीफ़ लोगों को दुनिया भुला देती है जैसे हमको लगा था महात्मा गांधी को कोई नहीं जानता लेकिन हिटलर को दुनिया चाहे भी तो भुला नहीं पाएगी । कभी तन्हाइयों में यूं हमारी याद आएगी । ये बिजली राख कर जाएगी तेरे प्यार की दुनिया , ना फिर तू जी सकेगा और ना तुझको मौत आएगी । जिनको बात करने का सलीका नहीं आता है महफ़िल में रौनक है उनकी और जिनकी सूरत ऐसी जैसे कैक्टस का चेहरा , दिखाई देते हैं आईनाख़ाने में ।
 
नीरज श्रीवस्तवा आभाकाम

                        

जून 06, 2024

POST : 1837 क्यूं नाचे सपेरा ( विद्रूप ) डॉ लोक सेतिया

            क्यूं नाचे सपेरा ( विद्रूप ) डॉ लोक सेतिया 

सरकार हज़ूर की हालत खराब होगी कौन सपने में भी सोचता था कभी लेकिन इस कदर खराब होगी ये तो अभी भी भरोसा नहीं होता है ।  कहते हैं कि शेर कितना भी भूखा हो कभी घास नहीं खाया करता है यहां तो हाथ पसारे उनसे आसरा मांगना पड़ रहा है जिनको समझते थे भला ये भी कोई औकात रखते हैं । आपके पास जितनी भी गिनती हो किसी काम की नहीं मगर उनकी छोटी छोटी संख्या आपकी झोली को भर सकती है । सभी को शंका थी वो जिनको हज़ूर सरकार ने कभी अपने बराबर नहीं समझा आज अवसर मिला है तो हिसाब किताब बराबर करने से चूकेंगे नहीं । लेकिन कमाल है वो फिर भी बेरहम कहलाना नहीं चाहते बस इक भरम रखने को सहारा देने को राज़ी हुए हैं मगर सभी की कई कई शर्तें हैं । हैरान हुए वो ही नहीं आपके अपने भी सुनकर कबूल है कबूल है की आवाज़ बगैर जाने कि किन शर्तों की बात है । जानते हैं कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है लेकिन इक फ़िल्मी डायलॉग है कठपुतली करे भी तो क्या धागे किसी और के हाथ में हैं नाचना तो पड़ेगा ही । जिसको लोग गब्बर सिंह मानते थे बसंती बनकर नाचेगा तो ज़रूर लेकिन कब तक क्योंकि जब तक उनके इशारों पर नाचोगे सरकार चलेगी सांस चलेगी हज़ूर के आशिक़ की जब भी पांव रुके खेल खत्म । कोई रोकने वाला भी नहीं बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना क्योंकि ज़माना बदल चुका है जान अपनी सब को बचानी है । ये असली घटना भी कोई काल्पनिक कहानी है , प्यास बुझाने को सिर्फ चुल्लू भर पानी है ।  आरज़ू थी जिनको सभी खुदा समझते वो तो खुद परस्तार निकले भी तो किस किस के जो अपना खुदा कितनी बार बदलते रहते हैं । चाहने वाले निराश हैं हैरान परेशान हैं कि उन्होंने जिस की ईबादत की उम्र भर अब पता चला वो तो रास्ते का कोई पत्थर था जिसे भगवान बना लिया नादानी से । नाख़ुदा को खुदा कहा है तो फिर डूब जाओ खुदा खुदा न करो , मेरे दुःख की कोई दवा न करो । 
 
