अगस्त 25, 2025

POST : 2002 तकदीर से कुछ मिला नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया ( बाईस वर्ष पुरानी लिखी ग़ज़ल 2003 की डायरी से )

       तकदीर से कुछ मिला नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया  

                     (  बाईस वर्ष पुरानी लिखी ग़ज़ल 2003 की डायरी से )  

तक़दीर से कुछ मिला नहीं 
दुनिया से शिकवा गिला नहीं । 
 
इक शाख़ से फूल टूटकर 
मुरझा गया फिर ख़िला नहीं ।  
 
वो ज़ख़्म दिल के करीब है 
जो चारागर से सिला नहीं । 
 
इस शहर का नाम दर्द है 
हमदर्द कोई मिला नहीं ।  
 
मंज़िल नहीं हमसफ़र नहीं 
आता नज़र काफ़िला नहीं । 
 
तूफ़ान आ कर गुज़र गए 
वो पेड़ उनसे हिला नहीं । 
 
' तनहा ' अकेले खड़े हुए 
बाक़ी रहा सिलसिला नहीं ।  
 

 


 
 

अगस्त 21, 2025

POST : 2001 अपराधियों की लक्ष्मणरेखा ( व्यंग्य - विनोद ) डॉ लोक सेतिया

  अपराधियों की लक्ष्मणरेखा ( व्यंग्य - विनोद ) डॉ लोक सेतिया 

हद निर्धारित करना ज़रूरी है , अपराध करना बुरा नहीं है अपराध कर आप राजनीति में प्रवेश करने को स्वतंत्र हैं , आप सांसद विधायक बनकर मौज से सत्ता की मलाई खाने का कार्य कर सकते हैं समर्थन देकर सरकार बनवा कर । लेकिन आप खुद सरकार नहीं बन सकते , मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री बनने का सपना देखना सीमा का उलंघन करना है । सांसद , विधायक ही नहीं धनवान उद्योगपति भी चंदा देकर पर्दे के पीछे छुपकर कुछ भी कर सकते हैं करवा सकते हैं लेकिन लोभ लालच की लक्ष्मणरेखा का पालन करना ज़रूरी है । यहां आपको रामायण काल की बात पर नहीं सोचना कि रावण कौन है लक्ष्मण कौन सीता कौन , आधुनिक युग में कब किरदार बदल जाते हैं पता ही नहीं चलता है रावण सीता को ही लक्ष्मणरेखा  से बाहर आने को विवश कर हरण करे ज़रूरी नहीं है आधुनिक युग में कोई नारी किसी सीमा को लांघने से संकोच नहीं करती है । ये अपराधी बाहुबली राजनेताओं को चेतावनी है कि गंभीर से गंभीर अपराध कर के भी आप जीवन भर सज़ा से बच कर सब कुछ हासिल कर सकते हैं सिर्फ सर्वोच्च पद पर बैठना संभव नहीं मना है । 
 
इसको नया भारत कहते हैं सत्ता की हवेली में गुनाहों के झरने जब बहते हैं मुजरिम बेगुनाह समझे जाते हैं सत्ता जानती हैं गहरे से गहरे दाग़ कैसे मिटाए जा सकते हैं । शासक जिस शीशे के महल में रहते हैं बुलंदी पर कभी किसी हाल में नहीं ढहते हैं । राजनीति जिसको समझते हैं इक पत्थरों का शहर है पत्थर के लोग बसते हैं दिल भी शीशे के नहीं होते और मोम की तरह इंसान पिघलते नहीं हैं बर्फ़ जैसे मिजाज़ हैं किसी धूप से गर्मी से भी पानी पानी नहीं होते हैं ग़ज़ब की बात है । अपराधी भी मासूम चेहरे वाले दिखाई देते हैं और शरीफ़ लोग भी कभी शक़्ल सूरत से डरावने लगते हैं , इधर नायक ख़लनायक अच्छाई बुराई की पहचान बदल गई है ।
 
लक्ष्मणरेखा की कल्पना पुरानी है लेकिन इसकी बदलती रहती कहानी है ये शीला की जवानी है आपके हाथ कभी नहीं आनी है । सोने के हिरण जैसा मायाजाल है मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री का पद आप अपराधी हैं और समझदार हैं किसलिए होते मोहमाया का शिकार हैं आपको इस उलझन से बचाना है यही लक्ष्मणरेखा का असली निशाना है । सोना का हिरण सोने की लंका कल्पना नहीं हक़ीक़त होती है आजकल , शासक की भूख ख़त्म कभी नहीं होती जनता हर युग में भूखे पेट सोती है । जनता को सुनहरे सपने दिखाने हैं हमको कई आलीशान महल बनवाने हैं आपको जितना मिलता है थोड़ा है आप किस की खातिर होते दीवाने हैं , ये रस्ते अभी अनजाने हैं जिन पर जाने की मनाही है प्रवेश करने पर सभी कुछ खोने की आशंका है । अयोध्या जिसकी उसी की लंका है बजने लगा कहीं डंका है । 
 
अपराध और अपराधी भी देश की व्यवस्था का इक अंग हैं , सिर्फ अदालतों की आवश्यकता नहीं है कितने लोगों की रोटी उन्हीं के दारोमदार पर निर्भर है ।  राजनेताओं की राजनीति को खाद पानी उन्हीं से मिलता है अपराधी जनता के लिए दुःखदायी भले हों सत्ता पुलिस राजनेताओं के लिए हमेशा काम आते हैं । कभी भी किसी शासक ने अपराध को मिटाने की कोशिश नहीं की है बढ़ाने को कोई कसर नहीं छोड़ी है । आपने कभी किसी वैश्या का ठिकाना देखा है उसकी सुरक्षा से लेकर उसका धंधा चलाने तक कोई शरीफ़ काम आता है न कोई पुलिस या कोई सरकार , उनके बाज़ार में उनकी सत्ता चलती है उनके कायदे कानून लागू होते हैं । राजनीति भी वैश्यवृति जैसी है जिस में ईमान बेच कर कुछ भी मिलता है , राजनेताओं को चुनाव में रैलियों को आयोजित करने में अपराधी बहुत काम आते हैं । आजकल लोग खुद अपनी मर्ज़ी से कहां आते हैं नेताओं की झूठी बातें सुनकर ताली बजाने , सभी उनकी वास्तविकता जान चुके हैं । अपराधी को मंच से नेता जी आदरणीय और लोकप्रिय कहते हैं जबकि जानते हैं कि सच्चाई क्या है । जनता जितना पुलिस से डरती है उस से अधिक आपराधिक छवि वाले बदमाशों से घबराती है बच कर चलती है । राजनेताओं को मालूम है आजकल पुराना समय नहीं जब जनता अपने नेताओं को प्यार से भरोसे से चुना करती थी , आज जनता को भयभीत होना पड़ता है कि उनको वोट नहीं डाला तो क्या क्या होना संभव है । 
 
मुख्यमंत्री बनते ही लोग खुद ही अपने ख़िलाफ़ दायर मुक़दमें वापस लेकर शराफ़त का प्रमाण हासिल कर लिया करते हैं । कितने ही अपराध मुख्यमंत्री बनकर राजनेता करते रहे और सबूत गवाह मिटाते रहे कोई अदालत कोई न्यायधीश कुछ नहीं कर सका न्याय की देवी की आंखों पर बंधी पट्टी हमेशा सत्ता की सहयोगी साबित हुई है । कितने जुर्म कैसे भी अपराध कर अपराधी राजनीति की शरण में आकर बेगुनाह साबित होने की राहें बनाते रहे हैं , इसलिए उनके लिए इक सीमा निर्धारित करनी ज़रूरी है । आपको याद है बिल्ली और शेर की कहानी बिल्ली शेर की मौसी है उसने शेर को सभी दांव पेच सिखलाये थे लेकिन जैसे शेर को लगा कि सभी सबक सीख लिए शेर झपटा था बिल्ली को खाने को । तब बिल्ली पेड़ पर चढ़ गई छलांग लगा कर , शेर ने पूछा मुझे ये करना तो नहीं सिखाया था । माजरा कुछ वैसा ही है खुद अपने को बचाने को इक पैंतरा ऐसा ज़रूरी है जिस को गुरु किसी शिष्य को कभी नहीं सिखलाता है । बिल्ली कौन शेर कौन है समझने को पहले आपको लोमड़ी को लेकर जानकारी हासिल करनी पड़ेगी , समझ आई बात ।  
 
 बिल्ली को 'मौसी' क्यों कहते हैं? 99% लोग नहीं जानते होंगे ये बात - Guru ka  Gyan

अगस्त 20, 2025

POST : 2000 कठपुतलियां नाच रहीं ( यत्र - तत्र - सर्वत्र ) डॉ लोक सेतिया

    कठपुतलियां नाच रहीं ( यत्र - तत्र - सर्वत्र  ) डॉ लोक सेतिया 

कब से दुनिया समझ रही थी इक बस उन्हीं का चर्चा है जिधर नज़र जाती जब भी कुछ आवाज़ सुनाई देती इक नाम का जाप तमाम तरह से होता था । जब उनको ख़ास अवसर पर शिखर जैसी ऊंचाई पर खड़े हो कर हमेशा की तरह खुद ही अपना गुणगान करना था जिसका कभी कोई सोच भी नहीं सकता था उस संगठन का नाम क्या वंदना तक करने में खुद अपनी गरिमा को गौण कर दिया तब सभी को समझ आया कि ऊंठ पहाड़ के नीचे किस तरह आता है । समझने वाले समझ गए कि जनाब भी किसी के हाथ की कठपुतली ही हैं और जैसे उधर से डोर कसने लगी घुटनों पर आना पड़ा है झुक कर सलाम करने लगे हैं पहले छुप छुपकर अब सरेआम करने लगे हैं । जब चादर लगी फटने , खैरात लगी बटने । लोकतंत्र के प्रहरी जनमत के रक्षक समझने वाले खुद ही सत्ता की लूट को ढकने में अपनी आबरू गंवा बैठे हैं , झूठ छल जालसाज़ी की पैरवी जब अदालत ही पक्ष में दलील देने लगे तब उनकी डोर कोई पकड़े उनको पतंग की तरह उड़ा रहा है । चुनावी पतंग कब कट कर कहां गिरती है और कितने लोग झपटने की कोशिश में उसके पुर्ज़े पुर्ज़े कर देते हैं कोई नहीं जानता मगर सभी को साफ़ लगने लगा है उड़ान हिचकोले खा रही है । राजनीती प्रशासन से समाचार चैनल सोशल मीडिया क्या उद्योग कारोबार करने वाले लोग सभी जाने कितनों के इशारों पर नाचते हैं शतरंज के खिलाड़ी प्यादों को मोहरे बनाकर कब कैसी चाल चलें कि शह को मात में बदल सकते हैं । 
 
अभिनेता फ़िल्मकार निर्माता निर्देशक से टीवी पर सीरियल बनाने वाले ख़रीदार नहीं बिकाऊ सामान हैं कोई झूठे विज्ञापन दिखलाने की कीमत देकर अपना खोटा सिक्का बाज़ार में चला रहा है । बेज़मीर हैं सभी जिस्म है अंतरात्मा मर चुकी है जैसे कोई लाशों की दुनिया है चलती फिरती मुर्दा ज़िंदगी कभी कल्पना भी नहीं की थी हमने । इंसान का कोई वजूद नहीं है लोग नाचने को विवश हैं कौन किसको नचा रहा है कोई नहीं जानता क्योंकि कठपुतली नचाने वाला ऊपर कहीं बैठे अपनी उंगलियों से डोर को जब जैसे चाहे खींचता है कभी ढीली छोड़ता रहता है । ग़ज़ब का तौर तरीका है जिसे देखो खुद को गंगाजल जैसा पावन बताता है अपने गुनाहों का दोष किसी और पर लगाता है भला कोई मुर्दा कभी अपनी बेगुनाही साबित करने कब्र से बाहर आता है । सत्ता ने झूठी कसम खाई है लोकतंत्र का खेल तमाशा उनका है जनता सिर्फ तमाशाई है जान पर जिसकी बन आई है सामने कुंवां है पीछे खाई है । 
 
दुनिया आधुनिक युग में विज्ञान और शिक्षा के महत्व पर ध्यान केंद्रित कर समस्याओं का निदान खोज रही है जबकि हमारे देश में शासक प्रशासक पौराणिक गाथाओं की कथाओं से कपोल कल्पनाओं की पिंजरे में बंद तोते में राजकुमारी की कहानियां नये रूप में घड़ने लगा है जनता को भाग्य भरोसे छोड़ खुद मनचाहे ढंग से खुद को सेवक नहीं देश का मालिक मानने लगे हैं । हम जल्दी ही महाशक्ति बनने वाले हैं ख़्वाब दिखाने लगे हैं अभी तक शासकों ने कभी अपने कहे वचन पूर्ण नहीं किये इस हक़ीक़त से नज़रे चुराने लगे हैं । सच को सूली चढ़ाने लगे हैं झूठ की महिमा समझाने लगे हैं कभी आपको आज़माने लगे हैं सितम पर सितम ढाने लगे हैं क्या क्या ज़ुल्म ज़ालिम करते हैं अपनी हद को बढ़ाने लगे हैं । लोग घबरा कर ज़हर भी दवा की जगह खाने लगे हैं हर घड़ी इश्तिहार जगह जगह बर्बादी को छिपाने लगे हैं कुछ हुआ कुछ बताकर दुनिया भर को बरगलाने लगे हैं ।   दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल याद आई है । 
 
अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार 
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहाऱ । 
 
आप बचकर चल सकें ऐसी कोई सूरत नहीं 
रहगुज़र घेरे हुए मुरदे  खड़े हैं बेशुमार । 
 
रोज़ अख़बारों में पढ़कर ये ख़्याल आया हमें 
इस तरफ आती तो हम भी देखते फस्ले - बहार । 
 
