अप्रैल 20, 2014

POST : 437 बिन बरसी बदली ( कहानी ) डा लोक सेतिया

       बिन बरसी बदली ( कहानी ) डा लोक सेतिया

        चालीस वर्ष बाद बस में अचानक मुलाकात हो गई राकेश और सुनीता की। कॉलेज में साथ साथ पढ़ते रहे थे , उम्र चाहे बढ़ गई हो तब भी पहचान ही लिया था सुनीता ने राकेश को जो दूसरी तरफ बैठा था। और उठकर उसके पास जाकर कहा था , हेलो राकेश कैसे हो। राकेश भी पहचान गया था सुनीता को , बोला था अरे आप सुनीता जी , नमस्कार , मैं अच्छा हूं आप कैसी हैं। इतने साल हो गये , अचानक आपको मिलकर बहुत ख़ुशी हो रही है। मुझे भी आपको देख कर बहुत ही अच्छा लग रहा है , क्या आप भी दिल्ली जा रहे हैं , सुनीता ने पूछा था। हां दिल्ली में बेटा जॉब करता है , उसके पास जा रहा हूं , रहता अभी भी अपने शहर में ही हूं , राकेश ने बताया था। फिर पूछा था कि आप क्या दिल्ली में रहती हैं आजकल। नहीं , सुनीता बोली थी , मेरी शादी तो राजस्थान में हुई थी और वहीं रहती हूं , छोटी बहन रहती है दिल्ली में , उसके पास जा रही हूं। सुनीता ने कहा था , आप उधर आकर बैठ जाओ मेरे साथ की सीट खाली है , साथ साथ बैठ कर बातें करेंगे। और राकेश सुनीता के साथ जाकर बैठ गया था। कॉलेज की बातें , फिर अपनी अपनी ज़िंदगी की बातें , अपने परिवार की जीवन साथी की बच्चों की बातें इक दूजे से पूछने बताने लगे थे। आपस में मोबाइल फोन नंबर लिये -दिये गये ताकि आगे भी बात होती रहे। यूं ही बात चली तो पता चला कि दोनों ही फेसबुक पर भी हैं , फोन पर ही राकेश ने सुनीता को अपनी प्रोफाइल दिखाई थी और फ्रेंडशिप रिक्वेस्ट भी भेज दी थी। सुनीता ने बताया था कि वो फेसबुक पर कभी कभी ही रहती है , और उसने पूछा था राकेश क्या आप मुझे अपना ईमेल दे सकते हैं। क्यों नहीं , राकेश ने कहा था , और ऐसे दोनों ने अपना अपना ईमेल दे दिया था। कुछ घंटे कैसे बीत गये थे दोनों को पता तक नहीं चला था , दिल्ली पहुंच कर जब अलग होने लगे तब सुनीता ने पूछा था कि क्या वो ईमेल पर आपस की बातें आगे भी करते रहेंगे। राकेश का जवाब था कि बेशक वो मेल कर सकती हैं और राकेश ज़रूर जवाब दिया करेगा। सुनीता ने ये वादा भी लिया था कि दोनों की दोस्ती की बात इक दूजे तक ही रहेगी।

                राकेश को कुछ दिन बाद सुनीता का भेजा मेल मिला था। सुनीता ने लिखा था , शायद ये बात आपको पहले भी कॉलेज के ज़माने में महसूस हुई हो कि मैं आपको बेहद पसंद करती थी। मगर तब आप लड़के होकर भी नहीं कह सकते थे ये बात तो मैं एक लड़की अगर कहती तो आवारा समझी जाती। फिर भी एक बार मैंने आपकी किताब में एक पत्र रखा था , आपसे किताब मांगी थी और अगले पीरियड में पत्र रख कर वापस भी कर दी थी। मगर उसके बाद इक डर सा था कि कहीं कोई दूसरा न पढ़ ले , तभी कॉलेज का समय समाप्त होते ही फिर आपसे किताब मांग ली थी इक दिन को। सच कहूं वो पत्र मैंने कभी फाड़ा नहीं था , दिल पर लिखा हुआ है आज तक , मालूम नहीं ये बात अब बताना उचित है या अनुचित , मगर इक सवाल हमेशा मेरे मन में रहता रहा है कि अगर मैंने तब वो पत्र आपको पढ़ने दिया होता तो क्या आज मेरी ज़िंदगी कुछ अलग होती और शायद आपकी भी। क्या ये हम दोनों के लिये सही होता। ऐसा बिल्कुल नहीं कि मुझे कोई शिकायत हो अपने जीवन से या किसी से भी , पर यूं ही सोचती हूं कि तुम साथ होते तो क्या होता। खाली समय में जाने कितनी बार ये सवाल मैंने खुद से किया है। पता नहीं आपको याद भी है या नहीं कि एक बार वार्षिक समारोह में मंच पर हमने साथ साथ गीत गाया था। तब जब उसकी फोटो देखी थी तब वो एक ही थी और मैंने आपको कहा था कि ये मुझे लेने दो और आप ने ली हुई वापस कर दी थी मेरे लिये। मेरे पास हमेशा वो फोटो रही है और वो गीत हमेशा गुनगुनाती रहती हूं मैं। राकेश मैंने उस पत्र में लिखा था तुम मेरे सपनों के राजकुमार हो , मरे मन में रहते हो , मुझे नहीं पता कि उसको प्यार कहते हैं या मात्र आकर्षण , मगर वो भावना मैं और किसी को लेकर महसूस की नहीं थी कभी। मैंने आपसे वादा लिया था आपस की बात किसी को नहीं बताने का रास्ते में बस के सफर में तो केवल यही बात बताने के लिये जो जाने क्यों मुझे बतानी भी ज़रूरी थी और पूछनी भी कि आप क्या सोचते हैं इसको लेकर।

