जुलाई 04, 2024

निकले थे किधर जाने को पहुंचे कहां ( चीख-पुकार ) डॉ लोक सेतिया

 निकले थे किधर जाने को पहुंचे कहां ( चीख-पुकार ) डॉ लोक सेतिया 

ये भजन मेरी माता जी हर समय गाती - गुनगुनाती रहती थी । मैंने फिल्मों में और सभी जगह बहुत भजन सुने हैं मगर मुझे जो अलग बात इस भजन में लगती है ,  कहीं और नहीं मिली अभी तलक । भजन का मुखड़ा ही याद है उसके बाद उस भजन की बात को खुद मैंने  , अपने शब्दों से सजाने का प्रयास किया है । ये भजन अपनी प्यारी मां को अर्पित करता हूं । मेरी मां श्रीमती माया देवी जी 5 जुलाई 2004 को दुनिया को छोड़ चली गई थी नहीं मालूम कहां फिर भी हमको उस का होने का एहसास हमेशा रहता है , वो जिस भजन गाया करती थी कुछ इस तरह से है । 29 मई 2017 को ब्लॉग पर लिखा है वही प्रस्तुत कर रहा हूं । 
                    

          (  तुझे भगवान बनाया हम भक्तों ने , इक भजन सब से अलग है  )


भगवन बनकर तू अभिमान ना कर ,
तुझे भगवान बनाया हम भक्तों ने ।

पत्थर से तराशी खुद मूरत फिर उसे ,
मंदिर में है सजाया हम भक्तों ने ।

तूने चाहे भूखा भी रखा हमको तब भी ,
तुझे पकवान चढ़ाया हम भक्तों ने ।

फूलों से सजाया आसन भी हमने ही ,
तुझको भी है सजाया हम भक्तों ने ।

सुबह और शाम आरती उतारी है बस ,
इक तुझी को मनाया हम भक्तों ने ।

सुख हो दुःख हो हर इक क्षण क्षण में ,
घर तुझको है बुलाया हम भक्तों ने ।

जिस हाल में भी रखा है भगवन तूने ,
सर को है झुकाया हम भक्तों ने ।

दुनिया को बनाया है जिसने कभी भी ,
खुद उसी के है बनाया हम भक्तों ने । 

 
आजकल तमाम जगह जैसे जश्न मनाना हो , भीड़ बनकर किसी इंसान को अपना भगवान समझ कर करोड़ो लोग इक अंधविश्वास के जाल में फंस कर भटकते भटकते कई बार जीवन से हाथ धो बैठते हैं । उसको खोजना या पाना नहीं जानना होता है चिंतन मनन कर खुद अपने आप अकेले शांत मन से लेकिन हम कठिनाई से डरते हैं और चाहते हैं ईश्वर को आसानी से मिल जाएं । ईश्वर हमको आसानी से नहीं मिलता कभी भी जो हमको कहीं आश्रम मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा बुलाते हैं वो कुछ भी हो सकते हैं ख़ुदा या भगवान नहीं । हमने सोचा कि जैसा हम चाहते सोचते समझते हैं भगवान वैसा ही होगा , जबकि बात उल्टी है हमको उस तरह सा इंसान बनना होगा जैसा भगवान चाहता है । इतने भगवान बन गए बना लिए हैं कि बड़ी आसानी से उपलब्ध हैं महंगाई में कौड़ियों के भाव भगवान बिकते हैं अचरज की बात है जो जब चाहे उसे देख कर आशिर्वाद प्राप्त कर सकता है , मानो भगवान भी सोशल मीडिया का संदेश है जितना चाहो फॉरवर्ड करते जाओ कोई सीमा नहीं । हादसा होने के बाद किसी को कुछ समझ नहीं आता कि ये किस का कर्तव्य था किस ने कोताही बरती कोई तो ज़िम्मेदार ज़रूर है । 

लाशों से कौन पूछे आये थे कहां चल दिए कहां 
समझा ही नहीं उस जगह उनकी दर्द भरी दास्तां ।
 
भीड़ थी जिस जगह भगवान वहां रहते नहीं कभी 
राह संतों की एकांत की भक़्तों का कैसा कारवां । 
 
ध्यान चिंतन मनन ईश्वर की उपासना होती नहीं 
महलों में धर्म सभाओं में हर तरफ होता कोई धुंवां । 
 
किसको है देखना आपको धरती नहीं वो है आस्मां 
तिनके को क्या खबर अपना कहीं भी नहीं है निशां । 
 
भगवान खुश नहीं होते रोज़ ये ही हादसा देख कर उनको लगता है कितने बेबस हैं , भगवान को भीड़ देख कर परेशानी होती है इतनी आवाज़ें इतना शोर कुछ समझ नहीं आता कुछ भी सुनाई नहीं देता । ऊपरवाला हैरान है ये कौन कैसा नादान है जो आदमी खुद को बना बैठा भगवान है । भगवान होना है हर किसी का अजब अरमान है भीतर मगर रहता छुपा हुआ शैतान है । भगवान जिस ने दुनिया बनाई सभी का अस्तित्व बनाया इक पहचान बनाई खुद उसी को लगता है जिसे देखो मेरा नाम ओ निशां मिट्टी में मिलाना चाहता है , विश्वास पर ईश्वर के कितने सवाल खड़े हैं कौन अपने भक्तों को बचाना चाहता कोई है जो ज़िंदगी का मातम मनाने को भीड़ बुलाना चाहता है । असली का कुछ अता पता नहीं अभी तक सभी काल्पनिक भगवान से नाता बनाए हैं सबको अपनी मर्ज़ी अपनी पसंद का सामान ही नहीं भगवान भी चाहिए , ये बात समझ कर तमाम लोगों ने भगवान का बाज़ार लगाया हुआ है आजकल यही सबसे अधिक मुनाफ़े का व्यौपार है हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा । भगवान देवी देवता सब कर सकते हैं तो अपने दर्शन करने आये अनुयाईयों श्रद्धालुओं की रक्षा कैसे नहीं कर सके सवाल तो है । खुद वास्तविक भगवान लोगों को इन सभी से बचाएं इतनी प्रार्थना है ।

कला दर्पण | • अहमद फ़राज़ 🥀 Follow : @kala.darpan Like comment share  ----------------------- #kaladarpan #कलादर्पण #ahmadfaraz  #ahmadfarazpoetry… | Instagram
 

जुलाई 03, 2024

उजाला है बाहर भीतर अंधेरा ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

      उजाला है बाहर भीतर अंधेरा ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

कभी कभी नहीं अक़्सर होता है आधी रात को नींद खुलती है और मन में कुछ घटनाओं को लेकर विमर्श होने लगता है बेचैनी में नींद आये भी कैसे हम सोना नहीं चाहते जागकर समझना अच्छा लगता है । अधिकांश मैं लिखने बैठ जाता हूं और विचार खुद ब खुद आते रहते हैं लेकिन आज , कल रात से लिख नहीं पाया क्योंकि मन में इतनी निराशा भरी थी कि सिर्फ़ अंधकार दिखाई देता लगता था । मगर चाहे कितना भी घना हो कोई अंधेरा कोई न कोई किरण उजाले की कहीं से चीरती अंधकार को मिटाती अवश्य है । जीवन में और समाज में हालात जितने भी खराब हों हमको उन से बाहर निकलना ही चाहिए घबरा कर हार नहीं मानते हैं । हर व्यक्ति कभी न कभी लगातार जूझते जूझते थकने लगता है ऐसे में उसे साहस को फिर से जगाना होता है बिखरे सपनों को टूटी आशाओं को जगाना पड़ता है । ज़िंदगी का यही संघर्ष ऊर्जा देता है उस सब बुराई बदसूरती को अच्छाई और ख़ूबसूरती में बदलने को , हर मोड़ से फिर से नया सफ़र शुरू करना होता है इस जीवन में कितने मोड़ आने अभी बाक़ी हैं कोई नहीं जानता है । 
 
