अगस्त 25, 2022

ग़म का कारोबार नहीं करते ( आधी अधूरी कहानी ) डॉ लोक सेतिया

   ग़म का कारोबार नहीं करते ( आधी अधूरी कहानी ) डॉ लोक सेतिया 

   सच कहने और स्वीकार करने में संकोच नहीं करते हैं हम , लिखने वाले दुनिया के बाज़ार की परवाह नहीं करते हैं । हार जाते हैं हारते नहीं हैं , खरीदार ज़माना है झूठ का , और हम दुनिया के बाज़ार में बिकते नहीं हैं । कई बार कितने लोग मुझे चने के झाड़ पर चढ़ाते हुए कहते थे आपकी लेखनी कमाल की है । मैं बहुत बार जानता समझता था कहने वाले ने मुझे पढ़ा ही नहीं है सिर्फ खुश करने या कोई मतलब होने के कारण झूठी तारीफ करता है । निसंकोच बताएं कोई सहायता कर सकता हूं तो अवश्य ख़ुशी से करना चाहूंगा । 25 साल की उम्र में ज़िंदगी से सामना हुआ तो कुछ महीनों में दोस्ती रिश्ते अपनापन की वास्तविकता समझ आ गई थी , हर कोई मुझे इस्तेमाल करना चाहता था और कोई कीमत नहीं समझ कर खरीदार बन कर मुझे पाना चाहता था बदले में देना कुछ भी नहीं चाहता था । होशियारी हमने कभी नहीं सीखी जीवन भर नासमझ रहे हैं । मैं समझता हूं कि मेरा लेखन कोई बड़े ऊंचे स्तर का नहीं है और कभी बड़े बड़े साहित्य कारों से तुलना करने की मूर्खता नहीं की है । इसलिए कहता था मेरा लेखन उच्च कोटि का नहीं मगर वास्तविक और मौलिक एवं सच्चाई को उजागर करता है। 
 
  उनको शायद उम्मीद नहीं थी ऐसा होने की जबकि मुझे अक्सर जैसी आशंका रहती है वैसा ही होता है तभी मैं नाकामी निराशा से घबराता नहीं , उन्होंने कहा आपकी किताब को जैसा उन्होंने सोचा था पाठक वर्ग से उतना प्यार मिला नहीं है । बहुत कारण हैं पहला मुझे खुद को बाज़ार की वस्तु बनकर संवरना नहीं आता है और कभी लोग जैसा चाहते हैं लिखना मंज़ूर नहीं किया । और दूसरा आधुनिक युग में सोशल मीडिया से लेकर अन्य दुनियादारी के तौर तरीकों से तमाम हथकंडे अपना कोशिश करने की आदत नहीं है । किसी को झूठी चमक - दमक से आकर्षित करना भले बाद में उसको लगे विज्ञापन के झांसे में गलती कर बैठा उचित नहीं होता है । सच को समझने में वक़्त लगता है और कितनी बार किसी को ज़िंदा रहते स्वीकार नहीं किया गया लेकिन मौत के बाद या सूली चढ़ाने के बाद समझा दुनिया ने कि सच क्या था । मंच पर वाह वह और तालियां बटोरने वाले सार्थकता से अधिक नाम शोहरत पैसा बनाने पर ध्यान देते हैं शायद नहीं समझते ये कुछ पलों की बात है कालजयी रचना का महत्व अलग होता है । सभी जिस राह चलते हैं आसान राह सफलता हासिल करने की मुझे भाती नहीं है खुद अपनी बनाई पगडंडी पर चलना पसंद है । 
 
     मेरी भी किताब बिकवा दो , व्यंग्य रचना लिखी थी बीस साल पहले जब अटल बिहारी बाजपेयी जी की किताब जननायक को लेकर यू जी सी से विश्वविद्यालयों को पत्र भेजा गया । 1000 रूपये मूल्य की किताब आज एक चौथाई कीमत पर उपलब्ध है कितनी पढ़ी गई खरीद कर कितनी विवश हो मंगवाई लायब्रेरी की अलमारी की शोभा बढ़ा रही ये राज़ की बात है । लेकिन अच्छे साहित्य लेखन की कटौती एक ही है वर्षों बाद कोई पढ़ता है तो क्या विचार आता है , क्या उस कालखंड में लोग यही सोचते समझते पसंद करते और लिखते पढ़ते थे या फिर ऐसा लगता हो कि तब भी ऐसे लीक से हटकर निडर होकर भीड़ में शामिल नहीं होने वाले विचारशील हुआ करते थे । मेरा मानना है कि कई साल बाद कोई पढ़ेगा मुझे तो यही समझेगा कि ये लिखने वाला शानदार शब्दों और कलात्मकता से प्रभावित भले नहीं कर सका हो लेकिन अपने समय की वास्तविकता को उजागर करने में पूर्णतया सफल रहा है । समाज की सही तस्वीर आईने में दिखलाना ही पहला और अंतिम मकसद होता है लेखन धर्म में। 
 
अपनी चार अभी तक प्रकाशित पुस्तकों को लेकर मैं दावा कर सकता हूं की सभी अपने नाम के अनुरूप रचनाओं का संकलन हैं ।
 
1  फ़लसफ़ा - ए - ज़िंदगी , ग़ज़ल संग्रह में ज़िंदगी का फ़लसफ़ा है । 
 
2  एहसासों के फूल , कविता संग्रह में भावनाओं की कोमल छुवन है । 

3 हमारे वक़्त की अनुगूंज , व्यंग्य रचनाओं में इस समय की सच्चाई है ।
 
4 दास्तानें ज़िंदगी , ज़िंदगी की कहानियों को बयां करती दास्तानें हैं ।
 
 

 

अगस्त 24, 2022

POST : 1500 यहां भगवान बन जाते वहां शैतान बन जाते ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

         यहां भगवान बन जाते वहां शैतान बन जाते ( ग़ज़ल ) 

                 डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

यहां भगवान बन जाते , वहां शैतान बन जाते
हमेशा के लिए तुम क्यों नहीं इंसान बन जाते । 
 
ज़रूरत पर हमेशा ही झुकाए सर चले आये 
तुम्हारे पास आएं लोग तब अनजान बन जाते । 
 
तुम्हारे वास्ते दर खोलना महंगा पड़ा सबको 
निकाले से नहीं निकले जो वो महमान बन जाते । 
 
अदावत की सियासत से कभी कुछ भी नहीं मिलता 
न जो अभिशाप बनते काश इक वरदान बन जाते । 
 
बहुत करते रहे तुम सब अमीरों पर मेहरबानी 
गरीबों के लिए अच्छे सियासतदान बन जाते । 

भरी नफरत दिलों में , और आ जाते हैं मंदिर में 
समझते सब को अपना आप गर भगवान बन जाते । 

मुहब्ब्बत उम्र भर " तनहा " रहे करते ज़माने से 
दिखावा लोग सब करते हैं झूठी शान बन जाते । 



 
 

अगस्त 23, 2022

ज़िंदगी भर ख़ुशी ढूंढते हैं लोग ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

       ज़िंदगी भर ख़ुशी ढूंढते हैं लोग ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

मिलती नहीं जीवन भर क्यों 
मिलती है ख़्वाबों में शायद वो 
और हम ने ख़्वाब सजाना ही 
हक़ीक़त से घबरा छोड़ दिया । 

वही मांगते हैं खुशियां उन्हीं से 
देते हैं जिनको दर्द की सौगातें 
इंसान इंसान हैं कोई पेड़ नहीं 
पत्थर खा देते हैं फल सबको ।
 
बना दिया है कारोबार उसे और 
कीमत लगाते हैं सब ख़ुशी की 
दर्द के बदले कौन बांटता है अब 
अपनों बेगानों को वास्तविक ख़ुशी । 
 