आप को भी याद होगा गाइड फिल्म बनी थी जिस में नायक जाली हस्ताक्षर कर बैंक से पैसे निकालने के अपराध में सज़ा की अवधि समाप्त होने पर यूं भी चलता जाता है बिना किसी मंज़िल का पता जाने । संक्षेप में कहानी यह है कि सभी को रास्ता दिखाने वाला गाइड अपनी राह भूल जाता है । नायिका एक विवाहिता है जो अपने पति के बंधनों में जकड़ी हुई है और नायक से लगाव से वो सारे बंधन तोड़ कर नाचने लगती है जो उसकी तमन्ना थी पूरी हो जाती है । एक गांव जहां पानी की कमी है सूखा पड़ा हुआ है वह वहीं रात बिताने को खुले आकाश में सो रहा होता है और कोई साधु अपनी चादर उस पर डाल कर चला जाता है ताकि उसे ठंड नहीं लगे खुले में सोते हुए । गांव वाले उसे मसीहा समझने लगते है और कुछ ऐसा घटित होता रहता है कि वहां के पंडित ज्ञानी सभी उस की चतुराई की बातें के सामने हार मान लेते हैं । लेकिन समस्या वहां की जनता के अंधविश्वास की है और लोग सोचते हैं कि वो बरसात करवा सकता है और इत्तेफाक से एक दिन बारिश हो जाती है । गांव के लोग ही नहीं दूर दराज तक के लोग उसे कोई महान महात्मा समझने लगते है और उस की पूजा करने लगते हैं । अपनी प्रेमिका और अपनी मां को छोड़ कर दुनिया की अपनी ज़िंदगी की वास्तविकता से भागने वाला एक मसीहा कहलाने लगता है ये देख वो महिलाएं बिना किसी को वास्तविकता से अवगत कराए लौट जाती हैं । फिल्म का गीत मुसाफ़िर तू जाएगा कहां में एक पंक्ति है जो क़माल की बात कहती है ‌‌। क्यों नाचे सपेरा । 

कहानी का सार इतना सा है कि जब जो लोग ख़ूबसूरत सपनों में मग्न होकर खुश रहते हैं तब उनको कभी सच्चाई दिखाई भी देती है तो वो जागना नहीं चाहते नींद नहीं भी आए तब भी जागते हुए भी ख्वाबों की दुनिया से बाहर निकल नहीं पाते हैं । शायर का ख़्वाब हो , चौदवीं का चांद हो या आफ़ताब हो , जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो । 

 
जब शकील बदायूंनी ने लिखा- चौदहवीं का चांद... कहीं दीप जले कहीं दिल -  Shakeel badayuni birth anniversary best hindi song gazal afsana likh rahi  hoon - News18 हिंदी

जून 04, 2024

POST : 1836 बना सकते हैं पर मना नहीं सकते ( आस्था ) डॉ लोक सेतिया

    बना सकते हैं पर मना नहीं सकते ( आस्था ) डॉ लोक सेतिया 

हम सीधे साधे इंसान हैं बिना वजह सवालों से नहीं उलझते हैं , कौन कैसा भगवान किस जगह रहता मिलता भी है या ढूंढना कठिन है ऐसी बातों को छोड़ भरोसा दुनिया का कर लेते हैं तो भगवान पर भी ऐतबार कर लेते हैं । लेकिन ज़िंदगी भर उस को मनाते रहते हैं जो किस बात पर क्यों खफ़ा है नहीं जानते बस उसे अपना बनाना है हम लोग हैं मानते । रोज़ जाते हैं कुछ लोग सुबह शाम जाते हैं कुछ कभी कभी जाकर किसी जगह सर झुकाते हैं अधिकांश लोग घर में ही छोटा सा पूजाघर बनाते हैं उस को भोग लगाते हैं दीपक जलाते हैं । भगवान ऐसा लगता नहीं कि मनाने से मान भी जाते हैं लोग शिकयत करते हैं दुःख दर्द उसको सुनाते हैं जो मुमकिन है बहरा हो आंसू बहाते हैं लौट आते हैं । कहते हैं ज्ञानी लोग अजब उसकी माया है गरीबों को तपती धूप मिलती अमीरों को शीतल ढंडी छाया है । सब कुछ मिलता है वहीं से उन्हीं को जिन्होंने कोई मंदिर कोई मस्जिद गिरिजाघर गुरुद्वारा बनवाया है आम लोगों को सुकून भी नहीं मिलता सब ने जगह जगह आज़माया है । चाहे किसी ने कितना चढ़ावा चढ़ाया है थोड़ा प्रसाद पाकर भी शुक्र मनाया है पर कभी हाथ कुछ भी नहीं आया है ये सच है अंधेरे में भी छोड़ जाता साथ अपना ही साया है । भगवान जाने कहते हैं आप कुछ भी नहीं जानते उसको सब पता है ऐसा कहा करते हैं । आप भगवान से नहीं डरते हैं नहीं मालूम ये नियम किस ने बनाया है भय बिनु होई ना प्रीति , क्या वास्तव में निर्जीव विनय नहीं सुनता । पत्थर का भगवान तभी कभी किसी की व्यथा सुनता ही नहीं लेकिन हर कोई उनकी तरह धमकी भी नहीं दे सकता कि शराफ़त से बात नहीं समझते तो दंडित होने को तैयार रहो । खुद भगवान समंदर को सुखा सकते हैं बिना विचारे की जो जीव हैं सागर में उनका विनाश हो जाएगा , लेकिन हम भूले से इक प्रश्न भी करते हैं तो मूर्ख कहलाते हैं । आज हमने भी खुद दामन उनका छोड़ दिया है जिस ने हमको मझधार में बेबस अकेला छोड़ दिया है । उसके होने का यकीन रखते हैं बस नहीं इंसाफ़ करता कहते हैं , किसी को बेपनाह देता है नहीं गुनाहों की उनको सज़ा देता है और जो लोग भूखे प्यासे हैं उनका दुःख दर्द नहीं मिटाता है । ज़ालिम ज़ुल्म ढाते रहते हैं ये नज़ारा क्या ईश्वर को मज़ा देता है । कोई शायर है जो ऊपरवाले से बस यही कहता है । 
 

दर्द से मेरा दामन भर दे  या अल्लाह , 

फिर चाहे दीवाना कर दे या अल्लाह । 

मैंने तुझसे चांद सितारे कब मांगे , 

रौशन दिल बेदार नज़र दे या अल्लाह । 

सूरज सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके , 

सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह ।

या धरती के ज़ख्मों पर मरहम रख दे , 

या मेरा दिल पत्थर कर दे या अल्लाह । 

                    ( क़तील शिफ़ाई की ग़ज़ल है । )

  Dard Se Mera Daaman Bharde Ya Allah | Lata Mangeshkar Ghazals | Romantic  Ghazals | Jagjit Singh

जून 03, 2024

POST : 1835 अर्थी उठेगी या बरात निकलेगी ( लोकतंत्र का भविष्य ) डॉ लोक सेतिया

 अर्थी उठेगी या बरात निकलेगी  ( लोकतंत्र का भविष्य ) डॉ लोक सेतिया  

लगा हुआ है दरबार , क्या है जीत क्या है हार मिथ्या है सारा संसार  , जनता ने क्या किया कमाल सबकी नैया बीच मझधार इक लोकतंत्र का कायम आधार ।  कुर्सी वही रहती है हर दिन होता उसी का सोलह श्रृंगार , छोड़ दिया सब दुनिया का झूठा प्यार उनको जाना ही है उस पार । कौन सुने ऐसे समाचार जिन को सुन खाना पीना हो जाए , बेकार राजनीति है कौन संग है खुद से अपनी जंग है ,  बस कहने की होती ही क्या कोई आर या पार , कोई शिकारी बन गया कोई हुआ शिकार । जनाब ने अचानक किसी को फोन लगाया बोला वो कहिए सरकार याद किया आपने हर बार , लेकिन अभी तो नहीं मिला कोई किनारा आप हैं बीच मझधार , होगा जिया भी बेकरार । नहीं कोई चिंता की बात कट जाएगी ये भी इक रात बजेगा बैंड बाजा नाचेगी बरात , हमने बिछाई है बिसात हमसे कौन जीत सकेगा उनके घर है भीतरघात । मुझे किसी ने बताया है आपसे लोग ही नहीं अपने भी बड़े नाराज़ हैं , परेशान हैं बहुत शिकायत भी करते हैं हां मगर अभी भी गुस्सा हद से बढ़ा नहीं है । कुछ जो बंधे हैं मेरी परस्तिश में किधर जाएंगे मैं डूबूंगा साथ वो खुद मर जाएंगे । वफ़ा करने वाले रूठ कर जाते हैं शाम ढलनेलगे वापस घर आते हैं । सबको ही ज़िंदगी ने मारा है हम दुश्मन हैं अपने जहां हमारा है इक इसी बात का बाकी सहारा है । हम मुसाफिर हैं अपना यही किनारा है , कौन भला हार कर जीता है जो भी जीता है आखिर कभी दिल हारा है ।

