उनकी संवेदना उनका प्यार ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया
जनता बेचारी अबला नारीनहीं समझी कभी क्यों हुई बलिहारी
जब जब जिस ने दिखलाई
झूठी संवेदना उसकी दुर्दशा को देख
उसकी सेज सजा दी बिना जाने समझे
गले में उसके माला डारी ।
जिस जिस ने भोली भाली जनता से
किया प्यार करने का वादा
उस उस को परमेश्वर समझ लिया
कदमों में उसके समझा स्वर्ग
हर प्रेमी झूठा निकला बस
उसका स्वामी बनकर लुत्फ़ उठाया ।
नारी की इक चाहत अपनापन और
अपनी प्रशंसा सुन खुश होना
कितनी बार यही किया
कितनी बार किस किस से धोखा खाया
सब उसी पर शासन करने आये
नहीं किसी ने उसको रानी बनाया ।
नेताओं की संवेदना होती है
शोकसभाओं में दो पल का दिखावा
नहीं होता किसी को शोकसभा में
किसी की मौत पर कोई दुःख
इक औपचरिकता निभाते हैं लोग
बेदिली से होती है प्रार्थना भी ।
तब भी हम ये झूठी रस्म निभाते
चले जा रहे हैं बिना विचारे
ये सब तो हैं मझधार में जाकर
साथ छोड़ने वाले नाम को अपने
नहीं मिला करती मंज़िल
नहीं मिलते किनारे इनके सहारे ।
हम फिर भी सुबह शाम उन्हीं की
आरती हैं गाते फूल चढ़ाते
मतलबी लोग शासक बनकर
नहीं कभी वादे किये निभाते
हम उनके झूठ पर कुर्बान जाते
झूठ को सच वो बताते ।
वो सब सुख देना वो सब कुछ
तुम्हारा है की प्यारी बातें
मिला कभी नहीं कुछ जागते हुए
काटी हैं हमने रट रट सारी रातें
दिया कुछ नहीं सिवा कहने को
प्यार संवेदना की झूठी बातें ।
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