इक बार इक ख़ुशी मिली हमको 
करीब जा कर देखा उसकी आंखें 
अश्क़ों से भरी हुई थी दर्द सहते 
मुस्कराहट मगर लबों पे रहती थी ।
 
वो नन्हीं सी बिटिया चाहती थी 
उठा कर कोई चूमे माथा उसका 
फुर्सत थी किसे खेले संग कौन 
खिलौनों से बहलाना था आता । 
 
देख कर ग़म सभी भूल भूल जाएं 
मासूम ख़ुशी बड़ी हो गई धीरे धीरे 
घबराती अब सबसे करीब आने से
खुश होने लगे सभी उसे रुलाने से । 
 

 

 
 
 

अगस्त 20, 2022

लिखने वाले लेखक का दर्द ( आलेख ) डा लोक सेतिया

   लिखने वाले लेखक का दर्द  ( आलेख )  डॉ लोक सेतिया 

    घटना कोई तीस साल पहले की है , लेखक का दर्द शीर्षक से व्यंग्य रचना लिखी थी अखबार को भेजी थी । शोषण पर संपादकीय पढ़ा था संपादक जी का तो ख्याल आया कितने बड़े बड़े अखबार पत्रिका वाले करोड़ों की आमदनी होने पर भी लिखने वाले तथा समाचार भेजने वालों को कुछ भी नहीं देते या नाम भर को मानदेय देते हैं जो सम्मानजनक कदापि नहीं लगता है । अफ़सोस हुआ जब इक संपादक ने रचना को लौटाया पुर्ज़े-पुर्ज़े कर फाड़ कर और लाल सियाही से काटने को लकीर लगा कर । सामान्य तौर पर खेद सहित रचना लौटाई जाती थी अन्य किसी को भिजवाने के लिए । तब ध्यान आया था जब किसी के यहां कोई मर जाता है तब उधर से फाड़ कर चिट्ठी भिजवाई जाती है , मैंने समझ लिया था उनका ज़मीर मर गया है । लिखना तलवार की धार पर चलना है हिंदी लेखक को शायद ही अपनी महनत का उचित मेहनताना मिलता है , सबके शोषण और मानवता के दर्द की बात लिखने वाला खुद अपना दर्द नहीं बताता कभी पाठक को । तीस चालीस साल लिखने के बाद किताबें छपवाई तब सोशल मीडिया पर जानकारी देने को पब्लिशर का संपर्क नंबर दिया और किसी दोस्त का जवाब आया पैसे लेते हैं दोस्त से उपहार देना चाहिए । उनकी बात वास्तविकता बताती है लोग किताब खरीद कर नहीं पढ़ते अधिकांश तौर पर , जब मैंने लिखना शुरू किया था इक पत्रिका में कॉलम छपता था , क्या आप मांग कर भोजन खाते हैं कपड़े पहनते हैं अन्य आवश्यक चीज़ें मुफ्त लेते हैं । अगर नहीं तो मांग कर नहीं खरीद कर पढ़ें और अपने परिवार को अच्छे साहित्य से जोड़ कर सही मार्गदर्शन पाने की आदत डालें । कुछ साल पहले सार्थक लेखन पर इक आलेख लिखा था जब इक बचपन के दोस्त के बेटे ने अपनी किताब के विमोचन पर कोई आलेख पढ़ने को कहा था , ढाई आखर प्रेम के लिखना बाक़ी है अभी , शीर्षक से रचना पढ़ कर सुनाई थी सभा में । मगर सुझाव उनको आलोचना क्यों लगा मुझे समझ नहीं आया था ।

      18 मई 2014 ( अभी बाक़ी है पढ़ना लिखना )                    