विषय की विविधता की कोई सीमा नहीं है ये चर्चा देश समाज धर्म राजनीति से दोस्ती रिश्तों तक ही नहीं शायद इस दुनिया से किसी दूसरी दुनिया तक विस्तार लिए हुए है । वास्तविक जीवन में आस पास हर तरफ बातचीत आदर्शवादी विचारों और महान चरित्र की होती है लेकिन जब घड़ी आती है तो ये सब खोखले और झूठे साबित होते हैं । सोशल मीडिया पर भली भली बातें करने वाले वास्तव में भलाई करते कम और बुराई करने पर गर्व करते अधिक दिखाई देते हैं । भरोसा नहीं कि कब कौन पीठ में ख़ंजर घोपने का कार्य कर अपने स्वार्थ की ख़ातिर संबंधों को घायल कर दे । संसद विधानसभाओं में बैठ कर अथवा किसी संगठन संस्था के उच्च पद पर नियुक्त होने के बाद भी लोग संकीर्ण मानसिकता से उबर नहीं पाते हैं । जिनको न्याय और सत्य की रक्षा करनी है जब वही पक्षपात करने और दोषी को बचाने लगते हैं तब लोकतंत्र संविधान सभी का मकसद खो जाता है । 
 
अचरज की बात है जिनके पास आवश्यकता से अधिक है उनकी लालसा और हासिल करने की खातिर सही गलत को अनदेखा कर मनमानी करने की दिखाई देती है । राजनेता अधिकारी कर्मचारी व्यौपारी से बड़े प्रोफेशन में कार्यरत शिक्षक चिकित्सक उद्योगपति मानवता का धर्म भूलकर जो कभी नहीं करना चाहिए करने लगते हैं । कभी ऐसे लोग संख्या में कम होते थे उचित कर्तव्य निभाने वाले अधिकांश लेकिन अब दशा उल्टी हो गई है सही आचरण करने वाले विरले लोग नज़र आते हैं और विडंबना की बात है कि उनको समाज नासमझ और नादान कहता है । अधिक धनवान होना सफ़लता का तराज़ू बन गया है जबकि सामाजिक कर्तव्य निभाना और ईमानदारी को महत्व देना चाहिए था , सही मार्ग पर चलना जब मूर्खता कहलाए तो सामाजिक मूल्यों का कितना पतन हो चुका है समझना तो होगा । बड़ी ऊंची इमारतें बनाते हैं मगर जो अपने मूल्य और आदर्श थे उनको कितना नीचे ले आये हैं , खुली खुली सड़कें हैं लेकिन सोच कितनी तंग है कभी समझा ही नहीं ।  
 

एहसास ( कविता ) 1973 की पुरानी डायरी से फिर से याद आई है ।

यह कैसी उदासी है यह कैसी है तन्हाई 
गुलशन है वीराना फूलों की है रुसवाई । 
 
ख़्वाब सभी महलों के पड़े रेत के ढेरों में 
रह गए हैं दबकर सब सितारे इन अंधेरों में ।   
 
मेरा हर सवाल है ख़ुद अपना जवाब भी है 
था वो संगीत मेरा ही टूटा हुआ साज़ भी है । 
 
अपने ही महलों में अब सांस ये घुटती है 
मौत भी कैसी है ज़िंदगी पर जा रूकती है ।  
 
ज़िंदगी ले लो मुझसे इन मौत की सांसों की 
दे दो मुझे सपनों भरी नींद उन एहसासों की ।  
 
