अप्रैल 18, 2017

लोक सेतिया केवल लोक सेतिया ही काफी है ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

       लोक सेतिया केवल लोक सेतिया ही काफी है ( कटाक्ष ) 

                                         डॉ लोक सेतिया

आपका नाम छापना है निमंत्रण पत्र पर , बड़ी विनम्रता से उन्होंने सवाल किया , थोड़ा बता दें क्या नाम छपवाना उचित रहेगा। थोड़ी हैरानी हुई , कहा महोदय आप इतने करीब से जानते हैं मुझे , भला आपको मेरा नाम याद नहीं। चलो कोई विशेष बात नहीं है , ये गलती मुझसे भी कभी कभी हो जाती है , कोई पहचाना हुआ मिलता है मगर तब भूल जाता हूं उसका नाम क्या है। आप मेरा नाम लोक सेतिया छपवा सकते हैं , यही मेरा नाम है। आप समझे नहीं , वो कुछ झिझकते हुए कहने लगे , ये तो अच्छी तरह पता है आप डॉ लोक सेतिया हैं , मगर सभी नाम से पहले कोई विशेषण अथवा अंत में कोई उपाधि लगाते हैं। आप क्या कहलाना पसंद करते हैं , लोग आपको क्या समझें। नाम तो हर आम आदमी का होता है विशिष्ट लोग खुद को साहित्यकार पत्रकार समाजसेवी वरिष्ठ नेता अथवा किसी धर्म या गुरु से जुड़ा कोई शब्द लगाकर नाम को ख़ास बनवा लिखते हैं। आप अभी सोच सकते हैं दो चार दिन बाद बताएं क्या उचित रहेगा। मुझे इक उलझन में डाल कर चले गये मित्र।

               मैं लोक सेतिया हूं मुझे यही मालूम है , मगर लोग मुझे क्या समझें ये मैंने कभी सोचा ही नहीं। जैसे किसी समारोह में देने को खूबसूरत स्मृति चिन्ह या ट्रॉफी बाज़ार से मिलती हैं उसी तरह कोई तो जगह होगी जहां अलग अलग नाम अपनी पहचान को परिभाषित करने को उपलब्ध होंगे। सब से पहले अपनी जानी पहचानी जगह चले गये उनके पास जो मेरी रचनाएं प्रकाशित करते हैं। उनसे मुझे प्रस्ताव मिला था कुछ दिन पहले पत्रकारिता और साहित्य को लेकर उनके साथ जुड़ काम करने का। मुझे अनुबंध में रहना पसंद नहीं इसलिए इंकार किया था ये साफ कर कि मुझे सब पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं छपवाना उचित लगता है और आपकी शर्त है किसी और को कभी अपनी रचना नहीं भेज सकता जो मेरे लिये कठिन है। मैं कई विधाओं में लिखता हूं और आपको मेरी केवल एक ही विधा की रचनाएं छापनी हैं। लेकिन उन से जब खुलकर बात हुई तो समझ आया उनके लिये सच मात्र इक साधन है कारोबार करने का।  उनको झूठ को सच बताकर बेचने या झूठ को सच साबित करने में कोई खराबी नहीं लगती , इसको प्रैक्टिकल होना मानते हैं। खरा सच बिकता ही नहीं आजकल उन्होंने समझाया , पीतल पर सोने की परत चढ़ाना ज़रूरी है। अच्छा हुआ जल्दी समझ आ गई बात और तय कर लिया खुद को ये नहीं होने देना है।
                                  इक संस्था बनी थी समाज की समस्याओं की बात को लेकर , समाजसेवा करनी है का दावा था। मगर चार दिन बाद सभा का मकसद प्रचार कर शोहरत हासिल कर प्रशासन पर अपना प्रभाव स्थापित करना ज़रूरी बताया गया। ताकि खुद कुछ नहीं करना सिवा मासिक बैठक में कोई प्रेस नोट जारी करने के प्रशासन से मांगना क्या क्या करे सरकार। मुझे लगा ऐसा तो मैं सालों से अकेला करता चला आ रहा ये कुछ ख़ास कैसे होगा , मगर तब कहा गया जब हम संगठन बनाकर एक साथ जाएंगे अधिकारी या नेता से मिलने तब वो हमें आदर सहित पास बिठा चाय ठंडा पिला हमारा रुतबा बड़ा करेंगे और कभी खुद हमारा कोई काम होगा तब ये जान पहचान ये संपर्क बड़े काम आएगा। तो ये समाजसेवा भी अपने मतलब से होगी , जब समझे तो अलग होना ही सही लगा। फिर इक लेखकों का संगठन भी मिला साहित्य की सेवा का दम भरने को , मगर वहां भी खुद से बड़ा कोई किसी को नहीं समझता मिला। सब को इक सीढ़ी की तरह संगठन को उपयोग करना उचित लगा। लिखना गौण हो गया और लेखक कहलाना महत्वपूर्ण। तालमेल नहीं बैठा अपना और समझ लिया साहित्यकार का तमगा किसी काम का नहीं है।

                  देशभक्ति और जनता की सेवा की बात करने वालों से भी मुलाकात हो गई इत्तेफ़ाक़ से , झंडा फहराना देश प्रेम के गीत गाना और भारतमाता की जय के उदघोष वाले नारे लगाना। करना क्या कोई नहीं बता पाया , बस खुद को देशभक्त कहलाना है। क्या देशप्रेम और देशभक्ति केवल प्रदर्शन या दिखावे की बात है। नहीं समझे इस से हासिल क्या होगा। धर्म वालों से भी मुलाकात हुई अक्सर , गुरु जी समझा रहे थे अधिक संचय मत करो और खुद आश्रम बनवा रहे थे जगह जगह। लाखों करोड़ों की ज़मीन जायदाद खुद की और प्रवचन दीन दुखियों की सेवा ही धर्म है वाला। मगर किसी गरीब की क्या मज़ाल जो उनके करीब भी आये , जो धनवान चढ़ावा चढ़ाते वही परमभक्त अनुयायी कहलाते हैं। किसी को समझा रहे थे कल मंच से मुझे एक सौ आठ नहीं एक हज़ार आठ बतलाना और मेरे नाम से पहले श्री श्री भी एक नहीं दो बार लगाना। अपना कद और ऊंचा करने में लगे हुए कोई बड़ा छोटा नहीं का उपदेश देते विचित्र लगे।

                   सब को पहाड़ पर चढ़ना है अपना कद बड़ा दिखलाना है। मुझे नहीं समझ आती ऐसी बातें। मैं कुछ नहीं हूं , समाजसेवी नहीं , पत्रकारनहीं , साहित्यकार नहीं  , देशभक्त होने का दावेदार नहीं , किसी धर्म का किसी गुरु जी का भक्त सेवक भी नहीं। मुझे लोक सेतिया ही रहने दो , यही रहना है मुझे कोई तमगा लगाना नहीं है। 

 

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