अक्तूबर 06, 2016

जीना चाहती है देश की इक बेटी ( इक फरियाद - इक दास्तां - इक विडंबना ) डॉ लोक सेतिया

                    जीना चाहती है देश की इक बेटी 

           ( इक फरियाद - इक दास्तां - इक विडंबना ) डॉ लोक सेतिया

            " बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ "   सभी कह रहे हैं , मगर कह किस को रहे हैं नहीं मालूम। शायद हमारी आदत है खुद जो नहीं करते न ही करना चाहते वही औरों से कहते फिरते हैं ये करो। नहीं करोगे तो बहु कहां से लाओगे , यहां भी बेटी को बचाना है मगर इंसान समझ कर नहीं , अपना स्वार्थ पूरा करने को। किस की बेटी है वो कह नहीं सकता , कल मेरे पास चली आई अपनी विपदा को लेकर। कैसा समझाता बेटी इक लेखक क्या कर सकता है तुम्हारे लिये , कविता , कहानी , ग़ज़ल , व्यंग्य या आलेख लिखने से तुम्हारी वेदना कम नहीं होगी। पढ़ कर भले लोग वाह वाह करें , मगर जब ज़रूरत हो तब तुम्हारा साथ कोई भी नहीं देगा। हर किसी को अपनी जंग खुद ही लड़नी पड़ती है , और जीवन की जंग कभी समाप्त नहीं होती है। जिनको तुम्हारे साथ न्याय करना चाहिये वही जब साथ नहीं खड़े होना चाहते तो तुम्हारा निराश होना समझ सकता हूं , मगर निराश होकर हार मानना इतना सरल भी नहीं है। खुद अपना ही नहीं अपनी संतान का भी भविष्य तभी संवर सकता है अगर तुम जूझती रहो  तब तक जब तक अपने और अपने बच्चे के लिये न्याय हासिल नहीं कर लेती। इक बात तो तुम्हें समझ आ ही गई है कि हमारी व्यवस्था में जिन संस्थाओं को बनाया गया है जिन जिन मकसद की खातिर वो चाहती ही नहीं उन मकसदों को पूरा करना। तभी पुलिस प्रशासन महिला आयोग महिला थाना क्या समाज तक तुम्हारे साथ अन्याय होते देखता खड़ा है खामोश तमाशाई बनकर। कितनी आसानी से कहते हैं सभी ये तुम्हारा परिवारिक मामला है हम कुछ नहीं कर सकते। क्या पति और ससुराल के लोग मारपीट करें तभी महिला पर अत्याचार होता है , अगर उसके मायके में भाई भाभी या बाकी सदस्य करें मारपीट तो वो निजि मामला है। क्या औरत इक जानवर है , गाय भैंस की तरह , जिसके खूंटे से बंधी है वो जो चाहे कर सकता है।

                     प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी , बताएं मुझे मैं क्या करूं , आपको कैसे दिखलाऊं ये सब कड़वा सच , किसी के दर्द को समझना आसान नहीं है। आप उस पर भाषण दें या मैं कविता कहानी लिखूं दोनों किस काम के , सवाल तो इस सब को रोकना है। मगर खेद की बात है कि हमारे देश का प्रशासन किसी की वेदना को देखता ही नहीं समझना तो बहुत दूर की बात है। मुझे यहां शायर दुष्यंत कुमार की पहली ग़ज़ल का शेर याद आता है , जो उनकी मौत के चालीस साल बाद भी उपयुक्त लगता है।

                                  "  यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है ,
                                   चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिये। "

        जो विभाग जो संस्थायें न्याय देने को बनाई गई थी जब वही अन्यायकारी हो जायें तो कोई क्या करे , शायर ने तो कह दिया चलो यहां से चलें , मगर जायें कहां। अभी तक कहने को बहुत कुछ कह दिया मगर फिर भी आपको लगता होगा क्या कहना चाहता हूं , किसलिये परेशान हूं , किसकी बात है ये , वास्तविकता है अथवा कहानी है। या ये प्रार्थना पत्र है या शिकायती खत है , क्या है।  नहीं पता मुझे क्या है मगर इतना कसम खाकर कहता हूं आपके देश के समाज का सच है शत प्रतिशत सत्य। " सत्यमेव जयते " आदर्श वाक्य है। फिर भी सच हर कदम हारता हुआ दिखाई देता है।  संक्षेप में विवरण बताता हूं , ज़रा गौर से पढ़ना , यही आपकी तस्वीर है देश की दशा की जो सरकारी कागजों में कहीं नहीं लिखी हुई।

