अक्टूबर 12, 2025

POST : 2028 ग़ुलामी को बरकत समझने लगे ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

    ग़ुलामी को बरकत समझने लगे ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया  

आज़ाद होकर भी मानसिकता ग़ुलामी की ही है , हम सभी अभी भी किसी न किसी को अपना आक़ा बना कर उसकी वंदना उसका गुणगान करने में सुखद अनुभूति का आभास करते हैं । खुद को बराबर नहीं जाने किस किस से कमतर समझते हैं । ग़ज़ब तमाशा हर जगह दिखाई देता है कुछ लोग ऊंचे सिंघासन पर अथवा किसी मंच पर आसीन होते हैं अधिकांश निचले पायदान पर उनका अभिनंदन करते है खड़े होकर तालियां बजाते हैं । बहुधा ऐसे बड़े लोगों को हमने ही बनाया होता है बल्कि उनका पालन पोषण सुख सुविधाएं सब हमारे दम पर कायम होता है । खुद अपने ही बनाये भगवानों से हम लोग डरते हैं सच बोलने से घबराते हैं झूठ की उपासना करते हैं ।  आधुनिक युग साहित्य कला संस्कृति जैसे अंधकार मिटाकर रौशनी दिखाने वाले शिखर सतंभ से विहीन कृत्रिम चमक दमक का काल है । सही मायने में उच्च कोटि का लेखन पढ़ने को नहीं मिलता है क्योंकि लिखा भी नहीं जा रहा और प्रकाशित भी नहीं हो रहा है । साहित्य को कितने खांचों में बांटकर जैसे परिभाषित किया जाने लगा है उस से साहित्य सृजन अपने मार्ग से भटक कर कोई आसान राह ढूंढने लगा है बिना विचारे कि मंज़िल क्या है । कहने को सामने अनगिनत लिखने वाले हैं कितने तो ऐसे हैं जिनकी घोषित सैंकड़ों पुस्तकें प्रकाशित हैं लेकिन तब भी ऐसे तमाम लोग कहते हैं और समझते हैं कि उनको वास्तविक ख्याति मान सम्मान हासिल नहीं हुआ है । कुछ भी ऐसा उनकी लेखनी से निकला नहीं जो समाज को सही मायने में सच्चाई से अवगत करवाता हो , बार बार वही पुरानी बातों को दोहराना पढ़ कर लगता है जैसे कहीं पहले सुना पढ़ा हुआ है । देश समाज को जागरुक करना समझाना कि वास्तविक स्वतंत्रता भौतिक नहीं मानसिक गुलामी से मुक्त होना होता है कोई नहीं लिख रहा है । 
 
शुरआत अपने घर से की है लेकिन सही मायने में हमारे देश समाज में हालत ऐसी है कि तमाम लोग खुद ग़ुलामी को भी बरकत समझने लगे हैं । कोई खुद से अमीर के सामने हाथ जोड़े है कोई किसी कुर्सी पर बैठे व्यक्ति के सामने सर झुकाए खड़ा है कोई अपने से बड़े पद पर आसीन अधिकारी की चाटुकारिता उसका हर उचित अनुचित आदेश सर झुकाकर मानता है निजि स्वार्थ को देख कर । मतलब ने अंधा ही नहीं किया बल्कि स्वाभिमान आत्मसम्मान को दांव पर लगा दिया है । देश को आज़ाद हुए 78 साल हो गए हैं लेकिन हम अभी भी सच बोलने का साहस नहीं जुटा सकते कि ये वो आज़ादी नहीं है जिस की कल्पना आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों ने की थी और जिस की खातिर जान हथेली पर रख कर अपना सभी कुछ समर्पित किया था । अपने स्वतंत्रता सेनानियों की कुर्बानियों की कीमत हमने समझी ही नहीं तभी कैसे कैसे खुदगर्ज़ लोगों को हमने अपना मसीहा समझ उनकी अनुचित और अन्यायपूर्ण भेदभाव बढ़ाने की नीतियों का भी समर्थन किया है खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारने जैसा कार्य करते हैं । लगता है हम सभी केवल खुद की खातिर सोचते हैं बाक़ी सभी को लेकर चिंता नहीं करते अन्यथा अधिकांश जनता की भूख बदहाली और असमानता हमारे लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए था । 
 
देश की राजनीति सत्ता का खेल बनकर रह गई है जिस में कोई शकुनि हर बाज़ी जीत कर भरी सभा में चीरहरण की भूमिका बना रहा है । हमने रामायण से कुछ सीखा है न ही महाभारत से और गीता की व्याख्या करने को खुद को काबिल समझते हैं । कोई कृष्ण नहीं है कोई भी किरदार असली नहीं है सामने सभी कुछ समाता जा रहा है काल ग्रस्त कर रहा बचना किसी को नहीं है जानते नहीं अनजान हैं सभी खुद को अजर अमर मानकर मनमानी कर रहे हैं । इतिहास खुद को दोहराता है लेकिन शायद आधुनिक युग का इतिहास कोई लिखना चाहेगा भी तो लिख नहीं पाएगा क्योंकि खुद वही अपने आप को कटघरे में खड़ा पाएगा ।  आज सच लिखना भी होगा तो छापने को कौन तैयार होगा जब संपादक प्रकाशक सभी लिखने वाले को किसी बंधुआ मज़दूर से भी गया गुज़रा समझते हैं । जिस समाज में साहित्य लेखन से कोई पेट नहीं भर सकता सिर्फ छपने से ही संतोष करना पड़ता है उस देश में लेखन का स्तर कैसे बचेगा । अधिकांश लोग खुद लिखते खुद पैसे खर्च कर किताब छपवाते अपने जानकर लोगों को बांटते और आपस में इक दूजे को महान बताकर खुश रहते बिना पाठकवर्ग ऐसे लेखन से किसे क्या हासिल होगा । टेलीविज़न सिनेमा की बात क्या करें लगता है अच्छी कहानियों संगीत गीत का अकाल पड़ा है और भाषा की तो बात ही मत पूछो , दर्शक को क्या परोसा जा रहा है जिस से देख कर लोग निराश होने लगे हैं , विज्ञापनों की बैसाखियों के सहारे कितने समय तक ज़िंदा रह सकते हैं । टीवी सिनेमा खुद अंधकार बढ़ाने लगे हैं राग दरबारी गाने लगे हैं खुद बिकने लगे हैं अपनी कीमत बढ़ाने लगे हैं रसातल की तरफ कदम जाने लगे हैं खुद अपने आप से घबराने लगे हैं , झूठ को सच बनाने लगे हैं । 
 
 Sagar Voice on X: "अज्ञानता से भय पैदा होता है, भय से अंधविश्वास पैदा होता  है, अंधविश्वास से अंधभक्ति पैदा होती है, अंधभक्ति से व्यक्ति का विवेक ...

अक्टूबर 06, 2025

POST : 2027 लौटना गुज़रे हुए वक़्त में ( संस्मरण ) डॉ लोक सेतिया

          लौटना गुज़रे हुए वक़्त में ( संस्मरण ) डॉ लोक सेतिया 

 

अपनी इक ग़ज़ल से बात शुरू करने का मकसद है कितने लोग रह गए छूट गए पहले उनकी याद ज़रूरी है । 

         हर मोड़ पर लिखा था आगे नहीं है जाना ( ग़ज़ल ) 

            (  डॉ लोक सेतिया "तनहा" )   


हर मोड़ पर लिखा था आगे नहीं है जाना
कोई कभी हिदायत ये आज तक न माना ।

मझधार से बचाकर अब ले चलो किनारे
पतवार छूटती है तुम नाखुदा बचाना ।

कब मांगते हैं चांदी कब मांगते हैं सोना
रहने को झोंपड़ी हो दो वक़्त का हो खाना ।

अब वो ग़ज़ल सुनाओ जो दर्द सब भुला दे
खुशियाँ कहाँ मिलेंगी ये राज़ अब बताना ।

ये ज़िन्दगी से पूछा हम जा कहाँ रहे हैं
किस दिन कहीं बनेगा अपना भी आशियाना ।

मुश्किल कभी लगें जब ये ज़िन्दगी की राहें
मंज़िल को याद रखना मत राह भूल जाना ।

हर कारवां से कोई ये कह रहा है "तनहा"
पीछे जो रह गए हैं उनको था साथ लाना । 

     
( नाख़ुदा = नाविक ,  मांझी , केवट , कर्णधार )


