क्या वास्तव में बदल रहा देश ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
अभी कुछ भी कहना बड़ी जल्दबाज़ी होगी। मगर जो सामने नज़र आ रहा है उसको अनदेखा करना भी उचित नहीं है। दिल्ली में सरकार बदल गई , बहुत शोर भी हो रहा बदलाव का , मगर क्या सब कुछ बदल गया है। मैंने तो बहुत कुछ वही दोहराते हुए देखा है। मुख्यमंत्री बनते ही किसी का गुणगान होना कोई पहली बार नहीं हो रहा। उसका गांव , उसके माता पिता यहां तक कि उसका बेटा तक टीवी पर साक्षात्कार देता है। उसकी बचपन की कहानियां सुनाई देने लगी हैं , उसकी जन्मपत्री की बात हो रही है , उसके लिये पूजा पाठ हो रहा है। और ये सब कुछ उसके लिये हो रहा है जिसका दावा है वी आई पी कल्चर को समाप्त करने का। क्या वो मीडिया वालों की मानसिकता को बदल सकता है , जिनके खुदा रोज़ बदलते रहते हैं। हां एक बात पहली बार सुनी है कि कोई कहता है सरकार तो हम बना रहे हैं मगर विधान सभा में बहुमत साबित करने की ज़िम्मेदारी किसी और की है। आप को प्रशासन के ढंग को बदलना है , लोकतंत्र की परिभाषा को नहीं। और विश्व में जहां भी कहीं लोकतंत्र होता है सत्ताधारी लोगों का फ़र्ज़ होता है बहुमत से सरकार चलाना। भारत में पहले भी सरकारें बनाई बहुत लोगों ने बहुत बार मगर कभी ऐसा नहीं कहा गया कि बहुमत की व्यवस्था करना उनका काम नहीं है। अगर कोई घर का मुखिया कहे कि मैं घर के सभी सदस्यों की हर मांग पूरी कर सकता हूं लेकिन इसके लिये धन की व्यवस्था किसी और को करनी होगी। जहां तक आम और खास का फर्क है , तो जो विधायक - मंत्री बन जाता है वो आम आदमी नहीं रहता खास बन जाता है। आम आदमी को अपने सीने पर कोई तमगा नहीं लगाना पड़ता कि मैं आम आदमी हूं। वास्तव में हम लोग हमेशा से आदी रहे हैं गुलामी करने के , किसी न किसी के सामने सर झुकाये रहना आदत बन गई है। सोचते हैं कोई मसीहा कहीं से आयेगा और हमारी सभी परेशानियों को दूर कर देगा। मगर एक छोटा सा सवाल है जिसका जवाब किसी को नहीं मालूम। देश में किसी भी चीज़ की कमी नहीं है , समस्या है कि कुछ प्रतिशत को बहुत अधिक मिलता है और अधिकतर को बहुत कम। देश की दो तिहाई जनता को न के बराबर मिलता है। अब अगर सब को एक समान होना चाहिये तो जो अमीर हैं उनसे लेना होगा और देना होगा उनको जो गरीब हैं। यहां बात केवल धन दौलत की नहीं है , अधिकारों की भी है , न्याय की भी है। भाषण देने से क्रांती के गीत गाने से ये सब हो सकता तो कभी का हो गया होता। सब से पहले हमें खुद को बदलना होगा। जब जो बुलंदी पर हो उसको खुदा समझने की आदत छोड़नी होगी। जो आज सत्ता पर आसीन हैं उनको खाली बयानबाज़ी करना छोड़ कुछ कर के दिखाना होगा। जनता ने बदलाव चाहा है , आप अगर बदलाव नहीं ला सके तो आप को भी बदला जा सकता है इस बात को याद रखें। आप अभी पास नहीं हुए हैं , अभी तो बहुत सारी परीक्षायें आपका इंतज़ार कर रही हैं।क्या दस मंत्रियों के पुलिस सुरक्षा नहीं लेने से सब हो जायेगा। क्या हज़ारों सरकारी अफसरों के सरकारी वाहनों और साधनों के दुरूपयोग रोक सकते हैं आप। पुलिस की जिप्सी अफसरों की बीवी को बच्चों को स्कूल बाज़ार नहीं ले जायेगी अब से। क्या सत्ताधारी लोगों को हर चीज़ कतार में खड़े हो कर लेनी मंज़ूर होगी। बात करने में और उसपर अमल करने में अंतर होता है ज़मीन आसमान का। बताएं भला जब भी सरकारी लोगों की मीटिंग होती है तब उसपर खाने पीने पर इतना खर्च किसलिये। ये काम की मीटिंग हैं या तफरीह करने को जमा हुए हैं लोग। मीटिंग में क्या चाय काफी ही काफी नहीं , क्या ये सब वी आई पी कल्चर नहीं है। हां एक खास बात और , मुख्यमंत्री बनते ही ये बयान देना कि कोई रिश्व्त मांगे तो मना नहीं करना ,उससे तय कर लेना और शिकायत कर पकड़वा देना , इस में नई बात क्या है , ऐसा लोग पहले भी कर सकते हैं। आप ऐसा क्या करेंगे कि लोग रिश्वत मांगे ही नहीं। असल में आपको मालूम ही नहीं कि जनता से छोटे छोटे कामों में रिश्वत मांगी नहीं जाती है , उसको विवश किया जाता है कि वो वो खुद चाहे किसी तरह रिश्वत दे कर अपना काम करवाना। आपके पास ये सबूत नहीं ये कागज़ नहीं , ऐसा नियम है , ये भी चाहिए , जैसे काम किये जाते हैं। आखिर कायदा कानून भी कोई चीज़ है और हम लोग आदि हैं किसी कायदे कानून का पालन नहीं करने के। इसलिए बहुत बार रिश्वत लोग अपनी आसानी के लिये देते ही नहीं बल्कि तलाश करते हैं कोई जो बीच में बात तय करवा काम दे रिश्वत देकर। पूरी की पूरी प्रणाली प्रदूषित है। सवाल तालाब के पूरे पानी को बदलने का है। और ये आपको करना होगा बहुत सोच समझ कर और बिना शोर मचाये। अभी तो आप का ढोल बज रहा है , बहुत शोर है , आपको छोड़ दूसरी कोई आवाज़ सुनाई नहीं दे रही है। जब ढोल की पोल खुलेगी तब पता चलेगा उसके भीतर क्या है। अधिक शोर यही बताया करता है कि अंदर खोखलापन है कहीं ।
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