 सत्ता का है चढ़ा सुरूर क्या बहक रहे हैं मेरे हज़ूर खाना चाहें मोतीचूर लेकिन दिल्ली है अभी दूर धीरे धीरे जाएगा सत्ता का खुमार । ये नज़ारा ऊपरवाला देख रहा था जब से सीसीटीवी लगवाया दुनिया का आंखों देखा हाल ठीक समझने लगे हैं । ग़ज़ब हैं वो जो अपने आप को भगवान समझने लगे हैं । जीवनसंगिनी चुप थी ध्यानमग्न नहीं पशेमान थी कई साल पहले इक भिखारी पर हुई मेहरबान थी पति से मांग लिया अजब वरदान था उस भिखारी को राजा बना दो उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करते रहना , ऐसा संभव नहीं मुझे मत कहना । भला पत्नी की मांग कौन पूरी नहीं करना चाहता कोई विकल्प ही नहीं था वरदान देना पड़ा था । 
उसको भी कुछ समझ नहीं आ रहा है ये क्या सच अपने कर्मों पर पछता रहा है या दिखावे को आंसू किसी मगरमच्छ के बहा रहा है ।  

शासक बनकर लगा जैसे ऊपरवाले ने छप्पर फाड़ कर इतना दिया कि झोली में समाना मुश्किल हो गया , भगवान से जो जब मांगता मिलता तो समझता कि मुझ से अधिक काबिल और बड़ा आदमी कौन है । बस थोड़ा अहंकार का असर था जो समझने लगा उस ने जो भी किया भगवान ने भेजा था वो सब करने को । ऊपरवाला अपनी पत्नी को दिखला रहा था कोई अपने कर्मों का उत्तरदाई उसे बना रहा था । इतना बड़ा  इल्ज़ाम भला कैसे मंज़ूर होता लेकिन अपने ही दिए वचन से है वो भी मज़बूर होता । दुनिया वादा करती है कसमें खाती है भूल जाती है पर काश उसकी दुनिया का नहीं इक दस्तूर होता प्राण जाये पर वचन ना जाये । लेकिन हर बात की सीमा होती है शेर को बिल्ली ने सबक पढ़ाया इक दिन उसी को खाने आया , बिल्ली झट से पेड़ पर चढ़ गई शेर को बात लगी बिगड़ गई , बोला मौसी ये सबक नहीं सिखाया तब बिल्ली ने ठेंगा दिखलाया । सोचा उसने क्या था पाया पल भर में सब कुछ गंवाया । आखिर हाथी पहाड़ नीचे आया , कुछ घबराया कुछ इतराया अपना बोझ नहीं जाता खुद उठाया लेकिन खूब जमकर खाया जितना मनचाहा उड़ाया । अच्छा बुरा समझ नहीं आया कर दिया जैसा मनभाया । क्या बिल्ली ने रास्ता है काटा या फिर दिल को समझाना है कभी कभी धंधे में हो जाता है घाटा , कंगाली में गीला हुआ आटा रसोईघर छाया सन्नाटा ।  बैंड बाजा बारात रौशनी सजावट सब शानदार था । दुल्हा कुछ उदास लग रहा था परिवार के सदस्य और मित्र मंडली चिंतित थी कि कहीं दूल्हे के मन में कोई बात अभी तक अनकही तो नहीं रह गई । जब कारण पता चला कि दुल्हन के घरवालों ने बताया कि दुल्हन का कुछ पता नहीं है जाने कहां चली गई है । हज़ार तरह के डर लगने लगे हैं । खुशी का माहौल चिंता के आलम में तबदील हो गया है और ज़रा सी आहट सुनाई देती है तो धड़कने तेज़ हो जाती हैं । लड्डू खिलाए जाते हैं मगर अब लगता है कि लड्डुओं में मिठास नहीं है । इक मुल्तानी की कहावत है नहांदी - धोंदी रह गई ते मुंह से मक्खी बह गई ।



