जुलाई 04, 2013

कलम के कातिल ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

कलम के कातिल ( कविता )  डॉ लोक सेतिया 

आपके हाथ में रहती थी मैं
लिखा निडरता से हमेशा ही सत्य
नेताओं का भ्रष्टाचार
प्रशासन का अत्याचार
समाज का दोहरा चरित्र
सराहा आपने
अन्य सभी ने मेरी बातों को
प्रोत्साहित किया मुझे
आपने अपने अंदर दी जगह मुझे
मैं समझने लगी खुद को हिस्सा आपका
मेरी आवाज़ को अपनी आवाज़ बनाकर
मेरी पहचान करवाई दुनिया से
मेरे सच कहने के कायल हो
मुझे चाहने लगे लोग
जो कल तक अनजान थे मुझसे ।

आपका दावा रहा है सदा ही
निष्पक्षता का
विचारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी का
मैंने आपकी हर बात पर
कर लिया यकीन
और कर बैठी कितनी बड़ी भूल
आपके कड़वे सच को लिखकर
आपसे भी बेबाक सच कहने की
मगर आप नहीं कर सके स्वीकार
जीत गया आपका झूठ
मेरा सच
सच होते हुए भी गया था हार ।

आपने तोड़ डाला मुझे
सच लिखने वाली कलम को
और दिया फैंक चुपके से अपने कूड़ेदान में
आपने क़त्ल कर दिया मुझे
सच लिखने के अपराध में
मैं अभी भी हर दिन
सिसकती रहती हूं
आपके आस पास
मुझे नहीं दुःख
अपना दम घुटने का
यही रहा है हर कलम का नसीब
ग़म है इसका
कि मुझे किया क़त्ल आपने
जिसको समझा था
मैंने अपना रक्षक
सोचती थी मैं उन हाथों में हूं
जो स्वयं मिट कर भी
नहीं मिटने देंगे मुझे
मगर अब
आप ही मेरे कातिल
क़त्ल के गवाह भी
और आप ही करते हैं
हर दिन मेरा फैसला
देते हैं बार बार
सच लिखने की सज़ा
मैं करती हूं फरियाद
अपने ही कातिल से
रहम की मांगती हूं भीख
मैं इक कलम हूं
सच लिखने वाले
बेबस किसी लेखक की । 
 

 

कोई टिप्पणी नहीं: