मई 17, 2025

POST : 1967 ऊंचाई से ढलान पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया

       ऊंचाई से ढलान पर ( तरकश ) डॉ लोक सेतिया  

आज फिर ज़रूरत महसूस हुई पुराने महान शख़्सियत वाले हमारे नायकों की जो आज़ादी से पहले भी और देश की आज़ादी के बाद भी गर्व से सर ऊंचा कर दुनिया भर में अपनी महान विरासत और बौद्धिक शक्ति से विदेशी सरकारों जनता को प्रभावित कर सकते थे । आज भी स्वामी विवेकानंद से महात्मा गांधी तक इक लंबी सूचि है जिनकी कही बातों विचारों ने भारत देश का डंका विद्वता को लेकर दुनिया में बजाया था । तमाम लोग कितनी भाषाओं के जानकर और विचारों उच्च आदर्शों की खान हुआ करते थे साथ ही निर्भय होकर साहसपूर्वक अपनी बात रखकर प्रभावित किया करते थे । आर्थिक भौतिक तौर पर देश पिछड़ा होने के बाद भी शिक्षा ज्ञान और विवेकशीलता के मापदंड पर किसी भी पश्चिमी सभ्यता से शानदार साबित होते थे । अभी भी हम अपनी गौरवशाली विरासत परंपराओं की बात करते हैं जबकि अपने वास्तविक व्यवहार में हम उन सभी को छोड़ विदेशी तौर तरीके अपना कर दोहरे चरित्र वाले बन चुके हैं । अभी कुछ दिन पहले इक ऐसा आंकलन पढ़ने को मिला जिस में बताया गया था कि तीन चौथाई भारतीय किसी बाहर विदेशी यात्रा पर नहीं जाते और आधी आबादी तो देश में भी अपने आस पास तक ही जाती है । लेकिन जो करोड़ों लोग किसी भी कारण विदेशों में जाते हैं घूमने नौकरी कारोबार करने उनकी भी जानकारी सिमित रहती है कोई सामाजिक सांस्कृतिक साहित्यिक नहीं होती है । आपने देखा होगा सुनते होंगे कुछ लोग सोशल मीडिया पर फोटो वीडियो पोस्ट करते हैं लेकिन मैंने जब भी ऐसे लोगों से चर्चा की हैरानी हुई क्योंकि सभी ने विदेश में कुछ स्थानों को देखने घूमने और मौज मस्ती मनोरंजन करने को ही महत्व दिया । वहां की सामाजिक अथवा राजनीतिक सुरक्षा और अधिकारों को लेकर सजगता जैसे विषयों पर कोई जानकारी हासिल नहीं की अधिकांश जैसे गए थे उसी तरह लौटे । अधिकांश ने खुद कोई बदलाव नहीं महसूस किया और न ही अनुभव किया कि उनसे किसी देश के लोगों ने कुछ हासिल किया कभी ऐसा लगा । 

हमने कितनी बार देखा कोई प्रतिनिधिमंडल किसी देश या कई देशों में भ्रमण करने गया वहां की शिक्षा स्वास्थ्य प्रणाली कृषि आदि को समझा लेकिन देश में आकर कोई सार्थक पहल दिखाई कम ही दी है । कारण एक ही है कि हमारे समाज में पैसा सबसे महत्वपूर्ण हो गया है और जो बातें वास्तव में अनमोल हैं उनकी कीमत गौण समझी जाने लगी है । शिक्षक व्यौपार , राजनेताओं को छोड़ दें तो पुराने सामाजिक धार्मिक संतों महात्माओं ने भी जितना संभव हुआ देश विदेश जाकर समाज को जागरूक किया और सही मार्गदर्शन दिया । अब तो हमने मशीनी चीज़ों को छोड़ मानवीय आदर्शों संवेदनाओं को जीवन से बाहर कर दिया है जैसे उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं रही है । हमने रटी रटाई किताबी पढ़ाई को ही ज़िंदगी का आधार मान लिया है और अपनी बुद्धि विवेकशीलता को भुला बैठे हैं । हमको लगता है आधुनिक उपकरण संसाधन और तथाकथित विकास से समाज शानदार बन जाएगा जबकि ये सच नहीं है बल्कि जब ये सभी नहीं था और हम लोग सादगी पूर्ण जीवन व्यतीत करते थे तब सामाजिक पारिवारिक नैतिक रूप से कहीं बेहतर हुआ करते थे । पहले हम मानसिक तौर पर ऊंचाई पर खड़े थे अब ढलान पर हैं और लगता है फिसलते फिसलते गिरते जा रहे हैं । 
 
 भारतवर्ष इक पुरातन देश है जिसकी अपनी अलग पहचान रही है , शासक बदलते रहते हैं लेकिन किसी ने भी अपनी सभ्यता अपनी कूटनीति रणनीति को अनदेखा नहीं किया । आज़ादी के बाद हमने दुनिया के सभी गुटों से अलग गुट निरपेक्षता को अपनाया , पूंजीवाद को छोड़ धर्मनिरपेक्ष और ऐसे समाजवाद को आधार बनाया जिस में सरकार से अधिक महत्व जनता की समानता का समझा जाता है । जाने कैसे हमारी देश की सरकार पत्रकारिता और अन्य महत्वपूर्ण संगठन इक ऐसे झूठे विकास की तरफ बढ़ने लगे जिस से कुछ ख़ास अमीरों धनवानों को छोड़ बाक़ी जनता का कोई कल्याण नहीं हो सकता , जबकि उस विकास की कीमत साधरण नागरिक कितनी तरह से चुकाता है । रईसों की तिजोरी भरने लगी और जनता की हालत इस कदर खराब हुई कि सरकार 80 करोड़ लोगों को राशन बांटने को विवश हुई , राजनीतिक विचारधारा बदली और 
जनता को दाता से भिखारी बना दिया गया ।

  सत्ता अंधी और स्वार्थी बन गई है और लोग इक मोहजाल में फंसते गए हैं । ऐसा होने का कारण भी है , हमारे देश समाज में काबलियत की कोई कद्र नहीं समझी जाती है , अवसर मिलना आगे बढ़ना हो तो कुछ और सहारे बैसाखियों की तरह ज़रूरी लगते हैं ।  राजनीति समाज से प्रशासन की व्यवस्था तक हर कोई  अवसरवादिता का शिकार है कहीं कुछ भी सामन्य ढंग से होता नहीं है । हमने अपनी बुनियाद को ही खोखला कर दिया है व्यवस्था चरमर्रा कर कभी भी ध्वस्त हो सकती है प्रतीत होता है । आखिर में शायर राजेश रेड्डी जी की ग़ज़ल के कुछ शेर याद आते हैं । आज मुरझाया उदास अकेला लगता है हर कोई कभी हंसता मुसकुराता खिला खिला होता था हर कोई यहां । हमने कितना कुछ हासिल कर लिया है लेकिन कैसे हासिल किया है खुद अपनी ही नज़रों में गिरने के बाद ।

रंग मौसम का हरा था पहले , पेड़ ये कितना घना था पहले ।

 

मैं ने तो ब'अद  में तोड़ा था इसे , आईना मुझ पे हंसा था पहले । 


जो नया है वो पुराना होगा , जो पुराना है नया था पहले । 


ब'अद में मैंने बुलंदी को छुआ , अपनी नज़रों से गिरा था पहले ।


 
 
 प्रबलित मिट्टी की ढलानें - टेरे आर्मी इंडिया

POST : 1966 सच और झूठ की लड़ाई में ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया

   सच और झूठ की लड़ाई में ( हास्य- कविता ) डॉ लोक सेतिया 

शिखर पर खड़ा हुआ है झूठ सच पड़ा हुआ खाई में  
इंसाफ़ क़त्ल होता रहता सच और झूठ की लड़ाई में
 
सियासत की अर्थी भी निकलेगी मगर बरात बन कर
जनता की डोली का दुःख दर्द दब जाएगा शहनाई में
 
शासकों को क्या खबर क्या क्या होने लगा समाज में 
जंग लाज़मी है चुनावी खेल में , हर भाई और भाई में
 
आत्मा ज़मीर आदर्श और ईमानदारी से फ़र्ज़ निभाना 
कोई कबाड़ी खरीदता नहीं ये सब सामान दो पाई में 
 
जिनको इतिहास लिखना आधुनिक समय का यहां 
भर लिया इंसानी खून उन्होंने कलम की स्याही में 
 
राजनेता अधिकारी धनवान लोग शोहरत जिनकी है 
खोटे साबित हुए सब कसौटी पर हर बार कठिनाई में 
 
सबका भला नहीं सिर्फ खुद अपने लिए जीना मरना 
खूब मुनाफ़ा अब बाजार में अच्छों की झूठी बुराई में  
 

सच और झूठ | Hindi Abstract Poem | Shahbaz Khan
   

मई 14, 2025

POST : 1965 मुझे लिखते रहना है निरंतर ( संकल्प ) डॉ लोक सेतिया

       मुझे लिखते रहना है निरंतर ( संकल्प ) डॉ लोक सेतिया  

मुझे लिखना है  ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कोई नहीं पास तो क्या
बाकी नहीं आस तो क्या ।

टूटा हर सपना तो क्या
कोई नहीं अपना तो क्या ।

धुंधली है तस्वीर तो क्या
रूठी है तकदीर तो क्या ।

छूट गये हैं मेले तो क्या
हम रह गये अकेले तो क्या ।

बिखरा हर अरमान तो क्या
नहीं मिला भगवान तो क्या ।

ऊँची हर इक दीवार तो क्या
नहीं किसी को प्यार तो क्या ।

हैं कठिन राहें तो क्या
दर्द भरी हैं आहें तो क्या ।

सीखा नहीं कारोबार तो क्या
दुनिया है इक बाज़ार तो क्या ।

जीवन इक संग्राम तो क्या
नहीं पल भर आराम तो क्या ।

मैं लिखूंगा नयी इक कविता
प्यार की  और विश्वास की ।

लिखनी है  कहानी मुझको
दोस्ती की और अपनेपन की ।

अब मुझे है जाना वहां
सब कुछ मिल सके जहाँ ।

बस खुशियाँ ही खुशियाँ हों 
खिलखिलाती मुस्कानें हों ।

फूल ही फूल खिले हों
हों हर तरफ बहारें ही बहारें ।

वो सब खुद लिखना है मुझे
नहीं लिखा जो मेरे नसीब में ।

ये कविता शुरुआती समय की लिखी साधरण शब्दों में अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करती है ब्लॉग पर भी 12 साल पहले 2012 में पब्लिश की थी । इक जाने माने कवि को ईमेल से भेजी तो उनकी सराहना पाकर लगा कोई सार्थकता दिखाई दी होगी उनको तभी पहली बार ऐसा उत्साह बर्धन मिला मुझको ।  लिखना मेरे लिए कोई शौक या ख़्वाहिश नाम शोहरत पाने का माध्यम नहीं है , इक संकल्प है जूनून है समाज को कुछ देने उसको बेहतर बनाने के प्रयास की ख़ातिर । करीब पचास साल पहले जो तय किया था अपने समाज और देश की समस्याओं विसंगतियों विडंबनाओं को लेकर पत्र चर्चा या किसी से मिलकर समाधान सुधार करने के लिए समय के साथ उसका स्वरूप बदलते बदलते कविता ग़ज़ल कहानी व्यंग्य बन गया है । कभी कभी कितनी बार धैर्य टूटना और निराश होना इस रास्ते में आता रहा है मगर हमेशा फिर आगे चलते रहने का ही निर्णय लिया है ।  थमना थककर ठहरना मुझसे कभी हुआ नहीं फिर से इक सोच रही है मुझे अपना कर्तव्य निभाना ही है । 
 
कोई संगी साथी नहीं कोई भीड़ नहीं कोई संगठन जैसा नहीं बस अकेले ही अपनी इक पगडंडी बनाकर इक मंज़िल प्यार और मानवता की ढूंढने और बनाने की कोशिश करना चाहता हूं । जानता हूं आधुनिक युग में पढ़ना और समझना शायद ही कोई चाहता है और पढ़ कर असर होना बदलाव होना और भी कम आशा की जा सकती है । जब देखते हैं तमाम लोग निष्पक्षता से  किनारा कर अपनी कलम का उपयोग किसी अन्य मकसद से करते हैं कभी विचारधारा से बंधे कभी धर्म राजनीति से जुड़े इकतरफ़ा लेखन करते हैं अथवा लिखने से नाम शोहरत कुछ और हासिल करना चाहते हैं तब महसूस होता है आज का क़लमकार भटक गया है ।  साहित्य सृजन करते करते भटक जाना या यूं कहें बहक जाना  इस से बचना है बड़ी फ़िसलन है , मुमकिन है कुछ लोग सैकड़ों किताबें लिख कर शोहरत की बुलंदी पर खड़े भौतिक आर्थिक लाभ अर्जित कर खुश हैं अपना ध्येय हासिल कर , मगर क्या मेरे जैसे बेनाम लिखने वालों से अधिक समाज को बदलाव ला पाए हैं या फिर कुछ लोगों तक उनकी किताबें पहुंची हैं इतना ही हुआ है । 
 
मैं कोई और मकसद नहीं रखता लिखने में सिर्फ जैसा भी समाज है लोग हैं जैसा वातावरण पहले से भी खराब होता जा रहा है उसको रेखांकित करना उजागर कर संबंधित वर्ग तक बात पहुंचाना ज़रूरी है । जी नहीं मैं कोई उपदेशक नहीं किसी को सही या गलत साबित नहीं करना मुझको , सच दिखाना दर्पण का कार्य है भले अंजाम कुछ भी हो । सोचता हूं कि जितने भी पढ़ते हैं कुछ पर ही सही प्रभाव पड़ता अवश्य होगा , मुमकिन है अभी नहीं तो भी कभी न कभी लोग पढ़कर समझेंगे सोचेंगे कि किसी ने ज़िंदगी की उलझनों कठिनायों से जूझते हुए भी पतवार को थामे रखा कश्ती को भंवर में डूबने नहीं दिया खुद बचने को ।  निराशा है परेशानी है जब समाज में अधिकांश लोग वास्तव में जैसा करना चाहिए उस से विपरीत कार्य करते हुए भी संकोच नहीं करते । बुद्धिजीवी समाज पत्रकारिता समाज की संस्थाएं अपने कर्तव्य निभाने को छोड़ नैतिकता को भूलकर आडंबर और प्रचार में लगे हुए हैं । जिनको सभ्य समाज का निर्माण करना था वही पुरातन मूल्यों को ताक पर रख साहित्य की परिभाषा को बदलना चाहते हैं । साहित्य और प्रकाशन का इक बाज़ार बनाया गया है जिस में लोग अख़बार पत्रिकाएं किताबें छापकर धनवान बन रहे मालामाल होते जाते हैं लेकिन लिखने वाला लेखक वहीं खड़ा है अपनी आजीविका का कोई अन्य साधन तलाशता । सामाजिक शोषण पर मुखर लेखक मौन है बेबस है अपनी बर्बादी किसको बताये । सोशल मीडिया के सवर्णिम काल में ए आई अर्थात नकली होशियारी ने संजीदगी पूर्वक लेखन को किनारे कर दिया है , हर कोई बिना भाषा अर्थ समझे जाने लिखने लगा है ।
 