 आंगन में हलवाई थे बिठाए लड्डू के थाल पड़े सजाए लेकिन कौन खाए कैसे खाए जीया तरसे मनवा डराए ।
 चाहे कोई शीतल पेय पीये चाहे पीना चाहे गर्म-गर्म , सब हाज़िर है दाम चुकाओ छोड़ कर लाज शर्म । उन को तो है करना अपना कर्म फिर किस बात का भरम , जो भी हो किसी का नहीं कोई इख़्तियार है । आज नहीं किसी की जीत है आज नहीं किसी की हार है । लोकतंत्र का त्यौहार है जनता ही भगवान है सब जनता की मर्ज़ी है बाक़ी की खुदगर्ज़ी है । बुलावा आएगा ज़रूर उनको ये ऐतबार है कोई नया नाता नहीं वो अपना पुराना यार है । धंधा इसी को कहते हैं ख़ुशी और ग़म जो भी मिले सब सहते हैं इस को वही बस समझते हैं जो महानगर में रहते हैं । बरात निकले चाहे अर्थी जो भी हो बड़ी ऊंची शान से हो फूलों की बारिश से लेकर सजावट तक का इंतज़ाम सब पूरे अरमान से हो । आप क्या समझे अजब ग़ज़ब उनका व्यौपार है जिस को जो भी चाहिए समझो पूरा बाज़ार है । ताज़ भी मिल जाते हैं शोक गीत गाने वाले मातम जाकर मनाते हैं । ख़ुशी और ग़म दोनों अवसर के अश्क़ उनके पास हैं जिनका सपना टूटा उस दिल की तसल्ली की ख़ातिर बुझे दीप  जल जाते हैं । 
 
कयामत की घड़ी आने वाली है अभी ये राज़ है अर्थी सजनी है कि बरात चलने वाली है , आदमी की आरज़ू कब निकलने वाली है सब कुछ जमा किया है मगर थोड़ा लगता है थोड़ा और मांगते हैं । सिकंदर जब गया दुनिया से दोनों हाथ खाली थे मगर इस बात से अनजान सभी ताली बजाने वाले थे । दोनों आमने सामने हैं भीड़ उधर भी है इधर भी है , कयामत की है सबकी नज़र भी । बेखबर हैं वो जिनको रहती है दुनिया की खबर भी ।  कोई विश्लेषण का अर्थ समझा रहा था , अजब हाल है टेढ़ी तिरछी चाल है गर्दन उठा खड़ा हो किस की मज़ाल है कोई जीत कर भी उदास है मंज़िल दूर है बची आस है कोई खुश है हार भी उसकी जीत का नया आधार है । कुछ रिश्ते नाते दोस्त आएंगे रूठों को मनाएंगे जश्न मिलकर मनाएंगे , शपथ ग्रहण होना है शुभ अशुभ का रोना है आदमी खिलौना है । धरती पर रहना ज़रूरी है आसमान नहीं होना है नींद उड़ने लगी जागना नहीं आसां मुंह ढक कर सोना है । खाधी तां रज के नहीं तां सुमणा मुंह कज के , मुल्तानी कहावत है ।
 
 शायर बशीर बद्र जी की ग़ज़ल से कुछ शेर याद आए हैं । 
 

अब है टूटा - सा दिल , खुद से बेज़ार - सा 

इस हवेली में लगता था दरबार - सा । 

बात क्या है कि मशहूर लोगों के घर 

मौत का सोग भी होता है , तेहवार - सा । 

              डॉ बशीर बद्र 

 हर वक्त गुजर जाता है चाहे खुशी हो या गम का नशा उतर ही जाता है चाहे माशुका  या रम का - विभूति | Quote by vibhuti mishra | Writco

