नचा रहे हैं धागे उनके हाथ हैं ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया
कठपुतली करे भी तो क्या धागे किसी और के हाथ हैं नाचना तो पड़ेगा। सिम्मी नायिका ने इक पुरानी फिल्म में ये डायलॉग जिस ढंग से बोला था कमाल था ये और बात है कि आनंद फिल्म में उसको बदले अंदाज़ में नाटकीय ढंग से बोलने पर उसकी पहचान हो गया मशहूर होना बड़ी बात है। कौन कठपुतली है कौन नचा रहा है ये रहस्य है सामने कोई और हैं पर्दे के पीछे जाने कौन कौन हैं। देश की कानून व्यवस्था को सरे आम बीच बाज़ार कोई नंगा करता है और चाहता है ये खेल हर किसी को दिखाया जाये उनकी हुकूमत है ये ज़रूरी है सबक सिखाया जाये। कोई अरमान जलाया जाये किसी की हस्ती को मिटाया जाये। यहां पर सभी उनके इशारे पर चल रहे थे जो मकसद था मीडिया वाले भी वही कर रहे थे। कोई रोकने वाला नहीं था कोई टोकने वाला नहीं था सभी अधिकारी अपने आका का हुक्का भर रहे थे ज़ुल्म क्या होता है समझ नहीं इंसाफ कर रहे थे यही कह रहे थे। इंसाफ करने वाले बैठे थे अपनी शान से ये तमाशा चलता रहा आराम से। कोई उस कागज़ के पुर्ज़े उड़ा रहा था जिस पर लिखा हुआ था कोई शपथ उठा रहा था कोई कह रहा था कोई दोहरा रहा था। देश की एकता अखंडता न्याय की निष्पक्षता की भय या पक्षपात नहीं करने की बात को खोखली हैं ये बातें समझा रहा था। आज़ादी न्याय और देश का संविधान क्या है। लोग हैरान हैं परेशान बिल्कुल भी नहीं हैं लोग तमाशाई हैं उनको मज़ा आ रहा है। उधर कोई इंसाफ़ का तराज़ू लड़खड़ा रहा है उसको सब खबर है कोई ख़ंजर है कोई ज़ख़्म खाने खुद उसको बुला रहा है। ये जासूसी उपन्यास लिखा जा रहा है नज़र जो भी आता है समझ आ रहा है मगर राज़ की बात कौन बता रहा है पटकथा कोई लिखवा रहा कोई निर्देशन का हुनर दिखा रहा। रहस्य और भी गहरा रहा है।
घर शीशे का लिबास भी शीशे जैसा ऐसे में हाथ में पत्थर रखने का नतीजा क्या होगा। मुश्किल यही है जो लोग आईने बेचने का कारोबार करते हैं उनको खुद आईना देखना ज़रूरी नहीं लगता है। अपने चेहरे पर लगे दाग़ उनको अच्छे लगते हैं डिटर्जैंट बेचने का सामान हैं। ये जंग है कि कोई खेल है बहुत अजीब ये घालमेल है किसी शतरंज की बिसात पर मोहरे हैं कितने जो बेमेल हैं। बाज़ी किसी की खिलाड़ी कोई है ये सियासत का अदावत मुहब्बत का इक दौर है। शराफत का कहीं नहीं कोई ठौर है जंगल में नाच रहा कहीं मोर है। चलो थोड़ा पीछे नज़र डालते हैं हर इक किरदार को फिर से पहचानते हैं यहां सच नहीं झूठ ही झूठ है ये इक बात सभी जानते हैं मानते हैं। कोई हारी बाज़ी की बात है बिछाई किसी ने नई बिसात है आधा दिन है आधी रात है नहीं शह नहीं कोई मात है ये बस घात है लात खाई है लगानी लात है। बादशाह खुद को समझते हैं लोग जीत हार की खातिर लड़ते मरते हैं लोग कौन समझाए क्या क्या कहते हैं लोग बात कहते हैं फिर मुकरते हैं लोग। फिर उसी ने अपनी कठपुतली को उंगलियों पर अपने नचाया है जब तेरा साथ है डर की क्या बात है पेड़ पर चने के चढ़ाया है जानते हैं खेल है प्यादों का कौन क्या है किसे क्या बनाया है। किसी शायर ने समझाया था कि " खुश न रहिएगा उठाकर पत्थर , हमने भी देखे हैं चलकर पत्थर "।