    बात करते हैं उनकी भी आज जिनका दावा है कि वो दर्पण हैं समाज का। बहुत जोखिम भरा काम है ये , आईने को आईना दिखाना। इतनी छवियां उनमें दिखाई देती हैं कि नज़रें हार जाती हैं उनको निहारते निहारते। ये विषय इतना फैला हुआ है कि इसका ओर छोर तलाशते उम्र बीत सकती है। इसलिये कुछ आवश्यक बातों पर ही चर्चा करते हैं ताकि ये समझ सकें कि आज का साहित्य , आज का लेखक कहां खड़ा है , क्या कर रहा है और किस दिशा में जा रहा है। जब भी कोई कलम उठाता है तब वास्तव में सब से पहले वो खुद अपने आप को तलाश करता है , मैं क्या हूं , मेरा समाज कैसा है , कहां है। तब सोचता है कि ये समाज होना कैसा चाहिये , मुझे क्या करना चाहिये इसको वो बनाने के लिये। इतिहास में जितने भी महान लेखक हुए हैं वो सभी अपने इसी मकसद को लेकर लिखते रहे हैं। उन्होंने ये कभी नहीं सोचा था कि उनको लिखने से क्या हासिल होगा या क्या नहीं मिलेगा। कुछ भी पाना या खोना उनका ध्येय नहीं था , केवल इक लगन थी जो उनको लिखने को विवश करती रही। और उन्होंने दुनिया को वो दिया जो सदियों तक कायम रहा। इधर कुछ ऐसे भी लोग हैं जो लिखने को विवश नहीं होते , कोई विवशता उनको लिखने को बाध्य करती है।  जैसे अखबार या पत्रिका का संपादक नित लिखता है नये विषय पर इसलिये नहीं कि उसकी सोच विवश करती है , बल्कि इसलिये कि उसको इक औपचारिकता निभानी है।

                इधर देखते हैं इक भीड़ नज़र आती है लिखने वालों की , मगर ध्यान दें तो समझ नहीं आता इसको क्या कहना चाहिये। साहित्य सृजन या कुछ और या मात्र कागज़ काले करना। कुछ भी तो दिखाई नहीं देता जो सार्थक हो , कोई बताता है वो महिला विमर्श की बात कहता है , कोई जनवादी-वामपंथी लेखन का पैरोकार बना बैठा है , कोई दलित लेखन का दम भरता है। ये कैसा साहित्य है जिसको पूरा समाज नज़र नहीं आता , कोई खास वर्ग दिखाई देता है जिसमें। कितना भटक गया है आज का लेखक , क्या हासिल करना चाहता है वो समाज को इस तरह टुकड़ों में विभाजित कर के। सब की बात क्यों नहीं करना चाहता ये इस नये दौर का नया लेखक। जब लिखने वाला खुद को और अपने समाज को पहचानने के वास्तविक ध्येय से भटक जाता है , और चाहता है लोग उसको पहचानें , उसके लेखन का सम्मान हो , मूल्यांकन हो तब वही होता है कि आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास। लगता है यही करने लगा है आज का लेखक। वह समाज को कुछ देना नहीं चाहता बल्कि उससे कुछ पाना चाहता है। अथवा जितना देता है उससे अधिक पाने की लालसा रखता है। कई-कई किताबें छपवा डाली हैं , शायद ही कभी सोचा हो कि उनमें लिखा क्या है। बहुत हैरानी होती है जब अधिकतर पुस्तकों में कुछ भी काम का नहीं मिलता , कुछ तो जो सार्थक हो , जो समाज को सही दिशा दिखाने का कार्य करे। अन्यथा व्यर्थ समय और शब्दों की बर्बादी से क्या हासिल होगा। अब उस पर शिकायत कि लोग पढ़ते ही नहीं किताबों को , क्या कहीं लेखन में कमी नहीं जो पाठक ऊब जाता है कुछ पन्ने पढ़कर। एक हास्यस्पद बात है , बहुत सारे लेखक खुद अपने ही लेखन पर फिदा हैं। जैसे कोई दर्पण में अपनी ही सूरत को निहारता रहे और अपने आप पर मोहित हो जाये। कहते तो हैं कि दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता , मगर मेरे कॉलेज के इक सहपाठी कहते थे कि दर्पण हर देखने वाले को बताता है कि तुमसे खूबसूरत दूसरा कोई नहीं है। शायद हम खुद अपने आप को बहलाना चाहते हैं। माना जाता है कि खुद को और बेहतर बनाने के लिये अपने से काबिल लोगों का साथ हासिल करना चाहिये मगर आजकल के लेखक उनका साथ पसंद करते हैं जो उनको महान बताकर हरदम उनकी तारीफ करता रहे। अपनी कमियों से नज़र चुराकर लेखक काबिल नहीं बन सकता है। सम्मान , पुरूस्कार आदि की अंधी दौड़ में शामिल लेखक सच से बहुत दूर हो जाता है। देश में और राज्यों में साहित्य अकादमी में लोगों को पद काबलियत को देख कर नहीं बल्कि सत्ताधारी नेताओं की चाटुकारिता करने से मिलते हैं और सत्ता के चाटुकार कभी सच्चे लेखक नहीं बन सकते। ऐसे लोग हर वर्ष अपनों अपनों को रेवड़ियां बांटने का काम करते हैं। साहित्य भी गुटबंदी का शिकार हो चुका है , साहित्य अकादमी के पद पर आसीन व्यक्ति हर उस लेखक को सरकारी आयोजन में नहीं बुलाता जो उसको पसंद नहीं है। जिनको लोग समझते हैं कि अच्छे साहित्यकार हैं तभी पद पर हैं कई बार वो लेखक ही नहीं होते।