लिखना अच्छी बात है मगर क्या लिखना चाहिए मालूम होना चाहिए और कितनी बार लगता है कि ऐसा नहीं लिखना अच्छा था । ये बात किसी और के लिए नहीं खुद अपने बारे भी कहना ज़रूरी है कितनी बार पीछे मुड़ कर देखता हूं तो लगता है बहुत कुछ लिखना उचित नहीं था कुछ को दोहराया जाता रहा बार बार जो कोई शानदार शैली नहीं समझा जाना चाहिए क्योंकि किसी बात को अधिक बार दोहराने से अच्छी बात भी आपकी अहमियत खो देती है । सार्वजनिक मंच पर लिखा मिटाने से भी बिगड़ी बात बनती नहीं है इसलिए लेखक को पहले बार बार सोच विचार कर ही लिखना चाहिए ।  अंत में खुद अपने आप से साक्षात्कार करती इक कविता प्रस्तुत है ।
 

अपने आप से साक्षात्कार ( कविता )  डॉ लोक सेतिया 

हम क्या हैं
कौन हैं
कैसे हैं 
कभी किसी पल
मिलना खुद को ।

हमको मिली थी
एक विरासत
प्रेम चंद
टैगोर
निराला
कबीर
और अनगिनत
अदीबों
शायरों
कवियों
समाज सुधारकों की ।

हमें भी पहुंचाना था
उनका वही सन्देश
जन जन
तक जीवन भर
मगर हम सब
उलझ कर रह गये 
सिर्फ अपने आप तक हमेशा ।

मानवता
सदभाव
जन कल्याण
समाज की
कुरीतियों का विरोध
सब महान 
आदर्शों को छोड़ कर
हम करने लगे
आपस में टकराव ।

इक दूजे को
नीचा दिखाने के लिये 
कितना गिरते गये हम
और भी छोटे हो गये
बड़ा कहलाने की
झूठी चाहत में ।

खो बैठे बड़प्पन भी अपना
अनजाने में कैसे
क्या लिखा
क्यों लिखा
किसलिये लिखा
नहीं सोचते अब हम सब
कितनी पुस्तकें
कितने पुरस्कार
कितना नाम
कैसी शोहरत
भटक गया लेखन हमारा
भुला दिया कैसे हमने 
मकसद तक अपना ।

आईना बनना था 
हमको तो
सारे ही समाज का 
और देख नहीं पाये
हम खुद अपना चेहरा तक
कब तक अपने आप से
चुराते रहेंगे  हम नज़रें
करनी होगी हम सब को
खुद से इक मुलाकात । 
 
 
 उद्यमियों को साहित्य पढ़ना चाहिए (सिर्फ बिजनेस किताबें नहीं) | जोस अल्वारो  ए. अडिज़ोन द्वारा | द एमवीपी | मीडियम
 


मई 12, 2025

POST : 1964 आज रात आठ बजे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

      आज रात आठ बजे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया  

कुछ सालों से ये शब्द किसी अमृतवाणी से अधिक महत्वपूर्ण लगते हैं , हर शख़्स सही समय का बेसब्री से इंतिज़ार करता है । दिल की धड़कन किसी महबूबा से मिलन की बेला से बढ़कर तेज़ होने लगती हैं । मुझे अभी पता चला ऐलान का , तो सबसे पहला काम समझ आया इस पोस्ट को निर्धारित आठ बजे के वक़्त से पहले पूरा कर पब्लिश करना है ताकि आठ बजते ही टीवी पर प्रसारण को सुनने का कर्तव्य पूर्ण किया जा सके । आठ पहले भी सुबह शाम बजते थे अभी भी बजते हैं आगे भी बजते रहने हैं , मगर आठ बजे से जो संबंध साहिब जी है किसी का किसी से शायद ही हुआ होगा । आठ बजना लगता है कोई चेतावनी जैसा है कभी जागते रहो की आवाज़ की गूंज सुनाई देती थी तब क्योंकि अधिकांश लोग रात का खाना खाकर आंगन में या फिर बंद कमरे में अथवा मौसम के अनुसार बरामदे में चारपाई बिस्तर लगाकर चैन से सोते थे और कभी कोई ख़्वाब भी देख लिया करते थे । आजकल सोशल मीडिया टीवी और गलियों सड़कों पर दौड़ते भागते वाहनों का शोर के साथ कितनी तरह की आवाज़ें नींद उड़ाती रहती हैं इसलिए नींद भी सोने के भाव की तरह महंगी हो गई है । आपको आठ बजे से पहले क्या क्या करना है बड़ा सवाल है आपकी कितने मिंट में गलती दाल है कोई मिसाल है । वक़्त की बात क्या है चलता अपनी चाल है अच्छा है वक़्त तो क्या खूब है क़िस्मत का कमाल है , सभी को अपने समय का ख़्याल है । 

आपकी घड़ी में क्या बजा है कोई नहीं बताता सही समय कभी न कभी आएगा , जन्म समय तारीख़ जगह कितना कुछ मिलाकर आपकी राशि आपके ग्रह आपके सितारे बताते हैं भविष्य क्या होगा । आठ बजे किसी की शुभघड़ी हो सकती है लोग सत्ता मिलते शुभ मुहूर्त निकलवाते हैं शपथ उठाते हैं । शाम को आठ बजते ही कुछ लोग अपने ठौर ठिकाने जाते हैं कुछ महफ़िल सजाकर जश्न - ए - आज़ादी मनाते हैं महखाने बैठ कर जाम से जाम टकराते हैं । हमसे मत पूछना हम रोज़ प्यासे जाते हैं प्यासे लौट आते हैं , लोग कहते हैं आप बिना पिये ही लड़खड़ाते हैं । लोग जागते रहते हैं रंगीन रातों को हसीनों की अदाएं देखते हैं मधुर गीत सुनते हैं मौज मनाते हैं । जाग जाग कर कुछ आशिक़ किसी की याद में अश्क़ बहाते हैं , कभी हुई शाम उनका ख़्याल आ गया , वही ज़िंदगी का सवाल आ गया गुनगुनाते हैं । मुझे पुराने यार याद दिलाते हैं कि तुम भी क्या आदमी थे सुबह होते ही यही गीत गाने लगते थे । हमको अभी उनका इंतिज़ार करना है चाहे झूठा वादा भी करें अच्छे दिन आने वाले हैं ऐतबार है करार करना है । 

गुमनाम फिल्म देखी थी आधी रात को दूर कोई आवाज़ सुनाई देती थी,  गुमनाम है कोई , बदनाम है कोई । किस को खबर कौन है वो अनजान है कोई । किसको समझें हम अपना , कल का नाम है इक सपना , आज अगर तुम ज़िंदा हो तो कल के लिए माला जपना । पल दो पल की मस्ती है , बस दो दिन की हस्ती है , चैन यहां पर महंगा है और मौत यहां पर सस्ती है । कौन बला तूफ़ानी है मौत को खुद हैरानी है , आए सदा वीरानों से जो पैदा हुआ वो फ़ानी है । साठ साल पहले 1965 की फिल्म है , रहस्यमयी फिल्मों की शायद उसी से शुरुआत हुई थी । आजकल तो फ़िल्में सीरीज़ से लेकर सामाजिक वातावरण में कितनी तरह की अटकलें कितनी आहटें शोर बनकर आपको हैरत में डालती रहती हैं । आज रात आठ बजे क्या होगा हर कोई सांस रोके बेचैनी से इंतिज़ार कर सकता है क्योंकि उस वक़्त पर किसी एक को छोड़कर बाक़ी किसी का बस नहीं है ये भी किसी के कॉपीराइट से छोटी बात नहीं है । आठ की संख्या पर पहली बार ध्यान देने की ज़रूरत महसूस हुई है देखने पर दो गोलाई जैसे छल्ले ऊपर नीचे जुड़े हुए लगते हैं , उलटा सीधा जैसे पलट कर रख सकते हैं और उनको बनाने वाली रेखाएं कैसे कहां से शुरू हुई कैसे कहां उसी से मिलकर घुलमिल गई कोई बता नहीं सकता है । दो छल्ले घूमते घूमते आपस में ऐसे समाहित हो जाते हैं जैसे दो जिस्म एक जान , यही सार की बात सामने दिखाई दे रही थी , कौन सा गोला महत्व रखता है कौन बड़ा कौन छोटा है समझ ही नहीं आता । ऊपरवाला नीचेवाला इक जैसे लगते हैं आपको निर्धारित नहीं करने देते कौन किस के सहारे टिका हुआ है । आधा घंटा अभी बाक़ी है चलो इक ग़ज़ल पुरानी से पटाक्षेप करते हैं इस कथा कहानी का ।



महफ़िल में जिसे देखा तनहा-सा नज़र आया ( ग़ज़ल ) 

        डॉ लोक सेतिया "तनहा"

महफ़िल में जिसे देखा तनहा-सा नज़र आया
सन्नाटा वहां हरसू फैला-सा नज़र आया ।

हम देखने वालों ने देखा यही हैरत से
अनजाना बना अपना , बैठा-सा नज़र आया ।

मुझ जैसे हज़ारों ही मिल जायेंगे दुनिया में
मुझको न कोई लेकिन , तेरा-सा नज़र आया ।

हमने न किसी से भी मंज़िल का पता पूछा
हर मोड़ ही मंज़िल का रस्ता-सा नज़र आया ।

हसरत सी लिये दिल में , हम उठके चले आये
साक़ी ही वहां हमको प्यासा-सा नज़र आया ।   
 
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मई 11, 2025

POST : 1963 हम सब कठपुतलियां हैं ( भली लगे या लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया

  हम सब कठपुतलियां हैं ( भली लगे या लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया 

आनंद फिल्म का डायलॉग हमारी हक़ीक़त है , अंतर इतना है कि ऊपरवाला कोई ईश्वर नहीं है यहीं इसी धरती पर बैठा कोई इंसान है । जैसे रमोट कंट्रोल से यंत्र को जब चाहे शुरू या बंद किया जा सकता है हम लोग चलते फिरते प्राणी लगते हैं लेकिन हमारे बस में कुछ भी नहीं है कभी कोई कभी कोई हमको अपनी उंगलियों पर नचाता है । इक और फ़िल्मी डायलॉग है कठपुतली करे भी तो क्या डोर किसी और के हाथ है नाचना तो पड़ेगा  सिम्मी ग्रेवाल कहती है । ये विवशता किसी को खुद समर्पण करना आशिक़ी और प्रेम में होना अलग बात है लेकिन जब ज़िंदा समाज मज़बूर हो जाए बेजान वस्तु की तरह तब इंसान और खिलौने में कोई फर्क नहीं रहता है । कमाल की बात ये है कि हमको खबर तक नहीं कि कौन हमसे खेलने लगा है खिलौना बना कर । घर परिवार समाज से लेकर करोड़ों की आबादी वाले देश तक खुद अपनी पहचान अपना अस्तित्व भुलाकर जाने कैसे कितने लोगों की मर्ज़ी से अपनी ज़िंदगी अपनी जीवनशैली को बदलते ही नहीं छोड़ देते हैं । नाच मेरी बुलबुल कि पैसा मिलेगा , पैसा दौलत ताकत ही नहीं धर्म राजनीति से कितना कुछ है जिस की खातिर हमने अपनी पहचान तक मिटा दी है ।  हमको नाचना नहीं आता फिर भी हम सभी नाचते हैं जब भी कोई अवसर होता है मगर बिना किसी कारण भी नाचने झूमने लगते हैं कितनी बार अजीब अजीब मकसद होते हैं किसी को खुश करने किसी का दिल बहलाने को । 

कितनी बार ऐसा होता है कोई दुनिया देश समाज को इतना महत्वपूर्ण लगने लगता है कि समझने लगते हैं इक वही शख़्स सब कर सकता है जबकि वास्तव में भीतर से ऐसे लोग खोखले होते हैं और उनकी जड़ें कमज़ोर होती हैं , ज़रा तेज़ आंधी चलते पता नहीं चलता कब गिर जाते हैं । हमारे देश में महान नायक हुए हैं जो अपने आदर्शों और मूल्यों पर अडिग खड़े रहे टूट भी जाएं तो भी झुके नहीं । नैतिकता की कसौटी पर खरे उतरना सभी के बस की बात नहीं होती है । खोखले किरदार वाले लोग आजकल दुनिया भर में छाये हुए हैं हमने ऐसे लोग बार बार आज़माए हुए हैं , मुखौटे लगाकर लोग अपनी सूरत छिपाए हुए हैं । आजकल कौन क्या है समझना कठिन है सामने कुछ दिखाई देता है अंदर कुछ और होता है मुंह में राम बगल में छुरी जैसा है । दोस्त बनकर दुश्मनी करना राजनैतिक कूटनीति कहलाता है , कोई किसी दूर देश में बैठा अपनी शतरंज की गोटियां चलाता है दोनों हाथ लड्डू लिए मूंछों पर तांव देकर इतराता है , समझता है वही सभी का मालिक है दाता है विधाता है मगर ऐसा हर व्यक्ति कभी मुंह की खाता है । 

आधुनिक युग में नाटक का नायक छलिया भी होता है और ख़लनायक भी उसकी कॉमेडी दर्शकों पर क्या क्या सितम नहीं ढाती है । हंसने की चाह ने दुनिया को इतना रुलाया है निर्देशक पटकथा पढ़ कर खुद घबराया है । आपको तालियां बजानी हैं हिचकियां छुपानी हैं पर्दे पीछे कोई खड़ा सभी को देख रहा है उस की निगाह से बचना संभव नहीं है । जंग में आर पार नहीं होता है कुछ लोग लाशों का कारोबार करते हैं लोग उकताने लगे हैं जंग और शांति दोनों को तराज़ू पर रखकर पलड़ा जिधर मर्ज़ी झुकाने लगे हैं । लड़ना सिखाने वाले शांतिगीत सुनाने लगे हैं महफ़िल में दोनों को बुलाकर जाम टकराने लगे हैं बाहर शीशे से झांकने वाले अब घबराने लगे हैं । प्यास बुझाने आये थे प्यास बढ़ाने लगे हैं असली सूरत सामने आते ही पर्दा गिराने लगे हैं । युद्धविराम की चर्चा है सरहद पर आहटें सुनाई देती हैं , ये कितनी बार दोहराया जाएगा कौन सच से नज़र मिलाएगा । 

अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया 

अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग
आईने से यूँ परेशान हैं लोग ।

बोलने का जो मैं करता हूँ गुनाह
तो सज़ा दे के पशेमान हैं लोग ।

जिन से मिलने की तमन्ना थी उन्हें
उन को ही देख के हैरान हैं लोग ।

अपनी ही जान के वो खुद हैं दुश्मन
मैं जिधर देखूं मेरी जान हैं लोग ।

आदमीयत  को भुलाये बैठे
बदले अपने सभी ईमान हैं लोग ।

शान ओ शौकत है वो उनकी झूठी
बन गए शहर की जो जान हैं लोग ।

मुझको मरने भी नहीं देते हैं
किस कदर मुझ पे दयावान है लोग । 
 
 
 हम सब तो रंगमंच की कठपुतलियां हैं''...


