गाता फिरे गली गली यही फ़कीर ( कविता ) डॉ लोक सेतिया
प्रति दिन युद्ध होता हैदिल की चाह में
और ईमान की राह में
हर दिन बुरे कर्म
करने के बाद
आदमी को याद दिलाता
है उसका ज़मीर
अभी कल ही तो
किया था मुझसे वादा
छोड़ देने का
सभी अपने बुरे कर्म
भूल कर क्यों आज फिर
चले आये हो उसी मार्ग पर ।
कितनी बार पछतावा
होता है दिल को
हर शाम पीने के बाद
लगता है पीने वाले को
बड़ी ही नामुराद चीज़ है
मय भी मयखाना भी
सब लुटा है न कुछ भी
कभी भी मिल सका
छोड़ ही दे है कहता
ईमान इस महफ़िल को ।
तेरी गली को
कितनी बार अलविदा कहा
क्या क्या नहीं उम्र भर
सितम भी सहा
जनता हूं बेवफा
नाम है तेरा ही लेकिन
तेरे हुस्न के जादू का
हुआ ऐसा मुझपे असर
हार के सभी अपना
खेलता हूं फिर फिर जुआ ।
कितनी दौलत
पाप वाली जमा कर ली
अपनी झोली पापों से
मैंने क्योंकर भर ली
हर सुबह जाकर
मांगता हूं खुदा से
मैं गिर रहा तूं ही
बचा ले आकर मुझको
शाम होते नहीं
कुछ भी याद रखता हूं
दिल है जो कहता
वही तो करता मैं हूं ।
अपने ईमान की
सुनता कब हूं मैं भला
रात दिन दिल के हूं
कहने पर बस चला
अच्छी लगती हैं
राहें बुरी मेरे दिल को
खुद भंवर चुनता हूं
छोड़ कर उस साहिल को
दिल के हाथों है लुटता
दुनिया का हर अमीर
गाता रात दिन भजन
गली गली है इक फ़कीर ।
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