दिसंबर 18, 2016

आंसूओं की दास्तां ( देश की बर्बादी की बात ) डॉ लोक सेतिया

   आंसूओं की दास्तां ( देश की बर्बादी की बात ) डॉ लोक सेतिया

    आज जो लिखना है उसको कोई कलम किसी स्याही से लिख नहीं सकती , और पढ़कर जिसकी पलकें भीग नहीं जायें उसको समझ भी नहीं आ सकती ये बात। इक घना अंधेरा छाया हुआ लगता है चरों तरफ पर उसी को बताया जा रहा है यही भौर की रौशनी है। कितने साल हो गये लिखते लिखते अब चर्चा  भी करने से कुछ भी हासिल नहीं है। शायद ही कभी किसी ने कल्पना की होगी कि इस देश की पूरी व्यवस्था इस कदर रसातल तक नीचे गिर सकती है।

      " इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके-जुर्म हैं , आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार। "

       सच चालीस साल पहले ये कल्पना शायद दुष्यंत कुमार ही कर सकते थे। अपने समाज के दर्द को इस शिद्दत से कितनों ने महसूस किया है। आज देखो तो हर कोई बातें करता है राजनीति की समाज की धर्म की परंपरा की इतिहास की बदलाव की विचारधारा की आज़ादी की मानवता की साक्षरता की पर्यावरण की महिला अधिकारों की और देश की न्याय व्यवस्था की ही नहीं संविधान की भी। मगर वास्तविक जीवन में सभी की कथनी और करनी में अंतर ही नहीं विरोधाभास साफ दिखाई देता है। बातें सत्यमेव जयते की कर सच को खुले आम सरे-राह कत्ल किया जाता है हर दिन कदम कदम पर। सत्य पराजित नहीं होता की बात आज सब से बड़ा झूठ है। सच ये है सच अपमानित होता है कलंकित किया जाता है और उसको इस तरह कत्ल किया जाता है कि कोई समझ नहीं पाता उसमें अभी जान बाकी है अथवा वो मर चुका है। सत्तर साल से हर सरकार और हर राज्य का शहर का गांव का पंचायत से नगरपरिषद क्या विधानसभा संसद तक का तरीका सच को विवश करता रहा है कि सच ख़ुदकुशी कर ले। सच ज़िंदा है या मर चुका है कोई नहीं जानता , वो तो बिल्कुल भी नहीं जो सच ही का कारोबार करते हैं। उनकी दुकानों पर झूठ महंगे दाम बिकता है सच का लेबल लगाने के बाद।

                   अभी अभी की बात करें तो देश की सरकार नहीं इक नेता ने दावा किया है कि वो देश को अपराध भ्र्ष्टाचार और अभी तक चलती रही लूट से निजात दिलवा कर रहेगा। सभी चाहते हैं ऐसा हो , मगर कैसे हो कोई नहीं समझ पा रहा। इक बड़ा कदम लिया गया नोट बंदी का जो लगता है सफल नहीं हुआ या नहीं होने वाला , क्योंकि जब कोई ऐसा बदलाव करना चाहता है तो उसकी निष्ठा उस काम में पूर्ण होनी चाहिए। खेद है उसका आभाव साफ दिखाई दे रहा है , जिस दिन सवा सौ करोड़ जनता का प्रधानमंत्री ऐलान करता है कि बस बहुत हो चुका अब भविष्य में काला धन वालों को कोई अवसर नहीं दिया जायेगा , उसी से बीस ही दिन बाद इक और नई योजना घोषित की जाती है , पचास प्रतिशत जुर्माना भर काली कमाई को सफेद करने की। उसी दिन साफ हो गया था उनको मूल्यों से नैतिकता से लूट से मतलब नहीं है , उनको दो शिकार करने है एक तीर से। खुद के लिये गिरती या दिन पर दिन कम होती लोकप्रियता को ऊंचा करना और हर सत्ताधारी की तरह अधिक से अधिक पैसा ख़ज़ाने में लाना। कल आप नियम कानून ही बना दो चोर की चोरी माफ़ होगी अगर चोरी का आधा माल सरकार को दे दे। यही तो किया जा रहा है , जब तक लूट के दोषियों को सज़ा की जगह ऐसे ईनाम मिलता रहेगा लूट जारी रहेगी। अब लगता है उनको उचित अनुचित से कोई सरोकार नहीं है , गलत होने को रोकना उनका ध्येय नहीं गल्ती से फायदा उठाने की उनकी मंशा है या योजना का मकसद है। चालीस दिन बाद पता चल ही गया आपके प्रशासन का क्या हाल है बैंक तक शामिल हैं काले को सफेद करने में। किस किस को दोष दें , कोई भी दल तो बेदाग़ नहीं है , सभी के घर शीशे के हैं। संसद नहीं चलना ही गलत नहीं है , कोई प्रधानमंत्री जब कहता है मुझे संसद में बोलने नहीं दिया जाता तो मैंने जनसभा में बोलने का विकल्प चुन लिया है। तब इक खतरा दिखता है संसदीय लोकतंत्र को , शायद आप भूल गये अपने स्वार्थ में कि कोई शपथ ली थी आपने संविधान की रक्षा की। जब इक सदन का नेता पलायन करता है सदन से भागता है तो ये किसी एक व्यक्ति अथवा दल की बात नहीं रहती है। आप देश को इक अंधी सुरंग में धकेल रहे हैं जिस के पार का सिरा क्या है आपको भी नहीं मालूम। सब बाकी बातों को दरकिनार करते हैं और इक महत्वपूर्ण सवाल की बात करते हैं। देश का प्रधानमंत्री भरी सभा में अपनी जान को खतरा बताता है तो बात चिंता की है।