               राकेश ने बार बार पढ़ा था सुनीता की मेल का इक इक शब्द बता रहा था कि उसने जो भी लिखा है सच्चे मन से और साहसपूर्वक लिखा है। राकेश ने सुनीता को रिप्लाई किया था ये लिख कर। मुझे नहीं मालूम कि आपको अब ये सारी बातें मुझे कहनी चाहियें अथवा नहीं , हां इतना जानता हूं कि जो आपने अपने दिल में अनुभव किया उसमें कुछ भी न तो अनुचित था न ही असव्भाविक। अपने मन पर अपनी सोच पर , पसंद नापसंद पर किसी का बस नहीं होता है। इतना ज़रूर मैं भी आपकी ही तरह सच और इमानदारी से बताना चाहता हूं कि मुझे उस दिन आपसे मिलकर बहुत ही अच्छा लगा था और आज ये आपकी बातें पढ़कर भी इक ख़ुशी अनुभव कर रहा हूं। ख़ुशी इस बात की है कि शायद जीवन में पहली बार मुझे ये एहसास हुआ है कि कोई है जो दुनिया में मुझे भी पसंद करता है , चाहता है। नहीं मुझे भी किसी से ज़रा भी शिकवा शिकायत नहीं है , मगर ये भी हकीकत है कि मुझे इस  दुनिया में कभी भी तिरिस्कार और नफरत के सिवा कुछ भी मिला नहीं किसी से। सच कहूं तो मैंने खुद ही कभी सोचा ही नहीं कि मैं भी किसी के प्यार के काबिल हूं। मुझसे हर किसी को शिकायत ही रही है , मैं हमेशा इस अपराधबोध को लेकर जिया हूं कि मुझे जो भी सभी के लिये करना चाहिये वो चाह कर भी मैं कर सका नहीं जीवन भर। इसलिये मुझे यही लगता है कि ये अच्छा ही हुआ जो तुमने वो पत्र मुझसे वापस ले लिया था मेरे पढ़ने से पहले ही। वरना जो भावना आज चालीस वर्ष बाद भी आपके मन में मेरे प्रति बाकी है वो शायद नहीं रह पाती। मैं आपको कुछ भी दे नहीं पाता ठीक उसी तरह जैसे अन्य किसी को नहीं दे सका हूं। शायद किसी को नहीं मालूम कि मैं खुद इक तपते हुए रेगिस्तान की तरह हूं , जो खुद इक बूंद को तरसता रहा उम्र भर वो भला किसी की प्यास कैसे बुझा सकता था। सुनीता आपकी भावना मेरे लिये किसी बदली से कम नहीं है। इसलिये ये अच्छा हुआ जो मैंने आपका वो पत्र नहीं पढ़ा , आपकी ये मेल भी डिलीट कर दूंगा जैसा आपने लिखा है , मगर ये सब अब मेरे भी मन में कहीं रहेगा हमेशा। मैं आपको ये सब लिखने पर क्या कहूं , मैं नहीं समझ पा रहा। धन्यवाद या मेहरबानी जैसे शब्द काफी नहीं हैं। हम जब तक हैं अच्छे दोस्त बन कर ज़रूर रह सकते हैं। मुझे आपको जवाब की प्रतीक्षा रहेगी , काश मैं आपको कोई ख़ुशी दे सकूं मित्र बन कर ही।

                 सुनीता का संक्षिप्त सा जवाब मेल भेजने के थोड़ी देर बाद ही आ गया था , लगता है जैसे उसको इंतज़ार था राकेश की मेल का और पढ़ते ही रिप्लाई कर दिया था।  लिखा था , हो सकता है कि मुझे आपसे कुछ भी हासिल नहीं होता जैसा आपने लिखा है , कारण चाहे जो भी हों। मगर मुझे अफ़सोस है तो इस बात का कि मैं वो बदली हूं जो शायद आपकी प्यास बुझा सकती थी। जो कभी बरस ही नहीं पाई।
                               

अप्रैल 17, 2014

POST : 436 तेरे वादे पे ऐतबार किया ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

      तेरे वादे पे ऐतबार किया ( हास-परिहास)  डा लोक सेतिया 

         आप मानो चाहे न मानो , सच तो सच है। पुरुष जब वादा निभाने की घड़ी आये तब पीछे हट जाते हैं और महिला अपनी जान तक गवा बैठती है। फिर भी आशिक कवियों ने , ग़ज़लकारों ने , अपनी प्रेमिका -माशूका पर वादा न निभाने के इल्ज़ाम बिना जाने समझे लगाये हैं। चलो आपको इक सच्ची बात बताते हैं। कोलकत्ता शहर में एक दम्पति ने तय किया कि साथ जीते रहे हैं चलो अब साथ-साथ मरते हैं। अपने प्यार की कसमें खाई और दोनों ने डूबने के लिये गंगा नदी में छलांग लगा दी। लेकिन तब भी दोनों साथ-साथ मर नहीं सके। पति महोदय मरने से डर गये और तैर कर बाहर निकल आये किनारे पर अपनी पत्नी को मझधार में अकेला छोड़ कर। पत्नी को तैरना नहीं आता था इसलिये उसको डूब कर जान गवानी पड़ी। ग़ज़ब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया। जो अभी अभी खाई कसम न निभा सका उसकी सात जन्म साथ निभाने की कसम पर कौन यकीन करे। अनुभवी महिलायें हमेशा हर महिला को यही सीख देती हैं कि पुरुषों पर कभी भरोसा मत करना। ये अनुभव उनको ज़रूर किसी पुरुष की बेवफाई ने दिया होगा। पुरुष चांद तारे तोड़ लाने के वादे करते हैं और एक नई साड़ी तक नहीं ला देते मांगने पर। बावजूद इसके औरतों को अपने पति के बारे उम्र भर ये अंधविश्वास बना रहता है कि मेरे ये वैसे नहीं हैं। पति हर दिन देर से आने का कोई बहाना बनाता है और पत्नी मान लेती है। इक फिल्म की नायिका गीत गाती है , कभी हमारी मुहब्बत का इम्तिहान न लो , फिर आगे कहती है , मैं अगर जान भी दे दूं तो ऐतबार नहीं , कि तुझ से बढ़ के मुझे ज़िंदगी से प्यार नहीं। पति भी जानते हैं मीठी-मीठी बातों से बहलाना अपनी पत्नी को , जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे , तुम दिन को अगर रात कहो रात , रात कहेंगे। मैंने भी यही गीत सुनाया था पहली रात को उनको , मगर सच तो ये है कि उन्हें हमेशा मुझसे शिकायत भी रही है कि बहुत मनमानी करता हूं। कोई न कोई कारण तो ज़रूर होगा उनकी शिकायत का , मगर हम भी जानते हैं उनको बातों से बहला लेना।

                           ये खबर पढ़कर एक पत्नी पीड़ित कहने लगे ये कमाल का फार्मूला है , न कोई क़त्ल का इल्ज़ाम न ही ख़ुदकुशी को विवश करने की तोहमत। उल्टा सभी उसके साथ सहानुभूति जता रहे होंगे , कैसे जियेगा बेचारा अकेला।  इसी बात पर कोई अपना दिल दे बैठे इनको और चार दिन में दूसरी मिल जाये फिर से साथ-साथ जीने-मरने की कसम खाने को क्या पता। वे भी सोचने लगे कि अपनी पत्नी को तैयार कर लेंगे एक साथ मरने को। उनको लगता है ये ख्याल उनको पहले आ जाता तो कभी का उस मुसीबत से छुटकारा पा लिया होता। सोचते सोचते उनको लगा किसे मालूम यही तरीका पहले भी कुछ लोग आज़मा चुके हों , चुपचाप खुद तैर कर बाहर निकल घर चले जाते हों और बाद में पत्नी की लाश पर आंसू बहाते हों। किसी को पता तक नहीं चल पाया हो कि उनकी पत्नी ने ख़ुदकुशी उन पर ऐतबार कर के ही की थी। इक आधुनिक प्रेम कथा और भी है आज के नये युग की। दो प्रेमियों को जब समाज और परिवार ने विवाह नहीं करने दिया तब उन्होंने भी साथ-साथ ख़ुदकुशी करने का निर्णय लिया और बाज़ार से ज़हर लाकर खा लिया।   बेफिक्र होकर सो गये , सोचा ये नींद कभी नहीं खुलेगी। मगर आजकल बाज़ार में ज़हर तक नकली मिलता है , यही हुआ और वे बच गये। ऐसे मैं प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को समझाया कि अपनी तकदीर में ही नहीं है साथ-साथ जीना-मरना। अब हमें अपनी ज़िद छोड़ तकदीर का फैसला मान लेना चाहिये , अपना अपना घर अलग-अलग बसा लेना चाहिये घर वालों की बात मानकर। अब दोनों प्रेमी खुश हैं अपने अपने घर में , और उनके परिवार वाले भी। क्या खबर नकली ज़हर लाना प्रेमी की चालाकी रही हो। जिसने भी साथ-साथ जीने-मरने की कसमें खाने का चलन शुरू किया होगा वो बहुत दूर की सोचने वाला रहा होगा। मेरे एक मित्र को तो वो गीत पसंद था , उतना ही उपकार समझ कोई जितना साथ निभा दे। जन्म-मरण का मेल है सपना ये सपना बिसरा दे। कोई न संग मरे , मन रे तू काहे न धीर धरे।

