अक्तूबर 30, 2013

POST : 373 भिखारी ( लघुकथा ) डॉ लोक सेतिया

            भिखारी ( लघुकथा ) डॉ लोक सेतिया

एक धनवान उस बस्ती में आया। ऊंची ऊंची आवाज़ में पुकारने लगा वहां रहने वालों को। आओ दान में मिलेंगे सभी को हीरे मोती , पैसा , कपड़े , खाने पीने का सामान। गली गली आवाज़ लगाई उसने मगर नहीं आया कोई भी उसके सामने हाथ फैलाने को। बहुत हैरान हुआ वो अपने धन पर अभिमान करने वाला। परेशान होकर उसने एक घर का दरवाज़ा खटखटाया। उस घर में रहने वाले से सवाल किया क्या यहां के लोगों को सुनाई नहीं देता , मैं कितनी देर से आवाज़ दे रहा हूं कोई भी बाहर नहीं निकला अपने घर से। क्या यहां किसी को भी धन कि ज़रूरत नहीं है। उस घर में रहने वालों ने कहा आप गलत जगह आ गये हैं। यहां पैसे की  ज़रूरत सब को होती है मगर सभी अपनी ज़रूरत खुद पूरी कर लेते हैं जैसे भी हो। इस बस्ती में हम सब स्वाभिमान पूर्वक रहते हैं , कोई भिखारी यहां नहीं रहता है। धनवान ने पूछा कि मैं भी चाहता हूं ऐसे नगर में रहना जहां कोई भी भिखारी नहीं हो। मुझे अगर घर चाहिये तो क्या करना होगा , मेरे पास बहुत धन दौलत है कितनी कीमत है यहां किसी घर की। जो भी मांगो देने को तैयार हूं। जवाब मिला अभी भी नहीं समझे यहां रहने के लिये दो बातों को छोड़ना पड़ता है , स्वार्थ को और अहंकार को। ये तो प्यार मुहब्बत की बस्ती है , इस में आकर रहना चाहो तो बड़े छोटे , अमीर गरीब के भेदभाव की बातें , अभिमान , अहंकार को छोड़ कर आओ। ये जो सब हीरे मोती पैसा जमा है उसे प्यार के सामने कंकर पत्थर समझना होगा। चाहे जैसे भी हालात हों , हर हाल में प्रसन्नता पूर्वक रह सकोगे , तभी यहां मिलेगा आपको इक घर इंसानियत की बस्ती में। खरीदना नहीं पड़ता घर , बनाना पड़ता है प्रेम और सदभाव से। धनवान वापस चल दिया था अपने उस नगर में जहां सब के सब भिखारी रहते हैं। 

कोई टिप्पणी नहीं: