अगस्त 06, 2024

POST : 1874 एक था लोकतंत्र ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया

             एक था लोकतंत्र ( व्यंग्य - कथा ) डॉ लोक सेतिया 

खरी बात तो ये है कि हमको उसकी याद भी नहीं आती अब , कौन ढूंढता उस को जो संविधान ने स्थापित किया है । सालों तक जैसे बूढ़े बज़ुर्गों की खैर ख़ैरियत नहीं लेने पर किसी को खबर नहीं होती की कब वो जो इधर उधर दिखाई देते थे हर राह चलते से दुआ सलाम किया करते थे , अचानक खो गए या शायद हमारी दुनिया को छोड़ चले गए । जब किसी के होने नहीं होने का आभास भी नहीं होता , ऐसे में अनचाहे लोग या फिर चाहे लोकतंत्र की व्यवस्था हो , गायब होना अचरज की बात नहीं है । बड़ी अजीब बात है हमको खुद ही अपनी खबर नहीं और ज़माने की खबर रखने की बात करते हैं । अजीब नहीं हमको पड़ोसी देश चाहे पाकिस्तान हो या बंगलादेश या लंका से रूस अमेरिका कोरिया तक में क्या क्यों घट रहा है समझते हैं , खुद अपने घर आंगन में जो भी होता रहे हमको दिखाई ही नहीं देता । हर किसी की गलतियां ढूंढते हैं खुद कभी सही राह पर चलते ही नहीं , जागो अब नींद से और सपनों को हक़ीक़त समझना छोड़ जो वास्तविकता है उस को समझो पहचानो । 
  
  एक था लोकतंत्र , सोचो याद है कैसा था , उसका क्या हुआ कभी किसी ने उसे बंधक बना लिया , कभी किसी ने उसको ज़िंदा ही दफ़्न कर उसकी जगह कोई झूठा नकली लोकतंत्र ला कर सामने खड़ा कर हमको विवश कर दिया उसे ही वास्तविक लोकतंत्र स्वीकार करने को । राजनेता और अधिकारी धनवान लोगों और साहित्य कला समाज का दर्पण अख़बार टीवी सिनेमा से गठजोड़ कर हम सभी को छलिया बन ठगने में सफल नहीं होते अगर हमने अपनी समझ अपने विवेक से काम लेना छोड़ कभी इस कभी उस पर भरोसा नहीं किया होता । 
 
आज आपको हमारे खुद अपने ही देश के विधि द्वारा स्थपित संविधानसम्मत लोकतंत्र की व्यथा कथा बताते हैं । हम 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस का जश्न मनाते हैं लेकिन ख़ुशी मनाने में मकसद को भूल कर सिर्फ आडंबर करते हैं झूमते गाते हैं केवल इक रस्म निभाते हैं । देश को गुलामी से मुक्त करवाया था लोकतंत्र को अपनाया था हम सभी भारतवासी हैं धर्मनिरपेक्ष समाज हैं को आदर्श बनाया था ।   शायद इक सबक हमको किसी ने नहीं पढ़ाया था हम ने भी कर्तव्य निभाना है इस बात को भुलाया था हम अलग अलग समझने लगे खुद को एकता की शपथ को सभी ने भुलाया था । धोखा हमने हमेशा ही खाया था चिकनी चुपड़ी बातों से प्रभावित होकर फरेबी लोगों को अपनाया था , बिना देखे समझे रहनुमा झूठे मक्क़ार लोगों को बनाकर जो बोया था वही पाया था । मतलबी लोगों को देश सेवा करना नहीं भाया है सत्ता का नशा इस हद तक चढ़ा था जिसे भी अवसर मिला भ्र्ष्टाचार किया ज़ुल्म ढाया था । आज़ाद हो गए थे फिर भी उन विदेशी शासकों की रिवायतों को छोड़ा नहीं बदला नाम रंग ढंग उनका दोहराया था । नवाब राजा साहब  सरदार बहादुर  राय बहादुर खान बहादुर के ख़िताब देते थे अंग्रेजी शासक अपने चाटुकारों को आज़ाद देश की सरकार ने उनका उपयोग जारी रखा नामकरण कर बदलाव कहने को मगर भावना और मकसद वही रहा । 
 