                  अब महिलायें उतनी भी सीधी नहीं रह गई हैं , अब वे इस बात का ध्यान रखेंगी कि उनका पति उनको चालाकी से तो नहीं डुबो रहा है। अगर पति को तैरना आता है तो साथ-साथ डूबने की बात मूर्ख बनाने के सिवा और क्या है। अब ऐसे में समझदार महिला अपने पति को पहले आप कह कर तसल्ली कर कर सकती हैं।

अप्रैल 14, 2014

POST : 435 मेरी भी किताब बिकवा दो ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

    मेरी भी किताब बिकवा दो ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

तिथि उनतीस नवंबर सन दोहज़ारदो , अख़बार दैनिक भास्कर। मेरा पुराना व्यंग्य जो तब छपा था ये उसका नया संस्करण है। इक शोर सा मचा हुआ है , किन्हीं दो लोगों ने किताबें लिखी हैं अपने सरदार मनमोहन सिंह जी को निशाना बनाते हुए। सच पूछो तो कुछ भी नया नहीं है , कोई राज़ की बात नहीं है कि पिछले दस साल से विश्व का सब से बड़ा लोकतंत्र चयन से नहीं मनोनयन से चल रहा है। मुझे जाँनिसार अख़्तर जी की इक ग़ज़ल का मतला याद आ रहा है। "वो लोग ही हर दौर में महबूब रहे हैं , जो इश्क में तालिब नहीं मतलूब रहे हैं "।
 
                         (मतलूब का अर्थ होता है मनोनीत ) । 
 
कहने का अभिप्राय ये कि ऐसा सदा से होता रहा है कई जगह , मगर लोकतंत्र में भी जनता नहीं चुने बल्कि कोई और उसपर अपनी मर्ज़ी का शासक थोपे ऐसा कहीं और शायद ही होता हो अपने देश को छोड़कर। तो सवाल उन दो किताबों का है जिनको लिखने वाले अपने देश के प्रधानमंत्री के साथ शासन में सरकारी उच्च पदों पर रहने के बाद सेवा निवृत होने के बाद उनका काला चिट्ठा खोलने का दावा कर रहे हैं। क्या वे सच्चे देशभक्त हैं , ईमानदार हैं। सोचना तो पड़ेगा , अगर उनको अपने कर्तव्य की राष्ट्र के प्रति निष्ठा की परवाह होती तो वे आज तक चुप नहीं बैठे रहते। देश को लूटने वालों के हमराज़ नहीं बने रहते , जब तक अपनी नौकरी का सवाल था। अब जिनको नौकरी देश हित से बड़ी लगती हो , उनका किताब लिखने का मकसद भी कुछ और भी हो सकता है। चलो मान लो वे जो भी बता रहे हैं सही है तब क्या वो भी चुप रहने के अपराधी नहीं हैं। मगर यहां मनमोहन सिंह जी की चूक यही है कि उनको ये मालूम नहीं था कि हर चीज़ की तरह इसका भी उपाय है जो वे कर नहीं सके। उनको हरियाणा वालों से सबक लेना चाहिये था। क्या आपको मालूम है कि यहां कोई भी कैबिनिट सचिव पिछले नौ साल में सेवा निवृत नहीं हुआ है। सब को आगे कार्यकाल बढ़ा कर बनाये रखा गया है शासन में अपना सहयोगी। यकीन करें ये दोनों महानुभव भी अगर नौकरी में रहते तो किताब लिखने को फुर्सत ही नहीं मिलती। तभी कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर। अब उनकी किताबों की चर्चा देश विदेश में होगी और उससे उनको क्या क्या हासिल होगा ये तो आने वाला वक़्त ही बतायेगा , मगर मैं आपको वो पुरानी बात ग्यारह साल बाद फिर से सुनाता हूं। अब वो व्यंग्य।

              मुझे भी अपनी किताब बेचनी है। अब मुझे ये भी पता चल गया है कि किताब कैसे बेची जा सकती है। बस एक सिफारिश का पत्र  यू.जी.सी. चेयरमैन का किसी तरह लिखवाना है। जैसा १६ अक्टूबर २००२ को यूजीसी के अध्यक्ष अरुण निगवेकर ने लिखा है सभी विश्व विद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थाओं को , प्रधानमंत्री जी की जीवनी की पुस्तक खरीदने की सलाह देते हुए। "जननायक " किताब की कीमत अगर चार हज़ार रुपये हो सकती है तो मुझ जैसे इक जनलेखक की किताब चालीस रुपये में बिक ही सकती है। कुछ छूट भी दे दूंगा अगर कोई सौ किताबें एक साथ खरीद ले। मुनाफा न सही छपाई का खर्च तो निकल ही आएगा। मुफ्त में मित्रों को उपहार में देने से तो अच्छा है।समस्या यही है कि यूजीसी वाले मुझे नहीं जानते , मैं उनको जनता हूं ये काफी नहीं। मगर अभी पूरी तरह कहां जानते हैं लोग उसको।  अभी तक सुना था वो अनुदान देते हैं , किताबें भी बिकवाते हैं अब पता चला है। इक सत्ताधारी मुझे समझा रहे थे कि ये ज़रूरी होता है , बिना प्रचार के कुछ नहीं बिकता , साबुन तेल से इंसान तक सब को बाज़ार में बिकने को तरीके अपनाने ही पड़ते हैं। अब प्रधानमंत्री जी के प्रचार के लिये क्या इस देश के गरीब चार हज़ार भी खर्च नहीं कर सकते। आखिर कल यही तो इतिहास में शामिल किया जायेगा। उधर पुस्तकालय वालों का कहना है कि उनको कोई एक दो प्रति थोड़ा खरीदनी होगी , थोक में खरीदनी होती है। यूजीसी कहेगी तो प्रकाशक से छूट या कमीशन कौन मांग सकता है। मुझे मेरी बेटी ने बताया कि दूसरी कक्षा में पास होने के लिये उसकी अध्यापिका ने भी सभी छात्रों को एक किताब खरीदने को विवश किया था। मैंने जब स्कूल के अध्यापक से पूछा कि आप कैसे किसी किताब को ज़रूरी बताते हैं तो उनका कहना था कि जो प्रकाशक उनसे मिलता है आकर उसी की किताब को ही अच्छा बता सकते हैं जो मिला ही नहीं आकर उसकी किताब को किसलिये सही बतायें। उनकी बात में दम है , मुझे भी किसी तरह यूजीसी के चेयरमैन से जानपहचान करनी ही चाहिये। क्या खबर वे भी यही सोचते हों कि मैं उनको मिलने आऊं तभी तो वे मेरी किताब की सिफारिश करें। शायद वो इसी इंतज़ार में हों कि मैं मिलूं तो वे पत्र जारी करें।