                                  मैं आपकी बेटी हूं ( कहानी )

                              
      अठारह बरस की होने से पहले पिता ने विवाह कर दिया था , पति दस प्लस दो तक शिक्षित , रिश्ता हमारे समाज में ज़मीन देख कर किया जाता है। मगर वो ज़मीन कभी न बेटी की होती है न ही बहु की। पिता की पति की भाई की अथवा बेटे की हो सकती है। बड़ी बड़ी बातें करने वाले कभी बेटी को जायदाद में बराबरी का अधिकार नहीं देते। ये बताना ज़रूरी है इसलिये नहीं कि मुझे पिता की या पति की जायदाद चाहिये , इसलिये बता रही हूं कि महिलाओं की समस्या की जड़ यहां है। खैर शादी हुई इक बेटा दिया भगवान ने मगर फिर पति एक कत्ल के केस में जेल भेज दिया गया लंबी अवधि की सज़ा में। पिता को लगा ऐसे में बेटी को सहारे की ज़रूरत है , पढ़ाया लिखाया ताकि अपने पांव पर खड़ी हो सकूं। और मैं स्वालंबी बन गई , खुद नौकरी करती हूं और बेटे का लालन पालन कर रही हूं। मां और पिता दोनों की मौत हो गई और मैं मायके के घर में रह रही हूं , काफी बड़ा घर है तीन सौ गज़ का करीब होगा , उसमें साथ रह सकते हैं सभी। मगर भाइयों को लगता है घर के एक कमरे में आश्रय पाती बहन किसी दिन जायदाद में बराबरी का हिस्सा नहीं मांग ले। बस इसी लिये मुझे रोज़ परेशान किया जाता है मारपीट की जाती है ताकि मैं अपने पिता के घर को छोड़ कहीं और चली जाऊं। मैंने समझाया भी है मुझे जायदाद का मोह नहीं है सुरक्षित रहना चाहती हूं पिता के घर में जब तक खुद कमा कर अपना छोटा सा घर नहीं बना लेती और बेटा जो अभी नौवीं क्लास में है उसको किसी काबिल नहीं बना लेती। क्या हमारा समाज अपनी बहन को इतना भी अधिकार नहीं देना चाहता , बेटियां आपसे कानूनी हक नहीं मांगती , भले मांग सकती हैं और उनको मिलना भी चाहिये , वो चाहती हैं कि उनको इक भरोसा हो कि कोई उनका अपना है।  उधर पति जेल से बाहर निकल आया है और वो भी पुरुषवादी सोच के कारण या हीन भावना के कारण चाहता है कि मैं इक उच्च शिक्षा प्राप्त महिला अपनी नौकरी छोड़ उसके साथ गांव में जाकर रहूं और किसी जानवर की तरह उसके खूंटे से बंधी रहूं चुप चाप अपमान अन्याय शोषण को सहती। अभी तीस बरस की हूं मैं और मेरी कहानी अभी शायद और बहुत लंबी उम्र तक चलेगी , कब तक नहीं जानती। मगर लगता है देश में समाज में शायद संविधान तक में मेरे लिये , या मुझ जैसी  लाखों अकेली महिलाओं के लिये कहीं कोई उजाले की किरण नहीं है।

                         मानवाधिकार महिला आयोग न्यायपालिका सरकार और समाजसेवी संस्थायें मुझे इतना भी भरोसा नहीं दिला  सकती कि तुम अकेली बेसहारा नहीं हो और इक आज़ाद देश में रहती नागरिक हो जिसको जीना का अधिकार हासिल है। 

 

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