मई 10, 2025

POST : 1962 सबसे बड़ा झूठा पुरूस्कार ( व्यंग्य कहानी ) डॉ लोक सेतिया

   सबसे बड़ा झूठा पुरूस्कार ( व्यंग्य कहानी ) डॉ लोक सेतिया  

हमने जाने कितनी कथाएं कहानियां सुन रखी हैं झूठ बोलने को लेकर , उनकी बात करने लगे तो आज की कहानी की शुरुआत भी संभव नहीं होगी इसलिए सीधी बात करते हैं । पिछले तीन सप्ताह बड़े ही कठिनाई और तनावपूर्ण हालात रहे हैं लेकिन चार दिन से भारत पकिस्तान की जंग से बढ़कर हमारे देश के समाचार चैनलों ने हर किसी को भयभीत करने और संशय का वातावरण बनाने में जैसे झूठ और मनघड़ंत खबरों का इतिहास रचने का ऐसा कीर्तिमान स्थापित किया है कि अब कोई उनके मुकाबले खड़ा नहीं हो सकता है । अब ज़रूरत है कि पत्रकारिता की परिभाषा को बदल कर मुझसे बढ़कर झूठा कोई नहीं कर दिया जाये । समाचार का अर्थ सच को दफ़्ना कर झूठ को सच बनाना किया जाना चाहिए । टीवी चैनलों में पहले भी कितने तरह के ख़िताब ईनाम पुरुस्कार इत्यादि बंदरबांट की तरह अपने को देते हैं सभी चैनल नंबर वन हैं । जनता को अब इक और शिखर का चुनाव करना होगा इतने सारे चैनलों में सबसे भरोसेमंद झूठ का तमगा किस को मिलना चाहिए । विज्ञापनों का झूठ राजनेताओं के भाषणों का झूठ और तथाकथित महान विचारकों से लेकर तमाम नाम शोहरत वालों की झूठी कहानियों घटनाओं का झूठ सरकारी दफ्तरों फ़ाइलों आंकड़ों से लेकर देश समाज सेवा और धनवान लोगों की ईमानदारी की कमाई का झूठ सभी बौने हो गए हैं टीवी चैनलों का झूठ उस ऊंचाई पर पहुंच गया है । 

खुद को सच का झंडाबरदार कहने वाले वास्तव में कभी सच के साथ खड़े नहीं थे , सच के क़ातिल वही हैं मगर उनकी अपनी अदालत अपने गवाह अपने ही घड़े हुए सबूत और खुद वही फैसला सुनाने वाले न्यायधीश भी बने बैठे थे । लेकिन हमने ही नहीं बल्कि दुनिया भर ने उनका तमाशा देखा जब उन्होंने देशहित को दरकिनार कर सरकार के निर्देश को अनदेखा कर ऐसे ऐसे ख़तरनाक़ मंज़र जंग के दिखाए जो हुए ही नहीं । सोचने पर समझ आया कि उनकी मानसिकता क्या है उनको ऐसे दृश्य रोमांचक लगते हैं और ऐसा मनोरंजन जिस से उनका धंधा कारोबार टीआरपी आसमान पर पहुंच जाये । अर्थात उनकी संवेदना उनका ज़मीर इस स्तर तक निचले पायदान पर आ पहुंचा है जहां स्वार्थ और अपना फायदा इंसानियत को छोड़ने की कीमत पर भी ज़रूरी लगता है । जाने इस सीमा तक झूठ से गुमराह कर के उनको शर्म भी नहीं आती होगी अथवा वो अपनी अंतरात्मा में झांकते ही नहीं होंगे कभी । सरकार और राजनेताओं की कमज़ोर नस उनको पता है इसलिए उन पर अंकुश कोई नहीं लगाएगा मालूम है , लेकिन इक कार्य किया जाना आवश्यक है । 

                                अस्वीकरण ( घोषणा ) 

जैसे फिल्मों में और विज्ञापनों में घोषणा की जाती है , टीवी चैनल समाचार दिखाने पढ़ने से पहले हर बार दर्शकों को बताएं की इसकी सत्यता प्रमाणित नहीं है और आपको भरोसा नहीं करना चाहिए । भाषा सुविधानुसार बदली जा सकती है । आख़िर में इक ग़ज़ल पढ़ सकते है सच को लेकर कही थी कभी । 

इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का ( ग़ज़ल ) 

         डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इस ज़माने में जीना दुश्वार सच का
अब तो होने लगा कारोबार सच का ।

हर गली हर शहर में देखा है हमने ,
सब कहीं पर सजा है बाज़ार सच का ।

ढूंढते हम रहे उसको हर जगह , पर
मिल न पाया कहीं भी दिलदार सच का ।

झूठ बिकता रहा ऊंचे दाम लेकर
बिन बिका रह गया था अंबार सच का ।

अब निकाला जनाज़ा सच का उन्होंने
खुद को कहते थे जो पैरोकार सच का ।

कर लिया कैद सच , तहखाने में अपने
और खुद बन गया पहरेदार सच का ।

सच को ज़िन्दा रखेंगे कहते थे सबको
कर रहे क़त्ल लेकिन हर बार सच का ।

हो गया मौत का जब फरमान जारी
मिल गया तब हमें भी उपहार सच का ।

छोड़ जाओ शहर को चुपचाप ' तनहा '
छोड़ना गर नहीं तुमने प्यार सच का ।  




मई 08, 2025

POST : 1961 इंसान बन कर रहना हैवान मत बनना ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया

 इंसान बन कर रहना हैवान मत बनना ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया 

मुश्किल है चुपचाप ज़ालिम का ज़ुल्म सहना , आखिर किसी दिन हैवानियत को ख़त्म कर शराफ़त से सभी को दुनिया में है रहना । लेकिन ये याद रखना बुराई से लड़ते लड़ते भलाई मत छोड़ देना , कुछ भी हो बेशक हैवानियत का रास्ता कभी नहीं अपनाना आदमी तू भी हैवान मत बन जाना । कभी सोचा है कोई भी जब न्यायालय में न्यायधीश बन कर किसी मुजरिम को फांसी की सज़ा का फ़ैसला लिखता है तब जिस पेन से निर्णय लिखता है उसकी निब को तोड़ देता है । कोई कलम कभी अपनी संवेदना से विमुख नहीं होती उसे न्याय करते हुए भी किसी का जीवन समाप्त करते हुए महसूस होता है काश ऐसा कभी नहीं लिखना पड़ता शायद तभी उस से भविष्य में कुछ भी लिखना नहीं चाहता न्यायधीश । निर्दयी लोग मासूमों की जान बेरहमी से लेते हैं और उनका अंत करना पड़ता है मगर इंसानियत मासूम लोगों की मौत पर शोक मनाती है तो निर्दयी लोगों की हैवानियत की सज़ा देते समय उनकी मौत पर भी कोई ख़ुशी कोई उत्सव नहीं मनाती है । कभी सुना होगा कि हमारी सेना दुश्मन देश के सैनिकों की लाशों को भी आदर पूर्वक दफ़्न करती है उनके धर्म की विधि पूर्वक । धार्मिक ग्रंथों में भी अपने दुश्मन की मौत पर कभी जश्न नहीं मनाया जाता ऐसा पढ़ा है और सुना है कथाओं में देखा है टीवी सीरियल फिल्मों में । अगर हम किसी विधाता ईश्वर भगवान की पूजा अर्चना करते हैं तो जिन आदर्शों मर्यादाओं का पालन उन्होंने किया उस से सबक सीखना ज़रूरी है । 
 
मैं आपको पौराणिक कथाओं की बात नहीं कहना चाहता क्योंकि आधुनिक युग में कोई भी उन जैसा नहीं बन सकता जिन्होंने प्राण जाये पर वचन नहीं जाई या फिर दुश्मन की सौ गलतियां क्षमा करने का संयम रखा हो ।लेकिन शायद हमको याद नहीं है कोई लोकनायक जयप्रकाश नारायण हुआ है जिस ने न केवल अपने विरोधी से मानवीय व्यवहार कायम रखा हो उसकी बातों को दरकिनार कर , बल्कि पांच सौ खूंखार डाकुओं से भी आत्मसमर्पण करवाया हो उस समाज को भयमुक्त बनाने को । हिंसा और नफरत को कभी भी ताकत से लड़ाई लड़कर या हिंसा का जवाब हिंसा से दे कर ख़त्म नहीं किया जा सकता है । इक घटना है सिखगुरु गोबिंद सिंह जी को किसी ने बताया भाई कन्हैया दुश्मन सैनिकों को भी पानी पिलाता है , भाई कन्हैया गुरु तेगबहादुर जी के समय से अनुयाई बनकर गुरुओं की बाणी को सुनता समझता था । गुरु गोबिंद सिंह जी ने उसको बुलाया और पूछा मुझे बताया गया है कि तुम घायल दुश्मन सैनिकों को मरहम लगाते हो और जो प्यासे हैं दुश्मन उनको भी पानी पिलाते है जबकि हमारी उनसे जंग ही पानी को लेकर ही है । भाई कन्हैया जी ने कहा कि ये बात सच है लेकिन मैं जब भी उनके चेहरे की तरफ देखता हूं मुझे उन में भी गुरूजी आपकी ही छवि दिखाई देती है परमात्मा जैसी वाहेगुरु जैसी । मुझे अपने लिए लड़ने वाले और उनकी तरफ से लड़ने वाले सभी घायल या प्यासे इक जैसे लगते हैं सभी में भगवान का रूप है । तब गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा था भाई कन्हैया जी ने खालसा पंथ की शिक्षाओं को सही तरह से समझा है ये अनमोल हैं सभी को भाई कन्हैया जी की तरह गुरुओं की शिक्षा को समझना चाहिए ।   



मई 04, 2025

POST : 1960 ऊपरवाला जान कर अनजान है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   ऊपरवाला जान कर अनजान है  ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

आखिर मेरा इंतज़ार ख़त्म हुआ मौत का फ़रिश्ता सामने खड़ा था , मुझसे कहने लगा बताओ किस जगह जाना है । मैंने जवाब दिया मुझे दुनिया बनाने वाले से मिलना है , फ़रिश्ता बोला उसकी कोई ज़रूरत नहीं है विधाता ने सभी को अपने अपने विभाग आबंटित कर सब उन्हीं पर छोड़ा हुआ है । मैंने समझ लिया असली परेशानी की जड़ यही है अब तो ऊपरवाले से मिलना और भी ज़रूरी हो गया है , मैंने कहा ऐसी ही व्यवस्था से दुनिया परेशान है सरकार विभाग बनाकर किसी को दायित्व सौंपती है मगर कोई भी अपना काम ठीक से नहीं करता नतीजा भगवान भरोसे रहने वाले जीवन भर निराश होते रहते हैं । अन्याय सहते सहते उम्र बीत जाती है दुनिया में इंसाफ़ नहीं मिला तो ऊपरवाले से उम्मीद रखते हैं लेकिन कोई विनती कोई प्रार्थना कुछ असर नहीं लाती , फिर भी भगवान को छोड़ जाएं तो किस दर पर जाएं । धरती पर जैसे सरकारों को फुर्सत नहीं जनता के दुःख दर्द समस्याओं पर ध्यान देने की शासक प्रशासन सभी का ध्यान केंद्रित रहता है सरकार है यही झूठा विश्वास दिलाने पर । परेशान लोग आखिर मान लेते हैं कि सरकार कहने को है जबकि वास्तव में कोई सरकार कोई कानून कोई व्यवस्था कहीं भी नहीं है । न्यायपालिका से संसद विधानसभा तक सभी खुद अपने ही अस्तित्व को बचाए रखने बनाने की कोशिश करने में समय बर्बाद करते हैं । फ़रिश्ता मज़बूर हो कर मुझे ऊपरवाले के सामने ले आया , भगवान का ध्यान जाने किधर था मेरी तरफ देखा तक नहीं । 
 
मैंने ही प्रणाम करते हुए पूछा भगवान जी आपकी तबीयत कैसी है कोई चिंता आपको परेशान कर रही है । भगवान कहने लगे क्या बताऊं कुछ भी मेरे बस में नहीं रहा है , जब मेरे देवी देवता ही अपना कामकाज ठीक से नहीं करते तो धरती पर सत्ताधारी लोगों और प्रशासनिक लोगों से क्या आशा की जा सकती है । लेकिन समस्या ये भी है कि हमने भी आपके देश की तरह इक संविधान बनाया हुआ है जिस में सभी को अपना कार्य ईमानदारी और सच्ची निष्ठा से निभाना है मगर पद मिलने के उपरांत शपथ कर्तव्य कौन याद रखता है हर कोई अधिकारों का मनचाहा उपयोग करने लगता है । संविधान की उपेक्षा करते हैं सभी हर कोई समझता है कि संविधान उस पर नहीं लागू होता , संविधान बेबस है खुद कुछ नहीं कर सकता संविधान से शक्ति अधिकार पाने वाले मर्यादा और आदर्श को ताक पर रख देते हैं । आखिर मुझे ही समस्या का वास्तविक कारण बताना पड़ा भगवान ने जब कहा कि उसने तो कितना शानदार ढंग बनाया हुआ है हर देवी देवता को मालामाल किया हुआ है उनको चाहने वाले भी चढ़ावा चढ़ाते हैं फिर लोग ख़ाली झोली वापस कैसे लौटते हैं । 

मुझे समझाना पड़ा देश का बजट कितना बड़ा है लेकिन सभी मंत्री संसद विधायक अधिकारी सचिव और विभाग वाले बंदरबांट करते हैं , अंधा बांटे रेवड़ी फिर फिर अपने को दे । अमीर और सत्ता के ख़ास लोग जमकर मौज उड़ाते हैं सभी खज़ाना खुद सरकार और उसके करीबी खा जाते हैं लोग हाथ पसारे खड़े रह जाते हैं । आपके देवी देवता के भी आलीशान भवन बनते जाते हैं , गरीब लोग बेबस बेघरबार हैं ख़ाली पेट भजते हैं प्रभुनाम सतसंग की भीड़ बन धोखा खाते हैं । साधु संत धर्म उपदेशक करोड़ों के मालिक बनकर रंगरलियां मनाते हैं , जैसे राजनेता और समाजसेवा की बातें करने वाले जनता का हक हज़म कर अपना फ़र्ज़ लूट की छूट का अवसर मनाते हैं । सरकार बनाकर भगवान बनाकर लोग पछताते हैं आहें भरते हैं अश्क़ बहाते हैं खाली हाथ आते हैं ख़ाली हाथ दुनिया से लौट आते हैं , अजब दुनिया तुमने बनाई है जिधर जाओ पहाड़ों की बात होती है जनता की किस्मत हरजाई है आगे पीछे दोनों तरफ गहरी खाई है । गरीबी की रेखा की कितनी लंबाई है । 