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं 
बोलना भी है मना , सच बोलना तो दरकिनार । 
 
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके जुर्म हैं 
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फ़रार । 
 
हालते इनसान पर बरहम न हों अहले-वतन 
वो कहीं से ज़िंदगी भी मांग लाएंगे उधार । 
 
रौनक़े जन्नत ज़रा भी मुझको रास आई नहीं 
मैं जहन्नुम में बहुत खुश था मेरे परवरदिगार । 
 
दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर 
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़रार ।  
 
( साये में धूप से आभार सहित )   
 
 
कठपुतली कला – जयपुर विश्व धरोहर



अगस्त 18, 2025

POST : 1999 कुछ कुत्तों की मौज कुछ को सज़ा ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया

 कुछ कुत्तों की मौज कुछ को सज़ा ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया  

 कुत्तों का महत्व सभी जानते हैं लेकिन पहली बार कुत्तों का वर्गीकरण करने की आवश्यकता प्रतीत होती है किस को आवारा किस को प्रशिक्षित पालतू श्रेणी में गिनती की जाए , अदालत को आंकड़ों से सरोकार है । क्या कुत्तों को समानता का अधिकार हासिल होना लाज़मी है या उनसे भी भेदभाव किया जा सकता है । अमीर का कुत्ता टॉमी कहलाता है गरीब का कालू क्या यहां भी ऊंच नीच की बात है । वफ़ादारी का अर्थ ये तो नहीं होना चाहिए , सबसे खेदजनक बात है उनकी तुलना उस बिक चुके मीडिया चैनलों से होने लगी है जो तलवे चाटने में कुत्तों से आगे निकल चुके हैं , कुत्तों ने कभी अपना ईमान नहीं बेचा । कुत्तों को बेचना खरीदना बंद होना चाहिए कुत्ते कोई निर्जीव वस्तु नहीं हैं उनकी भावनाएं आहत हुई हैं हालात देख कर । 
 

मामला बेहद संवेनशील और गंभीर है संसद सड़क अदालत तक आवाज़ सुनाई देने लगी है , कुतिया अपनी शान पर इतराने लगी कुत्तों की बरात झूमने गाने लगी है । गधों की ढेंचू ढेंचू से प्रभावित होकर गधों की सुरक्षा का कानून कभी का बनाया जा चुका है अब कुत्तों की बारी है , जगह जगह टीवी चैनल से सोशल मीडिया तक बहस जारी है । अपनी जान सभी को लगती प्यारी है कुत्तों की सत्ता से भी यारी है अपने प्रतिनिधि से मिल कर मांगपत्र देने की तैयारी है । कुत्तों की अपनी पहचान है कुत्तों से राजनीति ने सबक सीखा है भौंकना डराना तलवे चाटना दुम दबाकर भागना क्या क्या नहीं समझा जान है तो जहान है । कुत्तों को विश्वास है आदमी की क्या औकात है उसकी खातिर कानूनी लड़ाई लड़ते हैं कुत्ते भला कभी अदालत से कानून से डरते हैं । किसी लेखक ने अपनी किताब छपवाई थी मुझको कुत्ते ने पाल रखा है , आपने भी सिक्का उछाल रखा है । गली के आवारा कुत्ते बेमौत मरते हैं उनको बचाना ज़रूरी है । सभी नेताओं अधिकारियों व्यौपारियों को कुत्तों को गोद लेने पर पदोन्नति पुरुस्कार पदक वितरित करना कारगर साबित हो सकता है । अपनी पसंद का चयन कर सकते हैं और जितने चाहें जहां चाहें रख सकते हैं , पालतू बनते ही कुत्ते आदमी को क्या से क्या बना देते हैं गधे से आदमी आदमी से जोरू के गुलाम से बड़ा बना देते हैं । आपको इक कथा सुनाते हैं । 
 
दुनिया बनाने वाले से सभी जीव जंतु अपनी अपनी शिकायत रखने लगे थे , विधाता ने समझाया सभी को इक न इक जन्म में जानवर पंछी कितना कुछ बनना होता है चौरासी लाख योनियां हैं कुत्ते की बारी आई तो रहस्य खुला कि अगले जन्म में भौंकने वाले निरंतर भौंकने वाले को बेहद शानदार जीवन मिलता है । कुछ भी नहीं करना आदमी का जन्म मिलते ही पिछले जन्म का तजुर्बा आज़माना है बेमकसद बकना भौंकना है बस बिना कारण भौंकते जाना है । आपका गुणगान महिमामंडन आपकी चर्चा दुनिया में बस आप ही आप सभी के माई बाप समझे जाएंगे , लोग रोएंगे चिल्लाएंगे आपको नज़र नहीं आएंगे आप सब सर पर ताज़ पहन अपनी डफली अपना राग सुनाएंगे । बड़े ही सलीके से सभी को बोटी बोटी चबाकर खाते जाएंगे दुनिया को आपके हुनर बहुत भाएंगे आपको विदेशी शासक खाने पर बुलाएंगे जंग का सामान बेचेंगे शांतिपाठ पढ़ाएंगे आप सब समझ जाएंगे , सबसे बढ़िया भौंकने वाले को नॉबल पुरुस्कार मिलना चाहिए दुनिया को बताएंगे ।  
 
किसी कवि की हास्य कविता है , कुत्तों से मुझको प्यार है , किसी का नहीं ऐतबार है बस उसको कुत्ता मत कहना वर्ना होती तकरार है । कुत्तों की अपनी मंडी है इंसान की कीमत कुछ नहीं किस बात का घमंडी है । कुत्ते कितने प्यारे हैं मालकिन को अपने पति से लगते दुलारे हैं हमने भी देखा है कुत्ते और पति झगड़े आमने सामने कुत्ते जीते पति बाज़ी हारे हैं । कुत्तों की कथा का अंत इसी गीत से करते हैं जो लोग उनको मनवांछित वरदान कुत्ते देते हैं ।  
 
 बाप रे! कुत्ते से प्यार कर बैठी Bihar की ये लड़की, करती है महीने का लाखों  खर्च!

अगस्त 17, 2025

POST : 1998 सब पराए हैं ज़िंदगी ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया

 सब पराए हैं ज़िंदगी ( नज़्म ) डॉ लोक सेतिया 


सब पराए हैं ज़िंदगी , 
देख आए हैं ज़िंदगी । 
 
बिन बुलाए ही आ गए , 
चोट खाए हैं ज़िंदगी । 
 
हम खिज़ाओं के दौर में , 
फूल लाए हैं ज़िंदगी । 
 
कौन दुश्मन है दोस्त भी , 
आज़माए हैं ज़िंदगी । 
 
छा रही हर तरफ ख़िज़ा , 
गुल खिलाए हैं ज़िंदगी । 
 
छोड़ सारा जहान घर , 
लौट आए हैं ज़िंदगी । 
 
दर्द के गीत शाम - सुब्ह , 
गुनगुनाए     हैं ज़िंदगी । 
 

 
 
 

POST : 1997 जाएं तो जाएं कहां ( विचार - विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

     जाएं तो जाएं कहां ( विचार - विमर्श ) डॉ लोक सेतिया   

घर से बाहर खुली हवा में सैर करने निकलते हैं हम सुबह शाम ,  दिखाई देते हैं दुनिया भर के लोग कुछ जाने पहचाने कुछ अनजान अजनबी कुछ को देख कर लगता है जैसे होकर भी नहीं हैं बिना आत्मा जिस्म चलते फिरते । झुंड बनाकर खड़े बैठे कितने लोग सामने होते हैं , कोई योग कर रहा होता है कोई अपनी पुरानी संकुचित मानसिकता को बढ़ावा देने का प्रयास करता है कुछ लोग बेमतलब की बातों से दिल बहलाते हैं   समय बिताते हैं या जाने वक़्त बर्बाद करते हैं , कुछ किसी धर्म इत्यादि की चर्चाओं में खोये लगते हैं । कितनी तरह के अलग अलग टोलियां बनाये लोग खुश होने का आभास दिलवाते हैं वास्तविक परेशानियों से बचकर कोई जगह तलाश करते हैं । मैं कई बार किसी न किसी झुंड के करीब जाकर लौट आता हूं मुझे वहां भीड़ में अकेलापन और भी अधिक परेशान करता है । इसलिए मैं अकेला खुद से ही वार्तालाप करता रहता हूं शायद इसलिए कि कोई मुझे मिला ही नहीं जो मुझसे बात करता अपना मेरा हालचाल पूछता बतलाता , यहां किसी को किसी के लिए फुर्सत कहां है जिसे देखो अपनी ही बात करता है दूसरे की सुनना समझना कौन चाहता है । महफ़िलों में सन्नाटा पसरा है शोर है कुछ सुनाई नहीं देता समझ ही नहीं आता , काश पेड़ पौधे होते हम लोग बिना बातचीत भी कितनी शीतलता का वरदान मिला हुआ है । बहार पतझड़ आंधी बारिश तूफ़ान सर्दी गर्मी सबसे बेपरवाह सभी को स्वीकार कर अपनी धरती से जुड़े हुए । 
 
मैं इक कतरा हूं दुनिया महासागर है , सिर्फ़ प्यार का दरिया बहता है मुझमें मगर ज़माना है कि नफरतों की फ़सल कांटों का चमन बनाने की कोशिश करता है । मिलना जुलना बिना मतलब नहीं करते लोग ज़रूरत पढ़ने पर याद आते हैं सभी लोग , ख़ुदपरस्ती का लगा है सभी को रोग , ख़त्म कभी नहीं होगी मगर अपनी दोस्ती की जन्म जन्म की खोज । दिल चाहता है कुछ संगी साथी मिलकर चलते जाएं कहीं दूर कोई नई दुनिया बसाने की चाह में , लेकिन जाएं किधर कोई रास्ता नज़र ही नहीं आता है । अंत में इक नज़्म पुरानी नये सलीके से पेश है । 
 
सब पराए हैं ज़िंदगी , देख आए हैं ज़िंदगी । 
 
बिन बुलाए ही आ गए , चोट खाए हैं ज़िंदगी । 
 
हम खिज़ाओं के दौर में , फूल लाए हैं ज़िंदगी । 
 
कौन दुश्मन है दोस्त भी , आज़माएं हैं ज़िंदगी । 
 
छा रही हर तरफ ख़िज़ा , गुल खिलाए हैं ज़िंदगी । 
 
छोड़ सारा जहान घर , लौट आए हैं ज़िंदगी । 
 
दर्द के गीत शाम - सुब्ह , गुनगुनाए हैं ज़िंदगी ।   
 
 Jayen To Jayen Kahan - indianslyrics.com

अगस्त 14, 2025

POST : 1996 ज़मीन नहीं आसमान नहीं ( 78 साल बाद ) डॉ लोक सेतिया

   ज़मीन नहीं आसमान नहीं ( 78 साल बाद ) डॉ लोक सेतिया 

                          {  पिछली पोस्ट से आगे  }   

डींगे हांकना बहादुरी का काम नहीं है , वास्तविकता को देखना समझना स्वीकार करना ईमानदारी कहलाता है , शासक अगर सही मायने में ईमानदार हैं एवं जनता की देश की भलाई और सेवा करते हैं तो उनको शर्मसार होना चाहिए  कि  देश की आधी से अधिक जनसंख्या बदहाल है जिसे सरकार आत्मनिर्भर नहीं बनाना चाहती बल्कि भिखारी की तरह कितनी तरह की ख़ैरात पर गुज़र बसर करने को विवश करती है । ये पचास से अस्सी करोड़ की दिल की चाहत तो बिल्कुल भी नहीं है , ये देश के शासकों प्रशासकों की नाकामी और मानवीय संवेदनाओं की शून्यता का प्रमाण है । इसको कोई लोकतंत्र नहीं कह सकता है ये कुछ प्रतिशत लोगों की अनुचित सोच और गलत कार्यप्रणाली का नतीजा है । बीस प्रतिशत लोग देश की अधिकांश ज़मीन जायदाद संपत्ति संसाधनों पर काबिज़ हैं बाक़ी का हक और अधिकार छीन कर । अभी तक लोग शिक्षा स्वास्थ्य सेवाएं तो क्या निडर होकर सुरक्षित जीने तक से वंचित हैं धनवान और साधन संपन्न वर्ग को न्याय से लेकर सभी कुछ आसानी से मिलता है मगर सामन्य नागरिक को कदम कदम कठिनाईयों से जूझना पड़ता है , मर मर कर जीना होता है । असमानता बढ़ती जा रही है और राजनीति में अपराधियों का परचम फहराता है कोई भी दल कोई मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री अपराधी लोगों से गठजोड़ करने में संकोच नहीं करता है । अंग्रेज़ों से कम अत्याचारी कायदे कानून नहीं है आजकल की सभी सरकारों के जिनका विरोध तक करने की अनुमति नहीं है । सत्ता का विरोध सामाजिक भलाई नहीं बल्कि देशभक्त होने पर शंका जताई जाती है दशा दिन पर दिन भयावह होती जा रही है । 
 