POST : 1834 पर्दे के पीछे क्या है ( एग्ज़िट पोल सर्वेक्षण ) डॉ लोक सेतिया

   पर्दे के पीछे क्या है  ( एग्ज़िट पोल सर्वेक्षण  ) डॉ लोक सेतिया  

घूंघट की प्रथा भले आपको जैसी लगती हो सिर्फ इक बंधन नहीं थी और ऐसा महिलाओं की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ अथवा उनकी आज़ादी का हनन करना नहीं था । आपको अच्छा लगता है फ़िल्मी डायलॉग दो चुटकी सिंदूर की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू । सोचना ज़रूरी नहीं समझा कि कभी कभी कुछ चीज़ों का महत्व ही किसी बंधन की मर्यादा में होता है । बिल्कुल इसी तरह से वोट की गोपनीयता चुनाव की पवित्रता और देश में लोकतंत्र की सुरक्षा के लिए अनिवार्य है । सबको उत्सुकता हो सकती है होने वाली संतान लड़का है या कि लड़की है लेकिन जब लगा समय से पहले ये जानकारी बेहद हानिकारक है तो इस पर प्रतिबंध लगाना पड़ा हालांकि अभी भी जिनको मनमानी करनी है वो नहीं मानते और कुछ लोग पैसे की खातिर कानून क्या किसी भी तरह से खिलवाड़ करने में संकोच नहीं करते हैं । खेल प्रतियोगिता में भाग लेने से पहले जांच की जाती है कि किसी ने कोई ऐसी दवा तो नहीं ली हुई जिस से उसे अनुचित तरीके से अपनी ताकत बढ़ाकर छल कपट कर आगे बढ़ने को बाकि सभी को टंगड़ी मारने का अवसर मिले जो सामने दिखाई भी नहीं दे । लोकतंत्र की मर्यादा का चीरहरण चुनाव घोषित होते ही लोग करने लगते हैं । टीवी अख़बार वालों के लिए किसी का पक्ष बेशर्मी से लेकर चर्चा से जिसे चाहा उसे अच्छा बुरा या फिर नीचा दिखाने को घटिया उपहास करते रहना जैसी बातों को पत्रकारिता बिल्कुल नहीं कह सकते हैं । ऐसे ही विज्ञापन तो ऐसा है जैसे कुछ लोग हर आपदा को अवसर समझते हैं ये तो उनका पैसा कमाने का मौका है बेशक ऐसा करने से मतदाता को प्रभावित करना और सभी को निष्पक्ष सोच से विवेक से निर्णय करने को भर्मित किया जाना समाज को किसी अंधी खाई में धकेलना ही हो । आपको क्या अधिकार है खुद अपना ईमान बेच कर जनता के भोलेपन का फायदा उठाते हुए किसी की चुनावी लहर हो नहीं हो निर्मित करने की कोशिश करना ।
 
वोटों की गिनती से पहले किसी का कोई आंकलन करना ही लोकतंत्र की भावना को दरकिनार करना है , जब हर किसी का वोट गोपनीय है तब आपको किसी से भी किसी भी तरीके से जानकारी लेना सही नहीं कहला सकता है । लेकिन इन लोगों ने सिर्फ धन दौलत कमाने को अपने तथाकथित ऊंचे बड़े रुतबे  का झूठा लिबास पहन कर जो भी चाहे मनमानी करने की छूट खुद ही हासिल कर ली बल्कि छीन ली है । जैसा इनका दावा रहता है ये संविधान में कोई सतंभ नहीं हैं न ही इनको कोई विशेष अधिकार मिले हैं , खुद को ख़ास समझने को ये समाज सरकार से संगठन संस्थाओं को किसी न किसी तरह डराते रहते हैं । हमको जो महत्व नहीं देता उसकी छवि खराब करने की बात बोले बिना समझाई जाती है । आपने कभी पीत पत्रकारिता की बात सुनी है तो आजकल का ये मीडिया गंभीर रूप से पीलिया रोग से ग्रस्त है । ऐसे में उनकी नज़र जो चाहती है देखती भी है और सभी को दिखलाना भी चाहती है । 
 