 The number of children in the poor population is increasing rapidly, five  crore children in India are forced to live in extreme poverty. | गरीब आबादी  में तेजी से बढ़ रही बच्चों
 


मई 03, 2025

POST : 1959 लिखना क्या था क्या लिखा ( शब्द - शिल्पी ) डॉ लोक सेतिया

  लिखना क्या था क्या लिखा ( शब्द - शिल्पी ) डॉ लोक सेतिया 

लिखना आसान है आजकल तो खुद कुछ नहीं जानते तो आर्टिफीसियल इंटेलिजेंस से जो मर्ज़ी करवा लो । लेकिन जिसे कलमकार कहते हैं उनको हुनर आता है शब्दों को तराशने का सजाने संवारने का और उन में मानवीय भावनाओं को इस तरह समाहित करने का जिस से रचना जीवंत हो उठती है । खुद को कलमवीर कहलाने वाले कितने लोग वीरता शब्द से परिचित नहीं होते हैं । दो चार क्या सौ किताबें छपवा लेने से कोई महान साहित्यकार नहीं बन जाता है अच्छा लेखक होने की पहली कसौटी है सच लिखने से पहले सच को समझना परखना स्वीकार करना , जो अपनी सोच अपनी संकुचित मानसिकता से बाहर नहीं निकलते उनका लेखन समाज की खातिर नहीं होता सिर्फ खुद की नाम शोहरत की कामना की खातिर लिखते हैं जिस से सामाजिक बदलाव कभी नहीं हो सकता है । मुझे कलम थामे कोई पचास वर्ष हो गए हैं लेकिन कोई पुस्तक पांच साल पहले तक छपवाई नहीं थी , सच बताऊं मुझे हमेशा लगता था कैसे महान लिखने वालों ने क्या शानदार सृजन किया है मेरा लेखन उनके सामने कुछ भी नहीं है । पांच किताबें छपने के बाद भी समझ आया है कि मुझे किताबों से कहीं बढ़कर पाठकों ने अख़बार पत्रिकाओं में अन्य कितने तरह से पढ़ा और समझा है । कुछ पत्र रखे हुए हैं संभाल कर जिन में रचना पर टिप्पणी कर डाक द्वारा भेजा गया था कभी कभी तो किसी पाठक ने प्रकाशित रचना का पन्ना भिजवाया था क्योंकि मुझे खबर ही नहीं थी प्रकाशित होने की रचना की । आजकल पहले भी कितनी बार कोई किताब प्रकाशित होती रही शब्दकोश की तरह लेखकों की जीवनी परिचय का विवरण बताने को , हज़ारों नाम मिलते हैं मगर कितनों के लिखने की सार्थकता पर ध्यान जाता है । किताबें लिखना व्यर्थ है अगर लेखक का मकसद सामाजिक विषय पर निडरतापूर्वक और निष्पक्षता से आंकलन नहीं किया गया हो तो । 
 
मैंने पहले भी लिखा है लेखन को बांटना किसी सांचे में ढालना अनुचित है , दलित लेखन वामपंथी लेखन ऐसे है जैसे किसी को खुले आकाश से वंचित कर इक बुने हुए जाल के भीतर उड़ान भरनी पड़ती है । लेखक देश की दुनिया की सीमाओं को लांघकर अपनी ही सोच विचार की उड़ानें भरते हैं हवा और परिंदों और मौसमों की तरह सतरंगी धनुष जैसे । क्यों है कि हम कभी भाषा कभी राज्य कभी शहर को लेकर अपने आप को बंद कर लेते हैं बचते हैं अन्य सभी को अपनाने से । भला ऐसा लिखने वाला सर्वकालिक और सभी की मानवीय संवेदनाओं की बात कह सकता है । हमको अभिव्यक्ति की आज़ादी की चाहत होनी चाहिए जबकि इस तरह हम खुद को किसी पिंजरे में कैद कर समझते हैं यही अपनी पहचान है । कभी इक कविता खुद को लेकर लिखी थी आज तमाम लोगों की वास्तविकता लगती है प्रस्तुत है कैद कविता । कभी बड़े लोग जेल की सलाखों के पीछे बैठ किताबें लिखते था आजकल इक बंद दायरे की सीमारेखा खींच कर सिमित होकर लिखने का चलन दिखाई देने लगा है , कितना अजीब है । 
 

   कैद ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

कब से जाने बंद हूं
एक कैद में मैं
छटपटा रहा हूँ
रिहाई के लिये ।

रोक लेता है हर बार मुझे 
एक अनजाना सा डर
लगता है कि जैसे 
इक  सुरक्षा कवच है
ये कैद भी मेरे लिये ।

मगर जीने के लिए
निकलना ही होगा
कभी न कभी किसी तरह
अपनी कैद से मुझको ।

कर पाता नहीं
लाख चाह कर भी
बाहर निकलने का
कोई भी मैं जतन ।

देखता रहता हूं 
मैं केवल सपने
कि आएगा कभी मसीहा
कोई मुझे मुक्त कराने 
खुद अपनी ही कैद से । 


 जेल में भगत सिंह ने बताया था 'मैं नास्तिक क्यों हूं? - today shaheed bhagat  singh s birthday-mobile

मई 02, 2025

POST : 1958 खेल - तमाशा सत्ता का ( खरी- खरी ) डॉ लोक सेतिया

       खेल - तमाशा सत्ता का ( खरी- खरी ) डॉ लोक सेतिया  

जनाब को लड़ना खूब आता है लेकिन दुश्मन देश से नहीं खुद अपने ही देश वाले विरोधी लोगों से किसानों से अपना अधिकार मांगने वालों से । दुनिया को दिखाई दिया उनकी मर्ज़ी बिना परिंदा भी पर नहीं खोल सकता है सभी सड़कें बंद होती हैं किसानों की राहों पर कीलें और अवरोध खड़े होते हैं । आतंकवादी कब किस रास्ते घुसते हैं उनको नहीं चिंता बस खुद सुरक्षित हैं उनकी सत्ता को कोई खतरा नहीं है उनका पूरा प्रबंध है । जो गरजते हैं बरसते नहीं कुछ ऐसे बादल जैसे हैं शोर ही शोर है देश सही दिशा में बढ़ रहा है वास्तव में समाज की हालत खराब से अधिक खराब हो रही है । कभी उस दुश्मन देश से कभी इस दुश्मन देश से जंग का ऐलान होता है जैसे क्रिकेट में फ्रेंडली मैच होता है जीत हार से कोई फर्क नहीं पड़ता आपसी मेलजोल कायम रहता है । क्रिकेट खिलाड़ी आजकल चाहने वालों को जुए के खेल में फंसाने का कार्य कर खुद मालामाल होते हैं दुनिया को कंगाल कर अपना घर भरते हैं । जनाब ने भी शतरंज की चाल चली है आतंकवाद को छोड़ कर अपना इरादा बदल कर धर्म की बात से बढ़कर जातीय जनगणना का पासा आज़माया है । दुश्मन के लिए नहीं खुद अपने लिए सत्ता ने जाल बिछाया है । किसी खिलाड़ी ने अपनी ऐप्प पर लड़ने का तमाशा बनाया है उस दुश्मन को आमने सामने बिठाया है । सहमति बनाई है दुश्मन भी आखिर सौतेला ही सही भाई है हाथ में इक कटोरा है कटोरे में मलाई है । दुश्मन को हारना होगा मुंह मीठा करवाना है जीत कर जनाब ने शर्त लगाई है । मैच फिक्सिंग में हारने में पैसा मिलता है तो जीतना कोई नहीं चाहता , ये जीत हार सब बहाना है दोनों को अपने घर जाकर झूठ को सच बताना है । आप क्या देखना चाहते थे आपको याद नहीं रहता है सामने मंज़र बदल जाता है , कुछ होने वाला है अब कि दुश्मन को मज़ा चखाना है । यही सोचते सोचते समय गुज़रता रहता है इक आलीशान महल है जिसकी कोई बुनियाद नहीं है कांपता है लगता है अभी ढहता है । उसी में आतंकवाद छुपकर नहीं खुलेआम रहता है , मगर सभी ललकारते हैं उसके ठिकाने के करीब नहीं जाते कोई खून का दरिया पानी बनकर बीच राह में बहता है । कोई शायर है साहिर लुधियानवी , जंग को लेकर कहता है जंग खुद इक मसला है जंग क्या मसलों का हल देगी । इसलिए ए शरीफ़ इंसानों जंग टलती रहे तो बेहतर है , आप और हम सभी के आंगन में शम्मा जलती रहे तो बेहतर है ।
 
 
 
जाँनिसार अख़्तर जी की ग़ज़ल पेश है : - 

 
मौज-ए - गुल , मौज- ए - सबा , मौज- ए - सहर लगती है
सर से पा तक वो समां है कि नज़र लगती है । 
 
हमने हर गाम सजदों ए जलाये हैं चिराग़ 
अब तेरी रहगुज़र रहगुज़र लगती है । 
 
लम्हें लम्हें बसी है तेरी यादों की महक 
आज की रात तो खुशबू का सफ़र लगती है । 
 
जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं 
देखना ये है कि अब आग़ किधर लगती है । 
 
सारी दुनिया में गरीबों का लहू बहता है 
हर ज़मीं मुझको मेरे खून से तर लगती है ।
 
वाक़या शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ 
ये तो ' अख़्तर ' दफ़्तर की खबर लगती है ।  
 

Garibi - Amar Ujala Kavya - गरीबी...

मार्च 26, 2025

POST : 1957 मंदिर साक्षात दर्शन - उपदेश वाला ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

 मंदिर  साक्षात दर्शन - उपदेश वाला ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कुछ साल पहले हरियाणा के शहर फतेहाबाद में ऐसा मंदिर ढूंढने पर मिल गया था किसी नासमझ ने कभी बनवाया था झूठ के देवता का पहला मंदिर । वहां आंखें बंद कर श्रद्धापूर्वक विनती करने से देवता खुद दर्शन देते हैं और उपदेश भी देते हैं । मनोकामनाएं पूर्ण हुई जितने राजनेता उनकी शरण में आये चुनाव लड़ने से पहले कोई चढ़ावा कोई आडंबर नहीं होता बस झूठ की जयजयकार करनी होती है । आखिर इक दिन कोई टेलीविज़न का पत्रकार राजधानी से आया देखने परखने तो खुली आंख से कुछ नहीं नज़र आया बस इक घना अंधकार छाया हुआ था बिल्कुल उसके चैनल की शैली जैसा । तभी सामने पढ़ा वत्स आंखें बंद करोगे तो सब दिखाई देगा , और जब उसने आंखों पर पट्टी बांधी तो उसको रौशनी ही रौशनी चारों तरफ नज़र आने लगी और मधुर स्वर सुनाई देने लगा । हैरान होकर बोला पत्रकार क्या ये कोई जादू है तिलिस्म की दुनिया है । जवाब मिला नहीं यही वास्तविक दुनिया है आप जो देखते हैं दिखलाते हैं सब नकली दुनिया है आप खुद कलयुग का इक अवतार हैं खुद अपनी जान के दुश्मन हैं दुश्मनों के ख़ास यार हैं , यानी कि चलता फिरता कोई इश्तिहार हैं । पत्रकार समझ गया जिसकी तलाश थी हमेशा से वो दर मिल गया है , विनती की क्या आप हमारे देश की राजधानी में चलकर सभी को दर्शन दे कर उनका जीवन सफल नहीं कर सकते । 

झूठ के देवता की आवाज़ आई मैं तो हर शहर में हूं आपको कठिनाई नहीं होगी जाओ जाकर किसी भी सरकारी कार्यालय में सचिवालय में मंत्रालय के दफ़्तर में मुझसे वार्तालाप कर सकते हो । बंद आंखों से आपको सच दिखाई देगा , शासक जो कहते हैं की जगह आपको जैसा करते हैं सुनाई देगा समझ आएगा । घबराना मत जब आप वास्तविकता देखोगे तो आपको शासक अधिकारी जो दावे करते हैं धर्म इंसानियत और मानवता के लोककल्याण के आपको ज़ालिम तानाशाह दिखाई देंगे । दीवारों से फर्श तक आपको खून के छींटे नज़र आएंगे कितनी रूहों की आहें और चीखें सुनाई देंगी , बड़े बड़े पदों पर न्यायधीश बने हुए लोग आपको बेरहम और स्वार्थी मिलेंगे । आपको समझ आएगा कि कभी भी रहमदिल शासकों ने खुद को महिमामंडित नहीं किया था , हमेशा लुटेरे और ज़ालिम शासकों ने खुद को महान कहलवाने को ऐसा किया था । जनता तो हमेशा उनको क़ातिल समझती थी भले वो खुद को कितना दयालु और मसीहा घोषित करते रहे थे । 

आखिर वापस लौटकर उस पत्रकार ने देश की राजधानी के सचिवालय और सभी विभागों के दफ्तरों में जा कर बंद आंखें कर झूठ के देवता को याद किया तो सामने सब साफ़ साफ़ दिखाई दिया । खून ही खून फैला हुआ था सभी लोगों के दामन मैले थे भ्र्ष्टाचार की गंदगी की बदबू उनसे हवाओं को प्रदूषित कर रही थी । आखिर पत्रकार घबरा गया और कहने लगा कभी कोई रहमदिल शासक हुआ होगा उसके बारे बताएं थोड़ा सुकून मिलेगा शायद , रहीम और गंगभाट का संवाद बताया देवता ने कुछ ऐसा हुआ था । 

 

रहीम और गंगभाट संवाद : - 


इक दोहा इक कवि का सवाल करता है और इक दूसरा दोहा उस सवाल का जवाब देता है । पहला दोहा गंगभाट नाम के कवि का जो रहीम जी जो इक नवाब थे और हर आने वाले ज़रूरतमंद की मदद किया करते थे से उन्होंने पूछा था :-
 
' सीखियो कहां नवाब जू ऐसी देनी दैन
  ज्यों ज्यों कर ऊंचों करें त्यों त्यों नीचो नैन '।
 
अर्थात नवाब जी ऐसा क्यों है आपने ये तरीका कहां से सीखा है कि जब जब आप किसी को कुछ सहायता देने को हाथ ऊपर करते हैं आपकी आंखें झुकी हुई रहती हैं । 
 
रहीम जी ने जवाब दिया था अपने दोहे में :-
 
 ' देनहार कोउ और है देत रहत दिन रैन
  लोग भरम मो पे करें या ते नीचे नैन ' ।
 
आपको इस बारे कितनी बार बताया गया है आज आपको आखिर में किसी शायर की ग़ज़ल सुनाते हैं । 
 

बंद आंखों का तमाशा हो गया , खुद से मैं बिछुड़ा तो तन्हा हो गया । 

मौसमों की उंगलियों के लम्स से , दाग़ दिल का और गहरा हो गया । 

एक सूरत ये भी महरूमी की है , मैंने दिल से जो भी चाहा हो गया । 

देखता है हर कोई मुंह फेरकर , मैं न जाने किसका चेहरा हो गया । 

दोस्ती दुनिया से कर ली हमने तो , कांच के टुकड़ों पे चलना हो गया । 

( शायर का नाम पता नहीं है ढूंढने पर भी मिला नहीं मुझे । ) 

 
 
 
 तेरी मोहब्बत के तिलिस्म में गिरफ्तार हो गए, दिल के हर जज़्बे से बेक़रार हो  गए। "संतोष"चाँदनी रातों में तेरी यादें सजती हैं, ख़्वाबों में ...