शासक प्रशासक किसी भी देश राज्य के कैसे होने चाहिएं पूछा जाये तो सीधा सरल जवाब है जिनको खुद अपने ऐशो-आराम से पहले देश राज्य निवासी जनता नागरिक की समस्याओं की चिंता ही नहीं होनी चाहिए बल्कि अपने सुःख त्याग कर भी जनकल्याण को प्राथमिकता देनी चाहिए । आज़ादी के  78 साल बाद भी देश में जनता अक्सर शासकों प्रशासकों से भयभीत रहती है क्योंकि सत्ता पाकर अहंकारी लोग खुद को जनसेवक नहीं राजा महाराजा समझने लगते हैं और नागरिक को मौलिक अधिकार से मानवाधिकार तक पाना कठिन दिखाई देता है । कैसी विडंबना है कि खुद अपने चुने प्रतिनिधि जनसामान्य से उनकी परेशानियां या समस्याएं जानना तक नहीं चाहते बल्कि समाधान पाने को सरकारी प्रशासनिक बाधाओं से जूझना पड़ता है । अधिकांश जनसंख्या आभाव और बेबसी भरा जीवन बिताती है जबकि तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था इस सब से लापरवाह खुद अपने लिए सभी आरक्षित करने को महत्व देती है । जिस देश की करोड़ों की आबादी बेघर और बदहाली में रहने को विवश है यहां तक की बुनियादी सुविधाओं से वंचित है उस देश के शासक प्रशासक देश के ख़ज़ाने को अनावश्यक आयोजनों समारोहों पर बर्बाद करते हैं । सांसदों विधायकों पर अन्य सरकारी पदों पर नियुक्त कर्मचारियों से अदालतों और पुलिस सुरक्षा व्यवस्था पर बेतहाशा धन खर्च करने के बाद भी देश को निराशा मिलती है जब अभी तक महंगाई बेरोज़गारी भ्र्ष्टाचार से मुक्ति नहीं मिली है । 
 
15 अगस्त 2025 को 78 साल बीत चुके हैं देश को आज़ाद हुए , लेकिन सरकारें पूर्णतया असफल साबित हुई  हैं  उस स्वतंत्र भारत का निर्माण करने में जिस का सपना आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले महान आदर्शवादी नायकों और शहीदों ने देखा था । खेद की बात है की राजनेताओं से प्रशासनिक अधिकारियों तक इस गंभीर विषय को लेकर उदासीनता है उनको रत्ती भर एहसास नहीं जो करना था किया जाना संभव था नहीं करने को लेकर ।सच कहा जाये तो हमारी व्यवस्था किसी सफ़ेद हाथी की तरह बोझ बन चुकी है और दो तिहाई जनता उनके असहनीय बोझ तले दब कर मर रही है । आज स्वतंत्रता दिवस है मगर जिधर भी नज़र जाती है लोग गुलामी की जंज़ीरों में जकड़े  खुद को महसूस करते लगते हैं आज़ादी का जश्न मनाते हैं सोशल मीडिया पर दिखाई देते हैं वास्तव में चीथड़े पहने हुए लोग नहीं जानते उनको कैसी आज़ादी मिली है । कभी जो हर्षो उल्लास हुआ करता था अब कहीं भी नहीं है सभी औपचरिकता निभाते हैं देशभक्ति इक तमाशा बन गई है ।  
 
कौन इस सब को देखेगा जनता को बताएगा , कौन विरोध करेगा आईना दिखलाएगा जब सभी के मुंह आंख कान बंद हैं स्वार्थ की पट्टी बंधी हुई है सत्ता से यारी निभाते हैं रेवड़ियां खाते हैं भौंकने वाले हड्डी मुंह में लिए चबाते हैं । जिस की बाजरी खाते उसकी हाज़िरी लगाते हैं । झूठ को सच अंधेरे को उजाला बताकर रोज़ ग़ज़ब ढाते हैं । पत्रकारिता का पतन इस हद तक हो गया है कि कभी घोटालों का पर्दाफ़ाश करने वाले पत्रकार हुआ करते थे जब की आजकल पत्रकारिता अलोकतांत्रिक अमर्यादित आचरण करने वालों को ढकने की कोशिश में खुद को निर्वस्त्र कर रही है । आखिर में अपनी इक नज़्म पेश है
 

बेचैनी ( नज़्म )  डॉ  लोक सेतिया 

पढ़ कर रोज़ खबर कोई
मन फिर हो जाता है उदास ।

कब अन्याय का होगा अंत
न्याय की होगी पूरी आस ।

कब ये थमेंगी गर्म हवाएं
आएगा जाने कब मधुमास ।

कब होंगे सब लोग समान
आम हैं कुछ तो कुछ हैं खास ।

चुनकर ऊपर भेजा जिन्हें
फिर वो न आए हमारे पास ।

सरकारों को बदल देखा
हमको न कोई आई रास ।

जिसपर भी विश्वास किया
उसने ही तोड़ा है विश्वास ।

बन गए चोरों और ठगों के
सत्ता के गलियारे दास ।

कैसी आई ये आज़ादी
जनता काट रही बनवास ।  
 

 
 

अगस्त 13, 2025

POST : 1995 कितनी ज़मीन ज़रूरी है इंसान के लिए ? ? ( 15 साल पुरानी रचना 2025 तक हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया

            कितनी ज़मीन ज़रूरी है इंसान के लिए ? ? 

        ( 15 साल पुरानी रचना 2025 तक हक़ीक़त ) डॉ लोक सेतिया  

अपनी इक पुरानी अलमारी से ढूंढने पर फाइल में मिल गई है दिन महीना साल नहीं लेकिन पढ़ते ही समझ आता है कि तब अटल बिहारी वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे । जो तब लिखा हुआ टाइप किया हुआ है पहले उसी को दोहराता हूं । लिखा हुआ है ' करीब नौ दस साल पुरानी बात है '। 

अमेरिका में रहने वाले रौशन आहूजा ने तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी को एक खुला पत्र लिख कर सवाल पूछा था कि वो खुद अपने आपको क्या समझे , देशभक्त या पागल । वाजपेयी जी ने तब उसका क्या जवाब दिया था मुझे मालूम नहीं । शायद जवाब देना ही ज़रूरी नहीं समझा गया हो । लेकिन मेरा मानना है कि देशभक्त और पागल में कुछ ख़ास फ़र्क नहीं होता है । अच्छा है कि अभी भी देश के लिए सर्वस्व अर्पित करने वाले कुछ पागल बचे हुए हैं वर्ना कई बार लगता है कि अब देश के लिए समर्पण और कुर्बानी देने वाले लोगों की प्रजाति का अंत हो चुका है और देश को बर्बाद करने लूटने वाले खुद को देशप्रेमी घोषित करने लगे हैं । रौशन आहूजा ने वह पत्र क्यों लिखा था बताना ज़रूरी है ।  
 
वे डेढ़ करोड़ की विदेशी मुद्रा साथ ले कर भारत आये थे ताकि यहां अपनी बेटी के नाम पर पुस्तकालय बना सकें ।  रौशन आहूजा ने विदेश में अपने सामने किसी को भारत की निंदा नहीं करने दी और इस आदत के चलते अपने कितने मित्र खो दिये । आज भी सरकार प्रशासन के लोग उनके दर्द को समझ नहीं सकते कि कैसे उन्होंने अपनी व्यथा लिख कर प्रधानमंत्री को भेजी होगी । जिस प्रधानमंत्री कार्यालय ने उस आईएस अधिकारी के भेजे गोपनीय पत्र को भ्र्ष्टाचारी लोगों तक पहुंचा दिया था जिन्होंने राष्ट्रीय राजमार्ग योजना में होने वाले भ्र्ष्टाचार की जानकारी दी थी जिस से सत्येंद्र दुबे को भ्र्ष्ट लोग क़त्ल कर देते हैं उनका तौर बदला नहीं अभी तक भी । अब तो यहां देश को लूट कर बर्बाद कर सबसे बड़े देशभक्त होने का परचम फहराते हैं ' यह मेरा इंडिया आई लव माई इंडिया ' गीत गाकर रंगारंग कार्यक्रम मनोरंजन के लिए आयोजित कर जश्न मनाते हैं मिल बांट कर खाते मौज उड़ाते हैं । देशभक्ति आजकल भावना नहीं दिखावा बनकर रह गई है । शासक प्रशासक जनता पर अन्याय अत्याचार करते हुई अपनी अंतरात्मा में नहीं झांकते हैं । 
 
रौशन आहूजा सरकारी विभाग से प्रशासनिक अधिकारियों से मिले और उनको पुस्तकालय बनाने की अपनी योजना बताई तो उनको हैरानी हुई । सरकारी विभाग उनको सार्वजनिक पुस्तकालय बनाने को ज़मीन इस शर्त पर देना चाहते थे कि उनको भावी प्रबंधक या इंचार्ज बना दिया जाये । अगर उनको खुद पुस्तकालय बनाना और चलाना है तो उनको कोई रूचि नहीं है ।  उन्होंने महसूस किया कि सरकारी दफ्तरों में लोग बैठे हैं किसी गिद्ध की तरह नज़र लगाए हुए जो उनके पास आने वालों की बोटी बोटी नोच कर खाने की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं । पढ़ लिख कर बड़े ओहदे पर आसीन होकर भी उनकी लोभ लालच की पैसे की हवस ख़त्म ही नहीं होती कभी । तमाम कोशिशें कर भी उनको ज़मीन नहीं मिली और वह डेढ़ करोड़ विदेशी मुद्रा ले कर वापस चले गए थे । जब अख़बारों में ये खबर छपी तो कितने ही नेताओं और अधिकारियों से समाज सेवा का मुखौटा लगाए लोगों को बड़ी मायूसी हुई , सोचते कि काश रौशन आहूजा उनसे मिलते तो वे उसे शीशे में उतार सकते थे । कोई मुख्यमंत्री उनसे अपने राज्य में निवेश करवाने की बात करता तो कोई सेठ साहूकार उनको समझाता कि पढ़ाई लिखाई में क्या रखा है अपनी बेटी के नाम से सांझेदारी में कंपनी खोल कर खूब कमाई कर सकते हैं । यहां सरकारी अधिकारी मिलकर बांटते हैं खाते खिलाते हैं ऐसा कभी नहीं होने देते की घर आई आसामी हाथ से निकल जाये , इतनी बड़ी चूक कैसे हुई , ज़मीन देकर भी उनको अपने बिछाये जाल में तड़पाया जा सकता था । विभाग पूरी कीमत देकर खरीदे प्लॉट पर अलॉटी को जीवन भर ठगता रहता है उनको कटघरे में खड़ा कर , घर बनवाना उनका मकसद नहीं धंधा है जिसे हर मुख्यमंत्री खुद अपने आधीन रखता है यही राम नाम की लूट है कुछ खास लोगों को मिलती छूट है । 
 
आपको लग रहा होगा इतने साल बाद मुझे उनकी याद कैसे आई है । हरियाणा सरकार ने किसी सत्ताधरी दल के राजनेता की ट्रस्ट को करोड़ों की कृषि भूमि लीज़ पर दी है 33 वर्ष के लिए । दल कोई भी हो राजनेताओं का भूमाफिया खेल कभी थमता नहीं है और सरकारी विभाग की निगाह इस तरफ नहीं जाती है ।शासक राजनेता का करीबी आज भी पांच हज़ार एकड़ ज़मीन खरीद सकता है कौड़ियों के दाम पर नवी मुंबई में और कोई शहंशाह कहलाता हैं करोड़पति खेल से पहचान है लोनावला में खेती की ज़मीन खरीद सकता हैं फ़र्ज़ी किसान का प्रमाणपत्र बनवाकर । सरकार और सरकारी विभागों के काले कारनामों पर पर्दा डालते हैं जो लोग सच का दर्पण और खुद को लोकतंत्र का रखवाला कहते हैं अन्यथा आयोग जांच कर सकता कोई तो इस हम्माम में सभी नंगे हैं । मुंबई से अधिक प्लॉट्स फ़्लैट गुरुग्राम में सभी रिश्वतखोर अधिकारियों नेताओं के आसानी से जांच की जा सकती है मगर संसद में सभी एकमत है आपसी भाईचारा कायम रखना है । क्या आपको मालूम है कि पूर्व प्रधानमंत्रियों ने कब कहां पहाड़ों पर अपने आलीशान महल बनवाये नियम कानून सभी बदलने पड़े , जबकि वो कभी जाकर उन घरों में रहे ही नहीं । आपके हमारे हर शहर में सरकार अपने खास लोगों को जगह देती है जिस सामाजिक कार्य करने को वो उन जगहों पर होटल शोरूम दुकानें बनाकर मालामाल हो रहे हैं कभी कोई नहीं पूछता उचित अनुचित की बात । ये तलवार सामन्य नागरिक की गर्दन पर लटकी रहती है हमेशा यही हमारा रामराज्य है धर्म है जनकल्याण कहलाता है ।  अभी इस पोस्ट को यहीं पर छोड़ते हैं अगली पोस्ट में 78 साल बाद हमारे देश की वास्तविकता पर चर्चा की जाएगी । 
 
                           ( शेष अगली पोस्ट पर जारी है ) 
 
 
 लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में - बहादुर शाह ज़फर
 
 
 
 
 
( आज मेरा जैसा अनुभव है कोई जवाब देना दूर प्रधानमंत्री को भेजे साधरण नागरिक के पत्र ईमेल उनकी जानकारी में ही नहीं होते बल्कि पीएमओ में बैठे लोग संवेदना रहित गंभीर बात को औपचारिक समझ कूड़ेदान में फेंकते हैं अथवा तथकथित जनशिकायत पोर्टल पर दर्ज कर अगले दिन कोई नोडल अधिकारी निपटान करने का संदेश भेज देता है नीचे देख सकते हैं । )  
 
{  Your grievance has been successfully registered in Public Grievances Portal.please note your Registration Number - PMOPG/D/2025/0048676 for later references} 
 
[  पंजीकरण संख्या PMOPG/D/2025/0048676 के साथ आपकी शिकायत का निपटारा कर दिया गया है। विवरण के लिए https://pgportal.gov.in पर जाएँ और प्रतिक्रिया सबमिट करें। आप कॉल सेंटर एजेंट को भी फीडबैक दे सकते हैं जो शीघ्र ही आपसे संपर्क करेगा। ]

अगस्त 10, 2025

POST : 1994 नकली की शान है मौला ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

          नकली की शान है मौला  ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया  

हद से अब तो गुज़र गये हैं लोग ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हद से अब तो गुज़र गये हैं लोग
जाने क्यूँ सच से डर गये  हैं लोग ।

