अगस्त 15, 2024

पिंजरे में कैद रहकर ख़ुश हैं ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

      पिंजरे में कैद रहकर ख़ुश हैं  ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया  

जैसे कोई सोने चांदी के पिंजरे में कैद हो कर भी खुद को किस्मत वाला समझने लगे तमाम लोग ग़ुलाम बन  कर खुश हैं , कभी महसूस होता है जैसे हमको आज़ादी से जीने की आदत ही नहीं । सोच मानसिकता किसी न किसी को अपना मसीहा अपना मालिक समझने की जाती नहीं है । बोलना तो क्या हम जिस को अपना सब कुछ समझते हैं उस की कही हर बात को ख़ामोशी से सर झुकाए स्वीकार करने को अनिवार्य मानते हैं । घर परिवार समाज सरकार से दोस्ती रिश्ते नाते सभी हमको इतने बंधनों में जकड़े रहते हैं कि हम ज़िंदा रहते हुए भी रोज़ जाने कितने समझौते कर खुद को कुचलते हैं । अनुचित लगता है फिर भी साहस नहीं करते विरोध करने का और कोई भी किसी को अपनी आलोचना का अधिकार देने को तैयार नहीं है । सार्थक संवाद और आपसी वार्तालाप में कोई अन्य पक्ष भी है इस पर चिंतन करना भूल गए हैं । टकराव बढ़ते हैं और हम सभी असहमत व्यक्ति को विरोधी नहीं बल्कि दुश्मन मानने लगते हैं । इतनी संकीर्ण मानसिकता बन गई है समाज की जिस से हर कोई घुटन महसूस करता है नतीजा धनवान ताकतवर दहशत फ़ैलाने वाले मनमानी करते हैं और कोई उनसे टकराव लेने का साहस नहीं करता । अन्यायी अत्याचारी लोग समझते हैं वो अपराध कर भी गलत नहीं कर रहे बल्कि अपने अनुचित कार्यों को उचित साबित करने को कोई मकसद बताकर बचना चाहते हैं । कभी हमारे समाज में सच और न्याय के लिए लड़ने मर मिटने वाले लोग हुआ करते थे जो ज़ालिम को खुली चुनौती दे कर इंसाफ़ आज़ादी के लिए जीवन कुर्बान कर देते थे । हम ऐसे महान आदर्शवादी नायकों को लेकर खुद को गौरवशाली समझते हैं लेकिन उनके आदर्श उनकी सिखाई बातों दिखलाई राहों पर चलना नहीं चाहते क्योंकि हमको किसी भी तरह आराम से ज़िंदगी बितानी है । अब हम कहने को आज़ाद देश के नागरिक हैं जबकि हमको गुलामी करते कोई संकोच नहीं होता और ऐसा करने को समझदारी नाम देते हैं । 
 
इक कहानी है पहले भी लिखी थी उसे फिर दोहराता हूं । कोई साधु किसी पहाड़ी की डगर पर जा रहा था कि उसको किसी परिंदे की आवाज़ सुनाई दी मुझे बाहर निकलना है । घाटी में ढूंढते ढूंढते साधु को मिल गया वो परिंदा जो इक पिंजरे में था जबकि पिंजरा खुला हुआ था , साधु ने उसे अपने हाथ से पकड़ बाहर निकाला और खुले आसमान में उड़ने को छोड़ दिया । अगले दिन जब साधु उसी डगर से गुज़र रहा था तब उसको फिर वही आवाज़ सुनाई दी मुझे बाहर निकलना है । साधु उस जगह गया तो देखा वही पक्षी खुद ही उस पिंजरे में वापस लौट आया था । तब साधु को समझ आया कि परिंदे को उस पिंजरे से लगाव हो गया है तभी वो खुले गगन को छोड़ उसी में आकर बैठ गया है । साधु ने फिर से पक्षी को बाहर निकाल कर आसमान में उड़ा दिया और फिर उस पिंजरे को भी उठाया और घाटी में गहराई में फेंक दिया था । अब परिंदा आये भी तो पिंजरा नहीं होगा तभी उसका नाता टूटेगा और आज़ाद रहना सीखेगा । विडंबना ये भी है कि अब जो साधु संत सन्यासी रहनुमा हमको मिलते हैं उनके पास कोई पिंजरा रहता है हमको आज़ाद नहीं रहने देना चाहते बल्कि कैद में रखते हैं । जब तक हम इन गुलामी के पिंजरों से प्यार करते रहेंगे हम कभी आज़ाद नहीं हो सकते भले पिंजरा खुला ही हो हमको वापस उसी में रहना भाता है ।  
 
सवाल ये है कि कैसा पिंजरा है जिस में हम ख़ुशी से कैद रहना चाहते हैं जबकि दरवाज़ा खुला हुआ है । वो है हमारे बड़े बड़े सुनहरे सपनों का खुद बुना जाल और चाहतों का क़ैदख़ाना । धन दौलत नाम शोहरत किसी भी तरह से सफ़लता की ऊंचाई पर पहुंचना चाहते हैं । अधिकांश लोग अपनी मेहनत क़ाबलियत से हासिल किए से संतुष्ट नहीं होते और जैसे भी संभव हो दुनिया से प्रतस्पर्धा में शामिल हो कर आगे बढ़ना चाहते हैं । ऐसे में होता ये भी है कि हम जो जीवन की मूलयवान चीज़ें आदर्श और सामाजिक मूल्य हैं उनका त्याग कर सिर्फ भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति को महत्व देते हैं । आडंबर करते हुए सभी को दिखाने को जो नहीं हैं उसका मुखौटा बन जाते हैं अपनी वास्तविकता खो बैठते हैं । गरीब जिनके पास कुछ भी नहीं उन से बढ़कर दरिद्रता उनकी कहलाती है धर्म ग्रंथों के अनुसार जिनको सभी कुछ मिला हुआ होता तब भी और अधिक की हवस रहती है ।कभी छोटे गांव में ख़ुशी मिलती थी आपसी मेलजोल प्यार अपनापन होता था , आजकल महानगर में बड़े घर में सुविधाओं से परिपूर्ण जीवन भी दिल को ख़ुशी नहीं देता बल्कि ख़ालीपन महसूस होता है । लेकिन कोई भी हमारे खुद बनाए पिंजरे को किसी गहरी खाई में फेंक हमको मुक्त नहीं करवा सकता । बंद पिजंरे में कैद रहना नियति बन गई है हमारी ।    
 
 पिंजरा

1 टिप्पणी:

Sanjaytanha ने कहा…

आज वक़्त की हक़ीक़त बयां करता लेख...गुलाम रहने की...मानसिकता... रहनुमा की अनुचित बात का भी समर्थन करना👍👌