ये आपदा को अवसर बनाने की बात है ख़ुदकुशी की नहीं क़त्ल की बात है। यही समय है ताकत को आज़माते हैं सच झूठ को मिलवाते हैं उनको कहते हैं झगड़ा निपटाते हैं खुद जीतने को उनको हरवाते हैं। फिर कभी जब धागे उलझ जाते हैं चाहते कुछ नहीं कुछ भी कर जाते हैं। बादशाह अपने दरबार में बैठकर चाल क्या चलनी है समझाते हैं कोई मोहरा है सूली पर चढ़ाते हैं घबरा मत हम तेरे साथ हैं उसको ललकार हम तुझे बचाएंगे मज़ा लेते हैं उसको मज़ा चखाते हैं। ये दो ऐसे नादान हैं जो समझते हैं हम बड़े पहलवान हैं हम खुदा हैं हम अपने भगवान हैं आप अपनी हम इक पहचान हैं। बस सी हुई चूक है इक मगरूर है मद में चूर है पर दुनिया का तो यही दस्तूर है सांड लड़ते हैं फसल बेल बूटे बर्बाद होते हैं दोनों थक जाते हैं पीछे हट जाते हैं। सब ने समझा था काठ की तलवार है ये सियासत की जंग है बेकार की हाहाकार है मगर चोट कोई कभी ऐसे लग जाती है ये ज़ुबां तख़्त पर जो बिठवाती है यही सूली पे भी कभी चढ़वाती है। पहले सोचो फिर तोलो फिर बोलो ये दादी नानी समझाती है जब ज़ुबां काबू नहीं आती है कोई महाभारत कहीं करवाती है। शब्द का ज़ख्म कभी भरता नहीं खंजर का ज़ख्म धीरे धीरे भर जाता है ज़हर पीकर भी लोग बच जाते हैं कोई पी के अमृत भी मर जाता है।
डॉ बशीर बद्र जी कहते हैं उनकी ग़ज़ल के शेर हैं। अब है टूटा सा दिल खुद से बेज़ार सा , इस हवेली में लगता था बाज़ार सा। बात क्या है मशहूर लोगों के घर सोग का दिन भी लगता है त्यौहार सा। इस तरह साथ निभाना है मुश्किल , तू भी तलवार सा मैं भी तलवार सा। जो था चारागर अब खुद बीमार है दुश्मन का दुश्मन है अपना यार है कठपुतली है उसकी उसका औज़ार है। या इस पार है या उस पार है अभी क्या खबर कोई मझधार है ये डूबती नैया लगती क्या पार है। कैसा मातम है खास लोगों का जश्न है कि कोई त्यौहार है। शराफ़त न जाने कहां छुप गई किसलिए वो भला शर्मसार है। ये शहर मुहब्बत का नहीं है यहां मुहब्बत भी शराफ़त भी ईबादत भी सियासत भी बिकती है इस शहर का मिजाज़ यही है। ग़ज़ल सुनते हैं इक जगजीत सिंह जी की आवाज़ में।
घर शीशे का लिबास भी शीशे जैसा ऐसे में हाथ में पत्थर रखने का नतीजा क्या होगा। मुश्किल यही है जो लोग आईने बेचने का कारोबार करते हैं उनको खुद आईना देखना ज़रूरी नहीं लगता है। अपने चेहरे पर लगे दाग़ उनको अच्छे लगते हैं डिटर्जैंट बेचने का सामान हैं। ये जंग है कि कोई खेल है बहुत अजीब ये घालमेल है किसी शतरंज की बिसात पर मोहरे हैं कितने जो बेमेल हैं। बाज़ी किसी की खिलाड़ी कोई है ये सियासत का अदावत मुहब्बत का इक दौर है। शराफत का कहीं नहीं कोई ठौर है जंगल में नाच रहा कहीं मोर है। चलो थोड़ा पीछे नज़र डालते हैं हर इक किरदार को फिर से पहचानते हैं यहां सच नहीं झूठ ही झूठ है ये इक बात सभी जानते हैं मानते हैं। कोई हारी बाज़ी की बात है बिछाई किसी ने नई बिसात है आधा दिन है आधी रात है नहीं शह नहीं कोई मात है ये बस घात है लात खाई है लगानी लात है। बादशाह खुद को समझते हैं लोग जीत हार की खातिर लड़ते मरते हैं लोग कौन समझाए क्या क्या कहते हैं लोग बात कहते हैं फिर मुकरते हैं लोग। फिर उसी ने अपनी कठपुतली को उंगलियों पर अपने नचाया है जब तेरा साथ है डर की क्या बात है पेड़ पर चने के चढ़ाया है जानते हैं खेल है प्यादों का कौन क्या है किसे क्या बनाया है। किसी शायर ने समझाया था कि " खुश न रहिएगा उठाकर पत्थर , हमने भी देखे हैं चलकर पत्थर "।
ये आपदा को अवसर बनाने की बात है ख़ुदकुशी की नहीं क़त्ल की बात है। यही समय है ताकत को आज़माते हैं सच झूठ को मिलवाते हैं उनको कहते हैं झगड़ा निपटाते हैं खुद जीतने को उनको हरवाते हैं। फिर कभी जब धागे उलझ जाते हैं चाहते कुछ नहीं कुछ भी कर जाते हैं। बादशाह अपने दरबार में बैठकर चाल क्या चलनी है समझाते हैं कोई मोहरा है सूली पर चढ़ाते हैं घबरा मत हम तेरे साथ हैं उसको ललकार हम तुझे बचाएंगे मज़ा लेते हैं उसको मज़ा चखाते हैं। ये दो ऐसे नादान हैं जो समझते हैं हम बड़े पहलवान हैं हम खुदा हैं हम अपने भगवान हैं आप अपनी हम इक पहचान हैं। बस सी हुई चूक है इक मगरूर है मद में चूर है पर दुनिया का तो यही दस्तूर है सांड लड़ते हैं फसल बेल बूटे बर्बाद होते हैं दोनों थक जाते हैं पीछे हट जाते हैं। सब ने समझा था काठ की तलवार है ये सियासत की जंग है बेकार की हाहाकार है मगर चोट कोई कभी ऐसे लग जाती है ये ज़ुबां तख़्त पर जो बिठवाती है यही सूली पे भी कभी चढ़वाती है। पहले सोचो फिर तोलो फिर बोलो ये दादी नानी समझाती है जब ज़ुबां काबू नहीं आती है कोई महाभारत कहीं करवाती है। शब्द का ज़ख्म कभी भरता नहीं खंजर का ज़ख्म धीरे धीरे भर जाता है ज़हर पीकर भी लोग बच जाते हैं कोई पी के अमृत भी मर जाता है।
डॉ बशीर बद्र जी कहते हैं उनकी ग़ज़ल के शेर हैं। अब है टूटा सा दिल खुद से बेज़ार सा , इस हवेली में लगता था बाज़ार सा। बात क्या है मशहूर लोगों के घर सोग का दिन भी लगता है त्यौहार सा। इस तरह साथ निभाना है मुश्किल , तू भी तलवार सा मैं भी तलवार सा। जो था चारागर अब खुद बीमार है दुश्मन का दुश्मन है अपना यार है कठपुतली है उसकी उसका औज़ार है। या इस पार है या उस पार है अभी क्या खबर कोई मझधार है ये डूबती नैया लगती क्या पार है। कैसा मातम है खास लोगों का जश्न है कि कोई त्यौहार है। शराफ़त न जाने कहां छुप गई किसलिए वो भला शर्मसार है। ये शहर मुहब्बत का नहीं है यहां मुहब्बत भी शराफ़त भी ईबादत भी सियासत भी बिकती है इस शहर का मिजाज़ यही है। ग़ज़ल सुनते हैं इक जगजीत सिंह जी की आवाज़ में।
7 टिप्पणियां:
बहुत सही।
बढ़िया :)
बहुत बढ़िया👌👍
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (13-09-2020) को "सफ़ेदपोशों के नाम बंद लिफ़ाफ़े में क्यों" (चर्चा अंक-3823) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आपका आभारी हूं कि आपने मेरी रचना को चर्चा में शामिल किया।
धन्यवाद। डॉ लोक सेतिया ।
बहुत सुन्दर
बहुत बढ़िया
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