कभी कभी कुछ बातें हमें लगता है जैसी भी हैं क्या फर्क पड़ता है उचित अनुचित होने से ऐसा होता ही है , बस यही भूल भविष्य को बर्बाद कर सकती है । समाज में परिवार में अनुचित को मौन स्वीकृति देना भी उचित को हानि पहुंचाता है जो इक सामान्य बात लगती है । चुनाव आयोग को जब भी चाहा कोई नियम बदलना ख़तरनाक़ साबित हो सकता है जो किया जाता रहा है कभी किसी सरकार की बात मान कर तो कभी खुद अपने आप को संविधान से ऊपर समझने की कोशिश कर । हर कदम पर संभल संभल कर चलना ज़रूरी है क्योंकि इस चुनौती में राह फिसलन भरी है और ज़रा संतुलन बिगड़ा तो गंभीर परिणाम कोई हादिसा होना मुमकिन है । आज़ादी का अर्थ किसी को कुछ भी करने की अनुमति नहीं हो सकती बल्कि हर किसी को अपनी निर्धारित सीमा में रहकर अपना कार्य करना चाहिए ईमानदारी से और निडर होकर निष्पक्षता से । बात शुरू की थी घूंघट की लाज से जो कोई अनावश्यक पुरातन प्रथा की सोच नहीं थी उस से बहुत आगे की समझ थी भले जब सामाजिक बदलाव आया तब खुद महिला को पर्दा हटाना पड़ा तब भी ये उनका खुद का निजि पसंद का विषय है हां कोई अपना मत उन पर थोप सके ये नहीं स्वीकार किया जा सकता है । 
 
आख़िर में समाज की टीवी फ़िल्म की और साहित्य की शालीनता की कड़वी बात जिस में महिला ही नहीं पुरुष को भी निर्वस्त्र दिखाना देखना इक चलन बन गया है । महिलाओं का अधिकार है जैसा चाहें वो पहन सकती हैं आपकी नज़र उनके कपड़ों पार जिस्म को क्यों देखना चाहती है खुद पर अंकुश लगाएं । मगर इक पहलू और है जो महिलाएं विज्ञापन में टीवी सीरियल में फ़िल्म में खुद को नंगा प्रस्तुत करती हैं वो सिर्फ अपना नहीं सारी नारी जगत की छवि को नुक्सान पहुंचती हैं । चिंता का विषय यही है की हम सभी ने अपनी अपनी सीमाओं का उलंघन करने की आदत बना ली है जो हमको ऐसे समाज बनाने की तरफ ले जा रही है जिधर से वापसी लौटना कभी हो नहीं सकता । सभी विषयों को जोड़ कर कम शब्दों में बात कहना क्या होता है किसी ग़ज़ल कहने वाले से समझना , दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल पढ़ते हैं समझना भी होगा । ग़ज़ल पेश है ।
 

लफ़्ज़ एहसास - से छाने लगे , ये तो हद है 

लफ़्ज़ माने भी छुपाने लगे , ये तो हद है । 

आप दीवार गिराने के लिए आए थे 

आप दीवार उठाने लगे ये तो हद है । 

ख़ामोशी शोर से सुनते थे कि घबराती है 

ख़ामोशी शोर मचाने लगे ये तो हद है । 

आदमी होंठ चबाए तो समझ आता है 

आदमी छाल चबाने लगे ये तो हद है । 

जिस्म पहरावों में छिप जाते थे , पहरावों में 

जिस्म नंगे नज़र आने लगे ये तो हद है । 

लोग तहज़ीबों तमद्दुन के सलीके सीखें 

लोग रोते हुए भी गाने लगे , ये तो हद है ।

         ( दुष्यंत कुमार - साये में धूप से )    

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