मुफ़लिसी पर गर्व था खैरात ने रुसवा किया ( जज़्बात ) डॉ लोक सेतिया
किसी और जहां की तलाश है हमको , इस जहान की चाहत नहीं रखते । गांव की गलियां बड़ी भाती हैं हम शहर में रहने की ख़्वाहिश नहीं करते । अपनी मुफ़लिसी की कभी शिकायत नहीं रही हम ज़माने की तरह रास्ते में हमसफ़र नहीं बदलते । हमको तमाशा पसंद नहीं है मंज़ूर उनको भी मखमल में टाट का पैबंद नहीं है । हमने हक़ भी मांगे नहीं फरियाद कर के खुश थे दुनिया सबकी आबाद कर के । बड़े बड़े शहरों की ऊंची ऊंची इमारतें किसी मुसाफिर को ठहरने को जगह नहीं देती हैं सर्द हवाओं में तपती लू और बारिश में पल भर को भी सायबान का साया नहीं देती हैं । कुछ भी किसी का अपना नहीं है सब कड़वा सच है कोई खूबसूरत सपना नहीं है । बच कर निकलने की कोई सूरत नहीं दिखाई देती है नर्क कितने हैं बस इक जन्नत नहीं दिखाई देती है ऊंचे मीनार हैं गहराई नहीं दिखाई देती है , रुसवा हैं लोग मगर उनको खुद की रुसवाई नहीं दिखाई देती है पहाड़ तनकर खड़े हैं नीचे उनके कितनी गहरी है खाई नहीं दिखाई देती है । अजब सी भूलभुलैया में खो गया हूं मैं कहीं से कोई आवाज़ नहीं देता मुझको , जाना किधर है किधर से था आया इसी उलझन में खड़ा हूं खामोश ग़ुज़रा वक़्त नया आज नहीं देता मुझको । हक़ीक़त को ढक दिया गया है छुपा दिया है घना कोहरा है जिसको शानदार आकाश बताया जाने लगा है । मेरा दिल इस अजनबी भीड़ में घबराने लगा है , मुझको गांव अपना याद आने लगा है । हर शख़्स यही सोच कर पछताने लगा है । बहुत कुछ और कहना है ग़ज़ल से काम लिया है ।
हक़ नहीं खैरात देने लगे ( ग़ज़ल )
हक़ नहीं खैरात देने लगे
इक नई सौगात देने लगे।
इश्क़ करना आपको आ गया
अब वही जज़्बात देने लगे।
रौशनी का नाम देकर हमें
फिर अंधेरी रात देने लगे।
और भी ज़ालिम यहां पर हुए
आप सबको मात देने लगे।
बादलों को तरसती रेत को
धूप की बरसात देने लगे।
तोड़कर कसमें सभी प्यार की
एक झूठी बात देने लगे।
जानते सब लोग "तनहा" यहां
किलिये ये दात देने लगे।
इक नई सौगात देने लगे।
इश्क़ करना आपको आ गया
अब वही जज़्बात देने लगे।
रौशनी का नाम देकर हमें
फिर अंधेरी रात देने लगे।
और भी ज़ालिम यहां पर हुए
आप सबको मात देने लगे।
बादलों को तरसती रेत को
धूप की बरसात देने लगे।
तोड़कर कसमें सभी प्यार की
एक झूठी बात देने लगे।
जानते सब लोग "तनहा" यहां
किलिये ये दात देने लगे।