अप्रैल 11, 2019

सही-गलत सच-झूठ की परख ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

       सही-गलत सच-झूठ की परख ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया 

      शायद इस से अधिक अचरज की बात कुछ नहीं हो सकती है कि हम बातें अच्छे लोगों की बढ़ाई की करते हैं मगर वास्तव में जब कभी चयन करना होता है तब हम अच्छे भले व्यक्ति को अकेला छोड़ बुरे और चालाक व्यक्ति का पक्ष लेते हैं। दबंग लोगों से दहशत महसूस करने के कारण हम बुराई का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। जब अच्छे बुरे की परख ही नहीं करते जीवन में तो अपना विधायक सांसद चुनते समय विवेक की बात का कोई सवाल ही नहीं उठता है।  हम कैसे कैसे लोगों को चुनकर विधानसभाओं में और संसद में भेजते हैं ये कोई राज़ की बात नहीं है। बबूल बोकर आम खाने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। बात इतनी सी नहीं है हम मतलबी लोग हर गलती का दोष औरों को देते हैं। पंडित जी रिश्ता करवाते हैं कुंडली मिलाते हैं तब कहते हैं क्या जोड़ी है इन से अधिक तालमेल किसी का बैठ नहीं सकता है। साल दो साल बाद निभती नहीं दोनों में मतभेद होते हैं तो उसी पंडित जी का कथन बदलते देर नहीं लगती। इनके गृह ऐसे हैं इसी बात से इक दूजे के दुश्मन बने हैं पहले तमाम उपाय करवाते हैं और उनमें समझ बन जाती है तो पंडित जी की बात बन जाती है अन्यथा उनकी कुंडली में संबंध टूटने का योग बताया जाता है। शुरुआत में बताना था मगर हंसते हैं भाग्य की बात है बदली नहीं जाती शादी नहीं करते तो तलाक की नौबत नहीं आती। मुझे इक दोस्त ने शादी नहीं करने की सलाह दी थी मगर मैंने नहीं मानी वो वकील थे मगर वकालत करते नहीं थे फिर भी मुझे तलाक दिलवाने का वादा शादी से पहले ही करते थे। मगर उनकी घोषणा सच साबित नहीं हुई और हम पति पत्नी लड़ते झगड़ते साथ साथ हैं और परेशान होकर भी खुश हैं। अलग होने की बात नहीं सोचते और हैरानी की बात ये है दोनों मानते हैं मेरा क्या है पर बिना मेरे जीवनसाथी का जीना मुश्किल हो जायेगा। एहसान करते हैं साथ साथ रहने का , अगर खुदा न करे नौबत अलग होने की आती तो उस दोस्त को अवसर मिल जाता कहने का मेरी सलाह नहीं मानी उसी का नतीजा है। सच तो ये है दुनिया की कोई जोड़ी अच्छी और बढ़िया नहीं होती है और तमाम लोग विवाह करने के बाद समझौता कर तालमेल बिठा लेते हैं जिनको ये कला नहीं आती उनकी ज़िंदगी नर्क बन जाती है मगर पंडित जी किनारे खड़े तमाशा देखते हैं।

          राजनीति में अच्छे लोग संभव ही नहीं है लोग मानते है इसलिए जैसे भी मिलते हैं नेता उनको निर्वाचित करने की गलती किया करते हैं। पसंद की दुल्हन या दूल्हा ढूंढने वाले अकेले रह जाते हैं मगर देश की सत्ता सदा सुहागन है कभी बिन ब्याही नहीं रहती कभी कोई संबंध विच्छेद की बात नहीं होती और विधवा होना उसका भाग्य नहीं है। राजा राजशाही के समय भी शासक की मौत होने पर नये शासक की ताजपोशी उसी समय की जाती थी। विवाह में भी कभी ऐसा हो जाता है कहते हैं किसी की घरवाली मरी और किसी के भाग्य खुले जिसकी शादी नहीं होती थी। शादी का लड्डू खाकर पछताना ठीक है बिना खाये पछताते हैं तो मलाल रहता है। दलों का गठबंधन इसी तरह का होता है स्थाई नहीं होता है दिल नहीं मिलते हैं। आखिर वही बात समझ आती है चाहने से सभी कुछ नहीं मिलता और किसी को भी सब कुछ मिलता नहीं है। खुश कोई नहीं नेता को और बड़ा ओहदा नाम शोहरत चाहिए जनता की बदनसीबी है कहने को क्या नहीं घर में मगर अपना कुछ भी नहीं की हालत है। पति की कमाई पर जीना चाहती है मगर उसकी कीमत नहीं समझती पति को भगवान समझना होता है। जब से महिलाओं ने कमाना शुरू किया है मामला और उलझ गया है पति पत्नी की कमाई को भी अपनी कमाई मानता है जैसे घरेलू महिला अपने पति की कमाई को अपना मानती है। पति बेशक अपना वेतन लेकर पत्नी को दे सकता है पत्नी कभी ऐसा नहीं करती है। ताना देती है मेरी कमाई पर नज़र रखते हो क्या यही देखकर शादी की थी। दो लोग इक जैसे कभी नहीं होते हैं पति पत्नी तो मतलब ही इसका उद्दाहरण जैसा है इक पूरब इक पश्चिम। ये अच्छा है शादी जीवन भर की होती है कोई समय सीमा अवधि निर्धारित नहीं कोई दवा की तरह तारीख नहीं कोई पांच साल बाद पंजीकरण का नवीनीकरण का नियम नहीं अन्यथा सब उलझन सुलझाने में उलझे रहते। कई रोग लाईलाज होते हैं जीना उपचार नहीं होता है और डॉक्टर समझाते हैं इसकी चिंता मत करो इसको भूल जाओ कोई परेशानी की बात नहीं है।