 
आदमी की कुछ ऐसी ही फितरत है वर्तमान से नज़रें नहीं मिलाता भविष्य को लेकर आशंकित रहता है और हमेशा बीते हुए पलों को वापस बुलाना चाहता है ।  गीत याद आया है याद न जाये बीते दिनों की , जाके न आये जो दिन , दिल क्यूं बुलाये , उन्हें दिल क्यों बुलाये । दिन जो पखेरू होते पिंजरे में मैं रख लेता , पालता उनको जतन से  , मोती के दाने देता , सीने से रहता लगाये । दिल एक मंदिर फ़िल्म का ये गीत कॉलेज के समय कितनी बार गाया और सुना होगा । करीब महीने भर से अपने कॉलेज के एलुमनाई मीट का सभी ने बेसब्री से इंतज़ार किया शायद यही कारण रहा होगा वापस लौटने की दिलों की छुपी चाहत जिसे हक़ीक़त में सच करना संभव नहीं कुछ घंटे वर्तमान से चुराकर अतीत में जीने की आरज़ू दिल की । कभी सोचा है हम बचपन से युवा अवस्था से उम्र के साथ कितने मित्रता या अन्य संबंधों को अपनी तथाकथित व्यस्तताओं के कारण निभाना भूल जाते हैं , गांव शहर क्या सामने रहने वाले लोगों तक से मिलने बात करने की कोई कोशिश ही नहीं करते , कभी सोचते हैं पहल कोई और करे या फिर आजकल व्हाट्सएप्प संदेश ही काफी लगता है रिश्ते कायम रकने को । फिर भी ऐसे में हम सभी पचास साल से अधिक समय गुज़र जाने के बाद अपने कॉलेज की पुराने छात्रों की मिलन की बेला की सभा को लेकर कितने उत्सुक थे , कारण वही बीती हुई यादों को ताज़ा कर जीवन में नई ऊर्जा का संचार करना उन पलों में वापस लौटने की ख़्वाहिश । 
 
अब बात 4 अक्टूबर 2025 संजीवनी संगम - 2025 , बाबा मस्तनाथ आयुर्वेदिक कॉलेज अस्थल बाहर रोहतक में आयोजित कार्यक्रम की । जैसा सोचा था उस से भी बढ़कर शानदार आयोजन ही नहीं बल्कि उस से अधिक महत्वपूर्ण आयोजक मंडली के सभी सदस्यों के साथ संसथान और वहां शिक्षा प्राप्त कर रहे नवयुवकों युवतियों का आत्मीयता पूर्वक व्यवहार अभिभूत कर गया सभी को । भौतिकता की बात छोड़ भावनात्मक स्नेह का एहसास कोई कभी भूल नहीं सकता है वो भी ऐसे लोगों से जिनसे हमारी कोई जान पहचान ही नहीं थी शायद बाद में भी उनके चेहरे धुंधली याद में रह जाएंगे नाम नहीं मालूम हैं । आपने अपने घर परिवार समाज में कितने समारोह देखे होंगे लेकिन कभी ऐसा शायद अनुभव किया होगा जैसा उस दिन छह से आठ घंटों में सभी को अनुभव हुआ होगा । अपने कॉलेज की प्रगति शानदार प्रदर्शन से लेकर अपने सहपाठियों से मिलकर जो ख़ुशी मिली उनका वर्णन नहीं किया जा सकता , मंच आपका स्वागत कर रहा था आपको आमंत्रित कर आपकी उन्नति को जानकर गौरान्वित था । जिस तरह से हर महमान को अतिविशेष आदरणीय होने का आभास हुआ क्या कभी किसी अन्य जगह हुआ होगा , कभी नहीं । एक दिन साथ रहकर हमने कितनी भूली बिसरी बातों को ताज़ा किया क्या क्या नया जाना समझा जो ज़िंदगी में हासिल करना आसान नहीं होता है ।  
 
सब जानते हैं कि जब हम कॉलेज में पढ़ते थे शायद ही लगता होगा कि सभी कुछ शानदार है बल्कि सदा महसूस हुआ करता था काश कुछ अच्छा आधुनिक होता । लेकिन आज लगता है उस सादगीपूर्ण जीवन की खुशियां कितनी अनमोल थी जिनको फिर नहीं पाया जा सकता है , लगता है मन में इक अनुभूति रहती है कि हमने ही उस सवर्णिम काल को समझने में देरी कर दी ।  बड़ी देर बाद समझ आया कि वास्तविक ज़िंदगी की चाहत दोस्ती और निस्वार्थ प्यार संबंध से आपस में सहयोग त्याग की भावनाएं उस वक़्त के साथ जाने कहीं खो गई हैं । आपने कभी गांव का जीवन जिया है तो समझ आएगा सालों बाद अपने गांव जाने पर सभी कुछ बदला हुआ दिखाई देता है यहां तक कि रहने वाले लोग भी अलग होते हैं तब भी उन गलियों की उस धरती की कोई महक आपको महसूस होती है । कुछ आधुनिक नवीन निर्मित हुआ होता है तो कहीं कोई पुरानी ईमारत जर्जर नज़र आती है , आपको उसे देख कर उदास नहीं होना चाहिए बल्कि सोचना चाहिए कि ईंट पत्थर से बढ़कर हम सभी में जो भावनाएं थीं कैसे आज भी कायम हैं । दार्शनिकता की बात की जाये तो आपको दिखाई देता है इक दिन हमको भी मिट्टी में मिलना ही है । क्या आपको नहीं लगता कि उस जगह की मुहब्बत की अनुभूतियां अभी पहले सी ही हैं । आज इतना ही कुछ तस्वीरें देख सकते हैं , सबसे सुंदर छवि कॉलेज की शुरुआत की पहले बैच की छात्रा रही 1958 बैच की डॉ जयंत वीर कौर तनेजा जी की सभा में मंच पर उपस्थिति को कहना चाहता हूं । 
 


 




सितंबर 25, 2025

POST : 2026 गांव की मिट्टी से आधुनिक शहर तक ( अनगिनत रंग ) डॉ लोक सेतिया

 गांव की मिट्टी से आधुनिक शहर तक ( अनगिनत रंग ) डॉ लोक सेतिया  

ये हमारी उम्र की पीढ़ी ने देखा समझा गुज़ारा है जो हमसे पहले हुए उनको विज्ञान और भौतिकता की प्रगति का कहां पता होगा की आदमी कितने बदलाव का साक्षी बनने जा रहा है । जो आज की युवा पीड़ी है उसकी कल्पना भी वहां नहीं पहुंच पाएगी जहां से हमने उनके पूर्वजों ने शुरुआत की थी । और ये बदलाव गांव से शहर और शहर से महानगर या महानगर से विदेशी चमक दमक का ही नहीं है बल्कि उस से बढ़कर बदलती सोच और इंसानी संवेदनाओं से मशीनी तौर तरीकों का भी है । आपको भूखे पेट खुले आसमान की बारिश गर्मी सर्दी से शानदार पंचतारा जीवन शैली का अनुभव आधुनिक काल में एक साथ नहीं हो सकता है । आज आपके सामने भले गरीबों की दुनिया हो सकती है जिस से आप कोई संबंध नहीं रखना चाहते हों और आपकी मध्यम वर्ग की दुनिया जिस को महलों की तख्तों ताज़ों की दुनिया पाने की ख़्वाहिश है उस भीतर से बेहद खोखली दुनिया धनवान लोगों की मतलबी संवेदनारहित दुनिया , ज़िंदगी की वास्तविक पहचान इन से बिल्कुल अलग है । फ़िल्मी किताबी काल्पनिक नहीं वास्तविक दुनिया हमारी थी है और रहेगी जो कुछ विचित्र महसूस हो सकती है मगर विचित्र नहीं वही देश की सही तस्वीर है जिसे हमने भुला दिया है । आज हम जिस ऊंची इमारत पर खड़े हैं उसकी बुनियाद कितनी गहरी है मज़बूत है अथवा कमज़ोर है जिसको कोई आंधी कोई तेज़ हवा का झौंका हिला देता है जाने किस दिन क्षण भर में उसका निशान ही मिट जाए कोई तूफ़ान कोई सैलाब अगर आ गया तो । 
 
चलो बचपन से शुरआत करते हैं , गांव जिस में कोई सड़क नहीं बिजली नहीं सरकारी स्कूल भी है केवल पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई कर सकते हैं । कभी खुले में कभी पेड़ों की छांव में अध्यापक पढ़ाते हैं कभी एक ही अध्यापक पहली से पांचवी तक की कक्षा को पढ़ाते थे । लकड़ी की तख़्ती पर किसी पेड़ की टहनी से तराशी हुई कलम और दवात में काली स्याही की पुड़िया पानी में मिलाकर बनाई स्याही से लिखने का अभ्यास । लेकिन गांव का वातावरण कितना प्यारा होता था कोई भी अनजान अजनबी नहीं होता था , मिलते तो कहते तुम फलाने के बेटे पोते भाई बहन लगते हो , जी हां चाचा जी बाबा जी बताते थे । खेलने को कोई मैदान नहीं था गली मोहल्ला हर घर अपना था किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं थी । दिये की रौशनी या कोई लालटेन जलती थी मगर चांदनी रात को खुली छत पर कोई कहानी सुनते सुनते किसी सपनों की दुनिया में नींद में भी चेहरे पर मुस्कान रहती थी । पांचवी कक्षा के बाद छोटे से शहर में छह साल की पढ़ाई जिस में हिंदी पंजाबी अंग्रेजी भाषा को पढ़ना और उसके बाद नौंवीं कक्षा में विज्ञान गणित की राह चुनना सब जैसे भविष्य को निर्धारित करता गया । लेकिन हम गांव के घर से शहर में परिवार के किसी बड़े सदस्य की सुरक्षित देख रेख में शहरी वातावरण से तालमेल बिठाते हुए भी खेत खलियान से जुड़ाव रखते रहे । जिस गांव तक बस जाती उस से यात्रा कर आगे पांच मील का कच्चा रास्ता पैदल ही तय हो जाता था । कभी अगर साईकल मिलती तो आनंद लेते अन्यथा कदमों ने कभी थकना नहीं सीखा था , गांव पहुंचते ही गांव के बाहर वाले खेत भाग कर मिलने जाते पिता चाचा दादा ताया जी ही नहीं खेत में काम करने वाले सभी से कुछ रिश्ता हुआ करता था । कितना अपनापन है कि गांव से सालों साल बाहर रहकर भी किसी को देखते लगता की ये कोई अपने गांव का ही है पूछने पर मालूम होता किसी सहपाठी की संतान है जिस से शायद मिले तक नहीं । 
 
कॉलेज की बात बिल्कुल अलग है , मुझे आधी ज़िंदगी बिताने के बाद समझ आया कि उन पांच सालों में हमने सिर्फ किताबी पढ़ाई ही नहीं की बल्कि हमारा दिल दिमाग़ सोच समझ को कोई आकाश तभी मिला जिस से हम लोग जैसे हैं वैसे बन सके हैं । आपको सुनकर हैरानी होगी कि कॉलेज जीवन से हमने क्या क्या नहीं सीखा समझा और अपने भीतर समा लिया । सोचता हूं तो लगता है कि जैसे किसी बाग़ के पौधे को उखाड़ कर किसी ऐसे खुले मैदान में रोप दिया हो जिस में कोई माली नहीं कोई बाढ़ नहीं और मौसमों से गर्मी बारिश सर्दी से जूझना पड़ता है । ठोकर लगती है कोई उठाने को हाथ नहीं बढ़ाता खुद संभलना होता है । कभी कॉलेज कभी हॉस्टल कभी कितनी अन्य दुश्वारियां पता नहीं होता किस किस उलझन से निकलना होगा । कभी घर से पत्र नहीं आया अकेलापन कभी मनीऑर्डर नहीं पहुंचने पर खाली जेब ऐसी कितनी बातें लगती छोटी हैं लेकिन हालात से सामना करना सिखलाती हैं । सबसे महत्वपूर्ण दो बातें हैं पहली किसी से मिलते ही निकटता का एहसास और दूसरा कभी कोई समस्या होने पर सहयोगी सहपाठी मित्रों का परिवार के अन्य सदस्यों से बढ़कर अपनत्व । इक दोस्त का दुर्घटना में फ्रैक्चर होने के बाद कुछ महीने अपने माता पिता साथ गुज़ार कर आने पर बताना कि लगता है हाथ में बैसाखियां नहीं मानसिक रूप से विवशता का एहसास होने लगा है , दो दोस्तों का भरोसा दिलवाना कि हम हैं तो कभी ऐसा मत समझना । आज वो दोस्त नहीं है दुनिया में लेकिन हम दो दोस्तों ने उसको प्यार से सभी रिश्तों से बढ़कर अपनापन देकर उस निराशा से निकाला और कभी असहाय नहीं महसूस होने दिया , ये कॉलेज के मधुर संबंध से ही संभव था ।  
 
ज़िंदगी भटकाती नहीं रही बल्कि शायद नित नई मंज़िलें मुझे बुलाती रही हैं , 1974 से 1980 तक दिल्ली में रहना शायद मेरे भविष्य की आधारशिला जैसा था । सरिता पत्रिका का कॉलम अंतर्मन तक समाया जिस ने देश समाज को लेकर सक्रिय करने सोचने समझने की प्रेरणा दी , और 25 जून 1975 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी का रामलीला मैदान में जाकर भाषण सुन कर इक संकल्प लिया था निडर होकर अन्याय अत्याचार भ्र्ष्टाचार से टकराने का । लेकिन लेखन को तेज़ धार देने में जिस हिंदी अख़बार दैनिक जनसत्ता और उसके संपादक प्रभाष जोशी जी की प्रेरणा ने मज़बूती दी उनका महत्व कम नहीं है । अब अधिक विस्तार से बताना ज़रूरी नहीं है लेकिन लेखन कार्य में करीब 35 साल से निरंतर सक्रियता में कितनी समस्याएं बाधाएं और अड़चने सामने आती रहीं मगर अपने पांव डगमगाने नहीं दिए भले कीमत कुछ भी चुकानी पड़ी है । ये बात समझने में ज़िंदगी लग गई है कि हम लिखने वालों की दुनिया अपनी अलग ही होती है और अधिकांश आसपास की दुनिया को हम लोग कभी पसंद आते नहीं क्योंकि उनको समझ ही नहीं आता कोई क्यों ऐसे काम में लगा हुआ है जिस से मिलता कुछ भी नहीं चिंताओं को छोड़कर । लेकिन अब समझ आता है कि हमारी बात पढ़ने समझने वाले दुनिया भर में कितने लोग हैं जिनसे हमारा कोई नाता ही नहीं है । आधुनिक संसाधनों ने लिखने वालों को खुला आसमान दिया है किताबों को लोग सिमित संख्या में पढ़ते हैं जबकि ब्लॉग्स साइट्स पर आप को संसार पढ़ता है यही हमारी उपलब्धि है जिसे हासिल करने में निरंतर प्रयास करना होता है ।  
 
 10 सरल घर डिजाइन - भारत में सरल गांव घर डिजाइन
 

सितंबर 22, 2025

POST : 2025 विदेशी कर हवन , स्वदेशी पर प्रवचन ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

  विदेशी कर हवन , स्वदेशी पर प्रवचन  ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

कथनी करनी एक समान होनी चाहिए , अंग्रेजी हुकूमत का विरोध करने को गांधी जी ने स्वदेशी आंदोलन चलाया था  1921 में विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई थी । ऐसा समाचार ज्ञात हुआ है कि कुछ लोग जनता को इस पर जागरूक करने का प्रयास प्रेस वार्ता से करने वाले हैं ताकि लोग स्वदेशी को अपनाएं विदेशी को छोड़कर ।  उन सभी से करबद्ध अनुरोध है कि उनके पास जितना भी कुछ विदेशी है जनता को समझाने को उन सभी की होली जलानी उचित होगी । शपथ उठानी होगी सभी ऐसे प्रयास का समर्थन करने वालों को कि उनके पास जितना विदेशी सामान है उसका त्याग कर भविष्य में कभी विदेशी सामान नहीं खरीदेंगे । मगर विडंबना ये है कि साधरण जनता को जो कहना हैं खुद आपके आचरण में शामिल नहीं हो तब गंभीर विषय भी उपहास बन जाती है । कल ही खबर पढ़ी थी कि हिंदी चैनल वालों को उर्दू भाषा का उपयोग करने पर ऐतराज़ जताया गया है , जबकि कोई भी चैनल अख़बार नहीं है कोई अधिकारी मंत्री शासक नहीं है जो अंग्रेजी भाषा का उपयोग किये बगैर अपनी बात रख सकता हो । हिंदी और उर्दू तो दो बहनों जैसी हैं कोई लाख कोशिश कर के भी उनको अलग नहीं कर सकता है जैसे गंगा जमुना नदियां हैं । संकुचित मानसिकता ने लोगों को बांटने का प्रयास किया है जब कि उर्दू भाषा प्यार की भाषा है देश में आज़ादी के बाद तक भी सरकारी कार्यालय की भाषा रही है उर्दू । अंग्रेजी विदेशी भाषा है लेकिन आधुनिक काल में किसी भाषा को आप चाह कर छोड़ नहीं सकते अन्यथा आपको अपने देश की सीमाओं से बाहर निकलना तो दूर कितने राज्यों में भी संवाद करने में कठिनाई होगी । 
 
पिछले सालों में बुलेट ट्रैन से तमाम अन्य परियोजनाओं में विदेशी सामान का उपयोग किया गया है बहुत लोग गाड़ी से कपड़े जूते पेन अर्थात सर से पांव तक विदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल कर स्वदेशी पर व्याख्यान देते हैं तो लगता है जैसे गुड़ खाना गुलगुलों से परहेज़ की कहावत सच करते हैं ।  हमारे समाज में मूल्यों का पतन निरंतर होने का कारण ये भी है कि हमने साहित्य की किताबों से नाता तोड़ लिया है और भौतिकतावादी संस्कृति का शिकार हो गए हैं । देशभक्ति को हमने सिर्फ नारा समझ लिया है देश की खातिर कुछ भी त्याग करना नहीं चाहते हैं । वास्तव में हमने अपनी भारतीयता की पहचान को गंवा दिया है और हम पश्चिमी चमक दमक में खोये हुए चेहरे और मुखौटे का भेद नहीं समझते हैं । हर शख़्स बाहर कुछ और दिखावा करता है मगर अपने घर दफ़्तर में असलियत कुछ अलग नज़र आती है । विकास के नाम पर विनाश की राह दौड़ते डेडते हम निकल आये हैं किसी अजनबी दुनिया में भटके मुसाफिर बनकर , ऐसे में कोई रास्ता बताने वाला नहीं है सभी ख़ुदपरस्ती का शिकार हैं । आखिर में अपनी इक बहुत पुरानी ग़ज़ल से कुछ चुनिंदा शेर पेश हैं  , हमको ले डूबे ज़माने वाले , नाखुदा खुद को बताने वाले , नाखुदा कहते हैं मांझी को कश्ती के खेवनहार को ,  माझी जब नाव डुबोये  उसे कौन बचाये , गीत सुना होगा । आई लव माय इंडिया मेड इन इंडिया जैसे शब्द प्रभावशाली नहीं लगते आजकल आडंबर प्रतीत होते हैं देश प्रेम देशभक्ति देशसेवा आपके आचरण में शामिल हो तो बताने की आवश्यकता नहीं होती है । 
 
 

 हमको ले डूबे ज़माने वाले ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमको ले डूबे ज़माने वाले
नाखुदा खुद को बताने वाले ।

देश सेवा का लगाये तमगा
फिरते हैं देश को खाने वाले ।

ज़ालिमों चाहो तो सर कर दो कलम
हम न सर अपना झुकाने वाले ।

उनको फुटपाथ पे तो सोने दो
ये हैं महलों को बनाने वाले ।

मैं तो आइना हूँ बच के रहना
अपनी सूरत को छुपाने वाले ।

मझधार में नैया डोले तो म... | Quotes & Writings by Debangsu Mandal |  YourQuote

सितंबर 21, 2025

POST : 2024 बेताल सुनता , कहानी राजा सुनाता ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

  बेताल सुनता , कहानी राजा सुनाता ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

शासक ने बेताल को बेबस कर चुपचाप उसकी कहानी सुन कर ताली बजाने को विवश कर ही लिया । हमेशा से बेताल अपनी शर्त मनवाता रहा इस बार बाज़ी पलट गई और राजा ने तौर तरीका बदल बेताल की पीठ पर खुद सवार हो गया था । राजा कहने लगा बेताल की कितनी कथाएं कहानियां दुनिया ने सुनकर भुला दीं पर कोई सबक नहीं सीखा आज भी राजतंत्र खत्म हुआ लोकराज स्थापित होने पर भी जनता खुद को किसी न किसी का गुलाम ही बनाये रखा । मूर्ख लोग गुलामी का भी लुत्फ़ उठाने लगे हैं पिंजरे में कैद ख़ुशी के गीत गाने लगे हैं । किसी भिखारी को ताज पहनकर खुद अपनी झोली फ़ैलाकर गंगा उलटी बहाने लगे हैं अपनी हस्ती खुद ही मिटाने लगे हैं सोशल मीडिया की चमक दमक की झूठी दुनिया को सच समझने लगे है क्या जाने किसलिए ज़ालिम को मसीहा समझ कर महिमा उसी की गाने लगे हैं । शासक कुछ भी जनता या समाज के कल्याण की खातिर नहीं करते हैं हमेशा अपनी तिजोरी भरते हैं मौज करते हैं लोग देखते हैं उनको बस आह भरते हैं । खुद सभी देशवासी शासक बनकर मनमानी करने की चाहत रखते हैं इसलिए झूठ का ही गुणगान करते हैं सच बोलने से डरते हैं । शासक बनते ही भूखे नंगे लोग भी बादशाह खुद को मानते हैं देश सेवा के नाम पर लूट खसौट करते हैं जनता को झूठे वादों से बहलाते हैं उसकी खैरात बांटते है अधिकार कभी नहीं देते खुद दानवीर कहलाने का ग़ज़ब ढाते हैं ।    
 
चोर चोर मौसेरे भाई हैं सत्ता की रेवड़ियां संग संग खाते हैं देशवासी हमेशा गलती करते हैं जिन पर भरोसा करते हैं वही ज़ुल्म ढाते हैं लोग चिड़िया खेत चुग जाती है तब बाद में पछताते हैं । सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा गुनगुनाते हैं मगर अच्छा कुछ भी दिखाई देता ही नहीं झूठे ख्वाब सजाते हैं । मंदिर मस्जिद गिरजा गुरुद्वारा सभी लोग जाते हैं लेकिन भगवान कहीं नहीं मिलते आजकल इंसान भी कम नज़र आते हैं । जो लोग बबूल बीजते हैं सत्ता हासिल कर आम आदमी को चूसते हैं उसका सब निचोड़ कर पीते हैं बस गुठलियां गरीब को मिलती हैं शासक हंसी उड़ाते हैं ये तमाशा देख दिल बहलाते हैं ।  शासक देश विदेश जाकर भाईचारा बनाते हैं दोस्त देश दुश्मन देश कौन सब भूलकर लेन देन का ऐसा चक्र्व्यू रचाते हैं जिस में साधारण लोग बिना कुछ लिए कर्ज़दार बन कर जीवन भर किश्ते चुकाते हैं । आयात निर्यात के खेल में सत्ताधारी लोग अधिकारी उनके यार लोग गुलछर्रे उड़ाते हैं गरीब और गरीब अमीर और रईस बनकर देश का बंटाधार कर इतराते हैं समझते हैं हम बनाते हैं जब चाहे सरकार गिराते हैं । ख़ास वर्ग स्वार्थ की बेड़ियों में  कोल्हू के बैल की तरह अपनी परिधि में घुमते रहते हैं कभी आंखों से पट्टी नहीं हटाते मतलब की बात समझते हैं आपको ये समझाते हैं , कविता सुनाते हैं लोग आम क्यों नहीं खाते हैं । 
 
 

गुठलियां नहीं , आम खाओ ( व्यंग्य कविता ) 

डॉ लोक सेतिया

गुठलियाँ खाना छोड़ कर
अब आम खाओ
देश के गरीबो
मान भी जाओ ।

देश की छवि बिगड़ी
तुम उसे बचाओ
भूख वाले आंकड़े
दुनिया से छुपाओ ।

डूबा हुआ क़र्ज़ में
देश भी है सारा
आमदनी नहीं तो
उधार ले कर खाओ ।

विदेशी निवेश को
कहीं से भी लाओ
इस गरीबी की
रेखा को बस मिटाओ ।
 
मान कर बात
चार्वाक ऋषि की
क़र्ज़ लेकर सब
घी पिये  जाओ ।

अब नहीं आता
साफ पानी नल में
मिनरल वाटर पी कर
सब काम चलाओ ।

होना न होना
तुम्हारा एक समान
सारे जहां से अच्छा
गीत मिल के गाओ ।

Vikram Aur Betaal, Vikram Aur Betal Kahani, Vikram Aur Betal story

सितंबर 19, 2025

POST : 2023 सच छुपाने लगा है ( कविता / नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

       सच छुपाने लगा है ( कविता / नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 

 
आईना ही हक़ीक़तको छुपाने लगा है 
दिन को भी अंधियारा छाने लगा है ।
 
दामन अपना वो अब छुड़ाने लगा है 
कहानी पुरानी फिर सुनाने लगा है ।   
 
चोर भी कितना शोर मचाने लगा है  
पहाड़ तले कोई  ऊंठ आने लगा है । 
 
तिलिस्म समझ सबको आने लगा है 
रहनुमा ही आजकल  घबराने लगा है ।
 
कोई तिनका छुपा सच बताने लगा है 
हर इक शख़्स ही दाढ़ी खुजाने लगा है ।
 
दोस्त खंज़र छुपा मिलने आने लगा है 
क्या खूब दोस्ती मुझसे निभाने लगा है ।  
 
उस गली गुज़रते सर को झुकाने लगा है
चुपचाप मिलने किसे आने जाने लगा है ।   
 

( 28 फरवरी 2003 पुरानी डायरी से ) 

 

 

सितंबर 18, 2025

POST : 2022 लिखना सीखा नहीं , मिटाना है ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

      लिखना सीखा नहीं ,  मिटाना है ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

इतिहास रचना कठिन होता है लेकिन इतिहास को बदलना कभी भी संभव हो नहीं सकता है , जिनको कुछ भी अच्छा नहीं लगता जो उनको आईना दिखाए उनको सच को झूठ साबित करने में पसीना छूट जाता है ।  कहते हैं कि इतिहास खुद को दोहराता है आजकल फिर कोशिश की जा रही है सामाजिक सच्चाई को उजागर करने वाली सामिग्री को आदेश देकर मिटवाने की लेकिन क्या मिटा देने से दुनिया भूल जाएगी जो भी हक़ीक़त रहा है । बात पचास साल पुरानी है तब किसी ने विदेश से सवाल किया था कि शायर दुष्यंत कुमार किस बूढ़े आदमी की बात ग़ज़ल में कह रहा है कौन है जो इस अंधेरी कोठरी में एक रौशनदान है । लेकिन तब किसी ने ऐसा नहीं किया कि साये में धूप ग़ज़ल संग्रह को ही प्रतिंबधित कर देता , जैसे कवि शिव कुमार बटालवी को मिटाने को हर निशानी मिटाने के बावजूद भी हो नहीं सका कोई कवि अपनी राख से चिंगारी की तरह वापस आ गया , निशान बाक़ी रहते हैं जिस पगडंडी से ऐसे अकेले लोग गुज़रते हैं । क्या इसको आत्मविश्वास की कमी कहा जाये अथवा मन के भीतर छुपे डरे हुए इंसान की घबराहट जो दुनिया भर में करोड़ों करोड़ रूपये खुद को महान साबित करने पर खर्च करने और हर तरफ शोर ही शोर मचाने के बाद भी जिनकी वाणी सुनाई मुश्किल से देती है सत्य की उसको दबाकर खामोश करने की आवश्यकता महसूस होने लगी है ।  कहते हैं कि अगर आप चाहते हैं कि आपके बाद भी लोग आपको याद रखें तो या कुछ ऐसा कर जाओ जिस पर कोई लिख कर आपको अमर कर दे या फिर कुछ ऐसा लिख जाओ जिसे दुनिया पढ़कर आपको याद करे कि कभी उस घने अंधकार में भी कोई छोटा सा दीपक जलाता रहा था । 
 