हमने ये भी तमाशा देखा है
पी के अमृत भी मर गये  हैं लोग ।

शहर लगता है आज वीराना
कौन जाने किधर गये  हैं लोग ।

फूल गुलशन में अब नहीं खिलते
ज़ुल्म कुछ ऐसा कर गये  हैं लोग ।

ये मरुस्थल की मृगतृष्णा है
पानी पीने जिधर गये हैं लोग । 
 
ग़ज़ल से शुरू करते हैं कविता से अंत करते हैं ये कोई शर्त नहीं आसानी से बात कहना है । 
 
अब हमारे देश को नवीन कीर्तिमान स्थापित करने से कौन रोक सकता है ,  जिधर देखते हैं नकली का परचम फ़हरा रहा है । सर्च करने पर मालूम होता है कि आज किस किस जगह क्या क्या नकली निकले हैं । मिलावट होने लगी है सामान से इंसान तक असली हैं या नकली हैं कोई नहीं जानता , इधर नकली डॉक्टर पकड़े गए थे उधर नकली आईएएस अधिकारी मिल गए हैं । नकली सर्टीफिकेट से वोटर तक नकली साबित हुए हैं अब जाने किस की बारी है कहीं नकली ईमेल आयकर विभाग का मिला है आये दिन चेतावनी मिलती है सावधान रहें नकली पुलिस या जांच अधिकारी बनकर कोई आपको ठग सकता है । सरकारी विभाग खुद साबित कर रहे हैं कि आपको धोखा लूट से बचाने को सरकारी तंत्र असफल ही नहीं बल्कि शायद अपना कार्य करने में काबिल ही नहीं है । इसका मतलब भी यही है कि वो सब भी दिखावे को हैं वास्तव में उनका होना नहीं होना कोई महत्व नहीं रखता है । कभी असली का प्रमाणपत्र मिलता था किसी नाम या कारोबारी पेटेंट इत्यादि के रूप में आजकल राजनेता अधिकारी क्या देशभक्त देशसेवक तक नकली अधिक हैं असली कहीं नहीं मिलता जो देश को समर्पित हो । आप क्या क्या परखेंगे और कैसे झूठ को झूठ साबित करेंगे जब हर कोई नकली प्रमाणपत्र बनवाये घूमता है शराफ़त ईमानदारी और शुद्ध पुण्यात्मा होने का । फेसबुक से सोशल मीडिया तक चेहरा और चाल चलन इतने गुमराह करने वाले हैं कि नकली की निराली शान है असली खुद हैरान परेशान है । अख़बार टीवी चैनल पर सच कभी का क़त्ल किया जा चुका है न्यायालय और संवैधानिक संस्थाओं में आईसीयू में गंभीर दशा में है पल दो पल का महमान है ।  लोकतंत्र से मौलिक अधिकार तक गिड़गिड़ा रहे हैं मानवाधिकार बेचैन हैं उनकी जगह कितना कुछ देश समाज में देखने को उनकी शक़्ल जैसा लगता है लेकिन वास्तविक आचरण में बिल्कुल उलट और नकली है । नकली असली से अधिक चमकदार और सभी की पसंद बनकर खड़ा है , समझने को इतना ही बहुत है । नकली नोट हाथी के नकली दांत नकली दवाएं सुनते थे अब सरकार की असलियत तक पर शंका होने लगी है ।
 
असली क्या है नकली क्या है पूछो दिल से मेरे , भावनाएं तक असली नहीं हैं , सुनते थे पढ़ते थे महान लोग नायक असली चरित्र के लोग हुआ करते थे आजकल चलन से बाहर किए जा चुके हैं । नकली चाल चलन और मुखौटे लगाए लोग हमको भाने लगे हैं हम भगवान जिनको बनाने लगे हैं जो ठोकर हमको लगाने लगे हैं हम आख़िर हमेशा पछताने लगे हैं । सब अपनी हक़ीक़त छुपाने लगे हैं कहानी कोई झूठी बनाने लगे हैं गज़ब है खुद अपने को खुद मिटाने लगे हैं जिधर जाना नहीं कभी आने जाने लगे हैं । आस्मां पर ठिकाने बनाने लगे हैं ज़मीं से अलग होकर टूटे हुए दिल मुहब्बत के फ़साने सुनाने लगे हैं रोने की बात पर हंसने मुस्कुराने लगे हैं । नकली का बाज़ार सजा है सपनों ने हर बार ठगा है लेकिन हम समझदार होने का दम भरने वाले झांसों में फंस कर पतझड़ को बहार बताने लगे हैं हर दिन पहले से नीचे गिरते हैं राई को पहाड़ बताने लगे हैं । असली कुछ बचा नहीं हमारे देश समाज में नकली का बोलबाला है असली मदिरा नहीं है मयकदे का कोई टूटा प्याला है ये दौर बड़ा ही निराला है गोरा है दिल का काला है उस हाथ में मोतियों की माला है । सोना चांदी हीरे और जवाहरात पर ख़ालिस होने की मोहर लगी है खुद पहनने वाला बाहर से कुछ भीतर से कुछ और लगता है पग पग पर यही घोटाला है ।  शिक्षक तक नकली हैं तो पढ़ाई भी क्या होगी , नकली पुलिस का दफ़्तर खोल लोग मिसाल कायम करने लगे हैं ज़हर भी नकली है लोग ज़हर पीकर ज़िंदा हैं अमृत पी कर मरने लगे हैं । 
 
बहुत साल पहले लिखी हास्य व्यंग्य की कविता ब्लॉग पर 2012 में पब्लिश है शेयर कर रहा हूं । 
 
 

मिलावट ( व्यंग्य - कविता ) डॉ लोक सेतिया

यूं हुआ कुछ लोग अचानक मर गये
मानो भवसागर से सारे तर गये ।

मौत का कारण मिलावट बन गई
नाम ही से तेल के सब डर गये ।

ये मिलावट की इजाज़त किसने दी
काम रिश्वतखोर कैसा कर गये ।

इसका ज़िम्मेदार आखिर कौन था
वो ये इलज़ाम औरों के सर धर गये ।

क्या हुआ ये कब कहां कैसे हुआ
कुछ दिनों अखबार सारे भर गये ।

नाम ही की थी वो सारी धर-पकड़
रस्म अदा छापों की भी कुछ कर गये ।

शक हुआ उनको विदेशी हाथ का
ये मिलावट उग्रवादी कर गये ।

सी बी आई को लगाओ जांच पर
ये व्यवस्था मंत्री जी कर गये ।  
 
 
 CM नीतीश कुमार के नालंदा में शान से नौकरी बजा रहे हैं फर्जी शिक्षक
 

अगस्त 08, 2025

POST : 1993 लोकतंत्र के सारे राजा डाकू हैं ( संविधान - ? ) डॉ लोक सेतिया

 लोकतंत्र के सारे राजा डाकू हैं ( संविधान - ? ) डॉ लोक सेतिया 

आजकल चुनाव आयोग की प्रणाली पर इतने गंभीर सवाल उठने लगे हैं की देश की राजनीति सकते में है और कमाल की बात है कि लगता है अभी भी समस्या की जड़ को समझने का कोई प्रयास ही नहीं हो रहा है । क्या आपने सोचा है कि संविधान जिस व्यवस्था की बात कहता है उस में कोई राजनीतिक दल किसी दलीय चुनावी प्रणाली की चर्चा ही नहीं है । अपने मताधिकार का प्रयोग कर जनता को अपना प्रतिनिधि विधायक या सांसद चुन कर भेजना है और उन प्रतिनिधियों को चुन जाने के बाद अपना नेता चुनना है । आपको कभी खबर ही नहीं हुई कि कब राजनीतिक दलों ने इक व्यवस्था बनवा ली जिस में वही मैदान के प्रमुख खिलाड़ी बनकर बाज़ी लगा सकते हैं और जीतने की संभावनाएं उनको बिना किसी राजनीतिक दल निष्पक्ष खड़े होने वाले प्रत्याशी से बढ़त देती हैं । अर्थात समानता का अधिकार ख़त्म हो जाता है और कुछ संगठित राजनेता जनता पर अपना वर्चस्व स्थापित करने में साम दाम दंड भेद कुछ भी अपना कर शासन पर काबिज़ हो सकते हैं । राजनीतिक दलों में अधिकांश संसद विधायक बंधक जैसे होते हैं उनको पहले से घोषित राजनेता अथवा दल के संचालक को ही अपना नेता चुनना होता है । कैसी विचित्र विडंबना है कि जनता के निर्वाचित जनप्रतिनिधि खुद स्वतंत्र नहीं होते हैं , कभी ऐसा नहीं हुआ करता था लेकिन फिर सभी राजनीतिक दलों ने आपस में मिलकर जिस दलबदल विरोधी नियम को बनाकर लागू किया उसका मकसद ही लोकतान्त्रिक व्यवस्था को जकड़ कर अपनी कैद में रखना था । अभी बहुत परतें खुलनी हैं थोड़ा सोचने समझने की आवश्यकता है कुछ लाजवाब शायरों की कही बात पढ़ते हैं ।  
 

जमहूरियत  - अल्लामा इक़बाल

इस राज़ को इक मर्दे-फिरंगी ने किया फ़ाश ,
हरचंद कि दाना इसे खोला नहीं करते । 
 
जमहूरियत इक तर्ज़े - हुक़ूमत है कि जिसमें 
बन्दों को गिना करते हैं टोला नहीं करते । 

  नई तहज़ीब -  अल्लामा इक़बाल 

उठाकर फैंक दो बाहर गली में  
नई तहज़ीब के अण्डे हैं गंदे । 

इलेक्शन मिम्मबरी कैंसिल सदारत 
बनाए खूब आज़ादी के फंदे । 

मिंयां नज़्ज़ार भी छीले गए साथ 
निहायत तेज़ हैं युरूप के रंदे । 
 
 

बलबीर राठी जी के कुछ शेर :-

रूठ गया हमसाया कैसे ,
तुमने वो बहकाया कैसे । 
 
इतना अंधेरा मक्कारों ने ,
हर जानिब फ़ैलाया कैसे । 
 
तुमने अपने जाल में इतने ,
लोगों को उलझाया कैसे ।

वास्तव में हमारी पूरी चुनावी प्रणाली दोषपूर्ण है कभी भी देश की जनता के वोटों के बहुमत की सरकार नहीं बन सकती है अधिकांश तीस से चालीस प्रतिशत वोट पाने वाले निर्वाचित होते हैं अर्थात अधिकांश जो सांसद विधायक विजयी होते हैं उनके विरोध में अधिक मतदान हुआ होता है । लेकिन बात इतनी ही होती तो शायद मान लेते मगर चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित नियमों और संसाधनों का उपयोग कर शायद ही कोई चुनाव जीत सकता है मतलब ये कि ये सभी धनबल बाहुबल ही नहीं बल्कि झूठा शपथपत्र दे कर सदस्य बनते हैं । क्यों चुनाव आयोग सुप्रीम कोर्ट इतने गंभीर विषय पर अपने आंखें कान मुंह बंद रखते हैं । अपराधियों  पर सुप्रीम कोर्ट से चुनाव आयोग तक मेहरबान क्यों है , आज का सबसे बड़ा प्रश्न राजनेताओं का सभी दलों का जनता को प्रलोभन के जाल में फंसाना है जो असंवैधानिक है क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल कुछ भी अपने खज़ाने से नहीं देता बल्कि जनता का पैसा बर्बाद किया जाता है सही मकसद की जगह अपनी स्वार्थ की गलत राजनीति को बढ़ावा देने की खातिर । यहां फिर लोकतंत्र और संविधान की बात आती है कभी सोचा है कि संविधान विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका तीन स्तंभों पर आधारित व्यवस्था करता है , किसी भी सांसद विधायक मंत्री को आर्थिक अधिकार की बात नहीं करता है । सांसद निधि विधायक निधि जैसा प्रावधान बाद में राजनेताओं ने चोर चोर मौसेरे भाई की तरह किया कानून बनाकर । 
 
छलिया हैं ये सभी राजनेता जनता को विज्ञापन भाषण प्रचार से कुछ हज़ार की सहायता राशि की बात शोर मचाकर बताते हैं कि कितने लाख करोड़ कितने लोगों को दी गई मगर कभी नहीं बताया जाता कि उस से लाखों करोड़ गुणा धनराशि कैसे खुद राजनेताओं प्रशासनिक लोगों और सरकार समर्थक उद्योगपतियों से टीवी चैनल मीडिया को विज्ञापन इत्यादि के रूप में देकर सरकारी जनता के धन की लूट हमेशा से चलती रही है जो देश में आज तक का सबसे बड़ा घोटाला है । देश सेवा की राजनीति कब की खत्म हो चुकी है और आज की राजनीति छल कपट और षड्यंत्र की राजनीति बनकर खड़ी है जिस में संविधान से लोकतंत्र तक के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है । बात कड़वी है मगर खरी है कि राजनीतिक दल ठगों की मंडलियां जैसे हैं और गठबंधन बंदरबांट की शर्तों पर बनते बिगड़ते हैं विचारधारा कोई भी नहीं है । हमारे साथ इतना बड़ा धोखा हुआ है मगर हम तालियां बजा रहे हैं झूठों के सच बोलने का उपदेश सुनकर यही विडंबना है हम खुद शिकार हो रहे हैं और ज़ालिमों को मसीहा समझ रहे हैं ।  हमने जैसा सोचा था संविधान सभी की समानता हर प्रकार की सभी को न्याय की बात को प्रभावी बनाएगा वो कभी किसी भी शासन प्रशासन ने होने ही नहीं दिया बल्कि सभी जनता पर शासन कर उसका दोहन करने को अपना अधिकार समझने लगे अज्ज हालत चिंताजनक और लोकतंत्र को छिन्न भिन्न करने जैसी है । कहने को बहुत  कुछ है मगर अभी कुमार विश्वास जी की कविता से विराम देते हैं । 
 
 

 
 


 