                हम हर बार सरकार बनाते हैं पछताते हैं मगर पांच साल बाद वोट की ताकत पर इतराते हैं। क्या समझा है मिंट भर की बादशाहत है उंगली पर वोट देने की स्याही लगते ही सामान पर बिक चुका है का लेबल लगने की हालत बन जाती है। समझदार लोग कहते रहे हैं कोई भी शासक हो हमें क्या हमने तो शासित होना है हम चुनते हैं और जिसको बनाया वही खुद दाता और हम सबको भिखारी समझता है। वास्तव में राजनैतिक दल सभी सत्ता के भूखे हैं जनता से देश से उनको कोई मुहब्बत प्यार जैसा कुछ भी नहीं है। सत्ता मिलते ही पति वाला रुतबा हासिल हो जाता है और हर पल अपनी हवस मिटाते हैं अधिकार की तरह। कर्तव्य की बात किसी समझौते पर लिखवाई नहीं है चुनावी वायदे कहते हैं उनको झूठ समझना ज़रूरी है। आशिक़ आसमान से चांद तारे तोड़ने की बात महबूबा को करता है मगर चांद तारे कोई छूने की बात कभी हुई है देखी है। लोकतंत्र चांद तारे तोड़ने का सुनहरा ख्वाब है। राजनीति का कोई धर्म ईमान नहीं होता है सत्ता ही सभी कुछ है आपको कितनी भी समझ हो सही-गलत सच-झूठ की परख आना मुमकिन नहीं है। राजनेताओं का कहना है सब मुमकिन है देश की समस्याओं के समाधान को छोड़कर और उनको जो चाहिए मिल जाता है। जो चाहते कर लेते हैं वायदे निभाने को छोड़कर।

              लाल रंग पूंजीवाद के खिआफ़ नहीं है भगवा कोई किसी का विशेषाधिकार नहीं है। हरा पीला नीला केसरिया गुलाबी दो रंगा सब इक बाहरी लिबास बन गये हैं।  किसी को किसी विचार किसी धर्म से जोड़ना उचित नहीं है। राजनीति रंग बदलने में गिरगिट को पीछे छोड़ चुकी है। किसी नेता का किसी भी विचारधारा से कुछ भी नाता नहीं है। मतलब को धर्म रंग क्या भगवान बदलने को राज़ी हैं। समाजवादी कहलाने से सब की समानता की बात उद्देश्य नहीं बन जाता है। राजनेता लिबास बदलने में पहले कभी इतने माहिर नहीं थे और महिलाओं पर तोहमत लगती थी इतनी जल्दी पोषक बदलने और फ़ैशन पुराना हो जाने को लेकर। अब नेताजी की शानदार पोशाक इतिहास में दर्ज होने के काबिल है। दलबदल विरोधी कानून क्या बनाया है कि अब दल बदलना दिल बदलना दोनों खेल लगते हैं। दिल दिल की बात समझता नहीं दिल दिल हाय मेरा दिल की आवाज़ गूंजती रहती है , दिल के डॉक्टर दिल बचाने को एड़ी चोटी का ज़ोर लगाए हैं क्यंकि दिल की बीमारी से कमाई बहुत है। दिल ने क्या कहा है दिल से जैसे गीत बेकार लगते हैं एंजिओग्राफ़ी से पता चलता है रुकावट दिल की धमनी में खून बहने नहीं देती ठीक से। डॉक्टर हर बाधा को हटाना जानते हैं अगर कोई आपके दिल का रास्ता रोके है तो मामला लाख दो चार लाख का समझना चाहिए। दिल के खेल में पैसा हमेशा महत्व रखता आया है।  दिल लेना देना भी राजनेताओं के झूठे वायदे की तरह है कोई किसी को दिल देता नहीं लेता नहीं न किसी के दिल में कोई बसता है दिल तो पागल है दिल चाहता है दिल ने क्या कहा है दिल से। मन की बात आजकल की बात नहीं है सदियों से मन भटकता रहा है कोई किसी को मन की बात बतलाता नहीं है। मन ही जनता है मन की बात मन चंचल है और पल भर टिकता नहीं है। मन की बात मन ही में रह जाती है और किसी दिन मन का पंछी उड़ जाता है। इस तरह चर्चा शुरू होती है कहीं से चलते चलते आखिर में उसी मोड़ पर पहुंच जाती है जहां दुनिया की बात झूठी और अध्यात्म की नासमझ आने वाली बात सही लगने लगती है। 

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