जिन्होंने खुद लिखना सीखा ही नहीं और कुछ अच्छा नवीन सार्थक करना जानते भी नहीं उनको लगता था कि पुराने इतिहास को तोड़ मरोड़ कर उसका नाम निशान मिटाकर अपना कीर्तिमान स्थापित किया जाये तभी उनकी  रेखा बड़ी उनका कद ऊंचा साबित हो सकता है । हुआ क्या जिसको मिटाना चाहा वो और भी उभर कर सामने दिखाई देने लगा , आमने सामने होने पर हालत ऐसी हुई जैसे किसी कवि ने लिखा था कि बौने कद वालों को पहाड़ पर चढ़ने का शौक होता है और उनको लगता है पहाड़ पर खड़े होकर उनकी ऊंचाई बढ़ जाती है , जबकि पहाड़ पर खड़े होकर बौने और भी छोटे दिखाई देते हैं । आप पैसे प्रचार से तरह तरह से तमाशों से दुनिया को आडंबर से प्रभावित कर सकते हैं लेकिन खुद अपने आप से नज़रें मिलाना आसान नहीं है , खोखलापन बाहर नहीं भीतर है । आज के हालात पर मेरे मित्र विपिन सुनेजा ' शायक ' जी की इक ग़ज़ल सटीक लगती है उनकी अनुमति से प्रस्तुत कर रहा हूं नीचे उनकी तस्वीर भी यादगार रखने को उपयोगी हो सकती है ।   
 
 

    ग़ज़ल    :  विपिन सुनेजा ‘ शायक़ ’

दिल धड़कते हैं अभी पर भावनाएँ मर गयीं
वेदनाएँ   बढ़   गयीं,   संवेदनाएँ   मर गयीं

देह की चादर को ताने  सो  रही हर आत्मा
ज्ञान  बेसुध सा  पड़ा है ,चेतनाएँ  मर गयीं

एक भी नायक नज़र आता नहीं इस भीड़ में
क्रान्ति  होने की  सभी  संभावनाएँ  मर गयीं

जंगलों पर दिन-दहाड़े  चल रहीं कुल्हाड़ियाँ
सिंह  बैठे  हैं  दुबक  कर, गर्जनाएँ  मर गयीं

कामना  उनको ही पाने  की न जब  पूरी हुई
अब नहीं कुछ माँगना,सब कामनाएँ मर गयीं 

 


 


सितंबर 17, 2025

POST : 2021 किसे पकड़ना छोड़ना किसे ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया

     किसे पकड़ना छोड़ना किसे ( कटाक्ष ) डॉ लोक सेतिया  

इ डी अर्थात प्रवर्तन निदेशालय की कहानी से आगे की बात है  ए सी बी अर्थात भ्र्ष्टाचार निरोधक ब्यूरो से हरियाणा सरकार ने कहा है कि आपने सरकार से पहले अनुमति नहीं ली थी छापे मारने की इसलिए आप किसी अधिकारी के रिश्वत लेते पकड़े जाने पर मुकदमा दायर नहीं कर सकते । सरकार कहते हैं सभी सरकारी अधिकारी वर्ग से राजनेताओं का काला सफेद का हिसाब किताब रखती है और जब ज़रूरत होती है तभी उसका उपयोग करती है । चुनावी बॉन्ड भले अवैध घोषित किये अदालत ने देने लेने वालों पर कोई असर नहीं हुआ खाया पीया हज़्म जैसी बात है । अगर कोई विभाग बिना इजाज़त नेताओं अधिकारियों पर छापे डालने लगा तो कौन बचेगा क्योंकि इस हम्माम में सभी नंगे हैं । आजकल देश की सरकार पर ही अल्पमत की तलवार लटकी हुई है समर्थन देने वाले कीमत मांगते हैं सरकार को रहना है तो चुपचाप मांगे पूरी करनी पड़ती हैं । शराफत नैतिकता के मापदंड आजकल कौन समझता है इस हाथ दे उस हाथ दे की बात है कल का क्या भरोसा है अभी तो जान बची तो लाखों पाए । अब सरकार कितने साहूकारों की उंगलियों पर नाचती है उनको जितना जब जैसे चाहिए देना मज़बूरी है , क्या बिकने को बचा है हिसाब लगाना बाकी है लाखों पेड़ों की हज़ार एकड़ की कीमत सिर्फ एक रुपया सालाना खूबसूरत चालाकी है । जिस संसद में आधे से अधिक लोग खुद गंभीर अपराधों के दोषी हैं वही कानून बनाती है मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री को हटाने को किसी अदालती करवाई की आवश्यकता नहीं जेल में महीना कैद होना पर्याप्त है मगर यही मापदंड खुद उन्हीं पर लागू नहीं होता है । क्या ग़ज़ब की न्याय की अवधारणा है । 
 
वास्तविकता तो ये है कि राजनीति और प्रशासनिक सेवाओं से तमाम वैधानिक संस्थाओं में भ्र्ष्टाचार को किसी और नाम से स्वीकृति मिली हुई है । बदले में कुछ भी देना लेना आपसी भाईचारा है ये लूट का रंग ढंग न्यारा सभी को प्यारा है । मीडिया वालों को विज्ञापन से लेकर कितना कुछ मिलता है बदले में सिर्फ जी हज़ूरी चाटुकारिता गुणगान करनी होती है लोक लाज की परवाह छोड़ बेशर्मी से । ये सभी लूले लंगड़े हैं जिनको इक इक कदम सरकारी बैसाखियों की ज़रूरत पड़ती है । मैंने कल ही लिखी है इक हास्य व्यंग्य की कविता जिसे आज की खबर पढ़कर लगता है लागू करने का समय आ गया नहीं बल्कि लुका छुप्पी से लागू किया जा चुका है । रिश्वत हमारे देश की राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था से लेकर कारोबार उद्योग ही नहीं अन्य तमाम सामाजिक संगठनों में रग रग में बसी हुई है अगर कोई जांच संभव हो तो सभी में ये भ्र्ष्टाचार खून में शामिल मिलेगा जिसे अलग करते ही जीवन लीला का अंत हो जाएगा । इसलिए इसको वैधता देकर सभी माजरा ख़त्म किया जाना उचित है नहीं रहना तेरे बिन रिश्वत की देवी कितनी सुंदर लगती है । 
 
 
पहले इक पुरानी कविता पढ़ते हैं अंत में कल की कविता समझते हैं ।  
 
11 सितंबर 2012 पोस्ट : 127  

जय भ्र्ष्टाचार की ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ  लोक सेतिया

है अपना तो साफ़ विचार
है लेन देन ही सच्चा प्यार ।

वेतन है दुल्हन
तो रिश्वत है दहेज
दाल रोटी संग जैसे अचार ।

मुश्किल है रखना परहेज़
रहता नहीं दिल पे इख्तियार ।

यही है राजनीति का कारोबार
जहां विकास वहीं भ्रष्टाचार ।

सुबह की तौबा शाम को पीना
हर कोई करता बार बार ।

याद नहीं रहती तब जनता
जब चढ़ता सत्ता का खुमार ।

हो जाता इमानदारी से तो
हर जगह बंटाधार ।

बेईमानी के चप्पू से ही
आखिर होता बेड़ा पार ।

भ्रष्टाचार देव की उपासना
कर सकती सब का उध्धार ।

तुरन्त दान है महाकल्याण
नौ नकद न तेरह उधार ।

इस हाथ दे उस हाथ ले
इसी का नाम है एतबार ।

गठबंधन है सौदेबाज़ी
जिससे बनती हर सरकार । 
 
 

16 सितंबर 2025 पोस्ट : 2020 
 

रिश्वत की है नेक कमाई ( हास्य - व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

कर्मचारी संघ की बैठक चर्चा में इक बात सामने आई 
वेतन नहीं हक मेहनत का , हम सत्ता के हैं घर जंवाई 
शासक की अनुचित बातों को ख़ामोशी से मान लेते हैं  
लूट खसूट से उनको मलाई , छाछ अपने लिए है बचाई । 
 
रिश्वत सेवा का मेवा , करते हैं दूर जनता की कठिनाई 
कुछ भी अनुचित नहीं करते हम , लेन देन है चतुराई 
लोगों की सुनता कौन जनता सत्ता की साली - भौजाई
राजनेताओं ने हंसी मज़ाक में उसकी की मार कुटाई । 
 
रिश्वत को बदनाम कर दिया किसने कर कर के है बेईमानी
वर्ना ये भरोसे की निशानी हर किसी की होती थी आसानी 
सरकार से इक मांग हमारी बंद करनी तलवार है ये दोधारी 
बिना वेतन करेंगे काम हम पर रिश्वत से निभानी सबने यारी ।
 
काश कोई फरियाद सुने रिश्वत लेने की मिल जाये आज़ादी 
आओ हमको ख़ैरात डालकर मनचाहा करवा लो सभी लोग 
पुण्य मिलेगा जन्म जन्म में जितना दिया बढ़कर ही पाओगे  
वरमाला हाथ में लिए खड़ी स्वयंबर में जैसे कोई शहज़ादी । 
 
कैसे आज़माना योजना आयोग को नई तरकीब सुझाई गई है 
हर दफ़्तर में हर विभाग की आमने सामने बनाकर दो शाखाएं 
बीच में निर्देश लगवाएं रिश्वत देने वाले इधर अन्य उधर जाएं 
बिना रिश्वत जाने का मतलब होगा भटकते भटकते मर जाएं ।
 
रिश्वत देने वालों की तरफ सभी जाएंगे खुश होकर देंगे दुआएं 
एक बार ज़रूर आज़माएं बिना रिश्वत नहीं उधर जा पछताएं 
सफल योजना होगी सरकार की सभी का बराबर हिसाब होगा
बारिश होगी गरज बरस कर लौटेंगी आसमान से काली घटाएं ।      
 
 

सितंबर 16, 2025

POST : 2020 रिश्वत की है नेक कमाई ( हास्य - व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

    रिश्वत की है नेक कमाई ( हास्य - व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

कर्मचारी संघ की बैठक चर्चा में इक बात सामने आई 
वेतन नहीं हक मेहनत का , हम सत्ता के हैं घर जंवाई 
शासक की अनुचित बातों को ख़ामोशी से मान लेते हैं  
लूट खसूट से उनको मलाई , छाछ अपने लिए है बचाई । 
 
रिश्वत सेवा का मेवा करते हैं ,दूर जनता की कठिनाई 
कुछ भी अनुचित नहीं करते हम , लेन देन है चतुराई 
लोगों की सुनता कौन जनता सत्ता की साली - भौजाई
राजनेताओं ने हंसी मज़ाक में उसकी की मार कुटाई । 
 
रिश्वत को बदनाम कर दिया किसने कर कर के है बेईमानी
वर्ना ये भरोसे की निशानी हर किसी की होती थी आसानी 
सरकार से इक मांग हमारी बंद करनी तलवार है ये दोधारी 
बिना वेतन करेंगे काम हम पर रिश्वत से निभानी सबने यारी ।
 
काश कोई फरियाद सुने रिश्वत लेने की मिल जाये आज़ादी 
आओ हमको ख़ैरात डालकर मनचाहा करवा लो सभी लोग 
पुण्य मिलेगा जन्म जन्म में जितना दिया बढ़कर ही पाओगे  
वरमाला हाथ में लिए खड़ी स्वयंबर में जैसे कोई शहज़ादी । 
 
कैसे आज़माना योजना आयोग को नई तरकीब सुझाई गई है 
हर दफ़्तर में हर विभाग की आमने सामने बनाकर दो शाखाएं 
बीच में निर्देश लगवाएं रिश्वत देने वाले इधर अन्य उधर जाएं 
बिना रिश्वत जाने का मतलब होगा भटकते भटकते मर जाएं ।
 
रिश्वत देने वालों की तरफ सभी जाएंगे खुश होकर देंगे दुआएं 
एक बार ज़रूर आज़माएं बिना रिश्वत नहीं उधर जा पछताएं 
सफल योजना होगी सरकार की सभी का बराबर हिसाब होगा
बारिश होगी गरज बरस कर लौटेंगी आसमान से काली घटाएं ।      
 
 

 
  
 

    

POST : 2019 जीवन के किसी मोड़ से ( सफ़रनामा ) डॉ लोक सेतिया

       जीवन के किसी मोड़ से ( सफ़रनामा ) डॉ लोक सेतिया 

जैसे कोई गहरी नींद से जगा दे , कल इक कॉलेज के सहपाठी का फोन आया ये बताने को कि हम सभी को बुलावा आया है जिस कॉलेज में 1968 में हमने दाखिला लिया और पांच साल बाद 1973 में स्नातक की डिग्री जी ए एम एस की हासिल कर खुद को डॉक्टर कहलाने का गैरवशाली अधिकार प्राप्त किया था । कितनी खट्टी मीठी कुछ कड़वी भी यादें उभर आई हैं सोचा उस शानदार ज़िंदगी जो बेहद कठिन हालात में भी दिल के किसी कोने में पांच साल के बिताए सुनहरे पलों की गठरी संभाली हुई है 57 साल बाद भी खोलते हैं खुद उसी तरह जैसे कोई पुरनी अलबम में वापस किसी दुनिया में विचरण करने में आनंद का अनुभव करता है । ये अजीब मगर सच्ची बात है कि बचपन या कॉलेज का समय भले कैसा भी मुश्किलों भरा गुज़रा हो बाद में लगता है शायद वही सबसे सुंदर दिन थे मगर हम ही शायद उसको सलीके से बिताना नहीं जानते थे । कभी कभी चाहते हैं लौटना उन पलों को वास्तव में ख़ूबसूरत ढंग से दोबारा बिताना जबकि ये कल्पना कभी सच हो नहीं सकती है । स्कूल से शिक्षा पूरी कर हम तब नहीं जानते थे कितने रास्ते हैं भविष्य का निर्माण करने के क्योंकि पारिवारिक वातावरण गांव खेती और शिक्षा के महत्व से अनजान था । बस किसी से जैसा पता चला हम भाई बहन उसी तरफ बढ़ते रहे , कुछ तो आधे रास्ते से लौट आए कुछ हौसला कर टिके रहे । मुझे इक बड़े भाई ने बताया कि उसके किसी दोस्त ने आयुर्वेदिक कॉलेज की शिक्षा की जानकारी दी है , वो भुआजी जी का बेटा हम सभी छह भाई चचेरे मिलकर रहते थे । उस ने कॉमर्स की पढ़ाई की शुरुआत की थी एक साल पहले ही सोनीपत के कॉलेज में दाखिला लिया था इक और भाई ने आर्ट्स में पढ़ाई की शुरुआत की थी । मेरे दो साथी स्कूल के एग्रीकल्चर विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था , मैं कुछ भी नहीं समझता था क्या मेरे लिए अच्छा है । भाई ने सोनीपत जाना था और रोहतक से गुज़र कर जाना होता था , उसने कहा कि हम दोनों साथ चलते हैं वहां  जाकर देखते समझते हैं । 
 
रोहतक बस अड्डे से मालूम हुआ कि अस्थल बोहर गांव चार किलोमीटर शहर से बाहर है जहां जाने को इक जगह भिवानी स्टैंड से तांगा मिलता है चार आना लगता है और हम बस अड्डे से पैदल उधर चले गए थे । शायद तांगे की पहली बार सवारी की थी , आधा पौना घंटा देखते रहे शहर की रौनक को । कितना आसान था कॉलेज पहुंचते ही सीधे प्रिंसिपल के सामने बैठे पूछ ताछ कर रहे थे । प्रिंसिपल जी ने जानकारी दी और बिना औपचारिक तौर के ही साक्षात्कार लिया प्रमाणपत्र देखे और सवाल किया कि आपको जीवन किस तरह बिताना पसंद है । डॉक्टर बनना किसी तपस्या जैसा है अपनी छोड़ रोगियों की भलाई दिन रात पूरी ईमानदारी से ख़ुशी से करनी होती है । जाने कैसे इक चमक मेरे चेहरे पर आई तो झट भाई ने बताया श्रीमान यही मेरे छोटे भाई की चाहत हो सकती है , मैंने भी कहा ये तो सबसे बढ़िया है । हमको कुछ देर बाहर जाकर बैठने को कहा गया और कुछ ही देर बाद भीतर बुलाया गया , बताया गया कि अगर चाहते हैं तो अभी फीस जमा करवा दाखिला ले सकते हैं । प्रिंसिपल ने इक पत्र अपने लेटर पैड पर लिखा हस्ताक्षर किए और दे दिया जिस में कुछ दिन की मोहलत थी दाखिल होने कि , भाई ने कहा क्या विचार है घर जाकर सलाह करनी है या अभी दाखिल होना है । हम दोनों मुख्य लिपिक से मिले और पूछा तो पता चला कि कुल 485 रूपये जमा करवाने हैं जिस में साल की हॉस्टल की फीस और छह महीने की कॉलेज की फीस शामिल है । भाई ने सोचा कि दाखिला ले लिया जाना उचित है अन्यथा कोई रुकावट बाद में आ सकती है । ऐसा लगता है जैसे नियति ने निर्धारित किया हुआ था मुझे यही करना है ।  
 
कुछ समय बाद कॉलेज की शिक्षा शुरू हुई और मैं अकेला पहली बार इक अनजान जगह अजनबी शहर में चला आया ताया जी ने अपने किसी दोस्त का नाम पता दिया था कभी ज़रूरत हो तो मिलने के लिए । पहला दिन कभी भूल नहीं सकता है , हॉस्टल में प्रवेश करते ही कमरा आबंटित करवाने से पहले ही किसी ने आदेश दिया ऊपरी मंज़िल पर कमरा नंबर अमुक में जाना है । रैगिंग क्या बला है हम नहीं जानते थे लेकिन तभी अपने ही शहर से इक स्कूल का सहपाठी मिल गया और हमने साथ साथ रैगिंग करवाने के बाद बाहर कॉलेज लॉन में जान पहचान की जो हमेशा इक याद बनी रही , कुछ पलों में कोई इतना करीब कैसे आता है ये फिर कभी नहीं देखा हमने जीवन में । खैर कुछ दिन महीना दो महीना तक घबराहट रही फिर कुछ कुछ मज़ा आने लगा हालांकि वातावरण कॉलेज जैसा नहीं किसी जंगल में गुरुशाला की तरह था । खाना पीना रहना सभी जैसा हमने देखा हुआ था उस के विपरीत ही लगा फिर भी तालमेल बिठाना कठिन नहीं था । शायद वो पांच साल बेहद कीमती थे मगर हमने ही कभी दोस्ती की बातों कभी अनावश्यक चीज़ों को महत्व देने में सही उपयोग नहीं किया नासमझी में अन्यथा बड़ी सादगी में भी ख़ुशी से आनंद लिया जा सकता था ।  
 
