अक्तूबर 08, 2013

कला निकली जब भी बिकने ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कला निकली जब भी बिकने ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

मेला सजाया गया था रात
सज कर आई थी उसकी बरात
झूम झूम कर कला खुद नाची
फूलों की हो रही थी वो बरसात ।

सुबह था बदला सा नज़ारा
जो भी सजाया बिखरा था सारा
कला का ज़ख़्मी था पूरा बदन
बन कर अपने सब ने ही मारा ।

जाने था कैसा ये उसका सम्मान
जो बन गया जैसे हो कोई अपमान
फिर से वही तलवे चाटना सबके
बस दो पल की थी झूठी शान ।

किस बात पे थी यूं इतना इतराई
क्या नया थी तू ले कर आई
तेरा मोल लगाने लगे लोग
रो रो कह रही थी शहनाई ।

कल तक जिनको बुरा थी कहती
नहीं कभी जिनके घर में रहती
उनको ही अपना खुदा बनाया
हमने भी देखी उलटी गंगा बहती ।


खुद को किया है जिनके हवाले
करते निसदिन वो हैं घोटाले
उनको नज़र आता जिस्म नग्न
नहीं देखते पांव के कभी छाले ।

कला नहीं बाज़ार में कभी जाना
चाहे रूखी सूखी ही खाना
छूना मत गंदगी को भूले से
इन धोकों से खुद को है बचाना । 
 

 

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