                                सोचते सोचते उन नेता जी की याद आई जिनकी सुना है राजधानी तक पहचान है। लगा कि वे फोन कर देंगे तो बात बन सकती है। मगर नेता जी को पता ही नहीं था कि यूजीसी किस बला का नाम है। वे आठवीं पास हैं , कभी सुना ही नहीं था कि ये किस चिड़िया का नाम है। फिर ध्यान मग्न हो कुछ सोचने लगे , अचानक नेता जी को कोई उपाय सूझा जो वो मुझे पकड़ कर अपने निजि कक्ष में ले गये। मुझे कहने लगे तुम चिंता मत करो , तुम जितनी किताबें छपवाना चाहो छपवा लो , मैं सारी की सारी खरीद लूंगा। अगर मैं भी उनका एक काम कर दूं। वे चाहते हैं कि मैं उनकी जीवनी लिखूं जिसमें उनको नेहरू -गांधी से भी महान बताऊं। मैं अजीब मुश्किल में फंस गया हूं , इधर कुआं है उधर खाई। घर पर आया तो देखा श्रीमती जी ने रद्दी वाले को सारी किताबें बेच दी हैं तोल कर , पूरे चालीस किलो रद्दी निकली मेरी अलमारी से आज शाम को।

अप्रैल 13, 2014

POST : 434 डर्टी पिक्चर से डर्टी मांईड तक ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

  डर्टी पिक्चर से डर्टी मांईड तक ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

पिछले वर्ष सब से अधिक पुरुस्कार जिस फिल्म को मिले , उसका नाम है डर्टी पिक्चर। फिल्मकारों को ये बात कभी की समझ आ चुकी है की जिस शब्द को हिंदी में कहना खराब लगता है उसे अंग्रेजी में बड़े आराम से कह सकते हैं। और अकसर वही बात लोगों को इतनी पसंद आती है कि हिट हो जाती है। अगर इस फिल्म का नाम हिंदी में होता , गंदी तस्वीर , तो अंजाम शायद कुछ दूसरा होता। वास्तव में कोई तस्वीर गंदी नहीं होती , गंदी देखने वाले की नज़र होती है , सोच ही है जो अच्छी या बुरी होती है। इसलिए जब डर्टी पिक्चर की बात की जाये तब ये समझ लिया जाये कि डर्टी पिक्चर नहीं बल्कि डर्टी माईंड लोग होते हैं। गंदी सोच वाले ही गंदी तस्वीरें देखते हैं। सबसे अधिक गंदगी आदमी के दिमाग में होती है। देखने में भोली सूरत , बातचीत में मधुरता लेकिन मन में राम बचाये क्या क्या रहता है। एक महिला मित्र ने अपने किसी पुरुष मित्र का नाम लिखा था अपनी पोस्ट पर ये बताते हुए कि जनाब का कहना है कि वे फेसबुक पर महिलाओं को तकने ही आते हैं। अब उनको ऐसा करना चाहिए था या नहीं ये वही जाने। तो बात ये है कि टीवी पर डर्टी पिक्चर का प्रसारण किया जाना था ,  कई दिन से चैनेल वाले प्रचार कर रहे थे , विज्ञापन दे रहे थे। बहुत लोग चाह कर भी सिनेमा हाल में इस फिल्म को देखने नहीं जा सके थे , उनको बेसब्री से उस दिन का इंतज़ार था। ठीक उसी दिन सरकार ने डर्टी पिक्चर को प्राईम टाईम पर दिखाने पर रोक लगा दी। अब देखने वालों को इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता था लेकिन सरकार को कौन समझाता कि उस समय दिखाने को चैनेल को कितने करोड़ के विज्ञापन मिलते हैं जबकि देर रात को बेहद कम।

                      मुझे एक बहुत पुरानी बात याद आ गई , तब समाज का सवभाव , चाल-चलन और ही होता था। उस ज़माने में धार्मिक फिल्म बेहद सफल होती थी। जाने क्या सोच कर किसी ने अपनी फिल्म का नाम रख दिया , तीन देवियां। लोग चले गये उसका पहला ही शो देखने यही मानकर कि देवी देवताओं पर बनी होगी फिल्म। नतीजा ये हुआ कि जब पता चला कि कहानी कुछ और ही है तो निराश हो लोग मध्यांतर में ही वापस चले गये थे। लोगों को मनचाही बात न दिखाई दे तो फिल फ्लॉप हो जाती है। इसलिये डर्टी पिक्चर नाम रख कर साफ सुथरी फिल्म बनाते तो वही नतीजा होना था। तभी डर्टी पिक्चर से डर्टी सीन हटाये भी नहीं जा सकते थे वर्ना डर्टी माईंड वाले निराश हो जाते और फिल्म भी फ्लॉप हो जाती। वास्तव में अगर सरकार को लोगों पर ऐतबार होता कि वो समझदार हैं डर्टी पिक्चर को नहीं देखना पसंद करेंगे तो उसको रोक नहीं लगानी पड़ती। सरकार के पास कारण भी हैं जनता पर भरोसा न करने के। जनता खुद ही डर्टी नेताओं को वोट देकर जिता देती है और उसके बाद शोर मचाती है कि संसद में दाग़ी नेता बैठे हैं। जनता के बार बार यही गलती दोहराने से ही लोकतंत्र की पावन नदी किसी गंदे नाले में बदल चुकी है। सच कहा जाये तो टीवी पर सब साफ सुथरा नहीं दिखाया जाता , बस उनको आवरण पहना देते हैं कोई चमकता हुआ। हर वस्तु के विज्ञापन में बेमतलब की नंगी तस्वीरें , अश्लीलता ही नहीं विकृत सोच की कहानियों वाले सीरियल , समाचार के नाम पर बेहूदा स्टोरी , कोई अनावश्यक बहस , टी आर पी के लिये , हर चैनेल लगता है मानसिक दिवालियापन का शिकार हो चुका है। सही गलत , उचित अनुचित की कोई चिंता नहीं , पैसा बनाना एक मात्र ध्येय बन चुका है। और ये तो युगों से माना जाता रहा है कि सोना अगर गंदगी में भी पड़ा दिखाई दे तो उसको उठा लो। बस टीवी चैनेल वाले और फिल्म वाले आजकल यही करने लगे हैं , उनको लत लग गई है गंदगी से पैसा निकाल अमीर बनने की। स्लमडॉग मिलीयेनर की गंदगी अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार दिला देती है।

