दिसंबर 15, 2013

POST : 382 हमारा समाज , राजनीति , हमारी विचारधारा और हमारा लेखन कर्म ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

 हमारा समाज , राजनीति , हमारी विचारधारा और हमारा लेखन कर्म

                        ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

बहुत दिनों से देख कर हैरान था फेसबुक पर ये सब। लगता है हम सब की आदत सी हो गई है किसी न किसी को खुदा बना कर उसकी इबादत करने की। मैं इस सब से गुज़र चुका हूं करीब छतीस वर्ष पहले , संपूर्ण क्रांति का आवाहन किया था तब जयप्रकश नारायण जी ने। भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ थी वो जंग भी। नतीजा क्या निकला ? जनता ने आपात्काल के बाद सत्ताधारी दल को बुरी तरह परास्त कर एक नये बने दल को चुना था। मगर उसके बाद जो लोग आये वो भूल गये थे जनता क्या चाहती है और शामिल हो गये थे उसी सत्ता की गंदी राजनीति के गंदे खेल में। लालू यादव , मुलायम सिंह और भी सभी दलों के लोग , सब के सब शामिल थे। समाजवाद की बातें करने वाले आगे चलकर परिवारवाद को बढ़ावा देने और भ्रष्टाचार में नये कीर्तिमान स्थापित करने वाले बन गये। खुद जे पी तक निराश हो गये थे। जनता को फिर एक बार उसी दल को सत्ता में लाना पड़ा था , मध्यवती चुनाव हुए जब 1 9 8 0 में। किसी शायर का इक शेर है , तो इस तलाश का अंजाम भी वही निकला , मैं देवता जिसे समझा था आदमी निकला। मैं कभी किसी दल का समर्थक नहीं बना न ही किसी का अंधा विरोधी ही। लेकिन मुझमें कोई जे पी कोई भगत सिंह कोई लोहिया कोई गांधी रहा है जो मुझे देश की दुर्दशा देख खामोश नहीं रहने देता। और मैंने जो मुझे उचित लगता रहा हमेशा ही करता रहा , मैं हर दिन लिखा भ्रष्टाचार के खिलाफ। हर सरकार , हर अफसर , हर नेता को बेबाक लिखा मैंने। कुछ पाना मेरा मकसद नहीं था , कुछ मिला भी नहीं , मगर एक बात थी जो हासिल हुई। मैं अपने आप से नज़र मिला सकता था , क्योंकि मैं सब कुछ देख कर चुप नहीं बैठता था। अक्सर राजनीति से जुड़े लोग मिलते रहे मुझे और चाहते रहे कि मैं उनका समर्थक बन जाऊं। लेकिन मैंने उम्र भर किसी रंग का चश्मा नहीं पहना जो मैं हर चीज़ को उसी नज़रिये से देखता। लिखते लिखते पत्रकारिता को करीब से जाना और देख कर हैरानी हुई कि जो दावा करते हैं सब कोई आईना दिखाने का उनको खुद अपना पता तक नहीं है। कुछ लोग आये थे मेरे शहर में कुछ साल पहले , फिर से जे पी की संपूर्ण क्रांति की बातें करने। मिला जाकर उनसे , मेरे घर पर आये थे वो भी ,चर्चा की थी उनके साथ। समझ गया उनको भी किसी बदलाव की नहीं सिर्फ अपने को राजनीति में अपने आप स्थापित करने की ही चाहत है। देख कर हैरान हुआ कि वे जातिवाद का सहारा लेकर सत्ता की तरफ बढ़ना भी चाहते हैं और समाजवाद की बात भी करना चाहते हैं। मैंने इस सब को लेकर लिखा था इक लेख जो मुझे मालूम नहीं हुआ कि कब किस अख़बार में छप चुका था। बहुत सवाल उठाये थे उनके मकसद को लेकर , उनके तरीके को लेकर। शायद साल बीत गया था , वही लोग खुद चल कर आये थे मेरे घर , अचानक , बिना किसी सूचना के। स्वागत किया था , मैं चाय पानी का प्रबंध कर रहा था जब देखा वो कोई महीनों पुराना अख़बार लिये चर्चा कर रहे थे मेरे लिखे उस लेख को लेकर। मुझसे शिकायत करने आये थे कि मैंने उनके बारे लेख क्यों लिखा। मैंने उनसे लेकर वही लेख उनके सामने पढ़ा था और पूछा था कि इसमें जो लिखा है क्या वो सच नहीं है। आपको बता दूं वो कौन लोग थे और क्या करना चाहते थे। एक जनाब जो किसी विश्व विद्यालय में प्रोफैसर थे और टी वी पर चुनावों में समीक्षक का काम किया करते थे , अपने पिता के नाम पर नया राजनैतिक दल बनाना चाहते थे। ऐसे लोग दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं , उनको जो भी कहना है , करना है , कुछ पाने को ही करना है। फिर देखा दो साल पहले वही सब , किसी अंदोलन में स्वार्थी लोग जुड़ रहे थे किसी तरह राजनीति में प्रवेश करने के लिये। कई सारे लोग आये काले धन और भ्रष्टाचार की बात करने , जनता की समस्याएं इनके लिए समस्या नहीं साधन हैं सत्ता की ओर जाने के लिये। इस बीच कोई और नेता आगे आ गया प्रधानमंत्री बनने का दावेदार बन कर , और लोग उसकी जय जय कार में भी शामिल हो गये। वास्तव में हम बिना जाने बिना सोचे बिना समझे विश्वास कर लेते हैं कि कोई मसीहा कहीं से आयेगा और सब कुछ बदल कर रख देगा। लेकिन ऐसा होता नहीं है , हम जिनको मसीहा समझते हैं वो जो कहते हैं वो कर नहीं पाते। क्योंकि कहने में और करने में बहुत अंतर होता है। हमें इतनी सी बात ही समझनी है कि हमें अगर देश को बदलना है , लोकतंत्र को बचाना है , राजनीति को साफ करना है तो किसी और पर नहीं खुद अपने आप पर भरोसा करना होगा और इसके लिये हर दिन प्रयास करना होगा। निष्पक्ष रह कर देखना होगा सभी की कथनी और करनी के अंतर को। सब इंसान हैं यहां कोई भी खुदा नहीं है , सभी में कमियां हो सकती हैं। जब भी लोग किसी को चुनाव में जिताते हैं तो वो खुद को कहता भले आम आदमी हो , समझता नहीं है कि वो आम है। सत्ता मिलते ही सब पर इक नशा छा जाता है। 
 
( बात सत्ता शास्त्र की , व्यंग्य इसको लेकर है , अभी लिखना हैं ब्लॉग पर , इंतज़ार करें , पढ़ना ज़रूर ) 
 

 

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