पापियों के पाप धोते धोते ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया
{ कहनी है बात खरी खरी , भली लगे या लगे बुरी }
टी एन शेषन ने जो अभियान देश की गंदी राजनीति को स्वच्छ करने को 1990 में मुख्य चुनाव आयुक्त का प्रभार संभालने पर शुरू किया है 2025 तक कुछ ऐसा हुआ है कि भगीरथ की गंगा खुद ही इस कदर मैली लगने लगी है कि लोग चुनाव आयोग को लेकर आशंकित हैं । अंकुश जिन पर लगाना था उन को छोड़ अन्य सभी पर कठोर होने लगी है , अपराधी राजनेताओं और अनुचित ढंग से चुनाव लड़ने वालों पर मुलायम और मेहरबान हुई लगती है । चुनाव आयोग अपनी भूमिका बदल चुका है और उधर खड़ा दिखाई देता है जिधर सभी राजनेता सत्ता पाने को नियम कानून से आदर्श नैतिकता को ताक पर रखने को अपना अधिकार समझते हैं । आजकल लोकतंत्र का अर्थ जनता और समाज को बेहतर बनाना नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ किसी भी तरह सत्ता पर अधिकार हासिल कर मनमानी करना है । खेद की बात है कि सभी दल एक जैसे हैं सरकार बदलने से भी जनता की देश की तस्वीर और तकदीर नहीं बदलती है ।
उन्होंने जो करना शुरू किया पहले उन पर ध्यान देना ज़रूरी है : -
आचार संहिता को सख्ती से पालन करवाना ।
सभी मतदाताओं के लिए फोटो लगा पहचान पत्र शुरू करवाया ।
उम्मीदवारों के निर्धारित खर्चों पर अंकुश लगाना ।
चुनाव में पर्यवेक्षक तैनात करने की प्रक्रिया को सख़्ती से लागू किया ।
कई भ्र्ष्ट प्रथाओं को ख़त्म करने की कोशिश : -
मतदाताओं को लुभाने या डराने की व्यवस्था का अंत करने का प्रयास ।
चुनाव के दौरान शराब और अन्य चीज़ें बांटने पर सख़्ती से रोक लगाना ।
प्रचार के लिए सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग पर रोकने की कोशिश करना ।
जाति या साम्प्रदायिक आधार पर मतदाताओं से वोट देने की अपील पर रोक ।
चुनाव प्रचार के लिए धर्म स्थलों के इस्तेमाल पर रोक लगाना ।
पूर्व अनुमति के बगैर लाउडस्पीकर और तेज़ आवाज़ में संगीत पर रोक लगाना ।
आज ये सब पढ़कर अचरज होता है कि कभी इतने शानदार साहसी ईमानदार अधिकारी हुआ करते थे , चुनाव आयुक्त पर आसीन होने से पहले जब वह वन और पर्यावरण मंत्रालय में थे तब उस को भी सार्थक और कारगर बना दिया था । बड़े से बड़े सत्ताधारी को नहीं कहने की परंपरा उन्होंने ही शुरू की थी क्योंकि उनकी निष्ठा देश संविधान और जनता के प्रति थी किसी सरकार दल या संगठन के प्रति नहीं थी । अब सब कुछ सामने है चुनाव आयोग आंखें बंद कर सभी उपरोक्त नियमों की धज्जियां उड़ाने देता है । चुनाव घोषित होते ही जनता को प्रलोभन और प्रचार के लिए सत्ता का दुरूपयोग धन बल बाहुबल का खुला प्रदर्शन जनता को भयभीत करने से अपने बिछाये जाल में फंसाने को किया जाने लगा है । ऐसे माहौल में कोई शरीफ आदमी ईमानदारी से चुनाव लड़ ही नहीं सकता है क्योंकि कोई रोकने टोकने वाला नहीं है कि सभी इक समान अधिकार से चुनाव में भागीदार बन सकते हैं ।