मार्च 23, 2025

POST : 1956 शहीदों की कुर्बानी के 94 साल बाद ( देश वहीं खड़ा है ) डॉ लोक सेतिया

शहीदों की कुर्बानी के 94 साल बाद ( देश वहीं खड़ा है ) डॉ लोक सेतिया 

भगत सिंह राजगुरु सुखदेव तीन युवा आज़ादी के परवाने हंसते हंसते फांसी पर चढ़ गए थे 23 मार्च 1931 को । आज भी आधी रात को कोई बेचैन है देख कर अंग्रेजी शासन से भी अधिक निरंकुश शासक और प्रशासक जनता का दमन करते हैं सरकार का अर्थ सामाजिक सरोकार नहीं सत्ता की मनमानी बन गया है । ऐसे में वही लोग शहीदों की समाधियों बुतों पर फूलमाला अर्पित कर दिखावे की श्रद्धा जताते हैं उनके विचार उनका मकसद सभी को न्याय और समानता मिलने का किसी को याद नहीं है महत्वपूर्ण खुद को शायद उन से बड़ा देशभक्त दिखाना होता है जबकि वास्तविकता में उन्होंने समाज देश को कुछ दिया नहीं बल्कि छीना है । आज 140 करोड़ में से 80 करोड़ भूखे नंगे हैं क्योंकि कुछ लोगों ने उनके हिस्से का सभी कुछ लूट लिया है और रोज़ खुद पर बेतहाशा धन बर्बाद करते हैं । सामन्य वर्ग की समस्याओं के प्रति उदासीन और बेपरवाह हैं उनको रत्ती पर भी खेद नहीं है कि आज़ादी के 77 साल बाद ऐसा क्यों है । राजनीति इतनी संवेदनहीन बन गई है कि उसे सत्ता और चुनाव को छोड़ कुछ भी समझ नहीं आता है । देश को स्वतंत्र करवाने को जिन लोगों ने जीवन अर्पित किये कुर्बानियां दीं उनके लिए इक दिन कुछ क्षण औपचारिकता निभाने के अलावा कुछ भी उनको ज़रूरी नहीं लगता है । 
 
अफ़सोस इस बात का है कि तमाम लोग सरकारी व्यवस्था और प्रशासनिक आचरण से परेशान हैं मगर कोई भी खुलकर सामने नहीं आता विरोध कर अन्याय को अन्याय कहने का साहस कर । क्या हम उनकी विरासत को संभाल नहीं सके हैं कायर हैं डरपोक हैं , आंदोलन भी कोई स्वार्थ कोई मकसद हासिल करने को करते हैं देश की लच्चर व्यवस्था भेदभाव पूर्ण व्यवहार को बदलने की कोशिश तक नहीं करते । सिर्फ कुछ खास दिनों पर देशभक्ति की भावना दिखाई देती है जैसे कोई मनोरंजन का अवसर हो कोई चिंतन नहीं करते कभी कि इतने सालों ने साधारण जनता को क्या मिला है बुनियादी सुविधाएं अधिकार तक नहीं बल्कि हाथ जोड़े खड़े हैं ज़ालिम प्रशासन सरकार के सामने । ऐसी आज़ादी की कल्पना नहीं की थी जिन्होंने देश को आज़ाद करवाने को अपना सर्वस्व और जीवन अर्पित किया था । किसी खेल के मैदान में चेहरे या पोशाक को तिरंगे रंग में रंगने से वास्तविक कर्तव्य देश के प्रति पूर्ण नहीं होता है । शासक बनकर अपनी सुख सुविधा की खातिर नियम कानून बनाकर जनता का शोषण करने वाले मुजरिम हैं शहीद भगत सिंह राजगुरु सुखदेव जैसे अमर शहीदों के , उन को फूल अर्पित करने से बेहतर होगा उनकी आंकाक्षाओं अपेक्षाओं पर विचारधारा पर चल कर वास्तविक श्रद्धा व्यक्त करते ।  अंत में अमर शहीदों को नमन करते हुए दो रचनाएं प्रस्तुत हैं ।

जश्न ए आज़ादी हर साल मनाते रहे ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

जश्ने आज़ादी का हर साल मनाते रहे
शहीदों की हर कसम हम भुलाते रहे ।
 
याद नहीं रहे भगत सिंह और गांधी 
फूल उनकी समाधी पे बस चढ़ाते रहे ।

दम घुटने लगा पर न समझे बात ये कि  
काट कर पेड़ क्यों रहे शहर बसाते रहे ।

लिखा फाइलों में न दिखाई दिया कभी 
लोग भूखे हैं सब नेता सच झुठलाते रहे ।

दाग़दार हैं इधर भी और उधर भी मगर  
आईना खराब है चेहरे अपने छुपाते रहे ।

आज सोचें ज़रा क्योंकर ऐसे होने लगा 
बाड़ बनकर राजनेता देश खेत खाते रहे ।

यह न सोचा कभी भी आज़ादी किसलिए
ले के अधिकार सब फ़र्ज़ अपने भुलाते रहे ।

मांगते सब रहे रोटी दो वक़्त छोटा सा घर
पांचतारा वो लोग कितने होटल बनाते रहे ।

खूबसूरत जहाँ से है हमारा वतन , गीत को 
वो सुनाते रहे सभी लोग भी हैं दोहराते रहे ।
 
 

वो पहन कर कफ़न निकलते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

वो पहन कर कफ़न निकलते हैं
शख्स जो सच की राह चलते हैं ।

राहे मंज़िल में उनको होश कहाँ
खार चुभते हैं , पांव जलते हैं ।

गुज़रे बाज़ार से वो बेचारे
जेबें खाली हैं , दिल मचलते हैं ।

जानते हैं वो खुद से बढ़ के उन्हें
कह के नादाँ उन्हें जो चलते हैं ।

जान रखते हैं वो हथेली पर
मौत क़दमों तले कुचलते हैं ।

कीमत उनकी लगाओगे कैसे
लाख लालच दो कब फिसलते हैं ।

टालते हैं हसीं में  वो उनको
ज़ख्म जो उनके दिल में पलते हैं ।  
 



बलिदान दिवस 2023: आज भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को याद कर रहा देश

मार्च 22, 2025

POST : 1955 बिना आत्मा ज़िंदा लोग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      बिना आत्मा ज़िंदा लोग ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

शोध का विषय है कितने लोग हैं जिनकी अंतरात्मा जिनका विवेक उनको उचित अनुचित कर्मों को करते हुए देखता नहीं रोकता टोकता नहीं उनको किसी पर ज़ुल्म ढाते रत्ती भर भी अपराधबोध होता नहीं है । सत्ता के लिए पैसे के लिए अपने स्वार्थ के लिए अहंकार के लिए ऐसे लोग अमानवीय अनैतिक कर्म करते रहते हैं । ये तमाम लोग खुद को धार्मिक ईमानदार और समझदार मानते हैं जबकि जानते हैं कोई ईश्वर उनके आचरण को उचित नहीं समझ सकता है । धार्मिक आडंबर से अन्य लोगों को धोखा दे सकते हैं ईश्वर को नहीं लेकिन अपने मोह माया के जाल में फंसे ये लोग खुद को भी छलते हैं और अपनी आत्मा को दफ़्न कर किसी बेजान शरीर की तरह जीवन व्यतीत करते हैं । राजनेताओं प्रशासनिक अधिकारियों धनवान व्यापारी वर्ग से बड़े बड़े नाम शोहरत वाले अदाकारों फ़िल्मकारों तमाम अख़बार टीवी चैनेल  के संपादकों पत्रकारों को जैसा नहीं करना चाहिए करते रहने पर कोई संकोच नहीं होता है । सफलता हासिल करने को ऊंचाई पर चढ़ने को मालूम नहीं कब आत्मा को मार कर किसी गहरी खाई में फैंक देते हैं ।  जब भी उनकी मृत्यु होती है श्रद्धांजलि सभा में उनकी आत्मा की शांति और सद्गति की प्रार्थना करने वालों में भी बहुत लोग आत्मा विहीन होते हैं खुद उनकी आत्मा भटक रही होती है दुनिया के मायाजाल में । शोक सभाओं में शोक व्यक्त करने वाले कितने लोग नहीं जानते शोक का अर्थ क्या है । अपने दैनिक कार्यों में ऐसे लोग जानते समझते हुए भी कितने ही लोगों को दुःख देते हैं उनको तड़पाते हैं सही कार्य विवेक पूर्ण निर्णय नहीं करते बल्कि गलत कार्य अनुचित पक्ष को अपनाते हैं । 

आपने सुना होगा ज़ालिम शासक और अन्याय करने वाले कायदे कानून का विरोध किया गया था हमारे बड़े महान आदर्शवादी गांधी भगत सिंह जैसे नायकों ने , हम उनकी समाधियां बनाते हैं उन पर फूल चढ़ाते हैं लेकिन अपने सामने वही सब करने वाले लोगों को ज़ालिम कहने से घबराते हैं । हम कायर बनकर किसी ज़ालिम का अन्याय सहते हैं भीतर घुट घुट कर जीते हैं मुर्दा बनकर रहते हैं ।
 
 https://blog.loksetia.com/2024/11/post-1921.html
 
 24 नवंबर 2024 को लिखी पोस्ट ,  नकली होशियारी झूठी यारी ( खरी-खरी ) डॉ लोक सेतिया पर मैंने सावधान किया था इसकी यारी दोगली तलवार साबित हो सकती है । कभी कभी लगता है कि जो लोग जाने कब से बगैर आत्मा ज़िंदा हैं उनको ऐसी कोई झूठी नकली होशियारी मिल गई तभी ज़मीर को मार कर भी उनको जीना संभव हुआ होगा । कोई पुरानी कथा है कि कोई दुनिया को अपने अधीन करने को जिस इक दैत्य का निर्माण करता हैं आखिर उसी का शिकार खुद होता है । सरकार भी कभी अपने ही बिछाए हुए जाल में खुद फंसेगी उसी तरह । आदमी कुदरती न्याय से बच नहीं सकता है चाहे कोई जिस भी कारण अनुचित कर्म करता है किसी दिन उसको परिणाम भुगतना पड़ेगा ये सभी धर्म कहते हैं और हमने देखा भी है भलाई का सिला भलाई मिलता है और किसी से बुरा करने का नतीजा भी बुरा ही मिलता है । 

धार्मिक कथा इस तरह है : -
 
कोई अपना घोडा बेचने बाज़ार में जाता है , इक खरीदार घोड़ा देख कर कीमत पूछता है , बेचने वाला कहता है मुझे आज पैसों की बड़ी ज़रूरत है इसलिए सस्ते में बेच रहा हूं पांच सौ में अशर्फियां मोल है । खरीदार कहता है मुझे घोड़े की सवारी कर परखना पड़ेगा । परख कर वो कहता है कि आपका घोड़ा तो अधिक कीमत का है छह सौ अशर्फियां कीमत होनी चाहिए , बेचने वाला कहता है आपको उचित लगता है तो दे दो , तब खरीदार पूछता है आपको मालूम है इसकी कीमत क्या है । बेचने वाला कहता है घोड़ा तो आठ सौ कीमत का है लेकिन मुझे अपनी बेटी की शादी करनी है और मुझे पांच सौ की ज़रूरत अभी तुरंत है । खरीदार कहता है कि मैं आपका घोड़ा पूरी कीमत में आठ सौ चुका कर खरीदता हूं । तब बेचने वाला सवाल करता है कि मुझे इस बात का कारण बताएं कि जब आपको खुद मैं पांच सौ में बेचने को तैयार था फिर आपने महंगा क्यों खरीदा मुझसे । खरीदार बताता है कि मेरे धर्म में समझाया गया है कि कभी किसी की मज़बूरी मत खरीदना अन्यथा कभी कोई तुम्हारी मज़बूरी खरीदेगा बाद में । ये सबक पढ़ते सभी हैं समझते नहीं हैं अधिकांश लोग ।  
 
 



मार्च 18, 2025

POST : 1954 तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

 तेरी सूरत से किसी की नहीं मिलती सूरत ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

इमाम बख़्श नासिख़ जी की ग़ज़ल है , शाहंशाह गुनगुनाते रहते हैं किसी ज्योतिष विशेषज्ञ ने पत्री देख उनके पूर्व जन्म की घटना बताई थी । आपकी प्रेमिका को तब किसी राजा ने छीन लिया था और आप वियोग में तड़प तड़प कर मर गए थे । शहंशाह को सपने में जो सुंदरी दिखाई देती है वही उनकी इस जन्म में पहली प्रेमिका है तलाश करोगे तो किसी दिन मिल ही जाएगी । शहनशाह ने चित्रकार से बिल्कुल वैसी तस्वीर बनवा ली और हमेशा सीने से लगाए रहते हैं । 
 
अभी इक किताब में पढ़ा है आपको आईने में खुद अपना अक्स दिखाई देता है और आपकी सोच में कोई खुद जैसा छाया रहता है । संत असली हमेशा पहले हुए बड़े संतों की छवि मन में लिए रहते थे , कहते हैं जिसका जो भी गुरु होता है आंखें बंद कर उस के दर्शन कर लेते हैं । लेकिन ये बात हम सभी की होती है लोग हमेशा उसी की चर्चा करते हैं जैसी सोच उनकी भीतरी अंर्तमन की होती है , जाकी रही भावना जैसी । ज़ालिम कभी किसी रहमदिल की बात नहीं करते उनको जिस जैसा बनना है उसी की चर्चा करते हैं , प्यासा पानी की भूखा रोटी की चिंता करता है जबकि बहुत अधिक खाने पीने वाला भीतर का सब उगलता है यानी उलटी करता है । आजकल ये विष-वमन रोग बहुत बढ़ता जा रहा है ।
 