                गंदगी दो प्रकार की होती है , एक जो साफ नज़र आती है कि ये गंदगी है और दूसरी वो जो देखने में गंदगी नहीं लगती मगर होती वो भी गंदगी ही है। ऐसी गंदगी अधिक बुरी है , वो विचारों को सोच को , मानसिकता को गंदा  कर रही होती है। हर दिन सुबह  उठते ही और देर रात तक तमाम चैनेल वाले लोगों को अन्धविश्वास की खाई में धकेलने का ही काम करते हैं। लोगों की धार्मिक भावनाओं को अपने कारोबार के लिये दुरूपयोग करना उचित नहीं कहा जा सकता। जिनको समाज को स्वच्छ बनाना चाहिये वही उसको प्रदूषित कर रहे विकृत विचार परोस कर। खेद की बात है कि बड़े बड़े नाम वाले अदाकार , खिलाड़ी , अपने और अधिक अमीर बनने की हवस में इस काम में शामिल हो कर लोगों को गुमराह कर रहे हैं। शायद उनको तलाश रहती है कि कैसे और अधिक ये कार्य वे अंजाम दे सकें। सरकार के हर सफाई अभियान का नतीजा एक समान रहता है। गंदगी के ढेर बढ़ते ही जा रहे हैं , गंदगी बेचने का कारोबार भी करोड़ों का खेल है ये कुछ दिन पहले इक टीवी शो में भी बताया गया था। मगर तब इस सोच की विचारों की , मानसिकता की गंदगी की कोई बात नहीं की गई थी , ये उनका निजि मामला जो है। इस पर सब खामोश हैं जो रात दिन जाने क्या क्या शोर मचाते रहते हैं।  

अप्रैल 11, 2014

POST : 433 एक नेता को तुमने खुदा कह दिया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

एक नेता को तुमने खुदा कह दिया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

एक नेता को तुमने खुदा कह दिया
इस तरह दर्द को इक दवा कह दिया ।

ग़म इसी बात का दिल से जाता नहीं
बेवफ़ा ने , हमें बेवफ़ा कह दिया ।

हम सभी के लिये मौत सौगात है
पर सभी ने इसे हादिसा कह दिया ।

दिल का शीशा हुआ चूर जब एक दिन  
जिसने तोड़ा उसे दिलरुबा कह दिया ।

खुद सफीना डुबोई थी उसने , जिसे
हर किसी ने यहां नाखुदा कह दिया ।

नाम तक का मेरे , ज़िक्र करना नहीं
सिल गई इक जुबां आज क्या कह दिया ।

तुम तड़पते रहो आ रहा है मज़ा
और "तनहा" इसे इक अदा कह दिया । 
 

 

अप्रैल 10, 2014

POST : 432 गब्बर सिंह का दर्द ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

     गब्बर सिंह का दर्द ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

         गब्बर सिंह परेशान है , वह चुनाव कैसे हार गया। रामगढ़ वालों से उसको वोट क्यों नहीं दिये। उसने रामगढ़ के लिये क्या क्या नहीं किया , इतना विकास किया , तरह तरह के हथकंडे अपनाये , साम -दाम , दंड-भेद , सब-कुछ आज़माया , फिर भी कुछ भी काम न आया। सारे रामगढ़ में उसके भेदिये फैले हुए हैं , वो सब जीत पक्की बता रहे थे। ये अच्छा नहीं किया रामगढ़ की जनता ने , गब्बर सिंह के नाम को डुबो कर रख दिया। अब किस तरह राजधानी में बैठे लोग उसकी दहशत के कायल होंगे। गब्बर सिंह वो डायलॉग याद कर रहा है जो उसने अपने विरोधी के हाथ-पैर तुड़वाने के बाद बोले थे। निकल गई सारी हेकड़ी। मगर अब बात उल्टी हो गई है , गब्बर सिंह को मन ही मन डर लग रहा है कि कहीं रामगढ़ वालों को अपनी ताकत का पता चल गया तो उसका वहां रहना दुश्वार हो जायेगा। गब्बर सिंह ने सब कुछ तो किया था चुनाव में।

                जय और वीरू को ठाकुर से दोगुना पैसे देकर अपने साथ मिला लिया था। दोनों मिलकर उसका प्रचार कर रहे थे , बसंती भी गब्बर सिंह के लिये नाचती थी और वोट मांगती थी। उसके ठुमके देखने वाले भी खूब जमा होते थे हर दिन चुनावी सभाओं में। खुद ठाकुर भाग गया था उसका इलाका छोड़ कर और दूसरे प्रदेश से चुनाव लड़ रहा था। गब्बर सिंह को पूरा यकीन था बाकी सभी की ज़मानत तक ज़ब्त हो जायेगी , मगर खुद उसकी ही ज़मानत बच नहीं सकी थी। गब्बर सिंह को समझ आ गया था कि उसका दोस्त सांभा ठीक ही कहता था कि लोकतंत्र और चुनाव की बात करना खतरे से खाली नहीं है। जंगलराज में तानाशाही ही सही मार्ग है शासन करने का। वीरू ने तो शराब के नशे में एक सभा में ये ऐलान भी कर दिया था कि अगर उसको तानाशाह बना दो तो रामगढ़ की सारी गंदगी ही दूर कर सकता है। तब खुद गब्बर सिंह ने उसको समझाया था कि चुनावी राजनीति में ऐसी सच्ची बात अपनी ज़ुबान पर नहीं लाया करते। जानते तो रामगढ़ वासी भी हैं कि गब्बर का लोकतंत्र तानाशाही से भी खराब होगा।

               हारने के बाद हारने के कारण खोजने का काम हो रहा है। गब्बर सिंह अपने दल के कार्यकर्ताओं से पूछ रहा है कि क्यों उन लोगों ने सही काम नहीं किया चुनाव में , उन्हें शराब , पैसा , गोला -बारूद सभी कुछ तो उपलब्ध करवाया था।  कहां उनका उपयोग नहीं किया गया , क्या चूक हुई है। गब्बर को लगता है जय-वीरू से गठबंधन करना भी उसको नुकसान दे गया है। वो दोनों गब्बर की जीत से अधिक ध्यान खुद अपने लिये राजनीति में जगह बनाने पर देते रहे हैं। चोर-डाकू जब अपराध जगत को छोड़ कर राजनीति में प्रवेश करते हैं तो उनकी ईमानदारी ख़त्म हो जाती है और कुछ भी कर सकते हैं। अब भविष्य में गब्बर को जय-वीरू पर नहीं अपनी बंदूक पर ही भरोसा करना चाहिए।