                    वापस मूल विषय पर आते हैं। हम मंदिर मस्जिद गिरिजाघर या गुरुद्वारे किसलिये जाते हैं , अक्सर ये याद नहीं रहता। क्या हम ईश्वर को देखने गये थे , दर्शन करने , स्तुति करने या केवल अपनी बात कहने।  कभी कुछ मांगने तो कभी कुछ मिलने पर धन्यवाद करने। कितनी बार तो हम श्रद्धा से नहीं किसी भय से या अपराधबोध से जाते हैं। कभी काश ये सोच कर जाते कि आज अपने भगवान का हाल-चाल पूछेंगे , कि वो कैसा है और वो बताता कि कितना बेबस है परेशान है अपनी दुनिया को देख कर। हम जो अपनी दुनिया में ये शिकायत करते हैं कि अब बच्चे स्वार्थी बन गये हैं , मां बाप से क्या पाया है कभी सोचते ही नहीं , हर दिन मांगते रहते हैं और अधिक , लौटाना जानते ही नहीं। भगवान को भी तो ऐसा ही लगता होगा कि हम कभी खुश ही नहीं होते , उसने कितना दिया है , क्या क्या दिया है , हम हैं कि सब अपने पास रख लेना चाहते हैं। भगवान को नहीं चाहिये हमसे कुछ भी , मगर हम इतना तो कर सकते थे कि जितना हमें मिला उसका आधा ही हम उसके नाम पर लौटा देते उनको देकर जिनके पास कुछ भी नहीं है। ऐसे हमारा आस्तिक होना किस काम का है , जब हमने धर्म की किसी बात को जीवन में शामिल किया ही नहीं।

            यही हाल तो है साहित्य का भी। समाज के दुःख दर्द पर लिखना , क्या इतना ही काफी है। क्या हमें दूसरों के दुःख दर्द से वास्तव में कोई सरोकार भी है। करते हैं प्रयास किसी की परेशानी दूर करने का। सब से पहले हर लिखने वाले को चिंतन करना होगा कि जैसा उसका लेखन पढ़कर प्रतीत होता है क्या वो वैसा है। अधिकतर किसी का लेखन पढ़कर जो छवि मन में उभरती है , जब नज़दीक जाकर मिल कर देखें तो वह सही नहीं दिखाई देती। प्यार की , संवेदना की , मानवता की , परोपकार की बातें लिखने वाला अपनी वास्तविक ज़िंदगी में कठोर , निर्दयी और आत्मकेंद्रित होता है। ईर्ष्या , नफरत , बदले की भावना को मन में रख कर उच्चकोटि का साहित्य नहीं रचा जा सकता। जिसको देखो खुद को महाज्ञानी समझता है , खुद को सब कुछ जानने वाला समझना तो सब से बड़ी मूर्खता है। समझना है तो ये कि अभी हम कुछ भी नहीं जानते और जानने को कितना कुछ है। ढाई आखर प्रेम के पढ़ना बाकी है अभी। 
 

