अगस्त 13, 2024

POST : 1876 शहर शहर गली गली मेले लगे हैं ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया

  शहर शहर गली गली मेले लगे हैं ( हास्य-कविता ) डॉ लोक सेतिया

जितने गुरु हैं देश और दुनिया भर में  
अकेले हमारे नगर में उस से अधिक 
राजनीति के बदलते चेहरे - मुखौटे हैं  
भीड़ है चमचे हैं चाटुकार हैं कुछ चेले हैं । 
 
सबको करना इक यही ही गोरखधंधा है
बाज़ार राजनीति का चढ़ता भाव जाता 
जिसको दिखाई नहीं देता है वो अंधा है 
महंगाई से रिश्ता कभी आता न मंदा है । 
 
सच्ची झूठी पाप पुण्य की जैसी हो कमाई
दयावान कहलाते हों चाहे ज़ालिम कसाई  
दौलत कहते हैं भला किस काम है आई 
गुंडे बदमाश सभी हैं दुश्मन भी और भाई । 
 
भावी विधायक सांसद हैं कितने कहां पर 
कभी भूल से चले गए जो तुम भी वहां पर 
अजब नज़ारा दिखाई देगा आपको तब तो 
तारे ज़मीं पर ख़ाक़ उड़ती होगी आस्मां पर । 
 
लूटना बन गया है धर्म देश समाज की सेवा 
बड़े सस्ते दाम मिलता है जहां हर एक मेवा
सोना उगलती है सत्ता की है जो अपनी देवी  
नशा है सत्ता का छूटता नहीं बेशक जानलेवा । 
 
दीमक यही देश को लग गई है हर इक जगह 
खोखला कर दिया है समाज को लो सब सह
नहीं कोई इनसे बचा सकता है जनता बेचारी 
नया क्या पुराना क्या सब कुछ रहा है अब ढह ।
 
पेड़ राजनीति के आम हैं शाखों पर केले लगे हैं 
शहतूत की जगह बाग़ में बस कड़वे करेले लगे हैं
जिधर देखते हैं सभाएं आयोजित कर रहे हैं चोर 
शहर शहर गली गली अब कितने ही मेले लगे हैं ।     
 
 
 
 

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

Achchi vyangatmak kvita 👍👌