              गब्बर सिंह ने कब से अपना दल बना लिया था , लोकतंत्र लूट दल नाम से। अपना पहनावा बदल कर कब से शासन कर रहा था। देश भर में ज़मीन जायदाद , विदेश में बैंक खातों में करोड़ों का काला धन जमा कर चुका है। सत्ता में था तो लोग खुद बिना मांगे ही दे जाते थे , लूटने की ज़रूरत ही नहीं थी , मगर लगता रहता था कि दिन-दहाड़े लूटने का अपना ही मज़ा था। लेकिन वो सब कब का छूट गया है , मान लिया था कि अब तो उसका , उसके बाद उसके ही परिवार का शासन ही चलता रहेगा। अचानक गब्बर आकाश से ज़मीन पर आ गिरा है , संभलना कठिन हो रहा है। लगता है डाकू रहना ही ठीक था , अपने गिरोह के साथियों का ऐतबार तो था , यहां राजनीति में किसी पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता। जाने कौन किधर से कैसा वार कर दे , आज का गब्बर डर रहा है , कहीं राजनीति के माहिर खिलाड़ी उसको ही न लूट लें।

अप्रैल 06, 2014

POST : 431 गुण नेता के ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

         गुण नेता के ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कौन है जो सफेद झूठ भी बोलता है और सत्यवादी होने का दम भी भरता है। जो हर दिन भ्रष्टाचार करने के साथ साथ ईमानदारी पर भाषण दे सकता है। किसी को खुद अपने हाथ से क़त्ल करने के बाद उसकी लाश पर आंसू बहा सकता है। जिसके कंधे पर चढ़ कर ऊपर पहुंचा उसी को लात मार सकता है। अपने दुश्मनों से हंस हंस कर गले मिल सकता है और जिसको दोस्त बताता है उसी की पीठ में छुरा घोंप सकता है। देश को लूट कर रसातल में धकेलता हुआ भी देशभक्त कहलाता है। जो पानी को आग लगा सकता है , अमृत को विष बना सकता है। जिसको देख चोर डाकू लुटेरे भी थर थर कांपने लगते हैं। जिसका कोई दीन नहीं ईमान नहीं फिर भी हर धर्म की सभा में जिसका सम्मान किया जाता है। जिसके भीतर नफरत क्रोध अहंकार कूट कूट कर भरा होता है मगर उसके चेहरे पर मुस्कान रहती है बोल चाल में शराफत छलकती है। जो तमाम अपकर्म , काले कारनामे करता है फिर भी हमेशा चकाचक सफेद वस्त्रों में बेदाग़ नज़र आता है। जिसका आदर्श वाक्य है , बाप बड़ा न भईया , सब से बड़ा रुपया। जो खुद को हर विषय का जानकार बताता है जबकि उसको अपने स्वार्थ को छोड़ कुछ भी समझ नहीं आता है। खुद को महान समझता है और अपने घोटालों को देश सेवा और विकास बताता है। इंसान होने के बावजूद जिसमें इंसानियत का कोई नाम तक नहीं है। जो बाकी लोगों को कानून का पालन करने को कहता है मगर खुद किसी नियम कायदे कानून को कभी नहीं मानता। लोकतंत्र की आड़ में जो तानाशाही कायम कर अपने परिवार के हित को साधता रहता है लोक हित घोषित करता हुआ। करोड़ों का गोलमाल करने के बाद भी जो निर्दोष साबित हो साफ बरी हो जाता है और इसको न्याय की जीत कहता है। वो जब साम्प्रदायिक सद्भाव कायम रखने को भाषण देता है तब दंगा-फसाद करवा सकता है। जो दावा करता है कि उसको कुर्सी का कोई मोह नहीं है मगर पद हासिल करने को किसी भी हद तक जा सकता है। कुर्सी बिना जल बिन मछली सा तड़पता है और उसे पाने को सब हथकंडे अपनाता है। जिसको पापों से इस देश की धरती दबी हुई है फिर भी उससे मुक्ति का कोई रास्ता नज़र नहीं आता है। जिसकी कोई विचारधारा नहीं है सत्ता पाना ही एकमात्र ध्येय है जिसका। जो खुद को भाग्य विधाता और जनता को मूर्ख समझता है। गिरगिट की तरह जिसको रंग बदलना आता है। जो चोर से भाईचारा निभाता है बचाने का रास्ता बता कर और साहूकार के घर जाकर वादा करता है चोर को पकड़वाने और सज़ा दिलाने का। अर्थात जिसमें ये सभी अवगुण भरे पड़े हैं तब भी सर्वगुणसम्पन कहलाता है। वह नेता है।

                  नेता केवल नेता होता है , वह न किसी का भाई होता है न किसी का बेटा न ही बाप। वो न किसी का शुभचिंतक है न ही किसी का मित्र।  आदमी होने के बावजूद जो बिच्छू के समान सवभाव वाला हो वही नेता बनता है। वो व्यक्ति दुनिया का सब से खुशनसीब है जिसको कभी किसी नेता से मिलने की ज़रूरत नहीं पड़ी हो। भगवान भी पछता रहा होगा नेता को बनाकर , मगर अब उसपर भगवान का भी कोई बस नहीं चलता है। जो अपने मतलब के बिना अपने बनाने वाले को भी पहचानने से इनकार कर सकता है , ज़रूरत के समय बाप को गधा और गधे को भी बाप बताने वाला ही नेता होता है। इस पहचान को कभी भुलाना नहीं , बचना कहीं आपके आस पास कोई ऐसा खतरनाक प्राणी तो नहीं रहता।  

अप्रैल 04, 2014

POST : 430 शायर दुष्यंत कुमार की याद ( बात सच बोलने की है ) डॉ लोक सेतिया

     शायर दुष्यंत कुमार की याद ( बात सच बोलने की है )

                                         डॉ लोक सेतिया 

सुना होगा आपने भी नाम उस शायर का ,
जिसने अपने देश के , देशवासियों के दुःख दर्द को पूरी शिद्दत से महसूस किया।
वही जिस दुष्यंत कुमार के शेर आप सभी सुनते रहते , सुनाते रहते हर दिन।
 देश में जब भी परिवर्तन की बात होगी दुष्यंत ही याद आयेंगे।

 42 वर्ष हो चुके हैं दुष्यंत को स्वर्गवास हुए मगर वो ज़िंदा है आज भी , विचार कभी मरा नहीं करते हैं। कितने लिखने वालों ने कितनी कितनी किताबें लिख डालीं , मगर जो काम दुष्यंत की 5 2 ग़ज़लों ने लिया वो शायद ही दूसरा कोई कर पाया।