अगस्त 07, 2025

POST : 1992 परदेसियों को है इक दिन जाना ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  परदेसियों को है इक दिन जाना ( हास - परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कोई हैरानी नहीं हुई जब अपने नगर से तीन महीने बाहर रहना पड़ा , जानता था किसी को मेरे होने नहीं होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है । दो चार लोगों ने फोन कर घर पर नहीं होने की बात पूछी किसी मकसद से अन्यथा भला क्यों कोई जान पहचान वाले की खबर रखता कब से दिखाई नहीं देने पर । मसरूफ़ ज़माना मेरे लिए क्यों वक़्त अपना बर्बाद करे , साहिर ने कहा था , कुछ लोग उनको याद करते हैं क्योंकि उन का कारोबार ही यही है अन्यथा कोई याराना नहीं यूट्यूब पर वीडियो बनाकर साहिर की रचनाओं को नहीं खुद अपनी चाहत पूरी करते हैं कमाई भी और कहने को शायरी से गायकी से मुहब्बत भी । कभी हम भी बाज़ार में बिक पाए तो चाहने वाले ढूंढ लेंगे । लेकिन बाहर से अपने शहर में लौटने पर कुछ भी बदला नहीं था वही पुराने लोग वही तौर तरीका वही औपचरिकताएं निरर्थक महसूस होती हुई । लेकिन किसी ने पूछा बड़े दिनों बाद नज़र आये हैं तो बताना पड़ा शहर से बाहर था । उनका अगला सवाल था किस देश में गए हुए थे , मैंने बताया कि किसी और देश में नहीं अपने ही मुल्क़ में किसी अन्य राज्य में किसी शहर में , लगता उनको निराशा हुई कि अपने देश में परदेसी बन लौटना भी बात है । हमने इस विषय पर शोध किया कुछ समझदार लोगों से चर्चा की और निष्कर्ष ये निकला कि हमारे लिए अपना देश ही रहने को उचित जगह है , विस्तार से नहीं संक्षेप में समझाते हैं । 
 
सबसे पहले विदेश जाने को कोई सरकारी अथवा किसी संगठन संस्था का आसरा चाहिए जो हम जैसे साधरण लोगों के लिए नहीं होता है । या कोई विदेशी किसी को नाम शोहरत से प्रभावित होकर आमंत्रित कर सकता है मगर अपना ऐसा कोई डंका नहीं बजता है गुमनाम अनाम लेखक जीवन भर खुद से अनजान रहते हैं कुछ अख़बार पत्रिकाओं को नाम पता मालूम होता है सिर्फ इतना संबंध लेखक प्रकाशक का संपादक का । कई देशों की यात्रा कर चुके हास्य कवि ने समझाया कि विदेश जाना क्या होता है , दो प्रकार के देश प्रमुख होते हैं पहले अच्छे माहौल वाले शानदार देश जिन में रहना बहुत महंगा पड़ता है । सालों की जमा की हुई पूंजी सफ़ेद काली कमाई कुछ दिन में खर्च कर हासिल होती हैं कुछ खूबसूरत तस्वीरें उन देशों की शानदार सतरंगी रंगीनियों की जो कभी हमको नसीब नहीं होती ये एहसास छुपाये रहती हैं । हंसती मुस्कुराती मगर उदासी निराशा छुपी रहती है जिन में , टीस  रहती है काश हम उस देश में जन्म लेते । हास्य कवि जी ने कुछ ऐसे भी देशों में जाकर देखा जिनकी बदहाली हमारे देश से बढ़कर है , थोड़ा सुकून मिला कि अपना देश अभी कुछ छोटे छोटे देशों से बेहतर है ।   
 
हमारे देश में स्वर्ग कभी जीते जी नहीं मिलता धर्मगुरु से सरकार तक स्वर्ग बनाने के ख़्वाब दिखलाते हैं मगर नर्क बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते यही हमारा नसीबा है । बबूल ही बबूल हैं कांटेदार जिन से मीठे आम खाने की उम्मीद लगाए बैठे हैं । सुनते थे पहले लोग गांव से शहर जाते तो लोग पूछते थे शहर कैसा है , अब कोई देश में किसी राज्य में किसी शहर में जाने की बात नहीं जानना चाहता सभी समझते हैं कुछ ख़ास अंतर नहीं है । आपने भी जाकर देखा होगा कितनी जगह चेहरे नये मिलते हैं तौर तरीके वही रहते हैं । तीन महीने में कुछ अनुभव हासिल हुए हैं लेकिन कौन पूछता है किसी को ये मनोरंजक नहीं लग सकती शायद किसी दिन कुछ यादों को खुद ही ताज़ा कर दिल बहलाना अच्छा होगा ।
 
सच तो ये है कि हमारे देश के बड़े बड़े राजनेता अनगिनत देशों की सैर पर हज़ारों करोड़ खर्च करते हैं और विदेशी शासकों कारोबारियों से संबंध बनाते हैं लेकिन हालात बदलते ही विदेशी शासक दोस्त दुश्मनी की सीमा लांघ जाते हैं । शासकों की दोस्ती पर कभी ऐतबार मत करना कब आपको नीचा दिखाने लग जाएं कोई ख़बर नहीं । ये लोग  प्रवासी पंछी की तरह होते हैं ,  मौसम बदलते ही उडारी मार किसी और देश को चल देते हैं ।  
 
 Migratory birds are taking off from Morel Dam, bird lovers gathered to see  beautiful birds | फिर लौट कर आना परदेसी...: मोरेल बांध से प्रवासी पक्षी ले  रहे हैं विदा, गजब की

अगस्त 05, 2025

POST : 1991 जिस्म यहां , आत्माएं विदेश भटकती ( राजनैतिक व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

जिस्म यहां , आत्माएं  विदेश भटकती ( राजनैतिक व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

हमारे देश के राजनेताओं की दशा यही है , मैंने करीब तीस साल पहले इक रचना लिखी थी ' विदेश जाओ हमेशा के लिए ' पब्लिश हुई थी लेकिन अब खो गई है शायद बंद अलमारी में किसी बंडल या फ़ाइल में दबी पड़ी होगी । शीर्षक याद है बाकि कुछ याद नहीं अब समय बदल गया है और हालत पहले से खराब हो गई है ।आजकल अधिकांश राजनेताओं की रूह ही नहीं ज़मीर तक किसी एक नहीं कितने विदेशी शानदार महलों में कैद नहीं है खुद बसती है रंगरलियां मनाती है । शासक ही नहीं सभी दलों को अपने देश की गरीबी बदहाली से दूर किसी खुशहाल माहौल में रहना आनंददायक लगता है , अपने देश की जनता से प्यार सिर्फ वोट पाने के वक़्त उमड़ता है अन्यथा दिल में उनकी छवि भेड़ बकरियों जैसी लगती है । शासक राजनेताओं प्रशासनिक अधिकारियों  को विदेश सैर सपाटे और तरह तरह के आयोजन में जाकर कोई सोच समझ नहीं विकसित हो सकती हैं बल्कि विदेशी चकाचौंध जगमगाहट से भृमित होकर असली नकली का भेद करना छूट जाता है । अधिकांश भारतीय राजनेताओं और प्रशासनिक लोगों से लेकर शिक्षित वर्ग क्या धनवान उद्योगपति से तमाम संतों सन्यासियों को विदेशी मोह मायाजाल ने जकड़ कर अपना ग़ुलाम बना लिया है । उन्होंने देश से अर्जित अपनी आमदनी धन दौलत को विदेशों में निवेश किया हुआ है छुपाया हुआ है । देश में उनको सभी कुछ हासिल होता है तब भी चैन विदेश में मिलता है कुछ अजब मानसिकता है रहना चाहते कहीं हैं मगर रहना पड़ता कहीं और है । आपने प्रेम कथाओं में पढ़ा होगा ये अलग ढंग की मुहब्बत है देश की जनता पत्नी की तरह मुसीबत लगती है मगर झूठ मूठ प्यार जतलाना पड़ता है साथ निभाना मज़बूरी है , प्रेमिका कोई अन्य देश है कभी एक नहीं कितने देश अफ़सोस उनसे ठोकर खाकर भी खुश होते हैं यही आशिक़ी होती है । 
 
सभी बड़े और विकसित देशों के राजनेता से साधरण लोग तक अपने देश को सबसे महान मानते है , लेकिन भारतवर्ष जैसे कुछ देश हैं जहां के शासक अपने देश अपने नागरिकों को पसंद ही नहीं करते उनका याराना उनकी दोस्ती मधुर संबंध विदेशी लोगों से होते हैं । जो मज़ा उनको विदेशी धरती पर कुछ पलों को मिलने वाले आदर सत्कार पुरस्कार से मिलता है देश की जनता से मिलने वाले अपनत्व से अधिक महत्वपूर्ण लगता है । घर की मुर्गी दाल बराबर लगती है , जनता घर की मुर्गी है कभी रोज़ एक अंडा सोने का देना भी कम लगता है तो एक साथ काटने की बात करते हैं शासक सरकार प्रशासन मगर भूखे रहते हैं हमेशा । कभी कभी उनको लगता है कहीं किसी शानदार विदेश में जाकर बस जाएं मगर परेशानी है कि किसी और देश में ऐसे मतलबी और नाकाबिल लोगों को अहमियत नहीं मिल सकती । अगर भारत देश के शासक प्रशासक नहीं होते तो उनकी हैसियत दो कौड़ी की भी किसी देश में नहीं समझी जाती । हमको गर्व है कि हमारे देश के ये खोटे सिक्के विदेश में चलते ही नहीं दौड़ते हैं इसी को हमारे लोकतंत्र की ताकत कहते हैं । ये अध्याय नहीं है पूर्वकथन जैसा है मगर अब पूरी रामायण महाभारत लिखना कठिन पढ़ना असंभव है अत: इसको गागर में सागर समझ कर खुद विश्लेषण कर अथाह की थाह का विस्तार पाने की आवश्यकता है ।  किसी दार्शनिक का कहना है कि भारत के सभी राजनेताओं को विदेश भेजना देश और जनता के लिए कल्याणकारी साबित होगा मगर कौन ये शुभ कार्य कैसे करे इस पर शोध होना बाक़ी है । 
 
 
 
 विदेश में पढ़ाई करते समय अपनी भाषा कौशल कैसे सुधारें | विदेश जाएँ

जुलाई 31, 2025

POST : 1990 अभी तलक उसी जगह ( दोस्ती प्यार अपनापन ) डॉ लोक सेतिया

  अभी तलक उसी जगह ( दोस्ती प्यार अपनापन ) डॉ लोक सेतिया 

करीब करीब एक महीने बाद पोस्ट लिखने लगा हूं , सोचता बहुत रहा , लिखना चाहा मगर लिख नहीं पाया । आज फिर सुबह सुबह जागा तो चाहत जागी और सोचा शुरुआत से सालों बाद तक जितना लिखता रहा उस पर नज़र डालनी चाहिए । अजीब एहसास है किसी दोस्त की दोस्ती किसी अपने का अपनत्व किसी का प्यार जिस की आरज़ू में लिखना शुरू किया अठरह साल से उम्र में चौहत्तर साल का होने पर भी खड़ा हूं उसी जगह जिस जगह से चलना शुरू किया था अजनबी भीड़ में अकेला । 30 जुलाई को अंतराष्ट्रीय मित्रता दिवस मनाया जाता है संयुक्त राष्ट्र ने 2011 में घोषणा की थी दुनिया में शांति प्यार विश्वास की भावना स्थापित करने को , शायद उस के बाद भूल गए ये समझने को कि हासिल क्या हुआ । कुछ मेरा भी हाल ऐसा ही है , आज की पोस्ट ऐसे ही विषय पर है 1990 वीं पोस्ट ब्लॉग पर पांच लाख व्यूज हुए हैं लेकिन कितने समझ सकते हैं मुझे और मेरी भावनाओं को मालूम नहीं है । कहना कठिन है कि दिल ख़ुश है न ही उदास है कोई दूर है न कोई पास है , अभी तक बाक़ी अधूरी प्यास है आशा का दामन थामा है बुझती आस है । सारा आलम  ढूंढ़ता है कहीं तो कोई जगह मिले सुकून से चैन से रहने को पल दो पल ही ठहरने को किसी को हासिल नहीं हुआ , दौड़ते रहते तलाश में । उम्र भर हमने मुहब्बत ही बांटी है सभी को बदले में मिलती है कभी तिजारत कभी सियासत कभी नफरत भी क्यों आखिर । लोग मिलते हैं आमने सामने तब भी बातें करते हैं जिनका कोई अर्थ नहीं होता बस औपचरिकता निभानी होती है । अक़्सर होता है बताते हैं खुद की बात सुनकर भी सुनते नहीं दूसरों की बात । संबंधों में कोई गर्मी नहीं है कोई बर्फ जैसे जमी हुई है मतलब की स्वार्थ की दुनियादारी निभाने की । सभी से शहर भर से जान पहचान चेहरे भर की असली पहचान से कोई मतलब नहीं है अजीब लगता है सामने बैठा व्यक्ति कितनी दूर महसूस होता है । मन तक कोई नहीं पहुंचता है । हंसते मुस्कुराते लोग भीतर से ग़मग़ीन उदास रहते हैं गहरी नदियों की प्यास रहते हैं । किसी शायर की बहुत पुरानी ग़ज़ल दोहराता हूं ।     
 
रंग जब आस - पास होते हैं , रूह तक कैनवास होते हैं । 
 
अहले - दानिश सभी किसी न किसी , उम्र तक देवदास होते हैं । 
 
खून दे दे के भरना पड़ता है , दर्द खाली ग्लॉस होते हैं । 
 
सैंकड़ों में बस एक दो शायर , गहरी नदियों की प्यास होते हैं । 
 
हमने यूं ही मिज़ाज़ पूछे थे  , आप नाहक उदास होते हैं ।  
 
 मनमोहक सूर्यास्त के रंग: एक दृश्य आनंद

जून 26, 2025

POST : 1989 नादान हैं सच से अनजान हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