 कोई उम्मीद बर नहीं आती - ग़ालिब
 

जुलाई 02, 2024

ख़ामोश रहो हसरत है उनकी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

      ख़ामोश रहो हसरत है उनकी ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

उनकी सियासत मुसीबत है हमारी सत्ता को लगी है इक ऐसी बिमारी , जनता की बड़ी भूल जो की उन्हीं से है यारी । सहयोग करें उनका फ़रमान है जारी , चाकू की शिकायत है मदद करती नहीं पसलियां हमारी ,  शायर दुष्यंत कुमार पढ़ पाये नहीं आदेश सरकारी । जाने खुद आये या बुलाया गया उनको खफ़ा थे किसी बात पे मनाया गया उनको सब लोग गुनहगार हैं , ये उनकी अदालत है कुछ भी किसी से पूछा नहीं सुना नहीं , बस फैसला था उनका सुनाया गया सबको । तलवार हैं या कि खऱीदार हैं , जाने किस किस बात से रूठे हुए खुद सरकार हैं , अपने मुंह मियां मिट्ठू मियां अपना पक्ष रखता इश्तिहार हैं जनाब , आपका नसीब हाथ जोड़ खड़े हैं सभी चुपचाप ख़ानाख़राब । वो आए कि बुलाए गए कोई फर्क नहीं पड़ता है , लेकिन वो शिकायत सुनने को नहीं खुद शिकयत करने को उत्सुक थे । शिकायतें शिकवे उनको सभी से थे कम नहीं जाने कितने थे लेकिन सब से बड़ी शिकायत थी लोग खामोश होकर उनकी सुन कर यकीन नहीं करते यही उनकी बेचैनी है उनकी नींद में खलल पड़ता है , नींद क्यों रात भर नहीं आती । जाने कब से उनको यही महानता लगती थी कि लोग ही नहीं दुनिया तक उनसे डरती है , किसी को भयभीत करना शूरवीरता नहीं होती है शूरवीर डर रहे लोगों को निडरता का भरोसा देते हैं सत्य हमेशा निडर होकर सच के पक्ष में खड़े होने का पाठ पढ़ाता है ।

सत्ता का रोग ही ऐसा है कि शासक बनते ही सभी अपने बेगाने लगने लगते हैं केवल हां जी कहने वाले चाटुकार अपने परिजन लगते हैं । ऐसा भी होता है हम खुद कुछ सोच कर किसी को आदर दे कर आमंत्रित करते हैं , मगर हम नहीं जानते कि जब किसी को सत्ता मिलती है तो वो शालीन होकर आपकी गरिमा की परवाह नहीं रख अपनी असलियत दिखला ही देता है । शायद शासक बनते ही सभी का आचरण बदल जाता है और जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि खुद को जनसेवक नहीं दाता समझने लगते हैं । अख़बार में पढ़ने को मिलता है जनता की समस्याओं का निवारण करने को आयोजित सभाओं में किसी की परेशानी समझने की जगह शिकायत करने पर ही नाराज़गी जताई जाती है और जैसे फटकार लगाई जाती है । जनता सरकार बनाती है और जनता या कोई भी वर्ग शासक से कोई ख़ैरात नहीं चाहते हैं उनकी बात सुनना उनको इंसाफ़ दिलवाना जिनका कर्तव्य है उनकी भाषा अहंकारी होना बेहद आपत्तिजनक है । बदले बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं घर की बर्बादी के आसार नज़र आते हैं । आपको इतिहास बदलना है तो कुछ सार्थक कर दिखाना होगा सिर्फ बड़बोलापन किसी को इतिहास में जगह नहीं दिलवा सकता है ।

जुर्म किया जो उन पर ऐतबार किया उम्र भर बस यही इंतिज़ार किया , अभी तलक जनता को इतनी बात नहीं समझ आई कि चोर चोर होते हैं भाई भाई । सुनानी बांसुरी थी बजाने लगे वो शहनाई लगा जैसे विदाई की घड़ी करीब आई मिला दूल्हा नहीं दुल्हन नहीं यहां है सिर्फ तन्हाई । सलीके से बात नहीं करते समझेंगे क्या किसी की परेशानी जिनको हालत से होती है परेशानी वार्तालाप करना ही बेमानी वहां जाना है नादानी जहां क़द्र नहीं अपनी पहचानी । भले वो कितने बड़े सिंहासन पर बैठे हों अगर सभी का आदर नहीं करते बल्कि कोशिश करते हैं नीचा दिखाने खामोश करवाने की तो ध्यान देना  तुलसीदास जी कहते हैं :-
 
आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं स्नेह
तुलसी तहां न जाइए कंचन बरसे मेह ।

सरकार है बेकार है लाचार है ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सरकार है  , बेकार है , लाचार है
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है ।