                   इस पहरे को छोड़ ऊपर की बात जारी करते हैं। आम आदमी की बात जब कोई प्रशासन कोई सरकार कोई संस्था नहीं सुने तब उसके पास क्या विकल्प है। नेताओं की तरह करोड़ों खर्च कर जनता को अपनी बात तो नहीं बता सकता न ही भाग सकता है कहीं इक जगह से दूसरी जगह। प्रधानमंत्री जी की हो या किसी मुख्यमंत्री जी की सभा , इक नया चलन देखा है , खबरों में सामने आया है कि प्रशासन निगाह रखता है कोई सभा में विरोध प्रकट ही नहीं कर सके। अर्थात जितने भी लोग हों सभी हाथ जोड़ने वाले हों , हाथ से तालियां बजाने वाले हों , सर उठाने वाला कोई भी नहीं हो। मेरे शहर में मुख्यमंत्री जी की सभा हुए तो जो काले रंग की जैकेट डाले थे उनसे उतरवा ली गई , काली जुराबें भी उतरवा ली गई , जो काले रंग के कपड़े पहने थे उनको प्रवेश नहीं करने दिया। क्या वो लोग काला धन वालों से अधिक खतरनाक थे , जिनको आज भी आप गले लगाना चाहते हैं अवसर पर अवसर देकर। और दावा किया जाता है लोकप्रिय होने का , जब आप लोकप्रिय हैं जनता खुश है तो काले रंग की या विरोध की चिंता क्यों। वास्तव में आज़ादी के बाद से कोई भी प्रशासन नहीं चाहता जनता का सीधा संवाद सत्ताधारी नेतओं से बड़े अधिकारियों से हो। क्योंकि इस से उनकी असलियत सामने आती है कि जो भी वो कागजों पर बताते हैं किया गया , हुआ होता ही नहीं। मगर हर नये सत्ताधारी की कमज़ोरी रही है कि उसने नौकरशाही पर कभी अंकुश नहीं लगाया ताकि जैसे पहले लोग उनका दुरूपयोग करते रहे हम भी करते रहें। रसोई का हर बर्तन साफ किया साग सब्ज़ी भी ताज़ी लाये दूध भी बासी नहीं फिर भी सब बना बनाया बिगड़ जाता है , कड़छी तो वही है उसको साफ करने का हौसला ही नहीं किया किसी ने। हम समझते हैं नेता शासन की बागडोर संभाले हैं जब कि सरकार को चलाते ही नहीं अपनी उंगलियों पे नचाते भी हैं अधिकारी बाबू से चपरासी तक। जब ऐसा हाल है तो सच बोलना अपराध ही है , देश के प्रधानमंत्री की जान को जब खतरा हो सकता है देश को काले धन के विरोध के कारण तो कोई आम नागरिक कैसे सुरक्षित हो सकता है किसी गैर कानूनी काम करने वालों के बारे सच बोल कर। शरीफ आम नगरिक को डरे सहमें जीना है और इसी को आज़ादी और लोकतंत्र मानना है। भारत माता कितनी बेबस है उसके आंसू कौन देखता है , कोई पौंछना भी चाहता है , किसे समझ आएगी उसकी दास्तां। 

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