पचास की कक्षा में दो लड़कियां थी और बाकी अलग अलग राज्यों से आये हुए छात्र कुछ खामोश कुछ शैतान कुछ मनमौजी स्वभाव वाले । कैंटीन में भोजन की रसोई मेस में सभी से मिलना जुलना होता रहता था , कुछ कारणों से मैं बचपन से एकाकीपन का आदी था । भीड़ से बचना कुछ दो चार संग रहना मुझे आसान लगता था बस यही समस्या थी दोस्त करीब भी थे लेकिन सभी कुछ न कुछ गुटबाज़ी में रहने को सुरक्षित समझते थे । बहुत लोग बैठे बातचीत करते तो हमेशा भाषा की सीमाओं का उलंघन होता जो शायद ऐसी उम्र में सामान्य ही होता है बस मुझे आज भी असयंमित शब्द सहन नहीं होते हैं । अधिकांश लोग मुझे समझते कि हमेशा ग़मगीन गीत गाने वाला व्यक्ति है , मगर कभी कभी कुछ दोस्त खुद आते या मुझे बुलाते कोई गीत सुनाने को अपनी पसंद का । एक बार हॉस्टल के वार्डन ने बुलाया तो घबराहट हुई मगर उनको भी गीत सुनना पसंद था और कई देर तक सुनते रहे । पांच साल में दोस्तों से कितने ही अनुभव प्राप्त हुए भले कुछ को छोड़ बाकी से फिर संपर्क रहा ही नहीं कभी कुछ चेहरे याद आते रहे नाम भूल गए । रोहतक से होकर कितनी बार जाना आना होता रहा मगर कभी भी कॉलेज में जाने का मौका नहीं बन पाया , दिल चाहता भी तो सोचता कौन होगा कितने अरसे बाद किस से क्या बात होगी , कोई संकोच रोकता रहता चाहता हमेशा काश कभी किसी तरह उसी हॉस्टल में जाकर रहने का अवसर मिल जाए । डिग्री भी हमको जाकर लेनी पड़ी थी कोई आयोजन नहीं हुआ था कुछ साल पहले इक शानदार आयोजन किया गया तो मुझे जानकारी नहीं मिली थी । अब अगले महीने 4 अक्टूबर को पूर्व छात्रों की मीटिंग का बुलावा जानकर उत्सुक हूं जाने पर जैसा अनुभव होगा सभी से सांझा करना चाहूंगा । 
 
 

सितंबर 14, 2025

POST : 2018 देशसेवा का खेल देखिए ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

     देशसेवा का खेल देखिए ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 

 
देशसेवा का खेल देखिए 
राजनेता बे-मेल देखिए ।  
 
कौन खोटा है कौन है खरा 
बिक रहे सब ही सेल देखिए । 
 
खून पीकर सरकार चल रही 
क्या सियासत का तेल देखिए । 
 
जुर्म साबित होंगे नहीं कभी 
होगी कैसे फिर जेल देखिए । 
 
बदनसीबी तकदीर देश की 
हो गए ' तनहा ' फेल देखिए ।  
 
 

 

POST : 2017 सांप है आस्तीन का ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

   सांप है आस्तीन का ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 

 
सांप है आस्तीन का 
लो मज़ा और बीन का । 
 
जब नज़र से नज़र मिली 
लुत्फ़ देखा हसीन का । 
 
आज का जश्न क्या कहें 
तेरहा का न तीन का । 
 
खेल पूरा न हो सका  
उस इक तमाशबीन का ।  
 
रात दिन शोर है मचा 
घर है अपना ये टीन का ।  
 
 

 


 
 
 

सितंबर 13, 2025

POST : 2016 हैरान हैं भगवान ( क्षणिकाएं : हास्य - व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     हैरान हैं  भगवान ( क्षणिकाएं : हास्य - व्यंग्य  ) डॉ लोक सेतिया 

क्या ऐसे होते हैं इंसान 
क्या यही है शराफ़त की पहचान , 
चोर से कहते चोरी कर कोतवाल से भी पकड़वाते , 
कोयला करने लगा है हीरे की पहचान । 
 
भाई से भाई , बेटे से बाप की करवाते लड़ाई ,
आफ़त खुद जिसने बुलाई 
शामत उसकी आई , 
खाते सभी से खूब मलाई , 
कहना मत उनको हरजाई आदत है बनाई ।  
 
बेच ईमान दौलत कितनी कमाई , 
जिसकी खाई उसकी बजाई 
दो तरफ़ा है किरपान ,   
मान न मान सभी लोग नादान 
बस इक अपनी आन बान शान । 
 
कौन किसका है कद्रदान , 
मिलता है सभी को जीने का वरदान 
मीठा ज़हर पहचान , 
किस किस की ऊंची है दुकान 
फ़ीके फ़ीके सभी पकवान ।

अपने बनकर समझते 
सभी को पायदान ,
जाके पैर न फटी बिवाई , 
वो क्या जाने पीर पराई ,
बिछा हुआ क़ालीन नीचे छुपा 
सभी कूड़ा कर्कट बाहरी शान ।  
 
ऊपर बैठा हुआ हैरान 
कोई भगवान ,
सच और झूठ की मिलावट 
करते हैं नासमझ नादान ,
पर उपदेश कुशल बहुतेरे , 
करते दुनिया पर कितने एहसान । 
 

   
 
 

सितंबर 12, 2025

POST : 2015 क्षणिकाएं ( हास्य - व्यंग्य कविताएं ) डॉ लोक सेतिया

           क्षणिकाएं ( हास्य - व्यंग्य कविताएं ) डॉ लोक सेतिया   

सरकार है कायदा है कानून संविधान है 
भूखों का पेट भरने को रोटी नहीं है , पर 
भूखे मर जाने पर मिलता सभी को बराबर 
लाखों की मुआवज़ा राशि का प्रावधान है ।  
 

2  

बड़ा ही निराला अदालती खेल है
अनगिनत बेगुनाह हैं कैदी जेलों में  
हमेशा से गुनहगारों के लिए मिलती 
बचने को अग्रिम ऐंटिसिपेटरी बेल है ।    
 

लोकतंत्र भी इक खेल तमाशा है 
कभी तोला है तो कभी वो माशा है 
मुंह में पानी है नेताओं प्रशासन के  
जनता क्या है बस मीठा बताशा है । 
 

मंच पर भाषण देते समय जनाब 
चिंता भ्रष्टाचार पर जतला रहे थे 
दलालों को इशारों इशारों में ही 
घर शाम को अपने बुला रहे थे ।  
 

 

 

POST : 2014 राजनेता ( व्यंग्य - कविता ) डॉ लोक सेतिया

          राजनेता (  व्यंग्य -  कविता  ) डॉ लोक सेतिया 

दफ़्न रूह की आवाज़ कर गया 
जी रहा मगर इक शख़्स मर गया ।  
 
ऐतबार उसका ,  क्या करें भला 
और कुछ कहा , कुछ और कर गया ।  
 
मांगता सदा , ख़ैरात वोट की 
जीत कर न जाने फिर किधर गया ।  
 
रहनुमा बनाकर भूल हमने की 
देश लूटकर घर बार भर गया । 
 
क्या नशा चढ़ा सत्ता जो मिल गई 
ज़ुल्म की हदों से , है गुज़र गया । 
 
बेचने लगा अपना इमान तक 
देख कर उसे शैतान डर गया । 
 
मैं ग़ुलाम हूं  , सरकार आप हैं 
कह के बात ' तनहा ' ख़ुद मुकर गया ।  
 

 
  

सितंबर 10, 2025

POST : 2013 अगर ग़म में नहीं शामिल ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

   अगर ग़म में नहीं शामिल ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 

 

अगर ग़म में नहीं शामिल 
मुहब्बत के नहीं क़ाबिल । 
 
चलेंगे साथ मिलकर हम 
सफ़र कोई नहीं मुश्किल । 
 
अदावत छोड़ दी , सबसे 
हुआ कुछ भी नहीं हासिल ।  
 
यहां लाशें कई , जिनका 
मिला अब तक नहीं क़ातिल । 
 
भंवर ढूंढो ,  कहीं ' तनहा ' 
अगर मिलता नहीं साहिल ।  
 

 
 

सितंबर 08, 2025

POST : 2012 कभी तो किसी से मुलाक़ात होगी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

 कभी तो किसी से मुलाक़ात होगी ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