 

अगस्त 14, 2022

जादूगर शहंशाह की कथा ( तरकश / कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

  जादूगर शहंशाह की कथा ( तरकश / कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया 

सदियां बदल गई युग बदलते रहे झूठ बोलने वाले सभी को छलते रहे , भोले भाले लोग झांसे में आकर घर लुटाते रहे चालबाज़ फूलते फलते रहे। ठगी का कारोबार दुनिया भर में शान से चलता है चोर डाकू चाहे कितना धन दौलत जमा कर लें जीवन भर भटकते रहते हैं ठग नाम शोहरत ऐशो आराम से सपने दिखला सब से वाहवाही लूटते चैन से रहते हैं । जादू का खेल दिखलाना जादूगरी कहलाता है फिर भी देखने वाले समझते हैं नज़र आने वाला दृश्य झूठा छल है , जैसे दुष्यंत कुमार कहते हैं :- 

     ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल लोगो , कि जैसे जल में झलकता हुआ महल लोगो । 

    जादू आशिक़ भी किया करते हैं और हुस्न वालों का जादू कब किसी को दीवाना कर दे कोई नहीं समझ पाता। राजनीति और सिनेमा में करिश्मा अभिनेता नेता नायिका का ग़ज़ब ढाता है मगर कब किसी का करिश्मा काम नहीं आये बेअसर हो जाये कोई नहीं जानता। ऐसा पहली बार देखा किसी की जादूगरी का नशा ऐसा चढ़ा है कि लोग ज़हर भी ख़ुशी ख़ुशी पीने लगे हैं । उसकी अदाएं निराली हैं मीठी मीठी बातें मतवाली हैं । लोग बेकार नहीं रोज़गार नहीं बजाते थाली हैं देते ताली पर ताली हैं । उसका नशा छा गया है धरती पर झूठ का फ़रिश्ता आकर दुनिया को तिलस्म से भरमा गया है । उसने सबको अपने जादू से सम्मोहित किया है पास उसके सत्ता का जलता दिया है लोग खुद बनकर बाती जलते हैं राख होने तक अरमान पलते हैं । सिसकियां भरना नसीब हो गया है रोते रोते ज़माना गहरी नींद सो गया है । जादूगरी से मिला कुछ भी नहीं सब अपना गुम हो गया है । खिलाता ख़ास लोगों को मीठा बताशा है कोई तमाशबीन बन गया है हर शख़्स बन गया तमाशा है । ख्वाबों ख्यालों की बेचता मिठाई है दुकान नहीं कोई शोरूम नहीं इक तस्वीर ऑनलाइन मिलती है स्वाद लाजवाब है बिना चखे सब कहते हैं । राजा नंगा है कहानी जैसे लोग शहंशाह के मुल्क में रहते हैं । निदा फ़ाज़ली जी की ग़ज़ल सुनते हैं। 
 
 
मन बैरागी, तन अनुरागी, कदम-कदम दुशवारी है
जीवन जीना सहल न जानो बहुत बड़ी फनकारी है

औरों जैसे होकर भी हम बा-इज़्ज़त हैं बस्ती में
कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ अपनी अय्यारी है

जब-जब मौसम झूमा हम ने कपड़े फाड़े शोर किया
हर मौसम शाइस्ता रहना कोरी दुनियादारी है

ऐब नहीं है उसमें कोई , लाल परी न फूल गली
यह मत पूछो, वह अच्छा है या अच्छी नादारी है

जो चेहरा देखा वह तोड़ा , नगर-नगर वीरान किए
पहले औरों से नाखुश थे अब खुद से बेज़ारी है ।