      नादान हैं सच से अनजान हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

समझते हैं भगवान संविधान धरती आसमान कुछ भी नहीं जिस की समझ उनको नहीं है , पढ़ना जानते नहीं लिखना सीखा नहीं , सोशल मीडिया पर कचरा भी हीरा दिखाई देता है उसकी चमक से उनकी आंखें चुंधिया जाती हैं । व्हाट्सएप्प पर संदेश देखते हैं गीता उपदेश रामायण की बात होने का तमगा लगा हुआ उनको लगता है यही अटल सत्य है परखने की आवश्यकता नहीं है धार्मिक ग्रंथ में क्या लिखा क्या नहीं , क्या करना समझना बस इतना बहुत है धार्मिकता के नाम पर कुछ भी स्वीकार है । देश की राजनीति का बस यही आधार है हारना ही जीत है जीतना ही हार है , सत्ता की लूट पर उनका ही अधिकार है जिनको सरकार की कही हर बात मंज़ूर है आदमी आदमी कहां है बन गया इश्तिहार है । कौन लड़ता आजकल सच की है लड़ाई है झूठ की कीमत बड़ी है बाज़ार में ग़ज़ब महंगाई है आईनों की झूठों के दरबार  में । कौन दोस्त कौन दुश्मन अपना पराया कौन है जो भी कुर्सी पर है आसीन बस वही दाता है भीख की महिमा जिसने सुनाई समझाई है । हमने पढ़ी थी रचना लेखक व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई , आवारा भीड़ के ख़तरे , बात देर से समझ आई । 
 
सोशल मिडिया ने जानकारी आसान कर दी है किसी स्कूल कॉलेज की ज़रूरत नहीं , शिक्षक की आवश्यकता नहीं और चिंतन व्यर्थ प्रतीत होता है । अजीब नशा है खुद को सभी से समझदार समझने में आनंद की अनुभूति होती है , सामने वास्तविकता खड़ी दिखाई दे भी तो अनदेखा करना जानते हैं । चाटुकारिता की महिमा अपार है जो उस पार डूबा पहुंचा इस पार जिधर आजकल की सरकार है । कथा संक्षिप्त है व्यथा की बात करना बेकार है कुछ नहीं करना सीखनी जय जयकार की हुंकार है । खोना है अपने अस्तित्व को खुद अपनी ही आत्मा को छलना है अपनी बेचैनी बदहाली को खूबसूरत जहां बताना है । सबको आता नया तराना है राग दरबारी गाकर ख़ुशी से मस्ती में सत्ता को रिझाना है सब खोना है कुछ पाने का बहाना है । ये अफसाना पुराना है उनका यारों से गहरा याराना है कुछ नहीं करना अपनों को सब बेचना खुद मौज उड़ाना है । दुनिया को छोटा खुद को महान बताते हैं सितम ढाते हैं बौने पहाड़ चढ़ इतराते हैं । 
 
हर दिन कोई जश्न मनाते हैं हादिसों को भी कोई अवसर समझ कर सभाओं में सड़कों पर भीड़ बनकर लोग कदम से कदम मिलाकर सुर ताल में शोकगीत पर झूमते हैं क़ातिल को मसीहा बताते हैं । वर्तमान भविष्य को देखना ही नहीं किसी पुरातन युग में जीते हैं ख्वाबों की दुनिया बसाते हैं । सभी पतित हैं दलदल में धंसते जा रहे हैं उनको बाहर निकालना कठिन है खुद भी उनकी तरह कीचड़ में नहाने का सुःख संतोष उठाते हैं । आधुनिकता की चाह में युवक कुछ महत्वांकाक्षी ख़तरनाक विचारधारा वाले के हाथ की कठपुतलियां बन कर बदले में ज़हर मुफ़्त में ख़ाकर कुछ भी नहीं करने को महान कार्य बतलाते हैं । ऐसी भीड़ विध्वंसक होकर समाज को भयभीत करने लगी है सभी आदर्शों नैतिक मूल्यों लोकतंत्र का विनाश करने को महान कह रही है ।भटके हुए दिशाहीन हताश नवयुवक ख़लनायक बनने को व्याकुल हैं क्योंकि जानते हैं कि सत्ता और धन दौलत शोहरत की सीढ़ी अपराध जगत से राजनीति के शिखर तक पहुंचाती है । जिधर देखो निकलती कोई बरात है दुल्हन कौन कोई नहीं जानता , हर कोई खुद को दूल्हा समझता है दोधारी तलवार सभी के पास है मत पूछो क्या हालात है दिन भी काली अंधियारी रात है ।  
 
 राजा बोला रात है राणी बोली रात है मंत्री बोला रात है संत्री बोला रात है यह  सुबह सुबह कि बात है -गोरख पांडे
 
 

जून 25, 2025

POST : 1988 संविधान ज़िंदा है जनता की बदौलत ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

 संविधान ज़िंदा है जनता की बदौलत ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया  

कुछ लोग समझते ही नहीं कि संविधान कोई जिस्म नहीं है भारत की जनता की आत्मा है रूह है , सच तो ये है ऐसे लोग कभी संविधान क्या लोकतंत्र के भी कायल नहीं रहे हैं । जो कहते हैं पचास साल पहले संविधान की हत्या हुई थी उनसे पूछना चाहिए बिना जीवित संविधान आपको सत्ता और शासन का अधिकार कैसे मिल गया । आपात्काल का विरोध हमने हमेशा किया है डंके की चोट पर किया है लेकिन बिना सोचे विचारे किसी विषय को शोर मचाना अपने राजनीतिक फायदे के लिए आपत्तिजनक है ।  हैरानी होती है जो जेल जाने के डर से इमरजेंसी में छुपते फिरते थे आज संविधान और लोकतंत्र की बात करते हैं , जिन्होंने कभी आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ी उनको संविधान लोकतंत्र खिलौने लगते हैं । आजकल सभी दलों ने संविधान कानून और न्यायपालिका से चुनावी प्रणाली को खिलौना समझ लिया है जिस को खेलना तोड़ना  उनको अपनी गंदी राजनीति का माध्यम लगता है । संविधान कोई किताब नहीं है जिसको कोई मिटा सकता है संविधान इक परिकल्पना है भारतवासियों का संकल्प है जिसे अंगीकार किया गया स्वीकार किया गया और उसको कोई ख़त्म नहीं कर सकता है कोशिश करने वाले खुद मिट जाते हैं । हत्या होने का अर्थ समझते हैं लगता है नहीं जानते कि हत्या किस की कैसे की जाती है और क़ातिल को क्या सज़ा मिलती है । जिस सदन में संसद विधानसभाओं में अपराधी माननीय कहलाते हैं उसे संविधान की चर्चा करने की समझ क्या होगी और कोई अधिकार नहीं हो सकता है । 
 
सर्वोच्च न्यायालय को आपत्ति जतानी चाहिए जब कोई संविधान की हत्या होने की बात करता है क्योंकि अगर संविधान जीवित नहीं है तो सभी लोकतांत्रिक संस्थाएं संघठन बिना बुनियाद खड़ी नहीं रह सकती हैं । संविधान किसी राजनीतिक दल की या सभी दलों की विरासत नहीं है ये देश की करोड़ों की जनता की अपनी पहचान है जिस से खिलवाड़ करने की अनुमति किसी राजनेता या राजनैतिक दलों को हासिल नहीं है । जनता को चिंता है देश की वास्तविक आज़ादी की जिस में सभी इक समान हों लेकिन जिन्होंने लोगों को बांटने की राजनीति की है उनको जनता के सवालों से बचने का ढंग यही समझ आया है कि संविधान के होने पर ही सवालिया निशान लगाया जाये , संविधान कभी मिटाया नहीं जा सकता है जिस की शंका है वो है सही मायने में लोकतंत्र की स्थापना , उसे लेकर तीस साल पहले इक व्यंग्य मैंने लिखा था जो कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था , नीचे पढ़ सकते हैं । 
 
 

              तलाश लोकतंत्र की ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

       जाने कितने वर्ष हो गये हैं इस मुकदमें को चलते हुए , मगर देश की सुरक्षा की बात कह कर इसे अति गोपनीय रखा गया है । किसी को मालूम नहीं इसके बारे कुछ भी , उनको भी जिनका दावा रहता है सब से पहले हर इक बात का पता लगाने का । आज मैं आपको उस मुकदमें का पूरा विवरण बता रहा हूं बिना किसी कांट छांट के , बिना कुछ जोड़े , घटाये । जनता का आरोप है कि उसने लोकतंत्र का क़त्ल होते अपनी आंखों से देखा है । नेताओं ने मार डाला है लोकतंत्र को । क्योंकि कातिल सभी बड़े बड़े नेता लोग हैं इसलिये पुलिस और प्रशासन देख कर भी अनदेखा कर रहा है । अदालत ने पूछा कि क्या लोकतंत्र की लाश बरामद हुई है , उस पर किसी ज़ख्म का निशान मिला है , पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट क्या कहती है । जनता ने बताया है कि लोकतंत्र को एक बार नहीं बार बार क़त्ल किया जाता रहा है और उसकी लाश को छिपा दिया जाता रहा है । नेताओं ने परिवारवाद को पूंजीवाद को लोकतंत्र का लिबास पहना कर इतने सालों तक देश की जनता को छला है । अदालत ने जानना चाहा है कि क्या कोई गवाह है जिसने देखा हो क़त्ल होते और पहचानता हो कातिलों को । जनता बोली हां मैंने देखा है । अदालत ने पूछा है कि खुलकर बताओ कब कैसे कहां किसने किया क़त्ल लोकतंत्र को । जनता ने जवाब दिया कि आज़ादी के बाद से देश में हर प्रदेश में इसका क़त्ल हुआ है । कभी विधानसभाओं में हुआ है तो कभी संसद में हुआ है । अदालत को सबूत चाहिएं थे इसलिये जनता ने कुछ विशेष घटनाओं का विवरण प्रस्तुत किया है । एक बार आपात्काल घोषित करके लोकतंत्र को कैद में बंद रखा गया था पूरे उनीस महीनों तक । जब ये मुक्त हुआ और जनता ने राहत की सांस ली तब इसको दलबदल का रोग लग गया और ये अधमरा हो गया था ।

       हरियाणा प्रदेश में इसको जातिवाद ने अजगर की तरह निगल लिया था , एक बार महम उपचुनाव में राजनीति के हिंसक रूप से लोकतंत्र लहू लुहान हो गया था । तब भी इसका क़त्ल ही हुआ था मगर उसको एक दुर्घटना मान लिया गया । कितने ही राज्यों में लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही चलती रही और चल रही है । पिता मुख्यमंत्री है तो सारा परिवार ही शासक बन जाता है । किसी नेता का निधन हो जाये तो लोक सभा , राज्य सभा अथवा विधान सभा की जगह उसके बेटे , पत्नी , दामाद को मिलना विरासत की तरह क्या इसे लोकतंत्र माना जा सकता है । बिहार में , पश्चिम बंगाल में हिंसा में मरता रहता है लोकतंत्र । साम्प्रदायिक दंगों में दिल्ली , पंजाब , उत्तर प्रदेश , गुजरात और कितने ही अन्य राज्यों में लोकतंत्र की हत्या की गई है । भ्रष्टाचार रूपी कैंसर इसको भीतर ही भीतर खोखला कर रहा है कितने ही वर्षों से , बेजान हो चुका है लोकतंत्र । वोट पाने के लिये जब धन का उपयोग होता है तब भी लोकतंत्र को ही क़त्ल किया जाता है । सांसद खरीदे गये , विधायक बंदी तक बनाये गये हैं बहुमत साबित करने के लिये । संसद और विधान सभाओं में नेता असभ्य और अलोकतांत्रिक आचरण करते हैं जब , तब कौन घायल होता है ।

     अभी तक सरकारी वकील चुपचाप बैठा था , ये सब दलीलें जनता की सुन कर वो सामने आया और कहने लगा , जनता को बताना चाहिये कि कब उसने लोकतंत्र को भला चंगा सही सलामत देखा था । जनता ने जवाब दिया कि पूरी तरह तंदरुस्त तो लोकतंत्र लगा ही नहीं कभी लेकिन अब तो उसके जीवित होने के कोई लक्षण तक नज़र नहीं आते हैं । आप किसी सरकारी दफ्तर में , पुलिस थाने में , सरकारी गैर सरकारी स्कूलों में , अस्पतालों में  , कहीं भी जाकर देख लो , सब कहीं अन्याय और अराजकता का माहौल है जो साबित करता है कि देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था चरमरा चुकी है । सरकारी वकील ने तर्क दिया है कि जब किसी का क़त्ल होता है तो उसकी लाश का मिलना ज़रूरी होता है , मुमकिन है वो कहीं गायब हो गया हो , अपनी मर्ज़ी से चला गया हो कहीं । बिना लाश को बरामद किये क़त्ल का पक्का सबूत नहीं माना जा सकता इन तमाम बातों की सच्चाई के बावजूद । जनता का कहना है कि उसको शक है नेताओं ने ही उसको क़त्ल करने के बाद किसी जगह दफ़न किया होगा । सरकारी वकील का कहना है कि अदालत को जल्दबाज़ी में कोई निर्णय नहीं करना चाहिये । लोकतंत्र को लापता मान कर उसको अदालत के सामने पेश होने का आदेश जारी कर सकती है या चाहे तो उसको जिंदा या मुर्दा होने की जानकारी देने वाले को ईनाम देने की भी घोषणा कर सकती है । सब से पहला सवाल ये है कि क्या वास्तव में लोकतंत्र था , कोई सबूत है उसके कभी जीवित होने का , अगर किसी के जिंदा होने तक का ही सबूत न हो तो उसका क़त्ल हुआ किस तरह मान लिया जाये । लगता है इस मुकदमें में भी नेता संदेह का लाभ मिलने से साफ बरी हो जायेंगे , जैसे बाकी मुकदमों में हो जाते हैं । अदालत ने सरकार को कहा है कि अपने प्रशासन को और पुलिस को आदेश दे लोकतंत्र को ढूंढ कर लाने के लिये , कोई समय सीमा तय नहीं है । जनता को अभी और और इंतज़ार करना होगा । लोकतंत्र की तलाश जारी है ।