 
कभी तो किसी से मुलाक़ात होगी  
किसी मोड़ पर कुछ नई बात होगी ।  
 
अगर ज़िक्र सावन के मौसम का आया 
तभी आंसुओं की ही बरसात होगी ।  
 
न कोई खिलाड़ी मुक़ाबिल में होगा 
न बाज़ी लगेगी न शह - मात होगी ।  
 
ज़माने हमारी भी अर्थी उठेगी 
कई  हसरतों की भी बरात होगी । 
 
हुई बंद पलकें न फिर खुल सकेंगी 
किसी रोज़ ' तनहा ' हंसी रात होगी ।  
 
 

 

POST : 2011 कुछ अलग - अलग अशआर ( संकलन ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

कुछ अलग - अलग अशआर (  संकलन  ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा ' 

 1 

वक़्त ज़ालिम है , हर फूल मसल देगा 

क्या हुआ क्या कहा , बात बदल देगा । 

 

ज़िंदगी को गले , आज लगा लो सब 

क्या भरोसा इजाज़त फिर कल देगा । 

 2 

दर्द सीने में पिरोते रहे  

अश्क़ से दामन भिगोते रहे । 

 

चांद खिड़की से बहुत दूर था  

कितने तारे , ख़ाक होते रहे ।  

 महफ़िल ए सुख़न | Saharanpur

 

सितंबर 07, 2025

POST : 2010 अनकही बात ( नज़्म / कविता ) डॉ लोक सेतिया

        अनकही बात ( नज़्म / कविता ) डॉ लोक सेतिया  

वो उठ कर जाने लगे , तो ये ख़्याल आया कि 
रह गई हमारी हर बात , अभी आधी - अधूरी है  
 
दिल ही दिल उनको मान लिया हमराही मगर 
तय करनी अभी सफ़र की कितनी लंबी दूरी है 
 
फ़ासले चंद कदमों के नज़र आते लेकिन अभी
बीच में गहरी खाई जैसी कितनी इक मज़बूरी है
 
खेल तकदीर का है मिल कर बिछुड़ना होता है 
फिर मिलना है पर अभी जुदा होना भी ज़रूरी है । 
 
शायद किसी दूसरे जहां में मुलाक़ात होगी अपनी  
अनकही रह गई आधी जो अब करनी वहां पूरी है । 
 

    

सितंबर 04, 2025

POST : 2009 दर्द की क्या दवा हम नहीं जानते ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

 दर्द की क्या दवा हम नहीं जानते ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

 

 
दर्द की क्या दवा हम नहीं जानते 
चारागर का कहा हम नहीं मानते ।  
 
शोर चारों तरफ मिल गया इक ख़ुदा 
हम मगर सब खुदाओं को पहचानते । 
 
आस्मां को समझते हैं जो सायबां 
काग़ज़ी चादरें  , वो नहीं तानते । 
 
मुश्किलें लाख हैं हौसलें कम नहीं 
हार मानी नहीं , जीत ही ठानते ।
 
ग़ुम हुई मंज़िलें , खो गए कारवां 
ख़ाक राहों की ' तनहा ' रहे छानते ।  
 
 
 
 

 

सितंबर 03, 2025

POST : 2008 आ भी जाओ हमें अब लगा लो गले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

  आ भी जाओ हमें अब लगा लो गले ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया  

आ भी जाओ हमें अब लगा लो गले  
दोस्तो ख़त्म कर के सभी फ़ासले ।  
 
है यही आरज़ू हमसफ़र जो बने 
उम्र भर हाथ में हाथ लेकर चले । 
 
ये मुलाक़ात कितनी सुहानी है अब 
थम ही जाएं ये घड़ियां यहीं दिन ढले ।  
 
प्यार का एक पौधा उगा कर उसे 
दो दुआएं  कि  वो खूब फूले फले ।
 
कौन देगा नसीहत उन्हें फिर भला 
मानते ही नहीं आजकल मनचले । 
 
सिर्फ़ उनके सहारे है ये  ज़िंदगी 
दर्द बन कर मेहरबान दिल में पले ।   
 
महफ़िलें ढूंढते फिर रहे लोग अब 
वो जो कहते कभी थे हैं 'तनहा' भले ।  
 
 दिल को छूने वाली ग़ज़ल
 
 

सितंबर 02, 2025

POST : 2007 फांसी चढ़ने के नौ साल बाद निर्दोष घोषित ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      

 फांसी चढ़ने के नौ साल बाद निर्दोष घोषित ( हास - परिहास ) 

                             डॉ लोक सेतिया  

उनकी कहीं कब्र नहीं बनी कोई कहीं कोई  समाधिस्थल नहीं , उनकी याद आई खुद उनको जिन्होंने नौ साल पहले उनकी मौत का फ़रमान सुनाया था , अफ़सोस जताने भी जाएं तो कहां । हुए मर के हम जो रुसवा हुए क्यों न गर्क़े - दरिया न कोई जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता , ग़ालिब को कैसे ख़बर थी कभी दो बड़े ही लोकप्रिय पांच सौ और हज़ार रूपये के करंसी नोटों की ऐसी कहानी कोई लिखेगा । चार दिन क्या चार घड़ी भी उनको मोहलत नहीं मिली चार घंटे बाद उनका होना नहीं होना एक हो गया । कितनी हाहाकार मची थी तब भी तैं की तरस न आया । वैसे तो तुम्हीं ने मुझे बर्बाद किया है इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा जैसा हुआ काला धन जमा होने का इल्ज़ाम उन पर लगाकर सूली चढ़ाने से पहले कोई सुनवाई नहीं किसी की भी फरियाद नहीं सुनी सरकार जनाब ने । शायद उनकी रूहें भटक रहीं हैं कोई विधिवत अंतिम संस्कार किसी ने नहीं किया पचास दिन में सौ बार बदलती रही रणनीतियां नतीजा हासिल कुछ नहीं कालिख़ मिटी करंसी रंगीन हो गई तब भी उनको लेकर कोई संवेदना जताई नहीं गई । पितृपक्ष आने को है और उनकी नौवीं बरसी भी आएगी कोई पिंडदान कोई स्मृति का तौर तरीका विचार करने का समय है । 
 
दुनिया कभी समझ नहीं सकती कि ऐसा क्यों होता है जिनको पापी गुनहगार घोषित कर सज़ा ए मौत का फ़रमान बादशाह अकबर सुनाते हैं उस अनारकली की मुहब्बत और आशिक़ी को लोग भुलाना नहीं चाहते हैं बिल्कुल उसी तरह पांच सौर और हज़ार रूपये के नोटों जैसा रुतबा फिर किसी को हासिल नहीं हुआ । ये भी शायद कोई श्राप लग गया था जो उनकी जगह जारी दो हज़ार की घड़ियां भी गिनती की रहीं आखिर । अब आजकल तो लोगों का कागज़ी करंसी से मोहभंग हो गया है वर्ना मुझे कभी मेरे पिताजी ने रूपये की कीमत इस तरह समझाई थी , कहा था सौ रूपये का नोट जेब में होने पर बोतल का नशा महसूस होता है । मुझे कभी कोई नशा चढ़ा नहीं इस एक लिखने का जूनून है जो रहता है रहेगा हमेशा , देश की अस्सी प्रतिशत की जेब अपनी तरह खाली रहती है मगर कोई ग़म नहीं सरकार का खज़ाना ख़ाली होने लगा है इसका गिला तो है । हमने अपना सब कुछ सौंप दिया तब भी आपकी शासकों की ज़रूरतें पूरी नहीं होती हैं ।  शायद कभी जिन पूर्वजों को ख़राब साबित करने की कोशिश में खुद अच्छा किरदार पर खरे नहीं उतरे उनको भी बताएंगे कि उन जैसा कभी कोई नहीं हो सकता है । किसी की बनाई लकीर को मिटाने से अपनी लकीर बड़ी नहीं बनती है आपको उनसे अधिक लंबी लकीर बनानी पड़ती है मगर आपने सांप सीढ़ी की तरह ऊंचाई चढ़ने का प्रयास कितनी बार किया और नतीजा धड़ाम से गिरना । अंत में मेरी इक ग़ज़ल पेश है । 
 

 

नहीं कुछ पास खोने को रहा अब डर नहीं कोई ( ग़ज़ल ) 

 लोक सेतिया "तनहा"

नहीं कुछ पास खोने को रहा अब डर नहीं कोई 
है अपनी जेब तक खाली कहीं पर घर नहीं कोई ।

चले थे सोच कर कोई हमें उसका पता देगा 
यहाँ पूछा वहां ढूँढा मिला दिलबर नहीं कोई ।

बताना हुस्न वालों को जिन्हें चाहत है सजने की
मुहब्बत से हसीं अब तक बना ज़ेवर नहीं कोई ।

ग़ज़ल की बात करते हैं ज़माने में कई लेकिन
हमें कहना सिखा देता मिला शायर नहीं कोई ।

हमें सब लोग कहते थे कभी हमको बुलाना तुम
ज़रूरत में पुकारा जब मिला आ कर नहीं कोई ।

कहीं मंदिर बना देखा कहीं मस्जिद बनी देखी
कहाँ इन्सान सब जाएँ कहीं पर दर नहीं कोई ।

वहां करवट बदलते रात भर महलों में कुछ "तनहा"
यहाँ कुछ लोग सोये हैं जहाँ बिस्तर नहीं कोई ।