फुर्सत नहीं समझें हमारी बात को
कहने को पर उनका खुला दरबार है ।

रहजन बना बैठा है रहबर आजकल
सब की दवा करता जो खुद बीमार है ।

जो कुछ नहीं देते कभी हैं देश को
अपने लिए सब कुछ उन्हें दरकार है ।

इंसानियत की बात करना छोड़ दो
महंगा बड़ा सत्ता से करना प्यार है ।

हैवानियत को ख़त्म करना आज है
इस बात से क्या आपको इनकार है ।

ईमान बेचा जा रहा कैसे यहां
देखो लगा कैसा यहां बाज़ार है ।

है पास फिर भी दूर रहता है सदा
मुझको मिला ऐसा मेरा दिलदार है ।

अपना नहीं था ,कौन था देखा जिसे
"तनहा" यहां अब कौन किसका यार है ।  
 
 जो मिल गया वो अपना है और जो टूट गया वह सपना है।~ Heart Touching  Motivational Video ~"ज्ञानहोनाचाहिए"

जुलाई 01, 2024

लिखने को अल्फ़ाज़ जज़्बात अंदाज़ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

  लिखने को अल्फ़ाज़ जज़्बात अंदाज़ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

लिखना आसान नहीं , समझना मुश्किल है , लिखना क्या है । कभी उम्र भर लिखने से भी जो अंदर है बात अधूरी रह जाती है तो कभी चंद मिसरे चार लाइने इतना कुछ समेटे हुए होते हैं कि अर्थ समझने में ज़माना लगता है । आपको दिल किसी से लगाना लगता है झूठा अफ़साना लगता है लिखने वाले को जीने मरने का बस वही इक बहाना लगता है । सार्थक लेखन की दुश्वारियां हैं दुनिया फूलों के गुलशन चाहती है प्यार मुहब्बत की कहानियां पढ़ती है , किताबें जिस राह से गुज़रती हैं पगडंडी के दोनों तरफ कंटीली झाड़ियां हैं । घायल जिस्म की लिखनी कोई कहानी है प्यास बहुत है समंदर भी है , पीना नहीं खारा पानी है । पाठक कब किताब पढ़ते हैं कीमत कितनी है बस वही हिसाब रखते हैं सवालों की झड़ी लगाते हैं लिखना कितना ज़रूरी था वही सवाल करते हैं , सवालों का जवाब रखते हैं । हम जो लिखना हो साफ शब्दों में लिख देते हैं , कुछ बहुत ही लाजवाब लिखते हैं पर्दे में रखते हैं हुस्न की बातें चेहरे पर नकाब रखते हैं , आजकल हसीन लोग कितने रंग के ख़िज़ाब रखते हैं । इश्क़ की किताब पढ़ने वाले छुप छुप कर दुनिया से रहने वाले रुख पर अपने हिजाब रखते हैं । सच लिखना झूठ लिखना सर पर किसी के ताज लिखना किसी के पांव की धूल लिखना लोग जो चाहते वही बात लिखना मतलब है कि , सब फ़िज़ूल लिखना , किसी मज़बूरी को गुनाह लिखना और किसी जुर्म को यही है उसूल लिखना , क़ातिल को मसीहा कहना क़त्ल जिस का हुआ उसकी भूल लिखना । लिखना कुछ भी लिख देना आसान है जो नहीं लिखा गया समझना ज़रूरी है उसे मिटा नहीं सकते छिपाना आसान नहीं है । अल्फ़ाज़ खामोश हैं जज़्बात बेज़ुबान नहीं है , किस के मुंह में ज़ुबान नहीं है जिस दुनिया में कहीं भी कोई भी आसमान नहीं है उस का रहता बाक़ी निशान नहीं है । अपने दिल का पूरा हुआ अभी तलक इक अरमान नहीं है दुनिया ने लगाया नहीं जो हम पर कोई इल्ज़ाम नहीं है । 
 
