मई 05, 2017

वास्तविकता से आंखे चुराते लोग ( बाहुबली ) डॉ लोक सेतिया

वास्तविकता से आंखे चुराते लोग ( बाहुबली ) डॉ लोक सेतिया


कल इक नई फिल्म देखी बाहुबली। ऐसा लगा जैसे कोई सपनों की दुनिया है। क्या लाजवाब बड़े बड़े भव्य महल पहाड़ नदियां और नज़र को लुभाते चकाचौंध करते दृश्य। दैव्य शक्तियों की अनुभूति और मन को लुभाते नज़ारे। सब से अजीब था आज की विज्ञान की दुनिया में कोई देवता सा शक्तिशाली मसीहा जो असम्भव को आसानी से संभव बनाता हुआ। मनोरंजन के नाम पर हम वास्तविक दुनिया से भाग इक झूठी काल्पनिक दुनिया में खोना चाहते हैं और सिनेमाकार केवल पैसा बनाने को हमें यही परोस रहे हैं। बेशक तकनीक और भव्यता की इक मिसाल दिखाई दी मुझे भी , मगर लाख चाह कर भी , बहुत सोच कर भी मुझे इस फिल्म की कोई सार्थकता समझ नहीं आई। इसके विपरीत मुझे ये लोगों को भटकाती हुई लगी , ताकि इसको देख हम अपनी  दुनिया की कठिन वास्तविकताओं से बचकर खो जाएं सपनों की लुभावनी सुनहरी दुनिया में। सच कहता हूं मुझे समझ नहीं आया मैं इस फिल्म को देख कर क्या राय दूं। फिल्म देखना मेरा जूनून रहा है , कोई समय था जब हर फिल्म का पहला शो देखना मेरी पहली प्राथमिकता या ज़रूरत हुआ करती थी। फिल्म देखना और संगीत ये दो ही काम मैंने अय्याशी की हद तक किये हैं। मगर उन दिनों फिल्म की कहानी डायलॉग और गाने कितने दिनों तक दिमाग पे छाए रहते थे। हर फिल्म देश समाज से जुड़ी कोई सच्चाई उजागर करती  थी , या प्यार अथवा अन्य किसी विषय पर इक सोच प्रकट करती थी। नया दौर , सफर , ख़ामोशी , कागज़ के फूल , दिल इक मंदिर , नया ज़माना , प्यासा , उपकार , हक़ीक़त , रोटी कपड़ा और मकान , जैसी लाजवाब फिल्मों का युग और जिन्हें नाज़ है हिंद पर वो कहां हैं जैसा झकझोरने वाला गीत , या फिर महिलाओं की वास्तविकता बताती लता की आवाज़ में दर्द भरी वो रचना , औरत ने जन्म दिया मर्दोँ को मर्दों ने उसे बाज़ार दिया , आज भी सुन कर सिरहन सी पैदा करती है। कहने को फ़िल्मी दुनिया कितनी तरक्की कर चुकी है मगर वास्तव में क्या अपने आदर्श अपने उद्देश्य और अपने धर्म से भटक नहीं चुकी है। मात्र मनोरंजन ही क्या हम सब का मकसद बन गया है। आज हर कोई फेसबुक व्हाट्सऐप पर महान आदर्शवादी दिखाई देता है जबकि वास्तविक जीवन में हम सभी आदर्शों और नैतिक मूल्यों को ताक पर रख चुके हैं। ऐसे में सही मार्गदर्शन देने की जगह अगर लिखने वाले अभिनय करने वाले और फिल्म या टीवी सीरियल बनाने वाले धन कमाने की खातिर इस तरह खुद भी भटक कर दर्शकों को भी भटकाने का कार्य करें तो इसको उचित नहीं कहा जा सकता। आज देश में समाज का हर हिस्सा जैसे अपने कर्तव्य से विमुख हुआ हुआ है तब साहित्य और कला को और संवेदनशील होना चाहिए। मगर इधर लगता है पैसे की चमक ने सभी को अंधा कर दिया है। टीवी वाले इस को इक महान उपलब्धि बता रहे हैं कि ये फिल्म हज़ार करोड़ की कमाई कर सकती है। जबकि सवाल होना ये चाहिए कि हज़ार करोड़ के बदले आपने दर्शकों को दिया क्या है। अपनी असलियत से नज़रें चुराकर इक झूठे ख्वाबों की दुनिया में जीने का पल भर का धोखा देता एहसास , क्योंकि हाल से बाहर निकलते ही आपका सामना अपनी वास्तविक दुनिया से होना ही है। 

   

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