सत्ता ने राजनेताओं अधिकारियों सुरक्षा तंत्र को निरंकुश बना दिया और जनता द्वारा निर्वाचित चयनित नियुक्त लोग खुद को जनसेवक नहीं राजा और देश का मालिक समझ बैठे । इसकी शुरुआत अलग अलग नाम से राजनैतिक दल बनाने से हुई जैसे लोग कोई भी एक ही सामान अपने अपने लेबल से बेचते हैं और कहते हैं हमारा सामान शुद्ध है मिलावटी नहीं । लेकिन विडंबना की बात है कि किसी भी राजनैतिक दल के पास ख़ालिस लोकतंत्र था ही नहीं बल्कि सभी ने कुछ भी अपनी साहूलियत से मिश्रण बना कर घोषित कर दिया गुणवत्ता का अपना पैमाना अपनाते हुए । जैसा बाज़ार में देखते हैं किसी शहर गांव राज्य में कोई वस्तु खूब बिकती है और उसकी पहचान बन जाती है , बिल्कुल उसी तरह सभी दलों की दुकानें चल निकलीं और सभी जमकर कमाई करने लगे । कुछ ही दिन में भिखारी का राजा बनना देख कर पैसे वाले उनके धंधे में निवेश कर मालामाल होते गए । राजनेता चुनाव जीते या हारे कारोबारी लोग कभी भी घाटे में नहीं रहे उनको समझ होती है बाज़ार में झुकाव किधर है जिसका पलड़ा भारी हो उस तरफ चले जाते व्यौपारी हमेशा यही करते हैं । 
 
कुछ साल पहले लोकतंत्र ऐसा खोटा सिक्का बन गया जो किसी काम का साबित नहीं होने पर भी सबसे अधिक बिक्री वाला कमाई का माध्यम साबित हुआ । किसी के पास भी लोकतंत्र था ही नहीं फिर भी सभी ने बड़े आलीशान शोरूम खोलकर उसे बेचना शुरू किया , आयात भी निर्यात भी होने लगा उस का जिस को बनाना कोई जानता तक नहीं । भाषण में लोकतंत्र की हत्या उसकी गंभीर हालत पर चिंता जताकर खूब तालियां बजवाई गईं पहले उसका नाम निशान मिटा कर । ऐसा अजूबा भारत देश में ही संभव है हर कोई संविधान लोकतंत्र की बात करता है बिना कोई परिचय उनसे किए ही । अपनी पीठ थपथपाना अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनना अब क्या कहते हैं इसे कौन समझता है । गिनती करते हैं 140 करोड़ जनसंख्या 77 साल होने को हैं आज़ाद हुए लेकिन हासिल क्या हुआ है ध्यान से समझते हैं । 
 
सभी अधिकार सभी सुख सुविधाएं साधन संसाधन ऊपर वाले ख़ास सांसद विधायक मंत्री अधिकारी विशेषाधिकार प्राप्त वीवीआईपी धनवान नाम शोहरत वाले अभिनेता खिलाडी पत्रकार से लेकर धर्म और सामाजिक संगठन बनाकर मनमानी करने वालों की खातिर आरक्षित हैं । साधरण जनता से सभी कुछ ही नहीं जीने की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तक छीन कर उनको गुलामी से बुरी दशा में पहुंचा कर भी शासक वर्ग रत्ती भर भी शर्मसार नहीं हैं । पुलिस प्रशासन किसी बंदर के हाथ तलवार की तरह है जनता का दमन करने को न्याय और न्यायपालिका तमाशाई बने खड़े हैं । भारत लोकतांत्रिक देश था लेकिन वो जो एक था लोकतंत्र उसका क्या हुआ इक पहेली बन गया है । गायब है अपहरण हुआ है या किसी कैदखाने में तड़प रहा है किसी शाहंशाह की महलनुमा हवेली में । आपको रौशनियां नज़र आती हैं शानदार इमारतें सड़कें क्या क्या नहीं इतना ही नहीं चांद को छूने की बात करते हुए इस असलियत को भुला दिया है कि वो घर मकान वो इक आशियाना 77 साल बाद नहीं 60 प्रतिशत जनता बेघर है और 20 प्रतिशत के पास बहुत अधिक है जिसे वो बर्बाद कर रहे हैं ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहिए हमको । 
 
 एक था लोकतंत्र | Facebook
 

2 टिप्‍पणियां:

Sanjaytanha ने कहा…

आज के दौर पर लोकतंत्र पर राजनेताओं पर ...परंपराओं की रस्म अदायगी पर बहुत सार्थक आलेख👌👍

Sanjaytanha ने कहा…

पहले भी पढ़ा है ये अच्छा आलेख है