काश आज लिखने वाला , हर इक लिखने वाला अपने आप से सवाल करे कि मैं क्या लिख रहा हूं , क्यों लिख रहा हूं। कभी कभी आता है अवसर कुछ कर दिखाने का अपने वतन की खातिर , अपनी ही खातिर।
अभी साल बाकी है मगर सत्ताधारी दल को इससे भी पहले आगामी चुनाव जीतने की चिंता है। क्या इसको देश हित की राजनीति कहते हैं कि सत्ता हासिल करना मकसद है , सत्ता पाकर देश की जनता से किये वादे निभाना याद नहीं। इक साल दो साल तीन साल और अब चार साल पूरे होने का जश्न। क्या अर्थ है। पांच साल को चुनाव हुआ तो पांच साल होने की खास बात क्या है। अगले साल 2 0 1 9  का चुनाव वो अवसर है , या ऐसा कहना चाहिये कि क्या हम इसको इक अवसर बना सकते हैं। जब हम विचार कर सकते हैं इतने साल बाद हमारा लोकतंत्र कितना परिपक्व हुआ है। दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें अभी भी प्रसांगिक हैं।
 सबसे पहले दुष्यंत की ग़ज़ल उसके शेर दोहराते हैं , शायद कुछ रौशनी दिखला सकें हमें। शुरुआत उनकी पहली ग़ज़ल से :-

कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए ,
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है ,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे ,
ये लोग कितने मुनासिब हैं , इस सफ़र के लिए।
खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही ,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता ,
मैँ बेकरार हूं आवाज़ में असर के लिए।
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शायर को ,
ये अहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।
जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले ,
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।

( काश हम सब इसी एक ग़ज़ल को समझ लें , 
और हर दिन याद रखें अपने पूर्वजों के सपनों को )

अब कुछ और शेर दुष्यंत की ग़ज़लों से :-

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं।
कई फाके बिताकर मर गया जो उसके बारे में ,
वो सब कहते हैं अब , ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा।
कैसी मशालें लेके चले तीरगी में आप ,
जो रौशनी थी वो भी सलामत नहीं रही।

( क्या ये उनके लिए भी नहीं जो उजाला करने की बातें करने को आये थे और 
        जो उम्मीद थी वो भी खत्म की )

ये रौशनी है हक़ीकत में एक छल लोगो ,
कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो।
किसी भी कौम की तारीख के उजाले में ,
तुम्हारे दिन हैं किसी रात की नकल लोगो।
वे कह रहे हैं गज़लगो नहीं रहे शायर ,
मैं सुन रहा हूँ हरेक सिम्त से ग़ज़ल लोगो।

( दुष्यंत के ये शेर जो अब सुनाने लगा बेहद ज़रूरी हैं याद रखना  )

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए ,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी।
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर , हर गली में , हर नगर हर गाँव में ,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं ,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही ,
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए।

( मित्रो इस आग को अब अपने अपने सीनों में जलाना ज़रूरी है )

खामोश रह के तुमने हमारे सवाल पर ,
कर दी है शहर भर में मनादी तो लीजिए।
फिरता है कैसे कैसे सवालों के साथ वो ,
उस आदमी की जामातलाशी तो लीजिए।
हाथ में अंगारों को लिये सोच रहा था ,
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए।
रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया ,
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो।
कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता ,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए ,
मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है।
मुझमें रहते करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है ,
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है।
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर ,
झोले में उसके पास कोई संविधान है।
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप ,
वो आदमी नया है मगर सावधान है।
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से ,
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेज़ुबान है।

( चलो अब और आगे चलते हैं इस ग़ज़ल को पढ़ते हैं )

होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिए ,
इस परकटे परिन्द की कोशिश तो देखिए।
गूँगे निकल पड़े हैं ज़ुबाँ की तलाश में ,
सरकार के खिलाफ ये साज़िश तो देखिए।
उनकी अपील है कि उन्हें हम मदद करें ,
चाकू की पसलियों से गुज़ारिश तो देखिए।

( साये में धूप की आखिरी दो ग़ज़लें पूरी पढ़नी ज़रूरी हैं )

अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार ,
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तहार।
आप बचकर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं ,
रहगुज़र घेरे हुए मुरदे खड़े हैं बेशुमार।
रोज़ अख़बारों में पढ़कर ये ख्याल आया हमें ,
इस तरफ आती तो हम भी देखते फ़स्ले-बहार।
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं ,
बोलना भी है मना , सच बोलना तो दरकिनार।
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं ,
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार।
हालते इनसान पर बरहम न हों अहले वतन ,
वो कहीं से ज़िंदगी भी माँग लाएँगे उधार।
रौनके जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं ,
मैं जहन्नुम में बहुत खुश था मेरे परवरदिगार।
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर ,
हर हथेली खून से तर और ज़्यादा बेकरार।

( चलिये इस अंतिम ग़ज़ल को भी पढ़ लें )

तुम्हारे पाँव के नीचे कोई ज़मीन नहीं ,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं।
मैं बेपनाह अँधेरों को सुबह कैसे कहूँ ,
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।
तेरी ज़ुबान हैं झूठी जम्हूरियत की तरह ,
तू एक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं।
तुम्हीं से प्यार जताएं तुम्हीं को खा जायें ,
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं।
तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक न कर ,
तू इस मशीन का पुर्ज़ा है , तू मशीन नहीं।
बहुत मशहूर है आयें ज़रूर आप यहाँ ,
ये मुल्क देखने के लायक तो है हसीन नहीं।
ज़रा-सा तौर-तरीकों में हेर फेर करो।
तुम्हारे हाथ में कालर हो आस्तीन नहीं।

( साये में धूप से साभार ) 
 

 

अप्रैल 01, 2014

POST : 429 मूर्ख शिरोमणी ( हास-परिहास ) डा लोक सेतिया

       मूर्ख शिरोमणी ( हास-परिहास )  डा लोक सेतिया

         आजकल मौसम भी यही है , चुनाव जो हो रहे हैं। नेता जनता को मूर्ख बनाते बनाते हैरान हैं कि लोग जाने कैसे समझदार हो गये। मगर सच तो ये है अपनी तमाम समझदारी के बावजूद हर बार की तरह अब की बार भी मूर्ख जनता ही बनेगी। फिर उन्हीं दागदारों को जब चुनेगी। कभी होता था विरोधी को भी जो कहना होता था बड़ी शालीनता से कहते थे। अब कीचड़ की होली खेलने का लुत्फ़ उठा रहे हैं नेता लोग। बशीर बद्र जी का शेर है   " दुश्मनी जम कर करो ,लेकिन ये गुंजाइश रहे , जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों "।

