अक्टूबर 28, 2022

 मुफ़लिसी पर गर्व था खैरात ने रुसवा किया ( जज़्बात ) डॉ लोक सेतिया 

किसी और जहां की तलाश है हमको , इस जहान की चाहत नहीं रखते । गांव की गलियां बड़ी भाती हैं हम शहर में रहने की ख़्वाहिश नहीं करते । अपनी मुफ़लिसी की कभी शिकायत नहीं रही हम ज़माने की तरह रास्ते में हमसफ़र नहीं बदलते । हमको तमाशा पसंद नहीं है मंज़ूर उनको भी मखमल में टाट का पैबंद नहीं है । हमने हक़ भी मांगे नहीं फरियाद कर के खुश थे दुनिया सबकी आबाद कर के । बड़े बड़े शहरों की ऊंची ऊंची इमारतें किसी मुसाफिर को ठहरने को जगह नहीं देती हैं सर्द हवाओं में तपती लू और बारिश में पल भर को भी सायबान का साया नहीं देती हैं । कुछ भी किसी का अपना नहीं है सब कड़वा सच है कोई खूबसूरत सपना नहीं है । बच कर निकलने की कोई सूरत नहीं दिखाई देती है नर्क कितने हैं बस इक जन्नत नहीं दिखाई देती है ऊंचे मीनार हैं गहराई नहीं दिखाई देती है , रुसवा हैं लोग मगर उनको खुद की रुसवाई नहीं दिखाई देती है पहाड़ तनकर खड़े हैं नीचे उनके कितनी गहरी है खाई नहीं दिखाई देती है । अजब सी भूलभुलैया में खो गया हूं मैं कहीं से कोई आवाज़ नहीं देता मुझको , जाना किधर है किधर से था आया इसी उलझन में खड़ा हूं खामोश ग़ुज़रा वक़्त नया आज नहीं देता मुझको । हक़ीक़त को ढक दिया गया है छुपा दिया है घना कोहरा है जिसको शानदार आकाश बताया जाने लगा है । मेरा दिल इस अजनबी भीड़ में घबराने लगा है , मुझको गांव अपना याद आने लगा है । हर शख़्स यही सोच कर पछताने लगा है । बहुत कुछ और कहना है ग़ज़ल से काम लिया है । 

हक़ नहीं खैरात देने लगे ( ग़ज़ल )  
 
हक़ नहीं खैरात देने लगे
इक नई सौगात देने लगे।

इश्क़ करना आपको आ गया
अब वही जज़्बात देने लगे।

रौशनी का नाम देकर हमें
फिर अंधेरी रात देने लगे।

और भी ज़ालिम यहां पर हुए
आप सबको मात देने लगे।

बादलों को तरसती रेत को
धूप की बरसात देने लगे।

तोड़कर कसमें सभी प्यार की
एक झूठी बात देने लगे।

जानते सब लोग "तनहा" यहां
किलिये ये दात देने लगे।
 
  तुम मेरी फ़क़ीरी को कहाँ लेके चले आये|| मे टाट का | Nojoto...

अक्टूबर 24, 2022

ओ रौशनी वालो ( अंधकार की आवाज़ ) डॉ लोक सेतिया

    ओ रौशनी वालो ( अंधकार की आवाज़ ) 

                                 डॉ लोक सेतिया 

उजाला उस जगह करना चाहिए जिस जगह अंधेरा हो , रौशन सड़कों महलों बाज़ारों को चकाचौंध रौशनी से सजाना बाहरी दिखावा करने से भीतर का अंधकार मिटता नहीं बल्कि और अधिक बढ़ाता ही है । जब काली अंधेरी अमावस की रात को दिये जलाकर अंधेरा मिटाया गया होगा तब उसकी अहमियत रही होगी । आज जब चारों तरफ जगमगाहट है सजावट को दिये जलाना अंतर्मन के अंधकार को कम नहीं करता है । कोई बतला रहा था भगवान राम की इक ऐसी मूर्ति बना रहे हैं जो हर दिशा से एक जैसी नज़र आएगी । कण कण में भगवान दिखाई देने की बात कोई नहीं करता आजकल । राजा राम पत्नी सीता संग बनवास से वापस लौटे थे और अयोध्या वासियों ने स्वागत करने को दीप उत्सव मनाया था , अब शासक तो राजाओं से बढ़कर शाही शान-ओ-शौकत से  चकाचौंध चुंधयाती रौशनी में रहते हैं जनता को बनवास मिला हुआ है जिसका कोई अंत दिखाई नहीं देता उन के जीवन में उजाला कब होगा उस दिन वास्तव रामराज और दीपोत्स्व का त्यौहार मनाया जाना चाहिए । जिस देश की अधिकांश जनता भूख गरीबी शोषण अन्याय अत्याचार और असमानता के वातावरण में रहने को अभिशप्त हो वहां त्यौहार का उल्लास केवल धनवान और सुवधा साधन सम्पन्न वर्ग को हो सकता है वो भी तभी अगर उनको आम इंसानों के दुःख दर्द परेशानियों से कोई सरोकार नहीं हो । ऐसे में शासक वर्ग का देश का खज़ाना आडंबर पर बेतहाशा बेदर्दी से खर्च करना लोकतंत्र और संविधान के ख़िलाफ़ गुनाह ही समझा जाना चाहिए । अधिक विस्तार से कहना व्यर्थ है अपनी पहली कविता दोहराता हूं । मन की बेचैनी अभी भी कायम है ।  

  बेचैनी ( नज़्म )  

पढ़ कर रोज़ खबर कोई
मन फिर हो जाता है उदास।

कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास।

कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास।

सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास।

जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास।

बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास।

कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास।
 

Awaaz - Hindi poetry | Quotes, Poetry

अक्टूबर 11, 2022

POST : 1601 इक ख़्वाब जो हक़ीक़त नहीं बन सका ( ज़िंदगी की मज़बूरी ) डॉ लोक सेतिया

    इक ख़्वाब जो हक़ीक़त नहीं बन सका ( ज़िंदगी की मज़बूरी ) 

                                  डॉ लोक सेतिया 

कितनी बार यही सपना दिखाई देता है सुबह होते भूल जाता है या नहीं मालूम भुलाना पड़ता है । कभी कभी सोचता हूं शायद हौसला किया होता तो भले कुछ भी हुआ होता दिल में ये मलाल नहीं रहता कि काश । सपना यही आज रात आया कि बचपन में ही मैं सभी रिश्तों नातों की परवाह छोड़ अनचाही कैद से कितने ज़ुल्मों की ऊंची दिवारों से आज़ाद होकर भाग रहा हूं अजनबी राहों पर अनजानी मंज़िल की तरफ । अक्सर लोग बनी बनाई राहों पर चाहे-अनचाहे चलते जाते हैं घबराते हैं अपनी अलग राह बनाकर चलने के जोखिम से और ज़िंदगी भर पछताते हैं काश साहस किया होता ।  मैंने ज़िंदगी को हक़ीक़त में नहीं जिया है ज़िंदा रहा हूं सपनों के सहारे आपको पागलपन लगता है मेरे लिए किसी जन्नत के ख़्वाब जैसा हसीन हमेशा सच होने की उम्मीद ।  दो कविताओं में यही बात कहनी चाही है मैंने ।
 

 सपनों में जीना ( कविता ) 

देखता रहा
जीवन के सपने
जीने के लिये 
शीतल हवाओं के
सपने देखे
तपती झुलसाती लू में ।

फूलों और बहारों के
सपने देखे
कांटों से छलनी था
जब बदन
मुस्कुराता रहा
सपनों में
रुलाती रही ज़िंदगी ।

भूख से तड़पते हुए
सपने देखे
जी भर खाने के
प्यार सम्मान के
सपने देखे
जब मिला
तिरस्कार और ठोकरें ।

महल बनाया सपनों में
जब नहीं रहा बाकी
झोपड़ी का भी निशां 
राम राज्य का देखा सपना
जब आये नज़र
हर तरफ ही रावण ।

आतंक और दहशत में रह के
देखे प्यार इंसानियत
भाई चारे के ख़्वाब
लगा कर पंख उड़ा गगन में
जब नहीं चल पा रहा था
पांव के छालों से ।

भेदभाव की ऊंची दीवारों में
देखे सदभाव समानता के सपने
आशा के सपने
संजोए निराशा में
अमृत समझ पीता रहा विष
मुझे है इंतज़ार बसंत का
समाप्त नहीं हो रहा
पतझड़ का मौसम ।

मुझे समझाने लगे हैं सभी
छोड़ सपने देखा करूं वास्तविकता
सब की तरह कर लूं स्वीकार
जो भी जैसा भी है ये समाज
कहते हैं सब लोग
नहीं बदलेगा कुछ भी
मेरे चाहने से ।

बढ़ता ही रहेगा अंतर ,
बड़े छोटे ,
अमीर गरीब के बीच ,
और बढ़ती जाएंगी ,
दिवारें नफरत की ,
दूभर हो जाएगा जीना भी ,
नहीं बचा सकता कोई भी ,
जब सब क़त्ल ,
कर रहे इंसानियत का ।

मगर मैं नहीं समझना चाहता ,
यथार्थ की सारी ये बातें ,
चाहता हूं देखता रहूं ,
सदा प्यार भरी ,
मधुर कल्पनाओं के सपने ,
क्योंकि यही है मेरे लिये ,
जीने का सहारा और विश्वास ।

सच हुए सपने ( कविता ) 

सपने तो सपने होते हैं
देखते हैं सभी सपने
मैंने भी देखे थे कुछ
प्यार वाले सपने।

कोई अपना हो
हमराज़ भी हो
हमसफ़र भी हो
हमज़ुबां भी हो
चाहे पास हो
चाहे कहीं दूर हो
हो मगर दिल के
बहत ही करीब
जिसको पाकर
संवर जाये मेरा
बिगड़ा हुआ नसीब ।

सब दुनिया वाले
यही कहते थे
किस दुनिया में
रहता हूं मैं अब तक
और किस दुनिया को
ढूंढता फिरता हूं
ऐसी दुनिया जहां
कोई स्वार्थ न हो
कोई बंधन न हो
और हो सच्चा प्यार
अपनापन  भरोसा
अटूट विश्वास इक दूजे पर ।

मगर मेरा विश्वास
मेरा सपना सच किया है
तुमने ऐ दोस्त ऐ हमदम
जी उठा हूं जैसे फिर से
निकल कर जीवन की निराशाओं से
तैर रहा आशाओं के समंदर में ।

तुम्हारा हाथ थाम कर
मिलेगी अब ज़रूर
उस पार मेरी मंज़िल
इक सपनों का होगा
महल वहीं कहीं
जहां होगा अपना हर कोई
मुहब्बत वाला इक घर
जिसकी खिड़की दरवाज़े
दीवारें और छत भी
बने होंगे प्यार से
स्वर्ग सा सुंदर होगा
अपना छोटा सा आशियाना ।
 
 
 रात के इन सपनों का हकीकत में क्या होता है मतलब! – News18 हिंदी