शासक लोग कभी सामने अपनी वास्तविक शक़्ल को नहीं दिखलाते हैं बहुत कोशिश कर कितने तौर तरीके आज़माते हैं असलियत छुपाने और बनावट दिखाने की खातिर । लेकिन वो भजन है ना तोरा मन दर्पण कहलाये भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाये , मन से कोई बात छुपे ना मन के नयन हज़ार । मन की बात कोई सार्वजनिक नहीं करता जो लगता है करते हैं उनकी परेशानी और है , मन में झांकते हैं तो लगता है कोई पहले का शासक ख़्वाबों - ख़्यालों में छाया हुआ है । उसके बातें उसके कारनामे करते भी हैं साथ चाहते हैं लोग उन जैसा नहीं समझने लगें । मन का चोर क्या नहीं करवाता है कभी कभी तो खुद अपनी ही नज़र में ख़लनायक की छवि उभरती दिखाई देती है । 


जनाब कोई पच्चीस साल से सीने में इक तस्वीर लिए फिरते थे , धुंधली सी यादें जैसे कोई पिछले जन्म की बातें महसूस करता है आपको पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं हो तो नहीं समझोगे । करीब आधी उम्र तक पचास का होने से पहले कुछ नहीं करते थे मांग कर गुज़र बसर किया करते थे , सपने देखते थे इक दिन शाहंशाह बन कर शासन करने का । वही किरदार मन को भाता था जिसे दुनिया कभी याद करना नहीं चाहती लेकिन जो इतिहास से कभी भुलाया नहीं जा सकता है तानाशाह शासक हमेशा याद रहते हैं अच्छे न्याय करने वालों को लोग अक़्सर भुला देते हैं । उनकी चाहत है सदियों तक उनको इक मिसाल की तरह दुनिया याद करती रहे , बदनाम होंगे तो भी नाम तो होगा । नीरज जी भी कहते हैं ,  इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में , लगेगीं आपको सदियां हमें भुलाने में । न पीने का सलीका न पिलाने का शऊर  , ऐसे भी लोग चले आये हैं मयखाने में । जनता भी कमाल करती है किस किस को ख़ुदा बना कर आखिर पछताती है , कोई शायर कहता है , तो इस तलाश का अंजाम भी वही निकला , मैं देवता जिसे समझा था आदमी निकला । मैं रफ़्ता रफ़्ता हुआ क़त्ल जिस के हाथों से ,   .................      वो क़ातिल मैं आप ही निकला । शायर कौन था , आधा शेर याद है पूरा क्या था याद नहीं है ।
 
बादशाहों की कितनी प्रेम कहानियां होती हैं कितनी निशानियां होती हैं , आधुनिक शासक भी चाहते हैं उनका नाम अमर रहे , आये दिन कहीं कुछ करते बनवाते हैं शिलालेख पर अपना नाम अंकित करवाते हैं ।  इधर तो पुराने शिलालेख हटवा तुड़वा खुद उसे नाम बदल अपने नाम करते हैं । कुछ बनाने में ज़माना लगता है मिटाने में क्षण भर बहुत है आधुनिक युग का विकास यही है तोड़ना तोड़कर कुछ का कुछ बनाना । शायद खुद किसी जन्म में जो जो बनाया उसे ढहाकर आधुनिक नाम से फिर से बनाना जैसा कोई मिट्टी से खिलौने बनाता है तोड़ता रहता है लुत्फ़ उठाता है । कोई बादशाह अपनी रानी को छोड़ किसी पिछले जन्म की माशूका की तस्वीर बनवाता है किसी चित्रकार से अपनी मन में बसी हुई महबूबा की छवि हूबहू और दुनिया भर में उसी को ढूंढता फिरता है , मिलती ही नहीं उसकी सूरत से किसी की भी सूरत ।  पिछले जन्म की प्रेमिका कहां हो । 

Know how your deeds were in the last life जानिए, पिछले जन्‍म में कैसे थे  आपके कर्म

मार्च 17, 2025

POST : 1953 कितने क़ातिल मसीहा कहलाते हैं ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया

कितने क़ातिल मसीहा कहलाते हैं ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया 

                 {  कलयुगी कथा का अगला अध्याय पढ़ते हैं  }

देश आज़ाद हुआ जनता की तकदीर कभी नहीं बदली , ज़ुल्म वही ज़ालिम बदलते रहते हैं अब ज़ालिम का तौर तरीका इतनी जल्दी बदलता है कि समझ नहीं आता ये इंसाफ़ करते हैं या सच को सूली पर चढ़ाया जाता है ।  सरकार प्रशासन न्यायपालिका सुरक्षा तंत्र बनाया गया सामन्य लोगों को अधिकार और समानता प्रदान देने को नाम दिया गया जनसेवा समाज कल्याण इत्यादि । जनता को प्रतिनिधि चुनने का अवसर दिया गया वोट देने का लेकिन देश की राजनीति ने चुनावी प्रक्रिया को किसी शतरंज की बिसात पर मोहरों का खेल बनाकर सत्ता को उस में मनमानी करने खिलवाड़ करने की खुली छूट दी गई । जब भी जहां लगा वास्तविक लोकतंत्र राजनेताओं की आकांक्षाओं में अड़चन पैदा कर सकता है लोकतंत्र को ही कुचल कर अपाहिज बना दिया गया । लोकतंत्र का शोर सुनाई देता है वास्तविक लोकतांत्रिक प्रणाली व्यवस्था कहीं दिखाई नहीं देती है । गांव से शहर शहर से महानगर महानगर से राजधानी तक जनता को उलझाने को इतने दफ़्तर विभाग बना दिए गए लेकिन एक भी ऐसा नहीं जो सही कर्तव्य निभाता बल्कि जनता की परेशानी दुःख दर्द पर मरहम लगाने की जगह नमक छिड़कने का काम कर्मचारी अधिकारी करते रहते हैं । सामन्य व्यक्ति पर कानून कड़ाई से लागू करने वाले सरकारी तंत्र विभाग अधिकारी कर्मचारी पर फ़र्ज़ नहीं निभाने पर कोई सज़ा क्या कोई सवाल तक नहीं पूछता है । कर्तव्य को भूलकर सरकारी प्रशासनिक व्यवस्था जनता को न्याय मिलने में बाधाएं उतपन्न करने लगी ताकि उसको रिश्वत मिल सके , बिना घूस या सिफारिश कोई भी उचित काम भी नहीं करता है , जेब भरने पर सभी कार्य करते हैं अनुचित भी उचित भी । 

कभी लोग शिकायती पत्र लिखते थे सत्ताधारी उच्च पद पर बैठे शासक को तब कुछ असर होता था कोई शर्मसार होकर अपनी गलती सुधरता था । बाद में ये सामन्य बात लगने लगी और इतनी बेहयाई करने लगे कि ऊपर विभाग से बार बार पत्राचार से कुछ करने का कोई जवाब ही नहीं देते निचले अधिकारी कर्मचारी । क्योंकि सरकारी कर्मचारी पर काम नहीं करने या जो करना है उसे नहीं करने पर कुछ भी करवाई नहीं की जा सकती इसलिए जनसेवा को सभी ने मनमानी करने का हक समझ लिया । सत्ताधारी राजनेताओं को भी देश समाज जनता की नहीं सिर्फ अपनी कुर्सी और अपने लिए शान ओ शौकत की ज़रूरत महत्वपूर्ण लगने लगी है ।  धीरे धीरे हालत इतनी खराब हो गई है कि अपराधी संसद विधायक बन कर सत्ता को अपहरण कर पूरी व्यवस्था को ऐसा गठजोड़ बना लिया है जिस में गुंडे बाहुबली भ्र्ष्ट राजनेता और सरकारी प्रशासन मिलकर देश समाज को बर्बाद करने लूटने लगे हुए हैं । 140 करोड़ जनता का बड़ा भाग बुनियादी सुविधाओं से वंचित है मगर शासक लोग खुद अपने पर बेतहाशा धन खर्च कर आज़ादी और न्यायव्यवस्था का मज़ाक किये हुए हैं । शायद उनको संविधान की शपथ भूल गई है और ईमानदारी नैतिकता को ताक पर रख छोड़ा है । 
 
समय के साथ जनता की परेशानियां ख़त्म नहीं हुईं बढ़ती जा रही हैं , ऐसे में पुरानी खुले दरबार या अन्य स्थानीय कष्ट निवारण की सभाओं की जगह आधुनिक पोर्टल साइट्स पर शिकायत दर्ज करने को विकल्प बनाया गया है ।  लेकिन ये सबसे बड़ा धोखा अथवा छल साबित हुआ है क्योंकि उन पर दर्ज शिकायत पर कोई गौर ही नहीं किया जाता और किसी दफ़्तर में बैठा कोई व्यक्ति टिप्पणी कर शिकायत का निपटारा किया लिख देता है बिना ठीक से जाने समझे । जो टिप्पणी की जाती है वास्तव में कोई इंसाफ़ नहीं ज़ख़्म पर नमक छिड़कने जैसा होता है । सरकार के तमाम झूठे आंकड़ों विज्ञापनों की तरह इस सब पर कितना धन व्यर्थ बर्बाद किया जाता है नतीजा कुछ भी नहीं । इस तरह से पोर्टल पर संख्या घटाने से जनता की समस्याएं कभी हल नहीं हो सकती हैं , जबकि पोर्टल पर नियुक्त नोडल अधिकारी को विवेक से समस्या समझनी ही नहीं होती है जिस से लोग सालों से पीड़ित है नोडल अधिकारी एक दिन बाद ही उस पर निर्णय सुनाता है कि ये शिकायत विचारणीय नहीं है । 

ऐसा क्यों है आखिर में समझना होगा कि हमारे प्रशासन पुलिस न्याय व्यवस्था सरकारी कार्यशैली में रत्ती भर भी मानवीय संवेदना बची नहीं है । सरकार अपनी नाकामी को ढकने को बताती है कि कितने करोड़ लोगों को क्या क्या दिया जाता है । जबकि सोचना चाहिए था कि आज़ादी के 77 साल बाद इतने लोग गरीब भूखे बदहाल क्यों हैं क्या इसका कारण वही लोग नहीं जिनको बहुत कुछ करना चाहिए था लेकिन कुछ भी नहीं किया सिवा झूठे आश्वासन आंकड़े और खोखले वादों के । विडंबना की बात है कि ऐसे तमाम क़ातिल मसीहा कहलाते हैं । कथा अनंत है विराम देते हुए कुछ दोहे सुनाते हैं । 

देश के वर्तमान हालात पर वक़्त के दोहे - डॉ  लोक सेतिया 

नतमस्तक हो मांगता मालिक उस से भीख
शासक बन कर दे रहा सेवक देखो सीख ।

मचा हुआ है हर तरफ लोकतंत्र का शोर
कोतवाल करबद्ध है डांट रहा अब चोर ।

तड़प रहे हैं देश के जिस से सारे लोग
लगा प्रशासन को यहाँ भ्रष्टाचारी रोग ।

दुहराते इतिहास की वही पुरानी भूल
खाना चाहें आम और बोते रहे बबूल ।

झूठ यहाँ अनमोल है सच का ना  व्योपार
सोना बन बिकता यहाँ पीतल बीच बाज़ार ।

नेता आज़माते अब गठबंधन का योग
देखो मंत्री बन गए कैसे कैसे लोग ।

चमत्कार का आजकल अदभुत  है आधार
देखी हांडी काठ की चढ़ती बारम्बार ।

आगे कितना बढ़ गया अब देखो इन्सान
दो पैसे में बेचता  यह अपना ईमान।  
 
अंधे - बहरे शहर में ये बातें बेमोल 
कौन सुनेगा अब यहां तनहा तेरे बोल ।  
 
 Lafz - ख़ंजर से करो बात न तलवार से पूछो मैं क़त्ल हुआ... | Facebook



मार्च 15, 2025

POST : 1952 लीद करना , बांटना , तोलना ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया

  लीद करना , बांटना , तोलना ( व्यंग्य- कथा ) डॉ लोक सेतिया 

आधुनिक समय की सरकार सत्ताधारी राजनेता प्रशासनिक अधिकारी वर्ग से न्याय व्यवस्था तथाकथित समाजिक संस्थाएं  क्या कर रही हैं इस पर शोध किया जाये तो संक्षेप में नतीजा यही निकलेगा । आपको कोई भी मंत्री विधायक संसद आमने सामने नहीं मिलते हैं प्रधानमंत्री से सभी मुख्यमंत्री तक ने कुछ ऐप्स और साइट्स बनवा रखी हैं जनता को झूठा दिलासा देने को । इंसान की भावनाओं की दुःख दर्द की समझ जब शासक वर्ग अधिकारी वर्ग को नहीं होती तो ये मशीनी व्यवस्था क्या जाने ज़िंदगी और मौत कोई खिलौने नहीं वास्तविकता हैं । जनता इस तथाकथित लोकतांत्रिक व्यस्था से न्याय मांगते मांगते मर जाती है , इनसे मिलती है सिर्फ और सिर्फ लीद ।  मुझे जनहित और भ्र्ष्टाचारी व्यवस्था पर लिखते पचास वर्ष बीत गए और जाने कब मौत आकर मुझे इस सब से छुटकारा दिलवाएगी , मुझे मरने का खौफ़ नहीं जयप्रकाश नारायण जी की राह पर चलने वाला उनका प्रशंसक हूं मैं । आधुनिक युग की सरकारें कहती और प्रचार प्रसार विज्ञापन करती हैं व्यवस्था को ठीक करने का लेकिन जनता को इनसे हमेशा लीद ही मिलती है खैरात की तरह । बस और कुछ भी नहीं कहना इतना बहुत है जिनको समझ आये मतलब क्या है । आगे आपको कुछ कहनियां बतानी हैं लीद को लेकर । 
 
 
एक बार इक राजा अपने घोड़ों के अस्तबल में खड़ा होता है , इक साधु उधर से गुज़रता है और भिक्षा मांगता है , राजा वहां से ज़मीन से लीद उठाता है और साधु के पात्र में डाल देता है । साधु कहता है आपको दान दी हुई लीद हज़ारों लाखों गुणा मिलेगी खाने को , ऐसा बोल कर साधु नगर से बाहर चला जाता है कुटिया में वापस । उसे रोज़ केवल किसी से एक बार ही भिक्षा मांगनी होती है जो भी मिलता है उसी से गुज़ारा चलाता है । राजा अपनी पत्नी को बताता है उसने ऐसा किया तो पत्नी समझाती है अपने राजगुरु से इस विषय की चर्चा अकेले बैठ करनी उचित होगी । राजगुरु सुनकर परेशान हो जाते हैं और तुरंत जाकर उस साधु से क्षमा याचना करने को कहते हैं ।  राजा अपने रथ पर सवार होकर साधु की कुटिया पहुंचता है , क्या देखता है कि बाहर लीद ही लीद का ढेर लगा होता है किसी पहाड़ जैसा । राजा माफ़ करने की याचना करता है और सवाल करता है इतनी लीद क्यों एकत्र हुई है आपकी कुटिया के सामने । साधु बताता है कि जब भी कोई दान देता है तो दान दी हुई चीज़ जो भी इसी तरह बढ़ती रहती है और दान देने वाले को मिलती है लाखों गुणा बढ़कर । आपको ये सारी लीद खानी पड़ेगी किसी दिन ये विधाता का नियम है इस को बदला नहीं जा सकता ।  विनती करने पर साधु उपाय बताता है कि अगर लोग आपको भला बुरा कह कर आपकी बुराई करें तो आपके बदले ये लीद उनको मिलेगी और ये ढेर कम होता जाएगा । 