        जाने कैसे इक नेता को किसी तहखाने में घायल लोकतंत्र मिल ही गया और उसने जनता को देश की तमाम समस्याओं से मुक्त करवाने का झूठा वादा कर सत्ता हासिल कर ली । मगर सत्ता मिलते ही उस ने सच्चे संविधान में वर्णन किये लोकतंत्र की जगह किसी छद्म झूठे लोकतंत्र को स्थापित करने का काम शुरू कर दिया उसके होने के निशान तक को मिटाने लगा । खुद को सबसे अच्छा और मसीहा या भगवान कहलाने को रोज़ तमाशे और आडंबर करने लगा जिस से बहुत लोग सम्मोहित होकर उसकी जय जयकार करने लगे । उनको अपने नेता का झूठ और झूठी देशभक्ति वास्तविक सच और संविधान वाले लोकतंत्र से अधिक पसंद आने लगी । धीरे धीरे लोग भूलने लगे हैं आज़ादी का अर्थ और लोकतंत्र की परिभाषा तक को । किसी राजनीतिक दल काखोटा सिक्का चलने लगा खरा बनकर और जो खरे थे उनको कूड़ेदान में फेंक दिया गया । अदालत ने लोकतंत्र की तलाश करने वाली फ़ाइल बंद करवा दी है हमेशा हमेशा को । मेरी इक ग़ज़ल का शेर याद आया है , ' तू कहीं मेरा ही क़ातिल तो नहीं , मेरी अर्थी को उठाने वाले । 
 
 Blog: जीवंत भावना है संविधान, समीक्षा असम्मान का भाव नहीं, बल्कि ठहराव के  प्रति असहमति | Jansatta

जून 22, 2025

POST : 1987 पचास साल से जारी सफ़र ( 1975 से 2025 ) डॉ लोक सेतिया

  पचास साल से जारी सफ़र ( 1975 से 2025 ) डॉ लोक सेतिया 

आज लगता है बात वहीं से शुरू की जाए जिस दिन ज़िंदगी ने इक राह चुनी थी इक मकसद इक संकल्प का चयन किया था । कुछ पोस्ट पहले लिखता रहा हूं आज ख़ुद को उसी कसौटी पर परखना चाहता हूं , ये समझना कि किस सीमा तक कायम रहा हूं । मुमकिन है कभी पांव डगमगाने लगे हों लेकिन चाहे जैसे भी हों हालात मैंने उस राह को कभी छोड़ा नहीं है । हासिल क्या हुआ कहना ज़रूरी नहीं है क्योंकि ऐसी राहों की कोई निर्धारित मंज़िल कभी नहीं होती है न ही कोई स्वार्थ जुड़ा होता है खुद को अनुभव होता रहता है कि भीड़ नहीं बनकर चला और पांव जमाए रखे हैं कभी फिसलन का शिकार नहीं हुआ । ऐसे में जब तमाम लोग मुझको ही नहीं हर किसी को ऐसी कठिन रास्तों को छोड़ कर आसान राहों को अपनाने की बात करते हैं खुद अपनी मानसिकता अपनी सोच को बनाये रखना संभव हुआ तो बड़े ही संयम और विवेक एवं आत्मविश्वास के सहारे ही । अन्यथा तमाम दुनिया वाले निस्वार्थ सामाजिक समस्याओं की खातिर कोशिश करने और निडरता पूर्वक सही बात कहने और गलत का विरोध खुलकर करने को नासमझी ही नहीं पागलपन समझते हैं । ऐसी राहों पर चलने में कठिनाईयां आती हैं और अधिकांश लोग आपको अकेला छोड़ देते हैं , खुद ही अपनी कश्ती को मझधार और तूफानों से टकराने की कोशिश अंजाम से घबराने नहीं देती है । कभी कभी मन में विचार आते हैं कुछ भी बदलता क्यों नहीं बल्कि और ख़राब हालात दिखाई देते हैं तब मुझे कभी सरिता पत्रिका के संपादक विश्वनाथ जी का भेजा ख़त ध्यान में आकर संबल का कार्य करता है ।  
 
सरिता पत्रिका में इक कॉलम नियमित प्रकाशित हुआ करता था जिस में कहा जाता था कि पढ़ लिख कर आपको अपने लिए नौकरी कारोबार घर बनाने तक सिमित नहीं रहना चाहिए । आपका कर्तव्य है कि जिस समाज से आपको बहुत कुछ मिला है उसको कुछ लौटाना भी ज़रूरी है , और कुछ विकल्प कुछ रास्ते बताये जाते थे कि उन में से कोई भी आपको पसंद है उसी को अपना सकते हैं । ये उन्हीं दिनों की बात है जब लोकनायक जयप्रकाश जी का संपूर्ण क्रांति अंदोलन जारी था , 25 जून 1975 को जेपी जी का भाषण सुनकर , लगा जैसे कोई नई रौशनी बनकर मार्गदर्शन कर गया कि मुझे यही करना है जब भी जहां भी कुछ गलत हो अनुचित हो रहा हो असामाजिक अथवा अलोकतांत्रिक घट रहा हो उसका विरोध करना चाहिए ।
 
 लेकिन करीब बीस साल बाद मैंने किसी क्षण निराश होकर विश्वनाथ जी को पत्र लिख कर डाक द्वारा भेजा , ऐसा कहते हुए की इतने साल से कोशिश करते का नतीजा कुछ भी नहीं दिखाई दिया है । कुछ दिन बाद मुझे उनका भेजा पत्र मिला जिस में लिखा गया था । ' आपने ऊंचाई से पर्वतों से बहते पानी को देखा होगा , तब उस पानी का वेग तेज़ गति से सामने रास्ते में आने वाले पत्थरों को चटानों को काटता हुआ आगे बढ़ता हुआ दिखाई देता है । आपको प्रतीत होगा कि पत्थर चटान कोई रुकावट नहीं डाल पाये और तेज़ धारा में उनका अस्तित्व मिटता गया और वे रेत बन कर रह गए । लेकिन ये सच नहीं है बल्कि उनके अवरोध से पानी का वेग घटकर कम होता गया जिस से वही बहता पानी हमारे लिए उपयोगी साबित हुआ प्यास बुझाने से लेकर ज़मीन में खेती करने के काम आकर । अन्याय भ्र्ष्टाचार भी हमारे विरोध करने के बाद भी जितना बढ़ता गया है अगर कोई विरोध या अवरोध नहीं होता तब कितना विनाशकारी होता '। तब उसके बाद कभी वापस मुड़कर नहीं देखा और किसी अंजाम की परवाह कभी नहीं की है लक्ष्य एक ही है कोशिश करते रहना समाज को बेहतर बनाने को रौशनी बनकर अंधकार मिटाने को दिया बनकर खुद जलना है उम्र भर ।     
 
 Best Motivational Shayari in Hindi Status | मोटिवेशनल शायरी स्टेटस हिंदी

जून 19, 2025

POST : 1986 कब होगी पूरी , इक हसरत अधूरी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

  कब होगी  पूरी  , इक  हसरत अधूरी ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

बस इक नॉबेल पुरूस्कार की चाहत है , सब कुछ थोड़ा है थोड़े की ज़रूरत है , ख़ुद से खफ़ा खफ़ा हैं दोस्त कहते हैं मगर अदावत है उनकी अपनी यही इक मुहब्बत है । रक़ीब हैं दोनों ख़ुद को बड़ा नामावर समझते हैं बदनाम हुए हैं शोहरत की ख़ातिर सब समझते हैं कैसे हुई मैली चादर समझते हैं । ऐसी हालत होती है जब ढलती उम्र में किसी को हसरत होती है ख्याति दुनिया भर में हो महान हैं कुलीन हैं सबसे श्रेष्ठ उत्कृष्ट हैं । मुश्किल बड़ी है जीवन भर ऐसा आचरण करना नहीं सीखा बल्कि अपने स्वार्थ से बढ़कर कुछ नहीं माना दिल चाहता है काश इक नॉबेल पुरुस्कार उनकी झोली में डाल दे कोई जिस से आभास हो कि उनका जीवन ही परोपकार समाज कल्याण को समर्पित रहा है । जॉर्ज सविले का कथन है कि शोहरत की चाहत इक जुर्म बन जाती है जिस पल आप उसकी कामना करते हैं , ये आपके अच्छे आचरण और ऊंचे आदर्शों का पालन करने से ख़ुद ब ख़ुद मिलती है । एक अनार सौ बिमार नहीं आजकल जिसे देखो खुद को ख़ुदा से बढ़कर समझने लगा है । इतने नकली भगवान दुनिया में पैदा हो गए हैं कि असली ईश्वर को पहचानना असंभव हो गया है । 
काठ की हांडी दोबारा नहीं चढ़ती समझते थे लेकिन चतुराई से दो ही नहीं तीन बार भी दाल पकाने का कीर्तिमान स्थापित करने वाले पहले कहते थे इतनी हसरत काफ़ी है मगर जब इक आरज़ू पूरी हुई तो दिल और मांगता है । हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले । राजनेताओं में कभी मसीहाई नहीं मिलती लोग पछताते हैं मसीहा मानकर अक़्सर कहते हैं ' तो इस तलाश का अंजाम भी वही निकला , मैं देवता जिसे समझा था आदमी निकला । 
 
कभी लोग लिखते थे और साहित्य पुरुस्कार मिल जाते थे , अब ईनाम पाने पुरुस्कृत होने को लालायित रहते हैं मिल भी जाये तो लगता है और बड़ा पाने के हकदार थे । समाजसेवा धर्म उपदेश से लेकर अभिनय कला क्षेत्र तक ही नहीं उद्योग धंधा कारोबार नहीं योग तक सिखाने वाले सभी धन दौलत पाकर आगे और क्या क्या नहीं चाहते हैं । संसद सदस्यता से ऊपर पद्मश्री पद्मविभूषण ही नहीं भारत रत्न भी सरकार रेवड़ियों की तरह बांटती है । बड़े अधिकारी से न्यायधीश तक सेवानिवृत होने के उपरांत बहुत बाक़ी रहता है पाने की चाहत के लिए । संतोष रखने का सबक दुनिया को पढ़ाने वाले बेचैन रहते हैं अगर लगता है ढलान पर हैं फ़िसलने का भय पहाड़ पर खड़े लोगों को सताता है तो नींद चैन सब खो बैठते हैं । हर कोई सोचता है मर कर भी ज़िंदा रहना है किसी तरह इतिहास में नाम दर्ज होना चाहिए । बशीर बद्र कहते हैं , ' शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा है ,  जिस शाख पे  बैठे हो टूट भी सकती है ' । चकबस्त जी भी  कहते हैं , ' बाद ए फ़ना फ़िज़ूल है नाम ओ निशां की फ़िक्र , जब हम न रहे तो रहेगा मज़ार क्या '। 
 
कितनी अजीब विडंबना की बात है , सभी मतलबी हैं बिना मतलब कभी कुछ भी नहीं करते लेकिन चाहत रखते हैं कि दुनिया उनको महात्मा संत सन्यासी से बढ़कर कोई फ़रिश्ता था ज़मीं पर आया कल्याण करने को अवतरित हुआ था । आदमी इंसान भी नहीं बनता मगर कहलाना भगवान चाहता है , ख़ुद अपने आप को छलना चाहता है । जय और वीरू की यारी को क्या हुआ , एक आसमान पर पांव रखने को व्याकुल है दूसरा हवाओं को मुट्ठी में कैद करने को आतुर है । घायल मन का पागल पंछी उड़ने को बेकरार , पंख हैं कोमल  आंख है धुंधली जाना है सागर पार । अब कोई नहीं समझा सकता कि राह कहां से भूले थे और कब भटक कर अपनी सीमा लांघ कर किसी और की ज़मीं पर अपना डेरा जमाने लगे हैं । झगड़ा बंद करवाने वाले खुद धमकाने लगे हैं सरपंच जी अपनी असलियत बताने लगे हैं । ये ज़माना पंचायती राज का नहीं है आप किस बात की धौंस दिखाने लगे हैं , कहावत है नज़रें झुकाने वाला नज़रें मिलाने लगे , ख़ंज़र दिखाने वाला गले लगाने लगे तो समझना चक्रव्यूह रचा जा रहा है , मगर यहां उल्टा हो रहा है । पहले गले से मिले गलबहियां डालते थे अब गले पड़ने लगे हैं । नॉबेल पाने को शराफ़त छोड़ शरारत करने लगे हैं यार को आंखें दिखाने की नौबत आ गई है क्या मुसीबत की क़यामत आई है । लगता है सभी बड़े बड़े ईनाम पुरुस्कार इतने छोटे और सस्ते हो गए हैं कि भिखारी भी अपने कटोरे में भिक्षा मांगते कहते हैं , इक अधूरी चाहत है झोली में कोई नॉबेल मिल जाये जीवन का लक्ष्य यही है ।   
 
  
 Committee says 285 people and organisations nominated for the 2024 Nobel  Peace Prize | World News - The Indian Express
 
 
 
 
 

जून 13, 2025

POST : 1985 धुंध से आना धुंध में जाना ( शून्य से शून्य तक ) डॉ लोक सेतिया

 धुंध से आना धुंध में जाना  ( शून्य से शून्य तक  ) डॉ लोक सेतिया 

भला कीजे भला होगा , बुरा कीजे बुरा होगा , 
बही लिख लिख के क्या होगा ,  यहीं सब कुछ चुकाना है ।
 