लेकिन जो चुनाव आयोग 35 साल बाद भी अपने वास्तविक उद्देश्य से भटक कर जनता समाज संविधान सभी की उपेक्षा कर मनचाहे ढंग से ही नहीं बल्कि अपने अधीन कार्य करने वालों को लेकर भी निर्दयी होकर कितनी मौतों खुदकुशियों का तमाशाई बना हुआ है उस में साधरण नागरिक के प्रति संवेदना की कोई उम्मीद ही कैसे की जा सकती है । जानकारी मिली है कि इक चुनाव आयुक्त ने कुछ ऐसी टिप्पणी की थी लेकिन उसको सामने लाने की बात छोड़ रिकॉर्ड से हटाया गया तो उस पर मानवीय आधार पर विचार करने की ही कैसे होगी । हमने गंगा सफाई अभियान यमुना सफाई अभियान पर बहुत देखा समझा है मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की जैसी हालत है । सरकारी तमाम योजनाओं का अंजाम लूट खसूट से सिवा कुछ भी नहीं है क्योंकि सरकार शासक प्रशासन से लेकर न्याय करने वालों और निगरानी करने वाली संस्थाओं में सभी हम्माम में नंगे हैं कोई किसी को आईना कैसे दिखाएगा । संसद भवन नया बनने से उस में बैठने वालों में कोई बदलाव अच्छा नहीं आया है अपराधी और बदमाश संख्या में बढ़ते ही गए हैं और सत्ताधरी दल में संगीन अपराध का आरोपी होना जैसे प्रवेश का रास्ता लगता है ।
शासकों ने जिन संस्थाओं ने अनुचित संसाधन अपनाने पर निगरानी रखनी थी , उनका उपयोग अपने लिए चंदे के नाम पर जबरन वसूली करने का माध्यम बनाकर जैसे किया उसे जंगलराज ही कहना चाहिए । काला धन नहीं मिला बल्कि अब सरकार कहती है रिज़र्व बैंक नहीं जानता कि पिछले दस साल में देश से कितना काला धन विदेश गया है । काला धन गरीबी बेरोज़गारी की बातें सत्ता पाने को माध्यम थे सत्ता पाकर कुछ भी बदलना उनकी मंशा कभी नहीं थी । हैरानी की नहीं खेद ही नहीं शर्मसार होने की बात है कि हमारे देश में समाज के सभी अंगों में निरंतर पतन होता गया है । विकास और आधुनिकता की दौड़ में हम इतने पागल हुए हैं कि खुद अपनी सुध बुध खो बैठे हैं । हर कोई जिस शाख पर बैठा है उसी को काट रहा है , ऐसा कहावत में सुनते कहते थे हक़ीक़त में देखना पड़ेगा कभी कल्पना नहीं की थी । देश की गिरावट को लगता है टी एन शेषन जी ने भांप लिया था शायद उनकी पुस्तक ' डीजनरेशन ऑफ़ इंडिया ' पढ़ कर मालूम हो , मैंने पढ़ी नहीं है अभी तक । विषय गंभीर है मैंने उस को कटाक्ष करने की भूल की है शायद क्योंकि आजकल सभी कुछ ऐसा ही करने लगे है बात रोने की पर ठहाके लगाने लगे हैं और इसको रोग भगाने की विधि बताने लगे हैं । साहिर लुधियानवी की ग़ज़ल फ़िल्म बहू बेग़म आशा भौंसले की आवाज़ लगता है आज की वास्तविकता है ।
निकले थे कहां जाने के लिए पहुंचे हैं कहां मालूम नहीं ,
अब अपने भटकते कदमों को मंज़िल के निशां मालूम नहीं ।
हमने भी कभी इस गुलशन में एक ख़्वाब - ए - बहारां देखा था ,
कब फूल झड़े कब गर्द उड़ी कब आई ख़िज़ां मालूम नहीं ।
दिल शोला - ए - ग़म से ख़ाक हुआ या आग लगी अरमानों में ,
क्या चीज़ जली क्यों सीने से उठता है धुंवा मालूम नहीं ।
बर्बाद वफ़ा का अफ़साना हम किससे कहें और कैसे कहें ,
ख़ामोश हैं लब और दुनिया को अश्कों की ज़ुबां मालूम नहीं ।
इक हास्य व्यंग्य कविता से विषय का अर्थ समझाने की कोशिश मैंने भी की है ।
ग़ाफ़िल कहता ग़ाफ़िल की बात ( हास्य व्यंग्य कविता )
डॉ लोक सेतिया
दिल ही समझा ना है दिल की बात
लहरों से होती क्या साहिल की बात ।
दर्द अपना किसे बताएं लोग जब अब
मुंसिफ़ ही कहता है क़ातिल की बात ।
दिल्ली में कोहराम मचा हुआ है कोई
कीचड़ से सुन कर कमल की बात ।
जमुना का पानी रंग बदलता नहीं कभी
मछलियां जब करती जलथल की बात ।
आई डी दफ़्तर में रखा है सर का ताज़
यही पुरानी आज बनी इस पल की बात ।
गूंगों बहरों की बस्ती में होता शोर बहुत
यही है दिल्ली की हर महफ़िल की बात ।