       ऐसा लगता है नेताओं में लाज शर्म नाम की चीज़ नहीं होती , तभी कल तक जिसको क्या क्या अपशब्द कहते थे उसको गले लगा रहे हैं। मगर आज इनकी बात नहीं करना चाहता , अपनी बात पे आता हूं , पहली अप्रैल का दिन है ये समझदारी वाली बातें करना शोभा नहीं देता। कहने को ये दुनिया है ही मूर्ख लोगों की , जिधर भी नज़र डालो मूर्खों की मूर्खता दिखाई देती है। फिर भी हर कोई खुद को बाकी दुनिया से अधिक समझदार ही मानता है। मनोविज्ञान वाले इसको सामान्य बात कहते हैं , वो मानते हैं अधिक समझदारी की बात दिमागी तौर पर बीमार लोग करते हैं। जिस किसी ने घोषणा की हो कि मूर्ख दोस्त से अकलमंद दुश्मन अच्छा होता है , उसका मुमकिन है अकलमंदों से पाला ही न पड़ा हो , वरना अक़लमंदो से भला दोस्ती करना संभव है। आज तक आपने दो अक़लमंदो की दोस्ती नहीं देखी होगी , दस मूर्खों की ज़रूर देखी होगी। मूर्खों के बिना अपनी दुनिया बनाने की कल्पना दुनिया को बनाने वाले ने भी नहीं की होगी। मुझे तो अक्सर उसकी समझदारी पर हैरानी होती है ये कैसी दुनिया बनाई उसने , क्या क्या नहीं बना डाला दुनिया वालों के लिये , फिर भी लोग खुश नहीं उससे। अभी तक मूर्खों को अपनी अहमियत का पता नहीं चला , ये उनके कारण ही है कि अकलमंद खुद को अकलमंद साबित कर सकते हैं। ठीक उसी तरह जैसे काले रंग के सामने सफेद रंग की चमक और अधिक लगती है। साल के 3 6 4 दिन खुद बेवकूफ बनने के बाद पहली अप्रैल को दूसरों को मूर्ख बनाने का प्रयास भी अकलमंद लोग ही किया करते हैं। सब मूर्खों को इनसे सावधान रहना चाहिये आज , आज भी पहली अप्रैल है।

             जब भी खबर पढ़ते कि फलां शहर में महामूर्ख सम्मलेन हुआ बड़ी धूमधाम से और किसी को मूर्ख शिरोमणि का ताज पहनाया गया तब मुझ जैसे मूर्ख मायूस हो कर रह जाते। कुछ मित्र जो रात दिन शहर की चिंता में ही दुबले हुए रहते हैं वो भी पूछते यार अपने नगर में मूर्खों की क्या कमी है कि यहां ऐसा नहीं किया जाता। लगता है यहां वाले बुद्धिजीवी साहित्य से और समाज की विसंगतियों से सरोकार नहीं रखते। ऐसे बात कहने वाले तमाम लोग थे लेकिन जो ऐसा आयोजन करवाये वो कोई भी नहीं। इसलिए मैंने सुबह उठते ही ठान लिया ये बीड़ा उठाने को , जब जागे तभी सवेरा। सोचा ये मूर्खता भी कोई दूसरा क्यों करे मैं खुद क्यों नहीं। शाम को ही ऐसी सभा बुलाने का तय कर ही लिया , मुझे अपनी मूर्खता साबित करने किसी के पास नहीं जाना था , शहर के काफी लोग पहले से ही मुझे मुर्ख मानते ही हैं। उम्मीद थी कोई ये सवाल नहीं खड़ा करेगा कि मुझे मूर्खों की सभा बुलाने का क्या अधिकार है। एक मित्र को फोन किया तो वो बोले यार कुछ दिन पहले तय करना चाहिये था , तब ही मज़ा आता , इस साल रहने दो अगले साल का अभी से तय कर लेते हैं। ये उनका तरीका था मुझे अप्रैल फूल बनाने का क्योंकि उनको मेरी बात कुछ ऐसी ही लगी थी। मगर मैं गंभीर था सभा बुलाने को लेकर। मैंने सोचा कि पहले से तय करना मूर्खों का काम नहीं हो सकता , ये तो अकल वाली बात हो गई।

       एक अन्य मित्र जो पुलिस अधिकारी थे मान गये , उनका सुझाव था कि सब लोग खुद सभा में अपनी अपनी मूर्खतायें सुनायें।  तो मैंने उनकी बात मान कुछ लोगों को आमन्त्रित किया कि आयें और खुद बतायें कि हां मैंने भी की हैं मूर्खतायें। कई लोग बोले आज फुर्सत नहीं है फिर कभी। मूर्खता में कोई कमी न रहे इसलिये मैंने सांध्य दैनिक में सब मूर्खों को खुला निमंत्रण का विज्ञापन भी छपवा दिया। साथ में इक नियम भी बता दिया कि शुल्क भी देना होगा मेंबर बनने का , ताकि गलती से अकलमंद लोग मूर्खों का तमाशा देखने को नहीं चले आयें। अकलमंद होने का ये भी नियम है कि किसी काम में समय भले लग जाये पैसे नहीं खर्च होने चाहियें। मन में इक डर ये भी था कि ऐसा न हो कि हम अकेले ही वहां पहुंचे दूसरा कोई भी नहीं आये , तभी कुछ चाहने वालों को विनती कर दी मूर्खों की लाज रखना। थोड़ा देरी से ही सही कुछ लोग आये और सब ने अपनी अपनी मूर्खताओं को बयान किया। सब मान गये कि जो आज के युग में नगरपालिका को सफाई की बात के लिये पत्र लिखे , अफ्सरों को कर्त्तव्य निभाने को , डॉक्टर्स को मानवता की बात , दुकानदारों को लूट जमाखोरी बंद करने की , जनस्वास्थ्य विभाग से साफ पानी की , वो महामूर्ख ही तो है। ये भी सबने माना कि पुलिस अधिकारी अगर संवेदनशीलता की बात करता है , जनता और पुलिस की दोस्ती की बात करता है , कविता लिखता है तो वो भी कम मूर्ख नहीं है। दो घंटे तक यही बातें होती रही और पूरी कोशिश थी कि समझदारी वाली कोई बात नहीं होने पाये। सब एकमत थे कि आज देश और समाज को मूर्खों की बहुत ज़रूरत है। वक़्त बहुत मज़े से कटा , लेकिन इस बात का अफसोस बाकी रहा कि जो हमेशा दावा किया करते हैं कि वो मूर्ख शिरोमणि हैं वो आये ही नहीं। उनको यकीन नहीं आया कि कोई ऐसी सभा बुला सकता है। बस इसी डर से वो अपने घर से बाहर ही नहीं निकले कि कोई उनको मूर्ख बनाना चाहता है। काश कि वो आते और मूर्ख शिरोमणि का ख़िताब पाते। लेकिन चाहे नहीं आये ख़िताब पर उनका दावा तब भी बरकरार है। भला मुझे भी कहां इनकार है।

         ये वास्तविक घटना है और जहां तक मेरी जानकारी है एक अप्रैल का वही पहला और अभी तक का अंतिम आयोजन था मेरे नगर में । समझदार लोगों के इस शहर में मूर्ख भी होंगे ही अन्यथा चालाक और समझदार कैसे चैन से रहते बगैर औरों को मूर्ख साबित किये अपनी समझदारी का सिक्का नहीं जमा सकते हैं। मूर्ख शिरोमणि का ताज अभी भी मेरे पास सुरक्षित है और मैं चाहता हूं कोई खुद आकर अपना अधिकार जतलाए और मुझसे ताज ले जाए।