लिखना शुरू होता है जब भीतर कोई भाव उपजते हैं , किसी से चाहत किसी को हासिल करने की हसरत से ईबादत तक दिल कब क्या महसूस करता है , कहना भी हो तो कोई समझने वाला नहीं होता ऐसे में कागज़ पर अपने जज़्बात अल्फ़ाज़ों में पिरोते हैं । ऐसी सुबह जिसकी कभी शाम नहीं होती मुहब्बत कभी बदनाम नहीं होती आरज़ू दिल की रहती है हमेशा पूरी नहीं हो तब भी नाकाम नहीं होती । कोई प्यार दोस्ती रिश्ते पर कोई कुदरत पर कोई पेड़ पौधे पक्षी और उड़ान पर कोई ज़मीन कोई आसमान पर लिखते हैं वतन की आन बान शान पर आदमी के आगाज़ पर ज़िंदगी के अंजाम पर गीत लिखते हैं अपनी तान पर । हर कोई अपने अपने रंग से इक तस्वीर बनाता है कोई धागा जोड़ता है कोई जंज़ीर बनाता है , हर मजनू की लैला होती है , हर कोई रांझा बनकर अपनी हीर की तकदीर बनाता है । कोई कविता कोई ग़ज़ल कोई नज़्म कोई कथा कहानी सभी करते हैं हमेशा ही कोई न कोई ऐसी नादानी कभी किसी ने लिखने वाले की कीमत नहीं पहचानी पढ़ने वाले कहता है लिखने वाला तुम्हारी बड़ी मेहरबानी । 
 
लिखना लिख कर फिर पढ़ना और पढ़ कर समझना समझ कर लिखे हुए को मिटाकर दोबारा लिखना ऐसा साहित्य की यात्रा का सफ़र जारी रहता है । यहां ईनामात सौगात पुरुस्कार कोई तराज़ू कोई पैमाना नहीं महत्व रखता है साहित्य की सफ़लता तभी मानी जाती है जब समाज को झकझोरती है बदलाव लाने का कीर्तिमान स्थापित करती है । अन्यथा जीवन भर कागज़ काले करते रहने का औचित्य कुछ भी नहीं होता है भला किसी की ख़ुशी किसी का दर्द कौन समझता है पपीहा जागता है रात भर पीहू पीहू की मधुर वाणी सुनाई देती है अपने पिया को ढूंढता है पी कहां पी कहां , बस यही संदेश है सच्चे लिखने वाले का भी जिसे तलाश रहती है किसी खूबसूरत दुनिया की जो उसके ख्यालों ख्वाबों में है कहीं सपने को वास्तविकता बनाने को चाहत में कलमकार जीवन भर खोया रहता है । 

लिखना आदत होती है किसी दिन बन जाती मज़बूरी है शायर कहता है :-
 

कहानी हो ग़ज़ल हो बात रह जाती अधूरी है ( ग़ज़ल ) 

       डॉ लोक सेतिया "तनहा"

कहानी हो ग़ज़ल हो बात रह जाती अधूरी है
करें क्या ज़िंदगी की बात कहना भी ज़रूरी है ।

मिले हैं आज हम ऐसे नहीं बिछुड़े कभी जैसे
सुहानी शब मुहब्बत की हुई बरसात पूरी है ।

मिले फुर्सत चले जाना , कभी उनको बुला लेना
नहीं घर दोस्तों के दूर , कुछ क़दमों की दूरी है ।

बुरी आदत रही अपनी सभी कुछ सच बता देना
तुम्हें भाती हमेशा से किसी की जी-हज़ूरी है ।

रहा भूखा नहीं जब तक कभी ईमान को बेचा
लगा बिकने उसी के पास हलवा और पूरी है ।

जिन्हें पाला कभी माँ ने , लगाते रोज़ हैं ठोकर
इन्हीं बच्चों को बचपन में खिलाई रोज़ चूरी है ।

नहीं काली कमाई कर सके ' तनहा ' कभी लेकिन
कमाते प्यार की दौलत , न काली है न भूरी है ।
 
 जीवन की सबसे बड़ी कमाई है ज्ञान का पन्ना, किताबें दिखाती हैं सही राह |  Jansatta