संवेदना खो जाती है जब लोग किसी अनहोनी पर खामोश नहीं रहते बल्कि शोर शराबा करने लगते हैं । किसी ख़ास घटना की बात नहीं कर रहा वास्तव में हर घड़ी हर दिन किसी न किसी विचलित करने वाली बात पर लोग सोचे समझे बगैर निष्कर्ष निकालने लगते हैं । कुछ अपने कारोबार का विस्तार तलाश करते हैं और उसी को लेकर आपको रौशनी नहीं दिखाते अंधेरे में अंधविश्वास की राहों पर लाने का प्रयास करते हैं । नासमझ लोग दिन समय की संख्या से ढूंढते हैं कभी उसी अंक से क्या जोड़ा जा सकता है । कुछ लोगों को हर घटना  को ग्रहों की स्थिति से जोड़ने का हुनर आता है आपको दिन में तारे दिखाना उनका व्यवसाय है । कभी कभी जब अधिकांश साधारण लोग स्तब्धता में निःशब्द होते हैं तब भी तमाम लोग सोशल मीडिया पर पोस्ट फोटो वीडियो और कुछ अधकचरी जानकारी देते हुए अपनी वाणी अपनी लेखनी से खुद भटकन का शिकार हो आपको भी भटकाने की कोशिश करते हैं । मकसद कुछ नहीं खुद को सुर्ख़ियों में रहने की चाहत होती है । कोई आपको किसी धार्मिक किताब की बात करता है तो कोई अचानक किसी पुरातन युग की किसी की बात का मतलब अपनी सुविधा से निकालता है ये साबित करने को कि ऐसा कभी घोषित किया गया था । 
 
आपको अजीब लग रहा है ये क्या बात कहना चाहता हूं , मुझे भी समझ नहीं आता की कुछ भी समझना नहीं सिर्फ समझाना किसको किस लिए सभी चाहते हैं । कभी किसी ने परामर्श दिया था इक किताब को पढ़ना जब कुछ भी समझ नहीं आता हो कोई रास्ता दिखाई देगा उसे पढ़ कर अर्थ जानकर । कोई धार्मिक किताब नहीं है कोई आस्था अनास्था का विषय नहीं है , कभी सदियों पहले जाने कैसे कुछ लोगों ने लोककथाओं और नीतिकथाओं जैसी आसानी से समझ आने वाली कहानियों से जीवन का ढंग और सही मार्ग दिखलाने को उनका संकलन किया था । बड़े बूढ़े बज़ुर्गों की अनुभव की समझ से बताई बातों का गहन मतलब निकलता था जैसे किसी पिता का अंतिम समय बेटों को गढ़े धन का रहस्य बताना उनको मेहनत करने को विवश करता है । कुछ ऐसी इक कथा है जिस में जैसा करोगे वैसा पाओगे की बात कही है , ऊपरवाले की लाठी से कितनी बातें हैं शामिल उस में कितने उदाहरण हैं कितने निहितार्थ हैं । 
 
  पहले भी कितनी बार मैंने लोक - कथाओं , नीति - कथाओं से पौराणिक कहानियों , पंच तंत्र की कहानियों की चर्चा की है जो जैसा करता है परिणाम उसी तरह मिलता है । समाज सरकार से प्रशासन तक जब सभी मार्ग से भटक कर अपने अपने स्वार्थों में अंधे होकर विनाश की राह चलने लगे हैं तो परिणाम विनाशकारी मिलना है स्वीकारना ही पड़ेगा । बोया पेड़ बबूल का आम कहां से खाय , शासक वर्ग धनवान लोग ताकतवर लोग जब निरंकुश होकर मनमानी करते हैं तब खुद उनका नहीं देश समाज का हाल बर्बादी के सिवा कुछ भी नहीं हो सकता है । ऐसे शासकों का गुणगान करना अनुचित को उचित बताना भले किसी लोभ से हो अथवा किसी डर से अनुचित ही होगा । आपकी कथनी जैसी है करनी भी उसी जैसी होनी चाहिए । जब तमाम लोग पाप और अपराध को उचित बताने लगते हैं तब समाज को कुमार्ग को अग्रसर करते हैं चाहे बाद में पछताते हैं । अब पछताए क्या होत , जब चिड़िया चुग गई खेत । हैरानी की बात है जिसे भी देखते हैं उसी डाल को काटने में लगा है जिस पर बैठा हुआ है ,  हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम ए गुलिस्तान क्या होगा । ये सभी कहावतें सामने सच हुई खड़ी हैं फिर भी हम अनजान हैं परिणाम से तो क्या हासिल होगा । समाज शासन प्रशासन और आदमी जैसा व्यवहार करते हैं नियति वैसा ही परिणाम देती है । 
 
कभी ऐसा भी होता है शासक से लेकर साधरण जन सामान्य तक अपने मार्ग से भटक कर झूठ की राह पर चलने लगते हैं और अन्याय अत्याचार के पक्ष में दलीलें देने लगते हैं । ईश्वर से धर्म तक को लेकर सभी उपदेश देते हैं आचरण विपरीत करते हैं । विधाता अथवा कुदरत प्रकृति अपना न्याय अपना कर्तव्य निभाने को इस तरह से दुनिया को डांवाडोल करते हैं जैसे धरती आकाश हवा सागर से जीव जंतु पेड़ पौधे सभी का ढंग परिवर्तित होकर भयभीत करता है । आपको मालूम है चेतावनी की बात समझना ज़रूरी होता है , खेद है हमने समझना छोड़ दिया है जब रौशनी करने वाले आग लगाते हैं और ऐसी भीषण आग से घना अंधकार फैलता है तब सभी कुछ ख़ाक़ में मिल जाता है जलकर राख़ हो जाता है । आपको विज्ञान हर चीज़ का कारण कभी नहीं बता पाएगी क्योंकि विज्ञान अथवा आर्टिफीसियल इंटेलीजैंस की इक निर्धारित सीमा है जितना उस में भरा गया है उसी से कुछ अंश निकलते हैं जबकि अंतरिक्ष की तरह सृष्टि और धरती पाताल से गगन और उस के बीच शून्य की कोई सीमा कोई नहीं जानता है । जब कुछ ऐसा घटित होता है जिस से हम लोग चकित रह जाते हैं तब कभी नहीं समझते कि कुछ भी होता है तो पीछे कोई कारण होता है , मगर हमारी सोच नज़र सिर्फ इक दायरे तक जाती है उस पार नहीं जानते कितना रहस्य अभी जिस से अनभिज्ञ है संसार । क्या हमने ईश्वरीय शक्ति को मानना छोड़ दिया है , अगर नहीं तो जब समाज का हर वर्ग सही मार्ग छोड़ किसी न किसी गलत मार्ग पर चलने लगा है तब वह सर्वशक्तिमान सब देख कर अनदेखा कैसे कर सकता है । कुछ भी उसकी मर्ज़ी बिना नहीं होता तो किस अपराध पाप की सज़ा मिलती है समाज को अनहोनी घटनाओं के रुप में सोचने और चिंतन की बात है । शायर साहिर लुधियानवी जी की रचना फिल्म धुंध का गीत है , किसी ने कोशिश की है उस को विस्तार देने की मगर मुझे ज़रूरत नहीं कुछ जोड़ने घटाने की , उनकी बात अपने आप संपूर्ण है पढ़िए और समझिए । 
 
संसार की हर शाय का इतना ही फ़साना है   , 
इक धुंध से आना है इक धुंध में जाना है ।  
 
ये राह कहां से है ये राह कहां तक है  , 
ये राज़ कोई रही समझा है न जाना है ।  
 
इक पल की पलक पर है ठहरी हुई ये दुनिया , 
इक पल के झपकने तक हर खेल सुहाना है ।
 
क्या जाने कोई किस पर किस मोड़ पर क्या बीते , 
इस राह में ऐ राही हर मोड़ बहाना है ।   
 
हम लोग खिलौना हैं इक ऐसे खिलाड़ी का , 
जिस को अभी सदियों तक ये खेल रचाना है ।  
 
 Sansaar Ki Har Shay Ka Itna Hi Fasana Hai| By Dr.Sabina Toppo|Mahendra  Kapoor|Dhund|Old Is Gold|Ravi - YouTube
 

जून 12, 2025

POST : 1984 राजनीति की आत्मकथा ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया

    राजनीति की आत्मकथा ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया  

ये पुरातन काल की बात है  , देखा तो नहीं ऐसा भी ज़माना हुआ करता था लोग वास्तव में आदमी जैसे कार्य किया करते थे । जनता खुशहाल थी शासक कभी चैन से नहीं रहते थे उनको खुद अपनी नहीं देश राज्य और समाज की फ़िक्र सताती थी । अच्छा शासक प्रशासक होना कदम कदम इक इम्तिहान से गुज़रना होता था और कोई भी तानाशाह अत्याचारी शासक कहलाना कभी नहीं चाहता था । राजा होकर भी जनता की सेवा अपना धर्म समझते थे कोई राजधर्म पढ़ाया समझाया जाता था जिस का पालन अपना सभी कुछ न्यौछावर कर भी करना ज़रूरी जाये , प्राणों से प्रिय था अपना कर्तव्य पालन करना । ऐसा करने में कोई सुख सुविधा नहीं मिलती थी दिन रात परिश्रम करते थे मगर इक अनुभूति आत्मिक शांति मिलती थी जिसे सभी ऐशो आराम से बढ़कर समझा जाता था अनमोल रत्न की तरह । सत्ता का सिंहासन फूलों की सेज नहीं हुआ करता था सर पर ताज होना शान नहीं उत्तरदायित्व की निशानी हुआ करता था । शासक अपना उत्तराधिकारी घोषित करने से पहले विचार करते थे जिसे ये उत्तरदायित्व सौंपना है वो कितना काबिल और देश राज्य जनता के प्रति सच्ची निष्ठा रखता है । समय करवटें बदलता रहा और शासक सत्ता और ताकत में अपना विवेक खोकर अहंकारी और क्रूर बनते गए । लेकिन कोई भी अन्यायी शासक अधिक काल तक शासन नहीं कर पाया और सभी का अंत आखिर होना ही था , जो बोया वही काटना पड़ता है यही युग युग का विश्व का इतिहास रहा है । 
 
राजा रजवाड़े जागीरदार नहीं रहे और दुनिया में तमाम तरह के शासनतंत्र स्थापित हुए और आखिर जनता ही देश राज्य की भाग्यविधाता है ऐसा स्वीकार करना ज़रूरी हो गया । हमारे देश में जिस लोकतंत्र को अपनाया गया उस में वक़्त के साथ बदलाव होते होते लोक कहीं खो गया और सिर्फ तंत्र ही बचा है जो निरंकुश है और निर्जीव संवेदना रहित किसी मशीन की तरह काम करता है और ऐसी प्रणाली है जो उनकी सुरक्षा करती है जो मशीनी लोकतंत्र के चालक हैं और जिस जनता की भलाई की खातिर बनाया गया था उस जनता को रौंदती है कुचलती है और ऐसा कर किसी खलनायक की तरह अट्हास करती है । यही मेरी पहचान है मुझे देश की राजनीति कहते हैं । होती होगी कभी देशसेवा जनकल्याण की राजनीति अब वो कहीं नहीं है जैसे कोई करंसी नोट चलन से बाहर हो जाता है तब उसकी कीमत रद्दी की आंकी जाती है कोई ख़रीदार नहीं होता बस कुछ सिरफिरे लोग निशानी की तरह संभाल कर रख लिया करते हैं । लेकिन राजनीति में ऐसा करना किसी अपराध से कम नहीं है छुपाकर रखने पर भी जान का जोख़िम बना रहता है सत्ताधरी उसकी चिता की राख तक को रहने नहीं देते हैं । 
 
राजनेता क्या हैं कैसे बनते हैं और चाहे किसी भी दल की हो राजनीति कैसे की जाती है  , आपको लाखों राजनेताओं की कहानी जीवनी पढ़नी ज़रूरी नहीं है ये इक राजनेता की आत्मकथा है जो वास्तव में सभी की सही तस्वीर है । फ़रेबीलाल नाम रखते हैं असली का क्या करना है फरेब उनका चरित्र है , फ़रेबीलाल को कुछ भी पसंद नहीं था पढ़ना लिखना सोचना समझना और मेहनत करना तो बिल्कुल भी नहीं भाता था । फ़रेबीलाल बचपन से लूटकर छीनकर या मांगकर खाता था उसको ये महान कार्य लगता था और खुद को बड़ा नायक समझता अपने अभिनय पर गर्व करता लोग तालियां बजाते वो इतराता था । काश इक दिन वही दुनिया का मालिक भगवान बन जाये ऐसे सपने देखता और दिखलाता था , वो कोई नई दुनिया बनाएगा सभी को ख्वाबों से बहलाता था । नसीब ने उसको क्या से क्या बना दिया बड़ा शासक बनाकर सत्ता पर बिठा दिया , ज़हर को ज़हर का ईलाज समझ जनता ने ख़ुशी ख़ुशी निगल लिया जाने कैसे हज़्म हुआ किस तरह से पचा लिया । उसका ज़हर भी मिलावटी निकला मरने को खाया मगर मौत भी नहीं आई , वो आशिक़ था या कोई खूबसूरत हसीना थी महबूबा थी जो भी था निलका हरजाई । राजनेता बनकर शैतान बन गया है जैसे कोई देवता लगता था शैतान बन गया है , जो आया था अपने घर आसरा मांग कर अब मालिक समझता खुद को ऐसा मेहमान बन गया है । कभी भी किसी को घर लाओगे राजनीती का खिलाड़ी निकला तो बहुत पछताओगे ज़िंदगी बीत जाएगी सोचते रह जाओगे , अतिथि तुम कब जाओगे । 
 
 
 
 राजनीति का कड़वा सच - Divya Himachal