भ्र्ष्टाचार भी लीद खाना होता है और समाज में अनगिनत लोग इसी तरह अनुचित ढंग से धन एकत्र कर गंदगी अपने भीतर भरते हैं । शाही लिबास और बनावट से खुद को सजाया जा सकता है लेकिन भीतरी सोच नहीं बदलती है । किसी शासक का करीबी सरकारी कार्यों में भ्र्ष्टाचार किया करता था , राजा उसको दंडित करना तो क्या हटा भी नहीं सकता था कुछ गोपनीय सूचनाओं का सार्वजनिक होने का खतरा था । जब राजा को पता चला लोग उस के कारण शासन की बदनामी करते हैं तो उसका तबादला घोड़ों की देखभाल करने को अस्तबल का कार्यभार सौंप दिया था । राजा ने समझा जितना भी घूसखोर हो उस जगह नहीं मिलेगा कोई भी अवसर । लेकिन ऐसे लोग तरीके खोज लिया करते हैं जो उस ने भी ढूंढ लिया । सुबह गोदाम से घोड़ों को चने तराज़ू पर तोलकर देखभाल करने वाले कर्मचारी को दिए , शाम को वहां की लीद उठाकर तराज़ू पर तोलने बैठा । कर्मचारी हैरान हो गया तो उस से कहा कि जितने चने खिलाने को आपको दिए थे लीद का वज़न उस से बहुत कम है , तुम चने घोड़ों को नहीं खिलाते खुद घर ले जाते हो , ऐसे उसने डराकर कर्मचारी को कुछ हिस्सा खुद खाने कुछ उसको देने पर सहमत कर लिया था । आधुनिक व्यवस्था बिल्कुल उसी तर्ज़ पर चल कर उस जगह भी संभावना खोज लेती है जहां लगता है कि कुछ नहीं रिश्वतखोरी को । इस कलयुगी कथा का ये अध्याय यहीं ख़त्म करते हैं । 

Spice Factory: मसाला फैक्ट्री में छापा पड़ा तो पुलिस के उड़े होश!
 

मार्च 13, 2025

POST : 1951 बड़े बेदर्द होते हैं शासक ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

         बड़े बेदर्द होते हैं शासक ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

सच बताना चाहिए , कितना बड़ा फ़रेब लोगों से किया जाता है कि लोकतंत्र बड़ी शानदार व्यवस्था है । सही में ऐसा होता तो अभी तलक आज़ाद होने के 77 साल बाद जनता की हालत भिखारी जैसी नहीं होती न ही जिसे जनता ने सेवक चुना वही शासक बन कर जब जैसे चाहे दो प्रकार से नियम कानून बनाते जनता के लिए सज़ा देने वाले और सत्ता और प्रशासन सरकार के लिए मनचाहे वरदान पाने वाले । संविधान की शपथ उठाते हैं जो उनको संविधान की भावना का कोई ज्ञान नहीं होता है , और उस शपथ को सत्ता पाते ही सभी भूल जाते हैं । मैं शपथ उठाता हूं सभी के साथ न्याय करने की , जबकि आज देखते हैं तो वास्तविकता विपरीत नज़र आती है , अदालतों से सरकारी दफ्तरों तक लोग बेबस होकर भटकते रहते हैं न्याय की जगह अपमान और सज़ाएं मिलती हैं । मगर शासक वर्ग खुद अपने लिए जब जैसे चाहे नियम कानून बदल कर सेवक नहीं शासक की तरह आचरण करते हैं , मंत्री से अधिकारी तक कहते हैं दरबार लगाते हैं । अजीब तमाशा है जो असली मालिक है जनता वही याचक बन कर अपने अधिकारों की भीख मांगते हैं । जैसे कोई नकाब लगा कर चेहरा छुपाए रहता हो ठीक उसी तरह सत्ताधारी लोग घोषणा करते हैं जनकल्याण की लेकिन वास्तव में सिर्फ खुद अपना ही भला चाहते हैं । हमदर्द होने का दावा करने वाले कितने बेदर्द होते हैं वही जानते हैं जिन पर गुज़रती है । निर्वाचित होते ही हर जनप्रतिनिधि अचानक बड़ी बड़ी गाड़ियों और शान ओ शौकत से रहने लगता है ये करिश्मा कभी साधरण जनता पर नहीं होता है । लेकिन हम खामोश रहते हैं क्योंकि हमने खुद सच बोलने का हक छोड़ दिया है झूठे लोगों की जय-जयकार कर उनको चुनकर । 
 
कहते हैं पुराने राजा ज़ालिम थे , वो भी अत्याचारी थे जिन्होंने हमको अपना गुलाम बनाए रखा , लेकिन क्या आज के शासक निरंकुश नहीं हैं । आज खुद हमारे बनाये बुत खुद को खुदा समझते हैं और हम लोगों को अपमानित करते हैं इश्तिहार लगवा कर खैरात बांटते हैं । कौन दाता है कौन भिखारी है विडंबना है जिस जनता ने सर पर बिठाया उस पर मनमाने ढंग से कितने ही कर लगाकर खज़ाना भरते हैं फिर उसी से नाम भर को देने को अपनी महानता घोषित करते हैं । कुछ खास लोगों के लिए कानून हाथ जोड़ खड़ा रहता है जो धनवान सत्ता से करीबी रिश्ता रखते हैं अन्य सभी से कानून कोड़े बरसाने का कार्य करता है । लोकतंत्र क्या यही होता है कि कोई शासक है जो सिर्फ भाषण देता है या शानदार दफ़्तर में बैठ गरीबी और देश की जनता की समस्याओं पर बहस करता है कभी समस्याओं का समाधान नहीं करता । अभी तक सभी को बुनियादी सुविधाएं जीने की हासिल नहीं और सरकार कहती है देश आगे बढ़ रहा है जबकि हालत दिन पर दिन और भी खराब होती जा रही है । देश जलता है कोई नीरो बंसी बजाता हो ये कभी हुआ होगा आजकल कितने ऐसे लोग हैं जो सत्ता पर बैठ रोज़ कोई जश्न मनाते हैं कोई आडंबर कोई तमाशा अपने दिल बहलाने को आयोजित करते हैं । 
 
होली है बुरा न मानो , इक दिन की बात नहीं है इस देश में शासक वर्ग हर दिन जनता से खिलवाड़ करते हैं और जनता बेचारी कुछ कह भी नहीं सकती । जैसे कोई आशिक़ अथवा पति किसी महिला से गलत व्यवहार करने को अपने प्यार करने का ढंग बताता है हर सरकार वही करती है । पांच साल की बात नहीं है हर बार वही सब दोहराया जाता है । होली की पिचकारी सत्ता के पास रहती है और होलिका दहन में आग में कोई बुराई नहीं जलती उसकी लपटें जनता को जलाने को व्याकुल हैं । जनता के लिए दशहरा हो चाहे होली हो बदलता कुछ भी नहीं है ढोंगी लोग अलग अलग रूप बदल छलते हैं , बहरूपिया शासक बन गए हैं जो कभी घर घर जाकर हंसाते थे अब रुलाने लगे हैं ।  
 

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मार्च 09, 2025

POST : 1950 गहरी नींद में सोया हुआ शहर ( खामोशियां ) डॉ लोक सेतिया

     गहरी नींद में सोया हुआ शहर  ( खामोशियां  ) डॉ लोक सेतिया

 पत्थरों के घर पत्थर वाले ही ख़ुदा हैं आदमी भी पत्थर दिल हैं यहां मौसम कभी उस तरह से नहीं बदलता है जिस तरह से लोग जल्दी - जल्दी किरदार बदलते हैं । सच कहा जाए तो अभी तक इस शहर की कोई ख़ास अलग अपनी पहचान नहीं बन सकी है , ज़मीन ही से जीवन मिलता है लेकिन शायद धीरे धीरे उस से कट रहें हैं लोग अर्थात अपनी जड़ों से रिश्ता कमज़ोर होता गया है । कोई शायद ही ऐसा दिखाई दिया है जिस को कहा जा सके की शहर का नाम रौशन किया है । लगता है इतनी उपजाऊ धरती पर इक बंजर समाज रहता है , सिर्फ पूर्वजों की कमाई ज़मीन जायदाद और अर्जित शोहरत पर गर्व करना इतराना उस को और ऊंचाई पर ले जाने को कभी कुछ भी नहीं करना अधिकांश की आदत है । खुद अपने ही मुंह से अपनी बढ़ाई करना इस शहर के बड़े धनवान लोगों की रिवायत बन चुकी है , शहर गांव समाज को कुछ योगदान देना कोई नहीं चाहता सभी झूठी शोहरत पाने को व्याकुल रहते हैं । मुखौटे पहने रहते हैं ख़िज़ाब लगाए रहते हैं हंसते हुए कितने दुःख दर्द छिपाए रहते हैं । 
 
  चारागर बीमार हैं अध्यापक रहते लाचार हैं , जिधर भी देखते हैं इश्तिहार ही इश्तिहार हैं । शिक्षा स्वास्थ्य रोज़गार उद्योग की दशा इस शहर में आज भी पिछड़ी हुई है , कुछ भी आवश्यकता होने पर आपको बाहर जाना पड़ता है । कोई भी संस्था नहीं जिसे सभी की भलाई की चिंता हो , अपने वर्ग जाति  आदि को लेकर कुछ संगठन हैं जिनका सिमित दायरा रहता है । इतने सालों में यहां की राजनीति कुनबे कुटंब से बाहर नहीं निकली है और खेद जनक विषय है कि बहुत लोग चाटुकारिता अथवा सत्ताधारी राजनीतिक दलों को पैसा देकर ही बदले में कोई पद हासिल करते रहे हैं । साहित्य को लेकर शहर उदासीन है और जो लिखते हैं वो भी किसी आवरण में छुपे खुद को बंधक बना सुरक्षित समझते हैं इसलिए कोई उच्च कोटि की रचनात्मकता नहीं सामने आई है । पढ़ने को कोई सार्वजनिक पुस्तकालय नहीं है कुछ हैं जो शिक्षा संस्थानों से जुड़े हैं जिन में अधिकांश छात्र ही जा पाते हैं । सामाजिक बुराईयों से अपने अधिकारों तक इस शहर में इक ख़ामोशी है । तथकथित शरीफ़ अमीर लोग अपने घर खेत में गरीब मज़दूर को बंधुआ समझ जब चाहे जैसा अनुचित आचरण करते हैं लेकिन धार्मिक संस्थाओं के सर्वेसर्वा बन सभ्य कहलाते हैं । किसी को रुलाते उनको कभी खेद नहीं होता ज़ुल्म को इंसाफ़ समझते हैं । 

पत्रकारिता की बात की जाए तो तालाब का ठहरा हुआ पानी जैसी है कोई गतिशीलता नहीं है , गुटबाज़ी तो सभी जगह होती है लेकिन यहां सभी अख़बार सरकारी अधिकारियों राजनेताओं से मधुर संबंध रखते हैं और उनकी भाषा में खबरें लिखते हैं । कभी कभी कोई सामाजिक समस्या की चर्चा होती है जब कोई पत्रकार उस से प्रभावित होता हो , अन्यथा जनता की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं होता है । निडर निष्पक्ष सच की पत्रकारिता कभी हुआ करती थी जो कब कहां खो गई कोई नहीं जानता । सत्ताधारी नेताओं और जब जो भी प्रशासनिक अधिकारी होते हैं उनका गुणगान महिमामंडन करते हैं सभी स्थानीय पत्रकार । अपने अधिकारों को लेकर संघर्ष की सीमा प्रशासन सरकार को पत्र भेजने तक रहती है । धर्म को लेकर विशेष अवसर पर काफी आयोजन होते रहते हैं और अनगिनत गुरु शिष्य की परंपराएं हैं लेकिन कोई भी धर्म उपदेशक कभी आचरण में सत्य ईमानदारी को कुछ नहीं कहता है सभी को भजन कीर्तन दान देने अपने मंदिर आश्रम का विस्तार करने की आवश्यकता रहती है । गरीब दीन हीन की सहायता कोई नहीं करता सभी को अपने नाम किसी जगह लिखवाना होता है दान देने के बदले में । 

अमीर रईस लोगों का शहर होने पर भी साधरण नगरवासियों की परेशानियों समस्याओं में कोई सामने नहीं दिखाई देता है । इंसानियत की बात इस शहर में कोई नहीं करता है हैवानियत भी शर्मिंदा होगी इधर कभी आकर देखे तो । आस्तिक होने का दम भरते हैं मगर भगवान से नहीं डरते , ऊपरवाला देखता है कभी इंसाफ़ करेगा कौन जाने ये सच है या ढाल है मनमानी करने वालों की । शहर की विशेषता है कि शाम ढलते ही अधिकांश लोग शराब और खाने पीने के शौक़ीन हैं , क़र्ज़ उठा कर भी मौज मस्ती करने वाले धनवान लोग देखे हैं कंगाल होते हुए भी और कंगाली से मालामाल होते हुए भी किसी राजनीति की शतरंज की बाज़ी से । समझदार चतुर लोग तमाम मिलते हैं लेकिन ढूंढने पर कोई आदर्शवादी कथनी करनी में एक जैसा शख़्स नहीं मिलता है । बौद्धिक दरिद्रता की मिसाल कहला सकता है मेरा ये शानदार शहर यहां सामाजिक संस्थाएं बनती हैं सिर्फ खुद कुछ लोगों की भलाई करने को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल होने को अभिशप्त हैं । 
 
 याद आती हैं  कुछ बातें अक्सर यहां  , ऐसे कितने संगठन बनाये जाते रहे कोई मकसद को लेकर लेकिन वो भटक गए अपनी राह से और कुछ लोग उनका उपयोग अपने स्वार्थ पूरे करने को करने लग गए । शायद सभी जगह ऐसा होने लगा है कि लोग समाज को कुछ देना नहीं चाहते अपितु पाना चाहते हैं समाज सेवा के नाम पर , मेरा शहर भी ऐसा ही है ।  वास्तव में लगता है मेरा शहर बहुत गहरी नींद में सोया हुआ है , कोई हलचल कभी नहीं होती इस में बेशक दुनिया में सौ तूफ़ान आते रहें , इक वीरानगी है जिसे लोग शांति समझते हैं । ये
किसी एक शहर की नहीं हर शहर की यही कहानी है प्यास ही प्यास है भागते रहते हैं रेगिस्तान में चमकती हुई रेत है समझते हैं जिसको पानी है ।










फ़रवरी 21, 2025

POST : 1949 लोकदेव नेहरू - रामधारी सिंह दिनकर ( पुस्तक समीक्षा ) डॉ लोक सेतिया

 लोकदेव नेहरू - रामधारी सिंह दिनकर ( पुस्तक समीक्षा ) डॉ लोक सेतिया 

मैंने हमेशा कितने लोगों की किताबों की समीक्षा करने से बचना चाहा है , और इतने महान कवि विचारक की किताब पर कुछ भी कहना मुझ जैसे साधरण लेखक के लिए आसान कदापि नहीं है । कुछ साल पहले बालमुकुंद अग्रवाल जी की किताब पढ़ कर स्वतंत्रता आंदोलन के 90 साल 1858 से 1946 की कहानी समझने में आसानी हुई थी अब इस किताब को पढ़कर सिर्फ जवाहरलाल नेहरू ही नहीं बल्कि अन्य तमाम महान नायकों की विचारधारा उनकी देशभक्ति और सामाजिक सरोकारों की चिंता को लेकर सटीक और विश्वसनीय जानकारी हासिल हुई है । राष्ट्रकवि दिनकर जी से बेहतर शायद कोई और इस विषय पर पूर्ण निष्पक्षता ईमानदारी से लिखने का साहस नहीं कर सकता क्योंकि दिनकर जी नेहरू के करीबी होकर भी महिमामंडन या चाटुकारिता कदापि नहीं कर सकते थे जो बेहद महत्वपूर्ण होता है । 

रामधारी सिंह दिनकर : - 

जन्म 23 सितंबर 1908 , निधन 24 अप्रैल 1974 , 

1959 में ' संस्कृति के चार अध्याय ' पर साहित्य अकादेमी पुरुस्कार और पद्मभूषण की उपाधि , 1973 में उर्वशी पर ज्ञानपीठ पुरुस्कार ।

महीयसी महादेवी वर्मा ने दिनकर जी को विश्वकवि कहा था क्योंकि उनकी कविताओं में राष्ट्रीयता की वाणी और उसकी स्वायत्तता का गैरवगान और संघर्ष नहीं वरन प्रेम का इक व्यापक क्षितिज है जो उनको विश्वकवि की श्रेणी में ले जाता है । 

दिनकर जी ने कहा था सच्चा कवि हमेशा जीवित रहता है , उस के प्रति राग और द्वेष के कारण उसके सामने उसका सही मूल्यांकन नहीं हो पाता । 

किसी कवि का सही मूल्यांकन उसके निधन के पचास वर्ष बाद होता है , और आज लगता है वही समय है दिनकर जी का निधन होने के पचास साल बाद का । 

पुस्तक से कुछ अंश लेकर समझने की कोशिश करते हैं : - 

( नेहरू जी को दिनकर जी ने हर जगह पंडित जी कहकर संबोधित किया है ये बताना ज़रूरी है आगे पढ़ते हुए ध्यान रहे। )

चीनी आक्रमण के बाद दिनकर जी ने नेहरू की मनोसिथ्ति को समझते हुए लिखा है , मैं जिस धर्म का प्रतिपादन कर रहा था , वह आपद्धर्म था । पंडित जी घोर संकट में भी परम धर्म पर आसीन थे । पंडित जी उस हारी हुई ज्योति के प्रतीक थे , जो पराजित हो कर भी अन्धकार को ललकार रही थी । 

{ परशुराम की प्रतीक्षा } 

अन्धकार को दबी रौशनी की धीमी ललकार ,
कठिन घड़ी में भी भारत के मन की धीर पुकार । 
सुनती हो नागिनी ! समझती हो इस स्वर को ?
देखा है क्या कहीं और भू पर उस नर को -
जिसे न चढ़ता ज़हर , न तो उन्माद कभी आता है ,
समर-भूमि में भी जो पशु होने से घबराता है । 
 
आगे दिनकर जी कहते हैं , हिंसा- अहिंसा के बारे में पंडित जी के लगभग वे ही विचार थे , जिनका प्रतिपादन मैंने ' कुरुक्षेत्र ' काव्य में किया है : 
 
व्यक्ति का है धर्म तप , करुणा , क्षमा ,
व्यक्ति की शोभा विनय भी , त्याग भी ;
प्रश्न जब उठता , मगर , समुदाय का ,
भूलना पड़ता हमें तप-त्याग को । 
कौन केवल आत्मबल से जूझ कर 
जीत सकता देह का संग्राम है ?
पाशविकता खड्ग जब लेती उठा ,
आत्मबल का एक बस चलता नहीं । 
 
संस्मरणों की चर्चा करते तो शायद पूरी किताब ही लिखनी पड़ती मगर यहां सिर्फ सार की बात कहनी है ताकि पुस्तक को लेकर पाठक राय बना सकें । 148 पेज से आखिर में दिनकर जी ने अध्याय ' पंडित जी का जीवन दर्शन ' लिखा है जिस में कुछ शीर्षक से नेहरू जी का सपष्ट व्यक्तित्व उजागर होता है । 
 

                  1        धर्म 

दिनकर जी कहते हैं पंडित जी की पूरी श्रद्धा भगवान बुद्ध  पर अटूट थी , भगवान बुद्ध अपने समय से बहुत पहले जनमे थे अथवा यह कहना चाहिए कि उनका समय अब आया है । बुद्ध अगर बीसवीं सदी में जनमे होते , तो उनके सबसे निकटवर्ती आत्मबन्धु गांधी जी और जवाहरलाल हुए होते । बुद्ध का ईश्वर के विषय में क्या मत था ? ऐसे सभी प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत कोटि में डाल रखा था । किन्तु वे आज अगर मौजूद होते और हम उनसे पूछते ईश्वर है या नहीं , तो उनका जवाब होता , तुम्हें प्रश्न करना नहीं आया । 
 
' मान लो कि ईश्वर है और तुम्हारे कर्म अच्छे हैं , तो परिणाम क्या होगा ?'
 
' अच्छा होगा । ' 
 
' और मान लो ईश्वर है और तुम्हारे कर्म अच्छे नहीं हैं , तो परिणाम क्या होगा ? '
' परिणाम बुरा होगा । '
 
' तो फिर पूछना यह चाहिए कि तुम हो या नहीं तुम्हारे कर्म कैसे हैं । 
वैसे जवाहरलाल जी गीता के प्रेमी थे और गांधी जी को देख कर उन्हें ये विश्वास हो गया था कि सिथ्तप्रज्ञता कल्पना हवाई नहीं है और साधना से सिथ्तप्रज्ञता प्राप्त की जा सकती है ।   
   

               2                     हिंसा-अहिंसा 

दिनकर बताते हैं कि पंडित जी मानते थे कि अहिंसा का सर्वत्र पालन वही व्यक्ति कर सकता है , जिस के भीतर की मानवता अत्यन्त विकसित और सजीव हो , जो भारी से भारी कष्ट सहकर भी उत्तेजना में न आए । 

             3                   प्रजातंत्र 

पंडित जी व्यक्ति के वयक्तित्व का आदर करते थे और यह मानते थे कि असली प्रजातंत्र वह है , जहां सारी जनता मतदान द्वारा अपनी राय ज़ाहिर करती है और शासन उसी राय के अनुसार चलता है । एक हद तक शिक्षा और समृद्धि लाये बिना प्रजातंत्र ठीक से काम नहीं करता है ।
 

             4                  समाजवाद 

सन् 1929 ई में पंडित जी ने लाहौर कांग्रेस के सभापति - पद से ऐलान किया था कि मैं समाजवादी हूं और राजाओं तथा उद्योगपतियों के साम्राज्य के ख़िलाफ़ हूं । प्रजातंत्र और समाजवाद को वे एक ही सिक्के के दो पहलू समझते थे । 

                5              राष्ट्रीयकरण 

सन् 1954 ई में उन्होंने कहा था , समाजवाद विषयक हमारी आम धारणा यह है कि उस से उद्योगों का राष्ट्रीयकरण होता है । इसलिए ऐसा सोचा जा सकता है कि हम तुरन्त उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर दें । जैसे जैसे समाजवाद की प्रगति होगी , अधिक से अधिक उद्योग राष्ट्रीय सेक्टर में होंगे । किन्तु अभी हमारा उद्देश्य धन के उत्पादन और रोज़गार में वृद्धि होनी चाहिए । 
 

              6           राज्य और व्यक्ति   

पंडित जी मानते थे कि आज तक राज्य का उद्देश्य वैदेशिक आक्रमण और आन्तरिक उत्पात से समाज की रक्षा करना रहा है । लेकिन अब कल्याणकारी राज्य का ध्येय जनता की शिक्षा , स्वास्थ्य , रोज़ी आदि समस्याओं का भी समाधान निकालना हो गया है ।
 

                7      पंडित जी और भारतीय एकता 

काल का कारण राजा होता है या राजा का कारण काल - इस प्रश्न का सबसे सही उत्तर यह है कि महापुरुष काल की प्रेरणा से जन्म लेते हैं और फिर वो काल को प्रभावित भी करते हैं । जवाहरलाल जिस युग में जनमे , वह बहुत पहले से एकता की खोज में बेचैन चला आ रहा था । गांधी जी और जवाहरलाल ने उस बेचैनी में वृद्धि कर दी और जनता के मन पर यह बात बिठा दी कि एकता और आज़ादी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । कहते हैं , महापुरुषों के जीवन में अक्सर असफलता अन्त - अन्त तक उनका पीछा करती है । राम  , कृष्ण , सुकरात , ईसा , कबीर और गांधी - ये अपने जीवन में  क़ामयाब नहीं हुए ,  मगर दुनिया को रौशनी उन्हीं के आदर्शों से मिल रही है । अब वही लड़ाई काल के अखाड़े में चल रही है । इस लड़ाई में सबसे ज़्यादा रौशनी गांधी जी की कुर्बानी से आ रही है , जवाहरलाल की उन कोशिशों से आ रही है जो उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए की थीं और जिन कोशिशों में वे नाकामयाब रहे ।  ये सभी बातें विचार रामधारी सिंह दिनकर जी की किताब से शब्द - ब - शब्द लिए गए हैं मैं उनसे अच्छा क्या वैसा भी कभी भी नहीं लिख पाऊंगा अत: इसे समीक्षा नहीं प्रमुख अंश कहना उचित होगा । 

                            पंडित जी के संस्मरण 

इस से पुस्तक की शुरुआत की गई है मगर मैंने इसे आखिर में रखा है क्योंकि पेज नंबर 13 से पेज नंबर 147 तक 134 पेज पर तमाम घटनाओं स्मृतियों का विवरण है जिसे बड़े ही ध्यान से पढ़ना ज़रूरी है । लेकिन मैंने कुछ बातों का चयन किया है जो नेहरू जी की सोच को दर्शाती हैं । दिनकर जी बताते हैं पहली बार पंडित जी को करीब से देखने का अवसर तब मिला जब किसी राजनीतिक सम्मेलन में मुज़फ्फरपुर में मंच पर जिस मसनद के सहारे पंडित जी बैठे थे , मैं उस के पीछे बैठा था । उस से कुछ दिन पूर्व मुंगेर में श्रीबाबू को टंडन जी ने एक अभिनंदन ग्रंथ भेंट किया था , सुयोग देख कर नन्दकुमार बाबू ने ग्रंथ की एक प्रति जवाहरलाल जी के सामने बड़ा दी । पंडित जी ने उसे उलटा पलटा और देखते देखते उनके चेहरे पर क्रोध की लाली फ़ैल गई । फिर वे बुदबुदाने लगे ' ये गलत बातें हैं । लोग ऐसे कामों को बढ़ावा क्यों देते हैं । अजब संयोग कि उन्हीं दिनों अज्ञेय जी और श्रीलंकासुन्दरम नेहरू अभिनंदन ग्रंथ का सम्पादन कर रहे थे । दिनकर जी लिखते हैं जब ऐसा आयोजन होना था उस समय मैं भी तमाशा देखने दिल्ली गया हुआ था । जब राजेन्द्र बाबू ने राष्ट्रपति भवन में प्रवेश करना था उस से एक दिन पहले मैं उनसे मिलने गया था । बातों के सिलसिले में मैंने राजेन्दर बाबू से जानना चाहा कि पंडित जी को अभिनन्दन ग्रंथ कौन भेंट करेगा । राजेन्दर बाबू ने बताया  ' लोगों की इच्छा है कि ग्रंथ मेरे हाथों दिया जाना चाहिए , मगर पंडित जी इस विचार को पसंद नहीं करते । वे मेरे पास आये थे और कह रहे थे कि कल से आप राष्ट्रपति हो जाएंगे । मैं नहीं चाहता कि अभिनन्दन ग्रंथ जैसे फालतू काम के लिए राष्ट्रपति इम्पीरियल होटल में कदम रखें , न ही मैं यही चाहता हूं कि यह समारोह राष्ट्रपति भवन में मनाया जाये । जिन लोगों ने ये तमाशा खड़ा किया है उन्हें भुगतने दीजिये । और , सचमुच , समारोह का आयोजन होटल में ही हुआ और ग्रंथ टंडन जी ने ही भेंट किया । 
 
एक अन्य घटना को लेकर दिनकर जी लिखते हैं , संसदीय हिंदी परिषद की गोष्ठी पंडित जी के घर पर हो रही थी । पंडित जी के बोलने की बारी आई , उन्होंने कहा , ' अभी मैं उड़ीसा गया हुआ था । सुना , वहां के आदिवासी भाई आर्य रक्तवालों से नाराज़ हैं । वो कहते हैं कि एकलव्य अनार्य था और द्रोणाचार्य आर्य थे । इसी कारण द्रोणाचार्य ने उस अनार्य नैजवान का अंगूठा कटवा लिया । ' यह बात सुनकर सभी श्रोता हंसने लगे ; किन्तु पंडित जी को हंसी नहीं आई ; बल्कि विचलित हो कर उन्होंने कहा , ' और अपनी बात मैं आपको बताऊं ? यह सब सुनकर मुझे गुस्सा हो आया । ' 
 
दिनकर लिखते हैं , द्वापर से कलयुग बहुत दूर पड़ता है । लेकिन सच्ची मानवता इस दूरी को नहीं मानती । किन्तु कितनी सजीव थी उस पुरुष की मानवता , जो कलयुग में खड़ा हो कर द्वापर के अन्याय से तिलमिला उठता है !   
 
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